01 जून 2020
भारत की राष्ट्र भाषा हिंदी है और देश मे अधिकतर भारतवासी हिंदी ही समझते है लेकिन फिर भी न्यायालय और सरकारी कार्यालय में हिंदी की जगह अंग्रेजी भाषा का प्रयोग होता है बड़ा आश्चर्य की बात है और वे भी हमे 200 साल गुलाम रखने वालों की भाषा का प्रयोग कर रहे है भारत मे अधिकतर लोगों को अंग्रेजी भाषा नहीं आने के कारण वे न्यायालय की बहस और फैसले भी समझ नही पाते और सरकारी कार्यलय की तरफ से क्या निर्देश है वे भी समझ नही पाते है इसलिए अब समय आ गया है कि हरियाणा सरकार की तरह देशभर की न्यायालय से अंग्रेजी खत्म कर दी जाए और हिंदू का मुख्य रूप से कार्य चल ओर स्थानीय भाषा का थोड़ा बहुत प्रयोग किया जाए।
आपको बता दे कि हरियाणा ने 11 मई, 2020 को एक अधिसूचना जारी कर कहा कि राज्य के सभी न्यायालयों और न्यायाधिकरणों में 'हिंदी' का उपयोग किया जाना चाहिए। राज्य सरकार ने हरियाणा राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 1969 की धारा 3 में संशोधन किया। इस अधिनियम को अब हरियाणा राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 2020 कहा जाता है।
हरियाणा मंत्रिमंडल ने इससे पहले मई के पहले सप्ताह में अधीनस्थ न्यायालयों में हिंदी भाषा की शुरुआत को मंजूरी दी थी। विधानसभा ने फैसले के कार्यान्वयन के लिए एक विधेयक पारित किया था। 78 विधायकों, महाधिवक्ता और सैकड़ों अधिवक्ताओं ने अदालतों में इस्तेमाल के लिए हिंदी भाषा को अधिकृत करने में अपनी रुचि दिखाई थी, ताकि हरियाणा के नागरिक पूरी न्यायिक प्रक्रिया को समझ सकें क्योंकि यह उनकी अपनी भाषा में होगा। और ऐसा होने पर वह भी आसानी से न्यायालयों के सामने अपने विचार रख पाएंगे।
संशोधन के महत्वपर्ण हिस्से-
हरियाणा राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 1969 की धारा 3 के बाद, निम्नलिखित अनुभाग शामिल किया जाएगा:
"3-ए- न्यायालयों और न्यायाधिकरणों में हिंदी का उपयोग: -
(1) हरियाणा में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के अधीनस्थ सभी सिविल न्यायालय और आपराधिक न्यायालय, सभी राजस्व न्यायालय और रेंट ट्रिब्यूनल्स या राज्य सरकार द्वारा गठित अन्य न्यायालय या न्यायाधिकरण हिंदी भाषा में काम करेंगे।
(2) राज्य सरकार हरियाणा राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 2020 के प्रारंभ होने के छह महीने के भीतर अपेक्षित बुनियादी ढांचा और कर्मचारियों को प्रशिक्षण प्रदान करेगी।
न्यायिक कार्य में हिंदी का उपयोग करने के पक्ष में हरियाणा सरकार का तर्क यह है कि अधिकांश वादकर्ता अंग्रेजी नहीं समझ सकते हैं और वे न्यायिक कार्यवाही के दौरान मूकदर्शक बने रहते हैं, जो उनके हितों के लिए उचित नहीं है।
आम आदमी अदालत की कार्यवाही सहित दिन-प्रतिदिन के आधिकारिक कार्यों में अपनी भागीदारी चाहता हैं। यह भागीदारी वास्तविक नहीं हो पाता यदि वे दस्तावेजों में प्रयुक्त भाषा से परिचित नहीं होता है। हरियाणा में साक्षरता दर लगभग 80 प्रतिशत है, लेकिन उनमें से अधिकांश अंग्रेजी पढ़ना, बोलना या समझना नहीं जानते हैं। ऐसे में आम आदमी की शासन में भागीदारी की उम्मीद करना हास्यास्पद है। अदालत में एक आवेदन दाखिल करने के लिए, उन्हें मोटी रकम का भुगतान करने के बाद भी वकीलों के चक्कर काटने पड़ते हैं।
हिंदी के पक्ष में आम लोगों का तर्क यह है कि अगर हिंदी को कार्यालयों के कामकाज की भाषा बनाया जाता है तो वे अपने ही देश में पराया महसूस नहीं करेंगे।
जिला अदालत, झज्जर (हरियाणा का एक जिला) में एक किसान और वादी रमेश ढाका ने अपना दर्द यूं बयां किया, "मैं टेन प्लस टू पास हूं, लेकिन अंग्रेजी समझ या पढ़ नहीं सकता। सभी समन, आवेदन, वकालतनामा अंग्रेजी में आते हैं जिन्हें मैं पढ़ नहीं पाता। उन्हें समझने के लिए मुझे या तो किसी वकील के पास जाना पड़ता है या गांव के किसी पढ़े-लिखे आदमी के पास। अगर ये हिंदी में होते तो मैं खुद इन्हें पढ़ लेता।"
अगर हिंदी को न्यायालयों की भाषा बना दिया जाए तो इससे आम लोगों को काफी हद तक मदद मिल सकती है। अदालतों में अंग्रेजी भाषा के कारण हरियाणा राज्य में वादकारों कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है-
1. वे शिकायतों या अन्य दस्तावेजों में क्या लिखा है, समझ नहीं पाते। उन्हें पूरी तरह से अपने वकीलों पर निर्भर रहना पड़ता है।
2. अदालती कार्यवाही के दौरान, वे यह समझ नहीं पाते कि रिकॉर्ड पर दर्ज सबूत उनके पक्ष में हैं या खिलाफ हैं।
3. आपराधिक कार्यवाहियों में सीआरपीसी की धारा 273 में, जहां अभियुक्त की उपस्थिति में साक्ष्य लिए जाने का प्रावधान है, निरर्थक हो जाता है, जब अभियुक्त यह नहीं समझ पाता कि उसके खिलाफ किस प्रकार के साक्ष्य दर्ज किए गए हैं।
4. अंग्रेजी भाषा न समझ पाने के कारण, वादकार, एक वकील के साथ पूरी तरह से भरोसे के आधार पर डील करने के लिए मजबूर हो जाता है। वो उन वकालतनामों या हलफनामों को पढ़ नहीं पाता, जिन्हें उसे वकील के निर्देशों के अनुसार साइन करना होता है। बार काउंसिल में पास वकीलों के कदाचार के कई मामले लंबित हैं।
5. वादियों के लिए तब और मुश्किल हो जाती है जब वकील कोर्ट रूम में अंग्रेजी में बहस करते हैं। तब वादियों के पास मूक रहने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रहता।
6. फैसले और आदेश की प्रतियां अंग्रेजी में होती हैं, इसलिए वे फैसले या आदेशों के तर्क या कारण को समझने में विफल रहते हैं। इसलिए भी उन्हें अधिवक्ताओं पर निर्भर रहना पड़ता है।
7. भाषा के कारण गवाह को भी परेशान होना पड़ता है, क्योंकि उनमें से अधिकांश अंग्रेजी नहीं जानते हैं।
8. हिंदी के दस्तावेज को रिकॉर्ड में लेने के लिए अंग्रेजी में अनुवाद किया जाता है। यदि सभी न्यायिक कार्यों के लिए हिंदी भाषा को अपनाया जाए तो यह कवायद नहीं करना पड़ेगी।
जब अदालत में भाषाई परिवर्तन की चर्चा हरियाणा के वकीलों से की तो तो अधिकांश ने हिंदी के पक्ष में राय दी और कहाकि उच्च न्यायालय में भी ऐसा होना चाहिए।
रोहतक जिला अदालत के एक वकील रोहताश मलिक ने कहा,
"चाहे जैसी भी दलील या कानूनी तर्क हम दे लें, हमे हाईकोर्ट के वकीलों से केवल इसलिए अलग रखा जाता है कि क्योंकि हम अंग्रेजी में बहस नहीं कर सकते। यह भाषा के आधार पर भेदभाव है और असंवैधानिक है।"
कई ऐसे वकील हैं, जिन्होंने मुकदमेबाजी में लंबा समय दिया है, अंग्रेजी में अपना केस फ्रेम कर लेते हैं, काम करते-करते वो अंग्रेजी के साथ सहज हो चुके हैं।
परेशानी युवा और नए वकीलों को आती है। उन्हें किसी मामले के कानूनी या तकनीकी को समझने से पहले मुकदमे/ कार्यवाही की भाषा को समझना पड़ता है। हालांकि, हरियाणा में अधिकांश लॉ कॉलेज अंग्रेजी माध्यम में एलएलबी की डिग्री प्रदान करते हैं, लेकिन लेक्चर और शिक्षक-छात्रों की बातचीत हिंदी में होती है। वे हिंदी के साथ अधिक सहज महसूस करते हैं। ऐसे कॉलेजों के छात्रों पर पर भी अंग्रेजी का अदृश्य दबाव देखा जा सकता है। यह दबाव हीन भावना को आमंत्रित करता है।
एक और मुद्दा जो लेखक ने हिंदी माध्यम के वकीलों के साथ बात करते हुए पाया, वह उनके जज बनने का सपना होता है।
राजस्थान के हनुमानगढ़ के एक लोकल कॉलेज से 2017 में एलएलबी पास करने वाले ये बाते अनिल राणा का कहना है, "हम केवल मुकदमेबाजी करने के लिए एलएलबी करते हैं, हरियाणा न्यायिक सेवा की परीक्षा में बैठने के लिए शायद ही कोई विचार हमारे दिमाग में आता है, क्योंकि यह मुख्य रूप से अंग्रेजी माध्यम के छात्रों के लिए आरक्षित है।"
हरियाणा मुख्य रूप से हिंदी भाषी राज्य है, जिसकी 100% आबादी हिंदी बोलती या समझती है। संयुक्त राज्य अमेरिका के सोलहवें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने सही ही कहा था कि लोकतंत्र लोगों का है, लोगों के लिए और लोगों से है। लोकतंत्र कोई संस्था नहीं है, बल्कि यह संस्थानों के समूह का सुचारू कामकाज है।
न्यायालय ऐसे संस्थानों में से एक हैं, जो समग्र रूप में किसी भी लोकतंत्र का बहुत ही महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हिस्सा है। यह समझना उचित होगा कि अदालतें लोगों के लिए होती हैं और लोग अदालतों के लिए नहीं होते हैं। न तो अदालतें वकीलों के लिए हैं और न ही न्यायाधीशों या मजिस्ट्रेटों के लिए। अदालतें समाज के हित में और जनता के लिए न्याय का माध्यम हैं। वकील और जज न्याय का माध्यम हो सकते हैं न कि खुद न्याय। इसलिए अदालतों के लिए, जनता का हित सर्वोच्च और सर्वोपरि होना चाहिए।
राष्ट्रपति कोविंद ने भी हाईकोर्ट के फैसलों को उस भाषा में समझने योग्य बनाए जाने की पैरवी की है, जिसे लोग जानते हैं। उन्होंने फैसलों की प्रमाणित अनुवादित प्रतियां जारी करने के लिए व्यवस्था बनाये जाने का भी सुझाव दिया था उन्होंने कहा था कि उच्च न्यायालय अंग्रेजी में निर्णय देते हैं लेकिन हमारे देश में विविध भाषाएं हैं। हो सकता है कि वादी अंग्रेजी भाषा में दिए गए निर्णय को अच्छे से नहीं समझ पाते हों।
राष्ट्रपति ने कहा था कि ऐसी व्यवस्था विकसित किए जाने की जरूरत है जहां न्यायालयों द्वारा स्थानीय या क्षेत्रीय भाषाओं में निर्णयों की प्रमाणित अनुवादित प्रतियां 24 या 36 घण्टे में उपलब्ध कराई जाएं। आगे कहा कि यह महत्वूपर्ण है कि न केवल लोगों को न्याय मिले बल्कि निर्णयों को वादियों के लिए उस भाषा में समझने योग्य बनाया जाना चाहिए ।
जनता की अब यही मांग है कि न्यायालय और सरकार कार्यलय में अंग्रेजी खत्म करके राष्ट्र भाषा
हिंदी में कार्य होना चाहिए।
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