Tuesday, February 21, 2017

श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर जयंती 22 फरवरी

🚩श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर जयंती 22 फरवरी!!

🚩आइये जाने #राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक तथा महान विचारक
#श्री माधव सदाशिव गोलवलकर (श्रीगुरुजी ) के बारे में...

🚩श्री #गोलवलकर गुरूजी का जन्म माघ कृष्ण 11 संवत 1963 तदनुसार 19 फरवरी 1906 को महाराष्ट्र के रामटेक में हुआ था। वे अपने माता-पिता की चौथी संतान थे। उनके पिता का नाम श्री सदाशिव राव उपाख्य 'भाऊ जी' तथा माता का श्रीमती लक्ष्मीबाई उपाख्य 'ताई' था। उनका बचपन में नाम #माधव रखा गया पर परिवार में वे मधु के नाम से ही पुकारे जाते थे। पिताश्री सदाशिव राव प्रारम्भ में डाक-तार विभाग में कार्यरत थे परन्तु बाद में सन् 1908 में उनकी नियुक्ति शिक्षा विभाग में अध्यापक पद पर हो गयी।

🚩शिक्षा के साथ अन्य अभिरुचियाँ!!

माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर

🚩मधु जब मात्र दो वर्ष के थे तभी से उनकी शिक्षा प्रारम्भ हो गयी थी। पिताश्री भाऊजी जो भी उन्हें पढ़ाते थे उसे वे सहज ही कंठस्थ कर लेते थे। बालक मधु में कुशाग्र बुध्दि, ज्ञान की लालसा, असामान्य स्मरण शक्ति जैसे गुणों का समुच्चय विकास बचपन से ही हो रहा था। सन् 1919 में उन्होंने 'हाई स्कूल की प्रवेश परीक्षा' में विशेष #योग्यता दिखाकर छात्रवृत्ति प्राप्त की। सन् 1922 में 16 वर्ष की आयु में माधव ने मैट्रिक की परीक्षा चाँदा (अब चन्द्रपुर) के 'जुबली हाई स्कूल' से उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् सन् 1924 में उन्होंने #नागपुर की ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित 'हिस्लाप कॉलेज' से विज्ञान विषय में इण्टरमीडिएट की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की। #अंग्रेजी विषय में उन्हें प्रथम पारितोषिक मिला। वे भरपूर हॉकी तो खेलते ही थे कभी-कभी टेनिस भी खेल लिया करते थे। इसके अतिरिक्त व्यायाम का भी उन्हें शौक था। मलखम्ब के करतब, पकड़ एवं कूद आदि में वे काफी निपुण थे। विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने बाँसुरी एवं सितार वादन में भी अच्छी प्रवीणता हासिल कर ली थी।

🚩विश्वविद्यालय में ही आध्यात्मिक रुझान!!

🚩इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद माधवराव के #जीवन में एक नये दूरगामी परिणाम वाले अध्याय का प्रारम्भ सन् 1924 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश के साथ हुआ। सन् 1926 में उन्होंने बी.एससी. और सन् 1928 में एम.एससी. की परीक्षायें भी प्राणि-शास्त्र विषय में प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण की। इस तरह उनका विद्यार्थी जीवन अत्यन्त यशस्वी रहा। विश्वविद्यालय में बिताये चार वर्षों के कालखण्ड में उन्होंने विषय के अध्ययन के अलावा "संस्कृत महाकाव्यों, पाश्चात्य दर्शन, श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द की ओजपूर्ण एवं प्रेरक 'विचार सम्पदा', भिन्न-भिन्न उपासना-पंथों के प्रमुख ग्रंथों तथा शास्त्रीय विषयों के अनेक ग्रंथों का आस्थापूर्वक पठन किया" । इसी बीच उनकी रुचि आध्यात्मिक जीवन की ओर जागृत हुई। एम.एससी. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् वे प्राणि-शास्त्र विषय में 'मत्स्य जीवन' पर शोध कार्य हेतु मद्रास (चेन्नई) के मत्स्यालय से जुड़ गये। एक वर्ष के दौरान ही उनके पिता श्री भाऊजी सेवानिवृत्त हो गये, जिसके कारण वह श्री गुरूजी को पैसा भेजने में असमर्थ हो गये। इसी मद्रास-प्रवास के दौरान वे गम्भीर रूप से बीमार पड़ गये। चिकित्सक का विचार था कि यदि सावधानी नहीं बरती तो रोग गम्भीर रूप धारण कर सकता है। दो माह के इलाज के बाद वे रोगमुक्त तो हुए परन्तु उनका स्वास्थ्य पूर्णरूपेण से पूर्ववत् नहीं रहा। मद्रास प्रवास के दौरान जब वे शोध में कार्यरत थे तो एक बार हैदराबाद का निजाम मत्स्यालय देखने आया। नियमानुसार प्रवेश-शुल्क दिये बिना उसे प्रवेश देने से श्री गुरूजी ने इन्कार कर दिया । आर्थिक तंगी के कारण श्री गुरूजी को अपना शोध-कार्य अधूरा छोड़ कर अप्रैल 1929 में नागपुर वापस लौटना पड़ा। उनमें अद्भुत क्षमता थी लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की।

🚩प्राध्यापक के रूप में श्रीगुरूजी!!

🚩नागपुर आकर भी उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहा। इसके साथ ही उनके परिवार की आर्थिक स्थिति भी अत्यन्त खराब हो गयी थी। इसी बीच #बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्हें निर्देशक पद पर सेवा करने का प्रस्ताव मिला। 16 अगस्त सन् 1931 को श्री गुरूजी ने बनारस हिन्दू #विश्वविद्यालय के प्राणि-शास्त्र विभाग में निर्देशक का पद संभाल लिया। चूँकि यह अस्थायी नियुक्ति थी। इस कारण वे प्राय: चिन्तित भी रहा करते थे।

🚩अपने विद्यार्थी जीवन में भी माधव राव अपने मित्रों के अध्ययन में उनका मार्गदर्शन किया करते थे और अब तो अध्यापन उनकी आजीविका का साधन ही बन गया था। उनके अध्यापन का विषय यद्यपि प्राणि-विज्ञान था, विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनकी प्रतिभा पहचान कर उन्हें बी.ए. की कक्षा के छात्रों को अंग्रेजी और राजनीति शास्त्र भी पढ़ाने का अवसर दिया। अध्यापक के नाते माधव राव अपनी विलक्षण प्रतिभा और योग्यता से छात्रों में इतने अधिक लोकप्रिय हो गये कि उनके छात्र उनको गुरुजी के नाम से सम्बोधित करने लगे। इसी नाम से वे आगे चलकर जीवन भर जाने गये। माधव राव यद्यपि विज्ञान के परास्नातक थे, फिर भी आवश्यकता पड़ने पर अपने छात्रों तथा मित्रों को अंग्रेजी, अर्थशास्त्र, गणित तथा दर्शन जैसे अन्य विषय भी पढ़ाने को सदैव तत्पर रहते थे । यदि उन्हें पुस्तकालय में पुस्तकें नहीं मिलती थी, तो वे उन्हें खरीद कर और पढ़कर जिज्ञासी छात्रों एवं मित्रों की सहायता करते रहते थे। उनके वेतन का बहुतांश अपने होनहार छात्र-मित्रों की फीस भर देने अथवा उनकी पुस्तकें खरीद देने में ही व्यय हो जाया करता था।

🚩संघ प्रवेश!!

🚩सबसे पहले "डॉ॰ हेडगेवार" के द्वारा #काशी विश्वविद्यालय भेजे गए नागपुर के #स्वयंसेवक #भैयाजी #दाणी के द्वारा #श्री #गुरूजी #संघ के सम्पर्क में आये और उस शाखा के संघचालक भी बने। 1937 में वो नागपुर वापस आ गए। नागपुर में श्री गुरूजी के जीवन में एक दम नए मोड़ का आरम्भ हो गया। "डॉ हेडगेवार" के सानिध्य में उन्होंने एक अत्यंत प्रेरणा दायक राष्ट्र समर्पित व्यक्तित्व को देखा। किसी आप्त व्यक्ति के द्वारा इस विषय पर पूछने पर उन्होंने कहा- "मेरा रुझान राष्ट्र संगठन कार्य की ओर प्रारम्भ से है। यह कार्य संघ में रहकर अधिक परिणामकारिता से मैं कर सकूँगा ऐसा मेरा विश्वास है। इसलिए मैंने संघ कार्य में ही स्वयं को समर्पित कर दिया। मुझे लगता है स्वामी विवेकानंद के तत्वज्ञान और कार्यपद्धति से मेरा यह आचरण सर्वथा सुसंगत है।" 1938 के पश्चात संघ कार्य को ही उन्होंने अपना जीवन कार्य मान लिया। #डॉ हेडगेवार के साथ निरंतर रहते हुये अपना सारा ध्यान संघ कार्य पर ही केंद्रित किया। इससे डॉ हेडगेवार जी का ध्येय पूर्ण हुआ।

🚩द्वितीय संघचालक हेतु नियुक्ति

🚩#राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक "डॉ हेडगेवार" के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भाव और प्रबल आत्म संयम होने की वजह से 1939 में #माधव सदाशिव गोलवलकर को संघ का सरकार्यवाह नियुक्त किया गया। 1940 में "हेडगेवार" का ज्वर बढ़ता ही गया और अपना अंत समय जानकर उन्होंने उपस्थित कार्यकर्ताओं के सामने माधव को अपने पास बुलाया और कहा "अब आप ही संघ का कार्य सम्भालें"। 21 जून 1940 को हेडगेवार अनंत में विलीन हो गए।

🚩भारत छोड़ो- श्री गुरूजी का दृष्टिकोण!!

🚩9 अगस्त 1942 को बिना शक्ति के ही कांग्रेस ने अंग्रेजों के खिलाफ "भारत छोड़ो" आंदोलन छेड़ दिया। देश भर में बड़ा #आंदोलन शुरू तो हो गया, परन्तु असंगठित दिशाहीन होने से जनता की तरफ से कई प्रकार की तोड़ फोड़ होने लगी। सत्ताधारियों ने बड़ी क्रूरता से दमन नीतियाँ अपनाई। 2-3 महीने होते-होते आंदोलन की चिंगारी शांत हो गई। देश के सभी नेता कारागार में थे और उनकी रिहाई की कोई आशा दिखाई नहीं दे रही थी। श्री गुरूजी ने निर्णय किया था कि संघ प्रत्यक्ष रूप से तो आंदोलन में भाग नहीं लेगा किन्तु स्वयंसेवकों को व्यक्तिशः प्रेरित किया जाएगा।

🚩विभाजन संकट में अद्वितीय नेतृत्व!!

🚩16 अगस्त 1946 को मुहम्मद अली जिन्नाह ने सीधी कार्यवाही का दिन घोषित कर के हिन्दू हत्या का तांडव मचा दिया। उन्ही दिनों में श्री गुरूजी देश भर के अपने प्रत्येक भाषण में देश विभाजन के खिलाफ डट कर खड़े होने के लिए जनता का आह्वान करते रहे किन्तु कांग्रेसी नेतागण अखण्ड भारत के लिए लड़ने की मनः स्थिति में नहीं थे। पण्डित नेहरू ने भी स्पष्ट शब्दों में विभाजन को स्वीकार कर लिया था और 3 जून 1947 को इसकी घोषणा कर दी गई। एकाएक देश की स्थिति बदल गई। #इस कठिन समय में स्वयंसेवकों ने पाकिस्तान वाले भाग से हिंदुओं को सुरक्षित भारत भेजना शुरू किया। संघ का आदेश था कि जब तक आखिरी हिन्दू सुरक्षित ना आ जाए तब तक डटे रहना है। भीषण दिनों में #स्वयंसेवकों का अतुलनीय पराक्रम, रणकुशलता, त्याग और बलिदान की गाथा भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से लिखने लायक है। श्री गुरूजी भी इस कठिन घड़ी में पाकिस्तान के भाग में प्रवास करते रहे।

🚩संघ पर प्रतिबन्ध!!

🚩30 जनवरी 1948 को गांधी हत्या के मिथ्या आरोप में 4 फरवरी को संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया। #श्री गुरूजी को गिरफ्तार किया गया। देश भर में स्वयंसेवको की गिरफ्तारियां हुई। जेल में रहते हुए उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं का विस्तृत व्यक्तव्य भेजा जिसमें सरकार को मुहतोड़ जवाब दिया गया था। आह्वान किया गया था कि संघ पर आरोप सिद्ध करो या प्रतिबन्ध हटाओ। देश भर में यह स्वर गूंज उठा था। 26 फरवरी 1948 को देश के प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को गृह मंत्री वल्लभ भाई पटेल ने अपने पत्र में लिखा था "गांधी हत्या के काण्ड में मैंने स्वयं अपना ध्यान लगाकर पूरी जानकारी प्राप्त की है। उस से जुड़े हुये सभी अपराधी लोग पकड़ में आ गए हैं। उनमें एक भी व्यक्ति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नहीं है।"

🚩9 दिसम्बर 1948 को #सत्याग्रह नाम के इस आंदोलन की शुरुआत होते ही कुछ 4-5 हजार बच्चों का यह आंदोलन है ऐसा मानकर नेतागण ने इसका मजाक उड़ाया। लेकिन उसके उलट किसी भी कांग्रेसी आंदोलन में इतनी संख्या नहीं थी। 77090 स्वयंसेवकों ने विभिन्न जेलों को भर दिया। आखिरकार संघ को लिखित #संविधान बनाने का आदेश दे कर प्रतिबन्ध हटा लिया गया और अब गांधी हत्या का इसमें जिक्र तक नहीं हुआ।

🚩तब #सरदार वल्लभभाई पटेल ने गुरूजी को भेजे हुए अपने सन्देश में लिखा कि "संघ पर से पाबन्दी उठाने पर मुझे जितनी खुशी हुई इसका प्रमाण तो उस समय जो लोग मेरे निकट थे वे ही बता सकते हैं... मैं आपको अपनी शुभकामनाएं भेजता हूँ।"

🚩चीन आक्रमण के दौरान श्री गुरूजी का मार्गदर्शन!!

🚩श्री गुरूजी ने चीनी आक्रमण शुरू होते ही जो मार्ग दर्शन दिया उसके परिप्रेक्ष्य में स्वयंसेवक युद्ध प्रयत्नों में जनता का समर्थन जुटाने तथा उनका मनोबल दृढ करने में जुट गए। उनके सामयिक सहयोग का महत्व पण्डित नेहरू को भी स्वीकार करना पड़ा और उन्होंने सन् 1963 में गणतंत्र दिवस के पथ संचलन में कुछ कांग्रेसियों की आपत्ति के बाद भी संघ के स्वयंसेवकों को भाग लेने हेतु आमंत्रण भिजवाया। कहना न होगा कि #संघ के तीन हजार गणवेषधारी स्वयंसेवकों के घोष की ताल पर कदम मिलाकर चलना उस दिन के कार्यक्रम का एक प्रमुख आकर्षण था।

🚩सन् 1940 से 1973 इन 33 वर्षों में श्रीगुरुजी नें संघ को #अखिल भारतीय स्वरुप प्रदान किया। इस कार्यकाल में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारप्रणाली को सूत्रबध्द किया। श्रीगुरुजी, अपनी विचार शक्ति व कार्यशक्ति से विभिन्न क्षेत्रों एवम् संघटनाओं के कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणास्रोत बनें। #श्रीगुरुजी का जीवन अलौकिक था, राष्ट्रजीवन के विभिन्न पहलुओं पर उन्होंने मूलभूत एवम् क्रियाशील मार्गदर्शन किया ।

🚩कैसे वीर हो गए इस देश में, जब धर्म की बात आयी तो शास्त्र उठाया और जब कर्म की बात आयी तो शस्त्र उठाने में भी पीछे नही हटे....!

Monday, February 20, 2017

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी जयंती 21 फरवरी!!

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी जयंती 21 फरवरी!!

आइये जाने सबसे पहले 'स्वराज्य' का नारा देने वाले महान योगी, आधुनिक भारत के महान चिन्तक, समाज-सुधारक व देशभक्त दयानंद सरस्वती जी के बारे में!!
Maharshi Swami Dayananda Saraswati Jayanti

दयानंद सरस्वती जी का जन्म टंकारा में फरवरी 1854 में मोरबी (जिला राजकोट), गुजरात में हुआ था। उनके पिता का नाम करशनजी लालजी तिवारी और माँ का नाम यशोदाबाई था। उनके पिता एक कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के एक अमीर, समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। दयानंद सरस्वती का असली नाम मूलशंकर था और उनका प्रारम्भिक जीवन बहुत आराम से बीता। आगे चलकर एक पण्डित बनने के लिए वे संस्कृत, वेद, शास्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गए।

उनके जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं हुई, जिन्होंने उन्हें हिन्दू धर्म की पारम्परिक मान्यताओं और ईश्वर के बारे में गंभीर प्रश्न पूछने के लिए विवश कर दिया। 

अपनी छोटी बहन और चाचा की हैजे के कारण हुई मृत्यु से वे जीवन-मरण के अर्थ पर गहराई से सोचने लगे और ऐसे प्रश्न करने लगे जिससे उनके माता पिता चिन्तित रहने लगे। तब उनके माता-पिता ने उनका विवाह किशोरावस्था के प्रारम्भ में ही करने का निर्णय किया (19 वीं सदी के आर्यावर्त (भारत) में यह आम प्रथा थी)। लेकिन बालक मूलशंकर ने निश्चय किया कि विवाह उनके लिए नहीं बना है और वे 1846 मे सत्य की खोज में निकल पड़े।

महर्षि दयानन्द के हृदय में आदर्शवाद की उच्च भावना, यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति, मातृभूमि की नियति को नई दिशा देने का अदम्य उत्साह, धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक व राजनैतिक दृष्टि से युगानुकूल चिन्तन करने की तीव्र इच्छा तथा आर्यावर्तीय (भारतीय) जनता में गौरवमय अतीत के प्रति निष्ठा जगाने की भावना थी। उन्होंने किसी के विरोध तथा निन्दा करने की परवाह किये बिना आर्यावर्त (भारत) के हिन्दू समाज का कायाकल्प करना अपना ध्येय बना लिया था।

ज्ञान की खोज!!

फाल्गुन कृष्ण संवत् 1815 में शिवरात्रि के दिन उनके जीवन में नया मोड़ आया। उन्हें नया बोध हुआ। वे घर से निकल पड़े और यात्रा करते हुए वह गुरु विरजानन्दके पास पहुंचे। गुरुवर ने उन्हें पाणिनी व्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा- विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। यही तुम्हारी गुरुदक्षिणा है। उन्होंने आशीर्वाद दिया कि ईश्वर उनके पुरुषार्थ को सफल करे। उन्होंने अंतिम शिक्षा दी -मनुष्यकृत ग्रंथों में ईश्वर और ऋषियों की निंदा है, ऋषिकृत ग्रंथों में नहीं। वेद प्रमाण हैं। इस कसौटी को हाथ से न छोड़ना।वर्तमान में केवल पांडुरंग शास्त्री उनमें से एक है जो आर्य समाज की तरह काम कर रहे हैं ।

ज्ञान प्राप्ति के पश्चात, वैचारिक आन्दोलन, शास्त्रार्थ एवं व्याख्यान!!

वेदों को छोड़ कर कोई अन्य धर्मग्रन्थ प्रमाण नहीं है - इस सत्य का प्रचार करने के लिए स्वामी जी ने सारे देश का दौरा करना प्रारंभ किया और जहां-जहां वे गये प्राचीन परंपरा के पंडित और विद्वान उनसे हार मानते गये। संस्कृत भाषा का उन्हें अगाध ज्ञान था। संस्कृत में वे धाराप्रवाह बोलते थे। साथ ही वे प्रचंड तार्किक थे।

उन्होंने ईसाई और मुस्लिम धर्मग्रन्थों का भली-भांति अध्ययन-मन्थन किया था। अतएव अकेले ही उन्होंने तीन-तीन मोर्चों पर संघर्ष आरंभ कर दिया। दो मोर्चे तो ईसाइयत और इस्लाम के थे किंतु तीसरा मोर्चा सनातनधर्मी हिंदुओं का था, जिनसे जूझने में स्वामी जी को अनेक अपमान, कलंक और कष्ट झेलने पड़े। दयानन्द ने बुद्धिवाद की जो मशाल जलायी थी, उसका कोई जवाब नहीं था। वे जो कुछ कह रहे थे, उसका उत्तर न तो मुसलमान दे सकते थे, न ईसाई, न पुराणों पर पलने वाले हिन्दू पण्डित और विद्वान। हिन्दू नवोत्थान अब पूरे प्रकाश में आ गया था। और अनेक समझदार लोग मन ही मन अनुभव करने लगे थे कि वास्तव में पौराणिक धर्म की पोंगापंथी में कोई सार नहीं है।

स्वामीजी प्रचलित धर्मों में व्याप्त बुराइयों का कड़ा खण्डन करते थे । अपने महाग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में स्वामीजी ने सभी मतों में व्याप्त बुराइयों का खण्डन किया है। उनके समकालीन सुधारकों से अलग, स्वामीजी का मत शिक्षित वर्ग तक ही सीमित नहीं था अपितु आर्य समाज ने आर्यावर्त (भारत) के साधारण जनमानस को भी अपनी ओर आकर्षित किया।

सन् 1872 ई. में स्वामी जी कलकत्ता पधारे। वहां देवेन्द्रनाथ ठाकुर और केशवचन्द्र सेन ने उनका बड़ा सत्कार किया। यहीं से उन्होंने पूरे वस्त्र पहनना शुरू किया । यहीं उन्होंने तत्कालीन वाइसराय को कहा था कि विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परंतु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर व्यवहार पर-उपकार अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है।

ब्राह्मो समाजियों से उनका विचार-विमर्श भी हुआ किन्तु ईसाइयत से प्रभावित ब्राह्मो समाजी विद्वान पुनर्जन्म और वेद की प्रामाणिकता के विषय में स्वामी से एकमत नहीं हो सके। कहते हैं कलकत्ते में ही केशवचन्द्र सेन ने स्वामी जी को यह सलाह दे डाली कि यदि आप संस्कृत छोड़ कर आर्यभाषा (हिन्दी) में बोलना आरम्भ करें, तो देश का असीम उपकार हो सकता है। तभी से स्वामी जी के व्याख्यानों की भाषा आर्यभाषा (हिन्दी) हो गयी और आर्यभाषी (हिन्दी) प्रान्तों में उन्हे अगणित अनुयायी मिलने लगे। 

आर्य समाज की स्थापना!!

कलकत्ते से स्वामी जी मुम्बई पधारे और वहीं ( चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत् १९३२) 10 अप्रैल 1875 ई. को उन्होने 'आर्य समाज' की स्थापना की। 
आर्यसमाज के नियम और सिद्धांत प्राणिमात्र के कल्याण के लिए हैं संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। मैं मानता हूँ कि गीता में कुछ भी गलत नहीं है। इसके अलावा गीता वेदों के खिलाफ नहीं है।
ॐ को आर्य समाज में ईश्वर का सर्वोत्तम और उपयुक्त नाम माना जाता है।

मुम्बई में भी उनके साथ समाज वालों ने विचार-विमर्श किया। किन्तु यह समाज तो ब्राह्मो समाज का ही मुम्बई संस्करण था। अतएव स्वामी जी से इस समाज के लोग भी एकमत नहीं हो सके।


मुम्बई से लौट कर स्वामी जी इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) आए। वहां उन्होंने सत्यानुसन्धान के लिए ईसाई, मुसलमान और हिन्दू पण्डितों की एक सभा बुलायी। किन्तु दो दिनों के विचार-विमर्श के बाद भी लोग किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके। इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) से स्वामी जी पंजाब गए। पंजाब में उनके प्रति बहुत उत्साह जाग्रत हुआ और सारे प्रान्त में आर्यसमाज की शाखाएं खुलने लगी। तभी से पंजाब आर्यसमाजियों का प्रधान गढ़ रहा है।

समाज सुधार के कार्य!!

महर्षि दयानन्द ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों और रूढियों-बुराइयों को दूर करने के लिए, निर्भय होकर उन पर आक्रमण किया। वे 'संन्यासी योद्धा' कहलाए। उन्होंने जन्मना जाति का विरोध किया तथा कर्म के आधार वेदानुकूल वर्ण-निर्धारण की बात कही। वे दलितोद्धार के पक्षधर थे। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा के लिए प्रबल आन्दोलन चलाया। उन्होंने बाल विवाह तथा सती प्रथा का निषेध किया तथा विधवा विवाह का समर्थन किया। उन्होंने ईश्वर को सृष्टि का निमित्त कारण तथा प्रकृति को अनादि तथा शाश्वत माना। वे तैत्रवाद के समर्थक थे। उनके दार्शनिक विचार वेदानुकूल थे। उन्होंने यह भी माना कि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र हैं तथा फल भोगने में परतन्त्र हैं। महर्षि दयानन्द सभी धर्मानुयायियों को एक मंच पर लाकर एकता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे। 

उन्होंने इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) दरबार के समय 1878 में ऐसा प्रयास किया था। उनके अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि और ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में उनके मौलिक विचार सुस्पष्ट रूप में प्राप्य हैं। वे योगी थे तथा प्राणायाम पर उनका विशेष बल था। वे सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णों तथा स्त्रियों की भागीदारी के पक्षधर थे। राष्ट्रीय जागरण की दिशा में उन्होंने सामाजिक क्रान्ति तथा आध्यात्मिक पुनरुत्थान के मार्ग को अपनाया। उनकी शिक्षा सम्बन्धी धारणाओं में प्रदर्शित दूरदर्शिता, देशभक्ति तथा व्यवहारिकता पूर्णतया प्रासङ्गिक तथा युगानुकूल है। महर्षि दयानन्द समाज सुधारक तथा धार्मिक पुनर्जागरण के प्रवर्तक तो थे ही, वे प्रचण्ड राष्ट्रवादी तथा राजनैतिक आदर्शवादी भी थे। 

विदेशियों के आर्यावर्त में राज्य होने के कारण आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विधान पढना-पढाना व बाल्यावस्था में अस्वयंवरविवाह, विषयासक्ति, मिथ्या भाषावादि, कुलक्षण, वेद-विद्या का प्रचार आदि कुकर्म हैं, जब आपस में भाई-भाई लडते हैं तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है। उन्होंने राज्याध्यक्ष तथा शासन की विभिन्न परिषदों एवं समितियों के लिए आवश्यक योग्यताओं को भी गिनाया है। उन्होंने न्याय की व्यवस्था ऋषि प्रणीत ग्रन्थों के आधार पर किए जाने का पक्ष लिया।

स्वराज्य के प्रथम सन्देश!!

स्वामी दयानन्द सरस्वती को सामान्यत: केवल आर्य समाज के संस्थापक तथा समाज-सुधारक के रूप में ही जाना जाता है। राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के लिए किये गए प्रयत्नों में उनकी उल्लेखनीय भूमिका की जानकारी बहुत कम लोगों को है। वस्तुस्थिति यह है कि पराधीन आर्यावर्त (भारत) में यह कहने का साहस सम्भवत: सर्वप्रथम स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ही किया था कि "आर्यावर्त (भारत), आर्यावर्तियों (भारतीयों) का है"। हमारे प्रथम स्वतन्त्रता समर, सन् 1857 की क्रान्ति की सम्पूर्ण योजना भी स्वामी जी के नेतृत्व में ही तैयार की गई थी और वही उसके प्रमुख सूत्रधार भी थे। वे अपने प्रवचनों में श्रोताओं को प्राय: राष्ट्रवाद का उपदेश देते और देश के लिए मर मिटने की भावना भरते थे। 1855 में हरिद्वार में जब कुम्भ मेला लगा था तो उसमें शामिल होने के लिए स्वामी जी ने आबू पर्वत से हरिद्वार तक पैदल यात्रा की थी। रास्ते में उन्होंने स्थान-स्थान पर प्रवचन किए तथा देशवासियों की नब्ज टटोली। उन्होंने यह अनुभव किया कि लोग अब अंग्रेजों के अत्याचारी शासन से तंग आ चुके हैं और देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करने को आतुर हो उठे हैं।

क्रान्ति की विमर्श!!

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हरिद्वार पहुँच कर वहां एक पहाड़ी के एकान्त स्थान पर अपना डेरा जमाया। वहीं पर उन्होंने पाँच ऐसे व्यक्तियों से मुलाकात की, जो आगे चलकर सन् 1857 की क्रान्ति के कर्णधार बने। ये पांच व्यक्ति थे नाना साहेब, अजीमुल्ला खां, बाला साहब, तात्या टोपे तथा बाबू कुंवर सिंह। बातचीत काफी लम्बी चली और यही पर यह तय किया गया कि फिरंगी सरकार के विरुद्ध सम्पूर्ण देश में सशस्त्र क्रान्ति के लिए आधारभूमि तैयार की जाए और उसके बाद एक निश्चित दिन सम्पूर्ण देश में एक साथ क्रान्ति का बिगुल बजा दिया जाए। जनसाधारण तथा आर्यावर्तीय (भारतीय) सैनिकों में इस क्रान्ति की आवाज को पहुँचाने के लिए 'रोटी तथा कमल' की भी योजना यहीं तैयार की गई। इस सम्पूर्ण विचार विमर्श में प्रमुख भूमिका स्वामी दयानन्द सरस्वती की ही थी।

विचार विमर्श तथा योजना-निर्धारण के उपरान्त स्वामी जी तो हरिद्वार में ही रुक गए तथा अन्य पांचों राष्ट्रीय नेता योजना को यथार्थ रूप देने के लिए अपने-अपने स्थानों पर चले गए। उनके जाने के बाद स्वामी जी ने अपने कुछ विश्वस्त साधु संन्यासियों से सम्पर्क स्थापित किया और उनका एक गुप्त संगठन बनाया। इस संगठन का मुख्यालय इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) में महरौली स्थित योगमाया मन्दिर में बनाया गया। इस मुख्यालय ने स्वाधीनता समर में उल्लेखनीय भूमिका निभायी। स्वामी जी के नेतृत्व में साधुओं ने भी सम्पूर्ण देश में क्रान्ति का अलख जगाया। वे क्रान्तिकारियों के सन्देश एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाते, उन्हें प्रोत्साहित करते और आवश्यकता पड़ने पर स्वयं भी हथियार उठाकर अंग्रेजों से संघर्ष करते। सन् 1857 की क्रान्ति की सम्पूर्ण अवधि में राष्ट्रीय नेता, स्वामी दयानन्द सरस्वती के निरन्तर सम्पर्क में रहे।

स्वतन्त्रता-संघर्ष की असफलता पर भी स्वामी जी निराश नहीं थे। उन्हें तो इस बात का पहले से ही आभास था कि केवल एक बार प्रयत्न करने से ही स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं हो सकती। इसके लिए तो संघर्ष की लम्बी प्रक्रिया चलानी होगी। हरिद्वार में ही 1855 की बैठक में बाबू कुंवर सिंह ने जब अपने इस संघर्ष में सफलता की संभावना के बारे में स्वामी जी से पूछा तो उनका बेबाक उत्तर था "स्वतन्त्रता संघर्ष कभी असफल नहीं होता। भारत धीरे-धीरे एक सौ वर्ष में परतन्त्र बना है। अब इसको स्वतन्त्र होने में भी एक सौ वर्ष लग जायेगें । इस स्वतन्त्रता प्राप्ति में बहुत से अनमोल प्राणों की आहुतियां डाली जाएगी ।" स्वामी जी की यह भविष्यवाणी कितनी सही निकली, इसे बाद की घटनाओं ने प्रमाणित कर दिया। स्वतन्त्रता-संघर्ष की असफलता के बाद जब तात्या टोपे, नाना साहब तथा अन्य राष्ट्रीय नेता स्वामी जी से मिले तो उन्हें भी उन्होंने निराश न होने तथा उचित समय की प्रतीक्षा करने की ही सलाह दी।

1857 की क्रान्ति के दो वर्ष बाद स्वामी जी ने स्वामी विरजानन्द को अपना गुरु बनाया और उनसे दीक्षा ली। स्वामी विरजानन्द के आश्रम में रहकर उन्होंने वेदों का अध्ययन किया, उन पर चिन्तन किया और उसके बाद अपने गुरु के निर्देशानुसार वे वैदिक ज्ञान के प्रचार-प्रसार में जुट गए। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने आर्य समाज की भी स्थापना की और उसके माध्यम से समाज-सुधार के अनेक कार्य किए। छुआछूत, सती प्रथा, बाल विवाह, नर बलि, धार्मिक संकीर्णता तथा अन्धविश्वासों के विरुद्ध उन्होंने जमकर प्रचार किया और विधवा विवाह, धार्मिक उदारता तथा आपसी भाईचारे का उन्होंने समर्थन किया। इन सबके साथ स्वामी जी लोगों में देशभक्ति की भावना भरने से भी कभी नहीं चूकते थे।

प्रारम्भ में अनेक व्यक्तियों ने स्वामी जी के समाज सुधार के कार्यों में विभिन्न प्रकार के विघ्न डाले और उनका विरोध किया। धीरे-धीरे उनके तर्क लोगों की समझ में आने लगे और विरोध कम हुआ। उनकी लोकप्रियता निरन्तर बढ़ने लगी। इससे अंग्रेज अधिकारियों के मन में यह इच्छा उठी कि अगर स्वामीजी को अंग्रेज सरकार के पक्ष में कर लिया जाए तो सहज ही उनके माध्यम से जनसाधारण में अंग्रेजों को लोकप्रिय बनाया जा सकता है। इससे पूर्व अंग्रेज अधिकारी इसी प्रकार से अन्य कुछ धर्मोपदेशकों तथा धर्माधिकारियों को विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर अपनी तरफ मिला चुके थे। उन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती को भी उन्हीं के समान समझा। तद्नुसार एक ईसाई पादरी के माध्यम से स्वामी जी की तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड नार्थब्रुक से मुलाकात करवायी गई। यह मुलाकात मार्च 1873 में कलकत्ता में हुई।

अंग्रेजों को तीखा जवाब!!

इधर-उधर की कुछ औपचारिक बातों के उपरान्त लॉर्ड नार्थब्रुक ने विनम्रता से अपनी बात स्वामी जी के सामने रखी- "अपने व्याख्यान के प्रारम्भ में आप जो ईश्वर की प्रार्थना करते हैं, क्या उसमें आप अंग्रेज सरकार के कल्याण की भी प्रार्थना कर सकेगें।"

गर्वनर जनरल की बात सुनकर स्वामी जी सहज ही सब कुछ समझ गए। उन्हें अंग्रेज सरकार की बुद्धि पर तरस भी आया, जो उन्हें ठीक तरह नहीं समझ सकी। उन्होंने निर्भीकता और दृढ़ता से गवर्नर जनरल को उत्तर दिया-
मैं ऐसी किसी भी बात को स्वीकार नहीं कर सकता। मेरी यह स्पष्ट मान्यता है कि राजनीतिक स्तर पर मेरे देशवासियों की निर्बाध प्रगति के लिए तथा संसार की सभ्य जातियों के समुदाय में आर्यावर्त (भारत) को सम्माननीय स्थान प्रदान करने के लिए यह अनिवार्य है कि मेरे देशवासियों को पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो। सर्वशक्तिशाली परमात्मा के समक्ष प्रतिदिन मैं यही प्रार्थना करता हूं कि मेरे देशवासी विदेशी सत्ता के जुए से शीघ्रातिशीघ्र मुक्त हों।

गवर्नर जनरल को स्वामी जी से इस प्रकार के तीखे उत्तर की आशा नहीं थी। मुलाकात तत्काल समाप्त कर दी गई और स्वामी जी वहां से लौट आए। इसके उपरान्त सरकार के गुप्तचर विभाग की स्वामी जी पर तथा उनकी संस्था आर्य-समाज पर गहरी दृष्टि रही। उनकी प्रत्येक गतिविधि और उनके द्वारा बोले गए प्रत्येक शब्द का रिकार्ड रखा जाने लगा। आम जनता पर उनके प्रभाव से सरकार को अहसास होने लगा कि यह हिन्दू संत और आर्यसमाज किसी भी दिन सरकार के लिए खतरा बन सकते हैं। इसलिए स्वामी जी को समाप्त करने के लिए भी तरह-तरह के षड्यन्त्र रचे जाने लगे।

हत्या का षड्यंत्र

स्वामी जी की मृत्यु जिन परिस्थितियों में हुई, उससे भी यही आभास मिलता है कि उसमें निश्चित ही अंग्रेज सरकार का कोई षड़यंत्र था। स्वामी जी का स्वर्गवास (मृत्यु) 30 अक्टूबर 1883 को दीपावली के दिन सन्ध्या के समय हुआ ।  उन दिनों वे जोधपुर नरेश महाराज जसवन्त सिंह के निमन्त्रण पर जोधपुर गये हुए थे। वहां उनके नित्य ही प्रवचन होते थे। यदाकदा महाराज जसवन्त सिंह भी उनके चरणों में बैठकर वहां उनके प्रवचन सुनते। दो-चार बार स्वामी जी भी राज्य महलों में गए। वहां पर उन्होंने नन्हीं नामक वेश्या का अनावश्यक हस्तक्षेप और महाराज जसवन्त सिंह पर उसका अत्यधिक प्रभाव देखा। स्वामी जी को यह बहुत बुरा लगा। उन्होंने महाराज को इस बारे में समझाया तो उन्होंने विनम्रता से उनकी बात स्वीकार कर ली और नन्हीं से सम्बन्ध तोड़ लिए। इससे नन्हीं स्वामी जी के बहुत अधिक विरुद्ध हो गई। उसने स्वामी जी के रसोइये कलिया उर्फ जगन्नाथ को अपनी तरफ मिला कर उनके दूध में पिसा हुआ काञ्च (जहर) डलवा दिया। थोड़ी ही देर बाद रसोइये ने स्वामी जी के पास आकर अपना अपराध स्वीकार कर लिया और उसके लिए क्षमा मांगी । उदार-हृदय स्वामी जी ने उसे राह-खर्च और जीवन-यापन के लिए पांच सौ रुपए देकर वहां से विदा कर दिया ताकि राजा उसे परेशान न करे। बाद में जब स्वामी जी को जोधपुर के अस्पताल में भर्ती करवाया गया तो वहां सम्बन्धित चिकित्सक भी शक के दायरे में रहा। उस पर आरोप था कि वह औषधि के नाम पर स्वामी जी को हल्का विष पिलाता रहा। बाद में जब स्वामी जी की तबियत बहुत खराब होने लगी तो उन्हें अजमेर के अस्पताल में लाया गया। मगर तब तक काफी विलम्ब हो चुका था। स्वामी जी को बचाया नहीं जा सका।

इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में आशंका यही है कि वेश्या को उभारने तथा चिकित्सक को बरगलाने का कार्य अंग्रेज सरकार के इशारे पर किसी अंग्रेज अधिकारी ने ही किया। अन्यथा एक साधारण वेश्या के लिए यह सम्भव नहीं था कि केवल अपने बलबूते पर स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे सुप्रसिद्ध और लोकप्रिय व्यक्ति के विरुद्ध ऐसा षड्यन्त्र कर सके। बिना किसी प्रोत्साहन और संरक्षण के चिकित्सक भी ऐसा दुस्साहस नहीं कर सकता था।

अंतिम शब्द!

स्वधर्म, स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वसंस्कृति और स्वदेशोन्नति के अग्रदूत स्वामी दयानन्द जी का शरीर सन् 1883 में दीपावली के दिन पञ्चतत्व में विलीन हो गया और वे अपने पीछे छोड़ गए एक सिद्धान्त, कृण्वन्तो विश्वमार्यम् - अर्थात सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ। उनके अन्तिम शब्द थे - "प्रभु! तूने अच्छी लीला की। आपकी इच्छा पूर्ण हो।"

स्वामी दयानन्द के विचारों से प्रभावित महापुरुषों की संख्या असंख्य है, स्वामी दयानन्द के प्रमुख अनुयायियों में लाला हंसराज ने 1866 में लाहौर में 'दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज' की स्थापना की तथा स्वामी श्रद्धानन्द ने 1901 में हरिद्वार के निकट कांगड़ी में गुरुकुल की स्थापना की।



स्वामी दयानन्द के योगदान के बारे में विद्वानपुरुषों के विचार

स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 'आर्यावर्त (भारत) आर्यावर्तियों (भारतीयों) के लिए' की घोषणा की - श्रीमती एनी बेसेन्ट

भारत की स्वतन्त्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द ने डाली थी।-सरदार पटेल 

गाँधी जी राष्ट्रपिता हैं, पर स्वामी दयानन्द राष्ट्र–पितामह हैं।-पट्टाभि सीतारमैया 

ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त कराने और जाति बन्धन तोड़ने के लिए हुआ था। उनका आदर्श है- आर्यावर्त ! उठ, जाग, आगे बढ़। समय आ गया है, नये युग में प्रवेश कर।-रिचर्ड (फ्रेञ्च लेखक)

स्वामी जी को लोकमान्य तिलक ने "स्वराज्य का प्रथम सन्देशवाहक" कहा।

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने "आधुनिक भारत का निर्माता" माना।

अमरीका की मदाम ब्लेवेट्स्की ने "आदि शङ्कराचार्य के बाद "बुराई पर सबसे निर्भीक प्रहारक" माना।

सैयद अहमद खां के शब्दों में "स्वामी जी ऐसे विद्वान और श्रेष्ठ व्यक्ति थे, जिनका अन्य मतावलम्बी भी सम्मान करते थे।"

Sunday, February 19, 2017

बॉलीवुड अभिनेता अक्षय कुमार ने न्यायप्रणाली को लेकर किया बड़ा खुलासा!!

बॉलीवुड अभिनेता अक्षय कुमार ने न्यायप्रणाली को लेकर किया बड़ा खुलासा!!

DNA स्टूडियों में आये अभिनेता अक्षय कुमार ने बताया कि अक्सर जब भी लोग किसी एक्टर को देखते हैं तो सोचते हैं कि जरूर किसी फिल्म की प्रमोशन करने आया होगा । 
लेकिन मैं यहाँ एक जरुरी मुद्दे का प्रमोशन करने आया हूँ ।

हाल ही में मैंने एक फिल्म की है और इस फिल्म पर ध्यान देते हुए मैंने काफी रिसर्च किया । जाहिर सी बात है कि सारी बातें फिल्मों में जोड़ी नही जा सकती इसलिए मुझे लगा कि DNA का हिस्सा बने इंडिया के जुडिशल सिस्टम पर आपके साथ कुछ डिसकशन करूँ।
DNA: Exclusive talk with Akshay Kumar over judiciary

आज भी हिंदुस्तान में कोई अन्याय होता है या झगड़ा सुलझ नहीं पाता तो लोग ये कहते कि "I will see you in Court" अब मैं अदालत जाऊंगा और इंसाफ के लिए लड़ूंगा । 

जरा सोचो! ये जो लोग बातें करते हैं तो उनके मन में भारत के कानून और जुडिशरी के लिए कितनी इज्जत होगी!
कितना विश्वास होता है कि मुझे इंसाफ मिलेगा ।

लेकिन जब आप अदालत जाते हो तो क्या वो इंसाफ इतनी आसानी से आपको मिल जाता है..?? 

इस सवाल का जवाब हाँ भी है और ना भी है । 
कुछ लोगो को इंसाफ मिल भी जाता है कुछ को नहीं भी मिलता । हमारे देश में इंसाफ पाने का रास्ता मुश्किल भी है और लंबा भी । 
जिस देश में साढ़े तीन करोड़ मुकदमें लटके हुए हों उस देश में इंसाफ सदा रेड लाइट पर खड़ा रहता है । मुकदमों का ये ट्राफिक जाम कब और कैसे खुलेगा ?? 

यही बड़ा सवाल है !!

हालांकि मुझे विश्वास है खुलेगा जरूर!
इस सवाल पर ही हम बात करेंगे ।

आज मैं आपका ध्यान इस मुद्दे पर लाना चाहता हूँ कि कुछ तो है जो ठीक नहीं हो रहा और कुछ है जो ठीक करना पड़ेगा, बदलना पड़ेगा ।

आज मैं आपको ऐसा कुछ दिखाऊंगा जो आपकी आंखें हमेशा-हमेशा के लिए खोल देगा। मैं निराशा में विश्वास नहीं रखता हूँ आशावादी हूँ मैं ।

मैं आपको भारत की न्यायपालिका से जुड़े कुछ आंकड़े बताना चाहता हूँ ।

 अभी इस देश में अदालत में 3 करोड़ से भी अधिक मुकदमें लटके हुए हैं ❗❗ यानि कि pending ❗❗

 इसमें से करीब 60,000 cases सुप्रीम कोर्ट में, जबकि देश के हाई कोर्ट में 2013 तक 41 लाख 53 हजार मुकदमों पर फैसला नही हो पाया ।

देश में जजों की इतनी कमी है कि अगर इंसाफ समय पर मिल जाय तो वो रिसर्च का विषय बन जाये ।

आपको जान कर हैरानी होगी कि हर 10 लाख लोगों पर सिर्फ 17 जज हैं । जबकि 1987 में ही LOW कमीशन ने 10 लाख लोगों पर 50 जज होने की सिफारिश की थी । देशभर की अदालतों में judges के 5 हजार 433 पद खाली है । देश भर की अदालतों में 10% केस ऐसे हैं जो 10 सालों से भी ज्यादा समय से pending हैं ❗❗

ये आंकड़े बताते है कि देश की अदालतें और जज मुकदमों के बोझ से दबे हुए हैं । अब ये समझने की कोशिश करते हैं कि विदेशों में क्या हालत है । हम अपनी न्यायव्यवस्था को कैसे बेहतर बना सकते हैं।

भारत में 10 लाख लोगों पर सिर्फ 17 जज हैं । लेकिन अमेरिका में 10 लाख लोगों पर 107 जज हैं, केनेडा में 10 लाख लोगों पर 75 जज हैं और ऑस्ट्रेलिया में 10 लाख लोगों पर 42 जज ।

ये बताना भी जरुरी है कि इन देशों की पाप्यूलेशन भारत से बहुत कम है । कम पॉप्युलेशन के बावजूद इन देशों में जजो की संख्या भारत से कई ज्यादा है ।

यहाँ चीन का example आपको काफी हैरान कर देगा चीन की पॉपुलेशन भारत से ज्यादा है पर आपको ये जान कर हैरानी होगी कि चीन में हर 10 लाख लोगों पर करीब 140 जज हैं । यानि भारत के मुकाबले Ratio  करीब 8 गुना ज्यादा है । 

कहने का मतलब ये है कि अगर भारत चाहे तो बहुत कुछ कर सकता है और हमें इस दिशा में बड़े कदम उठाने ही होंगे ।

मैं एक एक्टर हूँ और आज मैं अपनी और फिल्म इंडस्ट्री की भी एक बात करना चाहता हूँ । आपने ध्यान दिया होगा कि हमारे देश में जितनी भी फिल्में बनती है उनमें से ज्यादातर फिल्मों में कोर्ट का कोई न कोई सीन जरूर होता है । क्या आप जानते हैं ऐसा क्यों है? 

इसका कारण यही है कि कोर्ट हमारे जीवन का एक हिस्सा बन चुका है । आप में से कई लोगों ने कोर्ट कचेरी के चक्कर लगाये होंगे । अगर आपका कोर्ट से वास्ता नहीं पड़ा होगा तो आपके आस-पास कई लोग ऐसे होंगे जो आपको जुडिशरी के कड़वे अनुभव बताते होंगे ।

ज्यादातर लोग यही सलाह देते होंगे कि यार कोर्ट कचेरी के चक्कर से जितना दूर रहो उतना ही अच्छा है । सवाल ये है कि आजादी के 69 साल बाद भी ऐसी स्थिति क्यों बनी है ❓❓

जब आम आदमी बेसिस सिस्टम से नहीं जीत पाता,जब आम आदमी बहु बलि से हारने लगता है, जब आम आदमी की कोई नही सुनता तो उसे अदालत की शक्ल में एक उम्मीद दिखाई देती है ।
 वो उम्मीद जिसके सहारे वो अपनी खोई हुई इज्जत पा सकता है ।
 वो उम्मीद जिससे वो बेईमानों को उसकी असली जगह पहुँचा सकता है।
 वो उम्मीद जो उसे सफेद झूठ बोलने वालों से लड़ने की प्रेरणा देती है ।

लेकिन उम्मीदों का गठ्ठर उठाये जब आम आदमी अदालत के दरवाजे पहुँचता है तब पता चलता है कि उसे अदालतों के फैसले और अपनी जीत के बीच लंबा सफर तय करना होगा।
 इस सफर के दौरान वकील बहरे हो जाते हैं , जज बदल जाते हैं ,फाइलें मोटी हो जाती हैं , अदालतों की दीवारें पुरानी होने लगती है,मौसम आने-जाने लगते हैं पर अदालत से आस लगाने वालों का आँगन सूखा ही रहता है ।

कई बार तो फैसले आने से पहले ही गुहार लगानेवाला इस दुनिया से चला जाता है  । लेकिन अदालतें अपना काम करती है कोर्ट कचेरी के चक्कर पर चक्कर लगाना । कोई नहीं चाहता पर हारा हुआ आदमी कोर्ट में मिलने की ही धमकी देता है ।

अदालतें भी ये सब देख रही हैं । आँसू सिर्फ अदालतों के चक्कर काटनेवालों की आँखों में ही नहीं । बल्कि ये दर्द उन लोगो का भी है जिनके कन्धों पर सबसे बड़ी जिम्मेदारी है यानि न्याय देने की जिम्मेदारी । फैसला सुनाने की जिम्मेदारी,इंसाफ देने की जिम्मेदारी ।

मुझे याद है जब मैं छट्ठी क्लास में था तब मेरे गणित के पेपर में एक सवाल पूछा गया था कि एक सड़क 5 आदमी 10 दिन में बनाते हैं अगर वही सड़क एक दिन में बनानी हो तो कितने आदमी चाहिए ? उसका जवाब है 50 आदमी चाहिए ।

38 लाख और 66 हजार cases इनको निपटाने के लिए कितने आदमी चाहिए ? 
कितने जज चाहिए? 
ये बात हम क्यों नहीं समझते ??

अदालतें मिनटों में न्याय नहीं कर सकती, न्याय संभल कर किया जाता है, सभी तथ्यों को जानने के बाद । लेकिन अब न्याय देनेवालों की संख्या इतनी कम होगी तो इंसाफ का रास्ता लंबा होता जाएगा । शायद इसलिए ही कहते हैं - "justice delay is justice denied"

1950 में 10 लाख लोगों के लिए 8 जज थे,1215 cases और एक दशक बाद 1960 में 14 जज थे 3247 cases !!

1977 में जज की संख्या 18 हुई तो cases 14,301 हुए !!

1986 में जज 26 हुए तो मुकदमें 27,881 !!

2009 में जज 31 हुए तो केस बढ़कर 77,151 हो गए !!

2014 में जजो की संख्या नहीं बड़ी पर केस 81,553 हो गए !!

कानून के हाथ जरूर लंबे होते हैं पर न्याय दिलानेवाले वकीलों का दिल बड़ा नहीं होता । वो मोटी फीस तो जरूर वसूलते हैं लेकिन न्याय दिलाने में अक्सर देर लगा देते हैं । 
हाँ,अगर न्याय मांगने वाला अमीर और वसूलदार हो तो बिना जंग लड़े जस्टिस मिल जाता है ।

जबकि बाकियों की उम्मीदों को सिस्टम की दीवारों पर लगा तिमिर खा जाता है ।

लेकिन फिर भी आम आदमी की उम्मीद खत्म नहीं होती । क्योंकि न्याय देने वाली बेबी जिनकी आँखों पर पट्टी बंधी है बिना किसी भेदभाव के न्याय दिलाएगी । उसका तराजू सबूतों को तोलता है आदमी के मंसूबो को नहीं । उसकी तलवार अन्याय को काटती है,उम्मीदों को नहीं । 

और उसका फैसला कार्यवाही के मुताबिक ही होता है उम्मीदों के नहीं!!

यहाँ मैं आपको एक हैरान करने वाली बात यह भी बताना चाहता हूँ कि काला कोट पहनकर, हाथ में कानून की मोटी किताब उठाकर, कचेरी में टहलनेवाला हर व्यक्ति सच में वो वकील ही हो इसकी कोई गारंटी नहीं है ❗❗

 Bar conscill of india आज कल देश की अलग अलग अदालतों में प्रेक्टिस करनेवाले वकीलों को verify कर रही है । इस प्रोसेस में Bar conscill of india ने अनुमान लगाया है कि हमारे देश में कम से कम 40% वकील नकली हैं । ऐसे वकीलों में से कुछ वकील फर्जी डिग्री के आधार पर अदालत में प्रेक्टिस कर रहें हैं और कुछ ऐसे भी है जिन्होंने कभी भी कानून की कोई शिक्षा हासिल ही नहीं की । verification की ये प्रोसेस अभी जारी है इसीलिए ये बता पाना मुश्किल है कि देश में किस हिस्से में सबसे ज्यादा फर्जी वकील है । पर इतना तो जरूर है कि हमारे सिस्टम में बड़े पैमाने पर बेईमानी जरूर हो रही है ।

आपने देखा होगा कि हमारे देश में बहुत वकील ऐसे हैं जो लोगो को इंसाफ दिलाने की जगह अपराधियों को बचाने में जुट जाते हैं । इसलिए सबूतों को मिटाया जाता है गवाहों को पीटा जाता है, कई बार चालाकी से मुकदमों को लटकाया जाता है लंबा खीचा जाता है । इन सब के बीच जो इंसाफ के लिए कोर्ट में गया होता है, वो निराश हो जाता है । ऐसे बईमान वकील अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते । यहाँ मैं साफ कर देना चाहता हूँ सारे वकील बुरे नहीं होेते । बुरे लोगों के बीच अच्छे वकील भी जरूर होते है वो अपना काम पूरी ईमानदारी से करते है..!!


अक्षय कुमार ने सच ही कहा है कि निर्दोष व्यक्ति को न्याय नही मिल रहा और अपराधी को सजा नही मिल रही ।
 न्याय मिलता भी है तो इतना देरी से कि जब निर्दोष न्याय की उम्मीद ही खो चुका होता है।

हमारी पंगु न्याय व्यवस्था के शिकार कब तक निर्दोष लोग होंगे ?

न्याय व्यवस्था में हो जल्द सुधार!
निर्दोष को न्याय और दोषी को मिले सजा!
सुव्यवस्थित हो प्रशासन की चाल-ढाल!!

Saturday, February 18, 2017

छत्रपति वीर शिवाजी जयंती - 19 फरवरी

छत्रपति वीर शिवाजी जयंती - 19 फरवरी 

आइये जाने वीर शिवाजी महाराज का इतिहास!!

शाहजी भोंसले की पत्नी जीजाबाई (राजमाता जिजाऊ) की कोख से शिवाजी महाराज का जन्म 19 फरवरी 1630 को शिवनेरी दुर्ग में हुआ था। शिवनेरी का दुर्ग पूना (पुणे) से उत्तर की तरफ जुन्नर नगर के पास था। उनका बचपन उनकी माता जिजाऊ के मार्गदर्शन में बीता। वह सभी कलाओं में माहिर थे, उन्होंने बचपन में राजनीति एवं युद्ध की शिक्षा ली थी। ये भोंसले उपजाति के थे जो कि मूलतः कुर्मी जाति के थे, उनके पिता अप्रतिम शूरवीर थे और उनकी दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते थी । उनकी माता जी जीजाबाई जाधव कुल में उत्पन्न असाधारण प्रतिभाशाली थी और उनके पिता एक शक्तिशाली सामंत थे। शिवाजी महाराज के चरित्र पर माता-पिता का बहुत प्रभाव पड़ा। बचपन से ही वे उस युग के वातावरण और घटनाओं को भली प्रकार समझने लगे थे। शासक वर्ग की करतूतों पर वे झल्लाते थे और बेचैन हो जाते थे। उनके बाल-हृदय में स्वाधीनता की लौ प्रज्ज्वलित हो गयी थी। उन्होंने कुछ स्वामिभक्त साथियों का संगठन किया। अवस्था बढ़ने के साथ विदेशी शासन की बेड़ियाँ तोड़ फेंकने का उनका संकल्प प्रबलतर होता गया। छत्रपति शिवाजी महाराज का विवाह सन् 14 मई 1640  में सइबाई निम्बालकर के साथ लाल महल, पुना में हुआ था।
छत्रपति वीर शिवाजी जयंती - 19 फरवरी 

सैनिक वर्चस्व का आरंभ!!

उस समय बीजापुर का राज्य आपसी संघर्ष तथा विदेशी आक्रमणकाल के दौर से गुजर रहा था। ऐसे साम्राज्य के सुल्तान की सेवा करने के बदले उन्होंने मावलों को बीजापुर के खिलाफ संगठित किया। मावल प्रदेश पश्चिम घाट से जुड़ा है और लगभग 150 किलोमीटर लम्बा और 30 किलोमीटर चौड़ा है। वे संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करने के कारण कुशल योद्धा माने जाते हैं। इस प्रदेश में मराठा और सभी जाति के लोग रहते हैं। शिवाजी महाराज ने इन सभी जाति के लोगों को लेकर मावलों (मावळा) नाम देकर सभी को संगठित किया और उनसे सम्पर्क कर उनके प्रदेश से परिचित हो गए थे। मावल युवकों को लाकर उन्होंने दुर्ग निर्माण का कार्य आरंभ कर दिया था। मावलों का सहयोग शिवाजी महाराज के लिए बाद में उतना ही महत्वपूर्ण साबित हुआ जितना शेरशाह सूरी के लिए अफगानों का साथ।

उस समय बीजापुर आपसी संघर्ष तथा मुगलों के आक्रमण से परेशान था। बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह ने बहुत से दुर्गों से अपनी सेना हटाकर उन्हें स्थानीय शासकों या सामन्तों के हाथ सौंप दिया था। जब आदिलशाह बीमार पड़ा तो बीजापुर में अराजकता फैल गई और शिवाजी महाराज ने अवसर का लाभ उठाकर बीजापुर में प्रवेश का निर्णय लिया। शिवाजी महाराज ने इसके बाद के दिनों में बीजापुर के दुर्गों पर अधिकार करने की नीति अपनाई। सबसे पहला दुर्ग था तोरण का दुर्ग।

दुर्गों पर नियंत्रण!!

तोरण का दुर्ग पूना के दक्षिण पश्चिम में 30 किलोमीटर की दूरी पर था। शिवाजी ने सुल्तान आदिलशाह के पास अपना दूत भेजकर खबर भिजवाई की वे पहले किलेदार की तुलना में बेहतर रकम देने को तैयार हैं और यह क्षेत्र उन्हें सौंप दिया जाये। उन्होंने आदिलशाह के दरबारियों को पहले ही रिश्वत देकर अपने पक्ष में कर लिया था और अपने दरबारियों की सलाह के मुताबिक आदिलशाह ने शिवाजी महाराज को उस दुर्ग का अधिपति बना दिया। उस दुर्ग में मिली सम्पत्ति से शिवाजी महाराज ने दुर्ग की सुरक्षात्मक कमियों की मरम्मत का काम करवाया। इससे कोई 10 किलोमीटर दूर राजगढ़ का दुर्ग था और शिवाजी महाराज ने इस दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया।

शिवाजी महाराज की इस साम्राज्य विस्तार की नीति की भनक जब आदिलशाह को मिली तो वह क्षुब्ध हुआ। उसने शाहजी राजे को अपने पुत्र को नियंत्रण में रखने को कहा। शिवाजी महाराज ने अपने पिता की परवाह किये बिना अपने पिता के क्षेत्र का प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया और नियमित लगान बन्द कर दिया। 

राजगढ़ के बाद उन्होंने चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर लिया और उसके बाद कोंडना के दुर्ग पर। कोंडना (कोन्ढाणा) पर अधिकार करते समय उन्हें घूस देनी पड़ी। कोंडना पर अधिकार करने के बाद उसका नाम सिंहगढ़ रखा गया। शाहजी राजे को पूना और सूपा की जागीरदारी दी गई थी और सूपा का दुर्ग उनके सम्बंधी बाजी मोहिते के हाथ में था। शिवाजी महाराज ने रात के समय सूपा के दुर्ग पर आक्रमण करके दुर्ग पर अधिकार कर लिया और बाजी मोहिते को शाहजी राजे के पास कर्नाटक भेज दिया। उसकी सेना का कुछ भाग भी शिवाजी महाराज की सेवा में आ गया। इसी समय पुरन्दर के किलेदार की मृत्यु हो गई और किले के उत्तराधिकार के लिए उसके तीनों बेटों में लड़ाई छिड़ गई। दो भाइयों के निमंत्रण पर शिवाजी महाराज पुरन्दर पहुँचे और कूटनीति का सहारा लेते हुए उन्होंने सभी भाइयों को बन्दी बना लिया। इस तरह पुरन्दर के किले पर भी उनका अधिकार स्थापित हो गया। अब तक की घटना में शिवाजी महाराज को कोई युद्ध या खूनखराबा नहीं करना पड़ा था। 1647 ईस्वी तक वे चाकन से लेकर नीरा तक के भूभाग के भी अधिपति बन चुके थे। अपनी बढ़ी सैनिक शक्ति के साथ शिवाजी महाराज ने मैदानी इलाकों में प्रवेश करने की योजना बनाई।

एक अश्वारोही सेना का गठन कर शिवाजी महाराज ने आबाजी सोन्देर के नेतृत्व में कोंकण के विरुद्ध एक सेना भेजी। आबाजी ने कोंकण सहित नौ अन्य दुर्गों पर अधिकार कर लिया। इसके अलावा ताला, मोस्माला और रायटी के दुर्ग भी शिवाजी महाराज के अधीन आ गए थे। लूट की सारी सम्पत्ति रायगढ़ में सुरक्षित रखी गई। कल्याण के गवर्नर को मुक्त कर शिवाजी महाराज ने कोलाबा की ओर रुख किया और यहाँ के प्रमुखों को विदेशियों के खिलाफ युद्ध के लिए उकसाया।

शाहजी की बन्दी और युद्ध!!

बीजापुर का सुल्तान शिवाजी महाराज की हरकतों से पहले ही आक्रोश में था। उसने शिवाजी महाराज के पिता को बन्दी बनाने का आदेश दे दिया। शाहजी राजे उस समय कर्नाटक में थे और एक विश्वासघाती सहायक बाजी घोरपड़े द्वारा बन्दी बनाकर बीजापुर लाए गए। उन पर यह भी आरोप लगाया गया कि उन्होंने कुतुबशाह की सेवा प्राप्त करने की कोशिश की थी जो गोलकोंडा का शासक था और इस कारण आदिलशाह का शत्रु। बीजापुर के दो सरदारों की मध्यस्थता के बाद शाहाजी महाराज को इस शर्त पर मुक्त किया गया कि वे शिवाजी महाराज पर लगाम कसेंगे। अगले चार वर्षों तक शिवाजी महाराज ने बीजीपुर के खिलाफ कोई आक्रमण नहीं किया। इस दौरान उन्होंने अपनी सेना संगठित की।

प्रभुता का विस्तार!!

शाहजी की मुक्ति की शर्तों के मुताबिक शिवाजी राजेने बीजापुर के क्षेत्रों पर आक्रमण तो नहीं किया पर उन्होंने दक्षिण-पश्चिम में अपनी शक्ति बढ़ाने की चेष्टा की। पर इस क्रम में जावली का राज्य बाधा का काम कर रहा था। यह राज्य सातारा के सुदूर उत्तर पश्चिम में वामा और कृष्णा नदी के बीच में स्थित था। यहाँ का राजा चन्द्रराव मोरे था जिसने ये जागीर शिवाजी से प्राप्त की थी। शिवाजी ने मोरे शासक चन्द्रराव को स्वराज में शमिल होने को कहा पर चन्द्रराव बीजापुर के सुल्तान के साथ मिल गया। सन् 1653 में शिवाजी ने अपनी सेना लेकर जावली पर आक्रमण कर दिया। चन्द्रराव मोरे और उसके दोनों पुत्रों ने शिवाजी के साथ लड़ाई की पर अन्त में वे बन्दी बना लिए गए पर चन्द्रराव भाग गया। स्थानीय लोगों ने शिवाजी के इस कृत्य का विरोध किया पर वे विद्रोह को कुचलने में सफल रहे। इससे शिवाजी को उस दुर्ग में संग्रहीत आठ वंशों की सम्पत्ति मिल गई। इसके अलावा कई मावल सैनिक मुरारबाजी देशपाडे भी शिवाजी की सेना में सम्मिलित हो गए।

मुगलों से पहली मुठभेड़!!

शिवाजी के बीजापुर तथा मुगल दोनों शत्रु थे। उस समय शहजादा औरंगजेब दक्कन का सूबेदार था। इसी समय 1 नवम्बर 16653 को बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की मृत्यु हो गई जिसके बाद बीजापुर में अराजकता का माहौल पैदा हो गया। इस स्थिति का लाभ उठाकर औरंगजेब ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया और शिवाजी ने औरंगजेब का साथ देने की बजाय उसपर धावा बोल दिया। उनकी सेना ने जुन्नार नगर पर आक्रमण कर ढेर सारी सम्पत्ति के साथ 200 घोड़े लूट लिये। अहमदनगर से 700 घोड़े, चार हाथी के अलावा उन्होंने गुण्डा तथा रेसिन के दुर्ग पर भी लूटपाट मचाई। इसके परिणामस्वरूप औरंगजेब शिवाजी से खफा हो गया और मैत्री वार्ता समाप्त हो गई। शाहजहाँ के आदेश पर औरंगजेब ने बीजापुर के साथ संधि कर ली और इसी समय शाहजहाँ बीमार पड़ गया। उसके व्याधिग्रस्त होते ही औरंगजेब उत्तर भारत चला गया और वहाँ शाहजहाँ को कैद करने के बाद मुगल साम्राज्य का शाह बन गया।

कोंकण पर अधिकार!!

दक्षिण भारत में औरंगजेब की अनुपस्थिति और बीजापुर की डवाँडोल राजनैतिक स्थिति को जानकर शिवाजी ने समरजी को जंजीरा पर आक्रमण करने को कहा। पर जंजीरा के सिद्दियों के साथ उनकी लड़ाई कई दिनों तक चली। इसके बाद शिवाजी ने खुद जंजीरा पर आक्रमण किया और दक्षिण कोंकण पर अधिकार कर लिया और दमन के पुर्तगालियों से वार्षिक कर एकत्र किया। कल्याण तथा भिवण्डी पर अधिकार करने के बाद वहाँ नौसैनिक अड्डा बना लिया। इस समय तक शिवाजी 40 दुर्गों के मालिक बन चुके थे।

बीजापुर से संघर्ष!!

इधर औरंगजेब के आगरा (उत्तर की ओर) लौट जाने के बाद बीजापुर के सुल्तान ने भी राहत की सांस ली। अब शिवाजी ही बीजापुर के सबसे प्रबल शत्रु रह गए थे। शाहजी को पहले ही अपने पुत्र को नियंत्रण में रखने को कहा गया था पर शाहजी ने इसमें अपनी असमर्थता जाहिर की। शिवाजी से निपटने के लिए बीजापुर के सुल्तान ने अब्दुल्लाह भटारी (अफजल खाँ) को शिवाजी के विरूद्ध भेजा। अफजल ने 120000 सैनिकों के साथ 1659 में कूच किया। तुलजापुर के मन्दिरों को नष्ट करता हुआ वह सतारा के 30 किलोमीटर उत्तर वाई, शिरवल के नजदीक तक आ गया। पर शिवाजी प्रतापगढ़ के दुर्ग पर ही रहे। अफजल खाँ ने अपने दूत कृष्णजी भास्कर को सन्धि-वार्ता के लिए भेजा। उसने उसके मार्फत ये संदेश भिजवाया कि अगर शिवाजी बीजापुर की अधीनता स्वीकार कर ले तो सुल्तान उसे उन सभी क्षेत्रों का अधिकार दे देंगे जो शिवाजी के नियंत्रण में हैं। साथ ही शिवाजी को बीजापुर के दरबार में एक सम्मानित पद प्राप्त होगा। हालांकि शिवाजी के मंत्री और सलाहकार अस संधि के पक्ष मे थे पर शिवाजी को ये वार्ता रास नहीं आई। उन्होंने कृष्णजी भास्कर को उचित सम्मान देकर अपने दरबार में रख लिया और अपने दूत गोपीनाथ को वस्तुस्थिति का जायजा लेने अफजल खाँ के पास भेजा। गोपीनाथ और कृष्णजी भास्कर से शिवाजी को ऐसा लगा कि सन्धि का षडयंत्र रचकर अफजल खाँ शिवाजी को बन्दी बनाना चाहता है। अतः उन्होंने युद्ध के बदले अफजल खाँ को एक बहुमूल्य उपहार भेजा और इस तरह अफजल खाँ को सन्धि वार्ता के लिए राजी किया। सन्धि स्थल पर दोनों ने अपने सैनिक चौकन्ने कर रखे थे मिलने के स्थान पर जब दोनों मिले तब अफजल खाँ ने अपने कट्यार से शिवाजी पे वार किया बचाव में शिवाजी ने अफजल खाँ को 10 नबम्बर 1659 मे अपने वस्त्रों वाघनखो से मार दिया ।

अफजल खाँ की मृत्यु के बाद शिवाजी ने पन्हाला के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इसके बाद पवनगढ़ और वसंतगढ़ के दुर्गों पर अधिकार करने के साथ ही साथ उन्होंने रूस्तम खाँ के आक्रमण को विफल भी किया। इससे राजापुर तथा दावुल पर भी उनका कब्जा हो गया। अब बीजापुर में आतंक का माहौल पैदा हो गया और वहाँ के सामन्तों ने आपसी मतभेद भुलाकर शिवाजी पर आक्रमण करने का निश्चय किया। 2 अक्टूबर 1665 को बीजापुरी सेना ने पन्हाला दुर्ग पर अधिकार कर लिया। शिवाजी संकट में फंस चुके थे पर रात्रि के अंधकार का लाभ उठाकर वे भागने में सफल रहे। बीजापुर के सुल्तान ने स्वयं कमान सम्हालकर पन्हाला, पवनगढ़ पर अपना अधिकार वापस ले लिया, राजापुर को लूट लिया और श्रृंगारगढ़ के प्रधान को मार डाला। इसी समय कर्नाटक में सिद्दीजौहर के विद्रोह के कारण बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी के साथ समझौता कर लिया। इस संधि में शिवाजी के पिता शाहजी ने मध्यस्थता का काम किया। सन् 1662 में हुई इस सन्धि के अनुसार शिवाजी को बीजापुर के सुल्तान द्वारा स्वतंत्र शासक की मान्यता मिली। इसी संधि के अनुसार उत्तर में कल्याण से लेकर दक्षिण में पोण्डा तक (250 किलोमीटर) का और पूर्व में इन्दापुर से लेकर पश्चिम में दावुल तक (150 किलोमीटर) का भूभाग शिवाजी के नियंत्रण में आ गया। शिवाजी की सेना में इस समय तक 30000 पैदल और 1000 घुड़सवार हो गए थे।

मुगलों से संघर्ष!!

उत्तर भारत में बादशाह बनने की होड़ खत्म होने के बाद औरंगजेब का ध्यान दक्षिण की तरफ गया। वो शिवाजी की बढ़ती प्रभुता से परिचित था और उसने शिवाजी पर नियंत्रण रखने के उद्येश्य से अपने मामा शाइस्ता खाँ को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया। शाइस्का खाँ अपने 1,50,000 फौज लेकर सूपन और चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर पूना पहुँच गया। उसने 3 साल तक मावल में लूटपाट की। एक रात शिवाजी ने अपने 350 मावलों के साथ उनपर हमला कर दिया। शाइस्ता तो खिड़की के रास्ते बच निकलने में कामयाब रहा पर उसे इसी क्रम में अपनी चार अंगुलियों से हाथ धोना पड़ा। शाइस्ता खाँ के पुत्र, तथा चालीस रक्षकों और अनगिनत सैनिकों का कत्ल कर दिया गया। इस घटना के बाद औरंगजेब ने शाइस्ता को दक्कन के बदले बंगाल का सूबेदार बना दिया और शाहजादा मुअज्जम शाइस्ता की जगह लेने भेजा गया।

सूरत में लूट!!

इस जीत से शिवाजी की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। 6 साल शास्ताखान अपनी 1,50,000 फौज लेकर राजा शिवाजी का पूरा मुलुख जलाकर तबाह कर दिया था। इस लिए उसका हर्जाना वसूल करने के लिये शिवाजी ने मुगल क्षेत्रों में लूटपाट मचाना आरंभ किया। सूरत उस समय पश्चिमी व्यापारियों का गढ़ था और हिन्दुस्तानी मुसलमानों के लिए हज पर जाने का द्वार। यह एक समृद्ध नगर था और इसका बंदरगाह बहुत महत्वपूर्ण था। शिवाजी ने चार हजार की सेना के साथ छः दिनों तक सूरत के धनाढ्य व्यापारियों को लूटा आम आदमी को नहीं लूटा और फिर लौट गए। इस घटना का जिक्र डच तथा अंग्रेजों ने अपने लेखों में किया है। उस समय तक यूरोपीय व्यापारी भारत तथा अन्य एशियाई देशों में बस गये थे। नादिर शाह के भारत पर आक्रमण करने तक (1739) किसी भी यूूरोपीय शक्ति ने भारतीय मुगल साम्राज्य पर आक्रमण करने की नहीं सोची थी।

सूरत में शिवाजी की लूट से खिन्न होकर औरंगजेब ने इनायत खाँ के स्थान पर गयासुद्दीन खां को सूरत का फौजदार नियुक्त किया और शहजादा मुअज्जम तथा उपसेनापति राजा जसवंत सिंह की जगह दिलेर खाँ और राजा जयसिंह की नियुक्ति की गई। राजा जयसिंह ने बीजापुर के सुल्तान, यूरोपीय शक्तियाँ तथा छोटे सामन्तों का सहयोग लेकर शिवाजी पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में शिवाजी को हानि होने लगी और हार की सम्भावना को देखते हुए शिवाजी ने सन्धि का प्रस्ताव भेजा। जून 1665 में हुई इस सन्धि के मुताबिक शिवाजी 23 दुर्ग मुगलों को दे देंगे और इस तरह उनके पास केवल 12 दुर्ग बच जाएंगे। इन 23 दुर्गों से होने वाली आमदनी 4 लाख हूण सालाना थी। बालाघाट और कोंकण के क्षेत्र शिवाजी को मिलेंगे पर उन्हें इसके बदले में 13 किस्तों में 40 लाख हूण अदा करने होंगे। इसके अलावा प्रतिवर्ष 5 लाख हूण का राजस्व भी वे देंगे। शिवाजी स्वयं औरंगजेब के दरबार में होने से मुक्त रहेंगे पर उनके पुत्र शम्भाजी को मुगल दरबार में खिदमत करनी होगी। बीजापुर के खिलाफ शिवाजी मुगलों का साथ देंगे।

आगरा में आमंत्रण और पलायन!!

शिवाजी को आगरा बुलाया गया जहाँ उन्हें लगा कि उन्हें उचित सम्मान नहीं मिल रहा है। इसके खिलाफ उन्होंने अपना रोश भरे दरबार में दिखाया और औरंगजेब पर विश्वासघात का आरोप लगाया। औरंगजेब इससे क्षुब्ध हुआ और उसने शिवाजी को नजरकैद कर दिया और उनपर 5000 सैनिकों के पहरे लगा दिये। कुछ ही दिनों बाद (18 अगस्त 1666 को) राजा शिवाजी को मार डालने का इरादा औरंगजेब का था। लेकिन अपने अजोड़ साहस और  युक्ति के साथ शिवाजी और सम्भाजी दोनों 17 अगस्त 1666 में वहां से भागने में सफल रहे । 

सम्भाजी को मथुरा में एक विश्वासी ब्राह्मण के यहाँ छोड़ शिवाजी बनारस, गया, पुरी होते हुए 2 सितंबर 1666 को सकुशल राजगढ़ पहुँच गए । इससे मराठों को नवजीवन सा मिल गया। औरंगजेब ने जयसिंह पर शक करके उसकी हत्या विष देकर करवा डाली। जसवंत सिंह के द्वारा पहल करने के बाद सन् 1668 में शिवाजी ने मुगलों के साथ दूसरी बार संधि की। औरंगजेब ने शिवाजी को राजा की मान्यता दी। शिवाजी के पुत्र शम्भाजी को 5000 की मनसबदारी मिली और शिवाजी को पूना, चाकन और सूपा का जिला लौटा दिया गया पर सिंहगढ़ और पुरन्दर पर मुगलों का अधिपत्य बना रहा। सन् 1670 में सूरत नगर को दूसरी बार शिवाजी ने लूटा। नगर से 132 लाख की सम्पत्ति शिवाजी के हाथ लगी और लौटते वक्त उन्होंने मुगल सेना को सूरत के पास फिर से हराया।

राज्याभिषेक!!

सन् 1674 तक शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था जो पुरन्दर की संधि के अन्तर्गत उन्हें मुगलों को देने पड़े थे। पश्चिमी महाराष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा, परन्तु ब्राह्मणों ने उनका घोर विरोध किया। (संदर्भ दिजीए) शिवाजी के निजी सचिव बालाजी आव जी ने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और उन्होंने काशी में गंगाभ नामक ब्राह्मण के पास तीन दूतों को भेजा, किन्तु गंगा ने प्रस्ताव ठुकरा दिया क्योंकि शिवाजी क्षत्रिय नहीं थे उसने कहा कि क्षत्रियता का प्रमाण लाओ तभी वह राज्याभिषेक करेगा। बालाजी आव जी ने शिवाजी का सम्बन्ध मेवाड के सिसोदिया वंश से समबंद्ध के प्रमाण भेजे जिससे संतुष्ट होकर वह रायगढ़ आया ओर उसने राज्याभिषेक किया। राज्याभिषेक के बाद भी पूना के ब्राह्मणों ने शिवाजी को राजा मानने से मना कर दिया विवश होकर शिवाजी को अष्टप्रधान मंडल की स्थापना करनी पड़ी । विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अलावा विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया। शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि ग्रहण की। काशी के पण्डित विशेश्वर जी भट्ट को इसमें विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था। पर उनके राज्याभिषेक के 12 दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया। इस कारण से 4 अक्टूबर 1674 को दूसरी बार उनका राज्याभिषेक हुआ। दो बार हुए इस समारोह में लगभग 50 लाख रुपये खर्च हुए। इस समारोह में हिन्दू स्वराज की स्थापना का उद्घोष किया गया था। विजयनगर के पतन के बाद दक्षिण में यह पहला हिन्दू साम्राज्य था। एक स्वतंत्र शासक की तरह उन्होंने अपने नाम का सिक्का चलवाया। इसके बाद बीजापुर के सुल्तान ने कोंकण विजय के लिए अपने दो सेनाधीशों को शिवाजी के विरुद्ध भेजा पर वे असफल रहे।

दक्षिण में दिग्विजय!!

सन् 1677-78 में शिवाजी का ध्यान कर्नाटक की ओर गया। उन्होंने बम्बई के दक्षिण में कोंकण, तुंगभद्रा नदी के पश्चिम में बेलगाँव तथा धारवाड़ का क्षेत्र, मैसूर, वैलारी, त्रिचूर तथा जिंजी पर अधिकार जमाया।

स्वर्गवास (मृत्यु) और उत्तराधिकार!!

तीन सप्ताह की बीमारी के बाद शिवाजी का स्वर्गवास 3 अप्रैल 1680 में हुआ। उस समय शिवाजी के उत्तराधिकार शम्भाजी को मिला ।

शासन और व्यक्तित्व!!

छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा चलाया गया सिक्का!

शिवाजी को एक कुशल और प्रबुद्ध सम्राट के रूप में जाना जाता है। यद्यपि उनको अपने बचपन में पारम्परिक शिक्षा कुछ खास नहीं मिली थी, पर वे भारतीय इतिहास और राजनीति से सुपरिचित थे। उन्होंने शुक्राचार्य तथा कौटिल्य को आदर्श मानकर कूटनीति का सहारा लेना कई बार उचित समझा था। अपने समकालीन मुगलों की तरह वह भी निरंकुश शासक थे, अर्थात शासन की समूची बागडोर राजा के हाथ में ही थी। पर उनके प्रशासकीय कार्यों में मदद के लिए आठ मंत्रियों की एक परिषद थी जिन्हें अष्टप्रधान कहा जाता था। इसमें मंत्रियों के प्रधान को पेशवा कहते थे जो राजा के बाद सबसे प्रमुख हस्ती होते थे । अमात्य वित्त और राजस्व के कार्यों को देखता था तो मंत्री राजा की व्यक्तिगत दैनन्दिनी का ख्याल रखता था। सचिव दफतरी काम करते थे जिसमें शाही मुहर लगाना और सन्धि पत्रों का आलेख तैयार करना शामिल होते थे। सुमन्त विदेश मंत्री था। सेना के प्रधान को सेनापति कहते थे। दान और धार्मिक मामलों के प्रमुख को पण्डितराव कहते थे। न्यायाधीश न्यायिक मामलों का प्रधान था।

मराठा साम्राज्य तीन या चार विभागों में विभक्त था। प्रत्येक प्रान्त में एक सूबेदार था जिसे प्रान्तपति कहा जाता था। हरेक सूबेदार के पास भी एक अष्टप्रधान समिति होती थी। कुछ प्रान्त केवल करदाता थे और प्रशासन के मामले में स्वतंत्र। न्यायव्यवस्था प्राचीन पद्धति पर आधारित थी।

शुक्राचार्य, कौटिल्य और हिन्दू धर्मशास्त्रों को आधार मानकर निर्णय दिया जाता था। गाँव के पटेल फौजदारी मुकदमों की जाँच करते थे। राज्य की आय का साधन भूमिकर था पर चौथ और सरदेशमुखी से भी राजस्व वसूला जाता था। 'चौथ' पड़ोसी राज्यों की सुरक्षा की गारंटी के लिए वसूले जाने वाला कर था। शिवाजी अपने को मराठों का सरदेशमुख कहते थे और इसी हैसियत से सरदेशमुखी कर वसूला जाता था।

राज्याभिषेक के बाद उन्होंने अपने एक मंत्री (रामचन्द्र अमात्य) को शासकीय उपयोग में आने वाले फारसी शब्दों के लिये उपयुक्त संस्कृत शब्द निर्मित करने का कार्य सौंपा। रामचन्द्र अमात्य ने धुन्धिराज नामक विद्वान की सहायता से 'राज्यव्यवहारकोश' नामक ग्रन्थ निर्मित किया। इस कोश में 1280 फारसी के प्रशासनिक शब्दों के तुल्य संस्कृत शब्द थे। इसमें रामचन्द्र ने लिखा है- कृते म्लेच्छोच्छेदे भुवि निरवशेषं रविकुला-वतंसेनात्यर्थं यवनवचनैर्लुप्तसरणीम्।नृपव्याहारार्थं स तु विबुधभाषां वितनितुम्।नियुक्तोऽभूद्विद्वान्नृपवर शिवच्छत्रपतिना ॥८१॥

धार्मिक नीति!!

शिवाजी एक समर्पित हिन्दू थे तथा वह धार्मिक सहिष्णु भी थे। उनके साम्राज्य में मुसलमानों को धार्मिक स्वतंत्रता थी। कई मस्जिदों के निर्माण के लिए शिवाजी ने अनुदान दिया। हिन्दू पण्डितों की तरह मुसलमान फकीरों को भी सम्मान प्राप्त था। उनकी सेना में मुसलमान सैनिक भी थे। शिवाजी हिन्दू संकृति को बढ़ावा देते थे। पारम्परिक हिन्दू मूल्यों तथा शिक्षा पर बल दिया जाता था। वह अपने अभियानों का आरंभ भी अकसर दशहरे के अवसर पर करते थे।

चरित्र

शिवाजी महाराज को अपने पिता से स्वराज की शिक्षा ही मिली जब बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी राजे को बन्दी बना लिया तो एक आदर्श पुत्र की तरह उन्होंने बीजापुर के शाह से सन्धि कर शाहजी राजे को छुड़वा लिया। इससे उनके चरित्र में एक उदार अवयव नजर आता है। उसके बाद उन्होंने पिता की हत्या नहीं करवाई जैसा कि अन्य सम्राट किया करते थे। शाहजी राजे के मरने के बाद ही उन्होंने अपना राज्याभिषेक करवाया हाँलांकि वो उस समय तक अपने पिता से स्वतंत्र होकर एक बड़े साम्राज्य के अधिपति हो गये थे। उनके नेतृत्व को सब लोग स्वीकार करते थे यही कारण है कि उनके शासनकाल में कोई आन्तरिक विद्रोह जैसी प्रमुख घटना नहीं हुई थी।

वह एक अच्छे सेनानायक के साथ एक अच्छे कूटनीतिज्ञ भी थे। कई जगहों पर उन्होंने सीधे युद्ध लड़ने की बजाय युद्ध से भाग लिया था। लेकिन यही उनकी कूटनीति थी, जो हर बार बड़े से बड़े शत्रु को मात देने में उनका साथ देती रही।

शिवाजी महाराज की "गनिमी कावा" नामक कूटनीति, जिसमें शत्रु पर अचानक आक्रमण करके उसे हराया जाता है, विलोभनियता से और आदरसहित याद की जाती है।

शिवाजी महाराज के गौरव में ये पंक्तियाँ प्रसिद्ध हैं-

शिवरायांचे आठवावे स्वरुप। शिवरायांचा आठवावा साक्षेप।शिवरायांचा आठवावा प्रताप। भूमंडळी ॥

कैसे कैसे वीर सपूत हुए इस धरा पर...जिन्होंने अपने जीवन काल में कभी दुश्मनों के आगे घुटने नही टेके बल्कि साम,दाम, दण्ड भेद की निति द्वारा दुश्मनों को हराया।

छत्रपति शिवाजी महाराज भारत के महान योद्धा एवं रणनीतिकार थे । भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में बहुत से लोगों ने शिवाजी के जीवनचरित्र से प्रेरणा लेकर भारत की स्वतन्त्रता के लिये अपना तन, मन धन न्यौछावर कर दिया।

जय माँ भवानी