02 अप्रैल 2021
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शिया वक्फ बोर्ड के पूर्व चेयरमैन सैयद वसीम रिजवी द्वारा उच्चतम न्यायालय में दी गई याचिका चर्चा में है। इसमें कुरान से 26 आयतें हटाने का निवेदन है। रिजवी के अनुसार इनका इस्तेमाल ‘आतंकवाद, हिंसा और जिहाद फैलाने में होता है।’ रिजवी के अनुसार, प्रोफेट मुहम्मद की मृत्यु के बाद पहले तीन खलीफा ने कुरान संकलित करने में कई आयतें जोड़ दीं, ताकि उन्हें ‘युद्ध द्वारा इस्लाम के विस्तार में सहूलियत हो।’ यह चिंता पहली बार या भारत में ही नहीं है। गत वर्षों में तुर्की, सऊदी अरब और इराक में भी कुरान को लेकर संशोधन-सुधार की मांगें उठी थीं। तुर्की के अधिकारियों को सूचना मिली कि सामान्य स्कूलों में पढ़ने वाले छात्र कुरान पढ़कर इस्लाम से उदासीन होने लगते हैं। सऊदी अरब में सुझाव आया कि कुरान की कुछ बातों की जांच-परख कर समयानुकूल संशोधन किया जाए।
●•• कुरान का ‘मानवीय हस्तक्षेप’
सऊदी लेखक अहमद हाशिम के अनुसार प्रचलित कुरान खलीफा उस्मान द्वारा तैयार कराए जाने के कारण उसके निर्माण में ‘मानवीय हस्तक्षेप’ हो चुका है, अत: उसे अपरिवर्तनीय मानना अनुपयुक्त है। यह भी तथ्य है कि कुछ वर्ष पहले ऑस्ट्रिया में कुरान का सार्वजनिक रूप से वितरण प्रतिबंधित कर दिया गया था। स्विट्जरलैंड के सुरक्षा विभाग ने भी यही अनुशंसा की थी। चीन में मुसलमानों को कुरान से विमुख करने की कोशिश होती है। रूस की एक अदालत ने कुरान के एक विशेष अनुवाद को प्रतिबंधित किया था। अनेक जाने-माने मुस्लिम लेखक-लेखिकाओं ने भी वैसी चिंता जताई है, जैसी रिजवी ने प्रकट की है। यही काम अतीत में यूरोपीय नेताओं और विद्वानों द्वारा भी किया जा चुका है।
●•• इस्लामिक स्टेट के झंडे पर लिखे शब्द कुरान से लिए गए
इराक में अमेरिकी कर्मचारी निक बर्ग का कत्ल करने वालों ने भी कुरान का हवाला दिया था। यूरोप में जिहादी प्रदर्शन करने वाले कुरान की आयतों का उल्लेख करते हैं। जुलाई 2016 में बांग्लादेश में जिहादियों ने 20 विदेशियों का गला रेत कर कत्ल किया था, यह कहते हुए कि जो कुरान नहीं जानते, वे कत्ल होने लायक हैं। इस्लामिक स्टेट के झंडे पर लिखे शब्द कुरान से लिए गए हैं। वह कुरान और सुन्ना के ही हिसाब से चलने का दावा करता है।
●•• भारत में कुरान को लेकर दो मुकदमे चल चुके हैं; पहला 1985 में, दूसरा 1986 में
भारत में कुरान को लेकर दो मुकदमे चल चुके हैं। 1985 में कलकत्ता उच्च न्यायालय में चांदमल चोपड़ा ने एक याचिका दायर की थी। इसमें कुरान से कुछ उदाहरण का हवाला देकर हिंसा और सामाजिक विद्वेष फैलने की शिकायत की गई थी। उस याचिका को न्यायमूर्ति बिमल चंद्र बसाक ने यह कहकर खारिज किया था कि किसी समुदाय द्वारा पवित्र मानी जाने वाली किताब पर न्यायालय फैसला नहीं दे सकता। इस मुकदमे का विवरण सीताराम गोयल की पुस्तक ‘कलकत्ता कुरान पिटीशन’ में है। दूसरी बार, कुरान का मामला 1986 में दिल्ली में मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट जेड एस लोहाट की अदालत में आया। इंद्रसेन शर्मा नामक एक व्यक्ति ने कुरान की 24 आयतें उद्धृत करते हुए पोस्टर प्रकाशित किया। उसमें लिखा था कि ‘ऐसी अनेक आयतें कुरान में हैं जो दुश्मनी, विद्वेष, हिंसा और घृणा आदि को बढ़ावा देती हैं। अदालत से ऐसी आयतों को हटाने की मांग की गई। इस पोस्टर के प्रकाशन के बाद दिल्ली पुलिस ने इंद्रसेन को गिरफ्तार कर लिया। दंड संहिता की धारा 153 ए और 295 ए के तहत उनकी पेशी हुई। मजिस्ट्रेट ने पाया कि पोस्टर वाली आयतें एक बड़े इस्लामी प्रकाशन से हू-ब-हू उद्धृत थीं। मजिस्ट्रेट ने पोस्टर लगाने को सामान्य विचार माना, जिसे व्यक्त करना अपराधिक मामला नहीं। यह फैसला 31 जुलाई 1986 को दिया गया था। नोट करने की बात है कि इस फैसले के विरुद्ध कोई अपील नहीं हुई।
●•• तीसरी बार सुप्रीम कोर्ट में कुरान पर याचिका मुस्लिम नेता ने की दायर
अब तीसरी बार सुप्रीम कोर्ट में कुरान पर याचिका आई है। इस बार एक मुस्लिम नेता ने इसे दायर किया है। शिकायत वही है कि कुरान की कई आयतें सामाजिक सद्भाव को चोट पहुंचाती हैं। पिछले दोनों मामलों में न्यायाधीशों ने कुरान के प्रति सम्मान दिखाते हुए भी ऐसे आरोप खारिज करने से इन्कार किया था। बीते तीन दशकों में दुनिया भर का भरपूर व्यावहारिक अनुभव भी जुड़ गया है। अनेक मुस्लिम देशों में भी वह चिंता व्यक्त हो रही है, जो रिजवी ने जताई है। इस वैश्विक अनुभव के मद्देनजर रिजवी के आरोप की पक्की परख हो सकती है।
●•• सदियों पुरानी किसी किताब को यथावत रहने का अधिकार है
हालांकि प्रसिद्ध पुस्तकों को संशोधित या प्रतिबंधित करना अनुचित है। जाने-माने चिंतक रामस्वरूप के अनुसार, ‘सदियों पुरानी किसी किताब को यथावत रहने का अधिकार है। जो किसी किताब से असहमत हैं, वे अपनी बात लिखें। नए नियम और प्रस्ताव दें, वह उपयुक्त होगा।’ अत: पुस्तकों की खुली समालोचना होनी चाहिए, ताकि अंधविश्वास और सत्य का अंतर साफ रहे। कुरान से कुछ आयतों को हटा या संशोधित कर देना जरूरी नहीं है। केवल यह मान लिया जाए कि ऐसी चीजें उसमें हैं, जो हानिकारक संदेश देती हैं। मुस्लिम समाज द्वारा यह स्वीकार कर लेना वही बड़ा कार्य होगा, जो अपनी पवित्र पुस्तकों के बारे में यहूदी, ईसाई लोग पहले कर चुके हैं।
●•• बाइबल में कई बातें हिंसात्मक हैं
इस पर अमेरिकी बिशप और हार्वर्ड में व्याख्याता रहे जॉन शेल्बी स्पॉन्ग ने ‘द सिंस ऑफ स्क्रिप्चर’ (पवित्र पुस्तक के पाप) नामक पुस्तक ही लिखी है। उन्होंने विश्लेषण किया कि बाइबल विशेषकर ओल्ड टेस्टामेंट में कई बातें हिंसात्मक हैं। यदि मुस्लिम भी ऐसी ही कोई पहल करें तो यह एक बड़ा रचनात्मक कदम होगा। इससे दुनिया समझेगी कि मुसलमान भी विवेकपूर्ण ढंग से सोच-विचार कर सकते हैं। इससे उनका दूसरे समुदायों के साथ विश्वास का पुल बनना शुरू हो सकेगा।
- शंकर शरण साभार -दैनिक जागरण
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