29 जुलाई 2020
कर्नाटक सरकार ने कक्षा 7 के छात्र-छात्राओं के इतिहास के सिलेबस में बदलाव करते हुए इसमें से मैसूर के शासक टीपू सुल्तान और उसके पिता हैदर अली पर आधारित चेप्टर को हटा दिया है। सरकार ने बच्चों का अकादमिक सिलेबस कम करने के मद्देनजर ये निर्णय लिया है क्योंकि कोरोना वायरस संक्रमण आपदा के बीच क्लासेज नहीं चल रही हैं।
इस फैसले ने कॉन्ग्रेस को नाराज कर दिया है और उसने इसका विरोध किया है। कॉन्ग्रेस का कहना है कि भाजपा सांप्रदायिक राजनीति खेल रही है और इसी क्रम में उसने टीपू सुल्तान पर आधारित चैप्टर को बच्चों के सिलेब्स से हटा दिया है। राज्य की विपक्षी पार्टी ने कहा कि भाजपा अब शिक्षा में सांप्रदायिकता घुसा रही है।
आप टिपू सुल्तान का क्रूर इतिहास जानिए
बदरुज्जमा खान को 19 जनवरी 1790 को लिखे टीपू के पत्र में लिखा है, ‘तुम्हें मालूम नहीं कि हाल ही में मालाबार में मैंने गजब की जीत हासिल की और चार लाख से अधिक हिन्दुओं को मुसलमान बनाया। मैंने तय कर लिया है कि उस मरदूद ‘रामन नायर’ (त्रावनकोर के राजा, जो धर्मराज के नाम से प्रसिद्ध थे) के खिलाफ जल्द हमला बोलूंगा, चूंकि उसे और उस की प्रजा को मुसलमान बनाने के ख्याल से मैं बेहद खुश हूं, इसलिए मैंने अभी श्रीरंगपट्टनम वापस जाने का विचार खुशी-खुशी छोड़ दिया है।’
दक्षिण भारत के असंख्य लोगों से यह बात छिपी नहीं है कि टीपू का शासन हिन्दू जनता के विनाश और इस्लाम के प्रसार के अलावा कुछ न था यहां तक कि अंग्रेजों से उसके द्वारा किए युद्ध अपना राज और अस्तित्व बचाने के लिए थे । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने फ्रांस को यहां आक्रमण करने का न्यौता दिया तथा भारतीय जनता को रौंद डाला।
टीपू ने केवल फ्रांस ही नहीं, ईरान, अफगानिस्तान को भी हमले के लिए बुलाया था। अत: अंग्रेजों से टीपू की लड़ाई को ‘देशभक्ति’ कहना दुष्टता, धूर्तता या घोर अज्ञान है।
हिन्दू जनता पर टीपू की अवर्णनीय क्रूरता के विवरण असंख्य स्रोतों से प्रमाणित हैं। पुर्तगाली यात्री बार्थोलोमियो ने सन् 1776 से 1789 के बीच के अपने प्रत्यक्षदर्शी वर्णन लिखे हैं। उसकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘वोएज टू ईस्ट इंडीज’ पहली बार सन् 1800 में ही प्रकाशित हुई थी। अभी भी कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से छपी प्रति उपलब्ध है।
टीपू और फ्रांसीसियों के संयुक्त सैनिक अभियान का वर्णन करते हुए बार्थोलोमियो ने लिखा, ‘टीपू एक हाथी पर था, जिस के पीछे 30,000 सैनिक थे। कालीकट में अधिकांश पुरुषों और स्त्रियों को फांसी पर लटका दिया गया । पहले स्त्रियों को लटकाया गया तथा उनके गले से उनके बच्चे बांध दिए गए थे। उस बर्बर टीपू सुल्तान ने नंगे शरीर हिन्दुओं और ईसाइयों को हाथी के पैरों से बांध दिया और हाथियों को तब तक इधर-उधर चलाता रहा जब तक उनके शरीरों के टुकड़े-टुकड़े नहीं हो गए। मंदिरों और चर्चों को गंदा और तहस-नहस करके आग लगाकर खत्म कर दिया गया।’
भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार सरदार के. एम. पणिक्कर ने ‘भाषा पोषिणी’ (अगस्त, 1923) में टीपू का एक पत्र उद्धृत किया है। सैयद अब्दुल दुलाई को 18 जनवरी 1790 को लिखे पत्र में टीपू के शब्द हैं, ‘नबी मुहम्मद और अल्लाह के फजल से कालीकट के लगभग सभी हिन्दू इस्लाम में ले आए गए। महज कोचीन राज्य की सीमा पर कुछ अभी भी बच गए हैं। उन्हें भी जल्द मुसलमान बना देने का मेरा पक्का इरादा है। उसी इरादे से यह मेरा जिहाद है।’
मेजर अलेक्स डिरोम ने टीपू के खिलाफ मैसूर की लड़ाई में स्वयं हिस्सा लिया था। उन्होंने लंदन में 1793 में ही अपनी पुस्तक ‘थर्ड मैसूर वॉर’ प्रकाशित की। उस में टीपू की शाही मुहर का भी विवरण है, जिस में वह अपने को ‘सच्चे मजहब का संदेशवाहक’ और ‘सच्चाई का हुक्म लाने वाला’ घोषित करता था।
ऐसे प्रामाणिक विवरणों की संख्या अंतहीन है। टीपू के समय से ही पर्याप्त लिखित सामग्री मौजूद है, जो दिखाती है कि लड़कपन से टीपू का मुख्य लक्ष्य हिन्दू धर्म का नाश तथा हिन्दुओं को इस्लाम में लाना ही रहा था।
सन् 1802 में लिखित मीर हुसैन अली किरमानी की पुस्तक ‘निशाने हैदरी’ में इस का विस्तार से विवरण है. इस के अनुसार, टीपू ने ही श्रीरंगपट्टनम की जामा मस्जिद (मस्जिदे आला) उसी जगह पहले स्थित एक शिव मंदिर को तोड़कर बनवायी थी।
उस ने अपने कब्जे में आयी सभी जगहों के नाम बदल कर भी उन का इस्लामीकरण कर दिया था जैसे, कालीकट को इस्लामाबाद, मंगलापुरी (मैंगलोर) को जलालाबाद, मैसूर को नजाराबाद, धारवाड़ को कुरशैद-सवाद, रत्नागिरि को मुस्तफाबाद, डिंडिगुल को खलीकाबाद, कन्वापुरम को कुसानाबाद, वेपुर को सुल्तानपटनम आदि। टीपू के मरने के बाद इन सब को फिर अपने नामों में पुनर्स्थापित किया गया।
'केरल मुस्लिम चरित्रम्’ (1951) के ख्याति-प्राप्त इतिहासकार सैयद पी़ ए़ मुहम्मद के अनुसार, केरल में टीपू ने जो किया वह भारतीय इतिहास में चंगेज खान और तैमूर लंग के कारनामों से तुलनीय है।
इतिहासकार राजा राज वर्मा ने अपने ‘केरल साहित्य चरितम्’ (1968) में लिखा है, ‘टीपू के हमलों में नष्ट किए गए मंदिरों की संख्या गिनती से बाहर है। मंदिरों को आग लगाना, देव-प्रतिमाओं को तोड़ना और गायों का सामूहिक संहार करना उस का और उस की सेना का शौक था. तलिप्परमपु और त्रिचम्बरम मंदिरों के विनाश के स्मरण से आज भी हृदय में पीड़ा होती है।’
उक्त पुस्तकों के अलावा विलियम लोगान की ‘मालाबार मैनुअल’ (1887), विलियम किर्कपैट्रिक की ‘सेलेक्टिड लेटर्स ऑफ़ टीपू सुल्तान’ (1811), मैसूर में जन्मे ब्रिटिश इतिहासकार और शिलालेख-विशेषज्ञ बेंजामिन लेविस राइस की ‘मैसूर गजेटियर’ (1897), डॉ़ आई़ एम़ मुथन्ना की ‘टीपू सुल्तान एक्सरेड’(1980) आदि अनगिनत प्रामाणिक पुस्तकें हैं।
संक्षेप में पूरी जानकारी के लिए बॉम्बे मलयाली समाज द्वारा प्रकाशित ‘Tipu Sultan: Villain or Hero?' (वॉयस ऑफ़ इंडिया, दिल्ली, 1993) देखी जा सकती है। सभी के विवरण पढ़कर कोई संदेह नहीं रहता कि यदि एक सौ जनरल डायर मिला दिए जाएं, तब भी निरीह हिन्दुओं को बर्बरतापूर्वक मारने में टीपू का पलड़ा भारी रहेगा। यह तो केवल कत्लेआम की बात हुई।
केरल और कर्नाटक में मुस्लिम आबादी की वर्तमान संख्या का सब से बड़ा मूल कारण टीपू था। हिन्दुओं के समक्ष उस का दिया हुआ कुख्यात विकल्प था, ‘तलवार या टोपी?’ अर्थात, ‘इस्लामी टोपी पहनकर मुसलमान बन जाओ, फिर गौमांस खाओ, वरना तलवार की भेंट चढ़ो!’ टीपू के इस कौल, ‘स्वॉर्ड ऑर कैप’ का उल्लेख कई किताबों में मिलता है। बहरहाल, उसी टीपू को फिल्म अभिनेता संजय खान ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया (18 नवंबर 2015) को दिए साक्षात्कार में ‘देशभक्त’ बताया। साथ ही, उस के द्वारा हिन्दुओं का कत्ल करने, उनका उत्पीड़न, कन्वर्जन कराने आदि को ‘मिथ’ यानी कोरी बातें करार दिया है ।
हमारे देश में इतिहास का मिथ्याकरण और हिन्दू-विरोधी राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । साथ ही यह भी कि देश का वामपंथी मीडिया कट्टर हिन्दू-विद्वेष से ग्रस्त है। इतिहास का यह घोर मिथ्याकरण ही, हमारे देश में सेकुलरवाद, उदारवाद के रूप में बौद्धिक रूप से प्रतिष्ठित है । इससे तनिक भी असहमति रखने को ही ‘असहिष्णुता’ बताकर सीधे-सीधे संपूर्ण हिन्दू जनता को अपमानित किया जाता है ।
लाखों हिंदुओ का कत्ल करने वाला क्रूर टिपू सुल्तान को अच्छा बताकर उसको साहित्य में पढ़ाना ये देशवासियों का अपमान है, इसको तुरंत पाठ्यक्रम से हटा देना चाहिए।
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