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Saturday, July 22, 2023

सुभाष चन्द्र बोस ने अपने मित्र को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी के बारे में जो लिखा,वो हर नागरिक को पढ़ना चाहिए...

22 July 2023

http://azaadbharat.org

🚩नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को जब बरहमपुर जेल से मांडले जेल के लिए स्थानांतरित करने का आदेश मिला तब उन्होंने अपने मित्र केलकर को माँ भारती के सपूत लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी बारे में पत्र लिखकर जो कुछ बताया...वो प्रत्येक भारतीय नागरिक को पढ़ना चाहिए । आज जो हम आजादी की,चैन की सांसे ले रहे हैं, उसके पीछे महापुरुषों ने कितने बलिदान दिए हैं...इसकी भी हमें जानकारी होना जरूरी है।


🚩 तिलक जी के बारे में उक्त पत्र में लिखे गए नेता जी के विचार पढ़े...


🚩प्रिय श्री केलकर


🚩मैं पिछले कई महीनों से आपको पत्र लिखने की सोच रहा था। जिसका कारण केवल यह रहा हैं, कि आप तक ऐसी जानकारी पहुंचा दूँ, जिसमें आपको रुचि होगी। मैं नहीं जानता आपको मालूम हैं या नहीं कि मैं यहाँ गत जनवरी से कारावास में हूँ। जब बरहमपुर जेल से मुझे मांडले जेल के लिए स्थानांतरित करने का आदेश मिला , तब मुझे यह स्मरण नहीं आया कि लोकमान्य तिलक ने अपने कारावास का अधिकतर समय मांडले जेल में ही गुजारा था। इस चार- दीवारी में, यहाँ के बहुत हतोत्साहित कर देने वाले परिवेश में, स्वर्गीय लोकमान्य तिलक ने सुप्रसिद्ध ‘गीता भाष्य ग्रन्थ’ लिखा था। जिसने मेरी नम्र राय में उन्हें शंकर और रामानुजन जैसे प्रकांड भाष्यकारों की श्रेणी में स्थापित कर दिया है। 


🚩जेल के जिस वार्ड में लोकमान्य तिलक रहते थे, वह आज तक सुरक्षित है। यद्यपि उसमें फेरबदल किया गया है और उसे बड़ा बनाया गया है। हमारे अपने जेल वार्ड की तरह, वह लकड़ी के तख्तों से बना हुआ है।  जिससे गर्मी में लूँ और धुप से, वर्षा में पानी से, शीत में सर्दी तथा सभी मौसम में धूल-भरी आंधियों से बचाव नहीं हो पाता था। मेरे यहाँ पहुँचने के कुछ ही क्षण बाद मुझे वार्ड का परिचय दिया गया।  मुझे यह बात बहुत अच्छी नहीं लग रही थी कि मुझे भारत से निष्कासित किया था। लेकिन मैंने भगवान को धन्यवाद दिया कि मांडले में अपनी मातृभूमि और स्वदेश से बलात अनुपस्थिति के बावजूद मुझे तिलक जी की वह पवित्र स्मृतियाँ राहत व प्रेरणा देगी। मथुरा की जेल की तरह यह भी एक ऐसा तीर्थ स्थल हैं, क्योकि वहां श्रीकृष्ण अवतरित हुए थे और यहां भारत का एक महानतम सपूत छ: वर्षों तक रहा था। 


🚩हम सिर्फ इतना ही जानते हैं, कि लोकमान्य ने कारावास में छ वर्ष बिताए हैं।  मुझे विश्वास है, कि बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि उस अवधि में उन्हें किस हद तक शारीरिक और मानसिक यातनाओं से गुजरना पड़ा था।  वे वहां एकदम अकेले रहे उन्हें उनके बौद्धिक स्तर का कोई साथी नहीं मिला था।  मुझे विश्वास हैं, कि उनको किसी अन्य बंदी से भी मिलने-जुलने नहीं दिया जाता था।  उनको सांत्वना देने वाली एकमात्र वस्तु किताबें थी।  और वे एक कमरे में बिलकुल एकांकी रहते थे।  यहाँ रहते हुए उन्हें दो या तीन से अधिक मुलाकात का भी अवसर नहीं दिया गया था।  ये भेट भी जेल और पुलिस अधिकारियों के साथ हुआ करती थी। जिससे वे कभी खुलकर हार्दिकता से बात नहीं कर पाए होंगे।  उन तक कोई भी अख़बार नहीं पहुँचने दिया जाता था। उनकी जैसे प्रतिष्ठित नेता को बाहरी दुनिया के घटनाचक्र से एकदम अलग कर देना ,एक तरह की घोर यातना ही है और इस यंत्रणा को जिसने भुगता है,  वही जान सकता है। इसके अलावा उनके कारावास की अधिकांश अवधि में देश का राजनैतिक जीवन मंद गति से खिसक रहा था और इस विचार ने उन्हें कोई संतोष नहीं दिया होगा कि जिस उद्देश्य को उन्होंने अपनाया था ,वह उनकी अनुपस्थिति में किस गति से आगे बढ़ रहा है। उनकी शारीरिक यंत्रणा के बारे में जितना ही कम कहा जाए, बेहतर होगा। 


🚩वे दंड संहिता के अंतर्गत बंदी थे और इस प्रकार आज के राजबंदियो की अपेक्षा कुछ मायनों में उनकी दिनचर्या कही अधिक कठोर रही होगी| इसके अलावा उन्हें मधुमेह की बीमारी थी | जब लोकमान्य यहाँ थे ,मांडले का मौसम तब भी प्रायः ऐसा रहा होगा जैसा वह आजकल है और अगर आज नौजवानों को शिकायत है कि वहां की जलवायु शिथिल कर देने वाली और मन्दाग्नि तथा गठिया को जन्म देने वाली है और धीरे -धीरे वह व्यक्ति की जीवनी शक्ति को सोख लेती है । तो लोकमान्य ने ,जो वयोवृद्ध थे ,कितना कष्ट झोला होगा...!!

लेकिन इस कारागार की चहारदीवारियों में उन्होंने क्या यातनाएँ सही ,इसके विषय में लोगों को बहुत कम जानकारी है ।


🚩कितने लोगों को पता होता है, उन अनेक छोटी -छोटी बातों का ,जो किसी बंदी के जीवन में सुइयों की-सी चुभन बन जाती है और जीवन को दुर्भर बना देती है। वे गीता की भावना में मग्न रहते थे और शायद इसलिए दुःख और यंत्रणाओं से ऊपर रहते थे । यहीं कारण है , कि उन्होंने उन यंत्रणाओं के बारे में किसी से कभी एक शब्द भी नहीं कहा । समय -समय पर मैं इस सोच में डूबता रहा हूँ, कि कैसे लोकमान्य को अपनेबहुमूल्य जीवन के छह लंबे वर्ष इन परिस्थितियों में बिताने के लिए विवश होना पड़ा होगा।


🚩हर बार मैंने अपने आपसे पूछा ‘अगर नौजवानों को इतना कष्ट महसूस होता है, तो महान लोकमान्य को अपने समय में कितनी पीड़ा सहनी पड़ी होगी । जिसके विषय में उनके देशवासियों को कुछ भी पता नहीं !?

यह विश्व भगवान की कृति है , लेकिन जेलें मानव के कृतित्व की निशानी हैं। उनकी अपनी एक अलग दुनिया है और सभ्य समाज ने जिन विचारो और संस्कारों को प्रतिबद्ध होकर स्वीकार किया है। वे जेलों पर लागू नहीं होते हैं। अपनी आत्मा के हास्य के बिना, बंदी जीवन के प्रति अपने आपको अनुकूल बना पाना आसान नहीं है। इसके लिए हमें पिछली आदतें छोड़नी होती हैं और फिर भी स्वास्थ्य और स्फूर्ति बनाए रखनी पड़ती है। सभी नियमों के आगे नत होना होता है और फिर भी आंतरिक प्रफुल्लता अक्षुण्ण रखनी होती है। केवल लोकमान्य जैसा दार्शनिक ही, उस यन्त्रणा और दासता के बीच मानसिक संतुलन बनाए रख सकता था और भाष्य जैसे विशाल एवं युग निर्माणकारी ग्रन्थ का प्रणयन कर सकता था। मैं जितना ही इस विषय पर चिन्तन करता हूँ। उतना ही उनके प्रति आस्था और श्रद्धा में डूब जाता हूँ। आशा करता हूँ, कि मेरे देशवासी लोकमान्य की महत्ता को आंकते हुए इन सभी तथ्यों को भी दृष्टि पथ में रखेंगे...💐🙏 


🚩जो महापुरुष मधुमेह से पीड़ित होने के बावजूद इतने सुदीर्घ कारावास को झेलता गया और जिसने उन अन्धकारमय दिनों में अपनी मातृभूमि के लिए ऐसी अमूल्य भेंट तैयार की, उसे विश्व के महापुरुषों की श्रेणी में प्रथम पंक्ति में स्थान मिलना चाहिए...


🚩लोकमान्य ने प्रकृति के जिन अटल नियमों से अपने बंदी जीवन के दौरान टक्कर ली थी।  उनको अपना बदला लेना ही था। अगर मैं कहूँ तो मेरा विश्वास है,कि लोकमान्य ने जब मांडले को अंतिम नमस्कार किया था। तो उनके जीवन के दिन गिने चुने ही रह गये थे। निःसंदेह यह एक गंभीर दुःख का विषय है,कि हम अपने महानतम पुरुषों को इस प्रकार खोते रहे। लेकिन मैं यह भी सोचता हूँ,कि क्या वह दुखद दुर्भाग्य किसी न किसी प्रकार टाला नहीं जा सकता था !?


🚩आपको बता दें, कि लोकमान्य तिलक जी ने हिन्दी भाषा को खूब प्रोत्साहित किया ।

वे कहते थे : ‘‘ अंग्रेजी शिक्षा देने के लिए बच्चों को सात-आठ वर्ष तक अंग्रेजी पढ़नी पड़ती है । जीवन के ये आठ वर्ष कम नहीं होते । ऐसी स्थिति विश्व के किसी और देश में नहीं है । ऐसी शिक्षा-प्रणाली किसी भी सभ्य देश में नहीं पायी जाती ।’’


🚩जिस प्रकार बूँद-बूँद से घड़ा भरता है, उसी प्रकार समाज में कोई भी बड़ा परिवर्तन लाना हो तो किसी-न-किसी को तो पहला कदम उठाना ही पड़ता है और फिर धीरे-धीरे एक कारवां बन जाता है व उसके पीछे-पीछे पूरा समाज चल पड़ता है ।


🚩हमें भी अपनी राष्ट्रभाषा को उसका खोया हुआ सम्मान और गौरव दिलाने के लिए व्यक्तिगत स्तर से पहल चालू करनी चाहिए ।एक-एक मति के मेल से ही बहुमति और फिर सर्वजनमति बनती है । हमें अपने दैनिक जीवन में से अंग्रेजी को तिलांजलि देकर विशुद्ध रूप से मातृभाषा अर्थात् हिन्दी का प्रयोग करना चाहिए । राष्ट्रीय अभियानों, राष्ट्रीय नीतियों व अंतराष्ट्रीय आदान-प्रदान हेतु अंग्रेजी नहीं राष्ट्रभाषा हिन्दी ही साधन बननी चाहिए ।


🚩बात दें, कि सन् 1893 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने सार्वजनिक तौर पर गणेशोत्सव की शुरूआत की। 


🚩तिलकजी ने गणेशोत्सव को सार्वजनिक महोत्सव का रूप देते समय उसे महज धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने, समाज को संगठित करने के साथ ही उसे एक आंदोलन का स्वरूप दिया, जिसका ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा...!!


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