Sunday, May 28, 2017

श्री गुरु अर्जुन देवजी शहीदी दिवस - 8 जून

श्री गुरु अर्जुन देवजी शहीदी दिवस - 8 जून

शक्ति और शांति के पुंज, शहीदों के सरताज, सिखों के पांचवें गुरु श्री अर्जुन देव जी की शहादत अतुलनीय है। मानवता के सच्चे सेवक, धर्म के रक्षक, शांत और गंभीर स्वभाव के स्वामी श्री गुरु अर्जुन देव जी अपने युग के सर्वमान्य लोकनायक थे। वह दिन-रात संगत की सेवा में लगे रहते थे। श्री गुरु अर्जुन देव जी सिख धर्म के पहले शहीद थे।
Arjun Dev Shahidi diwas

#भारतीय #दशगुरु परम्परा के #पंचम #गुरु श्री गुरु अर्जुनदेव जी गुरु #रामदास के #सुपुत्र थे। उनकी माता का नाम बीवी भानी जी था।
उनका जन्म 15 अप्रैल, 1563 ई. को हुआ था। प्रथम सितंबर 1581 को वे गुरु गद्दी पर विराजित हुए। 8 जून 1606 को उन्होंने #धर्म व सत्य की रक्षा के लिए 43 वर्ष की आयु में अपने प्राणों की आहुति दे दी। 

 संपादन कला के गुणी गुरु अर्जुन देव जी ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का संपादन भाई गुरदास की सहायता से किया। उन्होंने रागों के आधार पर श्री ग्रंथ साहिब जी में संकलित वाणियों का जो वर्गीकरण किया है, उसकी मिसाल मध्यकालीन धार्मिक ग्रंथों में दुर्लभ है। यह उनकी सूझ-बूझ का ही प्रमाण है कि श्री ग्रंथ साहिब जी में 36 महान वाणीकारों की वाणियां बिना किसी भेदभाव के संकलित हुई । श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के कुल 5894 शब्द हैं, जिनमें 2216 शब्द श्री गुरु अर्जुन देव जी महाराज के हैं। पवित्र बीड़ रचने का कार्य सम्वत 1660 में शुरू हुआ तथा 1661 सम्वत में यह कार्य संपूर्ण हो गया। 
 
 ग्रंथ साहिब के संपादन को लेकर कुछ असामाजिक तत्वों ने अकबर बादशाह के पास यह शिकायत की कि ग्रंथ में इस्लाम के खिलाफ लिखा गया है, लेकिन बाद में जब अकबर को वाणी की महानता का पता चला, तो उन्होंने भाई गुरदास एवं बाबा बुढ्ढाके माध्यम से 51 मोहरें भेंट कर खेद ज्ञापित किया।

#अकबर की सम्वत 1662 में हुई #मौत के बाद उसका पुत्र #जहांगीर गद्दी पर बैठा जो बहुत ही कट्टर विचारों वाला था। अपनी आत्मकथा ‘#तुजुके_जहांगीरी’ में उसने स्पष्ट लिखा है कि वह गुरु अर्जुन देव जी के बढ़ रहे प्रभाव से बहुत दुखी था। इसी दौरान जहांगीर का पुत्र #खुसरो बगावत करके आगरा से पंजाब की ओर आ गया।

,जहांगीर को यह सूचना मिली थी कि गुरु अर्जुन देव जी ने खुसरो की मदद की है इसलिए उसने15 मई 1606 ई. को गुरु जी को परिवार सहित पकड़ने का हुक्म जारी किया। उनका परिवार मुरतजाखान के हवाले कर घरबार लूट लिया गया। इसके बाद गुरु जी ने शहीदी प्राप्त की। अनेक कष्ट झेलते हुए गुरु जी शांत रहे, उनका मन एक बार भी कष्टों से नहीं घबराया।

गुरु अर्जुन देव जी को लाहौर में 8 जून 1606 ई. को भीषण गर्मी के दौरान ‘यासा’ के तहत लोहे की गर्म तवी पर बिठाकर #शहीद कर दिया गया। यासा के अनुसार किसी व्यक्ति का #रक्त #धरती पर गिराए बिना उसे यातनाएं देकर शहीद कर दिया जाता है।

 गुरु जी के शीश पर गर्म-गर्म रेत डाली गई। जब गुरु जी का शरीर अग्नि के कारण बुरी तरह से जल गया तो इन्हें ठंडे पानी वाले रावी दरिया में नहाने के लिए भेजा गया, जहां गुरु जी का पावन शरीर रावी में आलोप हो गया। जिस स्थान पर आप ज्योति ज्योत समाए उसी स्थान पर लाहौर में रावी नदी के किनारे गुरुद्वारा डेरा साहिब (जो अब पाकिस्तान में है) का निर्माण किया गया है। गुरुजी ने लोगों को #विनम्र रहने का #संदेश दिया। आप विनम्रता के पुंज थे। कभी भी आपने किसी को #दुर्वचन नहीं बोले।

 #गुरबाणी में आप फर्माते हैं :
‘तेरा कीता जातो नाही मैनो जोग कीतोई॥
मै निरगुणिआरे को गुण नाही आपे तरस पयोई॥
तरस पइया मिहरामत होई सतगुर साजण मिलया॥
नानक नाम मिलै ता जीवां तनु मनु थीवै हरिया॥’


श्री गुरु अर्जुनदेव जी की #शहादत के समय दिल्ली में मध्य एशिया के मुगल वंश के जहांगीर का राज था और उन्हें राजकीय कोप का ही शिकार होना पड़ा। जहांगीर ने श्री गुरु अर्जुनदेव जी को मरवाने से पहले उन्हें अमानवीय यातानाएं दी। 

मसलन चार दिन तक #भूखा रखा गया। ज्येष्ठ मास की तपती दोपहर में उन्हें तपते रेत पर बिठाया गया। उसके बाद खोलते पानी में रखा गया। परन्तु श्री गुरु अर्जुनदेव जी ने एक बार भी उफ तक नहीं की और इसे परमात्मा का विधान मानकर स्वीकार किया।

#बाबर ने तो श्री गुरु नानक जी को भी कारागार में रखा था। लेकिन श्री गुरु #नानकदेव जी ने तो पूरे देश में घूम-घूम कर हताश हुई जाति में नई प्राण चेतना फूंक दी। जहांगीर के अनुसार उनका परिवार #मुरतजाखान के हवाले कर लूट लिया गया। इसके बाद गुरु जी ने #शहीदी प्राप्त की। अनेक कष्ट झेलते हुए गुरु जी शांत रहे, उनका मन एक बार भी कष्टों से नहीं घबराया ।

तपता तवा उनके शीतल स्वभाव के सामने सुखदाई बन गया। तपती रेत ने भी उनकी निष्ठा भंग नहीं की। गुरु जी ने प्रत्येक कष्ट हंसते-हंसते झेलकर यही अरदास की-

तेरा कीआ मीठा लागे॥ हरि नामु पदारथ नाटीयनक मांगे॥

जहांगीर द्वारा श्री गुरु अर्जुनदेव जी को दिए गए #अमानवीय #अत्याचार और अन्त में उनकी मृत्यु जहांगीर की योजना का हिस्सा थी । श्री गुरु अर्जुनदेव जी जहांगीर की असली योजना के अनुसार ‘#इस्लाम के अन्दर’ तो क्या आते, इसलिए उन्होंने विरोचित शहादत के मार्ग का चयन किया। इधर जहांगीर की आगे की तीसरी पीढ़ी या फिर मुगल वंश के बाबर की छठी पीढ़ी औरंगजेब तक पहुंची। उधर श्री #गुरुनानकदेव जी की दसवीं पीढ़ी श्री गुरु गोविन्द सिंह तक पहुंची। 

यहां तक पहुंचते-पहुंचते ही श्री नानकदेव की दसवीं पीढ़ी ने मुगलवंश की नींव में #डायनामाईट रख दिया और उसके नाश का इतिहास लिख दिया।

#संसार जानता है कि मुट्ठी भर मरजीवड़े सिंघ रूपी खालसा ने 700 साल पुराने विदेशी वंशजों को मुगल राज सहित सदा के लिए #ठंडा कर दिया। 

100 वर्ष बाद महाराजा #रणजीत सिंह के नेतृत्व में भारत ने पुनः स्वतंत्रता की सांस ली। शेष तो कल का #इतिहास है, लेकिन इस पूरे संघर्षकाल में पंचम गुरु श्री गुरु अर्जुनदेव जी की #शहादत सदा सर्वदा सूर्य के ताप की तरह प्रखर रहेगी।

गुरु जी शांत और गंभीर स्वभाव के स्वामी थे। वे अपने युग के सर्वमान्य #लोकनायक थे । मानव-कल्याण के लिए उन्होंने आजीवन शुभ कार्य किए।

गुरु जी के शहीदी पर्व पर उन्हें याद करने का अर्थ है, धर्म की रक्षा आत्म-बलिदान देने को भी तैयार रहना। उन्होंने संदेश दिया कि महान जीवन मूल्यों के लिए आत्म-बलिदान देने को सदैव तैयार रहना चाहिए, तभी कौम और #राष्ट्र अपने गौरव के साथ जीवंत रह सकते हैं। 

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Saturday, May 27, 2017

महाराणा प्रताप जयंती 28 मई


महाराणा प्रताप जयंती 28 मई


महाराणा प्रतापका परिचय 
maharana pratap

जिनका नाम लेकर दिनका शुभारंभ करे, ऐसे नामोंमें एक हैं, महाराणा प्रताप । उनका नाम उन पराक्रमी राजाओंकी सूचिमें सुवर्णाक्षरोंमें लिखा गया है, जो देश, धर्म, संस्कृति तथा इस देशकी स्वतंत्रताकी रक्षा हेतु जीवनभर जूझते रहे ! उनकी वीरताकी पवित्र स्मृतिको यह विनम्र अभिवादन  है ।

मेवाडके महान राजा, महाराणा प्रताप सिंहका नाम कौन नहीं जानता ? भारतके इतिहासमें यह नाम वीरता, पराक्रम, त्याग तथा देशभक्ति जैसी विशेषताओं हेतु निरंतर प्रेरणादाई रहा है । मेवाडके सिसोदिया परिवारमें जन्मे अनेक पराक्रमी योद्धा, जैसे बाप्पा रावल, राणा हमीर, राणा संगको ‘राणा’ यह उपाधि दी गई; अपितु ‘ महाराणा ’ उपाधिसे  केवल प्रताप सिंहको सम्मानित किया गया ।
महाराणा प्रतापका बचपन 

महाराणा प्रतापका जन्म वर्ष 1540 में हुआ । मेवाडके राणा उदय सिंह, द्वितीय, के ३३ बच्चे थे । उनमें प्रताप सिंह सबसे बडे थे । स्वाभिमान तथा धार्मिक आचरण प्रताप सिंहकी विशेषता थी । महाराणा प्रताप बचपनसे ही ढीठ तथा बहादूर थे; बडा होनेपर यह एक महापराक्रमी पुरुष बनेगा, यह सभी जानते थे । सर्वसाधारण शिक्षा लेनेसे खेलकूद एवं हथियार बनानेकी कला सीखनेमें उसे अधिक रुचि थी ।

महाराणा प्रतापका राज्याभिषेक !

महाराणा प्रताप सिंहके कालमें देहलीपर अकबर बादशाहका शासन था । हिंदू राजाओंकी शक्तिका उपयोग कर दूसरे  हिंदू राजाओंको अपने नियंत्रणमें लाना, यह उसकी नीति थी । कई रजपूत राजाओंने अपनी महान परंपरा तथा लडनेकी वृत्ति छोडकर अपनी बहुओं तथा कन्याओंको अकबरके अंत:पूरमें भेजा ताकि उन्हें अकबरसे इनाम तथा मानसम्मान मिलें । अपनी मृत्यूसे पहले उदय सिंगने उनकी सबसे छोटी पत्नीका बेटा जगम्मलको राजा घोषित किया; जबकि प्रताप सिंह जगम्मलसे बडे थे, प्रभु रामचंद्र जैसे अपने छोटे भाईके लिए अपना अधिकार छोडकर मेवाडसे निकल जानेको तैयार थे । किंतु सभी सरदार राजाके निर्णयसे सहमत नहीं हुए । अत: सबने मिलकर यह निर्णय लिया कि जगमलको सिंहासनका त्याग करना पडेगा । महाराणा प्रताप सिंहने भी सभी सरदार तथा लोगोंकी इच्छाका आदर करते हुए मेवाडकी जनताका नेतृत्व करनेका दायित्व स्वीकार किया ।


महाराणा प्रतापकी अपनी मातृभूमिको मुक्त करानेकी अटूट प्रतिज्ञा !

महाराणा प्रताप का वजन 110 किलो, लम्बाई 7'5”थी, दो म्यान वाली तलवार और 80 किलो का भाला रखते थे ।

महाराणा प्रतापके शत्रुओंने मेवाडको चारों ओरसे घेर लिया था । महाराणा प्रतापके दो भाई, शक्ति सिंह एवं जगमल अकबरसे मिले हुए थे । सबसे बडी समस्या थी आमने- सामने लडने हेतु सेना खडी करना, जिसके लिए बहुत धनकी आवश्यकता थी ।

महाराणा प्रतापकी सारी संदूके खाली थीं, जबकी अकबरके पास बहुत बडी सेना, अत्यधिक संपत्ति तथा और भी सामग्री बडी मात्रामें थी । किंतु महाराणा प्रताप निराश नहीं हुए अथवा कभी भी ऐसा नहीं सोचा कि वे अकबरसे किसी बातमें न्यून(कम) हैं ।

महाराणा प्रतापको एक ही चिंता थी, अपनी मातभूमिको मुगलोंके चंगुलसे मुक्त कराणा था । एक दिन उ्न्होंने अपने विश्वासके सारे सरदारोंकी बैठक बुलाई तथा अपने गंभीर एवं वीरतासे भरे शब्दोंमें उनसे आवाहन किया । 

उन्होंने कहा,‘ मेरे बहादूर बंधुआ, अपनी मातृभूमि, यह पवित्र मेवाड अभी भी मुगलोंके चंगुलमें है । आज मैं आप सबके सामने प्रतिज्ञा करता हूं कि, जबतक चितौड मुक्त नहीं हो जाता, मैं सोने अथवा चांदीकी थालीमें खाना नहीं खाऊंगा, मुलायम गद्देपर नहीं सोऊंगा तथा राजप्रासादमें भी नहीं रहुंगा; इसकी अपेक्षा मैं पत्तलपर खाना खाउंगा, जमीनपर सोउंगा तथा झोपडेमें रहुंगा । जबतक चितौड मुक्त नहीं हो जाता, तबतक मैं दाढी भी नहीं बनाउंगा । मेरे पराक्रमी वीरों, मेरा विश्वास है कि आप अपने तन-मन-धनका त्याग कर यह प्रतिज्ञा पूरी होनेतक मेरा साथ दोगे । 

अपने राजाकी प्रतिज्ञा सुनकर सभी सरदार प्रेरित हो गए, तथा उन्होंने अपने राजाकी तन-मन-धनसे सहायता करेंगे तथा शरीरमें  रक्तकी आखरी बूंदतक उसका साथ देंगे; किसी भी परिस्थितिमें मुगलोंसे चितौड मुक्त होनेतक अपने ध्येयसे नहीं हटेंगे, ऐसी प्रतिज्ञा की  । उन्होंने महाराणासे कहा, विश्वास करो, हम सब आपके साथ हैं, आपके एक संकेतपर अपने प्राण न्यौछावर कर देंगे ।

अकबर अपने महल में जब वह सोता था तब महाराणा प्रताप का नाम सुनकर रात में नींद में कांपने लगता था। अकबर की हालत देख उसकी पत्नियां भी घबरा जाती, इस दौरान वह जोर-जोर से महाराणा प्रताप का नाम लेता था।

हल्दीघाटकी लडाई महाराणा प्रताप एक महान योद्धा 

अकबरने महाराणा प्रतापको अपने चंगुलमें लानेका अथक प्रयास किया किंतु सब व्यर्थ सिद्ध हुआ! महाराणा प्रतापके साथ जब कोई समझौता नहीं हुआ, तो अकबर अत्यंत क्रोधित हुआ और उसने युद्ध घोषित किया । महाराणा प्रतापने भी सिद्धताएं आरंभ कर दी । उसने अपनी राजधानी अरवली पहाडके दुर्गम क्षेत्र कुंभलगढमें स्थानांतरित की । महाराणा प्रतापने अपनी सेनामें आदिवासी तथा जंगलोंमें रहनेवालोंको भरती किया । इन लोगोंको युद्धका कोई  अनुभव नहीं था, किंतु उसने उन्हें प्रशिक्षित किया । उसने सारे रजपूत सरदारोंको मेवाडके स्वतंत्रताके झंडेके नीचे इकट्ठा होने हेतु आवाहन किया ।

महाराणा प्रतापके 22,000 सैनिक अकबरकी 80,000 सेनासे हल्दीघाटमें भिडे । महाराणा प्रताप तथा उसके सैनिकोंने युद्धमें बडा पराक्रम दिखाया किंतु उसे पीछे हटना पडा। अकबरकी सेना भी राणा प्रतापकी सेनाको पूर्णरूपसे पराभूत करनेमें असफल रही । महाराणा प्रताप एवं उसका विश्वसनीय घोडा ‘ चेतक ’ इस युद्धमें अमर हो गए । हल्दीघाटके युद्धमें ‘ चेतक ’ गंभीर रुपसे घायल हो गया था; किंतु अपने स्वामीके प्राण बचाने हेतु उसने एक नहरके उस पार लंबी छलांग लगाई । नहरके पार होते ही ‘ चेतक ’ गिर गया और वहीं उसकी मृत्यु  हुई । इस प्रकार अपने प्राणोंको संकटमें डालकर उसने राणा प्रतापके प्राण बचाएं । लोहपुरुष महाराणा अपने विश्वसनीय घोडेकी मृत्यूपर एक बच्चेकी तरह फूट-फूटकर रोया । 

तत्पश्चात जहां चेतकने अंतिम सांस ली थी वहां उसने एक सुंदर उद्यानका निर्माण किया । अकबरने महाराणा प्रतापपर आक्रमण किया किंतु छह महिने युद्धके उपरांत भी अकबर महाराणाको पराभूत न कर सका; तथा वह देहली लौट गया । अंतिम उपायके रूपमें अकबरने एक पराक्रमी योद्धा सरसेनापति जगन्नाथको 1584 में बहुत बडी सेनाके साथ मेवाडपर भेजा, दो वर्षके अथक प्रयासोंके पश्चात भी वह राणा प्रतापको नहीं पकड सका ।

महाराणा प्रतापका कठोर प्रारब्ध

जंगलोंमें तथा पहाडोंकी घाटियोंमें भटकते हुए राणा प्रताप अपना परिवार अपने साथ रखते थे । शत्रूके कहींसे भी तथा कभी भी आक्रमण करनेका संकट सदैव  बना रहता था । जंगलमें ठीकसे खाना प्राप्त होना बडा कठिन था । कई बार उन्हें खाना छोडकर, बिना खाए-पिए ही प्राण बचाकर जंगलोंमें भटकना पडता था । 

शत्रूके आनेकी खबर मिलते ही एक स्थानसे दूसरे स्थानकी ओर भागना पडता था । वे सदैव किसी न किसी संकटसे घिरे रहते थे ।  एक बार महारानी जंगलमें रोटियां  सेंक रही थी; उनके खानेके बाद उसने अपनी बेटीसे कहा कि, बची हुई रोटी रातके खानेके लिए रख दे; किंतु उसी समय एक जंगली बिल्लीने झपट्टा मारकर रोटी छीन ली और राजकन्या असहायतासे रोती रह गई । रोटीका वह टुकडा भी उसके प्रारब्धमें नहीं था । राणा प्रतापको बेटीकी यह स्थिति देखकर बडा दुख हुआ, अपनी वीरता, स्वाभिमानपर उसे बहुत क्रोध आया तथा विचार करने लगा कि उसका युद्ध करना कहांतक उचित है ! मनकी इस द्विधा स्थितिमें उसने अकबरके साथ समझौता करनेकी बात मान ली । 

पृथ्वीराज, अकबरके दरबारका एक कवी जिसे राणा प्रताप बडा प्रिय था, उसने राजस्थानी भाषामें राणा प्रतापका आत्मविश्वास बढाकर उसे अपने निर्णयसे परावृत्त करनेवाला पत्र कविताके रुपमें लिखा । पत्र पढकर राणा प्रतापको लगा जैसे उसे 10,000 सैनिकोंका बल प्राप्त हुआ हो । उसका मन स्थिर तथा शांत हुआ । अकबरकी  शरणमें जानेका विचार उसने अपने मनसे निकाल दिया तथा अपने ध्येयसिद्धि हेतु सेना अधिक संगठित करनेके प्रयास आरंभ किए ।

भामाशाहकी महाराणाके प्रति भक्ति महाराणा प्रतापके वंशजोेंके दरबारमें एक रजपूत सरदार था । राणा प्रताप जिन संकटोंसे मार्गक्रमण रहा था तथा जंगलोंमें भटक रहा था, इससे वह बडा दुखी हुआ । उसने राणा प्रतापको  ढेर सारी संपत्ति दी, जिससे वह 25,000 की सेना 12 वर्षतक रख सके । महाराणा प्रतापको बडा आनंद हुआ एवं कृतज्ञता भी लगी ।

आरंभमें महाराणा प्रतापने भामाशाहकी सहायता स्वीकार करनेसे मना किया किंतु उनके बार-बार कहनेपर राणाने संपात्तिका स्वीकार किया । भामाशाहसे धन प्राप्त होनेके पश्चात राणा प्रतापको दूसरे स्रोतसे धन प्राप्त होना आरंभ हुआ । उसने सारा धन अपनी सेनाका विस्तार करनेमें लगाया तथा चितोड छोडकर मेवाडको मुक्त किया ।

अपने शासनकाल में उन्होने युद्ध में उजड़े गाँवों को पुनः व्यवस्थित किया। नवीन राजधानी चावण्ड को अधिक आकर्षक बनाने का श्रेय महाराणा प्रताप को जाता है। राजधानी के भवनों पर कुम्भाकालीन स्थापत्य की अमिट छाप देखने को मिलती है। पद्मिनी चरित्र की रचना तथा दुरसा आढा की कविताएं महाराणा प्रताप के युग को आज भी अमर बनाये हुए हैं।

महाराणा प्रतापकी अंतिम इच्छा

महाराणा प्रतापकी मृत्यु हो रही थी, तब वे घासके बिछौनेपर सोए थे, क्योंकि चितोडको मुक्त करनेकी उनकी प्रतिज्ञा पूरी नहीं हुई थी । अंतिम क्षण उन्होंने अपने बेटे अमर सिंहका हाथ अपने हाथमें लिया तथा चितोडको मुक्त करनेका दायित्व  उसे सौंपकर शांतिसे परलोक सिधारे । क्रूर बादशाह अकबरके साथ उनके युद्धकी इतिहासमें कोई तुलना नहीं । जब लगभग पूरा राजस्थान मुगल बादशाह अकबरके नियंत्रणमें था, महाराणा प्रतापने मेवाडको बचानेके लिए 12 वर्ष युद्ध किया । 

अकबरने महाराणाको पराभूत करनेके लिए बहुत प्रयास किए किंतु अंततक वह अपराजित ही रहा । इसके अतिरिक्त उसने राजस्थानका बहुत बडा क्षेत्र मुगलोंसे मुक्त किया । कठिन संकटोंसे जानेके पश्चात भी उसने अपना तथा अपनी मातृभूमिका नाम पराभूत होनेसे बचाया । उनका पूरा जीवन इतना उज्वल था कि स्वतंत्रताका दूसरा नाम ‘ महाराणा प्रताप ’ हो सकता है । उनकी पराक्रमी स्मृतिको हम श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ।


महाराणा प्रताप में अच्छे सेनानायक के गुणों के साथ-साथ अच्छे व्यस्थापक की विशेषताएँ भी थी। अपने सीमित साधनों से ही अकबर जैसी शक्ति से दीर्घ काल तक टक्कर लेने वाले वीर महाराणा प्रताप की मृत्यु पर अकबर भी दुःखी हुआ था। 

आज भी महाराणा प्रताप का नाम असंख्य भारतीयों के लिये #प्रेरणास्रोत है। राणा प्रताप का स्वाभिमान भारत माता की पूंजी है। वह अजर अमरता के गौरव तथा मानवता के विजय सूर्य है। राणा प्रताप की देशभक्ति, पत्थर की अमिट लकीर है। ऐसे #पराक्रमी भारत माँ के वीर सपूत महाराणा प्रताप को #राष्ट्र का #शत्-शत् नमन।

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Thursday, May 25, 2017

गंगा दशहरा प्रारम्भ : 26 मई, समाप्त : 4 जून

मां गंगा की महिमा

गंगा दशहरा प्रारम्भ : 26 मई, समाप्त : 4 जून

गंगा नदी उत्तर भारतकी केवल जीवनरेखा नहीं, अपितु हिंदू धर्मका सर्वोत्तम तीर्थ है । ‘आर्य सनातन वैदिक संस्कृति’ गंगाके तटपर विकसित हुई, इसलिए गंगा हिंदुस्थानकी राष्ट्ररूपी अस्मिता है एवं भारतीय संस्कृतिका मूलाधार है । इस कलियुगमें श्रद्धालुओंके पाप-ताप नष्ट हों, इसलिए ईश्वरने उन्हें इस धरापर भेजा है । वे प्रकृतिका बहता जल नहीं; अपितु सुरसरिता (देवनदी) हैं । उनके प्रति हिंदुओंकी आस्था गौरीशंकरकी भांति सर्वोच्च है । गंगाजी मोक्षदायिनी हैं; इसीलिए उन्हें गौरवान्वित करते हुए पद्मपुराणमें (खण्ड ५, अध्याय ६०, श्लोक ३९) कहा गया है, ‘सहज उपलब्ध एवं मोक्षदायिनी गंगाजीके रहते विपुल धनराशि व्यय (खर्च) करनेवाले यज्ञ एवं कठिन तपस्याका क्या लाभ ?’ नारदपुराणमें तो कहा गया है, ‘अष्टांग योग, तप एवं यज्ञ, इन सबकी अपेक्षा गंगाजीका निवास उत्तम है । गंगाजी भारतकी पवित्रताकी सर्वश्रेष्ठ केंद्रबिंदु हैं, उनकी महिमा अवर्णनीय है ।’
ganga dashahara

मां गंगा का #ब्रह्मांड में उत्पत्ति

‘वामनावतारमें श्रीविष्णुने दानवीर बलीराजासे भिक्षाके रूपमें तीन पग भूमिका दान मांगा । राजा इस बातसे अनभिज्ञ था कि श्रीविष्णु ही वामनके रूपमें आए हैं, उसने उसी क्षण वामनको तीन पग भूमि दान की । वामनने विराट रूप धारण कर पहले पगमें संपूर्ण पृथ्वी तथा दूसरे पगमें अंतरिक्ष व्याप लिया । दूसरा पग उठाते समय वामनके ( #श्रीविष्णुके) बाएं पैरके अंगूठेके धक्केसे ब्रह्मांडका सूक्ष्म-जलीय कवच (टिप्पणी १) टूट गया । उस छिद्रसे गर्भोदककी भांति ‘ब्रह्मांडके बाहरके सूक्ष्म-जलनेब्रह्मांडमें प्रवेश किया । यह सूक्ष्म-जल ही गंगा है ! गंगाजीका यह प्रवाह सर्वप्रथम सत्यलोकमें गया ।ब्रह्मदेवने उसे अपने कमंडलु में धारण किया । तदुपरांत सत्यलोकमें ब्रह्माजीने अपने कमंडलुके जलसे श्रीविष्णुके चरणकमल धोए । उस जलसे गंगाजीकी उत्पत्ति हुई । तत्पश्चात गंगाजी की यात्रा सत्यलोकसे क्रमशः #तपोलोक, #जनलोक, #महर्लोक, इस मार्गसे #स्वर्गलोक तक हुई ।

पृथ्वी पर उत्पत्ति

 #सूर्यवंशके राजा सगरने #अश्वमेध यज्ञ आरंभ किया । उन्होंने दिग्विजयके लिए यज्ञीय अश्व भेजा एवं अपने ६० सहस्त्र पुत्रोंको भी उस अश्वकी रक्षा हेतु भेजा । इस यज्ञसे भयभीत इंद्रदेवने यज्ञीय अश्वको कपिलमुनिके आश्रमके निकट बांध दिया । जब सगरपुत्रोंको वह अश्व कपिलमुनिके आश्रमके निकट प्राप्त हुआ, तब उन्हें लगा, ‘कपिलमुनिने ही अश्व चुराया है ।’ इसलिए सगरपुत्रोंने ध्यानस्थ कपिलमुनिपर आक्रमण करनेकी सोची । कपिलमुनिको अंतर्ज्ञानसे यह बात ज्ञात हो गई तथा अपने नेत्र खोले । उसी क्षण उनके नेत्रोंसे प्रक्षेपित तेजसे सभी सगरपुत्र भस्म हो गए । कुछ समय पश्चात सगरके प्रपौत्र राजा अंशुमनने सगरपुत्रोंकी मृत्युका कारण खोजा एवं उनके उद्धारका मार्ग पूछा । कपिलमुनिने अंशुमनसे कहा, ‘`गंगाजीको स्वर्गसे भूतलपर लाना होगा । सगरपुत्रोंकी अस्थियोंपर जब गंगाजल प्रवाहित होगा, तभी उनका उद्धार होगा !’’ मुनिवरके बताए अनुसार गंगाको पृथ्वीपर लाने हेतु अंशुमनने तप आरंभ किया ।’  ‘अंशुमनकी मृत्युके पश्चात उसके सुपुत्र राजा दिलीपने भी गंगावतरणके लिए तपस्या की । #अंशुमन एवं दिलीपके सहस्त्र वर्ष तप करनेपर भी गंगावतरण नहीं हुआ; परंतु तपस्याके कारण उन दोनोंको स्वर्गलोक प्राप्त हुआ ।’ (वाल्मीकिरामायण, काण्ड १, अध्याय ४१, २०-२१)

‘राजा दिलीपकी #मृत्युके पश्चात उनके पुत्र राजा भगीरथने कठोर तपस्या की । उनकी इस तपस्यासे प्रसन्न होकर गंगामाताने भगीरथसे कहा, ‘‘मेरे इस प्रचंड प्रवाहको सहना पृथ्वीके लिए कठिन होगा । अतः तुम भगवान शंकरको प्रसन्न करो ।’’ आगे भगीरथकी घोर तपस्यासे भगवान शंकर प्रसन्न हुए तथा भगवान शंकरने गंगाजीके प्रवाहको जटामें धारण कर उसे पृथ्वीपर छोडा । इस प्रकार हिमालयमें अवतीर्ण गंगाजी भगीरथके पीछे-पीछे #हरद्वार, प्रयाग आदि स्थानोंको पवित्र करते हुए बंगालके उपसागरमें (खाडीमें) लुप्त हुईं ।’

ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष, दशमी तिथि, भौमवार (मंगलवार) एवं हस्त नक्षत्रके शुभ योगपर #गंगाजी स्वर्गसे धरतीपर अवतरित हुईं ।  जिस दिन #गंगा पृथ्वी पर अवतरित हुईं वह दिन ‘गंगा दशहरा’ के नाम से जाना जाता है । 

जगद्गुरु आद्य शंकराचार्यजी, जिन्होंने कहा है : एको ब्रह्म द्वितियोनास्ति । द्वितियाद्वैत भयं भवति ।। उन्होंने भी ‘गंगाष्टक’ लिखा है, गंगा की महिमा गायी है । रामानुजाचार्य, रामानंद स्वामी, चैतन्य महाप्रभु और स्वामी रामतीर्थ ने भी गंगाजी की बड़ी महिमा गायी है । कई साधु-संतों, अवधूत-मंडलेश्वरों और जती-जोगियों ने गंगा माता की कृपा का अनुभव किया है, कर रहे हैं तथा बाद में भी करते रहेंगे ।

अब तो विश्व के #वैज्ञानिक भी गंगाजल का परीक्षण कर दाँतों तले उँगली दबा रहे हैं ! उन्होंने दुनिया की तमाम नदियों के जल का परीक्षण किया परंतु गंगाजल में रोगाणुओं को नष्ट करने तथा आनंद और सात्त्विकता देने का जो अद्भुत गुण है, उसे देखकर वे भी आश्चर्यचकित हो उठे । 

 #हृषिकेश में स्वास्थ्य-अधिकारियों ने पुछवाया कि यहाँ से हैजे की कोई खबर नहीं आती, क्या कारण है ? उनको बताया गया कि यहाँ यदि किसीको हैजा हो जाता है तो उसको गंगाजल पिलाते हैं । इससे उसे दस्त होने लगते हैं तथा हैजे के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं और वह स्वस्थ हो जाता है । वैसे तो हैजे के समय घोषणा कर दी जाती है कि पानी उबालकर ही पियें । किंतु गंगाजल के पान से तो यह रोग मिट जाता है और केवल हैजे का रोग ही मिटता है ऐसी बात नहीं है, अन्य कई रोग भी मिट जाते हैं । तीव्र व दृढ़ श्रद्धा-भक्ति हो तो गंगास्नान व गंगाजल के पान से जन्म-मरण का रोग भी मिट सकता है । 

सन् 1947 में जलतत्त्व विशेषज्ञ कोहीमान भारत आया था । उसने वाराणसी से #गंगाजल लिया । उस पर अनेक परीक्षण करके उसने विस्तृत लेख लिखा, जिसका सार है - ‘इस जल में कीटाणु-रोगाणुनाशक विलक्षण शक्ति है ।’ 

दुनिया की तमाम #नदियों के जल का विश्लेषण करनेवाले बर्लिन के डॉ. जे. ओ. लीवर ने सन् 1924 में ही गंगाजल को विश्व का सर्वाधिक स्वच्छ और #कीटाणु-रोगाणुनाशक जल घोषित कर दिया था । 

‘आइने अकबरी’ में लिखा है कि ‘अकबर गंगाजल मँगवाकर आदरसहित उसका पान करते थे । वे गंगाजल को अमृत मानते थे ।’ औरंगजेब और मुहम्मद तुगलक भी गंगाजल का पान करते थे । शाहनवर के नवाब केवल गंगाजल ही पिया करते थे ।

कलकत्ता के हुगली जिले में पहुँचते-पहुँचते तो बहुत सारी नदियाँ, झरने और नाले गंगाजी में मिल चुके होते हैं । अंग्रेज यह देखकर हैरान रह गये कि हुगली जिले से भरा हुआ गंगाजल दरियाई मार्ग से यूरोप ले जाया जाता है तो भी कई-कई दिनों तक वह बिगड़ता नहीं है । जबकि यूरोप की कई बर्फीली नदियों का पानी हिन्दुस्तान लेकर आने तक खराब हो जाता है । 

अभी रुड़की विश्वविद्यालय के #वैज्ञानिक कहते हैं कि ‘गंगाजल में जीवाणुनाशक और हैजे के कीटाणुनाशक तत्त्व विद्यमान हैं ।’ 

फ्रांसीसी चिकित्सक हेरल ने देखा कि गंगाजल से कई रोगाणु नष्ट हो जाते हैं । फिर उसने गंगाजल को कीटाणुनाशक औषधि मानकर उसके इंजेक्शन बनाये और जिस रोग में उसे समझ न आता था कि इस रोग का कारण कौन-से कीटाणु हैं, उसमें गंगाजल के वे इंजेक्शन रोगियों को दिये तो उन्हें लाभ होने लगा !
संत #तुलसीदासजी कहते हैं :
गंग सकल मुद मंगल मूला । सब सुख करनि हरनि सब सूला ।।
(श्रीरामचरित. अयो. कां. : 86.2)

सभी सुखों को देनेवाली और सभी शोक व दुःखों को हरनेवाली माँ गंगा के तट पर स्थित तीर्थों में पाँच तीर्थ विशेष आनंद-उल्लास का अनुभव कराते हैं : गंगोत्री, हर की पौड़ी (हरिद्वार),  #प्रयागराज त्रिवेणी, काशी और #गंगासागर । #गंगादशहरे के दिन गंगा में गोता मारने से सात्त्विकता, प्रसन्नता और विशेष पुण्यलाभ होता है ।

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Wednesday, May 24, 2017

वटसावित्री व्रत - अमावस्यांत पक्ष : 25 मई/वटसावित्री व्रतारम्भ (पूर्णिमांत पक्ष) : 6 जून

वटसावित्री-व्रत
 
वटसावित्री व्रत - अमावस्यांत पक्ष : 25 मई/वटसावित्री व्रतारम्भ (पूर्णिमांत पक्ष) : 6 जून 
वट पूर्णिमा : 8 जून

24 मई 2017


यह व्रत ‘स्कंद’ और ‘भविष्योत्तर’ पुराणाेंके अनुसार ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमापर और ‘निर्णयामृत’ इत्यादि ग्रंथोंके अनुसार अमावस्यापर किया जाता है । उत्तरभारतमें प्रायः अमावस्याको यह व्रत किया जाता है । अतः महाराष्ट्रमें इसे ‘वटपूर्णिमा’ एवं उत्तरभारतमें इसे ‘वटसावित्री’के नामसे जाना जाता है ।
वटसावित्री-व्रत


🚩पतिके सुख-दुःखमें सहभागी होना, उसे संकटसे बचानेके लिए प्रत्यक्ष ‘काल’को भी चुनौती देनेकी सिद्धता रखना, उसका साथ न छोडना एवं दोनोंका जीवन सफल बनाना, ये स्त्रीके महत्त्वपूर्ण गुण हैं । 

🚩सावित्रीमें ये सभी गुण थे । सावित्री अत्यंत तेजस्वी तथा दृढनिश्चयी थीं । आत्मविश्वास एवं उचित निर्णयक्षमता भी उनमें थी । राजकन्या होते हुए भी सावित्रीने दरिद्र एवं अल्पायु सत्यवानको पतिके रूपमें अपनाया था; तथा उनकी मृत्यु होनेपर यमराजसे शास्त्रचर्चा कर उन्होंने अपने पतिके लिए जीवनदान प्राप्त किया था । जीवनमें यशस्वी होनेके लिए सावित्रीके समान सभी सद्गुणोंको आत्मसात करना ही वास्तविक अर्थोंमें वटसावित्री व्रतका पालन करना है ।

🚩वृक्षों में भी भगवदीय चेतना का वास है, ऐसा दिव्य ज्ञान #वृक्षोपासना का आधार है । इस उपासना ने स्वास्थ्य, प्रसन्नता, सुख-समृद्धि, आध्यात्मिक उन्नति एवं पर्यावरण संरक्षण में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है ।

🚩वातावरण में विद्यमान हानिकारक तत्त्वों को नष्ट कर वातावरण को शुद्ध करने में वटवृक्ष का विशेष महत्त्व है । वटवृक्ष के नीचे का छायादार स्थल एकाग्र मन से जप, ध्यान व उपासना के लिए प्राचीन काल से साधकों एवं #महापुरुषों का प्रिय स्थल रहा है । यह दीर्घ काल तक अक्षय भी बना रहता है । इसी कारण दीर्घायु, अक्षय सौभाग्य, जीवन में स्थिरता तथा निरन्तर अभ्युदय की प्राप्ति के लिए इसकी आराधना की जाती है ।

🚩वटवृक्ष के दर्शन, स्पर्श तथा सेवा से पाप दूर होते हैं; दुःख, समस्याएँ तथा रोग जाते रहते हैं । अतः इस वृक्ष को रोपने से अक्षय पुण्य-संचय होता है । वैशाख आदि पुण्यमासों में इस वृक्ष की जड़ में जल देने से पापों का नाश होता है एवं नाना प्रकार की सुख-सम्पदा प्राप्त होती है । 

🚩इसी वटवृक्ष के नीचे सती सावित्री ने अपने पातिव्रत्य के बल से यमराज से अपने मृत पति को पुनः जीवित करवा लिया था । तबसे ‘#वट-सावित्री’ नामक #व्रत मनाया जाने लगा । इस दिन महिलाएँ अपने #अखण्ड #सौभाग्य एवं कल्याण के लिए व्रत करती हैं । 


🚩व्रत-कथा : सावित्री मद्र देश के राजा अश्वपति की पुत्री थी । द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान से उसका विवाह हुआ था । विवाह से पहले देवर्षि नारदजी ने कहा था कि सत्यवान केवल वर्ष भर जीयेगा । किंतु सत्यवान को एक बार मन से पति स्वीकार कर लेने के बाद दृढ़व्रता सावित्री ने अपना निर्णय नहीं बदला और एक वर्ष तक पातिव्रत्य धर्म में पूर्णतया तत्पर रहकर अंधेे सास-ससुर और अल्पायु पति की प्रेम के साथ सेवा की । वर्ष-समाप्ति  के  दिन  सत्यवान  और  सावित्री समिधा लेने के लिए वन में गये थे । वहाँ एक विषधर सर्प ने सत्यवान को डँस लिया । वह बेहोश  होकर  गिर  गया । यमराज आये और सत्यवान के सूक्ष्म शरीर को ले जाने लगे । तब सावित्री भी अपने पातिव्रत के बल से उनके पीछे-पीछे जाने लगी । 

🚩यमराज द्वारा उसे वापस जाने के लिए कहने पर सावित्री बोली :
‘‘जहाँ जो मेरे पति को ले जाय या जहाँ मेरा पति स्वयं जाय, मैं भी वहाँ जाऊँ यह सनातन धर्म है । तप, गुरुभक्ति, पतिप्रेम और आपकी कृपा से मैं कहीं रुक नहीं सकती । #तत्त्व को जाननेवाले विद्वानों ने सात स्थानों पर मित्रता कही है । मैं उस मैत्री को दृष्टि में रखकर कुछ कहती हूँ, सुनिये । लोलुप व्यक्ति वन में रहकर धर्म का आचरण नहीं कर सकते और न ब्रह्मचारी या संन्यासी ही हो सकते हैं । 

🚩विज्ञान (आत्मज्ञान के अनुभव) के लिए धर्म को कारण कहा करते हैं, इस कारण संतजन धर्म को ही प्रधान मानते हैं । संतजनों के माने हुए एक ही धर्म से हम दोनों श्रेय मार्ग को पा गये हैं ।’’

🚩सावित्री के वचनों से प्रसन्न हुए #यमराज से सावित्री ने अपने ससुर के अंधत्व-निवारण व बल-तेज की प्राप्ति का वर पाया । 

🚩सावित्री बोली : ‘‘#संतजनों के सान्निध्य की सभी इच्छा किया करते हैं । संतजनों का साथ निष्फल नहीं होता, इस कारण सदैव संतजनों का संग करना चाहिए ।’’

🚩यमराज : ‘‘तुम्हारा वचन मेरे मन के अनुकूल, बुद्धि और बल वर्धक तथा हितकारी है । पति के जीवन के सिवा कोई वर माँग ले ।’’

🚩सावित्री ने श्वशुर के छीने हुए राज्य को वापस पाने का वर पा लिया ।

🚩सावित्री : ‘‘आपने प्रजा को नियम में बाँध रखा है, इस कारण आपको यम कहते हैं । आप मेरी बात सुनें । मन-वाणी-अन्तःकरण से किसीके साथ वैर न करना, दान देना, आग्रह का त्याग करना - यह संतजनों का सनातन धर्म है । संतजन वैरियों पर भी दया करते देखे जाते हैं ।’’

🚩यमराज बोले : ‘‘जैसे प्यासे को पानी, उसी तरह तुम्हारे वचन मुझे लगते हैं । पति के जीवन के सिवाय दूसरा कुछ माँग ले ।’’

🚩सावित्री ने अपने निपूत पिता के सौ औरस कुलवर्धक पुत्र हों ऐसा वर पा लिया ।

🚩सावित्री बोली : ‘‘चलते-चलते मुझे कुछ बात याद आ गयी है, उसे भी सुन लीजिये । आप आदित्य के प्रतापी पुत्र हैं, इस कारण आपको विद्वान पुरुष ‘वैवस्वत’ कहते हैं । आपका बर्ताव प्रजा के साथ समान भाव से है, इस कारण आपको ‘धर्मराज’ कहते हैं । मनुष्य को अपने पर भी उतना विश्वास नहीं होता जितना संतजनों में हुआ करता है । इस कारण संतजनों पर सबका प्रेम होता है ।’’ 

🚩यमराज बोले : ‘‘जो तुमने सुनाया है ऐसा मैंने कभी नहीं सुना ।’’

🚩प्रसन्न यमराज से सावित्री ने वर के रूप में सत्यवान से ही बल-वीर्यशाली सौ औरस पुत्रों की प्राप्ति का वर प्राप्त किया । फिर बोली : ‘‘संतजनों की वृत्ति सदा धर्म में ही रहती है । #संत ही सत्य से सूर्य को चला रहे हैं, तप से पृथ्वी को धारण कर रहे हैं । संत ही भूत-भविष्य की गति हैं । संतजन दूसरे पर उपकार करते हुए प्रत्युपकार की अपेक्षा नहीं रखते । उनकी कृपा कभी व्यर्थ नहीं जाती, न उनके साथ में धन ही नष्ट होता है, न मान ही जाता है । ये बातें संतजनों में सदा रहती हैं, इस कारण वे रक्षक होते हैं ।’’

🚩यमराज बोले : ‘‘ज्यों-ज्यों तू मेरे मन को अच्छे लगनेवाले अर्थयुक्त सुन्दर धर्मानुकूल वचन बोलती है, त्यों-त्यों मेरी तुझमें अधिकाधिक भक्ति होती जाती है । अतः हे पतिव्रते और वर माँग ।’’ 

🚩सावित्री बोली : ‘‘मैंने आपसे पुत्र दाम्पत्य योग के बिना नहीं माँगे हैं, न मैंने यही माँगा है कि किसी दूसरी रीति से पुत्र हो जायें । इस कारण आप मुझे यही वरदान दें कि मेरा पति जीवित हो जाय क्योंकि पति के बिना मैं मरी हुई हूँ । पति के बिना मैं सुख, स्वर्ग, श्री और जीवन कुछ भी नहीं चाहती । आपने मुझे सौ पुत्रों का वर दिया है व आप ही मेरे पति का हरण कर रहे हैं, तब आपके वचन कैसे सत्य होंगे ? मैं वर माँगती हूँ कि सत्यवान जीवित हो जायें । इनके जीवित होने पर आपके ही वचन सत्य होंगे ।’’

🚩यमराज ने परम प्रसन्न होकर ‘ऐसा ही हो’ यह  कह  के  सत्यवान  को  मृत्युपाश  से  मुक्त कर दिया ।

🚩व्रत-विधि : इसमें #वटवृक्ष की पूजा की जाती है । विशेषकर सौभाग्यवती महिलाएँ श्रद्धा के साथ ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी से पूर्णिमा तक अथवा कृष्ण त्रयोदशी से अमावास्या तक तीनों दिन अथवा मात्र अंतिम दिन व्रत-उपवास रखती हैं । यह कल्याणकारक  व्रत  विधवा,  सधवा,  बालिका, वृद्धा, सपुत्रा, अपुत्रा सभी स्त्रियों को करना चाहिए ऐसा ‘स्कंद पुराण’ में आता है । 
🚩प्रथम दिन संकल्प करें कि ‘मैं मेरे पति और पुत्रों की आयु, आरोग्य व सम्पत्ति की प्राप्ति के लिए एवं जन्म-जन्म में सौभाग्य की प्राप्ति के लिए वट-सावित्री व्रत करती हूँ ।’

🚩वट  के  समीप  भगवान #ब्रह्माजी,  उनकी अर्धांगिनी सावित्री देवी तथा सत्यवान व सती सावित्री के साथ #यमराज का पूजन कर ‘नमो वैवस्वताय’ इस मंत्र को जपते हुए वट की परिक्रमा करें । इस समय वट को 108 बार या यथाशक्ति सूत का धागा लपेटें । फिर निम्न मंत्र से #सावित्री को अर्घ्य दें ।
🚩अवैधव्यं च  सौभाग्यं देहि  त्वं मम  सुव्रते । पुत्रान् पौत्रांश्च सौख्यं च गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते ।।
🚩निम्न श्लोक से वटवृक्ष की प्रार्थना कर गंध, फूल, अक्षत से उसका पूजन करें । 
वट  सिंचामि  ते  मूलं सलिलैरमृतोपमैः । यथा शाखाप्रशाखाभिर्वृद्धोऽसि त्वं महीतले ।
तथा पुत्रैश्च पौत्रैश्च सम्पन्नं कुरु मां सदा ।। 

🚩#भारतीय #संस्कृति #वृक्षों  में  भी  छुपी  हुई भगवद्सत्ता  का  ज्ञान  करानेवाली,  ईश्वर  की सर्वश्रेष्ठ कृति- मानव के जीवन में आनन्द, उल्लास एवं चैतन्यता भरनेवाली है ।

🚩(स्त्रोत्र : संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित ऋषि प्रसाद, जून 2007)

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