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Thursday, January 28, 2021

भारत सोने की चिड़िया था फिर बार-बार हम क्यों लूटते रहें ?

28 जनवरी 2021


महान इतिहासकार विल ड्यूराँ ने अपना पूरा जीवन लगाकर वृहत ग्यारह भारी-भरकम खंडों में “स्टोरी ऑफ सिविलाइजेशन” लिखी थी । उसके प्रथम खंड में भारत संबंधी इतिहास के अंत में उन्होंने अत्यंत मार्मिक निष्कर्ष दिए थे। वह हरे एक भारत-प्रेमी के पढ़ने योग्य हैं । हजार वर्ष पहले भारत विश्व का सबसे धनी और समृद्ध देश था । मगर उसे बाहर से आने वाले लुटेरे हर साल आकर भरपूर लूटते थे। यहाँ तक कि उनके सालाना आक्रमण का समय तक नियत था मगर यह समृद्ध सभ्यता उनसे लड़ने, निपटने की कोई व्यवस्था नहीं कर पाती थी और प्रति वर्ष असहाय लुटती और रौंदी जाती थी। ड्यूराँ दुःख और आश्चर्य से लिखते हैं कि महमूद गजनवी से लेकर उसका बेटा मसूद गजनवी तक जब चाहे आकर भारत को लूटता-खसोटता रहा और ज्ञान-गुण-धन संपन्न भारत कुछ नहीं कर पाता था । ड्यूराँ ने उस परिघटना पर दार्शनिक टिप्पणी की है कि सभ्यता बड़ी अनमोल चीज है । केवल अहिंसा और शांति के मंत्र-जाप से वह नहीं बचती । उस की रक्षा के लिए सुदृढ़ व्यवस्था भी करनी होती है, नहीं तो मामूली बर्बर भी उसे तहस-नहस कर डालता है। क्या यह सीख आज भी हमारे लिए दुःखद रूप से सामयिक नहीं है ?




दुर्भाग्य से भारत के आत्म-मुग्ध उच्च वर्ग ने इतिहास से कभी कुछ नहीं सीखने की कसम खा रखी है। हजार वर्ष पहले की छोड़ दें, पिछले सत्तर-अस्सी वर्ष का भी इतिहास यही दिखाता है कि भारतीय नेता अपनी ही मोहक बातों, परिकल्पनाओं पर फिदा होकर आश्वस्त बैठ जाते हैं। कि हम किसी का बुरा नहीं चाहते, तो हमारा कोई बुरा क्यों चाहेगा । अगर कभी ऐसा कुछ हो जाता है, तो जरूर कोई गलतफहमी है जिसे ‘बात-चीत’ से सुलझा लिया जाएगा । यही उनका पूरा राजनीतिक-दर्शन है, जो निरीहता और भोलेपन का दयनीय प्रदर्शन भर रह जाता है। इसीलिए, देशी या विदेशी, हर दुष्ट और कटिबद्ध शत्रु भारत का मान-मर्दन करता रहा है।

पिछले सत्तर साल से मुस्लिम लीग, जिन्ना, माओ, पाकिस्तान, जिहादी, नक्सली, मिशनरी, आतंकवादी – सभी ने भारतीय जनता पर बेतरह जुल्म ढाए हैं । नेताओं समेत संपूर्ण उच्च वर्ग के पास उस का उत्तर क्या रहा है ? मात्र लफ्फाजी, कभी थोड़ी देर छाती पीटना, दुनिया से शिकायत करना और अपनी ओर से उसी रोजमर्रे के राजनीतिक-आर्थिक धंधे में लगे रहना। कहने के लिए हमारे पास संप्रभु राज्य-तंत्र, आधुनिक सेना, यहाँ तक कि अणु बम भी है । किन्तु वैसे ही जैसे मिट्टी के माधो के हाथ में तलवार! उस से कोई नहीं डरता क्योंकि असलियत सबको मालूम है।

वही बरायनाम असलियत जिसे जानते हुए जिन्ना ने भरोसे से ‘डायरेक्ट एक्शन’ कर पाकिस्तान लिया था। जिसे जानते चीन जब चाहे हमें आँखें दिखाता है। जिसे समझकर हर तरह के संगठित अपराधी, आतंकवादी, अलगाववादी, नक्सली जहाँ चाहे हमला करते हैं। बंधक बनाते हैं, फिरौती वसूलते हैं। इन सबसे आँखें चुराते हुए भारत के अरबपति, राजनेता, विद्वान, संपादक – तमाम उच्च वर्ग – केवल अपने रुटीन धंधे-पानी में लगा रहता है। चाहे हर दिन भारत के किसी न किसी कोने पर कोई शत्रु बाहर, भीतर से हमला करता रहे, उसे पीड़ा नहीं होती। सारे बड़े, संपन्न लोग आराम से शेयर बाजार, सिनेमा, क्रिकेट, फैशन, घोटाले, गोष्ठी-सेमिनार आदि विवध काम में लगे रहते हैं। अगर किसी एक चीज की चिंता वे नहीं करते तो वह है देश के सम्मान तथा प्रजा की रक्षा। देशवासी आज भी भगवान भरोसे हैं। महमूद गजनवी के समय के धनी भारतीयों की तरह वे अन्न, धन, रेशम, जवाहरात, ज्ञान, तकनीक, आदि तो पैदा कर सकते हैं – अपनी रक्षा नहीं कर सकते।

उन्होंने इतिहास के सबक ही नहीं, रामायण, महाभारत समेत संपूर्ण भारतीय मनीषा की अनमोल शिक्षाओं की भी पूरी उपेक्षा की है। आखिर ‘वीर भोग्या वसुंधरा’ या ‘टेढ़ जानि शंका सब काहू, वक्र चंद्रमा ग्रसहि न राहू’ आदि जैसी अनेक सूक्तियों का अर्थ क्या है? यही कि देश की रक्षा किसी भलमनसाहत, महात्मापन या वार्तालाप से नहीं होती। उसके लिए कटिबद्धता, सैन्य शक्ति और आवश्यकता होते ही उसका निर्मम प्रयोग अनिवार्य होता है। इस से किसी भी नाम पर बचने की कोशिश हो, तो निश्चय मानिए – आप हर तरह के आततायी को निमंत्रण दे रहे हैं।

भारत-विभाजन पहली बड़ी दुर्गति थी, जब लाखों सुखी, संपन्न, सुशिक्षित लोग सत्य, अहिंसा की कथित राजनीति के भरोसे एकाएक मारे गए। अन्य लाखो-लाख बेघरबार हो गए। मुट्ठी भर लोगों ने दो-चार बार संगठित हिंसा कर, डरा कर भारतीय नेताओं को विभाजन के लिए तैयार कर लिया। जब विभाजन हो गया, तो भीषण पैमाने पर पूर्वी बंगाल और पश्चिमी पंजाब में कत्लेआम हुआ। दूसरी दुर्गति कश्मीर में हुई, जब संवैधानिक रूप से भारत का हिस्सा हो जाने के बाद भी उसका अकारण, अयाचित ‘अंतर्राष्ट्रीय’ समाधान कराने का भोलापन दिखाया गया। फिर, वैसे ही भोलेपन में तिब्बत जैसा मूल्यवान मध्यवर्ती (बफर) देश कम्युनिस्ट चीन को उपहार स्वरूप सौंप कर तीसरी दुर्गति की गई। मान लिया गया कि तिब्बत पाकर चीन भारत का परम मित्र हो रहेगा। जब उसी तिब्बत पर कब्जे के सहारे माओ ने भारत पर पहले छिप कर, फिर खुला हमला किया तो ‘पंचशील’ पर मोहित हमारे नेता हतप्रभ रह गए।
 
माओ ने भारत को ‘मंदबुद्धि गाय’ और भारतीयों को ‘खोखले शब्दों का भंडार’ कहा था। गुलाम नबी फई के हाथों खेलने वाले हमारे बुद्धिजीवियों ने अभी क्या यही साबित नहीं किया? यह वस्तुतः हमारे राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग की अक्षमता के ही अलग-अलग नाम हैं। नीति-निर्माण और शासन में भीरुता इसी का प्रतिबिम्ब है। जिहादियों, माओवादियों या बाहरी मिशनरियों की भारत-विरोधी गतिविधियों पर जनता क्रुद्ध होती है। किंतु शासकीय पदों पर बैठा उच्च वर्ग भोग-विलास में मगन रहता है। वह आतंकवादियों, अपराधियों, भ्रष्टाचारियों को जानते, पहचानते भी उन्हें सजा देने का साहस नहीं रखता।

लंबे समय से यह हमारी स्थाई विडंबना है। आसुरी शक्तियों, दुष्टता और अधर्म को आँख मिलाकर न देखना, उसके प्रतिकार का दृढ़ उपाय न करना, कठिन प्रश्नों पर निर्भय होकर विचार-विमर्श तक न करना – हिन्दू उच्च वर्ग की इस मूल दुर्बलता ने उन्हें संकटों का सामना करने योग्य नहीं बनने दिया है। हमारे शासक और नीति-निर्माता हमलावरों, हिंसकों की खुशामद कर के ही सदैव काम निकालना चाहते हैं।

अब तो मान लेना चाहिए कि गाँधीजी की ‘अहिंसा’ राजनीति ने हमारे उच्च वर्ग की कायरता को एक बेजोड़ ढाल देने का ही काम किया। स्वतंत्रता से पहले और बाद भी। इसीलिए वे इसका खूब ढिंढोरा पीटते हैं। इससे उन्हें अपनी चरित्र छिपाने का मुफीद उपाय दीखता है। इसी पर कवि गोपाल सिंह नेपाली ने नेताओं को फटकारते हुए लिखा था, “चरखा चलता है हाथों से, शासन चलता तलवार से।” कवि ने यह ‘ओ दिल्ली जाने वाले राही, कहना अपनी सरकार से’ के रूप में जरूरी संदेश जैसा कहा था। यह अनायास नहीं, कि ऐसे कवि, और इसके संदेश को भी सत्ताधारियों और लगभग संपूर्ण शिक्षित समाज ने भी भुला दिया है। चाहे यह उस कवि की जन्म-शती ही क्यों न हो। क्योंकि वे भी वस्तुतः किसी अहिंसा या प्रेम से अपना जीवन चलाने में विश्वास नहीं करते। यदि करते, तो अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस, कमांडो, प्राइवेट गार्ड आदि के नियमित प्रावधान नहीं करते। इसीलिए कसाब से लेकर कलमाडी, सच्चर तक बार-बार होते रहेंगे। और किस देश में ऐसे लज्जास्पद उदाहरण हैं?

आज भारत का राजनीतिक परिदृश्य इसका दुःखद प्रमाण है। पूरा राज्यकर्म मानो नगरपालिका जैसे कार्य और शेष बंदर-बाँट, झूठी बातें कहने, करने के धंधे में बदल दिया गया है। भ्रष्टाचार से लेकर आतंकवाद, सभी गड़बड़ियों में वृद्धि का यही मुख्य कारण है। चौतरफा ढिलाई, उत्तरदायित्वहीनता और भगोड़ापन बढ़ रहा है। इस घातक बीमारी को समय रहते पहचानें। याद रहेः उत्पादन और व्यापार में वृद्धि राष्ट्रीय सुरक्षा का पर्याय नहीं। अन्यथा सोने की चिड़िया क्यों लुटती?
लेखक : डॉ शंकर शरण

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Sunday, December 13, 2020

क्रिसमस पर कई देशों ने लगा रखा है बेन, फिर भारत में क्यों मना रहे हैं ??

13 दिसंबर 2020


भारत एक ऐसा देश है जहां जिन आक्रमणकारी अंग्रेजों ने 200 साल तक देश को गुलाम बनाये रखा, भारत की संपत्ति लूटकर ले गये, अत्याचार किये, बहन-बेटियों की इज्जत लूटी, जिनसे भारत आज़ाद कराने में न जाने कितने देशवासियों ने अपने प्राणों को आहुति दे दी, उसकी कद्र किये बिना आज भी उन अंग्रेजो के बनाये त्यौहार क्रिसमस को मनाया जा रहा है ।




दुनिया में कई देशों में क्रिसमस पर प्रतिबंध लगा दिया है, उन देशों ने कारण बताया है कि हमारे देश की संस्कृति के विरुद्ध है, फिर भारत जहां की संस्कृति नष्ट करने के लिए ईसाई मिशनरियां अरबों खरबों रुपए लगा रही है वो क्यो ये त्यौहार मना रहे हैं ??

ब्रुनई देश में क्रिसमस पर प्रतिबंध

ब्रुनई देश के सुलतान ने 2015 से क्रिसमस पर बेन लगा दिया है, सुलतान ने तो क्रिसमस मानने वालों के लिए सख्त कानून बना दिया है, सुलतान ने कहा कि "यहां कोई भी क्रिसमस मनाते पकड़ा गया तो पांच साल तक कैद में डाल दिया जाएगा। यहाँ तक क़ि किसी को भी इस मौके पर बधाई देते हुए भी पाया गया या किसी ने सैंटा टोपी भी पहनी तो कैद की सजा भुगतनी होगी।"

उन्होंने कहा क़ि, क्रिसमस उत्सव के दौरान लोग क्रॉस धारण करते हैं, कैंडल जलाते हैं, क्रिसमस ट्री बनाते हैं, उनके धार्मिक गीत गाते हैं, क्रिसमस की बधाई देते हैं और उनके धर्म की प्रशंसा करते हैं। ये सारी गतिविधियाँ हमारे देश के विरूद्ध हैं। क्रिसमस के उत्सव से हमारी आस्था प्रभावित होती है।’ 

सोमालिया देश में क्रिसमस पर प्रतिबंध

सोमालिया देश की सरकार ने भी 2015 से क्रिसमस का जश्न मनाने पर रोक लगा दी है। सरकार ने चेताया कि इससे देश की जनता की आस्थाओं को खतरा हो सकता है।

उत्तर कोरिया में क्रिसमस पर प्रतिबंध

उत्तर कोरिया के तानाशाह शासक किम जोंग ने क्रिसमस मनाने पर प्रतिबंध लगा दिया है। किम जोंग ने क्रिसमस की जगह अपनी दादी किम जोंग सुक का जन्मदिन मनाने का फरमान सुनाया।

2014 में भी उत्तर कोरिया में क्रिसमस पर बैन लगा दिया गया था। यही नहीं बड़े क्रिसमस ट्री को भी हटाने का फैसला किया था। दक्षिणी कोरिया की ओर से लगाए गए बड़े क्रिसमस ट्री को हटाया गया। खुद किम जोंग क्रिसमस पर लगाए जाने वाले इन पेड़ों से नफरत करते हैं। प्योंगयांग में किसी भी दुकान या रेस्त्रां से इन्हे हटा दिया जाता है। कोरिया में सबसे ज्यादा ईसाई लोग प्योंगयांग में ही रहते हैं। यहां पर मानव अधिकार की बात करने वाले 50 हजार से 70 हजार ईसाइयों को जेलों के अंदर बंद कर दिया गया था।

चीनी विश्वविद्यालय में क्रिसमस पर प्रतिबंध, 

चीन के पूर्वोत्तर प्रांत लिआओनिंग में स्थित शेनयांग फार्मास्युटिकल विश्वविद्यालय ने 2017 में छात्रों को जारी अपने नोटिस में उनसे परिसर में किसी भी तरह का पश्चिमी त्यौहार जैसे क्रिसमस आयोजित नहीं करने के लिए कहा।

छात्र संगठन यूथ लीग ने कारण बताते हुए कहा कि कुछ नौजवान पश्चिमी त्यौहार को लेकर आंख मूंद कर उत्साहित रहते हैं, खासकर क्रिसमस संध्या या क्रिसमस के दिन और पश्चिमी संस्कृति से बचने की जरूरत है। 

चीन में यह पहली बार नहीं है जब किसी शैक्षणिक संस्थान क्रिसमस पर प्रतिबंध लगाया है। चीन में ऐसा मानना है कि पश्चिमी या विदेशी संस्कृति चीन की प्राचीन संस्कृति का क्षय कर देगी।

धन्यवाद है उन देशों को जिन्होंने इतनी छोटी आबादी वाले देश में भी क्रिसमस न मनाने का आदेश जारी किया ।

एक हमारा भारत देश जहाँ धर्म निरपेक्षता के नाम पर हिन्दू धर्म की ही जड़े काटी जा रही है।

सभी धर्म का सम्मान हो सकता है लेकिन सभी धर्म समान नही हो सकते।

हिन्दू धर्म सनातन धर्म है। ये कब से शुरू हुआ कोई नही जानता। भगवान राम भी इसी सनातन धर्म में प्रगटे और भगवान श्री कृष्ण भी।

उन देशों में क्रिसमस मनाने से वहाँ की संस्कृति नष्ट होने की आशंका है तो भारत में हम क्यों ये क्रिसमस मनाये। जबकि भारत तो ऋषि-मुनियों का देश है।

देशवासियों को सावधान होना होगा, दारू पीने वाली, गौ-मास खाने वाले, पराई स्त्रियों के साथ डांस और शारिरिक संबंध बनाने वाले पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करके उनका त्यौहार क्रिसमस न मानकर उस दिन तुलसी पूजन करें।

क्रिसमस ट्री बनाने में सामग्री व्यर्थ न गंवाएं, क्योंकि क्रिसमस ट्री यदि पेड़ों को काटकर बनाएगे तो करोड़ों पेड़ कटते हैं, यदि प्लास्टिक ट्री  हो तो करोड़ों किलोग्राम कैंसरकारक नष्ट नहीं हो सकने वाला रासायनिक कचरा बनता है। 

अतः 25 दिसम्बर को 24 घण्टे ऑक्सीजन देने वाली तुलसी पूजन करें ।

गौरतलब है कि अपने सनातन धर्म की गरिमा से जन-जन को अवगत कराने और देश में सुख, सौहार्द, स्वास्थ्य, शांति का वातावरण बनें और जन-मानस का जीवन मंगलमय हो इस लोकहितकारी उद्देश्य से हिन्दू संत आसारामजी बापू ने वर्ष 2014 से 25 दिसम्बर को ‘तुलसी पूजन' दिवस शुरू करवाया जो कि पिछले छ सालों से इस पर्व की लोकप्रियता विश्वस्तर पर देखी गयी है।

सभी लोग संकल्प लें कि 25 दिसम्बर को क्रिसमस डे न मनाकर 'तुलसीपूजा के रूप में मनायेगे।

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Sunday, July 26, 2020

आर्य कौन हैं ? क्या भारत में आर्य बाहर से आए थे ? जानिए पूरा सच ।

26 जुलाई 2020

🚩हमारे देश में मैकाले द्वारा जो विषय तय किये गए उनमे से एक था इतिहास विषय। जिसमे मैकाले ने यह कहा की भारतवासियों को उनका सच्चा इतिहास नहीं बताना है क्योंकि उनको गुलाम बनाके रखना है, इसलिए इतिहास को विकृत करके भारत में पढाया जाना चाहिए। तो भारत का इतिहास पूरी तरह से उन्होंने विकृत कर दिया। सबसे बड़ी विकृति जो हमारे इतिहास में अंग्रेजो ने डाली जो आज तक ज़हर बन कर हमारे खून मे घूम रही है, वो विकृति यह है की “हम भारतवासी आर्य कहीं बहार से आयें।” सारी दुनिया मे शोध हो जुका है की आर्य नाम की कोई जाति भारत को छोड़ कर दुनिया मे कहीं नही थी। तो बाहर से कहाँ से आ गए हम ? फिर हम को कहा गया की हम सेंट्रल एशिया से आये माने मध्य एशिया से आये। मध्य एशिया में जो जातियां इस समय निवास करती है उन सभी जातियों के DNA लिए गए, DNA आप समझते है जिसका परिक्षण करके कोई भी आनुवांशिक सुचना ली जा सकती है। तो दक्षिण एशिया में मध्य एशिया में और पूर्व एशिया में तीनो स्थानों पर रहने वाली जातियों के नागरिकों के रक्त इकठ्ठे करके उनका DNA परिक्षण किया गया और भारतवासियों का DNA परिक्षण किया गया। तो पता चला भारतवासियों का DNA दक्षिण एशिया, मध्य एशिया और पूर्व एशिया के किसी भी जाति समूह से नही मिलता है तो यह कैसे कहा जा सकता है की भारतवासी मध्य एशिया से आये, आर्य मध्य एशिया से आये ?

🚩इसका उल्टा तो मिलता है की भारतवासी मध्य एशिया मे गए, भारत से निकल कर दक्षिण एशिया में गए, पूर्व एशिया में गए और दुनियाभर की सभी स्थानों पर गए और भारतीय संस्कृति, भारतीय सभ्यता और भारतीय धर्म का उन्होंने पूरी ताकत से प्रचार प्रसार किया। तो भारतवासी दूसरी जगह पर जाकर प्रचार प्रसार करते है इसका तो प्रमाण है लेकिन भारत में कोई बाहर से आर्य नाम की जाति आई इसके प्रमाण अभी तक मिले नही और इसकी वैज्ञानिक पुष्टि भी नही हुई। इतना बड़ा झूठ अंग्रेज हमारे इतिहास में लिख गए और भला हो हमारे इतिहासकारों का उस झूठ को अंग्रेजों के जाने के 70 साल बाद भी हमें पढा रहे हैं।

🚩अभी थोड़े दिन पहले दुनिया के जेनेटिक विशेषज्ञ जो DNA, RNA आदि की जांच करनेवाले विशेषज्ञ  है इनकी एक भरी परिषद हुई थी और उस परिषद का जो अंतिम निर्णय है वो यह कहता है की “आर्य भारत में कहीं बाहर से नही आये थे, आर्य सब भारतवासी ही थे, जरुरत और समय आने पर वो भारत से बाहर गए थे।”

🚩अब आर्य हमारे यहाँ कहा जाता है श्रेष्ठ व्यक्ति को, जो भी श्रेष्ठ है वो आर्य है, कोई ऐसा जाति समूह हमारे यहाँ आर्य नही है। हमारे यहाँ तो जो भी जातियों में श्रेष्ठ व्यक्ति है वो सब आर्य माने जाते है, वो कोई भी जाति के हो सकते है, ब्राह्मण हो सकते है, क्षत्रिय हो सकते है, शुद्र हो सकते है, वैश्य हो सकते है। किसी भी वर्ण को कोई भी आदमी अगर वो श्रेष्ठ आचरण करता है हमारे यहां उसको आर्य कहा जाता है, आर्य कोई जाति समूह नही है, वो सभी जाति समूह में से श्रेष्ठ लोगों का प्रतिनिधित्व करनेवाला व्यक्ति है। ऊँचा चरित्र जिसका है, आचरण जिसका दूसरों के लिए उदाहरण के योग्य है, जिसका किया हुआ, बोला हुआ दुसरो के लिए अनुकरणीय है वो सभी आर्य है।

🚩हमारे देश में स्वामी दयानन्द जैसे लोग, भगत सिंह, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, उधम सिंह, चंद्रशेखर,अश्फाकउल्ला खान, तातिया टोपे, झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई, कितुर चिन्नम्मा यह जितने भी नाम आप लेंगे यह सभी आर्य हैं, यह सभी श्रेष्ठ हैं क्योंकि इन्होने अपने चरित्र से दूसरों के लिए उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। इसलिए आर्य कोई हमारे यहाँ जाती नहीं है। राजा जो उच्च चरित्र का है उसको आर्य नरेश बोला गया नागरिक जो उच्च चरित्र के थे उनको आर्य नागरिक बोला गया भगवान श्री राम को आर्य नरेश कहा जाता था, श्री कृष्ण को आर्य पुत्र कहा गया, अर्जुन को कई बार आर्यपुत्र का संबोधन दिया गया, युथिष्ठिर, नकुल, सहदेव को कई बार आर्यपुत्र का सम्बोधन दिया गया या द्रौपदी को कई जगह आर्यपुत्री का सम्बोधन है। तो हमारे यहाँ तो आर्य कोई जाति समूह है ही नही, यह तो सभी जातियों मे श्रेष्ठ आचरण धारण करने वाले लोग, धर्म को धारण करने वाले लोग आर्य कहलाये हैं। तो अंग्रेजों ने यह गलत हमारे इतिहास में डाल दिया।

🚩सरकार को चाहिए कि पाठ्यक्रम में सही इतिहास को पढाये जो अंग्रेजों और वामपंथियों ने इतिहास में छेड़छाड़ करके हमारी संस्कृति विरोध में लिखा है वो बदल देना चाहिए।

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Sunday, May 31, 2020

देश का नाम इंडिया बदलकर भारत अथवा हिंदुस्तान करना क्यो जरूरी है?

31 मई 2020

🚩सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई है कि इंडिया नाम रखना अंग्रेजो की गुलामी का प्रतीक है जबकि भारत अथवा हिंदुस्तान नाम रखना जरूरी है क्योंकि उससे राष्ट्रभक्ति जागृत, होगी इस पर सुनवाई 2 जून को है।

🚩नाम बदलना क्यों जरूरी हैं?

🚩कम्युनिज्म के पतन के बाद रूस, यूक्रेन, मध्य एशिया और संपूर्ण पूर्वी यूरोप में असंख्य शहरों, भवनों, सड़कों के नाम बदले गए। रूस में लेनिनग्राड को पुनः सेंट पीटर्सबर्ग, स्तालिनग्राड को वोल्गोग्राद आदि किया गया। पड़ोस में सीलोन ने अपना नाम श्रीलंका तथा बर्मा ने म्यानमार कर लिया। स्वयं ग्रेट ब्रिटेन को अपनी आधिकारिक संज्ञा बदलकर यूनाइटेड किंगडम करना पड़ा। इन नाम-परिवर्तनों के पीछे गहरी सांस्कृतिक, राजनीतिक भावनाएं रही हैं।

🚩अतः यह दुखद है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यहाँ अनेक प्रांतों और शहरों के नाम तो बदले, किंतु देश का नाम यथावत विकृत बना हुआ है। समय आ गया है कि जिन लोगों ने ‘त्रिवेन्द्रम’ को तिरुअनंतपुरम्, ‘मद्रास’ को तमिलनाडु, ‘बोंबे’ को मुंबई, ‘कैलकटा’ को कोलकाता या ‘बैंगलोर’ को बंगलूरू, ‘उड़ीसा’ को ओडिसा तथा ‘वेस्ट बंगाल’ को पश्चिमबंग आदि पुनर्नामांकित करना जरूरी समझा – उन सब को मिल-जुल कर अब ‘इंडिया’ शब्द को विस्थापित कर भारत अथवा हिंदुस्तान कर देना चाहिए। क्योंकि यह वह शब्द है जो हमें पददलित करने और दास बनाने वाली संस्था ने हम पर थोपा था।

🚩यह केवल भावना की बात नहीं। किसी देश, प्रदेश के नामकरण का गंभीर निहितार्थ होता है। दक्षिण अफ्रीका का उदाहरण शिक्षाप्रद है। वहाँ विगत दस वर्ष में 916 स्थानों के नाम बदले जा चुके हैं! इन में शहर ही नहीं, नदियों, पहाड़ों, बाँधों और हवाई अड्डों तक के नाम हैं। आगे भी कई नाम बदलने का प्रस्ताव है। यह इस सिद्धांत के आधार पर किया गया कि जो नाम जनमानस को चोट पहुँचाते हैं, उन्हें बदला ही जाना चाहिए। वहाँ यह विषय इतना गंभीर है कि ‘दक्षिण अफ्रीका ज्योग्राफीकल नेम काउंसिल’ नामक एक सरकारी आयोग इस पर सार्वजनिक सुनवाई कर रहा है।

🚩अतएव, हमारे देश का नाम सुधारना भी एक गंभीर मह्त्व का प्रश्न है। नामकरण बौद्धिक-सांस्कृतिक प्रभुत्व के प्रतीक और उपकरण होते हैं। पिछले आठ सौ वर्षों से यहाँ विदेशी आक्रांताओं ने हमारे सांस्कृतिक, धार्मिक और शैक्षिक केंद्रों को नष्ट कर उसे नया रूप और नाम देने का अनवरत प्रयास किया। अंग्रेज शासकों ने भी यहाँ अपने शासकों, जनरलों के नाम पर असंख्य स्थानों के नाम रखें। शिक्षा में वही काम लॉर्ड मैकॉले ने खुली घोषणा करके किया, कि वे भारतवासियों की मानसिकता ही बदल कर उन्हें स्वैच्छिक ब्रिटिश नौकर बनाना चाहते हैं, जो केवल शरीर से भारतीय रहेंगे।

🚩वस्तुतः नाम, शब्द और विचार बदलने का महत्व केवल अंग्रेज ही नहीं समझते थे। जब 1940 में यहाँ मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के अलग देश की माँग की और अंततः उसे लिया तो उसका नाम पाकिस्तान रखा। वे चाहते तो नए देश का नाम ‘वेस्ट इंडिया’ या ‘मगरिबी हिन्दुस्तान’ रख सकते थे – जैसा जर्मनी, कोरिया आदि के विभाजनों में हुआ था, यानी पूर्वी जर्मनी, पश्चिमी जर्मनी तथा उत्तरी कोरिया, दक्षिणी कोरिया। पर मुस्लिम लीग ने एकदम अलग, मजहबी नाम रखा। इस के पीछे भी एक पहचान छोड़ने और दूसरी अपनाने की चाहत थी। यहाँ तक कि अपने को मुगलों का उत्तराधिकारी मानते हुए भी मुस्लिम नेताओं ने मुगलिया शब्द ‘हिन्दुस्तान’ भी नहीं अपनाया। क्यों?

🚩क्योंकि नाम और शब्द कोई निर्जीव उपकरण नहीं होते। वह किसी भाषा व संस्कृति की थाती होते हैं। जैसा निर्मल वर्मा ने लिखा है, कई शब्द अपने आप में संग्रहालय होते हैं जिन में किसी समाज की सहस्त्रों वर्ष पुरानी पंरपरा, स्मृति, रीति और ज्ञान संघनित रहता है। इसीलिए जब कोई किसी भाषा को छोड़ता है तो जाने-अनजाने उसके पीछे की पूरी चेतना, परंपरा भी छोड़ता है। संभवतः इसीलिए अभी हमारे जो राष्ट्रवादी नेता, लेखक या पत्रकार पूर्णतः अंग्रेजी शिक्षा पर आधारित हैं, और जिन्होंने संस्कृत या भारतीय शास्त्रों का मूल रूप में अध्ययन नहीं किया है, वे प्रायः हिन्दू जनता की चेतना से तारतम्य नहीं रख पाते। कई बिंदुओं पर उनके विचार सेक्यूलरवादियों या हिन्दू-विरोधी ‘आधुनिकों’ से मिलने लगते हैं। क्योंकि उन बिन्दुओं पर उनकी शिक्षा विदेशी भाषा तथा विदेशी अवधारणाओं के आधार पर हुई है। इसीलिए अपनी पूरी सदभावना के बावजूद वे चिंतन में अ-भारतीय, अ-हिन्दू हो जाते हैं।

🚩वस्तुतः, सन् 1947 में हमसे जो सबसे बड़ी भूलें हुईं उन में से एक यह भी थी कि स्वतंत्र होने के बाद भी देश का नाम ‘इंडिया’ रहने दिया। टाइम्स ऑफ इंडिया के लब्ध-प्रतिष्ठित विद्वान संपादक गिरिलाल जैन ने लिखा था कि स्वतंत्र भारत में इंडिया नामक इस “एक शब्द ने भारी तबाही की”। यह बात उन्होंने इस्लामी समस्या के संदर्भ में लिखी थी। यदि देश का नाम भारत होता, तो भारतीयता से जुड़ने के लिए यहाँ किसी से अनुरोध नहीं करना पड़ता! गिरिलाल जी के अनुसार, इंडिया ने पहले इंडियन और हिन्दू को अलग कर दिया। उससे भी बुरा यह कि उसने ‘इंडियन’ को हिन्दू से बड़ा बना दिया। यदि यह न हुआ होता तो आज सेक्यूलरिज्म, डाइवर्सिटी, और मल्टी-कल्टी का शब्द-जाल व फंदा रचने वालों का काम इतना सरल न रहा होता।

🚩यदि देश का नाम भारत रहता तो इस देश के मुसलमान स्वयं को भारतीय मुसलमान कहते। इन्हें अरब में अभी भी ‘हिन्दवी’ मुसलमान’ ही कहा जाता है। सदियों से विदेशी लोग भारतवासियों को ‘हिन्दू’ ही कहते रहे और आज भी कहते हैं। यह पूरी दुनिया में हमारी पहचान है, जिस से मुसलमान भी जुड़े थे। क्योंकि वे सब हिन्दुओं से धर्मांतरित हुए लोग ही हैं (यह महात्मा गाँधी ही नही, फारुख अब्दुल्ला भी कहते हैं)। 

🚩इस प्रकार, विदेशियों द्वारा दिए गए नामों को त्यागना आवश्यक है। इस में अपनी पहचान के महत्व और गौरव की भावना है। ‘इंडिया’ को बदलकर भारत करने में किसी भाषा, क्षेत्र, जाति या संप्रदाय को आपत्ति नहीं हो सकती। भारत शब्द इस देश की सभी भाषाओं में प्रयुक्त होता रहा है। बल्कि जिस कारण मद्रास, बोम्बे, कैलकटा, त्रिवेंद्रम आदि को बदला गया, वह कारण देश का नाम बदलने के लिए और भी उपयुक्त है। इंडिया शब्द भारत पर ब्रिटिश शासन का सीधा ध्यान दिलाता है। आधिकारिक नाम में ‘इंडिया’ का पहला प्रयोग ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ में किया गया था जिसने हमें गुलाम बना कर दुर्गति की। जब वह व्यापार करने इस देश में आई थी तो यह देश स्वयं को भारतवर्ष या हिन्दुस्तान कहता था। क्या हम अपना नाम भी अपना नहीं रखा सकते?

🚩वस्तुतः पिछले वर्ष गोवा के कांग्रेस सांसद श्री शांताराम नाईक ने इस विषय में संविधान संशोधन हेतु राज्य सभा में एक निजी विधेयक प्रस्तुत किया भी था। इस में उन्होंने कहा कि संविधान की प्रस्तावना तथा अनुच्छेद एक में इंडिया शब्द को हटाकर भारत कर लिया जाए। क्योंकि भारत अधिक व्यापक और अर्थवान शब्द है, जबकि इंडिया मात्र एक भौगोलिक उक्ति। श्री नाईक को हार्दिक धन्यवाद कि वह एक बहुत बड़े दोष को पहचानकर उसे दूर करने के लिए आगे बढ़े। पर जागरूक और देशभक्त भारतवासियों द्वारा इसके पक्ष में किसी अभियान का अभाव रहा है।

🚩देश का नाम भारत करने के प्रयास में ऐसे बौद्धिक मौन-मुखर विरोध करेंगे। क्योंकि उन्हें ‘भारतीयता’ संबंधी भाव से वितृष्णा है।समस्या यह है कि जिस प्रकार कोलकाता, चेन्नई और मुंबई के लिए एक स्थानीय जनता की भावना सशक्त थी, उस प्रकार भारत के लिए नहीं दिखती। इसलिए नहीं कि इसकी चाह रखने वाले कम हैं। वरन ठीक इसीलिए कि भारत की भावना स्थानीयता की नहीं, बल्कि राष्ट्रीयता की भावना है। अतः देशभक्ति से किसी न किसी कारण दूर रहने वाले, अथवा किसी न किसी प्रकार के ‘अंतर्राष्ट्रीयतावाद’ या ‘ग्लोबल’ भाव से जुड़ाव रखने वाले राजनीतिक और बौद्धिक इसके प्रति उदासीन हैं।

🚩इंडिया शब्द को बदल कर भारत करना राष्ट्रीय प्रश्न है, इसीलिए राष्ट्रीय भाव को कमतर मानने वाले हर तरह के गुट, गिरोह और विचारधाराएं इसके प्रति दुराव रखते हैं। वे विरोध करने के लिए हर तरह की संकीर्ण भावना उभारेंगे। उत्तर भारत या कथित हिन्दी क्षेत्र की मंद सांस्कृतिक-राजनीतिक चेतना उनके लिए सुविधा करती है। इस क्षेत्र में वैचारिक दासता, आपसी कलह, अविश्वास, भेद और क्षुद्र स्वार्थ अधिक है। इन्हीं पर विदेशी, हानिकारक विचारों का भी अधिक प्रभाव है। वे बाहरी हमलावरों, पराए आक्रामक विचारों, आदि के सामने झुक जाने, उनके दीन अनुकरण को ही ‘समन्वय’, ‘संगम’, ‘अनेकता में एकता’ आदि बताते रहे हैं। यह दासता भरी आत्मप्रवंचना है, जो विदेशियों से हार जाने के बाद “आत्मसमर्पण को सामंजस्य” बताती रही है। इसी बात की डॉ. राममनोहर लोहिया ने सर्वाधिक आलोचना की थी।

🚩अतः उत्तर भारत से सहयोग की आशा कम ही है। इनमें अपने वास्तविक अवलंब को पहचानने और टिकने के बदले हर तरह के विदेशी विचारों, नकलों, दुराशाओं, शत्रुओं की सदाशयता पर आस लगाने की प्रवृत्ति हैं। इसीलिए उनमें भारत नाम की कोई ललक आज तक नहीं जगी। यह संयोग नहीं कि देश का नाम पुनर्स्थापित करने का प्रस्ताव कोंकण-महाराष्ट्र क्षेत्र से आया। जब इसे बंगाल, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश से प्रबल समर्थन मिलेगा तभी यहाँ के अंग्रेजी-परस्त भारत नाम स्वीकार करेंगे। अन्यथा उन की सहज प्रवृत्ति इस विषय को पूरी तरह दबाने की रही है। देशभक्तों को इस पर विचार करना चाहिए। लेखक : डॉ. शंकर शरण

🚩अंग्रेजों ने हमें 200 साल तक गुलाम रखा, देश की संपत्ति लूटकर ले गए, देशवासियों के साथ अनगिनत अत्याचार किये फिर भी अभी तक उनका नाम रखें और आज 72 साल हो गए फिर भी नाम नही बदला गया बड़ा आश्चर्य है। सभी अपने देश को अपने नाम से ही पुकारते है हमारे देश मे दो नाम क्यो है? जो काम सरकार को करना चाहिए था वे आज एक नागरिक ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डालकर मांग की है। सरकार को भी जनता की मांग को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट में बताना चाहिए कि देश का नाम शीघ्र बदल जाये इंडिया शब्द हटाकर भारत अथवा हिंदुस्तान कर देना चाहिए।

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Tuesday, May 12, 2020

विश्व को सर्जरी करना सिखाया भारत के ऋषि-मुनियों ने, जानिए दिव्य इतिहास!

12 मई 2020

🚩भारत की संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीन संस्कृति हैं और विश्व को सब कुछ भारत ने ही सिखाया है लेकिन हमें इतिहास सही नही पढ़ाया जा रहा है जिसके कारण हम हमारी संस्कृति की महानता नही समझ पा रहे हैं।

🚩आयुर्वेद के नियम हजारों साल पहले आयुर्वेद चिकित्सा के ऋषि-मुनियों ने बनाये हुए हैं। हमारी आयुर्वेद चिकित्सा में एक महापुरुष हुए, जिनका नाम था महर्षि चरक। इन्होने सबसे ज्यादा रिसर्च इस बात पर किया कि जड़ी बूटियों से क्या क्या बीमारियाँ ठीक होती हैं या पेड़ पोधों से कौन सी बीमारियाँ ठीक होती है। पेड़ों के पत्तों से कौन सी बीमारियाँ ठीक होती हैं, उस पर उन्होंने सबसे ज्यादा रिसर्च किया।

🚩आपको जानकर आश्चर्य होगा और ख़ुशी भी होगी कि सर्जरी का अविष्कार इसी देश में हुआ। यानी भारत में हुआ, सारी दुनिया ने सर्जरी भारत से सीखी। ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी ने यहीं से सर्जरी सीखी, अमेरिका में तो बहुत बाद में आयी सर्जरी और ब्रिटेन ने भारत से लगभग 400 साल पूर्व ही सर्जरी सीखी। ब्रिटेन के डॉक्टर यहाँ आते थे और सर्जरी सीख कर वापिस जाते थे।

🚩 महर्षि सुश्रुत शल्यचिकित्सा विज्ञान यानी सर्जरी के जनक व दुनिया के पहले शल्यचिकित्सक (सर्जन) माने जाते हैं। वे शल्यकर्म या आपरेशन में दक्ष थे। महर्षि सुश्रुत द्वारा लिखे गऐ ‘सुश्रुतसंहिता’ ग्रंथ में शल्य चिकित्सा के बारे में बहुत अहम ज्ञान विस्तार से बताया है। इनमें सुई, चाकू व चिमटे जैसे तकरीबन 125 से भी ज्यादा शल्यचिकित्सा में जरूरी औजारों के नाम और 300 तरह की शल्यक्रियाओं व उसके पहले की जाने वाली तैयारियों, जैसे उपकरण उबालना आदि के बारे में पूरी जानकारी बताई गई है।

🚩जबकि आधुनिक विज्ञान ने शल्य क्रिया की खोज तकरीबन चार सदी पहले ही की है। माना जाता है कि महर्षि सुश्रुत मोतियाबिंद, पथरी, हड्डी टूटना जैसे पीड़ाओं के उपचार के लिए शल्यकर्म यानी आपरेशन करने में माहिर थे। यही नहीं वे त्वचा बदलने की शल्यचिकित्सा भी करते थे।

🚩आपको शायद सुनकर आश्चर्य होगा कि आज से 400 साल पहले भारत में सर्जरी के बहुत बड़े विश्वविद्यालय (यूनिवर्सिटी) चला करते थें। हिमाचल प्रदेश में एक जगह है कांगड़ा, यहाँ सर्जरी का सबसे बड़ा कॉलेज था।  एक ओर जगह है भरमौर, हिमाचल प्रदेश में ही, वहां एक दूसरा बड़ा केंद्र था सर्जरी का। ऐसे ही एक तीसरी जगह है, कुल्लू, वहां भी एक बहुत बड़ा केंद्र था। अकेले हिमाचल प्रदेश में 18 ऐसे केंद्र थें। फिर उसके बाद गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र तथा सम्पूर्ण भारत में सर्जरी के एक हजार दो सौ के आसपास केंद्र थें, यहाँ अंग्रेज आकर सीखते थें। 

🚩आपको बता दे कि लंदन में एक बहुत बड़ी संस्था है जिसका नाम है फेलो ऑफ़ द रॉयल सोसाइटी ऑफ़ लंदन (FRS), इस संस्था की स्थापना उन डॉक्टरों ने की थी जो भारत से सर्जरी सीख कर गये थें और उनमें से कई डॉक्टर्स ने मेमुआर्ट्स लिखे हैं।  मेमुआर्ट्स माने अपने मन की बात।  तो उन मेमुआर्ट्स को अगर पढ़े तो इतनी ऊँची तकनीक के आधार पर सर्जरी होती थी ये आपको सुनकर आश्चर्य होगा कि 400 साल पहले इस देश में रहिनोप्लास्टिक होती थी रहिनोप्लास्टिक मतलब शरीर के किसी अंग से कुछ भी काट कर नाक के आसपास के किसी भी हिस्से में उसको जोड़ देना और पता भी नही चलता।

🚩एक कर्नल कूट अंग्रेज की डायरी में लिखा हुआ कि उसका 1799 में कर्नाटक में हैदर अली के साथ युद्ध हुआ।  हैदर अली ने उसको युद्ध में पराजित कर दिया।  हारने के बाद हैदर अली ने उसकी नाक काट दी। हमारे देश में नाक काटना सबसे बड़ा अपमान है। तो हैदर अली ने उसको मारा नही चाहे तो उसकी गर्दन काट सकता था। हराने के बाद उसकी नाक काट दी और कहा कि तुम अब जाओ कटी हुई नाक लेकर।

🚩कर्नल कूट कटी हुई नाक लेकर घोड़े पर भागा, तो हैदर अली की सीमा के बाहर उसको किसी ने देखा कि उसकी नाक से खून निकल रहा है, नाक कटी हुई है हाथ में थी। तो जब उससे पूछा कि ये क्या हो गया तो उसने सच नही बताया। तो उसने कहा कि चोट लग गयी है। तो व्यक्ति ने कहा कि ये चोट नही है तलवार से काटी हुयी है। तो कर्नल कूट मान गया की हाँ तलवार से कटी है।

🚩उस व्यक्ति ने कर्नल कूट से कहा कि तुम अगर चाहो तो हम तुम्हारी नाक जोड़ सकते है। तो कर्नल कूट ने कहा की ये तो पुरे इंग्लैंड में कोई नही कर सकता तुम कैसे कर दोगे। तो उसने कहा कि हम बहुत आसानी से कर सकते है। तो बेलगाँव में कर्नल कूट के नाक को जोड़ने का ऑपरेशन हुआ। उसका करीब तीन साढ़े तीन घंटे ऑपरेशन चला। वो नाक जोड़ी गयी फिर उसपर लेप लगाया गया। 15 दिन उसको वहां रखा गया।

🚩15 दिन बाद उसकी छूट्टी हुई, 3 महीने बाद वो लंदन पहुंचा तो लंदन वाले हैरान थे कि तुम्हारी नाक तो कहीं से कटी हुई नही दिखती। तब उसने लिखा कि ये भारतीय सर्जरी का कमाल है। तो ये जो सर्जरी हमारे देश में विकसित हुई इसके लिए महर्षि सुश्रुत ने बहुत प्रयास किये तब जाकर ये सर्जरी भारत में फैली।

🚩यहाँ तो आपको भारत के ऋषि-मुनियों की केवल एक ही खोज बताई है बाकी तो विश्व मे जितनी भी आज खोजे हो रही है वे पहले हमारे ऋषि-मुनि कर चुकें हैं बस हमे जरूरत है तो सिर्फ सही इतिहास पढ़ाने और उसके अनुसार चलने की।

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Sunday, May 10, 2020

लंदन में लाखों की सैलरी छोड़ भारत में मां-बाप की सेवा और कर रहे हैं खेती ।

10 मई 2020

🚩भारत के अधिकतर युवाओं का सपना होता है कि पढ़-लिख कर अच्छे पैकेज की नौकरी कर आराम से जीवन गुजारा जाए और उसमें अगर विदेश में जाकर बसने का मौका मिल जाए तो यह सोने पर सुहागा जैसा साबित होगा। लेकिन ऐसे भी नौजवान हैं जो विदेश में लग्जरी जीवनशैली और बड़े पैकेज की नौकरी छोड़ न केवल स्वदेश का रुख कर रहे हैं, बल्कि गांव के कठीन जीवन में कामयाबी की इबारत लिख रहे हैं।

🚩एक ऐसा ही नौजवान जोड़ा है रामदे खुटी और भारती खुटी का। रामदे और भारती काफी समय से लंदन में रह रहे थे। यहां दोनों पति-पत्नी नौकरी करके शानो-शौकत भरा जीवन जी रहे थे, लेकिन अब यह युवा कपल लंदन छोड़कर गुजरात के पोरबंदर स्थित अपने गांव वापस आ गया है। और यहां गांव में रहकर दोनों पति-पत्नी खेती तथा पशुपालन कर रहे हैं ।

🚩पोरबंदर जिले के बेरण गांव के रामदेव खुटी वर्ष 2006 में काम करने के लिए इंग्लैंड गए थे। वहां दो साल काम करने के बाद भारत वापस आए और यहां भारती से शादी कर ली  शादी के समय भारती राजकोट में एयरपोर्ट प्रबंधन और एयर होस्टेस का कोर्स कर रही थी ।

🚩भारती अपनी पढ़ाई पूरी करने अपने पति के पास 2010 में लंदन चली गई। लंदन में भारती ने इंटरनेशनल टूरिज्म एंड हॉस्पिटैलिटी मैनेजमेंट की डिग्री हासिल की इसके बाद भारती ने ब्रिटिश एयरवेज के हीथ्रो एयरपोर्ट से हेल्थ एंड सेफ्टी कोर्स भी पूरा किया और वहीं नौकरी भी करने लगी।

🚩दोनों पति-पत्नी लंदन में शानदार जीवनशैली व्यतीत करने लगे। इस दौरान उनको एक बेटा भी हो गया। लेकिन रामदे खुटी यहां गुजरात में रह रहे अपने माता-पिता को लेकर चिंतित थे। क्योंकि उनकी देखभाल के लिए यहां कोई नहीं था। इसके अलावा उनकी खेतीबाड़ी भी दूसरे लोग ही कर रहे थे।

🚩रामदे खुटी ने भारत अपने माता-पिता के पास लौटने का फैसला किया और खेती बाड़ी से ही कुछ नया करने की सोची। रामदे की इस फैसले में उनकी पत्नी भारती ने भी पूरा समर्थन दिया। इस तरह एक दिन रामदे लंदन की लग्जरी लाइफ छोड़कर अपने परिवार के साथ वापस गुजरात आ गए और नए सिरे से खेती करने लगे। यहां आकर उन्होंने माता-पिता की सेवा और खेती के साथ-साथ पशुपालन पर भी ध्यान दिया।

🚩हालांकि भारती को शुरू में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा था, क्योंकि इससे पहले उसने कभी खेतीबाड़ी नहीं की। लेकिन लगातार मेहनत के दम पर अब भारती खेती के साथ पशुपालन के ज्यादातर काम खुद ही संभालती है।

🚩रामदे ने बताया कि वह खेती के परंपरागत तरीकों को छो़ड़कर आधुनिक तरीकों को अपना रहे हैं और जैविक खेती कर रहे हैं। नियमित आमदनी के लिए उन्होंने गाय-भैंस का पालन शुरू कर दिया है, जिनकी जिम्मेदारी भारती उठा रही हैं। इस तरह वह गांव में ही एक अच्छा जीवन जी रहे हैं और सबसे बड़ी खुशी की बात ये है कि वह अपने परिवार के बीच हैं।

🚩रामदे बताते हैं कि यहां आकर उन्होंने सीखा कि गांव में रहकर भी एक आदमी शानदार जीवनशैली जी सकता है।

🚩भारत के कुछ जवान थोड़ा पढ़ लिख लेते है तो फिर वे अपने माँ-बाप की सेवा करना, खेती करना और गाय को पालना में अपने को छोटा महसूस करते है। अथवा गांव में रहने वाले युवा अपने को कोसते रहते हैं कि हम छोटी जिंगदी जी रहे है काश हम भी विदेश में होते तो मौज मस्ती करते लेकिन इन दपन्ति से बता दिया कि अपने माता-पिता और मातृ भूमि से बढ़कर कुछ भी नही है और विदेश से भी बढ़कर अपनी खेती है और अपना जीवन खुशहाल जी सकते हैं, अपने युवाओं को भी चाहिए कि अपने माता-पिता का आदर करे और जैविक खेती और पशुपालन में भी ध्यान दे जिससे जीवन स्वस्थ और सुखी जीवन जी सके।

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