23 अक्टूबर 2020
पेरिस में एक ईसाई शिक्षक की सिर काटकर हत्या कर दी गई। हत्यारा चेचन्या मूल का 18 वर्षीय युवक था जिसे पुलिस ने गोली मारकर दोज़ख पंहुचा दिया। सारा फ्रांस शिक्षक के समर्थन में सड़कों पर उतर आया। कुछ दिनों पहले चार्ली हेब्दों के दफ्तर के समीप कुछ पत्रकारों को चाकू मारकर घायल कर दिया गया था। यह प्रकरण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा था। फ्रांस की सरकार ने तत्काल कार्यवाही करते हुए इस्लाम के कट्टरपंथी मौलानाओं को देश से निर्वासन और मस्जिदों को बंद करने की कार्यवाही की हैं।
संयोग से जिस दिन उक्त शिक्षक की हत्या हुई उस दिन से ठीक एक वर्ष पहले भारत में कमलेश तिवारी की भी गला काटकर हत्या हुई। भारत के लोग कमलेश तिवारी के लिए न सड़कों पर आये और न ही उनकी हत्या पर देशव्यापी जनाक्रोश देखने को मिला। उसके विपरीत भारत में गौहत्या में शामिल दादरी के अख़लाक़ और अलवर के पहलु खान के लिए अपने आपको सेक्युलर और लिबरल कहने वाला मीडिया, NGO, मनावाधिकार कार्यकर्ता, राजनेता पुरजोर समर्थन में खड़े हो गए। प्रश्न उठता है हम हिन्दू हितों के लिए कब खड़े होंगें। पिछले 1200 वर्षों में हम अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंगलादेश को खो चुके हैं। कश्मीर, केरल, असम, उत्तर प्रदेश से लेकर देश के 100 से अधिक जिलों में हिन्दू अल्पसंख्यक हो चुके हैं। बंगलादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों को विधिवत रूप से बसाया गया हैं। राजा दाहिर, पृथ्वीराज चौहान, गुरु गोविन्द सिंह, वीर शिवाजी, वीर शम्भाजी, वीर हकीकत राय जैसे हमारें कुछ महान पूर्वजों के नाम है जिनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।
आधुनिक काल में तलवार का स्थान कलम ने ले लिया। अभिव्यक्ति के नाम पर मुसलमान हिन्दू देवी देवताओं और मान्यताओं पर अनेक आघात करते। जिनके उत्तर हिन्दुओं के वीर शिरोमणि देते थे। अंग्रेजी राज के काल में मुसलमानों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का फायदा उठाते हुए सबसे पहले 1845 ई में हिन्दू धर्म की आलोचना करते हुए रद्दे हनूद (हिन्दू मत का खंडन) नामक किताब लिखी जिसका प्रतिउत्तर चौबे बद्रीदास ने रद्दे मुसलमान (मुस्लिम मत का खंडन) नामक पुस्तक लिख कर दिया। इसके बाद अब्दुल्लाह नामक व्यक्ति ने 1856 ई में हिन्दू देवी-देवताओं की कठोर आलोचना और निंदा करते हुए तोहफतुल-हिन्द (भारत की सौगात) के नाम से उर्दू में प्रकाशित की। पंडित लेखराम जी के अनुसार इस पुस्तक से अनेक अज्ञानी हिन्दू मुसलमान बने। ऐसी विकट स्थिति में मुरादाबाद निवासी मुंशी इन्द्रमणि हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए तोहफतुल-इस्लाम (इस्लाम का उपहार) के नाम से फारसी में दिया। सैय्यद महमूद हुसैन ने इसके खंडन में खिलअत-अल-हनूद नामक पुस्तक छापी। उसके प्रतिउत्तर में मुंशी जी ने पादाशे इस्लाम नामक पुस्तक 1866 में छापी।इसके तीन वर्ष पश्चात मुंशी जी ने एक मुसलमान द्वारा लिखी पुस्तक असूले दीने हिन्दू (हिन्दू धर्म के सिद्धांत) नामक पुस्तक का उत्तर देने के लिए असूले दीने अहमद (इस्लाम के सिद्धांत) के नाम से लिखी।
इस पर मुसलमानों ने अत्यंत अश्लील पुस्तक 'तेगे फकीर बर गर्दने शरीर' (दुष्ट व्यक्तियों की गर्दन पर फकीर की तलवार) और हदिया उल असलाम नामक पुस्तक छापी। इसके जवाब में मुंशी जी ने हमलये हिन्द(1863), समसामे हिन्द और सौलते हिन्द (1868) नामक तीन पुस्तकें मेरठ से छपवायीं। इसके स्वरुप मुसलमानों में तीव्र प्रतिक्रिया हुई और एक मुस्लिम पत्र जामे जमशीद ने 16 मई 1881 के अंक में मुंशी जी के विरुद्ध मुसलमानों को उत्तेजित किया जिसके कारण सरकार ने मुंशी जी के खिलाफ़ वारंट निकाल दिया एवं कचहरी में मुकदमा चलाया गया। यद्यपि मुंशी जी द्वारा वकीलों द्वारा पूछे गए सभी प्रश्नों का सप्रमाण उत्तर दिया गया मगर फिर भी निचली अदालत ने 500 रुपये जुर्माना किया एवं उनकी पुस्तकों को फड़वा दिया। मुंशी जी ने उपरतली अदालत में अपील की। तत्कालीन आर्य समाचार मेरठ, आर्यदर्पण शाहजहाँपुर आदि में लेख लिखें। भारत सरकार, गवर्नर जनरल शिमला आदि को आवेदनपत्र भेजे। गवर्नर ने मुक़दमे की कार्यवाही शिमला मंगवाई मगर मामला विचाराधीन है कहकर जुर्माने की रकम को घटाकर 100 रुपये कर दिया गया और मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं के विरुद्ध लिखी गई पुस्तकों को नजरअंदाज कर दिया गया। मामला हाई कोर्ट में गया मगर जुर्माना बहाल रखा गया। अंत में तीव्र आंदोलन होने पर मुंशी जी का जुर्माना भी क्षमा कर दिया गया। स्वामी दयानंद ने आर्यसमाज के पत्रों के माध्यम से मुंशी जी की धन से सहायता करने की अपील भी निकाली थी। मुंशी जी ने मेला चाँदपुर शास्त्रार्थ में स्वामी जी के साथ आर्यसमाज के पक्ष को प्रस्तुत किया था और आर्यसमाज मुरादाबाद के प्रधान पद पर भी रहे थे। स्वामी दयानंद पर इस मुक़दमे के कारण अंग्रेज सरकार की न्यायप्रियता एवं पक्षपात रहित सोच पर अनेक संशय उत्पन्न हो गए। सही पक्ष होते हुए भी मुंशी जी को तंग किया गया, उनकी पुस्तकें नष्ट की गई एवं मुसलमानों की पुस्तकों पर कोई कार्यवाही नहीं की गई। स्वामी जी शांत बैठने वालों में से नहीं थे। अपने लंदन में पढ़ रहे अपने शिष्य पंडित श्याम जी कृष्ण को लंदन की पार्लियामेंट में इस मामले को उठाने की सलाह अपने पत्र व्यवहार में दी जिससे की अंग्रेज सरकार द्वारा भारत में सामान्य जनता के विरुद्ध कैसा व्यवहार होता है इससे लंदन निवासी परिचित हो सकें। अंग्रेजों द्वारा पक्षपात करने के कारण स्वामी दयानंद का चिंतन निश्चित रूप से स्वदेशी राजा एवं स्वतंत्रता की ओर पहले से अधिक प्रेरित होना कोई अतिश्योक्ति नहीं है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर स्वामी दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश की रचना कर चिर काल से सो रही मानव जाति को जगाया। सत्यार्थ प्रकाश आरम्भ के दस समुल्लासों की बजाय अंत के चार समुल्लासों के कारण अधिक चर्चा में रहा है। सत्यार्थ प्रकाश के विपक्ष में इतना अधिक साहित्य लिखा गया कि एक वृहद पुस्तकालय ही बन जाये। इसका मूल कारण स्वामी जी के उद्देश्य को ठीक प्रकार से समझना नहीं था। स्वामी जी का उद्देश्य किसी की भावना को आहत करना नहीं अपितु सत्य का मंडन एवं असत्य का खंडन था और मनुष्य के जीवन का उद्देश्य भी यही है। स्वामी जी का कहना था कि मत-मतान्तर के आपसी मतभेद के चलते धर्म का ह्रास हुआ है एवं मानव जाति की व्यापक हानि हुई है और जब तक यह मतभेद नहीं छूटेगा तब तक आनंद नहीं होगा। पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी के अनुसार सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से स्वामी दयानंद ने रूढ़िवादी एवं असत्य मान्यताओं पर जो कुठाराघात किया वह सैद्धांतिक, पक्षपात रहित एवं तर्कसंगत था जबकि उससे पहले लिखी गई पुस्तकों में प्राय: भद्दी गलियां एवं अश्लील भाषा की भरमार अधिक होती थी। स्वामी जी सामाजिक चेतना के पक्षधर थे।
स्वामी दयानंद के पश्चात पंडित लेखराम द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत आर्यमर्यादा का पालन करते हुए वैदिक धर्म के विरुद्ध प्रकाशित हो रही पुस्तकों का प्रत्युत्तर दिया। पंडित जी द्वारा रचित रिसाला जिहाद के विरुद्ध मुसलमानों ने 1892 में कोर्ट में केस किया था जिसकी पैरवी लाला लाजपत राय जी द्वारा बखूबी की गई थी। अंततः विजय आर्यसमाज की हुई थी। अहमदिया जमात के मिर्जा गुलाम अहमद ने बरहीन अहमदिया नामक पुस्तक चंदा मांग कर छपवाई। पंडित जी ने उसका उत्तर तकजीब ए बरहीन अहमदिया लिखकर दिया। मिर्जा ने सुरमाये चश्मे आर्या (आर्यों की आंख का सुरमा) लिखा जिसका पंडित जी ने उत्तर नुस्खाये खब्ते अहमदिया (अहमदी खब्त का ईलाज) लिख कर दिया। अंत में धोखे से पंडित जी को पेट में छुरा मारकर क़त्ल कर दिया गया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए पंडित लेखराम जी का अमर बलिदान हुआ।
सन १९२३ में मुसलमानों की ओर से दो पुस्तकें "१९ वीं सदी का महर्षि" और “कृष्ण,तेरी गीता जलानी पड़ेगी ” प्रकाशित हुई थी। पहली पुस्तक में आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद का सत्यार्थ प्रकाश के १४ सम्मुलास में कुरान की समीक्षा से खीज कर उनके विरुद्ध आपतिजनक एवं घिनोना चित्रण प्रकाशित किया था जबकि दूसरी पुस्तक में श्री कृष्ण जी महाराज के पवित्र चरित्र पर कीचड़ उछाला गया था। उस दौर में विधर्मियों की ऐसी शरारतें चलती ही रहती थी पर धर्म प्रेमी सज्जन उनका प्रतिकार उन्ही के तरीके से करते थे। महाशय राजपाल ने स्वामी दयानंद और श्री कृष्ण जी महाराज के अपमान का प्रति उत्तर १९२४ में "रंगीला रसूल" के नाम से पुस्तक छाप कर दिया, जिसमे मुहम्मद साहिब की जीवनी व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत की गयी थी। यह पुस्तक उर्दू में थी और इसमें सभी घटनाएँ इतिहास सम्मत और प्रमाणिक थी। पुस्तक में लेखक के नाम के स्थान पर “दूध का दूध और पानी का पानी "छपा था। वास्तव में इस पुस्तक के लेखक पंडित चमूपति जी थे जो की आर्यसमाज के श्रेष्ठ विद्वान् थे। वे महाशय राजपाल के अभिन्न मित्र थे। मुसलमानों के ओर से संभावित प्रतिक्रिया के कारण चमूपति जी इस पुस्तक में अपना नाम नहीं देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने महाशय राजपाल से वचन ले लिया की चाहे कुछ भी हो जाये, कितनी भी विकट स्थिति क्यूँ न आ जाये वे किसी को भी पुस्तक के लेखक का नाम नहीं बतायेगे। महाशय राजपाल ने अपने वचन की रक्षा अपने प्राणों की बलि देकर की पर पंडित चमूपति सरीखे विद्वान् पर आंच तक न आने दी। १९२४ में छपी रंगीला रसूल बिकती रही पर किसी ने उसके विरुद्ध शोर न मचाया फिर महात्मा गाँधी ने अपनी मुस्लिमपरस्त नीति में इस पुस्तक के विरुद्ध एक लेख लिखा। इस पर कट्टरवादी मुसलमानों ने महाशय राजपाल के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया। सरकार ने उनके विरुद्ध १५३ए धारा के अधीन अभियोग चला दिया। अभियोग चार वर्ष तक चला। राजपाल जी को छोटे न्यायालय ने डेढ़ वर्ष का कारावास तथा १००० रूपये का दंड सुनाया गया। इस फैसले के विरुद्ध अपील करने पर सजा एक वर्ष तक कम कर दी गई। इसके बाद मामला हाई कोर्ट में गया। कँवर दिलीप सिंह की अदालत ने महाशय राजपाल को दोषमुक्त करार दे दिया। मुसलमान इस निर्णय से भड़क उठे। खुदाबख्स नामक एक पहलवान मुसलमान ने महाशय जी पर हमला कर दिया जब वे अपनी दुकान पर बैठे थे पर संयोग से आर्य सन्यासी स्वतंत्रानंद जी महाराज एवं स्वामी वेदानन्द जी महाराज वह उपस्थित थे। उन्होंने घातक को ऐसा कसकर दबोचा की वह छुट न सका। उसे पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया गया, उसे सात साल की सजा हुई। रविवार ८ अक्टूबर १९२७ को स्वामी सत्यानन्द जी महाराज को महाशय राजपाल समझ कर अब्दुल अज़ीज़ नमक एक मतान्ध मुसलमान ने एक हाथ में चाकू, एक हाथ में उस्तरा लेकर हमला कर दिया। स्वामी जी घायल कर वह भागना ही चाह रहा था की पड़ोस के दुकानदार महाशय नानकचंद जी कपूर ने उसे पकड़ने का प्रयास किया। इस प्रयास में वे भी घायल हो गए तो उनके छोटे भाई लाला चुन्नीलाल जी उसकी ओर लपके। उन्हें भी घायल करते हुए हत्यारा भाग निकला पर उसे चौक अनारकली, लाहौर पर पकड़ लिया गया। उसे चौदह वर्ष की सज़ा हुई ओर तदन्तर तीन वर्ष के लिए शांति की गारंटी का दंड सुनाया गया। स्वामी सत्यानन्द जी के घाव ठीक होने में करीब डेढ़ महीना लगा। ६ अप्रैल १९२९ को महाशय राजपाल अपनी दुकान पर आराम कर रहे थे। तभी इल्मदीन नामक एक मतान्ध मुसलमान ने महाशय जी की छाती में छुरा घोप दिया जिससे महाशय जी का तत्काल प्राणांत हो गया। हत्यारा अपने जान बचाने के लिए भागा ओर महाशय सीताराम जी के लकड़ी के टाल में घुस गया। महाशय जी के सुपुत्र विद्यारतन जी ने उसे कस कर पकड़ लिया। पुलिस हत्यारे को पकड़ कर ले गई और बाद में मुसलमानों द्वारा पूरा जोर लगाने पर भी इल्मदीन को फाँसी की सजा हुई। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में यह निराला बलिदान था।
लाहौर में आर्यसमाज के पुस्तक विक्रेता वीर परमानन्द जी को जेठ की दोपहरी में उस समय मार दिया गया जब वह उर्दू सत्यार्थ प्रकाश की प्रतियोँ को लेने अपनी दुकान पर गए थे। मुसलमानों के लिए सत्यार्थ प्रकाश के १४ वे समुल्लास में कुरान की समीक्षा के उद्देश्य को मजहबी आक्रोश में हिंसा का रास्ता अपनाना दुर्भाग्यपूर्ण फैसला था।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की पंक्ति में वीर नाथूराम जी का बलिदान स्मरणीय है। वीर नाथूराम का जन्म 1 अप्रैल 1904 को हैदराबाद सिंध प्रान्त में हुआ था। पंजाब में उठे आर्य समाज के क्रांतिकारी आन्दोलन से आप प्रभावित होकर 1927 में आप आर्यसमाज में सदस्य बनकर कार्य करने लगे। उन दिनों इस्लाम और ईसाइयत को मानने वाले हिन्दुओं को अधिक से अधिक धर्म परिवर्तन कर अपने मत में सम्मिलित करने की फिराक में रहते थे। 1931 में अहमदिया (मिर्जाई) मत की अंजूमन ने सिंध में कुछ विज्ञापन निकल कर हिन्दू धर्म और हिन्दू वीरों पर गलत आक्षेप करने शुरू कर दिए। जिसे पढ़कर आर्यवीर नाथूराम से रहा न गया और उन्होंने ईसाईयों द्वारा लिखी गयी पुस्तक ‘तारीखे इस्लाम’ का उर्दू से सिन्धी में अनुवाद कर उसे प्रकाशित किया और एक ट्रैक लिखा जिसमे मुसलमान मौलवियों से इस्लाम के विषय में शंका पूछी गई थी। ये दोनों साहित्य नाथूराम जी ने निशुल्क वितरित की थी । इससे मुसलमानों में खलबली मच गई। उन्होंने भिन्न भिन्न स्थानों में उनके विरुद्ध आन्दोलन शुरू कर दिया। इन हलचलों और विरोध का परिणाम हुआ की सरकार ने नाथूराम जी पर अभियोग आरंभ कर दिया। नाथूराम जी ने कोर्ट में यह सिद्ध किया की प्रथम तो ये पुस्तक मात्र अनुवाद है इसके अलावा इसमें जो तर्क दिए गए है वे सब इस्लाम की पुस्तकों में दिए गए प्रमाणों से सिद्ध होते है। जज ने उनकी दलीलों को अस्वीकार करते हुए उन्हें 1000 रूपये दंड और कारावास की सजा सुनाई। इस पक्षपात पूर्ण निर्णय से सारे सिंध में तीखी प्रतिक्रिया हुई। इस निर्णय के विरुद्ध चीफ़ कोर्ट में अपील करी गई। 20 सितम्बर 1934 को कोर्ट में जज के सामने नाथूराम जी ने अपनी दलीले पेश करी। अब जज को अपना फैसला देना था। तभी एक चीख से पूरी अदालत की शांति भंग हो गई। अब्दुल कय्यूम नामक मतान्ध मुस्लमान ने नाथूराम जी पर चाकू से वार कर उन्हें घायल कर दिया जिससे वे शहिद हो गए। चीफ जज ने वीर नाथूराम के मृत देह को सलाम किया। बड़ी धूम धाम से वीर नाथूराम की अर्थी निकली। हजारो की संख्या में हिन्दुओ ने वीर नाथूराम को विदाई दी। अब्दुल कय्यूम को पकड़ लिया गया। उसे बचाने की पूरजोर कोशिश की गयी मगर उसे फांसी की सजा हुई।
इतिहास से कुछ उदहारण यह दर्शाने के लिए दिए है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए हमारे यहाँ कितने महान आत्माओं ने अपने बलिदान दिए। हमारे देश में बिलकुल विपरीत हो रहा है।
अभिव्यक्ति के नाम पर हिन्दू समाज की मान्यताओं और सिद्धांतों को निशाना बनाया जाता हैं। उनका प्रत्युत्तर देने वालों को कट्टरपंथी और दक्षिणपंथी कहा जाता हैं। आज देश को तोड़ने वाली शक्तियाँ अभिव्यक्ति के नाम पर उलटे सीधे प्रपंच कर समाज का अहित कर रही है। अभिव्यक्ति पर अंकुश होना दकियानूसी सोच है मगर अभिव्यक्ति का अनियंत्रित होना मीठे जहर के समान है। सदाचारी, पुरुषार्थी, धर्मात्मा मनुष्यों के हाथों में समाज का मार्गदर्शन होना चाहिए जिससे कि धर्मविरोधी, नास्तिक, भोग-विलासी, देशद्रोही ताकतों को अवसर न मिले। अंत में उन सभी महान आत्माओं को श्रद्धांजलि जिन्होंने समाज सुधार के लक्ष्य से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए अपने जीवन की आहुति दी। डॉ. विवेक आर्य
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