क्रांतिकारी बालकृष्ण चापेकर बलिदान दिवस 12 मई
आज समाज का दुर्भाग्य है कि हमारी दिव्य संस्कृति का हंसी-मजाक उड़ाने वाले #अभिनेताओं और #अभिनेत्रियों
का
बर्थडे तो याद रहता है पर देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों का #बलिदान
देने वाले वीर क्रन्तिकारियों की जयंती और बलिदान दिवस का पता तक नहीं होता
।
दामोदर, बालकृष्ण और वासुदेव चापेकर |
अगर
वे देश को #गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिये अपने प्राणों की बलि
नही देते तो आज हम घरों में चैन से नही बैठे होते,आज भी हम गुलाम ही होते ।
आइये जानते है वीर बहादुर बालकृष्ण चापेकर और उनके भाइयों के जीवनकाल का इतिहास...
#चापेकर बंधु #दामोदर हरि चापेकर, #बालकृष्ण हरि चापेकर तथा वासुदेव हरि
चापेकर को संयुक्त रूप से कहा जाता हैं। ये तीनों भाई #लोकमान्य बाल गंगाधर
तिलक के सम्पर्क में थे। तीनों भाई तिलक जी को गुरुवत् सम्मान देते थे।
पुणे के तत्कालीन जिलाधिकारी #वाल्टर #चार्ल्स रैण्ड ने प्लेग समिति के
प्रमुख के रूप में पुणे में भारतीयों पर बहुत अत्याचार किए। इसकी बालगंगाधर
तिलक एवं आगरकर जी ने भारी आलोचना की जिससे उन्हें जेल में डाल दिया गया।
दामोदर हरि चाफेकर ने 22 जून 1897 को रैंड को गोली मारकर हत्या कर दी।
परिचय
चाफेकर
बंधु महाराष्ट्र के पुणे के पास चिंचवड़ नामक गाँव के निवासी थे। 22 जून
1897 को रैंड को मौत के घाट उतार कर भारत की आजादी की लड़ाई में प्रथम
क्रांतिकारी धमाका करने वाले वीर दामोदर पंत चाफेकर का जन्म 24 जून 1869 को
पुणे के ग्राम चिंचवड़ में प्रसिद्ध कीर्तनकार हरिपंत चाफेकर के ज्येष्ठ
पुत्र के रूप में हुआ था। उनके दो छोटे भाई क्रमशः बालकृष्ण चाफेकर एवं
वसुदेव चाफेकर थे। बचपन से ही सैनिक बनने की इच्छा दामोदर पंत के मन में
थी, विरासत में कीर्तनकार का यश-ज्ञान मिला ही था। महर्षि पटवर्धन एवं
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक उनके आदर्श थे।
तिलक
जी की प्रेरणा से उन्होंने युवकों का एक संगठन व्यायाम मंडल तैयार किया।
ब्रितानिया हुकूमत के प्रति उनके मन में बाल्यकाल से ही तिरस्कार का भाव
था। दामोदर पंत ने ही बंबई में रानी विक्टोरिया के पुतले पर तारकोल पोत कर,
गले में जूतों की माला पहना कर अपना रोष प्रकट किया था। 1894 से चाफेकर
बंधुओं ने पूणे में प्रति वर्ष शिवाजी एवं गणपति समारोह का आयोजन प्रारंभ
कर दिया था। इन समारोहों में चाफेकर बंधु शिवाजी श्लोक एवं गणपति श्लोक का
पाठ करते थे।
शिवाजी
श्लोक के अनुसार - भांड की तरह शिवाजी की कहानी दोहराने मात्र से
स्वाधीनता प्राप्त नहीं की जा सकती । आवश्यकता इस बात की है कि शिवाजी और
बाजी की तरह तेजी के साथ काम किए जाएं । आज हर भले आदमी को तलवार और ढाल
पकड़नी चाहिए, यह जानते हुए कि हमें राष्ट्रीय संग्राम में जीवन का जोखिम
उठाना होगा । हम धरती पर उन दुश्मनों का खून बहा देंगे, जो हमारे धर्म का
विनाश कर रहे हैं। हम तो मारकर मर जाएंगे, लेकिन तुम औरतों की तरह सिर्फ
कहानियां सुनते रहोगे ।
गणपति श्लोक में धर्म और गाय
की रक्षा के लिए कहा गया कि- उफ! ये अंग्रेज कसाइयों की तरह गाय और बछड़ों
को मार रहे हैं, उन्हें इस संकट से मुक्त कराओ। मरो, लेकिन अंग्रेजों को
मारकर। नपुंसक होकर धरती पर बोझ न बनो। इस देश को हिंदुस्तान कहा जाता है,
अंग्रेज भला किस तरह यहां राज कर सकते हैं ???
कार्य
सन्
1897 में पुणे नगर प्लेग जैसी भयंकर बीमारी से पीड़ित था। इस रोग की
भयावहता से भारतीय जनमानस अंजान था। ब्रितानिया हुकूमत ने पहले तो प्लेग
फैलने की परवाह नहीं की, बाद में प्लेग के निवारण के नाम पर अधिकारियों को
विशेष अधिकार सौंप दिए। पुणे में डब्ल्यू सी रैंड ने जनता पर जुल्म ढाना
शुरू कर दिया । प्लेग निवारण के नाम पर घर से पुरुषों की बेदखली, स्त्रियों
से बलात्कार और घर के सामानों की चोरी जैसे काम गोरे सिपाहियों ने जमकर
किए। जो जनता के लिए रैंड प्लेग से भी भयावह हो गये ।
वाल्टर
चार्ल्स रैण्ड तथा आयर्स्ट-ये दोनों अंग्रेज अधिकारी जूते पहनकर ही
हिन्दुआें के पूजाघरों में घुस जाते थे। प्लेग पीड़ितों की सहायता की जगह
लोगों को प्रताड़ित करना ही अपना अधिकार समझते थे।
इसी
अत्याचार-अन्याय के सन्दर्भ में एक दिन तिलक जी ने चाफेकर बन्धुओं से कहा,
"शिवाजी ने अपने समय में अत्याचार का विरोध किया था, किन्तु इस समय
अंग्रेजों के अत्याचार के विरोध में तुम लोग क्या कर रहे हो?' तिलक जी की
हृदय भेदी वाणी व रैंडशाही की चपेट में आए भारतीयों के बहते आंसुओं, कलांत
चेहरों ने चाफेकर बंधुओं को विचलित कर दिया।
इसके बाद इन तीनों भाइयों ने क्रान्ति का मार्ग अपना लिया। संकल्प लिया कि इन दोनों अंग्रेज अधिकारियों को छोड़ेंगे नहीं।
संयोगवश
वह अवसर भी आया, जब 22 जून 1897 को पुणे के "गवर्नमेन्ट हाउस' में महारानी
विक्टोरिया की षष्ठिपूर्ति के अवसर पर राज्यारोहण की हीरक जयन्ती मनायी
जाने वाली थी। इसमें वाल्टर चार्ल्स रैण्ड और आयर्स्ट भी शामिल हुए। दामोदर
हरि चापेकर और उनके भाई बालकृष्ण हरि चापेकर भी एक दोस्त विनायक रानडे के
साथ वहां पहुंच गए और इन दोनों अंग्रेज अधिकारियों के निकलने की प्रतीक्षा
करने लगे। रात 12 बजकर 10 मिनट पर रैण्ड और आयर्स्ट निकले और अपनी-अपनी
बग्घी पर सवार होकर चल पड़े। योजना के अनुसार दामोदर हरि चापेकर रैण्ड की
बग्घी के पीछे चढ़ गया और उसे #गोली मार दी, उधर बालकृष्ण हरि चापेकर ने भी
आर्यस्ट पर गोली चला दी। आयर्स्ट तो तुरन्त मर गया, किन्तु रैण्ड तीन दिन
बाद अस्पताल में चल बसा। पुणे की उत्पीड़ित जनता चाफेकर-बन्धुओं की
जय-जयकार कर उठी।
इस
तरह चाफेकर बंधुओं ने जनइच्छा को अपने पौरुष एवं साहस से पूरा करके भय और
आतंक की बदौलत शासन कर रहे अंग्रेजों के दिलोदिमाग में खौफ भर दिया।
गुप्तचर
अधीक्षक ब्रुइन ने घोषणा की कि इन फरार लोगों को गिरफ्तार कराने वाले को
20 हजार रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा। चाफेकर बन्धुओं के क्लब में ही दो
द्रविड़ बन्धु थे- गणेश शंकर द्रविड़ और रामचन्द्र द्रविड़। इन दोनों ने
पुरस्कार के लोभ में आकर अधीक्षक ब्रुइन को चाफेकर बन्धुओं का सुराग दे
दिया। इसके बाद दामोदर हरि चापेकर पकड़ लिए गए, पर बालकृष्ण हरि चापेकर
पुलिस के हाथ न लगे। सत्र न्यायाधीश ने दामोदर हरि चापेकर को फांसी की सजा
दी और उन्होंने मन्द मुस्कान के साथ यह सजा स्वीकार करली ।
कारागृह
में तिलक जी ने उनसे भेंट की और उन्हें "गीता' प्रदान की। 18 अप्रैल 1898
को प्रात: वही "गीता' पढ़ते हुए दामोदर हरि चाफेकर फांसीघर पहुंचे और फांसी
के तख्ते पर लटक गए। उस क्षण भी वह "गीता' उनके हाथों में थी। इनका जन्म
25 जून 1869 को पुणे जिले के चिन्यकड़ नामक स्थान पर हुआ था।
ब्रितानिया
हुकूमत इनके पीछे पड़ गई थी । बालकृष्ण चाफेकर को जब यह पता चला कि उसको
गिरफ्तार न कर पाने से पुलिस उसके सगे-सम्बंधियों को सता रही है तो वह
स्वयं पुलिस थाने में उपस्थित हो गए।
अनन्तर
तीसरे भाई वासुदेव चापेकर ने अपने साथी #महादेव गोविन्द विनायक रानडे को
साथ लेकर उन गद्दार द्रविड़-बन्धुओं को जा घेरा और उन्हें गोली मार दी। वह 8
फरवरी 1899 की रात थी। अनन्तर वासुदेव चाफेकर को 8 मई को और बालकृष्ण
चापेकर को 12 मई 1899 को यरवदा कारागृह में फांसी दे दी गई।
इनके साथी क्रांतिवीर महादेव गोविन्द विनायक रानडे को 10 मई 1899 को यरवदा कारागृह में ही फांसी दी गई।
तिलक
जी द्वारा प्रवर्तित "शिवाजी महोत्सव' तथा "#गणपति-महोत्सव' ने इन चारों
युवकों को देश के लिए कुछ कर गुजरने हेतु क्रांति-पथ का पथिक बनाया था।
उन्होंने #ब्रिटिश राज के आततायी व अत्याचारी अंग्रेज अधिकारियों को बता
दिया कि हम अंग्रेजों को अपने देश का शासक कभी नहीं स्वीकार करते और हम
तुम्हें गोली मारना अपना धर्म समझते हैं।
इस
प्रकार अपने जीवन-दान के लिए उन्होंने देश या समाज से कभी कोई प्रतिदान की
चाह नहीं रखी। वे महान #बलिदानी कभी यह कल्पना नहीं कर सकते थे कि यह देश
ऐसे #गद्दारों से भर जाएगा, जो भारतमाता की वन्दना करने से भी इनकार
करेंगे।
दामोदर
पंत चापेकर ने स्पष्ट रूप से लिखा था कि क्या किसी भी इतिहास प्रसिद्ध
व्यक्ति ने कभी नेशनल कांफ्रेस कर या भाषण देकर दुनिया को संगठित करने की
#कोशिश की है?
इसका उत्तर अवश्य ही "नहीं" में मिलेगा।
सख्त
अफसोस की बात है कि वर्तमान समय के हमारे शिक्षित लोगों में यह समझने की
भी अक्ल नहीं कि किसी भी देश की भलाई तभी होती है, जब करोड़ों गुणवान लोग
अपनी जिंदगी की परवाह न करके युद्ध क्षेत्र में मौत का सामना करते हैं ।
अन्याय के खिलाफ हरसंभव तरीके से प्रतिकार करने की शिक्षा हमें अपने इस
महान #योद्धाओं से मिलती है। चाफेकर बंधुओं द्वारा रैंड की हत्या रूपी किया
गया पहला धमाका #अंग्रेजों के प्रति उनकी गहरी नफरत का नतीजा था ।
आज
भी हम मानसिक रूप से तो अंगेजों के ही गुलाम हैं और जब तक हम खुद इन
गुलामी की जंजीरों को नहीं तोड़ेंगे तबतक हमें स्वन्तंत्रता दिलाने के लिए
अपने जीवन की परवाह न करने वाले वीर #शहीदों को सच्ची #श्रद्धांजलि नहीं
मिलेगी !!
इस
देश को तोड़ने,हमारी #संस्कृति की जडें खोखली करने कभी मुगल तो कभी अंग्रेज
आये और अब मिशनरियां लगी हैं हमें फिर से गुलामी की जंजीरें पहनाने में ।
अब समय आ चुका है कि जब #हिंदुओं को आपसी मनमुटाव भूलकर एक हो जाना चाहिए
नहीं तो फिर से गुलामी का जीवन जीने के लिए तैयार रहें ।
जागो हिन्दू !!!
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🇮🇳 आज़ाद भारत🇮🇳
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