Monday, July 6, 2020

डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने ऐसा तो क्या किया था जिसके कारण उनको मौत से आलिंगन करना पड़ा!

06 जुलाई 2020

🚩डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को चढ़ाया गया था तथाकथित धर्मनिरेपक्षता की बलि, इन्हे मिली थी देशप्रेम की सज़ा और इनकी मृत्यु तक को बना दिया गया ऐसा रहस्य जिसे आज तक खोलने की किसी की भी हिम्मत नहीं हो पायी है। जी हाँ चर्चा चल रही है नकली धर्मनिरपेक्षता की आंधी और हिन्दू विरोध की सुनामी में अपने आप को स्वाहा कर के कश्मीर को बचा लेने वाले अमर बलिदानी श्यामा प्रसाद मुखर्जी की.... आज भी जब जब और जहाँ जहाँ ये नारे गूँजते हैं की जहाँ हुए बलिदान मुखर्जी वो कश्मीर हमारा है तो उस महापुरुष की याद आ जाती है जिसे पहले जेल और बाद में मृत्यु इसलिए दे डाली गयी क्योकि उन्होंने कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बताते हुए वहां कूच कर देने का एलान कर दिया।

🚩भारत माता के इस वीर पुत्र का जन्म 6 जुलाई 1901 को एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। इनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी बंगाल में एक शिक्षाविद् और बुद्धिजीवी के रूप में प्रसिद्ध थे। कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक होने के पश्चात श्री मुखर्जी 1923 में सेनेट के सदस्य बने। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात, 1924 में उन्होंने कलकत्ता उच्च न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में नामांकन कराया। 1926 में उन्होंने इंग्लैंड के लिए प्रस्थान किया जहाँ लिंकन्स इन से उन्होंने 1927 में बैरिस्टर की परीक्षा उत्तीर्ण की। 33 वर्ष की आयु में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त हुए और विश्व का सबसे युवा कुलपति होने का सम्मान प्राप्त किया। श्री मुखर्जी 1938 तक इस पद को शुशोभित करते रहे।

🚩अपने कार्यकाल में उन्होंने अनेक रचनात्मक सुधार किये तथा इस दौरान ‘कोर्ट एंड काउंसिल ऑफ़ इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस बैंगलोर’ तथा इंटर यूनिवर्सिटी बोर्ड के सक्रिय सदस्य भी रहे। श्यामाप्रसाद अपनी माता पिता को प्रतिदिन नियमित पूजा-पाठ करते देखते तो वे भी धार्मिक संस्कारों को ग्रहण करने लगे। वे पिताजी के साथ बैठकर उनकी बातें सुनते। माँ से धार्मिक एवं ऐतिहासिक कथाएँ सुनते-सुनते उन्हें अपने देश तथा संस्कृति की जानकारी होने लगी। वे माता-पिता की तरह प्रतिदिन माँ काली की मूर्ति के समक्ष बैठकर दुर्गा सप्तशती का पाठ करते। परिवार में धार्मिक उत्सव व त्यौहार मनाया जाता तो उसमें पूरी रुचि के साथ भाग लेते। गंगा तट पर मंदिरों में होने वाले सत्संग समारोहों में वे भी भाग लेने जाते। आशुतोष मुखर्जी चाहते थे कि श्यामाप्रसाद को अच्छी से अच्छी शिक्षा दी जाए। उन दिनों कलकत्ता में अंग्रेजी माध्यम के अनेक पब्लिक स्कूल थे।

🚩आशुतोष बाबू यह जानते थे कि इन स्कूलों में लार्ड मैकाले की योजनानुसार भारतीय बच्चों को भारतीयता के संस्कारों से काटकर उन्हें अंग्रेजों के संस्कार देने वाली शिक्षा दी जाती है। उन्होंने एक दिन मित्रों के साथ विचार-विमर्श कर निर्णय लिया कि बालकों तथा किशोरों को शिक्षा के साथ-साथ भारतीयता के संस्कार देने वाले विद्यालय की स्थापना कराई जानी चाहिए। उनके अनन्य भक्त विश्वेश्वर मित्र ने योजनानुसार ‘मित्र इंस्टीट्यूट’ की स्थापना की। भवानीपुर में खोले गये इस शिक्षण संस्थान में बंग्ला तथा संस्कृत भाषा का भी अध्ययन कराया जाता था। श्यामा प्रसाद को किसी अंग्रेजी पब्लिक स्कूल में दाखिला दिलाने की बजाए ‘मित्र इंस्टीट्यूट’ में प्रवेश दिलाया गया। आशुतोष बाबू की प्रेरणा से उनके अनेक मित्रों ने अपने पुत्रों को इस स्कूल में दाखिला दिलाया। वे स्वयं समय-समय पर स्कूल पहुँच कर वहाँ के शिक्षकों से पाठ्यक्रम के विषय में विचार-विमर्श किया करते थे।

🚩“श्यामाप्रसाद मुखर्जी नेहरू की पहली सरकार में मंत्री थे। जब नेहरू-लियाक़त पैक्ट हुआ तो उन्होंने और बंगाल के एक और मंत्री ने इस्तीफ़ा दे दिया। उसके बाद उन्होंने जनसंघ की नींव डाली। आम चुनाव के तुरंत बाद दिल्ली के नगरपालिका चुनाव में कांग्रेस और जनसंघ में बहुत कड़ी टक्कर हो रही थी। इस माहौल में संसद में बोलते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कांग्रेस पार्टी पर आरोप लगाया कि वो चुनाव जीतने के लिए वाइन और मनी का इस्तेमाल कर रही है।” विडम्बना यह है कि तात्कालीन सत्ता के खिलाफ जाकर सच बोलने की जुर्रत करने वाले डॉ. मुखर्जी को इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी, और उससे भी बड़ी विडम्बना की बात ये है कि आज भी देश की जनता उनकी रहस्यमयी मौत के पीछे की सच को जान पाने में नाकामयाब रही है।

🚩डॉ. मुखर्जी इस प्रण पर सदैव अडिग रहे कि जम्मू एवं कश्मीर भारत का एक अविभाज्य अंग है। उन्होंने सिंह-गर्जना करते हुए कहा था कि, “एक देश में दो विधान, दो निशान और दो प्रधान, नहीं चलेगा- नही चलेगा।” समान नागरिक संहिता बनाने की बात करने वालों ने भी कभी पलट कर ये नहीं जानना चाहा की किस ने और क्यों मारा कश्मीर के रक्षक श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी को? उस समय भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 में यह प्रावधान किया गया था कि कोई भी भारत सरकार से बिना परमिट लिए हुए जम्मू-कश्मीर की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकता। डॉ. मुखर्जी इस प्रावधान के सख्त खिलाफ थे। उनका कहना था कि, “नेहरू जी ने ही ये बार-बार ऐलान किया है कि जम्मू व कश्मीर राज्य का भारत में 100% विलय हो चुका है, फिर भी यह देखकर हैरानी होती है कि इस राज्य में कोई भारत सरकार से परमिट लिए बिना दाखिल नहीं हो सकता।

🚩मुखर्जी ने कहा कि मैं नही समझता कि भारत सरकार को यह हक़ है कि वह किसी को भी भारतीय संघ के किसी हिस्से में जाने से रोक सके क्योंकि खुद नेहरू ऐसा कहते हैं कि इस संघ में जम्मू व कश्मीर भी शामिल है।” उन्होंने इस प्रावधान के विरोध में भारत सरकार से बिना परमिट लिए हुए जम्मू व कश्मीर जाने की योजना बनाई। इसके साथ ही उनका अन्य मकसद था वहां के वर्तमान हालात से स्वयं को वाकिफ कराना क्योंकि जम्मू व कश्मीर के तात्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला की सरकार ने वहां के सुन्नी कश्मीरी मुसलमानों के बाद दूसरे सबसे बड़े स्थानीय भाषाई डोगरा समुदाय के लोगों पर असहनीय जुल्म ढाना शुरू कर दिया था।

🚩1950 के आसपास ईस्ट पाकिस्तान में हिन्दुओं पर जानलेवा हमले शुरु हो गये। करीब 50 लाख हिन्दू ईस्ट पाकिस्तान को छोड़ भारत वापस आ गए। हिन्दुओं की यह हालत देखकर मुखर्जी चाहते थे कि देश पाकिस्तान के खिलाफ सख्त कदम उठाए। वह कुछ कहते इससे पहले जवाहरलाल नेहरु और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने समझौता कर लिया था। समझौते के मुताबिक दोनों देश के रिफ्यूजी बिना किसी परेशानी के अपने-अपने देश आ जा सकते थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी को नेहरु जी की यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आई। उन्होंने तुरंत ही कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया। इस्तीफ़ा देते ही उन्होंने रिफ्यूजी की मदद के काम में खुद को झोंक दिया।

🚩आख़िरकार कश्मीर को अलग कर दिया गया। उसे अपना एक नया झंडा और नई सरकार दे दी गई। एक नया कानून भी जिसके तहत कोई दूसरे राज्य का व्यक्ति वहां जाकर नहीं बस सकता। सब कुछ खत्म हो चुका था, लेकिन मुखर्जी आसानी से हार मानने वालों में से नहीं थे। ‘एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान नहीं चलेंगे’ के नारे के साथ वह कश्मीर के लिए निकल पड़े। नेहरु को इस बात की खबर हुई तो उन्होंने हर हाल में मुखर्जी को रोकने का आदेश जारी कर दिया। उन्हें कश्मीर जाने की इजाजत नहीं थी। ऐसे में मुखर्जी के पास गुप्त तरीके से कश्मीर पहुंचने के सिवा कोई दूसरा विकल्प न था। वह कश्मीर पहुंचने में सफल भी रहे।

🚩मगर उन्हें पहले कदम पर ही पकड़ लिया गया। उन पर बिना इजाजत कश्मीर में घुसने का आरोप लगा। एक अपराधी की तरह उन्हें श्रीनगर की जेल में बंद कर दिया गया। कुछ वक्त बाद उन्हें दूसरी जेल में शिफ्ट कर दिया गया। कुछ वक्त बाद उनकी बीमारी की खबरें आने लगी। वह गंभीर रुप से बीमार हुए तो उन्हें अस्पताल ले जाया गया। वहां कई दिन तक उनका इलाज किया गया। माना जाता है कि इसी दौरान उन्हें ‘पेनिसिलिन’ नाम की एक दवा का डोज दिया गया। चूंकि इस दवा से मुखर्जी को एलर्जी थी, इसलिए यह उनके लिए हानिकारक साबित हुई।

🚩कहते हैं कि डॉक्टर इस बात को जानते थे कि यह दवा उनके लिए जानलेवा है। बावजूद इसके उन्हें यह डोज दिया गया। धीरे-धीरे उनकी तबियत और खराब होती गई। अंतत: 23 जून 1953 को उन्होंने हमेशा के लिए अपनी आंखें बंद कर ली। मुखर्जी की मौत की खबर उनकी मां को पता चली तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने नेहरु से गुहार लगाई कि उनके बेटे की मौत की जांच कराई जाये। उनका मानना था कि उनके बेटे की हत्या हुई है। यह गंभीर मामला था, लेकिन नेहरू ने इसे अनदेखा कर दिया। हालाँकि, कश्मीर में उनके किये इस आन्दोलन का काफी फर्क पड़ा और बदलाव भी हुआ और कश्मीर अलग बनता बच गया।

🚩इस कड़ी में, नेहरु का रवैया लोगों के गले से नहीं उतरा। वह मुखर्जी की मौत के वाजिब कारण को जानना चाहते थे। लोगों ने आवाजें भी उठाई, लेकिन सरकार के सामने किसी की एक नहीं चली। नतीजा यह रहा कि उनकी मौत का रहस्य उनके साथ ही चला गया। इतने सालों बाद भी किसी के पास जवाब नहीं है कि उनकी मौत के पीछे की असल वजह क्या थी? 

🚩कश्मीर की अखंडता के उस महान रक्षक अमर बलिदानी श्यामा प्रसाद मुखर्जी की गाथा सदा-सदा के लिए अमर रहेगी।

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Sunday, July 5, 2020

भारतीय सेना की वीरता : जब भी विदेशी जमीन पर उतरी है, नया देश बनाया है…

05 जुलाई 2020

🚩कुछ दिनों पहले किसी ने याद दिलाया था कि भौकाल का भी अपना महत्व है। ये कोरोना को लेकर दो देशों की तुलना थी, जिसमें दोनों का काम तो एक ही जैसा था, मगर एक देश ऐसा था जहाँ के लोग अपनी कामयाबी का जोर शोर से ढिंढोरा पीटते थे। दूसरे देश के लोग जरा कम बोलने वाले थे और उतना शोर नहीं मचाते थे। इसका नतीजा ये भी था कि एक देश के लोग अक्सर कंपनियों में सीईओ या ऐसे ऊँचे पदों पर दिखते, मगर जो कम बोलने वाले थे उनका दबदबा उतना नहीं दिखता था। ऐसा भारत के साथ भी होता है। आज जिस देश को इजराइल के नाम से जाना जाता है, उसके बनने में भारत का बड़ा योगदान है।

🚩भारतीय घुड़सवार सैनिकों की मैसूर, हैदराबाद, और जोधपुर के घुड़सवारों की टुकड़ियों ने 1918 में हाइफा पर विजय का परचम फहराया था। उस दौर में ये आखिरी इस्लामिक खलीफा माने जाने वाले ओटोमन साम्राज्य का हिस्सा था। उनसे अगर ये इलाका छुड़ाया नहीं गया होता तो इजराइल कभी बनता ही नहीं। इस युद्ध में शौर्य के लिए कैप्टेन अमन सिंह बहादुर और वफादार जोर सिंह को इंडियन आर्डर ऑफ़ मेरिट, कैप्टेन अनूप सिंह और सेकंड लेफ्टिनेंट सगत सिंह को मिलिट्री क्रॉस से सम्मानित किया गया था। इस युद्ध में मेजर दलपत सिंह को भी उनकी वीरता के लिए मिलिट्री क्रॉस मिला था।

🚩इस एक युद्ध के लिए भारतीय सेना अभी भी 23 सितंबर को हाइफा दिवस मनाती है। सिर्फ इस एक युद्ध में ही नहीं बल्कि शायद जितनी बार भारतीय सैनिक युद्धों में उतरे हैं, करीब-करीब हर बार दुनिया के नक़्शे पर एक नया देश उभरकर सामने आ गया है। अफ़सोस कि इनके बारे में याद दिलाने के बदले हम बताते क्या हैं? भारत तो गाँधी का देश है जी! ये तो बुद्ध की भूमि है जी! इसका नतीजा ये होता है कि जिन्हें भारतीय सेना के युद्ध में उतरने से आतंकित होना चाहिए, वो बेचारे मासूम ये मान लेते हैं कि इन्हें थप्पड़ मार दो तो ये तो दूसरा गाल आगे कर देंगे! जाहिर है ऐसे में बेचारे दुस्साहस कर भी बैठते हैं।

🚩बीते दो चार दिनों में भारत-चीन विवाद के साथ ही कई चीज़ें बदल गई हैं। फ्राँस ने सीधे-सीधे सैन्य समर्थन देने की ही बात कर दी है। ऐसा माना जाता है कि इससे पहले विदेशी जमीन पर लड़ने के लिए वो मक्का पर कब्जे के वक्त उतरे थे। हालाँकि, आधिकारिक स्रोत इसकी पुष्टि नहीं करते लेकिन माना जाता है कि नवंबर 1979 में जब अल कह्ताबी ने मक्का पर कब्ज़ा जमा लिया था तो फ़्राँस की सैन्य मदद से ही उसे छुड़ाया गया था। फ़्राँस के ऐसा करने के साथ ही यूएनएचआरसी में भारत ने चीन को एक देश मानने की नीति में बदलाव दिखाते हुए सीधे-सीधे हांगकांग सेक्योरिटी लॉ की बात करके उसे अलग देश मान लिया है।

🚩भारत को कराची पर हुए किसी आतंकी हमले का दोषी बताने की चीनी कोशिश को UNSC में अमेरिका और जर्मनी ने रोक दिया है। टिक-टॉक और दूसरे एप्प पर भारत के प्रतिबन्ध को जहाँ एक तरफ यूएस ने जायज बताया। वहीं दूसरी तरफ उन्होंने खुद भी चीनी कम्युनिस्टों की कठपुतली होने की वजह से हुवाई कंपनी पर प्रतिबन्ध लागू कर दिए हैं। यूके ने एक कदम और आगे जाकर हॉन्गकॉन्ग के लोगों को अपने यहाँ 5 साल शरण देने (जिसके बाद वो नागरिकता ले सकते हैं), की बात की है। यूके के इस कदम से बौखलाकर चीन के विदेश मंत्रालय ने यूके को नतीजे भुगतने की धमकियाँ देना भी शुरू कर दिया है।

🚩परंपरागत रूप से चीन का करीबी माने जाने वाले रूस ने एस-400 मिसाइल डिफेन्स सिस्टम की आपूर्ति समय से पहले ही कर देने की बात की है। इसपर चीन की आपत्तियों को भी रूस ने दरकिनार कर दिया है। यानी शीत युद्ध के दौर से कहीं आगे निकलकर भारत अब फ्रंट फुट पर खेल रहा है। सिर्फ भारत के कंधे पर रखकर बन्दूक चलाने की कोई मंशा भी नहीं दिखती क्योंकि कई पश्चिमी देश अपने प्रतिबंधों और शरणार्थी प्रस्तावों के साथ खुद ही आगे आ गए हैं। अब इसे प्रधानमंत्री के लगातार के विदेश दौरों (जिनसे टुकड़ाखोरों को बड़ी समस्या थी), का नतीजा माना जाए या ना माना जाए, ये एक अलग बहस का मुद्दा हो सकता है।

🚩इन सबके बीच यूएस ने नेशनल डिफेंस ऑथोराईजेशन एक्ट पास कर दिया है। इससे अब वो गाउम द्वीप पर भारतीय, ऑस्ट्रेलियाई और जापानी पायलटों को प्रशिक्षण दे सकेंगे। ये द्वीप ऐसी जगह है जहाँ से चीन नजदीक होता है। थोड़े दिन पहले जो ऑस्ट्रेलिया के प्रधान भारतीय प्रधान को ‘शाकाहारी’ समोसे खिलाने की बात करते ट्विटर पर नजर आए थे, वो सैन्य क्षेत्र में निवेश को 40 प्रतिशत बढ़ा रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया के साथ चीन के व्यापारिक रिश्तों में हाल में आई खटास कुछ अख़बारों के कोनों में दिखी थी। वो सीधा माल नहीं खरीद रहे होंगे तो जाहिर है वहाँ भारतीय निर्यातकों के लिए एक नया बाजार भी अपने आप तैयार हो गया है।

🚩इन सारी उठापटक के बीच प्रधानमंत्री का लेह-लद्दाख पहुँच जाना सेना के लिए कैसा होगा इस बारे में कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है। जाहिर सी बात है जहाँ एक ओर इधर की सेना का मनोबल बढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर चीन का मारे गए सैनिकों की गिनती ना बताना काफी कुछ कहता है। अगर नुकसान कम हुआ होता तो सिर्फ एक सेना नायक रैंक के मारे जाने को स्वीकारकर वो नहीं छोड़ते। आराम से कहते कि हमारे तो इतने ही मरे, या एक भी नहीं मारा गया? ट्रेनिंग के लिए मार्शल आर्ट्स के प्रशिक्षकों को भेजा जाना भी काफी कुछ बताता है। पुराने दौर में “दिल्ली दूर, बीजिंग पास” कहने वाले तथाकथित नेता पता नहीं किस बिल में हैं। ऐसे मामलों पर उनकी टिप्पणी रोचक होती।

बाकी ये जो बाँके अपनी मूछों के नए स्टाइल के साथ सुबह से लेह-लद्दाख में होने की खबर के साथ टीवी पर नजर आ रहे हैं, उनसे ओनिडा टीवी के पुराने प्रचार जैसा “नेबर्स एनवी, ओनर्स प्राइड” वाली फीलिंग तो आ रही है। “जलने वाले चाहे जल जल मरेंगे” को पंचम सुर में गाइए, मुस्कुराइए, धुँआ उठता देखना मजेदार तो है ही!

🚩सबसे अधिक हिन्दू सैनिक क्यों बचे ?

🚩द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अफ्रीका के सहारा मरूस्थल में खाद्य आपूर्ति बंद हो जाने के कारण मित्र राष्ट्रों की सेनाओं को तीन दिन तक अन्न जल कुछ भी प्राप्त नहीं हो सका। चारों ओर सुनसान रेगिस्तान तथा धूल-कंकड़ों के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता था। रेगिस्तान पार करते करते कुल सात सौ सैनिकों की उस टुकड़ी में से मात्र 210 व्यक्ति ही जीवित बच पाये। बाकी सभी भूख-प्यास के कारण रास्ते में ही मर गये।

🚩आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इन जीवित सैनिकों में से 80 प्रतिशत अर्थात् 186 सैनिक हिन्दू थे। इस आश्चर्यजनक घटना का जब विश्लेषण किया गया तो विशेषज्ञों ने यह निष्कर्ष निकाला किः 'वे निश्चय ही ऐसे पूर्वजों की संतानें थीं जिनके रक्त में तप, तितिक्षा, उपवास, सहिष्णुता एवं संयम का प्रभाव रहा होगा। वे अवश्य ही श्रद्धापूर्वक कठिन व्रतों का पालन करते रहे होंगे।'

🚩हिन्दू संस्कृति के वे सपूत रेगिस्तान में अन्न जल के बिना भी इसलिए बच गये क्योंकि उन्होंने, उनके माता-पिता ने अथवा उनके दादा-दादी ने इस प्रकार की तपस्या की होगी। सात पीढ़ियों तक की संतति में अपने संस्कारों का अंश जाता है।

🚩इससे पता चलता है कि भारतीय संस्कृति का पालन करने वाले हमारे वीर जवान किसी भी कठिन से कठिन परिस्थितियों में मुकाबला करने में हमेंशा आगे रहते है, दुश्मन कितना भी शक्तिशाली दिखता हो लेकिन हमारे जांबाज जब वार करते हैं तब जैसे शेर को देखकर गीदड़ भागते है वैसे ही दुश्मन भागते हैं। हमें हमारे वीर सैनिकों पर गर्व है।

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Saturday, July 4, 2020

गुरुपूर्णिमा पर्व करोड़ो लोग क्यो मनाते है? इसकी शुरुआत कहा से हुई?

04 जुलाई 2020

🚩आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा एवं व्यासपूर्णिमा कहते हैं । गुरुपूर्णिमा गुरुपूजन का दिन है । गुरुपूर्णिमा का एक अनोखा महत्त्व भी है । अन्य दिनों की तुलना में इस तिथि पर गुरुतत्त्व सहस्र गुना कार्यरत रहता है । इसलिए इस दिन किसी भी व्यक्ति द्वारा जो कुछ भी अपनी साधना के रूप में किया जाता है, उसका फल भी उसे सहस्र गुना अधिक प्राप्त होता है । इस साल 05 जुलाई को गुरुपूर्णिमा है।

🚩भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, 18 पुराणों और उपपुराणों की रचना की । ऋषियों के बिखरे अनुभवों को समाजयोग्य बना कर व्यवस्थित किया । पंचम वेद 'महाभारत' की रचना इसी पूर्णिमा के दिन पूर्ण की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरंभ किया । तब देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन किया । तभी से व्यासपूर्णिमा मनायी जा रही है । इस दिन जो शिष्य ब्रह्मवेत्ता सदगुरु के श्रीचरणों में पहुँचकर संयम-श्रद्धा-भक्ति से उनका पूजन करता है उसे वर्षभर के पर्व मनाने का फल मिलता है ।

🚩भारत में अनादिकाल से आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा पर्व के रूप में मनाया जाता रहा है। गुरुपूर्णिमा का त्यौहार तो सभी के लिए है । भौतिक सुख-शांति के साथ-साथ ईश्वरीय आनंद, शांति और ज्ञान प्रदान करनेवाले महाभारत, ब्रह्मसूत्र, श्रीमद्भागवत आदि महान ग्रंथों के रचयिता महापुरुष वेदव्यास जी जैसे ब्रह्मवेत्ताओं का मानव ऋणी है ।

🚩भारतीय संस्कृति में सद्गुरु का बड़ा ऊँचा स्थान है । भगवान स्वयं भी अवतार लेते हैं तो गुरु की शरण जाते हैं । भगवान श्रीकृष्ण गुरु सांदीपनि जी के आश्रम में सेवा तथा अभ्यास करते थे । भगवान श्रीराम गुरु वसिष्ठजी के चरणों में बैठकर सत्संग सुनते थे । ऐसे महापुरुषों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए तथा उनकी शिक्षाओं का स्मरण करके उसे अपने जीवन मे लानेके लिए इस पवित्र पर्व ‘गुरुपूर्णिमा’ को मनाया जाता है ।

🚩गुरु का महत्त्व-

🚩गुरुदेव वे हैं, जो साधना बताते हैं, साधना करवाते हैं एवं आनंद की अनुभूति प्रदान करते हैं । गुरु का ध्यान शिष्य के भौतिक सुख की ओर नहीं, अपितु केवल उसकी आध्यात्मिक उन्नति पर होता है । गुरु ही शिष्य को साधना करने के लिए प्रेरित करते हैं, चरण दर चरण साधना करवाते हैं, साधना में उत्पन्न होनेवाली बाधाओं को दूर करते हैं, साधना में टिकाए रखते हैं एवं पूर्णत्व की ओर ले जाते हैं । गुरु के संकल्प के बिना इतना बडा एवं कठिन शिवधनुष उठा पाना असंभव है । इसके विपरीत गुरुकी प्राप्ति हो जाए, तो यह कर पाना सुलभ हो जाता है । श्री गुरुगीता में ‘गुरु’ संज्ञा की उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
गुकारस्त्वन्धकारश्च रुकारस्तेज उच्यते ।
अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः ।। – श्री गुरुगीता
अर्थ : ‘गु’ अर्थात अंधकार अथवा अज्ञान एवं ‘रु’ अर्थात तेज, प्रकाश अथवा ज्ञान । इस बात में कोई संदेह नहीं कि गुरु ही ब्रह्म हैं जो अज्ञान के अंधकार को दूर करते हैं । इससे ज्ञात होगा कि साधक के जीवन में गुरु का महत्त्व अनन्य है । इसलिए गुरुप्राप्ति ही साधक का प्रथम ध्येय है । गुरुप्राप्ति से ही ईश्वरप्राप्ति होती है अथवा यूं कहें कि गुरुप्राप्ति होना ही ईश्वरप्राप्ति है, ईश्वरप्राप्ति अर्थात मोक्षप्राप्ति- मोक्षप्राप्ति अर्थात निरंतर आनंदावस्था । गुरु हमें इस अवस्था तक पहुंचाते हैं । शिष्य को जीवनमुक्त करनेवाले गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए गुरुपूर्णिमा मनाई जाती है ।

🚩गुरुपूर्णिमा का अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व-

🚩इस दिन गुरुस्मरण करने पर शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति होने में सहायता होती है । इस दिन गुरु का तारक चैतन्य वायुमंडल में कार्यरत रहता है । गुरुपूजन करनेवाले जीव को इस चैतन्य का लाभ मिलता है । गुरुपूर्णिमा को व्यासपूर्णिमा भी कहते हैं, गुरुपूर्णिमा पर सर्वप्रथम व्यासपूजन किया जाता है । एक वचन है – व्यासोच्छिष्टम् जगत् सर्वंम् । इसका अर्थ है, विश्व का ऐसा कोई विषय नहीं, जो महर्षि व्यासजी का उच्छिष्ट अथवा जूठन नहीं है अर्थात कोई भी विषय महर्षि व्यासजी द्वारा अनछुआ नहीं है । महर्षि व्यासजी ने चार वेदों का वर्गीकरण किया । उन्होंने अठारह पुराण, महाभारत इत्यादि ग्रंथों की रचना की है । महर्षि व्यासजी के कारण ही समस्त ज्ञान सर्वप्रथम हमतक पहुंच पाया । इसीलिए महर्षि व्यासजी को ‘आदिगुरु’ कहा जाता है । ऐसी मान्यता है कि उन्हीं से गुरु-परंपरा आरंभ हुई । आद्यशंकराचार्यजी को भी महर्षि व्यासजी का अवतार मानते हैं ।

🚩गुरुपूजन का पर्व-

🚩गुरुपूर्णिमा अर्थात् गुरु के पूजन का पर्व । गुरुपूर्णिमा के दिन छत्रपति शिवाजी भी अपने गुरु का विधि-विधान से पूजन करते थे।

🚩वर्तमान में सब लोग अगर गुरु को नहलाने लग जायें, तिलक करने लग जायें, हार पहनाने लग जायें तो यह संभव नहीं है। लेकिन षोडशोपचार की पूजा से भी अधिक फल देने वाली मानस पूजा करने से तो स्वयं गुरु भी नही रोक सकते। मानस पूजा का अधिकार तो सबके पास है।

🚩"गुरुपूर्णिमा के पावन पर्व पर मन-ही-मन हम अपने गुरुदेव की पूजा करते हैं.... मन-ही-मन गुरुदेव को कलश भर-भरकर गंगाजल से स्नान कराते हैं.... मन-ही-मन उनके श्रीचरणों को पखारते हैं.... परब्रह्म परमात्मस्वरूप श्रीसद्गुरुदेव को वस्त्र पहनाते हैं.... सुगंधित चंदन का तिलक करते है.... सुगंधित गुलाब और मोगरे की माला पहनाते हैं.... मनभावन सात्विक प्रसाद का भोग लगाते हैं.... मन-ही-मन धूप-दीप से गुरु की आरती करते हैं....।"

🚩इस प्रकार हर शिष्य मन-ही-मन अपने दिव्य भावों के अनुसार अपने सद्गुरुदेव का पूजन करके गुरुपूर्णिमा का पावन पर्व मना सकता है। करोड़ों जन्मों के माता-पिता, मित्र-सम्बंधी जो न दे सके, सद्गुरुदेव वह हँसते-हँसते दे देते हैं।


🚩आजकल के विद्यार्थी बडे़-बडे़ प्रमाणपत्रों के पीछे पड़ते हैं लेकिन प्राचीन काल में विद्यार्थी संयम-सदाचार का व्रत-नियम पाल कर वर्षों तक गुरु के सान्निध्य में रहकर बहुमुखी विद्या उपार्जित करते थे। भगवान श्रीराम वर्षों तक गुरुवर वशिष्ठजी के आश्रम में रहे थे। वर्त्तमान का विद्यार्थी अपनी पहचान बड़ी-बड़ी डिग्रियों से देता है जबकि पहले के शिष्यों में पहचान की महत्ता वह किसका शिष्य है इससे होती थी। आजकल तो संसार का कचरा खोपडी़ में भरने की आदत हो गयी है। यह कचरा ही मान्यताएँ, कृत्रिमता तथा राग-द्वेषादि बढा़ता है और अंत में ये मान्यताएँ ही दुःख में बढा़वा करती हैं। अतः मनुष्य को चाहिये कि वह सदैव जागृत रहकर सत्पुरुषों के सत्संग, सान्निध्य में रहकर परम तत्त्व परमात्मा को पाने का परम पुरुषार्थ करता रहे।

🚩संत गुलाबराव महाराज जी से किसी पश्चिमी व्यक्ति ने पूछा, ‘भारत की ऐसी कौनसी विशेषता है, जो न्यूनतम शब्दों में बताई जा सकती है ?’ तब महाराजजी ने कहा, ‘गुरु-शिष्य परंपरा’ । इससे हमें इस परंपरा का महत्त्व समझ में आता है । ऐसी परंपरा के दर्शन करवाने वाला पर्व युग-युग से मनाया जा रहा है, तथा वह है, गुरुपूर्णिमा ! हमारे जीवन में गुरुका क्या स्थान है, गुरुपूर्णिमा हमें इसका स्पष्ट पाठ पढ़ाती है ।

🚩आज भारत देश में देखा जाय तो महान संतों पर आघात किया जा रहा है, अत्याचार किया जा रहा है, जिन संतों ने हमेशा देश का मंगल चाहा है । जो भारत का उज्जवल भविष्य देखना चाहते हैं । लेकिन आज उन्ही संतों को टारगेट किया जा रहा है।

🚩भारत में थोड़ी बहुत जो सुख-शांति, चैन- अमन और सुसंस्कार बचे हुए हैं तो वो संतों के कारण ही है और संतों, गुरुओं को चाहने और मानने वाले शिष्यों के कारण ही है ।

🚩लेकिन उन्ही संतों पर षड़यंत्र करके भारतवासियों की श्रद्धा के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है । "भारतवासियों को ही गुमराह करके संतों के प्रति भारतवासियों की आस्था को तोड़ा जा रहा है ।" अतः देशविरोधी तत्वों से सावधान रहें ।

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