Showing posts with label कारण. Show all posts
Showing posts with label कारण. Show all posts

Sunday, October 4, 2020

भारत में बलात्कार कब से शुरू हुआ? आज रेप बढ़ने का कारण सरकार है?

04 अक्टूबर 2020


भारतीय संस्कृति में नारी को नारायणी का दर्जा दिया गया है और उसको पूज्य भाव से देखते हैं और अपनी पत्नी के अलावा परस्त्री को माता समान माना जाता हैं। प्राचीन भारत मे बच्चों को गुरुकुल में भेजते थे उसमे 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। किसी भी बहन बेटी के सामने बुरी नजर से भी नही देखते थे बलात्कार की तो बात ही नहीं लेकिन भारत में विदेशी मुगल आक्रमणकारियों ने आकर भारत की बहू-बेटियो, माताओं के साथ बलात्कार किया उसके बाद अंग्रेजों ने भी यही सिलसिला जारी रखा, प्राचीन भारत मे कभी बलात्कार शब्द ही नही था।




आज विदेशी चैनल, बॉलीबुड, चलचित्र, अश्लील साहित्य आदि प्रचार माध्यमों के द्वारा युवक-युवतियों को अश्लीलता परोसी जा रही है। विभिन्न सामयिकों और समाचार-पत्रों में भी तथाकथित पाश्चात्य मनोविज्ञान से प्रभावित मनोचिकित्सक और ‘सेक्सोलॉजिस्ट’ युवा छात्र-छात्राओं को चरित्र, संयम और नैतिकता से भ्रष्ट करने पर तुले हुए हैं। पाठयक्रम में भी संयम की कही भी शिक्षा नही दी जा रही है, बॉलीबुड, विज्ञापनों और इंटरनेट पर भरपूर तरीके से अश्लीलता परोसी जा रही है जिसके कारण आज मासूम बच्चियां भी बलात्कार की शिकार हो रही हैं, कुवारी लड़कियां गर्भवती बन जाती हैं और हर दिन खबरें आती रहती हैं कि आज फलानी बच्ची, लड़कीं अथवा महिला के साथ बलात्कार हुआ। कड़े कानून भी बनाये फिर भी नही रुक रहा है, इसके पीछे यही सब कारण हैं।

बलात्कार रोकने में अगर सबसे अहम भूमिका कोई निभा सकता है तो वो सरकार है, सरकार अगर पाठ्यक्रम में संयम की शिक्षा दे, अश्लीलता वाली फिल्में सेंसर बोर्ड पास ही न करे, अश्लीलता के विज्ञापन, सीरियल, वेबसाइट, इंटरनेट, साहित्य आदि सभी पर रोक लगा दें तो आज देश मे 80% बलात्कार रुक जाएंगे।
 
आज चारों तरफ बॉलीवुड, हॉलीवुड आदि भिन्न-भिन्न तरह के चलचित्रों की होड़ लगी हुई है। हमारे देश में ही नहीं अपितु प्रत्येक देश में फ़िल्म-जगत ने बच्चों, युवाओं, महिलाओं, वृद्धों आदि सभी को अपनी ओर आकर्षित कर रखा है। प्रायः लोग यह समझते हैं कि फ़िल्म देखना कोई बुरी बात नहीं क्योंकि यह तो सिर्फ एक मनोरंजन है और इससे हमारे देश का नाम ऊंचा होता है, किसी देश के देशवासियों को सम्मानित किया जाता है, इस देश में रहने वाले व्यक्ति उच्च श्रेणी के कलाकार हैं, इन्हें 'बेस्ट-फ़िल्म' का अवार्ड मिलना चाहिए इत्यादि लेकिन इस बात पर ध्यान कोई नहीं देता कि "हमारे देश की संस्कृति को बिगाड़ने में सबसे बड़ा हाथ इन फ़िल्म-जगत वालों का है।" आज के समय तरह-तरह की फिल्मों में अश्लील/कॉमेडी/रोमांस/एक्शन आदि के चलते अधिकांश व्यक्तियों को उनके जीवन का उद्देश्य तक पता नहीं होता। यहां तक की बच्चों को भी एक "कैरियर काउन्सलर" की आवश्यकता पड़ती है। प्राचीन संस्कृति और परम्परा तो खत्म हो चुकी है। अध्यात्म तो विलुप्त ही हो चुका है। व्यक्ति अध्यात्म के मार्ग को छोड़कर भौतिक मार्ग को अपना रहा है। आज व्यभिचार तेजी से बढ़ रहे हैं, अपशब्द ११-१२ वर्ष के बच्चों को कंठस्थ होते हैं। फिल्मी-दुनिया को देखकर आज कोई बच्चा अथवा व्यक्ति शिखा और यज्ञोपवीत का ग्रहण नहीं करता।

प्राचीन काल में ऐसा नहीं था। उस समय बच्चों को गुरुकुल भेजा जाता था और वहां उन्हें वैदिक शिक्षाएं दी जाती थीं। इससे वह अध्यात्म की ओर उन्नति करते थे और अपने जीवन का लक्ष्य स्वयं से निर्धारित करते थे। आर्यसमाज इन्हीं वैदिक शिक्षाओं पर जोर देता रहा है तथा फ़िल्म-जगत का विरोध भी करता रहा है। हमारा मत है कि "हमें अपने बच्चों को फिल्म-जगत से दूर रखना चाहिए व स्वयं भी दूर रहना चाहिए" क्योंकि अपनी संस्कृति को बिगाड़ने में सबसे बड़ा हाथ फिल्मी-दुनिया का ही है। इसके स्थान पर वैदिक पुस्तकें बच्चों को पढ़ाई जाए तो वह अपने जीवन का लक्ष्य स्वयं निर्धारित कर सकेंगे व अध्यात्म पथ पर उन्नति कर सकेंगे।

मेरे एक मित्र है, जो कि फ़िल्म जगत के समर्थक है। उनका मानना है कि हमें अपने बच्चों के साथ सिनेमाघरों में जाकर फ़िल्म देखना चाहिए। उन्होंने मुझे भी फिल्मी दुनिया का समर्थन करने हेतु इस तरह से कहा- "इससे हम अपने बच्चों के साथ समय व्यतीत कर पाते हैं, उन्हें समय देते हैं। जिसमें उन्हें खुशी मिलती है वह हम करते हैं।"

उन्होंने अपनी शंका व्यक्त करते हुए पूछा- अब बताइये इसमें गलत क्या है? हम तो अपने बच्चों की खुशी के लिए यह कर रहे हैं।

मेरा उत्तर- बच्चों की खुशी के लिए थोड़ा बहुत उनके मन का करना अच्छी बात है; जैसे पढ़ाई में उनकी सहायता करना, घुमाना-फिराना, खेलना आदि। इससे वह खुश भी होते हैं लेकिन "यदि बच्चा कहे कि- मुझे गाली देने में बड़ा मजा आता है, लड़कियों के साथ घूमने में सुख की अनुभूति होती है, मेरे मित्र मादक पदार्थ का सेवन करते हैं- उनको देखकर मुझे भी इच्छा होती है और कभी-कभी मैं भी कर लिया करता हूँ" तो क्या आप उसे रोकेंगे नहीं? क्या तब भी आप यही कहेंगे कि जिसमें उसकी खुशी है हम वही करेंगे? अब आप सोच रहे होंगे कि मैंने यही उदाहरण क्यों दिया? यह उदाहरण मैंने इसलिए दिया ताकि हम इन कुकर्मों के जड़ तक पहुंचे।

उच्श्रृंखलता क्यों बढ़ रही है?

सन् २०१७ में फ़िल्म जुड़वा 2 में वरुन धवन पर फिल्माया गाना 'सुन गणपति बप्पा मोरिया परेशान करें मुझे छोरियां' यह गीत हिन्दू समाज में बड़ी तेजी से प्रचलित हुआ था। यहां तक कि मन्दिर के कार्यक्रमों, विवाह-समारोह आदि में यही गीत बजाया जा रहा था। आप बताइये क्या भगवान् से यही प्रार्थना या विनती करनी चाहिए कि "हमें छोरियों से बचाओ"? सन् २०१५ में फ़िल्म "मैं तेरा हीरो" में वरुण धवन पर फिल्माया एक और गाना 'भोले मेरा दिल माने ना', सन् २०१२ में फ़िल्म रेडी में सलमान खान पर फिल्माया गाना 'इश्क के नाम पे करते सभी अब रासलीला है मैं करूं तो साला करैक्टर ढीला है' आदि। यह गीत उद्दंडता नहीं फैला रहे तो क्या कर रहे हैं?

अश्लीलता/व्यभिचार को बढ़ावा-

व्यभिचार बढ़ने का कारण भी फिल्मी-दुनिया ही है। जब बॉलीवुड में सब तरह के मनोरंजन समाप्त होने लगे तब पाश्चात्य सभ्यता ने नग्नता/अश्लीलता को जन्म दिया। अश्लील फिल्में दिखाकर खुलेआम नग्नता का प्रचार किया। इसमें मुख्य योगदान पॉर्नस्टार "सनी लियॉनी" का है। परिणामस्वरूप आज यह हो रहा है कि अखबारों में यह खबर पढ़ने को मिलती है कि "एक बाप ने अपनी बेटी का बलात्कार किया"।

अपशब्द तथा मादक पदार्थ का खुलेआम प्रचार-आजकल तो सभी फिल्मों में अपशब्द का प्रयोग हो रहा है। इसका प्रभाव बच्चों और युवाओं पर इतनी तेजी से पड़ रहा है कि उन्हें अपशब्द का पूरा शब्दकोश कंठस्थ रहता है। प्रत्येक फ़िल्म में शुरू होने से पूर्व यह लिखा होता है "धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है..."। अब इतना लिखने के बावजूद भी उसी फ़िल्म में मादक-पदार्थों का सेवन करना दिखलाया जाता है। इन फिल्मों से प्रभावित हो १८-२० के युवा तम्बाकू/धूम्रपान का शिकार हो रहे हैं।

दरअसल हम अपनी तुलना अपने आस-पास के लोगों अथवा समाज से करते हैं। यदि किसी से पूछो कि क्या आप झूठ बोलते हो? तो वह कहता है कि "मेरा पड़ोसी तो प्रतिदिन झूठ बोलता है, मैं तो कभी-कभी बोल लेता हूँ।" हम अपनी तुलना समाज के उन व्यक्तियों से करते हैं जो अपनी परम्पराओं, संस्कृतियों को समाप्त करने में लगे हैं, जिनका कोई लक्ष्य नहीं होता या होता भी है तो सिर्फ अपनी उन्नति और वह भी भौतिक रूप से। अच्छा यह बताइये, जो अध्यात्म मार्ग त्याग कर भौतिक मार्ग पर उन्नति कर रहे हैं क्या वह ऐश्वर्य के स्वामी हैं? क्या वह सुख की जिंदगी जी रहे हैं? नहीं। तो फिर हम अपनी तुलना उनसे क्यों करें? तुलना करनी है तो ऋषियों से करो, ऋषियों के ग्रन्थों से करो, महापुरुषों से करो। उनसे तुलना करने से क्या लाभ "जिन्होंने अपने जीवन में एक भी सिद्धान्त नहीं बनाया हो?" अब मैं आपसे पूछता हूँ कि क्या फिल्म जगत वाले अपने संस्कृति की रक्षा कर रहे या संस्कृति बिगाड़ रहे हैं? आपके बच्चे का भविष्य बना रहे या बिगाड़ रहे हैं? अपने भगवान पर अश्लील गीत बनाकर उनका सम्मान कर रहे या उन्हें कलंकित कर रहे?

"इतना जानने के बावजूद लोग अपने बच्चों को सिनेमाघरों में ले जाकर यही अश्लीलता भरे गाने और पिक्चर दिखाकर बहुत खुश होते हैं कि आज हमने अपने बच्चों के साथ 'सिनेमाघरों' में समय बिताया। बच्चों के साथ समय बिताना ही है तो उन्हें प्रेरणादायी पुस्तकें, क्रांतिकारियों को जीवनी, सामान्य ज्ञान, वीर रस से भरी कविताएं इत्यादि पढ़ाओ, वैदिक पुस्तक लाकर पढ़ो-पढ़ाओ और उसका महत्व बताओ। यदि फ़िल्मी-दुनिया से अपने बच्चों की रक्षा न कर सके तो यह स्पष्ट है कि "अपने बच्चों का भविष्य बर्बाद करने में आपका भी उतना ही योगदान है जितना कि फिल्मजगत वालों का।" -प्रियांशु सेठ

इस पर सरकार चाहे तो तुंरत रोक लगा सकती है और देश मे फिर से महिलाओं को वास्तविक सम्मान मिलने लगेगा।

Official  Links:👇🏻

🔺 Follow on Telegram: https://t.me/ojasvihindustan





🔺 Pinterest : https://goo.gl/o4z4BJ