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Friday, August 28, 2020

रोजगार अथवा शिक्षा दोनों में क्या महत्वपूर्ण है? शिक्षा कैसी होनी चाहिए?

28 अगस्त 2020


सरकार के एक सब से महत्वपूर्ण मंत्रालय द्वारा अपना बिगड़ा नाम कोरोना काल में सुधारने में एक तुक है। कोरोना ने पूरी दुनिया को याद दिलाया कि अर्थव्यवस्था से बड़ी चीज जीवन और प्रकृति के नियम हैं। यह बुनियादी सत्य खो गया था। ‘मानव’ अर्थव्यवस्था का ‘संसाधन’ बना डाला गया। फलतः शिक्षा का मूल अर्थ बिगड़ कर नौकरी-दौड़ में शामिल होने का प्रमाण-पत्र पाना बन गया।




अतः उस कुरूप नाम ‘मानव संसाधन’ को बदल कर पुनः ‘शिक्षा’ करने के लिए शिक्षा मंत्री श्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ धन्यवाद के पात्र हैं। स्वयं लेखक होने के कारण वे इस सांकेतिक परिवर्तन की गंभीरता समझते हैं। पश्चिम में नाम सामान्य. चीज है, किन्तु भारतीय परंपरा में नामकरण एक महत्वपूर्ण संस्कार होता है। समझा जाता है कि नाम से नामित के भविष्य और भूमिका का संबंध है। इसलिए, अब स्वभाविक आशा है कि शिक्षा के नाम के साथ इस के भाव की भी वापसी हो। यदि इस दिशा में दो-चार कदम भी उठाए जा सके, तो यह मोदी सरकार का सब से दूरगामी देश-हितकारी काम होगा!

यद्यपि यह इस पर निर्भर करेगा कि यह परिवर्तन किस भावना में किया गया है? बहुतों को जानकर आश्चर्य होगा कि स्वतंत्र भारत में शिक्षा पर बनी सब से पहली डॉ. राधाकृष्णन समिति (1948) ने अपनी ठोस अनुशंसा में ‘धर्म के अध्ययन’ को उच्च शिक्षा में महत्वपूर्ण स्थान दिया था। उस की रूप-रेखा तक दी थी। शिक्षा के उद्देश्य पर अपनी चार प्रमुख अनुशंसाओं में एक ‘‘छात्रों का आध्यात्मिक विकास’’ भी जोड़ा था। तब वह सब कहाँ खो गया? यह एक गंभीर प्रश्न है, जो यहाँ तमाम शिक्षा आयोगों, समितियों की दुखद कहानी कहता है।

उस प्रश्न का उत्तर यही हो सकता है समिति की अनुशंसाओं को लागू करने वाले गंभीर या योग्य नहीं थे। उन्होंने उन बिन्दुओं का महत्व नहीं समझा। सो अच्छी-अच्छी अनुशंसाएं कागजों में धरी रह गईं। यह पिछली राजीव गाँधी की शिक्षा नीति (1986) के साथ भी देख सकते हैं। उस में राष्ट्रीय कैडेट कोर (एन.सी.सी.), तथा ‘मूल्यों की शिक्षा’ स्कूली शिक्षा का अंग था। किन्तु जब पाठ्यचर्या के दस्तावेज बने, तो इस का उल्लेख तक गायब हो गया! लागू करना तो दूर रहा।

यह दुःखद कहानी 1948 से चल रही है। सच्चे ज्ञानी (यदि वे शिक्षा समिति में हुए, क्योंकि समितियों में वैसे लोगों को रखना भी क्रमशः बंद हो गया) मूल्यवान अनुशंसाए देते रहे। लेकिन उन्हें लागू करने वाले मनमर्जी करते रहे। फिर, 1970 के दशक से तो वामपंथी एक्टिविस्टों ने शैक्षिक नीति-अनुपालन तंत्र में अपना अड्डा जमा लिया। तब से शिक्षा काफी कुछ उन की राजनीति का औजार भर बनती चली गयी।

इसीलिए, प्रश्न है कि क्या नाम के साथ शिक्षा के अर्थ की भी घर-वापसी होगी? उत्तर इस पर है कि हमारे कर्णधार इस के प्रति कितने गंभीर हैं। जैसा हम ने ऊपर देखा, किसी नीति की सफलता दस्तावेज में लिखे शब्दों पर नहीं, बल्कि मुख्यतः इस पर निर्भर होती है कि उस का निरूपण किस भावना में किया गया है? यदि भावना सच्ची है तो रास्ते मिल जाएंगे। न केवल शिक्षा का अर्थ पुनः स्थापित होगा, बल्कि भारतीय भाषाओं में शिक्षा का उत्तम प्रबंध हो सकेगा, जो इस शिक्षा नीति की सब से महत्वपूर्ण संभावना है।

भारतीय अर्थ में शिक्षा पश्चिम के ‘एजुकेशन’ से भिन्न है। पश्चिम में यह शब्द ही 16वीं शताब्दी में बना। जहाँ इस का अर्थ है, सीखकर कोई जानकारी या हुनर प्राप्त करना, तर्क क्षमता प्राप्त करना, जीवन के लिए बौद्धिक रूप से तैयार होना, आदि। किन्तु भारतीय ज्ञान-परंपरा में ‘शिक्षा’ शब्द और उस का व्यापक अर्थ पाँच हजार वर्षों से स्थापित है! इसलिए भी आश्चर्य है कि इतनी मूल्यवान धारणा यहाँ हालिया दशकों में त्याज्य मान ली गई। अर्थव्यवस्था के लिए ‘संसाधन’ अधिक महत्वपूर्ण हो गए। फलतः दूसरों के विचार रट लेने, अपने मस्तिष्क में भर लेने, कुछ सर्टिफिकेट पा लेने और अफसर, इंजीनियर, बन सकने की ओर बढ़ने का उपाय भर कर के हमारे बच्चे ‘मानव संसाधन’ बनते रहे हैं। लेकिन भारतीय अर्थ में यह सब शिक्षा नहीं है। शिक्षा है: मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना।

स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा का उद्देश्य बताया था कि जो बच्चों में चरित्र-शक्ति का विकास, भूत-दया का भाव, और सिंह का साहस पैदा करे। अर्थात, उस में मौजूद ‘तत्वम् असि’ की भावना जागृत करे। इस प्रकार, मनुष्य के लिए विद्या, बल, धन, यश, और पुण्य यह सब अभीष्ट है। इस के संतुलन की अवहेलना करने से व्यक्ति और मानवजाति भ्रष्ट हो जाती है। इसीलिए भारतीय परंपरा में आशीर्वचनों में ‘प्रसन्न रहो’, ‘चिरंजीवी होओ’, जैसी बातें कही जाती हैं। न कि धनी बनो, आदि। रोजगार, आदि अन्य कर्म मनुष्य की प्रसन्नता से नीचे हैं, ऊपर नहीं।

कुछ लोग इन बातों के आदर्शवादी समझ कर रोजगार को सर्वोपरि मानते हैं। वे भूल जाते हैं कि रोजगार मानव के साथ सैदव रहा है। सभी ज्ञानी और शिक्षाविद इस की आवश्यकता और स्थान से सुपरिचित थे। मनुष्य के लिए रोजगार महत्वपूर्ण है; किन्तु दूसरे स्थान पर। जीवन-बसर तो पशु-पक्षी भी करते हैं, बिना कोई स्कूल गए। तब मनुष्य होने की विशेषता क्या हुई! वह विशेष तत्व न भूलना ही शिक्षा है। जानकारी से अधिक एकाग्रता, विचार-शक्ति मह्त्वपूर्ण है।

व्यवहार में भी, स्कूल, कॉलेज, आदि से निकलने के बाद जीवन में डिग्रियों से अधिक योग्यता, चरित्र, और हुनर काम आता है। कोई कैसे खड़ा होता, बोलता, सुनता, व्यवहार करता, सोचता-विचारता है तथा विभिन्न, स्थितियों का सामना करता है – यही शिक्षित-अशिक्षित का अंतर है। यूरोप में भी ‘वेल-एजुकेटेड’ उसे कहते हैं, जिस ने महान साहित्य का अध्ययन किया हो। जो प्लेटो, शेक्सपीयर, गेटे, टॉल्सटॉय, आदि को कुछ निकट से जानता हो।

वह अर्थ भी कम से कम हम अपनी शिक्षा में वापस ला सकें, तो नई पीढयों का महान उपकार होगा। वे वाल्मीकि, वेद व्यास, पातंजलि, कालिदास, शंकराचार्य, टैगोर, श्रीअरविन्द, निराला, अज्ञेय, जैसी अनन्य विभूतियों में कुछ से स्वयं परिचित हों। उस से देश का भी भला होगा। इस अर्थ में भी नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं को माध्यम बनाने की महत्ता बनती है। उस के अभाव में ही हमारे युवा उस महान ज्ञान-परंपरा से ही कट गए हैं, जो आज भी विश्व में भारत की सब से बड़ी पहचान है। कम लोग जानते हैं कि पश्चिम को निर्यात होने वाली भारतीय पुस्तकों में सब से बड़ा हिस्सा उन क्लासिक ज्ञान-ग्रंथों का हैं जो संस्कृत व भारतीय भाषाओं में हैं। उन का मूल्य पश्चिमी जानकार समझते हैं, जबकि हम स्वयं उसकी उपेक्षा करते रहे हैं! ऐसा इसलिए भी संभव हुआ क्योंकि भारतीय भाषाओं को शिक्षा-माध्यम से हटा दिया गया।

फलतः भारतीय बच्चे न केवल अपने महान साहित्य, बल्कि अपनी संस्कृति से ही से कटते चले गए। यह धीरे-धीरे भारत के ही लुप्त हो जाने का मार्ग है, सावधान! बच्चों की भाषा छीनने, उन की शिक्षा गिराने, उन्हें अर्थव्यवस्था का ‘संसाधन’ बनाने, आदि का दुष्परिणाम हमें समझ सकना चाहिए। इस दृष्टि से भी, भारतीय भाषाओं को पुनः स्थान देने का विचार अत्यंत महत्वपूर्ण है।

आरंभिक कदम के रूप में अपने भाषा-साहित्य से बच्चों को स्वेच्छा से जोड़ा जा सके, तो यही बहुत बड़ी बात होगी। उन्हें अपनी भाषा अच्छी तरह आए। शुद्ध, सुंदर, साहित्यिक। यह उस भाषा का महान साहित्य पढ़ने की रुचि पैदा करने से स्वतः हो जाएगा। साथ ही, संस्कृत पढ़ने-समझने की कुछ योग्यता। यह सब किसी बाध्यता से कराने की जरूरत नहीं। केवल प्रेरित, प्रोत्साहित करके करना उचित होगा। भारतीय ज्ञान-परंपरा के सर्वोत्तम साहित्य सुंदर रूपों में सुलभ हों। उस से बच्चों को जोड़ दिया जाए। इस के बाद नई पीढ़ी के प्रतिभावान आगे का मार्ग स्वयं ढूँढ निकालेंगे! हमारा कर्तव्य है, उन्हें शिक्षा की नींव, उन की भाषा उन्हें दे देना। आगे वे गंतव्य स्वयं पाने में समर्थ होंगे, यह हमें विश्वास करना चाहिए। - डॉ. शंकर शरण 

आजतक जितने भी देश उन्नत हुए वे अपनी भाषा में व अपना इतिहास पढ़कर ही हुए है। हमें भी हमारा प्राचीन इतिहास, मातृभाषा और राष्ट्रभाषा को महत्त्व देना चाहिए, 200 साल हमें गुलाम बनाने वाले अंग्रजो की भाषा को तो तुरंत हटा ही देना चाहिए ये मानसिकता की गुलामी है, अपने देश की संस्कृति, इतिहास , धर्म के बारे में बच्चों को सही जानकरी मिले उस अनुसार पाठ्यक्रम बनना चाहिए और प्राचीन गुरुकुलों के अनुसार शिक्षा नीति बननी चाहिए।

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Friday, August 7, 2020

नई शिक्षा नीति में प्रारम्भिक शिक्षा मातृभाषा में देने से क्या होगा?

 07 अगस्त 2020


🚩देश की नई शिक्षा नीति को भविष्‍य की मजबूत नींव रखने वाली नीति प्रधानमंत्री ने बताया है। इस दौरान प्रधानमंत्री ने नई‍ शिक्षा नीति में शामिल किए गए 5+3+3+4 स्‍ट्रक्‍चर पर पीएम मोदी ने कहा कि इस नीति का लक्ष्‍य अपनी जड़ों से जोड़ते हुए भारतीय छात्र को ग्‍लोबल सिटीजन बनाना है। इसमें कोई विवाद नहीं है कि स्‍कूल में पढ़ाई की भाषा वही होनी चाहिए जो छात्रों की मातृभाषा हो। ऐसा करने से बच्‍चों के साीखने की गति तेज होगी। पांचवीं क्‍लास तक उनकी भाषा में ही पढ़ाने की जरूरत है। इससे उनकी नींव मजबूत होगी। इससे आगे की पढ़ाई का भी उनका बेस मजबूत होगा।

🚩सच यह है की मातृभाषा में हो पढ़ाई तो बच्चे तेज़ी से सीखते हैं और स्वप्न भी  मातृभाषा में ही आते है लेकिन नइ शिक्षा नीति को लेकर कुछ लिबरल और देश विरोधी लोगो को रास नही आ रही है।

🚩आपको बता दें कि भारतीय संस्कृति की रीढ़ की हड्डी तोड़ने तथा लम्बे समय तक भारत पर राज करने के लिए 1835 में ब्रिटिश संसद में भारतीय शिक्षा प्रणाली को ध्वस्त करने के लिए मैकाले ने क्या रणनीति सुझायी थी तथा उसी के तहत Indian Education Act- 1858 लागु कर दिया गया।

🚩15 अगस्त 1947, को आज़ादी मिली, क्या बदला ?

🚩रंगमंच से सिर्फ अंग्रेज़ बदले बाकि सब तो वही चला। अंग्रेज़ गए तो सत्ता उन्ही की मानसिकता को पोषित करने वाली कांग्रेस के हाथ में आ गयी। जवाहरलाल नेहरू के कृत्यों पर तो किताबें लिखी जा चुकी हैं पर सार यही है की वो धर्मनिरपेक्ष कम और मुस्लिम हितैषी ज्यादा था। न मैकाले की शिक्षा नीति बदली और न ही शिक्षा प्रणाली। शिक्षा प्रणाली जस की तस चल रही है और इसका श्रेय स्वतंत्र भारत के प्रथम और दस वर्षों (1947-58) तक रहे शिक्षा मंत्री मौलाना अब्दुल कलम आज़ाद को दे ही देना चाहिए बाकि जो कसर बची थी वो इन्दिरा गाँधी ने तो आपातकाल में विद्यालयों में पढ़ाया जाने वाला इतिहास भी बदल कर पूरी कर दी ।

🚩जिस आज़ादी के समय भारत की 18.73% जनता साक्षर थी उस भारत के प्रधानमंत्री ने अपना पहला भाषण "tryst With Destiny" अंग्रेजी में दिया था आज का युवा भी यही मानता है कि यदि अंग्रेजी न होती तो भारत इतनी तरक्की नहीं कर पाता। और हम यह सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं कि पता नहीं जर्मनी, जापान,चीन इजराइल ने अपनी मातृभाषाओं में इतनी तरक्की कैसे कर ली।

🚩1. अफ्रिका महाद्वीप - 46 पिछडे देश। इनमें से कितने देश आगे बढे हैं?
उत्तर : शून्य
उसका मूल कारण 21 देश फ्रांसीसी में,18 देश अंग्रेज़ी में, 5 देश पुर्तगाली में और 2 देश स्पेनिश में सीखते हैं। उन देशों पर शासन करने वालों की भाषाएँ हैं ।

🚩2. पाकिस्तान - 1947 से पहले पाकिस्तान के किसी भी हिस्से की मुख्य भाषा उर्दू नहीं थी। पाकिस्तान की अपनी भाषा क्या है यह आज भी विवाद का विषय है।
सरकारी कामकाज + उच्च शिक्षा - अंग्रेजी
संसद की भाषा + मिडिया की भाषा - उर्दू
घर की भाषा- पंजाबी, सिन्धी, बलोच आदि।

🚩पाकिस्तान के हालत - 60 % पाकिस्तान में पीने लायक पानी नहीं। 25% पाकिस्तान इतना अधिक अशान्त है कि वहां पाकिस्तान का प्रधानमन्त्री भी नहीं जा सकता. 90% दवाई आयात करता है।

🚩3. जापान
दुनिया की 6 भाषाओं से शोधपत्र (रिसर्च पेपर)का अनुवाद जर्मन, फ्रांसीसी, रूसी, अंग्रेज़ी, स्पेनिश और डच भाषाओं से शोधपत्रों का जापानी में अनुवाद करवाते है। जापानी भाषा में मात्र 3 सप्ताह में प्रकाशित किया जाता है। अनुवाद छापकर जापानी विशेषज्ञों को मूल कीमत से भी सस्ते मूल्य पर बेचे जाते हैं।
जापान की उन्नति पूरी दुनिया जानती है उसका कोई प्रमाण देने की जरूरत नहीं।

🚩4. इजरायल देश से आप परिचित ही हैं।  हिब्रू ऐसी भाषा है जो दुनिया के नक़्शे से लगभग गायब ही हो गई थी। इसके बावजूद यदि आज वह जीवित है और एक देश की राजभाषा के प्रतिष्ठित पद पर आसीन है। एक भाषा से एकता का उदाहरण है इजरायल।

🚩दुनिया में प्रति व्यक्ति पेटेंट कराने वालों में इजरायलियों का स्थान पहला है। इजरायल की जनसंख्या न्यूयॉर्क की आधी जनसंख्या के बराबर है। इजराइल का कुल क्षेत्रफल इतना है कि तीन इजराइल मिल कर भी राजस्थान जितना नहीं हो सकते।

🚩इजरायल दुनिया का इकलौता ऐसा देश है, जो समूचा एंटी बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस सिस्टम से लैस है। इजरायल के किसी भी हिस्से में रॉकेट दागने का मतलब है मौत। इजरायल की ओर जाने वाला हर मिसाइल रास्ते में ही दम तोड़ देता है। इजरायल अपने जन्म से अब तक 7 लड़ाइयां लड़ चुका है। जिसमें अधिकतम में उसने जीत हासिल की है। इजरायल दुनिया में जीडीपी के प्रतिशत के मामले में सर्वाधिक खर्च रक्षा क्षेत्र पर करता है। इजरायल के कृषि उत्पादों में 25 साल में सात गुणा बढ़ोतरी हुई है, जबकि पानी का इस्तेमाल जितना किया जाता था, उतना ही अब भी किया जा रहा है। इजरायल अपनी जरुरत का 93 प्रतिशत खाद्य पदार्थ खुद पैदा करता है। खाद्यान्न के मामले में इजरायल लगभग आत्मनिर्भर है।

🚩किसी वृक्ष का, विकास रोकने का, सरल उपाय, क्या है? माना जाता है, कि वह उपाय है, उस के मूल काटकर उसे एक छोटी कुंडी (गमले) में लगा देना। जडे जितनी छोटी होंगी, वृक्ष उतना ही नाटा होगा, ठिंगना होगा। जापानी बॉन्साइ पौधे ऐसे ही उगाए जाते हैं। कटी हुयी, छोटी जडें, छोटे छोटे पौधे पैदा कर देती है। वे पौधे कभी ऊंचे नहीं होते, जीवनभर पौधे नाटे ही रहते हैं। पौधों को पता तक नहीं होता, कि उनकी वास्तव में नियति क्या थी? यही है मातृ भाषा से दूर करना अर्थात जड़े काटना।

🚩तमिलनाडु में परिजनों और स्कूलों की मांग, ‘हमें हिंदी चाहिए’

🚩तमिलनाडु में हिंदी को अनिवार्य बनाए जाने के खिलाफ 60 के दशक में हिंसक विरोध प्रदर्शन देखने को मिले थे। हालांकि अब यह मामला उल्टा पड़ता दिख रहा, जहां राज्य में कई छात्र, उनके परिजन और स्कूलों ने तमिल के एकाधिकार के खिलाफ लड़ाई शुरू कर दी है। उनका कहना है कि उन्हें हिंदी चाहिए।

🚩स्कूलों और परिजनों के एक समूह ने डीएमके की तत्कालीन सरकार की ओर से साल 2006 में पारित एक आदेश को चुनौती दी है, जिसमें कहा गया था कि दसवीं कक्षा तक के बच्चों को केवल तमिल पढ़ाई जाएगी (हिन्दी नहीं), इसमे इंग्लिश की अनिवार्यता को नहीं बदला गया था,
संदर्भ -NDTVcom, Last Updated: जून 16, 2014 06:43 PM IST

🚩आजतक जितने भी देश उन्नत हुए वे अपनी मातृभाषा में पढ़कर ही हुए है चाइना आज इतना आगे इसलिए है वहाँ अपनी मातृभाषा में ही सबकुछ होता है इसलिए मातृ भाषा और राष्ट्र भाषा को महत्त्व देना चाहिए, 200 साल हमे गुलाम बनाने वाले अंग्रजो की भाषा को तो तुरंत हटा ही देना चाहिए ये मानसिकता की गुलामी है, अपने देश की संस्कृति, इतिहास , धर्म के बारे में बच्चों को सही जानकरी मिले उस अनुसार पाठ्यक्रम बनना चाहिए और प्राचीन गुरुकुलों के अनुसार शिक्षा नीति बननी चाहिए।

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Friday, July 31, 2020

आधुनिक शिक्षा पद्धति में गुरुकुल शिक्षा पद्धति का समन्वय-एक नई पहल...

31 जुलाई 2020


🚩आधुनिक समय में प्राचीन गुरुकुलों की पुनःस्थापना कठिन तो है लेकिन साथ ही साथ प्राचीन गुरुकुलों के प्रयोजन आज के विद्यार्थियों के उज्जवल भविष्य निर्माण के लिए अत्यन्त आवश्यक भी महसूस होते हैं ताकि हमारे विद्यार्थी अपने जीवन को उन्नत आदर्शों से पूर्ण करें और स्वावलंबी बनें यानि आर्थिक, सामाजिक, नैतिक रूप से गुलाम न बनें, आत्मनिर्भर तो बनें ही, इसके साथ-साथ बाँटकर खाने के उदारता जैसे सद्गुणों से युक्त हों यानि अपने निजी जीवन के लिए किसी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति के आधीन न हों।

🚩केंद्र सरकार ने बीते दिन लगभग 34 साल बाद भारत की शिक्षा नीति में बदलाव किया है। सुनने में आ रहा है कि उसमें काफी सुधार किया गया है ये एक अच्छी पहल है क्योंकि शिक्षा ही जीवन का निर्माण करती है इसलिए पूर्व में गुरुकुल में जैसी शिक्षा दी जाती थी उसमे से काफी कुछ लेकर शिक्षा व्यवस्था बनाई जाए तो भारत को विश्व गुरु बनने में देरी नही लगेगी।

🚩अपने आप में पूर्ण मानव का निर्माण हो और अन्त में जीवन के परम लक्ष्य के भी अधिकारी बनें, ऐसे मुद्दों को ध्यान में रखते हुए गुरुकुल शिक्षा पद्धति के सिद्धांतों का आधुनिक शिक्षा पद्धति के साथ समन्वय किया जाए तो कैसा ? आईये इस पर विचार करते हैं ।

🚩मूलभूत योजना:

🚩1) जो माता-पिता अपने होनेवाले बच्चे को गुरुकुल में प्रवेश करवाना चाहते हों, वे गर्भाधान से पहले ही अपना नाम व पता गुरुकुल गर्भ एवं शिशु संस्कार केन्द्र में पंजीकृत करवायें जहाँ भावी शिशु के माता-पिता को संबंधित आवश्यक जानकारियाँ दी जाएं यानि शिशु का इस जगत में कैसे स्वागत करें, आदि-आदि विषयों के बारें में समझाया जाए ताकि उनके घर में दिव्य एवं उत्तम आत्मा ही जन्म लें ।

🚩2) जब शिशु का जन्म हो तब गुरुकुल भावी विद्यार्थी निर्माण केन्द्र में अपना नाम पंजीकृत करवाएं जहाँ शिशु के माता-पिता को शिशु के लालन-पालन के विषय में प्रशिक्षण दिया जाए कि कैसे शिशु के स्वास्थ्य व संस्कार को मजबूत किया जाए आदि-आदि । तो जन्म से लेकर 7 वर्ष की आयु तक माता-पिता बच्चे को स्वस्थ व मजबूत बनायें ।

🚩3) 7 से 9 साल के बच्चों को पूर्व गुरुकुल प्रवेश प्रशिक्षण केन्द्रों में भेजा जाए जहाँ बच्चों को संस्कृत श्लोक उच्चारण, एक आसन पर स्थिर बैठने की एवं चित्त को एकाग्र करने के त्राटक, ध्यान आदि यौगिक प्रयोग करवाए जाएँ । यह कक्षा प्रातः 8 से 10 बजे तक की हो ।

🚩4) 9 वर्ष की उम्र में ‘उपनयन संस्कार’ करवाकर विद्यार्थी को ‘ब्रह्मचर्य आश्रम’ में प्रविष्ट करवाया जाए जिसमें विद्यार्थी को गायत्री मंत्र दिया जाता है, अगर संभव हो तो किसी समर्थ महापुरुष से ‘सारस्वत्य मंत्र’ की दीक्षा दिलवाई जाए ताकि विद्यार्थी की सुषुप्त शक्तियाँ जाग्रत हों ।

🚩5) उपनयन संस्कार के बाद विद्यार्थी को गुरुकुल में प्रवेश करवाया जाए जहाँ वह 12 वर्षों तक यानि 9 साल की उम्र से लेकर 21 साल की उम्र तक संपूर्ण ब्रह्मचर्य आश्रम के नियमों का पालने करते हुए विद्याध्ययन करे । इसका वर्णन गृहसूत्र में भी आता है कि जन्म से आठवें वर्ष में उपनयन होने के पश्चात् वेदों का अध्ययन आरम्भ करे ।

🚩6) विद्यार्थी को तिलक करना अत्यन्त आवश्यक है ताकि उसका तीसरा नेत्र विकसित हो । विशेषरूप से चंदन का तिलक उत्तम है जिसमें हल्दी एवं चुने का परिमित मात्र में मिश्रण हो जो उसके तीसरे नेत्र को विकसित करने में मदद करता है ।

🚩7) पद्मपुराण में आता है कि प्रतिदिन आयु और आरोग्य की सिद्धि के लिये तन्द्रा और आलस्य आदि का परित्याग करके अपने से बड़े पुरुषों को विधिपूर्वक प्रणाम करे और इस प्रकार गुरुजनों को नमस्कार करने का स्वभाव बना ले । नमस्कार करनेवाले ब्रह्मचारी को बदले में – ‘आयुष्मान भव सौम्य’ करके आशीर्वाद देना चाहिए, ऐसा विधान है । अपने दोनों हाथों को विपरीत दिशा में करके गुरु के चरणों का स्पर्श करना उचित है । शिष्य जिनसे लौकिक, वैदिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करता है, उन गुरुदेव को वह पहले प्रणाम करे ।

🚩8) गुरुकुलों की स्थापना शहरी वातावरण से दूर प्राकृतिक वातावरण में हो । गुरुकुल में विद्याध्ययन के लिए कक्षाओं के साथ-साथ प्रार्थना भवन, क्रीड़ा मैदान, पुस्तकालय/वाचनालय, भोजनशाला, गौशाला, औषधालय, विद्यार्थी निवास हेतु विशाल भवन एवं स्नानागार हों।

🚩9) कक्षा में विद्यार्थी जमीन पर आसन बिछाकर बैठे और बैठनेवाली डेस्क रहें क्योंकि जमीन पर अर्थिंग मिल जाएगी तो विद्यार्थी का आंतरिक विकास कुंठित हो जाएगा, इसलिए ।

🚩11) विद्यार्थी प्रातःसंध्या उपरांत सूर्य को अर्घ्य अवश्य दे ताकि विद्यार्थी कुशाग्र-बुद्धि, बलवान-आरोग्यवान बने ।

🚩12) विद्यार्थी शिखा रखे एवं शिखा बंधन का तरीका सीखे, जो वैश्विक सूक्ष्म ज्ञान तरंगों को झेल सकता है । शिखा में निम्न मंत्र कहते हुए तीन गांठ लगाने से मन संयत रहता है और मन में बुरे विचार नहीं आते ।
मन्त्र- ॐ विश्वानीदेव सवितुदुरीतानी परासुव यत् भद्रं तन्न आसुव ।

🚩13) विद्यार्थी हर तीन महीनों में मुंडन करवाएँ जिससे विद्यार्थी में सात्विकता बढ़ती है और धूप में जाते समय सिर खुला न रखे, टोपी आदि पहने अथवा वस्त्र से सिर ढ़के और पैरो में चप्पल पहने, नंगे पैर न धूमे ।

🚩14) विद्यार्थी कौपीन अथवा लंगोटधारी हो ।

🚩15) विद्यार्थी सख्त आसन पर शयन करे ताकि उसका शरीर फुर्तीला व स्वस्थ बना रहे और आलस्य उसे ना घेरे ।

🚩16) गुरुकुल की प्रत्येक छोटे-बड़े सेवाकार्य विद्यार्थियों द्वारा ही करवाए जाएँ जैसे कि,
(अ) गुरुकुल की सफाई ।
(आ) बाग-बगीचों आदि का निर्माण ।
(इ) भोजनशाला में सब्जी काटना, रोटी बनाना, भोजन परोसना आदि आवश्यक कार्य ।
(ई) गौ-शाला में सफाई, गौओं का चारा खिलाना आदि कार्य ।

🚩यानि जो भी जरुरी छोटे-बड़े सेवाकार्य हों वो विद्यार्थियों द्वारा ही संपन्न करवाए जाएँ ताकि विद्यार्थी मेहनती बनें एवं उनमें परस्पर भावयन्तु, स्वनिर्भरता, स्वावलंबन और सेवा-भाव जैसे दैवी गुणों का विकासत हो ।

🚩17) गुरुकुल में विद्यार्थी एक तपस्वी जीवन बिताए । अपना निजी कार्य खुद ही करे, व्यक्तिगत कार्यों जैसे कपड़े धोना आदि में दूसरों का सहारा न ले ।

🚩18) गुरुकुल में प्रथम पाँच वर्ष यानि 9 साल की उम्र से 13 साल की उम्र तक उसे भाषाज्ञान, व्याकरण, संख्याज्ञान एवं गणना आदि मूलभूत विद्या सिखाई जाए जिसमें संस्कृत भाषा सीखना अनिवार्य हो । यानि प्रथम वर्ष से ही संस्कृत सिखाना प्रारंभ करें व दूसरे साल संस्कृत के साथ हिन्दी, तीसरे साल संस्कृत, हिन्दी के साथ स्थानिक भाषा और चौथे साल संस्कृत, हिन्दी, स्थानिक भाषा के साथ अंग्रेजी सिखाना आरंभ करें । तब तक उन विद्यार्थियों का आचार्य एक ही हो और उन विद्यार्थीयों की संपूर्ण जिम्मेदारी उन आचार्य की ही रहेगी ।

🚩तदनन्तर यानि 14 साल की उम्र से 21 साल की उम्र तक एक विशिष्ट विद्या अथवा कला विद्यार्थी की रूचि व योग्यता के अनुसार सिखावें जैसे कि अर्थशास्त्र, भुगोल, आयुर्वेद, संगीत, गणनासंबंधी शास्त्र, कृषि विज्ञान, अस्त्र-शस्त्र विद्या आदि और कोई प्रतिभाशाली विद्यार्थी हो तो एक से ज्यादा विषय में भी अपना गति कर सके । यहाँ पर जिस विषय का विद्यार्थी हो, उस विद्यार्थी की देखभाल की जिम्मेदारी उस विषय को सिखानेवाले आचार्य की होगी ।

🚩19) विद्यार्थियों की परीक्षा प्रायोगिक हो, न कि लिखित यानि विद्यार्थी अपने सीखी हुई विद्या का प्रायोगिक प्रदर्शन करें । ताकि विद्यार्थी गुरुकुल से बाहर आने के बाद सिखी हुई विद्या का सदुपयोग मानव समाज में कर सकें । यानि विद्यार्थी गुरुकुल से निकले तो किस ना किसी विषय का विशेषज्ञ होकर ही बाहर निकलें जिसका दर्जा आजकल के इंजीनीयरों एवं डॉक्टरों से भी कई गुना ऊँचा हो, जो अपनी खुद की एक समाज उपयोगी संस्था खड़ी कर, समाज व राष्ट्र के सर्वांगीण विकास में भागीदार हो ।

🚩20) 21 वर्ष की आयु के बाद विद्यार्थी यदि गुरुकुल में आचार्य के तौर पर नियुक्ति पाना चाहे तो पा सकता है ।

🚩21) आचार्य वर्ग का निवास स्थान गुरुकुल में ही हो, यानि आचार्य अपने पूरे परिवार के साथ गुरुकुल में ही निवास करें, विद्यार्थियों को अपने पुत्रवत् पालन करें व अपने बच्चों को शिक्षार्थ योग्य आयु होने के पश्चात् अन्यत्र गुरुकुल में भेजे अथवा वह खुद शिक्षा न देकर दूसरे आचार्यों से ही शिक्षा दिलवाएँ ।

🚩22) और आचार्य की पत्नियों का गुरुकुल के विद्यार्थी माता के समान आदर करें और वे भी विद्यार्थियों के पालन पोषण पर अपने पुत्रों के समान सस्नेह करें एवं ध्यान दें अथवा तो गुरुपत्नियाँ अलग से कन्याओं के लिए नगर के पास में गुरुकुल चलाएँ जहाँ कन्याएँ आचार्याओं के देख-रेख में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए संयम व सदाचारपुर्वक विद्याध्यन करें ।

🚩23) गुरुकुल में आचार्यों को नियुक्त करने से पहले गुरुकुल आचार्य प्रशिक्षण केन्द्र में इच्छुक व्यक्ति अपना नाम दर्ज करवाएँ, जहाँ उन्हें गुरुकुल के नीति नियमों के बारे में अच्छी तरह से परिचित करवाया जाए । यह प्रशिक्षण कम से कम 6 माह तक का हो । परंतु यह विधान गुरुकुल में ही पढ़े हुए विद्यार्थियों के लिए लागू नहीं होता । यह तो केवल नवीन व्यक्तियों को ही लागू होता है ।

🚩24) गुरुकुल में पहले 5 वर्ष तक पढ़ानेवाले आचार्य की उम्र 35 वर्ष से अधिक होनी चाहिए और 14 वर्ष से 21 वर्ष तक के विद्यार्थियों को पढ़ानेवाले 45 से 50 वर्ष से अधिक आयु के होने चाहिए ।

🚩25) गुरुकुल में विद्यार्थी पद्मपुराण के स्वर्गखण्ड में बताये गये ब्रह्मचारी शिष्यों के धर्म का यथासंभव पालन करें ।

🚩केन्द्र सरकार चाहे तो यह सभी नियम विद्यालयों में पढ़ते समय करवाये जा सकते है उपरोक्त नियमों का पालन किया जाए तो विद्यार्थी पूर्ण बनेंगे तब वो उन्नति, वो विकास केवल एक विद्यार्थी का ही नहीं होगा बल्कि पूरे राष्ट्र का होगा । उस भारत देश की तस्वीर कुछ अलग ही निराली होगी। हमारा भारत देश सारे विश्व का मार्गदर्शक सिद्ध होगा ।

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