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Monday, May 24, 2021

जानिए विश्व महिला दिवस का इतिहास,महिला उत्थान मंडल क्या करेगा

07 मार्च 2021

azaadbharat.org

अंतराष्ट्रीय महिला दिवस हर वर्ष, 8 मार्च को मनाया जाता है। विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति सम्मान, प्रशंसा और प्रेम प्रकट करते हुए इस दिन को महिलाओं की उपलब्धियों के उपलक्ष्य में उत्सव के तौर पर मनाया जाता है ।



अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (International Women's Day) 28 फरवरी 1909 को पहली बार अमेरिका में सेलिब्रेट किया गया था । सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका ने न्यूयॉर्क में 1908 में गारमेंट वर्कर्स की हड़ताल को सम्मान देने के लिए इस दिन का चयन किया ताकि इस दिन महिलाएं काम के कम घंटे और बेहतर वेतनमान के लिए अपना विरोध और मांग दर्ज करवा सकें ।

1910 में सोशलिस्ट इंटरनेशनल के कोपेनहेगन सम्मेलन में इसे अन्तर्राष्ट्रीय दर्जा दिया गया । उस समय इसका प्रमुख ध्येय महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिलवाना था, क्योंकि उस समय अधिकतर देशों में महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं था ।

1913-14 में महिला दिवस युद्ध का विरोध करने का प्रतीक बन कर उभरा । रुसी महिलाओं ने पहली बार अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस फरवरी माह के आखिरी दिन पर मनाया और पहले विश्व युद्ध का विरोध दर्ज किया । यूरोप में महिलाओं ने 8 मार्च को पीस ऐक्टिविस्ट्स को सपोर्ट करने के लिए रैलियां कीं ।

1917 में रूस की महिलाओं ने, 8 मार्च महिला दिवस पर रोटी और कपड़े के लिये हड़ताल पर जाने का फैसला किया । यह हड़ताल भी ऐतिहासिक थी । जार ने सत्ता छोड़ी, अन्तरिम सरकार ने महिलाओं को वोट देने के अधिकार दिया । उस समय रूस में जुलियन कैलेंडर चलता था और बाकी दुनिया में ग्रेगेरियन कैलेंडर । इन दोनो की तारीखों में कुछ अन्तर है । जुलियन कैलेंडर के मुताबिक 1917 की फरवरी का आखरी इतवार 23 फरवरी को था जबकि ग्रेगेरियन कैलैंडर के अनुसार उस दिन 8 मार्च थी । इस समय पूरी दुनिया में (यहां तक रूस में भी) ग्रेगेरियन कैलैंडर चलता है । इसी लिये 8 मार्च महिला दिवस के रूप में मनाया जाने लगा ।

1975 में यूनाइटेड नेशन्स ने 8 मार्च का दिन सेलिब्रेट करना शुरू किया । 1975 वह पहला साल था जब अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया ।

2011 में अमेरिका के पूर्व प्रेजिडेंट बराक ओबामा ने 8 मार्च को महिलाओं का ऐतिहासिक मास कहकर पुकारा । उन्होंने यह महीना पूरी तरह से महिलाओं की मेहनत, उनके सम्मान और देश के इतिहास को महत्वपूर्ण आकार प्रकार देने के लिए उनके प्रति समर्पित किया ।


महिला उत्थान मंडल द्वारा देशभर में सौंपें जायेंगें ज्ञापन:-


महिला उत्थान मंडल महिला कार्यकर्ताओं ने कहा कि हमारी भारतीय संस्कृति में महिलाओं को देवी का दर्जा प्रदान किया गया है ।


“यस्य  नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता”

अर्थात जहाँ नारियों की पूजा होती है वहां पर ईश्वर स्वयं निवास करते हैं ।


एक समय था जब हमारे देश में भारतीय नारी को देवी और लक्ष्मी का रूप मानकर देश की महिलाओं को पूजा जाता था, लेकिन पश्चात्य संस्कृति का अंधानुसरण करके टीवी, फिल्मों, मीडिया, अश्लील उपन्यास आदि के कारण इन्सान अपने चरित्र से इस कदर नीचे गिर गया है कि उसके लिए स्त्री एक पूजनीय और देवी का रूप न होकर केवल उपभोग की वस्तु समझी जाने लगी है ।


उन्होंने आगे कहा कि महिलाओं को लेकर अनेक प्रकार की कुरीतियों का भी जन्म हुआ है जैसे दहेज, कन्या भ्रूण हत्या, उपभोग की वस्तु समझना ऐसी तमाम बुराईयाँ जन्म ले चुकी हैं, इसे रोकने के लिए हिंदू संत आशारामजी बापू ने महिला सशक्तिकरण के लिए अनेक कार्य किये हैं । कॉल सेंटरों, ऑफिसों में हो रहे महिला शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद की तथा महिलाओं में आत्मबल, आत्मविश्वास, साहस, संयम-सदाचार के गुणों को विकसित करने के लिए महिला उत्थान मंडलों का गठन किया है जिससे जुड़कर कई महिलाएँ उन्नत हो रही हैं ।


उन्होंने आगे कहा कि बापू आशारामजी द्वारा बनाये गए महिला उत्थान मंडल द्वारा महिलाओं के लिए महिला सर्वांगीण विकास शिविर व सेवा-साधना शिविरों का आयोजन, गर्भपात रोको अभियान, तेजस्विनी अभियान, युवती एवं महिला संस्कार सभाएं, दिव्य शिशु संस्कार अभियान, मुफ्त चिकित्सा सेवा, मातृ-पितृ पूजन दिवस, कैदी उत्थान कार्यक्रम, घर-घर तुलसी लगाओ अभियान, गौ रक्षा  अभियान व दरिद्रनारायण सेवा आदि समाजोत्थान के कार्य किये जाते हैं । बापूजी ने नारियों का आत्मबल जगाकर उनका वास्तविक उत्थान किया है । उनकी अनुपस्थिति के कारण उपरोक्त विश्वव्यापी सेवाकार्यों में अपूर्णीय क्षति हो रही है । उन्होंने महिलाओं की अस्मिता की रक्षा के लिए भोगवादी सभ्यता से लोहा लिया एवं अथकरूप से अनेक प्रयास किये, इसलिए उन्हें शीघ्र रिहा किया जाये ।


महिला जागृति, नारी सशक्तिकरण व महिलाओं के सर्वांगीण विकास हेतु देशभर में महिला उत्थान मंडलों का गठन किया गया है, जिनके अंतर्गत नारी उत्थान के अनेक प्रकल्प चलाये जा रहे हैं ।


*🚩उन्होंने कहा कि महिला सुरक्षा के लिए बनाए गए कानूनों का दुरूपयोग हो रहा है । कानून की आड़ में कई निर्दोष पुरुषों को फँसाया जा रहा है जिसके कारण उस पूरे परिवार को सजा भुगतनी पड़ती है । इसका विरोध करना बहुत जरूरी है ।*


विश्व की 4 प्राचीन संस्कृतियों में से केवल भारतीय संस्कृति ही अब तक जीवित रह पायी है और इसका मूल कारण है कि संस्कृति के आधारस्तम्भ संत-महापुरुष समय-समय पर भारत-भूमि पर अवतरित होते रहे हैं, लेकिन आज निर्दोष संस्कृति रक्षक संतों को अंधे कानूनों के तहत फँसाया जा रहा है ।


निर्दोष संतों पर हो रहे षड्यंत्र की भर्त्सना करते हुए महिला कार्यकर्ताओं ने कहा कि ' बापू आशारामजी ने संस्कृति-रक्षा एवं संयम-सदाचार के प्रचार-प्रसार में अपना पूरा जीवन अर्पित कर दिया । मातृ-पितृ पूजन दिवस व वसुधैव कुटुम्बकम् की लुप्त हो रही परम्पराओं की पुनः शुरूआत कर भारतीय संस्कृति के उच्च आदर्शों को पुनर्जीवित किया है । दो महिलाओं के बेबुनियाद आरोपों को मुद्दा बनाकर ऐसे महान संत को सालो से जेल में रखा गया है, क्या यही न्याय है ? हम करोड़ो बहनें जो उनके समर्थन में खड़ी हैं हमारी आवाज को क्यों नहीं सुना जा रहा है ?


मंडल की सदस्याओं का कहना है कि बढ़ रहे पाश्चात्य कल्चर के अंधानुकरण के कारण आज महिला वर्ग के जीवन में संस्काररूपी जड़ें खोखली होती नजर आ रही हैं । ऐसे में अब हमें पुनः अपने मूल की ओर लौटने की आवश्यकता है । इतिहास साक्षी है कि यह कार्य सदा संतों-महापुरुषों के द्वारा ही सम्पन्न होता रहा है । अपनी ही संस्कृति एवं देश के हित के लिए, बालकों, महिलाओं एवं युवाओं के सर्वांगीण विकास के लिए, समस्त देशवासियों की भलाई के लिए अपना जीवन होम देनेवाले पूज्य संत आशारामजी बापू द्वारा प्रेरित महिला उत्थान मंडल द्वारा 8 मार्च विश्व महिला दिवस के निमित मंडल के महत्वपूर्ण मुदों पर ध्यान केंद्रित करने व बापू आशारामजी की रिहाई की मांग करते हुए और महिलाओं की पवित्रता के लिए देशभर में मुख्य मंत्री , राज्यपाल ,कलेक्टर या अन्य उच्च अधिकारी को ज्ञापन सौंपा जाएगा ।


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Sunday, November 15, 2020

जानिए भाईदूज का इतिहास, इस दिन भाई को यमपाश से कैसे छुड़ाये?

15 नवंबर 2020


भाई दूज महत्वपूर्ण पर्व है जो भारत और नेपाल में मनाया जाता है। दीपावली के पर्व का पांचवां दिन भाईदूज भाइयों की बहनों के लिए और बहनों की भाइयों के लिए सदभावना बढ़ाने का दिन है। इस साल 16 नवंबर को भाईदूज पर्व मनाया जायेगा।

भाईदूज का इतिहास




यमराज, यमुना, तापी और शनि ये भगवान सूर्य की संताने कही जाती हैं। किसी कारण से यमराज अपनी बहन यमुना से वर्षों दूर रहे। एक बार यमराज के मन में हुआ कि 'बहन यमुना को देखे हुए बहुत वर्ष हो गये हैं।' अतः उन्होंने अपने दूतों को आज्ञा दीः "जाओ जा कर जाँच करो कि यमुना आजकल कहाँ स्थित है।"

यमदूत विचरण करते-करते धरती पर आये तो सही किंतु उन्हें कहीं यमुना जी का पता नहीं लगा। फिर यमराज स्वयं विचरण करते हुए मथुरा आये और विश्रामघाट पर बने हुए यमुना के महल में पहुँचे।

बहुत वर्षों के बाद अपने भाई को पाकर बहन यमुना ने बड़े प्रेम से यमराज का स्वागत-सत्कार किया और यमराज ने भी उसकी सेवा सुश्रुषा के लिए याचना करते हुए कहाः "बहन ! तू क्या चाहती है? मुझे अपनी प्रिय बहन की सेवा का मौका चाहिए।"

यमुना जी ने कहाः ''भैया ! आज नववर्ष की द्वितीया है। आज के दिन भाई बहन के यहाँ आये या बहन भाई के यहाँ पहुँचे और जो कोई भाई बहन से स्नेह से मिले, ऐसे भाई को यमपुरी के पाश से मुक्त करने का वचन को तुम दे सकते हो।"

यमराज प्रसन्न हुए और बोलेः "बहन ! ऐसा ही होगा।"

पौराणिक दृष्टि से आज भी लोग बहन यमुना और भाई यम के इस शुभ प्रसंग का स्मरण करके आशीर्वाद पाते हैं व यम के पाश से छूटने का संकल्प करते हैं।

यह पर्व भाई-बहन के स्नेह का द्योतक है। कोई बहन नहीं चाहती कि उसका भाई दीन-हीन, तुच्छ हो, सामान्य जीवन जीने वाला हो, ज्ञानरहित, प्रभावरहित हो। इस दिन भाई को अपने घर पाकर बहन अत्यन्त प्रसन्न होती है अथवा किसी कारण से भाई नहीं आ पाता तो स्वयं उसके घर चली जाती है।

बहन भाई को इस शुभ भाव से तिलक करती है कि 'मेरा भैया त्रिनेत्र बने। बहन तिलक करके अपने भाई को प्रेम से भोजन कराती है और बदले में भाई उसको वस्त्र-अलंकार, दक्षिणादि देता है। बहन निश्चिंत होती है कि 'मैं अकेली नहीं हूँ.... मेरे साथ मेरा भैया है।'

दीपावली के तीसरे दिन आने वाला भाईदूज का यह पर्व, भाई की बहन के संरक्षण की याद दिलाने वाला और बहन द्वारा भाई के लिए शुभ कामनाएँ करने का पर्व है।

इस दिन बहन को चाहिए कि अपने भाई की दीर्घायु के लिए यमराज से अर्चना करे और इन अष्ट चिरंजीवीयों के नामों का स्मरण करेः मार्कण्डेय, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा और परशुराम। 'मेरा भाई चिरंजीवी हो' ऐसी उनसे प्रार्थना करे तथा मार्कण्डेय जी से इस प्रकार प्रार्थना करेः
मार्कण्डेय महाभाग सप्तकल्पजीवितः।
चिरंजीवी यथा त्वं तथा मे भ्रातारं कुरुः।।

'हे महाभाग मार्कण्डेय ! आप सात कल्पों के अन्त तक जीने वाले चिरंजीवी हैं। जैसे आप चिरंजीवी हैं, वैसे मेरा भाई भी दीर्घायु हो।' (पद्मपुराण)

इस प्रकार भाई के लिए मंगल कामना करने का तथा भाई-बहन के पवित्र स्नेह का पर्व है भाईदूज।
(स्त्रोत : संत श्री आशारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित साहित्य "पर्वो का पुंज दीपावली")

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Tuesday, October 27, 2020

बंदा बैरागी का इतिहास जानकर आपकी भी कांप उठेगी रूहें

27 अक्टूबर 2020


 भारतवासी आज जो चैन कि श्वास ले रहे हैं और स्वतंत्रता में जी रहे हैं ये हमारे देश के वीर सपूतों और महापुरुषों के बलिदान के कारण ही संभव हुआ है। उनमें से एक महापुरुष थे बन्दा बैरागी, जिन्होंने अनेक अत्याचार सहकर भी संस्कृति को जीवित रखा पर हम उनके बलिदान दिवस को ही भुल गये हैं।




बाबा बन्दा सिंह बहादुर का जन्म कश्मीर स्थित पुंछ जिले के राजौरी क्षेत्र में विक्रम संवत् 1727, कार्तिक शुक्ल 13 (27 अक्टूबर 1670) को हुआ था। वह राजपूतों के (मिन्हास) भारद्वाज गोत्र से सम्बन्धित थे और उनका वास्तविक नाम लक्ष्मणदेव था। इनके पिता का नाम रामदेव मिन्हास था।

लक्ष्मणदास ने युवावस्था में शिकार खेलते समय एक गर्भवती हिरणी पर तीर चला दिया। इससे उसके पेट से एक शिशु निकला और तड़पकर वहीं मर गया। यह देखकर उनका मन खिन्न हो गया। उन्होंने अपना नाम माधोदास रख लिया और घर छोड़कर तीर्थयात्रा पर चल दिये। अनेक साधुओं से योग साधना सीखी और फिर नान्देड़ में कुटिया बनाकर रहने लगे।

इसी दौरान गुरु गोविन्द सिंह जी माधोदास कि कुटिया में आये। उनके चारों पुत्र बलिदान हो चुके थे। उन्होंने इस कठिन समय में माधोदास से वैराग्य छोड़कर देश में व्याप्त इस्लामिक आतंक से जूझने को कहा। इस भेंट से माधोदास का जीवन बदल गया। गुरुजी ने उसे बन्दा बहादुर नाम दिया। फिर पाँच तीर, एक निशान साहिब, एक नगाड़ा और एक हुक्मनामा देकर दोनों छोटे पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले सरहिन्द के नवाब से बदला लेने को कहा। बन्दा हजारों सिख सैनिकों को साथ लेकर पंजाब कि ओर चल दिये। उन्होंने सबसे पहले श्री गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटने वाले जल्लाद जलालुद्दीन का सिर काटा। फिर सरहिन्द के नवाब वजीरखान का वध किया। जिन हिन्दू राजाओं ने मुगलों का साथ दिया था बन्दा बहादुर ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। इससे चारों ओर उनके नाम की धूम मच गयी।

बन्दासिंह को पंजाब पहुँचने में लगभग चार माह लग गये। बन्दा सिंह महाराष्ट्र से राजस्थान होते हुए नारनौल, हिसार और पानीपत पहुंचे और पत्र भेजकर पंजाब के सभी सिक्खों से सहयोग माँगा। सभी सिखों में यह प्रचार हो गया कि गुरु जी ने बन्दा को उनका जत्थेदार यानी सेनानायक बनाकर भेजा है। बंदा के नेतृत्व में वीर राजपूतो ने पंजाब के किसानो विशेषकर जाटों को अस्त्र शस्त्र चलाना सिखाया, उससे पहले जाट खेती बाड़ी किया करते थे और मुस्लिम जमींदार इनका खूब शोषण करते थे देखते ही देखते सेना गठित हो गयी।

इसके बाद बंदा सिंह का मुगल सत्ता और पंजाब हरियाणा के मुस्लिम जमींदारों पर जोरदार हमला शुरू हो गया। सबसे पहले कैथल के पास मुगल कोषागार लूटकर सेना में बाँट दिया गया, उसके बाद समाना, कुंजुपुरा, सढ़ौरा के मुस्लिम जमींदारों को धूल में मिला दिया।

बन्दा ने पहला फरमान यह जारी किया कि जागीरदारी व्यवस्था का खात्मा करके सारी भूमि का मालिक खेतिहर किसानों को बना दिया जाए।

लगातार बंदा सिंह कि विजय यात्रा से मुगल सत्ता कांप उठी और लगने लगा कि भारत से मुस्लिम शासन को बंदा सिंह उखाड़ फेकेंगे। अब मुगलों ने सिखों के बीच ही फूट डालने कि नीति पर काम किया, उसके विरुद्ध अफवाह उड़ाई गई कि बंदा सिंह गुरु बनना चाहता है और वो सिख पंथ कि शिक्षाओं का पालन नहीं करता। खुद गुरु गोविन्द सिंह जी कि दूसरी पत्नी माता सुंदरी जो कि मुगलो के संरक्षण/नजरबन्दी में दिल्ली में ही रह रही थी, से भी बंदा सिंह के विरुद्ध शिकायते कि गई । माता सुंदरी ने बन्दा सिंह से रक्तपात बन्द करने को कहा जिसे बन्दा सिंह ने ठुकरा दिया।

जिसका परिणाम यह हुआ कि ज्यादातर सिख सेना ने उनका साथ छोड़ दिया जिससे उनकी ताकत कमजोर हो गयी तब बंदा सिंह ने मुगलों का सामना करने के लिए छोटी जातियों और ब्राह्मणों को भी सैन्य प्रशिक्षण दिया।

1715 ई. के प्रारम्भ में बादशाह फर्रुखसियर की शाही फौज ने अब्दुल समद खाँ के नेतृत्व में उसे गुरुदासपुर जिले के धारीवाल क्षेत्र के निकट गुरुदास नंगल गाँव में कई मास तक घेरे रखा। पर मुगल सेना अभी भी बन्दा सिंह से डरी हुई थी।

अब माता सुंदरी के प्रभाव में बाबा विनोद सिंह ने बन्दा सिंह का विरोध किया और अपने सैंकड़ो समर्थको के साथ किला छोड़कर चले गए, मुगलों से समझोते और षड्यंत्र के कारण विनोद सिंह और उसके 500 समर्थको को निकल जाने का सुरक्षित रास्ता दिया गया। अब किले में विनोद सिंह के पुत्र बाबा कहन सिंह किसी रणनीति से रुक गए इससे बन्दा सिंह कि सिक्ख सेना कि शक्ति अत्यधिक कम हो गयी।

खाद्य सामग्री के अभाव के कारण उसने 7 दिसम्बर को आत्मसमर्पण कर दिया। कुछ साक्ष्य दावा करते हैं कि गुरु गोविन्द सिंह जी कि माता गूजरी और दो साहबजादो को धोखे से पकड़वाने वाले गंगू कश्मीरी ब्राह्मण रसोइये के पुत्र राज कौल ने बन्दा सिंह को धोखे से किले से बाहर आने को राजी किया।

मुगलों ने गुरदास नंगल के किले में रहने वाले 40 हजार से अधिक बेगुनाह मर्द, औरतों और बच्चों की निर्मम हत्या कर दी।

मुगल सम्राट के आदेश पर पंजाब के गर्वनर अब्दुल समन्द खां ने अपने पुत्र जाकरिया खां और 21 हजार सशस्त्र सैनिकों कि निगरानी में बाबा बन्दा बहादुर को दिल्ली भेजा। बन्दा को एक पिंजरे में बंद किया गया था और उनके गले और हाथ-पांव कि जंजीरों को इस पिंजरे के चारो ओर नंगी तलवारें लिए मुगल सेनापतियों ने थाम रखा था। इस जुलुस में 101 बैलगाड़ियों पर सात हजार सिखों के कटे हुए सिर रखे हुए थे जबकि 11 सौ सिख बन्दा के सैनिक कैदियों के रुप में इस जुलूस में शामिल थे।

युद्ध में वीरगति पाए सिखों के सिर काटकर उन्हें भाले कि नोक पर टाँगकर दिल्ली लाया गया। रास्ते भर गर्म चिमटों से बन्दा बैरागी का माँस नोचा जाता रहा।

मुगल इतिहासकार मिर्जा मोहम्मद हर्सी ने अपनी पुस्तक इबरतनामा में लिखा है कि हर शुक्रवार को नमाज के बाद 101 कैदियों को जत्थों के रुप में दिल्ली कि कोतवाली के बाहर कत्लगाह के मैदान में लाया जाता था। काजी उन्हें इस्लाम कबूल करने या हत्या का फतवा सुनाते। इसके बाद उन्हें जल्लाद तलवारों से निर्ममतापूर्वक कत्ल कर देते। यह सिलसिला डेढ़ महीने तक चलता रहा। अपने सहयोगियों कि हत्याओं को देखने के लिए बन्दा को एक पिंजरे में बंद करके कत्लगाह तक लाया जाता ताकि वह अपनी आंखों से इस दर्दनाक दृश्य को देख सकें।

बादशाह के आदेश पर तीन महीने तक बंदा और उसके 27 सेनापतियों को लालकिला में कैद रखा गया। इस्लाम कबूल करवाने के लिए कई हथकंडों का इस्तेमाल किया गया। जब सभी प्रयास विफल रहे तो जून माह में बन्दा कि आंखों के सामने उसके एक-एक सेनापति कि हत्या की जाने लगी। जब यह प्रयास भी विफल रहा तो बन्दा बहादुर को पिंजरे में बंद करके महरौली ले जाया गया। काजी ने इस्लाम कबूल करने का फतवा जारी किया जिसे बन्दा ने ठुकरा दिया।

बन्दा के मनोबल को तोड़ने के लिए उनके चार वर्षीय अबोध पुत्र अजय सिंह को उसके पास लाया गया और काजी ने बन्दा को निर्देश दिया कि वह अपने पुत्र को अपने हाथों से हत्या करे। जब बन्दा इसके लिए तैयार नहीं हुआ तो जल्लादों ने इस अबोध बालक का एक-एक अंग निर्ममतापूर्वक बन्दा कि आंखों के सामने काट डाला। इस मासूम के धड़कते हुए दिल को सीना चीरकर बाहर निकाला गया और बन्दा के मुंह में जबरन ठूंस दिया गया। वीर बन्दा तब भी निर्विकार और शांत बने रहे।

अगले दिन जल्लाद ने उनकी दोनों आंखों को तलवार से बाहर निकाल दिया। जब बन्दा टस से मस न हुआ तो उनका एक-एक अंग हर रोज काटा जाने लगा। अंत में उनका सिर काट कर उनकी हत्या कर दी गई। बन्दा न तो गिड़गिड़ाये और न उन्होंने चीख पुकार मचाई। मुगलों कि हर प्रताड़ना और जुल्म का उसने शांति से सामना किया और धर्म कि रक्षा के लिए बलिदान हो गया।

देश और धर्म के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने और इतनी यातनाएं सहन करने के बाद प्राणों कि आहुति दे दी लेकिन न धर्म बदला और नही अन्याय के सामने कभी झुके। इन वीर महापुरुषों को आज हिंदुस्तानी भूल रहे है और देश को तोड़ने में सहायक हीरो-हीरोइन, क्रिकेटरों का जन्म दिन याद होता है लेकिन आज हम जिनकी वजह से स्वतंत्र है उनका जन्म दिवस याद नही कितने दुर्भाग्य की बात है ।

इतिहास से हिन्दू आज सबक नही लेगा, संगठित होकर कार्य नही करेगा और हिंदू राष्ट्र कि स्थापना नही होगी तो फिर से विदेशी ताकते हावी होगी और हमें प्रताड़ित करेंगी।

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Saturday, October 24, 2020

इतिहास : महिषासुर कौन था, मां दुर्गा ने महिषासुर का वध क्यों किया था?

24 अक्टूबर 2020


 वामपंथी और नकली इतिहासकारों ने हमेशा भारत के सही इतिहास को तोड मरोड़ करके गलत इतिहास बताया है। उनका मुख्य उद्देश्य यह है कि भारतवासी अपनी असली पहचान भूल जाए, अपनी महान संस्कृति, परमपराओं की जगह पाश्चात्य संस्कृति की तरफ मुड़ जाए और दूसरा उनका उद्देश्य यह है कि "फुट डालो और राज करो" इसलिए ये लोग हिंदुओं को गलत इतिहास बताकर जातिवादी में बांट रहे है और कुछ दलित व आदिवाशी भोले भाले हिंदू उनके बहकावें में आ भी जाते हैं।




भारत में कुछ आदिवासियों को वामपंथियों ने इतिहास गलत बताया इसलिए कुछ आदिवासी महिषासुर को अपना पूर्वज मानते हैं और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी वामपंथियों द्वारा महिषासुर का महिमा मंडन किया जा रहा है उसका शहादत दिवस मनाते हैं इसलिए आपको यह जानना जरूरी है कि महिषासुर कौन था और दुर्गा माता ने उसका वध क्यों किया था।

महिषासुर का जन्म:

महिषासुर एक असुर (राक्षस) था। महिषासुर के पिता रंभ, असुरों का राजा था जो एक बार जल में रहने वाले एक भैंस से प्रेम कर बैठा और इन्हीं के योग से असुर महिषासुर का जन्म हुआ। इस वजह से महिषासुर इच्छानुसार जब चाहे भैंस और जब चाहे मनुष्य का रूप धारण कर सकता था।

महिषासुर को मिला था वरदान:

महिषासुर ने सृष्टिकर्ता ब्रम्हा जी की आराधना की थी जिससे ब्रम्हा जी ने उन्हें वरदान दिया था कि कोई भी देवता या दानव उसपर विजय प्राप्त नहीं कर सकता। महिषासुर बाद में स्वर्ग लोक के देवताओं को सताने लगा और पृथ्वी पर भी उत्पात मचाने लगा। उसने स्वर्ग पर एक बार अचानक आक्रमण कर दिया और इंद्र को परास्त कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया और सभी देवताओं को वहां से खदेड़ दिया। देवगण परेशान होकर त्रिमूर्ति ब्रम्हा, विष्णु और महेश के पास सहायता के लिए पहुंचे। सारे देवताओं ने फिर मिलकर उसे परास्त करने के लिए युद्ध किया परंतु वे फिर हार गए।

महिषासुर मर्दिनी:

देवता सर्वशक्तिमान होते हैं, लेकिन उनकी शक्ति को समय-समय पर दानवों ने चुनौती दी है। कथा के अनुसार, दैत्यराज महिषासुर ने तो देवताओं को पराजित करके स्वर्ग पर अधिकार भी कर लिया था। उसने इतना अत्याचार फैलाया कि देवी भगवती को जन्म लेना पड़ा। उनका यह रूप 'महिषासुर मर्दिनी' कहलाया।

देवताओं का तेज:

देवताओं को महिषासुर के प्रकोप से पृथ्वी पर विचरण करना पड़ रहा था। भगवान विष्णु और भगवान शिव अत्यधिक क्रोध से भर गए। इसी समय ब्रह्मा, विष्णु और शिव के मुंह से क्रोध के कारण एक महान तेज प्रकट हुआ। अन्य देवताओं के शरीर से भी एक तेजोमय शक्ति मिलकर उस तेज से एकाकार हो गई। यह तेजोमय शक्ति एक पहाड़ के समान थी। उसकी ज्वालायें दसों-दिशाओं में व्याप्त होने लगीं। यह तेजपुंज सभी देवताओं के शरीर से प्रकट होने के कारण एक अलग ही स्वरूप लिए हुए था।

महिषासुर के अंत के लिए हुई उत्पत्ति:

इन देवी की उत्पत्ति महिषासुर के अंत के लिए हुई थी, इसलिए इन्हें 'महिषासुर मर्दिनी' कहा गया। समस्त देवताओं के तेज पुंज से प्रकट हुई देवी को देखकर पीड़ित देवताओं की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। भगवान शिव ने त्रिशूल देवी को दिया। भगवान विष्णु ने भी चक्र देवी को प्रदान किया। इसी प्रकार, सभी देवी-देवताओं ने अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र देवी के हाथों में सजा दिये। इंद्र ने अपना वज्र और ऐरावत हाथी से उतारकर एक घंटा देवी को दिया। सूर्य ने अपने रोम कूपों और किरणों का तेज भरकर ढाल, तलवार और दिव्य सिंह यानि शेर को सवारी के लिए उस देवी को अर्पित कर दिया। विश्वकर्मा ने कई अभेद्य कवच और अस्त्र देकर महिषासुर मर्दिनी को सभी प्रकार के बड़े-छोटे अस्त्रों से शोभित किया।

महिषासुर से युद्ध:

थोड़ी देर बाद महिषासुर ने देखा कि एक विशालकाय रूपवान स्त्री अनेक भुजाओं वालीं और अस्त्र शस्त्र से सज्जित होकर शेर पर बैठकर अट्टहास कर रही हैं। महिषासुर की सेना का सेनापति आगे बढ़कर देवी के साथ युद्ध करने लगा। उदग्र नामक महादैत्य भी 60 हजार राक्षसों को लेकर इस युद्ध में कूद पड़ा। महानु नामक दैत्य एक करोड़ सैनिकों के साथ, अशीलोमा दैत्य पांच करोड़ और वास्कल नामक राक्षस 60 लाख सैनिकों के साथ युद्ध में कूद पड़े। सारे देवता इस महायुद्ध को बड़े कौतूहल से देख रहे थे। दानवों के सभी अचूक अस्त्र-शस्त्र देवी के सामने बौने साबित हो रहे थे, लेकिन देवी भगवती अपने शस्त्रों से राक्षसों की सेना को बींधने बनाने लगी।

इस युद्ध में महिषासुर का वध तो हो ही गया, साथ में अनेक अन्य दैत्य भी मारे गए। इन सभी ने तीनों लोकों में आतंक फैला रखा था।  देवी दुर्गा ने महिषासुर पर आक्रमण कर उससे नौ दिनों तक युद्ध किया और नवमी के दिन उसका वध किया। इसी उपलक्ष्य में हिंदू भक्तगण दस दिनों का त्यौहार दुर्गा पूजा मनाते हैं और दसवें दिन को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। जो बुराई पर अच्छाई का प्रतीक है।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय वाले कुछ वामपंथी व्यभिचारी, दुराचारी, राक्षस  महिषासुर का महिमामंडन करते हैं, उनकी पूजा करते है क्योंकि उनको भी यही करना होता है ये लोग भोले भाले आदिवासियों व दलित हिंदुओं को भी भ्रमित करते हैं जिससे वे अपनी भारतीय हिंदू संस्कृति से दूर हो जाएं और देश एवं धर्म के खिलाफ खड़े हो जाएं, जिससे उनको देश को तोड़ने में आसानी रहे ।

आपने जान लिया कि महिषासुर एक असुर था और आतंक फैलाकर रखा था इसलिए उसका वध करना जरूरी था, लेकिन JNU वाले वामपंथी जिस तरह उसका महिमामंडन कर रहे हैं उससे सावधान रहें और अपनी देश व संस्कृति की महानता को टूटने न दे।

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Friday, October 23, 2020

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मज़हबी उन्माद... सभी हिंदुओं को इसका इतिहास पता होना चाहिये

23 अक्टूबर 2020


पेरिस में एक ईसाई शिक्षक की सिर काटकर हत्या कर दी गई। हत्यारा चेचन्या मूल का 18 वर्षीय युवक था जिसे पुलिस ने गोली मारकर दोज़ख पंहुचा दिया। सारा फ्रांस शिक्षक के समर्थन में सड़कों पर उतर आया। कुछ दिनों पहले चार्ली हेब्दों के दफ्तर के समीप कुछ पत्रकारों को चाकू मारकर घायल कर दिया गया था। यह प्रकरण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा था। फ्रांस की सरकार ने तत्काल कार्यवाही करते हुए इस्लाम के कट्टरपंथी मौलानाओं को देश से निर्वासन और मस्जिदों को बंद करने की कार्यवाही की हैं।




संयोग से जिस दिन उक्त शिक्षक की हत्या हुई उस दिन से ठीक एक वर्ष पहले भारत में कमलेश तिवारी की भी गला काटकर हत्या हुई। भारत के लोग कमलेश तिवारी के लिए न सड़कों पर आये और न ही उनकी हत्या पर देशव्यापी जनाक्रोश देखने को मिला। उसके विपरीत भारत में गौहत्या में शामिल दादरी के अख़लाक़ और अलवर के पहलु खान के लिए अपने आपको सेक्युलर और लिबरल कहने वाला मीडिया, NGO, मनावाधिकार कार्यकर्ता, राजनेता पुरजोर समर्थन में खड़े हो गए। प्रश्न उठता है हम हिन्दू हितों के लिए कब खड़े होंगें। पिछले 1200 वर्षों में हम अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंगलादेश को खो चुके हैं। कश्मीर, केरल, असम, उत्तर प्रदेश से लेकर देश के 100 से अधिक जिलों में हिन्दू अल्पसंख्यक हो चुके हैं। बंगलादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों को विधिवत रूप से बसाया गया हैं। राजा दाहिर, पृथ्वीराज चौहान, गुरु गोविन्द सिंह, वीर शिवाजी, वीर शम्भाजी, वीर हकीकत राय जैसे हमारें कुछ महान पूर्वजों के नाम है जिनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

आधुनिक काल में तलवार का स्थान कलम ने ले लिया। अभिव्यक्ति के नाम पर मुसलमान हिन्दू देवी देवताओं और मान्यताओं पर अनेक आघात करते। जिनके उत्तर हिन्दुओं के वीर शिरोमणि देते थे। अंग्रेजी राज के काल में मुसलमानों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का फायदा उठाते हुए सबसे पहले 1845 ई में हिन्दू धर्म की आलोचना करते हुए रद्दे हनूद (हिन्दू मत का खंडन) नामक किताब लिखी जिसका प्रतिउत्तर चौबे बद्रीदास ने रद्दे मुसलमान (मुस्लिम मत का खंडन) नामक पुस्तक लिख कर दिया। इसके बाद अब्दुल्लाह नामक व्यक्ति ने 1856 ई में हिन्दू देवी-देवताओं की कठोर आलोचना और निंदा करते हुए तोहफतुल-हिन्द (भारत की सौगात) के नाम से उर्दू में प्रकाशित की। पंडित लेखराम जी के अनुसार इस पुस्तक से अनेक अज्ञानी हिन्दू मुसलमान बने। ऐसी विकट स्थिति में मुरादाबाद निवासी मुंशी इन्द्रमणि हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए तोहफतुल-इस्लाम (इस्लाम का उपहार) के नाम से फारसी में दिया। सैय्यद महमूद हुसैन ने इसके खंडन में खिलअत-अल-हनूद नामक पुस्तक छापी। उसके प्रतिउत्तर में मुंशी जी ने पादाशे इस्लाम नामक पुस्तक 1866 में छापी।इसके तीन वर्ष पश्चात मुंशी जी ने एक मुसलमान द्वारा लिखी पुस्तक असूले दीने हिन्दू (हिन्दू धर्म के सिद्धांत) नामक पुस्तक का उत्तर देने के लिए असूले दीने अहमद (इस्लाम के सिद्धांत) के नाम से लिखी।

इस पर मुसलमानों ने अत्यंत अश्लील पुस्तक 'तेगे फकीर बर गर्दने शरीर' (दुष्ट व्यक्तियों की गर्दन पर फकीर की तलवार) और हदिया उल असलाम नामक पुस्तक छापी। इसके जवाब में मुंशी जी ने हमलये हिन्द(1863), समसामे हिन्द और सौलते हिन्द (1868) नामक तीन पुस्तकें मेरठ से छपवायीं। इसके स्वरुप मुसलमानों में तीव्र प्रतिक्रिया हुई और एक मुस्लिम पत्र जामे जमशीद ने 16 मई 1881 के अंक में मुंशी जी के विरुद्ध मुसलमानों को उत्तेजित किया जिसके कारण सरकार ने मुंशी जी के खिलाफ़ वारंट निकाल दिया एवं कचहरी में मुकदमा चलाया गया। यद्यपि मुंशी जी द्वारा वकीलों द्वारा पूछे गए सभी प्रश्नों का सप्रमाण उत्तर दिया गया मगर फिर भी निचली अदालत ने 500 रुपये जुर्माना किया एवं उनकी पुस्तकों को फड़वा दिया। मुंशी जी ने उपरतली अदालत में अपील की। तत्कालीन आर्य समाचार मेरठ, आर्यदर्पण शाहजहाँपुर आदि में लेख लिखें। भारत सरकार, गवर्नर जनरल शिमला आदि को आवेदनपत्र भेजे। गवर्नर ने मुक़दमे की कार्यवाही शिमला मंगवाई मगर मामला विचाराधीन है कहकर जुर्माने की रकम को घटाकर 100 रुपये कर दिया गया और मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं के विरुद्ध लिखी गई पुस्तकों को नजरअंदाज कर दिया गया। मामला हाई कोर्ट में गया मगर जुर्माना बहाल रखा गया। अंत में तीव्र आंदोलन होने पर मुंशी जी का जुर्माना भी क्षमा कर दिया गया। स्वामी दयानंद ने आर्यसमाज के पत्रों के माध्यम से मुंशी जी की धन से सहायता करने की अपील भी निकाली थी। मुंशी जी ने मेला चाँदपुर शास्त्रार्थ में स्वामी जी के साथ आर्यसमाज के पक्ष को प्रस्तुत किया था और आर्यसमाज मुरादाबाद के प्रधान पद पर भी रहे थे। स्वामी दयानंद पर इस मुक़दमे के कारण अंग्रेज सरकार की न्यायप्रियता एवं पक्षपात रहित सोच पर अनेक संशय उत्पन्न हो गए। सही पक्ष होते हुए भी मुंशी जी को तंग किया गया, उनकी पुस्तकें नष्ट की गई एवं मुसलमानों की पुस्तकों पर कोई कार्यवाही नहीं की गई। स्वामी जी शांत बैठने वालों में से नहीं थे। अपने लंदन में पढ़ रहे अपने शिष्य पंडित श्याम जी कृष्ण को लंदन की पार्लियामेंट में इस मामले को उठाने की सलाह अपने पत्र व्यवहार में दी जिससे की अंग्रेज सरकार द्वारा भारत में सामान्य जनता के विरुद्ध कैसा व्यवहार होता है इससे लंदन निवासी परिचित हो सकें। अंग्रेजों द्वारा पक्षपात करने के कारण स्वामी दयानंद का चिंतन निश्चित रूप से स्वदेशी राजा एवं स्वतंत्रता की ओर पहले से अधिक प्रेरित होना कोई अतिश्योक्ति नहीं है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर स्वामी दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश की रचना कर चिर काल से सो रही मानव जाति को जगाया। सत्यार्थ प्रकाश आरम्भ के दस समुल्लासों की बजाय अंत के चार समुल्लासों के कारण अधिक चर्चा में रहा है। सत्यार्थ प्रकाश के विपक्ष में इतना अधिक साहित्य लिखा गया कि एक वृहद पुस्तकालय ही बन जाये। इसका मूल कारण स्वामी जी के उद्देश्य को ठीक प्रकार से समझना नहीं था। स्वामी जी का उद्देश्य किसी की भावना को आहत करना नहीं अपितु सत्य का मंडन एवं असत्य का खंडन था और मनुष्य के जीवन का उद्देश्य भी यही है। स्वामी जी का कहना था कि मत-मतान्तर के आपसी मतभेद के चलते धर्म का ह्रास हुआ है एवं मानव जाति की व्यापक हानि हुई है और जब तक यह मतभेद नहीं छूटेगा तब तक आनंद नहीं होगा। पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी के अनुसार सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से स्वामी दयानंद ने रूढ़िवादी एवं असत्य मान्यताओं पर जो कुठाराघात किया वह सैद्धांतिक, पक्षपात रहित एवं तर्कसंगत था जबकि उससे पहले लिखी गई पुस्तकों में प्राय: भद्दी गलियां एवं अश्लील भाषा की भरमार अधिक होती थी। स्वामी जी सामाजिक चेतना के पक्षधर थे।

स्वामी दयानंद के पश्चात पंडित लेखराम द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत आर्यमर्यादा का पालन करते हुए वैदिक धर्म के विरुद्ध प्रकाशित हो रही पुस्तकों का प्रत्युत्तर दिया। पंडित जी द्वारा रचित रिसाला जिहाद के विरुद्ध मुसलमानों ने 1892 में कोर्ट में केस किया था जिसकी पैरवी लाला लाजपत राय जी द्वारा बखूबी की गई थी। अंततः विजय आर्यसमाज की हुई थी। अहमदिया जमात के मिर्जा गुलाम अहमद ने बरहीन अहमदिया नामक पुस्तक चंदा मांग कर छपवाई। पंडित जी ने उसका उत्तर तकजीब ए बरहीन अहमदिया लिखकर दिया। मिर्जा ने सुरमाये चश्मे आर्या (आर्यों की आंख का सुरमा) लिखा जिसका पंडित जी ने उत्तर नुस्खाये खब्ते अहमदिया (अहमदी खब्त का ईलाज) लिख कर दिया। अंत में धोखे से पंडित जी को पेट में छुरा मारकर क़त्ल कर दिया गया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए पंडित लेखराम जी का अमर बलिदान हुआ।

सन १९२३ में मुसलमानों की ओर से दो पुस्तकें "१९ वीं सदी का महर्षि" और “कृष्ण,तेरी गीता जलानी पड़ेगी ” प्रकाशित हुई थी। पहली पुस्तक में आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद का सत्यार्थ प्रकाश के १४ सम्मुलास में कुरान की समीक्षा से खीज कर उनके विरुद्ध आपतिजनक एवं घिनोना चित्रण प्रकाशित किया था जबकि दूसरी पुस्तक में श्री कृष्ण जी महाराज के पवित्र चरित्र पर कीचड़ उछाला गया था। उस दौर में विधर्मियों की ऐसी शरारतें चलती ही रहती थी पर धर्म प्रेमी सज्जन उनका प्रतिकार उन्ही के तरीके से करते थे। महाशय राजपाल ने स्वामी दयानंद और श्री कृष्ण जी महाराज के अपमान का प्रति उत्तर १९२४ में "रंगीला रसूल" के नाम से पुस्तक छाप कर दिया, जिसमे मुहम्मद साहिब की जीवनी व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत की गयी थी। यह पुस्तक उर्दू में थी और इसमें सभी घटनाएँ इतिहास सम्मत और प्रमाणिक थी। पुस्तक में लेखक के नाम के स्थान पर “दूध का दूध और पानी का पानी "छपा था। वास्तव में इस पुस्तक के लेखक पंडित चमूपति जी थे जो की आर्यसमाज के श्रेष्ठ विद्वान् थे। वे महाशय राजपाल के अभिन्न मित्र थे। मुसलमानों के ओर से संभावित प्रतिक्रिया के कारण चमूपति जी इस पुस्तक में अपना नाम नहीं देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने महाशय राजपाल से वचन ले लिया की चाहे कुछ भी हो जाये, कितनी भी विकट स्थिति क्यूँ न आ जाये वे किसी को भी पुस्तक के लेखक का नाम नहीं बतायेगे। महाशय राजपाल ने अपने वचन की रक्षा अपने प्राणों की बलि देकर की पर पंडित चमूपति सरीखे विद्वान् पर आंच तक न आने दी। १९२४ में छपी रंगीला रसूल बिकती रही पर किसी ने उसके विरुद्ध शोर न मचाया फिर महात्मा गाँधी ने अपनी मुस्लिमपरस्त नीति में इस पुस्तक के विरुद्ध एक लेख लिखा। इस पर कट्टरवादी मुसलमानों ने महाशय राजपाल के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया। सरकार ने उनके विरुद्ध १५३ए धारा के अधीन अभियोग चला दिया। अभियोग चार वर्ष तक चला। राजपाल जी को छोटे न्यायालय ने डेढ़ वर्ष का कारावास तथा १००० रूपये का दंड सुनाया गया। इस फैसले के विरुद्ध अपील करने पर सजा एक वर्ष तक कम कर दी गई। इसके बाद मामला हाई कोर्ट में गया। कँवर दिलीप सिंह की अदालत ने महाशय राजपाल को दोषमुक्त करार दे दिया। मुसलमान इस निर्णय से भड़क उठे। खुदाबख्स नामक एक पहलवान मुसलमान ने महाशय जी पर हमला कर दिया जब वे अपनी दुकान पर बैठे थे पर संयोग से आर्य सन्यासी स्वतंत्रानंद जी महाराज एवं स्वामी वेदानन्द जी महाराज वह उपस्थित थे। उन्होंने घातक को ऐसा कसकर दबोचा की वह छुट न सका। उसे पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया गया, उसे सात साल की सजा हुई। रविवार ८ अक्टूबर १९२७ को स्वामी सत्यानन्द जी महाराज को महाशय राजपाल समझ कर अब्दुल अज़ीज़ नमक एक मतान्ध मुसलमान ने एक हाथ में चाकू, एक हाथ में उस्तरा लेकर हमला कर दिया। स्वामी जी घायल कर वह भागना ही चाह रहा था की पड़ोस के दुकानदार महाशय नानकचंद जी कपूर ने उसे पकड़ने का प्रयास किया। इस प्रयास में वे भी घायल हो गए तो उनके छोटे भाई लाला चुन्नीलाल जी उसकी ओर लपके। उन्हें भी घायल करते हुए हत्यारा भाग निकला पर उसे चौक अनारकली, लाहौर पर पकड़ लिया गया। उसे चौदह वर्ष की सज़ा हुई ओर तदन्तर तीन वर्ष के लिए शांति की गारंटी का दंड सुनाया गया। स्वामी सत्यानन्द जी के घाव ठीक होने में करीब डेढ़ महीना लगा। ६ अप्रैल १९२९ को महाशय राजपाल अपनी दुकान पर आराम कर रहे थे। तभी इल्मदीन नामक एक मतान्ध मुसलमान ने महाशय जी की छाती में छुरा घोप दिया जिससे महाशय जी का तत्काल प्राणांत हो गया। हत्यारा अपने जान बचाने के लिए भागा ओर महाशय सीताराम जी के लकड़ी के टाल में घुस गया। महाशय जी के सुपुत्र विद्यारतन जी ने उसे कस कर पकड़ लिया। पुलिस हत्यारे को पकड़ कर ले गई और बाद में मुसलमानों द्वारा पूरा जोर लगाने पर भी इल्मदीन को फाँसी की सजा हुई। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में यह निराला बलिदान था।

लाहौर में आर्यसमाज के पुस्तक विक्रेता वीर परमानन्द जी को जेठ की दोपहरी में उस समय मार दिया गया जब वह उर्दू सत्यार्थ प्रकाश की प्रतियोँ को लेने अपनी दुकान पर गए थे। मुसलमानों के लिए सत्यार्थ प्रकाश के १४ वे समुल्लास में कुरान की समीक्षा के उद्देश्य को मजहबी आक्रोश में हिंसा का रास्ता अपनाना दुर्भाग्यपूर्ण फैसला था।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की पंक्ति में वीर नाथूराम जी का बलिदान स्मरणीय है। वीर नाथूराम का जन्म 1 अप्रैल 1904 को हैदराबाद सिंध प्रान्त में हुआ था। पंजाब में उठे आर्य समाज के क्रांतिकारी आन्दोलन से आप प्रभावित होकर 1927 में आप आर्यसमाज में सदस्य बनकर कार्य करने लगे। उन दिनों इस्लाम और ईसाइयत को मानने वाले हिन्दुओं को अधिक से अधिक धर्म परिवर्तन कर अपने मत में सम्मिलित करने की फिराक में रहते थे। 1931 में अहमदिया (मिर्जाई) मत की अंजूमन ने सिंध में कुछ विज्ञापन निकल कर हिन्दू धर्म और हिन्दू वीरों पर गलत आक्षेप करने शुरू कर दिए। जिसे पढ़कर आर्यवीर नाथूराम से रहा न गया और उन्होंने ईसाईयों द्वारा लिखी गयी पुस्तक ‘तारीखे इस्लाम’ का उर्दू से सिन्धी में अनुवाद कर उसे प्रकाशित किया और एक ट्रैक लिखा जिसमे मुसलमान मौलवियों से इस्लाम के विषय में शंका पूछी गई थी। ये दोनों साहित्य नाथूराम जी ने निशुल्क वितरित की थी । इससे मुसलमानों में खलबली मच गई। उन्होंने भिन्न भिन्न स्थानों में उनके विरुद्ध आन्दोलन शुरू कर दिया। इन हलचलों और विरोध का परिणाम हुआ की सरकार ने नाथूराम जी पर अभियोग आरंभ कर दिया। नाथूराम जी ने कोर्ट में यह सिद्ध किया की प्रथम तो ये पुस्तक मात्र अनुवाद है इसके अलावा इसमें जो तर्क दिए गए है वे सब इस्लाम की पुस्तकों में दिए गए प्रमाणों से सिद्ध होते है। जज ने उनकी दलीलों को अस्वीकार करते हुए उन्हें 1000 रूपये दंड और कारावास की सजा सुनाई। इस पक्षपात पूर्ण निर्णय से सारे सिंध में तीखी प्रतिक्रिया हुई। इस निर्णय के विरुद्ध चीफ़ कोर्ट में अपील करी गई। 20 सितम्बर 1934 को कोर्ट में जज के सामने नाथूराम जी ने अपनी दलीले पेश करी। अब जज को अपना फैसला देना था। तभी एक चीख से पूरी अदालत की शांति भंग हो गई। अब्दुल कय्यूम नामक मतान्ध मुस्लमान ने नाथूराम जी पर चाकू से वार कर उन्हें घायल कर दिया जिससे वे शहिद हो गए। चीफ जज ने वीर नाथूराम के मृत देह को सलाम किया। बड़ी धूम धाम से वीर नाथूराम की अर्थी निकली। हजारो की संख्या में हिन्दुओ ने वीर नाथूराम को विदाई दी। अब्दुल कय्यूम को पकड़ लिया गया। उसे बचाने की पूरजोर कोशिश की गयी मगर उसे फांसी की सजा हुई।

इतिहास से कुछ उदहारण यह दर्शाने के लिए दिए है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए हमारे यहाँ कितने महान आत्माओं ने अपने बलिदान दिए। हमारे देश में बिलकुल विपरीत हो रहा है।
 
अभिव्यक्ति के नाम पर हिन्दू समाज की मान्यताओं और सिद्धांतों को निशाना बनाया जाता हैं। उनका प्रत्युत्तर देने वालों को कट्टरपंथी और दक्षिणपंथी कहा जाता हैं। आज देश को तोड़ने वाली शक्तियाँ अभिव्यक्ति के नाम पर उलटे सीधे प्रपंच कर समाज का अहित कर रही है। अभिव्यक्ति पर अंकुश होना दकियानूसी सोच है मगर अभिव्यक्ति का अनियंत्रित होना मीठे जहर के समान है। सदाचारी, पुरुषार्थी, धर्मात्मा मनुष्यों के हाथों में समाज का मार्गदर्शन होना चाहिए जिससे कि धर्मविरोधी, नास्तिक, भोग-विलासी, देशद्रोही ताकतों को अवसर न मिले। अंत में उन सभी महान आत्माओं को श्रद्धांजलि जिन्होंने समाज सुधार के लक्ष्य से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए अपने जीवन की आहुति दी। डॉ. विवेक आर्य

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Saturday, October 17, 2020

जानिये नवरात्रि कब से और कैसे शुरू हुई? उसका महत्त्व एवं इतिहास..

17 अक्टूबर 2020


नवरात्रि महिषासुर मर्दिनी मां दुर्गा का त्यौहार है । जिनकी स्तुति कुछ इस प्रकार की गई है,




_सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।_
_शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते ।।_

अर्थ : सर्व मंगल वस्तुओं में मंगलरूप, कल्याणदायिनी, सर्व पुरुषार्थ साध्य करानेवाली, शरणागतों का रक्षण करनेवाली, हे त्रिनयने, गौरी, नारायणी ! आपको मेरा नमस्कार है ।

1. मंगलरूप त्रिनयना नारायणी अर्थात मां जगदंबा !

जिन्हें आदिशक्ति, पराशक्ति, महामाया, काली, त्रिपुरसुंदरी इत्यादि विविध नामों से सभी जानते हैं ।  जहां पर गति नहीं वहां सृष्टि की प्रक्रिया ही थम जाती है । ऐसा होते हुए भी अष्ट दिशाओं के अंतर्गत जगत की उत्पत्ति, लालन-पालन एवं संवर्धन के लिए एक प्रकार की शक्ति कार्यरत रहती है । इसी शक्ति को आद्याशक्ति कहते हैं । उत्पत्ति-स्थिति-लय यह शक्ति का गुणधर्म ही है । शक्ति का उद्गम स्पंदनों के रूप में होता है । उत्पत्ति-स्थिति-लय का चक्र निरंतर चलता ही रहता है ।

श्री दुर्गासप्तशतीके अनुसार श्री दुर्गा देवी के तीन प्रमुख रूप हैं,

. महासरस्वती, जो ‘गति’ तत्त्व का  प्रतीक हैं ।

2. महालक्ष्मी, जो ‘दिक’ अर्थात ‘दिशा’ तत्त्व का प्रतीक हैं ।

3. महाकाली जो ‘काल’ तत्त्व का प्रतीक हैं ।

जगत का पालन करने वाली जगदोद्धारिणी मां शक्ति की उपासना हिंदू धर्म में वर्ष में दो बार नवरात्रि के रूप में, विशेष रूप से की जाती है ।

वासंतिक नवरात्रि : यह उत्सव चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से चैत्र शुक्ल नवमी तक मनाया जाता है ।

शारदीय नवरात्रि : यह उत्सव आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से आश्विन शुक्ल नवमी तक मनाया जाता है ।

2. ‘नवरात्रि’ किसे कहते हैं ?

नव अर्थात प्रत्यक्षत: ईश्वरीय कार्य करनेवाला ब्रह्मांड में विद्यमान आदिशक्तिस्वरूप तत्त्व । स्थूल जगत की दृष्टि से रात्रि का अर्थ है, प्रत्यक्ष तेजतत्त्वात्मक प्रकाश का अभाव तथा ब्रह्मांड की दृष्टि से रात्रि का अर्थ है, संपूर्ण ब्रह्मांड में ईश्वरीय तेज का प्रक्षेपण करने वाले मूल पुरुषतत्त्व का अकार्यरत होने की कालावधि । जिस कालावधि में ब्रह्मांड में शिवतत्त्व की मात्रा एवं उसका कार्य घटता है एवं शिवतत्त्व के कार्यकारी स्वरूप की अर्थात शक्ति की मात्रा एवं उसका कार्य अधिक होता है, उस कालावधि को ‘नवरात्रि’ कहते हैं । मातृभाव एवं वात्सल्य भाव की अनुभूति देनेवाली, प्रीति एवं व्यापकता, इन गुणों के सर्वोच्च स्तर के दर्शन कराने वाली जगदोद्धारिणी, जगत का पालन करने वाली इस शक्ति की उपासना, व्रत एवं उत्सव के रूप में की जाती है ।

3. ‘नवरात्रि’ का इतिहास

- रामजी के हाथों रावण का वध हो, इस उद्देश्य से नारद ने राम से इस व्रत का अनुष्ठान करने का अनुरोध किया था । इस व्रत को पूर्ण करने के पश्चात रामजी ने लंका पर आक्रमण कर अंत में रावण का वध किया ।

- देवी ने महिषासुर नामक असुर के साथ नौ दिन अर्थात प्रतिपदा से नवमी तक युद्ध कर, नवमी की रात्रि को उसका वध किया । उस समय से देवी को ‘महिषासुरमर्दिनी’ के नाम से जाना जाता है ।

4. नवरात्रि का अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व

- ‘जग में जब-जब तामसी, आसुरी एवं क्रूर लोग प्रबल होकर, सात्त्विक, उदारात्मक एवं धर्मनिष्ठ सज्जनों को छलते हैं, तब देवी धर्मसंस्थापना हेतु पुनः-पुनः अवतार धारण करती हैं । उनके निमित्त से यह व्रत है ।
- नवरात्रि में देवीतत्त्व अन्य दिनों की तुलना में 1000 गुना अधिक कार्यरत होता है । देवीतत्त्व का अत्यधिक लाभ लेने के लिए नवरात्रि की कालावधिमें ‘श्री दुर्गादेव्यै नमः ।’ नाम जप अधिकाधिक करना चाहिए ।

नवरात्रि के नौ दिनों में प्रत्येक दिन बढ़ते क्रम से आदिशक्ति का नया रूप सप्त पाताल से पृथ्वी पर आनेवाली कष्टदायक तरंगों का समूल उच्चाटन अर्थात समूल नाश करता है । नवरात्रि के नौ दिनों में ब्रह्मांड में अनिष्ट शक्तियों द्वारा प्रक्षेपित कष्टदायक तरंगें एवं आदिशक्ति की मारक चैतन्यमय तरंगों में युद्ध होता है । इस समय ब्रह्मांड का वातावरण तप्त होता है । श्री दुर्गा देवी के शस्त्रों के तेज की ज्वालासमान चमक अति वेग से सूक्ष्म अनिष्ट शक्तियों पर आक्रमण करती है । पूरे वर्ष अर्थात इस नवरात्रि के नौवें दिन से अगले वर्ष की नवरात्रि के प्रथम दिन तक देवी का निर्गुण तारक तत्त्व कार्यरत रहता है । अनेक परिवारों में नवरात्रि का व्रत कुलाचार के रूप में किया जाता है । आश्विन मास की शुक्ल प्रतिपदा से इस व्रत का प्रारंभ होता है ।

5. नवरात्रि की कालावधि में सूक्ष्म स्तर पर होने वाली गतिविधियां:-

नवरात्रि के नौ दिनों में देवीतत्त्व अन्य दिनों की तुलना में एक सहस्र गुना अधिक सक्रिय रहता है । इस कालावधि में देवीतत्त्व की अतिसूक्ष्म तरंगें धीरे-धीरे क्रियाशील होती हैं और पूरे ब्रह्मांड में संचारित होती हैं । उस समय ब्रह्मांड में शक्ति के स्तर पर विद्यमान अनिष्ट शक्तियां नष्ट होती हैं और ब्रह्मांड की शुद्धि होने लगती है । देवीतत्त्व की शक्ति का स्तर प्रथम तीन दिनों में सगुण-निर्गुण होता है । उसके उपरांत उसमें निर्गुण तत्त्व की मात्रा बढ़ती है और नवरात्रि के अंतिम दिन इस निर्गुण तत्त्व की मात्रा सर्वाधिक होती है । निर्गुण स्तर की शक्ति के साथ सूक्ष्म स्तर पर युद्ध करने के लिए छठे एवं सातवें पाताल की बलवान आसुरी शक्तियों को अर्थात मांत्रिकों को इस युद्ध में प्रत्यक्ष सहभागी होना पड़ता है । उस समय ये शक्तियां उनके पूरे सामर्थ्य के साथ युद्ध करती हैं ।

6. श्री दुर्गा देवी का वचन

नवरात्रि की कालावधि में महाबलशाली दैत्यों का वध कर देवी दुर्गा महाशक्ति बनी । देवताओं ने उनकी स्तुति की । उस समय देवी मां ने सर्व देवताओं एवं मानवों को अभय का आशीर्वाद देते हुए वचन दिया कि इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति ।
तदा तदाऽवतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम् ।।
– मार्कंडेयपुराण 91.51

इसका अर्थ है, जब-जब दानवों द्वारा जगत को बाधा पहुंचेगी, तब-तब मैं अवतार धारण कर शत्रुओं का नाश करूंगी ।

इस श्लोक के अनुसार जगत में जब भी तामसी, आसुरी एवं दुष्ट लोग प्रबल होकर, सात्त्विक, उदार एवं धर्मनिष्ठ व्यक्तियों को अर्थात साधकों को कष्ट पहुंचाते हैं, तब धर्मसंस्थापना हेतु अवतार धारण कर देवी उन असुरों का नाश करती हैं ।

8. नवरात्रि के नौ दिनों में शक्ति की उपासना करनी चाहिए

`असुषु रमन्ते इति असुर: ।’ अर्थात् `जो सदैव भौतिक आनंद, भोग-विलासिता में लीन रहता है, वह असुर कहलाता है ।’ आज प्रत्येक मनुष्य के हृदय में इस असुर का वास्तव्य है, जिसने मनुष्य की मूल आंतरिक दैवी वृत्तियों पर वर्चस्व जमा लिया है । इस असुर की माया को पहचानकर, उसके आसुरी बंधनों से मुक्त होने के लिए शक्ति की उपासना आवश्यक है । इसलिए नवरात्रि के नौ दिनों में शक्ति की उपासना करनी चाहिए । हमारे ऋषि मुनियों ने विविध श्लोक, मंत्र इत्यादि माध्यमों से देवी मां की स्तुति कर उनकी कृपा प्राप्त की है । श्री दुर्गासप्तशति के एक श्लोक में कहा गया है,

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमो:स्तुते ।।
– श्री दुर्गासप्तशती, अध्याय 11.12

अर्थात शरण आए दीन एवं आर्त लोगों का रक्षण करने में सदैव तत्पर और सभी की पीड़ा दूर करनेवाली हे देवी नारायणी!, आपको मेरा नमस्कार है । देवी की शरण में जाने से हम उनकी कृपा के पात्र बनते हैं । इससे हमारी और भविष्य में समाज की आसुरी वृत्ति में परिवर्तन होकर सभी सात्त्विक बन सकते हैं । यही कारण है कि, देवी तत्त्व के अधिकतम कार्यरत रहने की कालावधि अर्थात नवरात्रि विशेष रूप से मनायी जाती है ।

नवरात्रि के नौ दिनों में घट स्थापना के उपरांत पंचमी, षष्ठी, अष्टमी एवं नवमी का विशेष महत्त्व है । पंचमी के दिन देवी के नौ रूपों में से एक श्री ललिता देवी अर्थात महात्रिपुर सुंदरी का व्रत होता है । शुक्ल अष्टमी एवं नवमी ये महातिथियां हैं । इन तिथियों पर चंडीहोम करते हैं । नवमी पर चंडीहोम के साथ बलि समर्पण करते हैं ।

संदर्भ – सनातन धर्म के ग्रंथ, ‘त्यौहार मनाने की उचित पद्धतियां एवं अध्यात्मशास्त्र‘, ‘धार्मिक उत्सव एवं व्रतों का अध्यात्मशास्त्रीय आधार’ एवं ‘देवीपूजन से संबंधित कृत्यों का शास्त्र‘ एवं अन्य ग्रंथ।

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Thursday, October 8, 2020

अयोध्या के बाद अब काशी और मथुरा बाकी हैं, जानिए इतिहास...

08 अक्टूबर 2020


भारत देश में केवल सनातन धर्म ही था, भारत सोने की चिड़िया कहलाता था, इसलिए अनेक विदेशी आक्रांताओं की नजर भारत की संपत्ति पर थी, विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत को आकर लुटा तो है साथ में भारतीय सनातन संस्कृति को विकृत भी कर दिया और हिंदुओं का कत्ल भी किया और महिलाओं के साथ बलात्कार भी किये और भारत के मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें भी बनवा दी।




भारत में तो कितने मंदिर तोड़े गए नही बता सकते हैं लेकिन तीन मुख मंदिर थे अयोध्या में श्री राम मंदिर , मथुरा का श्रीकृष्ण जन्मस्थान एवं काशी के विश्वनाथ मंदिर को इस्लामी आक्रमणकारियों ने तोड़कर कब्जा कर लिया। अपने अयोध्या का इतिहास तो जान लिया होगा और कुछ समय पहले मथुरा का भी इतिहास बताया गया था की कैसे मथुरा पर कब्जा कर लिया है, अब आपको काशी विश्वनाथ के इतिहास के बारे में जानकारी दे रहे हैं।

काशी में बाबा विश्वनाथ और ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर चल रहे विवाद के सम्बन्ध में सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने जिला जज की अदालत में याचिका दायर की है। इस याचिका में ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर चल रहे मुक़दमे को चुनौती दी गई है।

द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख काशी विश्वनाथ मंदिर अनादिकाल से काशी में है। यह स्थान शिव और पार्वती का आदि स्थान है इसीलिए आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है। इसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है। ईसा पूर्व 11वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने जिस विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था उसका सम्राट विक्रमादित्य ने जीर्णोद्धार करवाया था। उसे ही 1194 में मुहम्मद गौरी ने लूटने के बाद तुड़वा दिया था।

इतिहासकारों के अनुसार इस भव्य मंदिर को सन् 1194 में मुहम्मद गौरी द्वारा तोड़ा गया था। इसे फिर से बनाया गया, लेकिन एक बार फिर इसे सन् 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा तोड़ दिया गया। पुन: सन् 1585 ई. में राजा टोडरमल की सहायता से पं. नारायण भट्ट द्वारा इस स्थान पर फिर से एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। इस भव्य मंदिर को सन् 1632 में शाहजहां ने आदेश पारित कर इसे तोड़ने के लिए सेना भेज दी। सेना हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण विश्वनाथ मंदिर के केंद्रीय मंदिर को तो तोड़ नहीं सकी, लेकिन काशी के 63 अन्य मंदिर तोड़ दिए गए।

डॉ. एएस भट्ट ने अपनी किताब 'दान हारावली' में इसका जिक्र किया है कि टोडरमल ने मंदिर का पुनर्निर्माण 1585 में करवाया था। 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फरमान एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित है। उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खां द्वारा लिखित 'मासीदे आलमगिरी' में इस ध्वंस का वर्णन है। औरंगजेब के आदेश पर यहां का मंदिर तोड़कर एक ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी। औरंगजेब ने प्रतिदिन हजारों ब्राह्मणों को मुसलमान बनाने का आदेश भी पारित किया था। आज उत्तर प्रदेश के 90 प्रतिशत मुसलमानों के पूर्वज ब्राह्मण है।

सन् 1752 से लेकर सन् 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया व मल्हारराव होलकर ने मंदिर मुक्ति के प्रयास किए। 7 अगस्त 1770 ई. में महादजी सिंधिया ने दिल्ली के बादशाह शाह आलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी करा लिया, परंतु तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया था इसलिए मंदिर का नवीनीकरण रुक गया। 1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था।

अहिल्याबाई होलकर ने इसी परिसर में विश्वनाथ मंदिर बनवाया जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र बनवाया। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहां विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई।

सन् 1809 में काशी के हिन्दुओं ने जबरन बनाई गई मस्जिद पर कब्जा कर लिया था, क्योंकि यह संपूर्ण क्षेत्र ज्ञानवापी मं‍डप का क्षेत्र है जिसे आजकल ज्ञानवापी मस्जिद कहा जाता है। 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मि. वाटसन ने 'वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल' को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने को कहा था, लेकिन यह कभी संभव नहीं हो पाया।

इतिहास की किताबों में 11 से 15वीं सदी के कालखंड में मंदिरों का जिक्र और उसके विध्वंस की बातें भी सामने आती हैं। मोहम्मद तुगलक (1325) के समकालीन लेखक जिनप्रभ सूरी ने किताब 'विविध कल्प तीर्थ' में लिखा है कि बाबा विश्वनाथ को देव क्षेत्र कहा जाता था। लेखक फ्यूरर ने भी लिखा है कि फिरोजशाह तुगलक के समय कुछ मंदिर मस्जिद में तब्दील हुए थे। 1460 में वाचस्पति ने अपनी पुस्तक 'तीर्थ चिंतामणि' में वर्णन किया है कि अविमुक्तेश्वर और विशेश्वर एक ही लिंग है।

काशी विश्वनाथ का भी मुक्तिकरण होना चाहिए ऐसी जनता की मांग हैं।

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