Sunday, December 9, 2018

वीरांगना ताराबाई के पराक्रम के कारण औरंगजेब वापस जा न सका दिल्ली

09 दिसंबर 2018

🚩भारत की वीरांगना का इतिहास अगर आज की नारियों, बालिकाओं को पढ़ाया जाता तो यकीनन उन्हें ताराबाई बनने की प्रेरणा मिलती ।  साथ ही अगर इनके गौरवशाली इतिहास को पुरुष पढ़ते तो किसी नारी की तरफ कुदृष्टि करने की हिम्मत न करते, लेकिन कलम हमेशा उनके हाथों में रही जो क्रूर मतान्ध औरंगज़ेब के गुणगान को लिखती रही और इतिहासकार वो सम्मानित रहे जो आज कल अपनी सेल्फी ले कर शान से कहते हैं कि वो गौ मांस खा रहे हैं । कल्पना कीजिये कि क्या ऐसे लोगों के हाथों में इतिहास सुरक्षित रहा होगा और कम से कम हिन्दू वीर या वीरांगनाओं को उचित स्थान या उचित सम्मान मिला रहा होगा ? अरे जिन्होंने स्वयं हिंदवी सम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज को उचित स्थान नही दिया उनसे उनकी बहू के लिए स्थान या सम्मान की आशा निरर्थक है ।
Aurangzeb could not go back due to the bravery of Veerangana Tarabai

🚩भारत के इतिहास की पुस्तकों में अधिकांशतः हिन्दू राजाओं-रानियों एवं योद्धाओं को “पराजित” अथवा युद्धरत ही दर्शाया गया है । विजेता हिन्दू योद्धाओं के साम्राज्य, उनकी युद्ध रणनीति, उनके कौशल का उल्लेख या तो पुस्तकों में है ही नहीं  अथवा बहुत ही कम किया गया है । ज़ाहिर है कि यह जानबूझकर एवं व्यवस्थित रूप से इतिहास को विकृत करने का एक सोचा-समझा दुष्कृत्य है । जिस समय औरंगज़ेब लगभग समूचे उत्तर भारत को जीतने के पश्चात दक्षिण में भी अपने पैर जमा चुका था, उसकी इच्छा थी कि पश्चिमी भारत को भी जीतकर वह मुग़ल साम्राज्य को अखिल भारतीय बना दे । परन्तु उसके इस सपने को तोड़ने वाला योद्धा कोई और नहीं, बल्कि एक महिला थी, जिसका नाम था “ताराबाई” । ताराबाई के बारे में इतिहास की पुस्तकों में अधिक उल्लेख नहीं है, क्योंकि वास्तव में उसने छत्रपति शिवाजी की तरह कोई साम्राज्य खड़ा नहीं किया, परन्तु इस बात का श्रेय उसे अवश्य दिया जाएगा कि यदि ताराबाई नहीं होतीं तो न सिर्फ हिन्दू व मराठा साम्राज्य का इतिहास, बल्कि औरंगज़ेब द्वारा स्थापित मुग़ल साम्राज्य के बाद आधुनिक भारत का इतिहास भी कुछ और ही होता ।

🚩जिस समय मराठा साम्राज्य पश्चिमी भारत में लगातार कमज़ोर होता जा रहा था तथा औरंगजेब मराठाओं के किले-दर-किले पर अपना कब्ज़ा करता जा रहा था, उस समय ताराबाई (1675-1761) ने सारे सूत्र अपने हाथों में लेते हुए न सिर्फ मराठा साम्राज्य को खण्ड-खण्ड होने से बचाया, बल्कि औरंगज़ेब को हार मानने पर मजबूर कर दिया । छत्रपति शिवाजी के प्रमुख सेनापति हम्बीर राव मोहिते की कन्या ताराबाई का जन्म 1675 में हुआ, ताराबाई ने अपने पूरे जीवनकाल में मराठा साम्राज्य में शिवाजी के राज्याभिषेक से लेकर सन 1700 में औरंगजेब के हाथों कमज़ोर किए जाने तथा उसके बाद पुनः जोरदार वापसी करते हुए सन 1760 में लगभग पूरे भारत पर मराठा साम्राज्य की पताका फहराते देखा और अंत में सन 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में अहमद शाह अब्दाली के हाथों मराठों की भीषण पराजय भी देखी । ताराबाई का विवाह आठ वर्ष की आयु में शिवाजी के छोटे पुत्र राजाराम के साथ किया गया । छत्रपति के रूप में राज्याभिषेक के कुछ वर्ष बाद ही 1680 में शिवाजी की मृत्यु हो गई । यह खबर मिलते ही क्रूर औरंगज़ेब बहुत खुश हो गया । शिवाजी ने औरंगज़ेब को बहुत नुकसान पहुँचाया था, इसलिए औरंगज़ेब चिढ़कर उन्हें “पहाड़ी चूहा” कहकर बुलाता था । आगरा के किले से शिवाजी द्वारा चालाकी से फलों की टोकरी में बैठकर भाग निकलने को औरंगज़ेब अपनी भीषण पराजय मानता था, वह इस अपमान को कभी भूल नहीं पाया । इसलिए शिवाजी की मौत के पश्चात उसने सोचा कि अब यह सही मौका है जब दक्षिण में अपना आधार बनाकर समूचे पश्चिम भारत पर साम्राज्य स्थापित कर लिया जाए ।

🚩छत्रपति शिवाजी महराज के बलिदान के पश्चात उनके पुत्र संभाजी राजा बने और उन्होंने बीजापुर सहित मुगलों के अन्य ठिकानों पर हमले जारी रखे । 1682 में औरंगजेब ने दक्षिण में अपना ठिकाना बनाया, ताकि वहीं रहकर वह फ़ौज पर नियंत्रण रख सके और पूरे भारत पर साम्राज्य का सपना सच कर सके । उस बेचारे को क्या पता था कि अगले 25 साल वह दिल्ली वापस नहीं लौट सकेगा और दक्षिण भारत फतह करने का सपना उसकी मृत्यु के साथ ही दफ़न हो जाएगा । हालाँकि औरंगजेब की शुरुआत तो अच्छी हुई थी, और उसने 1686 और 1687 में बीजापुर तथा गोलकुण्डा पर अपना कब्ज़ा कर लिया था । इसके बाद उसने अपनी सारी शक्ति मराठाओं के खिलाफ झोंक दी, जो उसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा बने हुए थे ।

🚩मुगलों की भारीभरकम सेना की पूरी शक्ति के आगे धीरे-धीरे मराठों के हाथों से एक-एक करके किले निकलने लगे और मराठों ने ऊँचे किलों और घने जंगलों को अपना ठिकाना बना लिया । औरंगजेब ने विपक्षी सेना में रिश्वत बाँटने का खेल शुरू किया और गद्दारों की वजह से संभाजी महाराज को संगमेश्वर के जंगलों के 1689 में औरंगजेब ने पकड़ लिया । औरंगजेब ने संभाजी से इस्लाम कबूल करने को कहा, संभाजी ने औरंगजेब से कहा कि यदि वह अपनी बेटी की शादी उनसे करवा दे तो वह इस्लाम कबूल कर लेंगे, यह सुनकर औरंगजेब आगबबूला हो उठा । उसने संभाजी की जीभ काट दी और आँखें फोड़ दीं, संभाजी को अत्यधिक यातनाएँ दी गईं, लेकिन उन्होंने अंत तक इस्लाम कबूल नहीं किया और फिर औरंगजेब ने संभाजी की हत्या कर दी ।

🚩औरंगजेब लगातार किले फतह करता जा रहा था । संभाजी का दुधमुंहे बच्चा “शिवाजी द्वितीय” अब आधिकारिक रूप से मराठा राज्य का उत्तराधिकारी था । औरंगजेब ने इस बच्चे का अपहरण करके उसे अपने हरम में रखने का फैसला किया ताकि भविष्य में सौदेबाजी की जा सके । चूँकि औरंगजेब “शिवाजी” नाम से ही चिढता था, इसलिए उसने इस बच्चे का नाम बदलकर शाहू रख दिया और अपनी पुत्री जीनतुन्निसा को सौंप दिया कि वह उसका पालन-पोषण करे । औरंगजेब यह सोचकर बेहद खुश था कि उसने लगभग मराठा साम्राज्य और उसके उत्तराधिकारियों को खत्म कर दिया है और बस अब उसकी विजय निश्चित ही है । लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया ।

🚩संभाजी की मृत्यु और उनके पुत्र के अपहरण के बाद संभाजी का छोटा भाई राजाराम अर्थात ताराबाई के पति ने मराठा साम्राज्य के सूत्र अपने हाथ में लिए । उन्होंने महसूस किया कि इस क्षेत्र में रहकर मुगलों की इतनी बड़ी सेना से लगातार युद्ध करना संभव नहीं है, इसलिए उन्होंने अपने पिता शिवाजी से प्रेरणा लेकर, अपने विश्वस्त साथियों के साथ लिंगायत धार्मिक समूह का भेष बदला और गाते-बजाते आराम से सुदूर दक्षिण में जिंजी के किले में अपना डेरा डाल दिया । इसके बाद चमत्कारिक रूप से राजाराम ने जिंजी के किले से ही मुगलों के खिलाफ जमकर गुरिल्ला युद्ध की शुरुआत की । उस समय उनके सेनापति थे रामचंद्र नीलकंठ । राजाराम की सेना ने छिपकर वार करते हुए एक वर्ष के अंदर मुगलों की सेना के दस हजार सैनिक मार गिराए और उनका लाखों रूपए खर्च करा दिया । औरंगज़ेब बुरी तरह परेशान हो उठा । दक्षिण की रियासतों से औरंगज़ेब को मिलने वाली राजस्व की रकम सिर्फ दस प्रतिशत ही रह गई थी, क्योंकि राजाराम की सफलता को देखते हुए बहुत सी रियासतों ने उस गुरिल्ला युद्ध में राजाराम का साथ देने का फैसला किया । औरंगज़ेब के जनरल जुल्फिकार अली खान ने जिंजी के इस किले को चारों तरफ से घेर लिया था, परन्तु पता नहीं किन गुप्त मार्गों से फिर भी राजाराम अपना गुरिल्ला युद्ध लगातार जारी रखे हुए थे । यह सिलसिला लगभग आठ वर्ष तक चला । अंततः औरंगज़ेब का धैर्य जवाब दे गया और उसने जुल्फिकार से कह दिया कि यदि उसने जिंजी के किले पर विजय हासिल नहीं की तो गंभीर परिणाम होंगे । जुल्फिकार ने नई योजना बनाकर किले तक पहुँचने वाले अन्न और पानी को रोक दिया । राजाराम ने जुल्फिकार से एक समझौता किया कि यदि वह उन्हें और उनके परिजनों को सुरक्षित जाने दे तो वे जिंजी का किला समर्पण कर देंगे । ऐसा ही किया गया और राजाराम 1697 में अपने समस्त कुनबे और विश्वस्तों के साथ पुनः महाराष्ट्र पहुँचे और उन्होंने सातारा को अपनी राजधानी बनाया ।

🚩82 वर्ष की आयु तक पहुँच चुका औरंगज़ेब दक्षिण भारत में बुरी तरह उलझ गया था और थक भी गया था । अंततः सन 1700 में उसे यह खबर मिली की किसी बीमारी के कारण राजाराम की मृत्यु हो गई है । अब मराठाओं के पास राज्याभिषेक के नाम पर सिर्फ विधवाएँ और दो छोटे-छोटे बच्चे ही बचे थे । औरंगजेब पुनः प्रसन्न हुआ कि चलो अंततः मराठा साम्राज्य समाप्त होने को है । लेकिन वह फिर से गलत साबित हुआ… क्योंकि 25 वर्षीय रानी ताराबाई ने सत्ता के सारे सूत्र अपने हाथ में ले लिए और अपने अपने चार वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय को राजा घोषित कर दिया । अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए ताराबाई ने मराठा सरदारों को साम-दाम-दण्ड-भेद सभी पद्धतियाँ अपनाते हुए अपनी तरफ मिलाया और राजाराम की दूसरी रानी राजसबाई को जेल में डाल दिया । मुग़ल इतिहासकार खफी खान लिखते हैं – “राजाराम के साथ रहकर ताराबाई भी गुरिल्ला युद्ध और सेना की रणनीतियों से खासी परिचित हो गई थीं और उन्होंने अपनी बहादुरी से कई मराठा सरदारों को प्रभावित भी किया था” ।

🚩अगले सात वर्ष में, अर्थात सन 1700 से 1707 तक ताराबाई ने तत्कालीन सबसे शक्तिशाली बादशाह अर्थात औरंगजेब के खिलाफ अपना युद्ध जारी रखा । वह लगातार आक्रमण करतीं, अपनी सेना को उत्साहित करतीं और किले बदलती रहतीं । ताराबाई ने भी औरंगजेब की रिश्वत तकनीक अपना ली और विरोधी सेनाओं के कई गुप्त राज़ मालूम कर लिए । धीरे-धीरे ताराबाई ने अपनी सेना और जनता का विश्वास अर्जित कर लिया । औरंगजेब जो कि थक चुका था, उसके सामने मराठों की शक्ति पुनः दिनोंदिन बढ़ने लगी थी ।

🚩ताराबाई ने औरंगजेब को जिस रणनीति से सबसे अधिक चौंकाया और तकलीफ दी, वह थी गैर-मराठा क्षेत्रों में घुसपैठ । चूँकि औरंगजेब का सारा ध्यान दक्षिण और पश्चिमी घाटों पर लगा था, इसलिए मालवा और गुजरात में उसकी सेनाएँ कमज़ोर हो गई थीं । ताराबाई ने सूरत की तरफ से मुगलों के क्षेत्रों पर आक्रमण करना शुरू किया और धीरे-धीरे (आज के पश्चिमी मप्र) आगे बढ़ते हुए कई स्थानों पर अपनी वसूली चौकियां स्थापित कर लीं । ताराबाई ने इन सभी क्षेत्रों में अपने कमाण्डर स्थापित कर दिए और उन्हें सुबेदार, कमाविजदार, राहदार, चिटणीस जैसे विभिन्न पदानुक्रम में व्यवस्थित भी किया ।

🚩मराठाओं को खत्म नहीं कर पाने की कसक लिए हुए सन 1707 में 89 की आयु में औरंगजेब की मृत्यु हुई । वह बुरी तरह टूट और थक चुका था, अंतिम समय पर उसने औरंगाबाद में अपना ठिकाना बनाने का फैसला किया, जहाँ उसकी मौत भी हुई और आखिरकार अंत तक वह दिल्ली नहीं लौट सका । औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात मुगलों ने उसके द्वारा अपहृत किये हुए पुत्र शाहू को मुक्त कर दिया, ताकि सत्ता संघर्ष के बहाने मराठों में फूट डाली जा सके । यह पता चलते ही रानी ताराबाई ने शाहू को “गद्दार” घोषित कर दिया । ताराबाई ने विभिन्न स्थानों पर दरबार लगाकर जनता को यह बताया कि इतने वर्ष तक औरंगजेब की कैद में रहने और उसकी पुत्री द्वारा पाले जाने के कारण शाहू अब मुस्लिम बन चुका है, और वह मराठा साम्राज्य का राजा बनने लायक नहीं है । रानी ताराबाई के इस दावे की पुष्टि खुद शाहू ने की, जब वह औरंगजेब को श्रद्धांजलि अर्पित करने नंगे पैरों उसकी कब्र पर गया । ताराबाई के कई प्रयासों के बावजूद शाहू मुग़ल सेनाओं के समर्थन से लगातार जीतता गया और सन 1708 में उसने सातारा पर कब्ज़ा किया, जहाँ उसे राजा घोषित करना पड़ा, क्योंकि उसे मुगलों का भी समर्थन हासिल था ।

🚩ताराबाई हार मानने वालों में से नहीं थीं, उन्होंने अगले कुछ वर्ष के लिए अपने मराठा राज्य की नई राजधानी पन्हाला में स्थानांतरित कर दी । अगले पाँच-छह वर्ष शाहू और ताराबाई के बीच लगातार युद्ध चलते रहे । मजे की बात यह कि इन दोनों ने ही दक्षिण में मुगलों के किलों और उनके राजस्व वसूली को निशाना बनाया और चौथ वसूली की । आखिरकार शाहू भी ताराबाई से लड़ते-लड़ते थक गया और उसने एक अत्यंत वीर योद्धा बालाजी विश्वनाथ को अपना “पेशवा” (प्रधानमंत्री) नियुक्त किया । बाजीराव पेशवा के नाम से मशहूर यह योद्धा युद्ध तकनीक और रणनीतियों का जबरदस्त ज्ञाता था । बाजीराव पेशवा ने कान्होजी आंग्रे के साथ मिलकर 1714 में ताराबाई को पराजित किया तथा उसे उसके पुत्र सहित पन्हाला किले में ही नजरबन्द कर दिया, जहाँ ताराबाई और अगले 16 वर्ष कैद रही ।

🚩1730 तक ताराबाई पन्हाला में कैद रही, लेकिन इतने वर्षों के पश्चात शाहू जो कि अब छत्रपति शाहूजी महाराज कहलाते थे उन्होंने विवादों को खत्म करते हुए सभी को क्षमादान करने का निर्णय लिया ताकि परिवार को एकत्रित रखा जा सके । हालाँकि उन्होंने ताराबाई के इतिहास को देखते हुए उन्हें सातारा में नजरबन्द रखा, लेकिन संभाजी द्वितीय को कोल्हापुर में छोटी सी रियासत देकर उन्हें वहाँ शान्ति से रहने के लिए भेज दिया । बालाजी विश्वनाथ उर्फ बाजीराव पेशवा प्रथम और द्वितीय की मदद से शाहूजी महाराज ने मराठा साम्राज्य को समूचे उत्तर भारत तक फैलाया । 1748 में शाहूजी अत्यधिक बीमार पड़े और लगभग मृत्यु शैय्या पर ही थे, उस समय ताराबाई 73 वर्ष की हो चुकी थीं लेकिन उनके दिमाग में मराठा साम्राज्य की रक्षा और सत्ता समीकरण घूम रहे थे । शाहूजी महाराज के बाद कौन?? यह सवाल ताराबाई के दिमाग में घूम रहा था । वह पेशवाओं को अपना साम्राज्य इतनी आसानी से देना नहीं चाहती थीं । तब ताराबाई ने एक फर्जी कहानी गढी और लोगों से बताया कि उसका एक पोता भी है, जिसे शाहूजी महाराज के डर से उसके बेटे ने एक गरीब ब्राह्मण परिवार में गोद दे दिया था, उसका नाम रामराजा है और अब वह 22 साल का हो चुका है, उसका राज्याभिषेक होना चाहिए । ताराबाई मजबूती से अपनी यह बात शाहूजी को मनवाने में सफल हो गईं और इस तरह 1750 में उस नकली राजकुमार रामराजा के बहाने ताराबाई पुनः मराठा साम्राज्य की सत्ता पर काबिज हो गई । रामाराजा को उसने कभी भी स्वतन्त्र रूप से काम नहीं करने दिया और सदैव परदे के पीछे से सत्ता के सूत्र अपने हाथ में रखे ।

🚩इस बीच मराठों का राज्य पंजाब की सीमा तक पहुँच चुका था । इतना बड़ा साम्राज्य संभालना ताराबाई और रामराजा के बस की बात नहीं थी, हालाँकि गायकवाड़, भोसले, शिंदे, होलकर जैसे कई सेनापति इसे संभालते थे, परन्तु इन सभी की वफादारी पेशवाओं के प्रति अधिक थी । अंततः ताराबाई को पेशवाओं से समझौता करना पड़ा । मराठा सेनापति, सूबेदार, और सैनिक सभी पेशवाओं के प्रति समर्पित थे अतः ताराबाई को सातारा पर ही संतुष्ट होना पड़ा और मराठाओं की वास्तविक शक्ति पूना में पेशवाओं के पास केंद्रित हो गई । ताराबाई 1761 तक जीवित रही । जब उन्होंने अब्दाली के हाथों पानीपत के युद्ध में लगभग दो लाख मराठों को मरते देखा तब उस धक्के को वह बर्दाश्त नहीं कर पाई और अंततः 86 की आयु में ताराबाई का निधन हुआ । परन्तु इतिहास गवाह है कि यदि 1701 में ताराबाई ने सत्ता और मराठा योद्धाओं के सूत्र अपने हाथ में नहीं लिए होते, औरंगज़ेब को स्थान-स्थान पर रणनीतिक मात नहीं दी होती और मालवा-गुजरात तक अपना युद्धक्षेत्र नहीं फैलाया होता तो निश्चित ही औरंगज़ेब समूचे पश्चिमी घाट पर कब्ज़ा कर लेता । मराठों का कोई नामलेवा नहीं बचता और आज की तारीख में इस देश का इतिहास कुछ और ही होता । समूचे भारत पर मुग़ल सल्तनत बनाने का औरंगज़ेब का सपना, सपना ही रह गया । इस वीर मराठा स्त्री ने औरंगज़ेब को वहीं युद्ध में उलझाए रखा, दिल्ली तक लौटने नहीं दिया । औरंगज़ेब के बाद मुग़ल सल्तनत वैसे ही कमज़ोर पड़ गई थी । इस वीरांगना ने अकेले दम पर जहाँ एक तरफ औरंगज़ेब जैसे शक्तिशाली मुगल बादशाह को बुरी तरह थकाया, हराया और परेशान किया, वहीं दूसरी तरफ धीरे-धीरे मराठा साम्राज्य को भी आगे बढाती रहीं…

🚩एक समय पर मराठों का साम्राज्य दक्षिण में तंजावूर से लेकर अटक (आज का अफगानिस्तान) तक था, लेकिन आपको अक्सर इस इतिहास से वंचित रखा जाता है और विदेशी हमलावरों तथा लुटेरों को विजेता, दयालु और महान बताया जाता है, सोचिए कि ऐसा क्यों है ? आज 9 दिसम्बर को भगवा ध्वज वाहिका, छत्रपति शिवजी महराज की बहू वीरांगना महारानी ताराबाई जी की पुण्यतिथि पर उनको बारम्बार नमन और वंदन करते है, जिन्होंने क्रूर, मतान्ध औरंगज़ेब को उस के अरमानों के साथ दक्षिण में ही दफन करते हुए अन्य सभी मत मज़हब वाले लोगों को प्रदान की निर्भयता ।
स्त्रोत : सुदर्शन न्यूज़

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Saturday, December 8, 2018

यीशु की कब्र पर उगा था तुलसी का पौधा, 25 दिसम्बर को तुलसी पूजन?

08 दिसंबर 2018

🚩 हिंदुस्तान में तुलसीदास भी प्रसिद्ध हैं और तुलसी का पौधा भी, बल्कि अगर यों कहें कि यहां जन जीवन में तुलसी का पौधा बहुत महत्वपूर्ण है । अधिकांश हिंदू घरों में तुलसी का पौधा पाया जाता है, जिसकी सभी पूजा भी करते हैं ।  ग्रामीण या आम भाषा में लोग इसे तुलसा भी कहते हैं ।

🚩इसी तुलसी के संबंध में विशेष बात यह है कि हिंदू धर्म में ही नहीं ईसाई धर्म में भी बहुत पवित्र माना गया है । अंग्रेजी में इसे "बेसिल" या "सेक्रेड बेसिल" यानी पवित्र तुलसी कहते हैं । और इसलिए पवित्रता का बोध कराने के लिए अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक नामकरण में जो कि लैटिन भाषा में होता है इसे "ओसीमम स्पेक्टम" कहा गया है ।अंग्रेजी का बेसिल शब्द ग्रीक भाषा के "बेसीलि कोन" शब्द से व्युत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है राजसी । से फ्रांस वाले इसलिए इसे 'ल प्लांती रॉयली' अर्थात रॉयल पौधा कहते हैं ईसाइयों में इसके पवित्र माने जाने का कारण यह है कि यही वह पौधा है जो ईसा मसीह यानी क्राइस्ट की कब्र पर ऊगा था तब से ईसाई द्वारा इसे पवित्र कहा जाने लगा ।

Tulsi plant was grown on the grave of Jesus,
Tulsi worship on 25th December?
🚩इटली और ग्रीस के लोगों को भी बहुत पहले इसके गुप्त लक्षण यानी औषधीय गुणों का पता था । इसलिए संत बेसिल दिवस को स्त्रियों द्वारा तुलसी की टहनियों को गिरजाघर में ले जाने और घर लौटने पर उन टहनियों को फर्श पर बिखरा देने की प्रथा रही है ताकि आने वाला वर्ष शुभकारी हो । इन टहनियों की कुछ पत्तियों को खा लेने और कुछ को अपने कबर्ड में चूहे व कीड़े भगाने के लिए प्रयुक्त करने की प्रथा भी है ।

🚩भारत में तुलसी की पत्ती व मंजरी को औषधी रूप में प्रयुक्त किया जाता है । छोटे बच्चे या शिशुओं को हिचकी आते समय इसकी पत्ती की एक बिंदी बच्चे के माथे पर लगा देते हैं । गंदे स्थानों या कीटाणुओं वाली जगहों से लौटने के बाद लोग तुलसी की पत्ती मुंह में रखकर चबा लिया करते हैं । चरणामृत के द्रव्यों में तुलसी की पत्ती एक प्रमुख अंश है । घरों में पूजा के जलपात्र में पानी के साथ तुलसीदल भी देवताओं को चढ़ाया जाता है हिंदू लोगों द्वारा अभी भी जनेऊ चूड़ी वगैरा टूटने पर पवित्र जगह यानि तुलसी के पास रख दिए जाते हैं । मरते समय आदमी के मुख में तुलसी की पत्ती रखे बिना संस्कार पूरा नहीं होता यह विधि वैज्ञानिक इसीलिए भी है कि मरते समय आदमी की साँस के किटाणु तुलसी से नष्ट हो जाए फैले नहीं और उधर कहते हैं कि तब तक प्राण पखेरू शांति से नहीं निकलते जब तक कि तुलसीदल न रखा जाए।

🚩बहुत पहले से ही भारतीय लोग इसके औषधीय महत्व को जानते रहे हैं । यह वातावरण की वायु शुद्ध रखती है और मच्छर कीट पतंगों आदि को दूर भगाती है । इसकी तेज सुगंध अनेक रोगों के कीटाणुओं को नष्ट कर देती है । खांसी,जुकाम,गले की बीमारियां,मलेरिया आदि में उबले पानी या चाय के साथ इसका सेवन लाभकारी होता हैं । इसीलिए स्त्रियों द्वारा इसकी पूजा का आरंभ हुआ होगा । इसके औषधीय और लाभकारी महत्व के कारण स्त्रियां इसे कठड़े, कनस्तर,गमले, बगीचा या घर आंगन के कोने में उगाने लगी होंगी । सुबह उठकर नित्यकर्म से निवृत होकर इसका सिंचन और देखभाल करना ही शनै-शनै पूजा बन गई। फिर लाभकारी वस्तु की पूजा तो भारत की परंपरा रही है । 

🚩स्त्रियां चूंकि धार्मिक अधिक होती है इसलिए धीरे-धीरे तुलसी के बिरवा की पूजा परिक्रमा करना,धूप दीप नैवेद्य रोली व अक्षत चढ़ाना तुलसी की शादी रचाना आदि अनेक बातें पूजा के अंतर्गत हो गई । कुछ लोग, जिनकी लड़कियां नहीं होती, तुलसी का विवाह रचाकर ही कन्यादान का पुण्य प्राप्त करते हैं । यदि यह माना जाए कि इससे और कुछ न मिलता है तो व्यस्त रहने के लिए धार्मिक और सामाजिक कर्म तो है ही यह । जो चीज मन को शांति दे, कितनी महान है वह चीज ।

🚩हिन्दू क्रिस्तानी या यूनानी लोगों के तुलसी वाले औषधि विश्वास को वैज्ञानिकों ने सच सिद्ध कर दिया है । इसकी एरोमा या सुगंध सचमुच #रोगाणुनाशक #संक्रमणहारी होती है । तुलसी के विभिन्न रासायनिक घटक और तत्व विभिन्न रोगों पर विविध प्रकार से प्रभाव डालते हैं । कुछ वर्ष पहले दिल्ली के अनुसंधान संस्थान ने इस बात को खोज निकाला कि तुलसी से जो तैलीय पदार्थ निकलता है वह टी.बी. या यक्षमा जैसे रोग का नाश कर डालता है । अभी इस क्षेत्र में अधिक अनुसंधान नहीं हुए हैं और उसके अनेक गुणों पर पर्दा पड़ा हुआ है, लेकिन आशा है कि वैज्ञानिक शीघ्र ही अन्य रहस्यों का पर्दाफाश करेंगे कि उनसे उत्तरोत्तर लाभान्वित हो सकें ।
(स्रोत्र : 10 वीं कक्षा, कक्षा इंग्लिश मीडियम, महाराष्ट्र)

🚩गौरतलब है कि #हिन्दू संत #आसारामजी #बापू ने वर्ष 2014 से #25 दिसम्बर को #‘तुलसी पूजन दिवस #शुरू #करवाया ।  करोड़ों की तादाद में जनता ने बापू आसारामजी के इस #अभियान को अपनाया है । इस पर्व की #लोकप्रियता विश्वस्तर पर देखी गयी ।

🚩25 दिसम्बर को क्यों मनायें 'तुलसी पूजन दिवस'?

इन दिनों में बीते वर्ष की विदाई पर #पाश्चात्य #अंधानुकरण से #नशाखोरी, #आत्महत्या आदि की #वृद्धि होती जा रही है । तुलसी उत्तम अवसादरोधक एवं उत्साह, स्फूर्ति, सात्त्विकता वर्धक होने से इन दिनों में यह पर्व मनाना वरदानतुल्य साबित होगा ।

🚩धनुर्मास में सभी सकाम कर्म वर्जित होते हैं परंतु भगवत्प्रीतिर्थ कर्म विशेष फलदायी व प्रसन्नता देने वाले होते हैं । 25 दिसम्बर धनुर्मास के बीच का समय होता है ।

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Friday, December 7, 2018

बुलंदशहर : गाय काटी मुल्लों ने, जान गई हिन्दुओं की, जानिए गौहत्या का इतिहास

07 दिसंबर 2018

🚩बुलंदशहर में पुलिस अधिकारी सुबोध सिंह की हत्या को लेकर मीडिया, सेक्युलर, वामपंथी ये सभी गौरक्षकों को दोषी करार दे रहे हैं । गौकशी करने वाले तस्करों और दंगे में मारे गए निर्दोष अंकित का कोई नाम तक ले रहा । मीडिया इस विषय पर विचार ही नहीं कर रहा कि गौरक्षकों को सड़कों पर आकर गौरक्षा की आवश्यकता क्यों पड़ रही हैं । हिन्दू बहुसंख्यक देश में प्रतिबन्ध के बाद भी गौहत्या क्या प्रशासन की नाकामयाबी और पुलिस की अकर्मण्यता नहीं है ? 

🚩गौरक्षकों की आलोचना करने से पहले हमारे इतिहास और वर्तमान की परिस्थितियों को भली प्रकार से समझ लेना चाहिए था । सदियों से हिन्दू समाज गौरक्षा को लेकर अत्यंत संवेदनशील रहा है । इसका मुख्य कारण वह गौ को माता के समान सम्मान देता है । जब-जब शासक गौरक्षा को लेकर नाकाम सिद्ध हुआ है। तब-तब हिन्दुओं ने अपनी जान की बाजी लगाकर भी गौरक्षा के लिए अनेक वीर गाथाएं लिखी है । दुर्भाग्य यह है कि इन वीर गाथाओं को किसी पाठ्यक्रम में नहीं पढ़ाया जाता । जिससे आने वाली पीढ़ी इनसे प्रेरणा ले सके । भारतीय इतिहास में गौ हत्या को लेकर कई आंदोलन हुए हैं और कई आज भी जारी हैं, लेकिन अभी तक गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध नहीं लग सका है । इसका सबसे बड़ा कारण राजनितिक इच्छा शक्ति की कमी होना है।
Bulandshahr: Cow Kati Mulles, know the history of the Hindus, know the
 history of cow slaughter

🚩आप कल्पना कीजिए हर रोज जब आप सोकर उठते हैं तब तक हज़ारों गौओं के गलों पर छूरी चल चुकी होती है । गौ हत्या से सबसे बड़ा फ़ायदा तस्करों एवं गाय के चमड़े का कारोबार करने वालों को होता है । इनके दबाव के कारण ही सरकार गौ हत्या पर प्रतिबन्ध लगाने से पीछे हट रही है । वरना जिस देश में गाय को माता के रूप में पूजा जाता हो, वहां सरकार गौ हत्या रोकने में नाकाम है ये अपने आप में बहुत बड़ा आश्चर्य है । 

🚩आज हमारे देश में नरेंद्र मोदी जी की सरकार है । सेक्युलरवाद और अल्पसंख्यकवाद के नाम पर पिछले अनेक दशकों से बहुसंख्यक हिन्दुओं के अधिकारों का दमन होता आया है । उसी के प्रतिरोध में हिन्दू प्रजा ने संगठित होकर, जात-पात से ऊपर उठकर एक सशक्त सरकार को चुना है । इसलिए यह इस सरकार का कर्त्तव्य बनता है कि वह बदले में हिन्दुओं की शताब्दियों से चली आ रही गौरक्षा की मांग को पूरा करे और गौ हत्या पर पूर्णतः प्रतिबन्ध लगाए । अक्सर देखने में आता है कि बिकाऊ मीडिया और पक्षपाती पत्रकारों के प्रभाव से हम यह आंकलन निकाल लेते हैं कि सारे देशवासियों की भी यही राय होगी जो इन सेक्युलर पत्रकारों, छदम बुद्धिजीवियों की होती है । मगर देश की जनता ने चुनावों में मोदी जी को जीत दिलाकर यह सिद्ध कर दिया कि नहीं यह केवल आसमानी किले है । इसलिए सरकार को चंद उछल कूद करने वालों की संभावित प्रतिक्रिया से प्रभावित होकर गौहत्या पर प्रतिबन्ध लगाने से पीछे नहीं हटना चाहिए ।

🚩मुस्लिम शासनकाल में गौ हत्या पर रोक थी । भारत में मुस्लिम शासन के दौरान कहीं भी गौकशी को लेकर हिंदू और मुसलमानों में टकराव देखने को नहीं मिलता । बाबर से लेकर अकबर ने गौहत्या पर रोक लगाई थी । औरंगजेब ने इस नियम को तोड़ा तो उसका साम्राज्य तबाह हो गया । आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने भी 28 जुलाई, 1857 को बकरीद के मौक़े पर गाय की क़ुर्बानी न करने का फ़रमान जारी किया था । साथ ही चेतावनी दी थी कि जो भी गौ वध करने या कराने का दोषी पाया जाएगा, उसे मौत की सज़ा दी जाएगी।

🚩गौहत्या कबसे शुरू हुई ?

भारत में गौ हत्या को बढ़ावा देने में अंग्रेज़ों ने अहम भूमिका निभाई । जब 1700 ई. में अंग्रेज़ भारत आए थे, उस वक़्त यहां गाय और सुअर का वध नहीं किया जाता था । हिंदू गाय को पूजनीय मानते थे और मुसलमान सुअर का नाम तक लेना पसंद नहीं करते थे । अंग्रेजों ने मुसलमानों को भड़काया कि कुरान में कहीं भी नहीं लिखा है कि गाय की क़ुर्बानी हराम है । इसलिए उन्हें गाय की क़ुर्बानी करनी चाहिए । उन्होंने मुसलमानों को लालच भी दिया और कुछ लोग उनके झांसे में आ गए । इसी तरह उन्होंने दलित हिंदुओं को सुअर के मांस की बिक्री कर मोटी रकम कमाने का झांसा दिया । 18वीं सदी के आखिर तक बड़े पैमाने पर गौ हत्या होने लगी । अंग्रेज़ों की बंगाल, मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी सेना के रसद विभागों ने देश भर में कसाईखाने बनवाए । जैसे-जैसे यहां अंग्रेज़ी सेना और अधिकारियों की तादाद बढ़ने लगी, वैसे-वैसे गौ हत्या में भी बढ़ोत्तरी होती गई ।

🚩गौ हत्या और सुअर हत्या की आड़ में अंग्रेज़ों को हिंदू और मुसलमानों में फूट डालने का भी मौक़ा मिल गया । इस दौरान हिंदू संगठनों ने गौ हत्या के ख़िला़फ मुहिम छेड़ दी । नामधारी सिखों का कूका आंदोलन की नींव गौरक्षा के विचार से जुड़ी थी । हरियाणा प्रान्त में हरफूल जाट जुलानी ने अनेक कसाईखानों को बर्बाद कर कसाइयों को यमलोक पंहुचा दिया । हरफूल जाट ने बलिदान दे दिया मगर पीछे नहीं हटें । 1857 की क्रांति, मंगल पांडेय का बलिदान इसी गौरक्षा अभियान के महान बलिदानों से सम्बंधित है । आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द ने गौरक्षा के लिए आधुनिक भारत में सबसे व्यापक प्रयास आरम्भ किये । उन्होंने गौरक्षा एवं खेती करने वाले किसानों लिए गौ करुणा निधि पुस्तक की रचना कर सप्रमाण यह सिद्ध किया कि गौ रक्षा क्यों आवश्यक है । स्वामी जी यहाँ तक नहीं रुके । उन्होंने भारत की पहली गौशाला रेवाड़ी में राव युधिष्ठिर के सहयोग से स्थापित की जिससे गौरक्षा हो सके । इसके अतिरिक्त उन्होंने पांच करोड़ भारतीयों के हस्ताक्षर करवाकर उन्हें महारानी विक्टोरिया के नाम गौहत्या पर प्रतिबन्ध लगाने का प्रस्ताव भेजने का अभियान भी चलाया । यह अभियान उनकी असमय मृत्यु के कारण पूरा न हुआ । मगर इससे भारत वर्ष में हज़ारों गौशाला की स्थापना हुई एवं गौरक्षा अभियान को लोगों ने अपने प्रबंध से चलाया। भारत में गौरक्षा अभियान के समाचार लंदन भी पहुंचे । आख़िरकार महारानी विक्टोरिया ने वायसराय लैंस डाउन को पत्र लिखा । महारानी ने कहा, हालांकि मुसलमानों द्वारा की जा रही गौ हत्या आंदोलन का कारण बनी है, लेकिन हक़ीक़त में यह हमारे ख़िलाफ़ है, क्योंकि मुसलमानों से कहीं ज़्यादा गौ वध हम कराते हैं। इसके ज़रिए ही हमारे सैनिकों को गौ मांस मुहैया हो पाता है । इसके बाद 1892 में देश के विभिन्न हिस्सों से सरकार को हस्ताक्षरयुक्त पत्र भेजकर गौ वध पर रोक लगाने की मांग की जाने लगी । इन पत्रों पर हिंदुओं के साथ मुसलमानों के भी हस्ताक्षर होते थे । 1947 के पश्चात भी गौरक्षा के लिए अनेक अभियान चले । 1966 में हिन्दू संगठनों ने देशव्यापी अभियान चलाया । हज़ारों गौभक्तों ने गोली खाई मगर पीछे नहीं हटे । राजनैतिक इच्छा शक्ति की कमी के चलते यह अभियान सफल नहीं हुआ ।

🚩इस समय भी देशव्यापी अभियान चलाया जा रहा है । जिसमें केंद्र सरकार से गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने और भारतीय गौवंश की रक्षा के लिए कठोर क़ानून बनाए जाने की मांग की जा रही है । गाय की रक्षा के लिए अपनी जान देने में भारतीय मुसलमान किसी से पीछे नहीं हैं । उत्तर प्रदेश के सहारनपुर ज़िले के गांव नंगला झंडा निवासी डॉ. राशिद अली ने गौ तस्करों के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ रखी थी, जिसके चलते 20 अक्टूबर, 2003 को उन पर जानलेवा हमला किया गया और उनकी मौत हो गई । उन्होंने 1998 में गौ रक्षा का संकल्प लिया था और तभी से डॉक्टरी का पेशा छोड़कर वह अपनी मुहिम में जुट गए थे ।  गौ वध को रोकने के लिए विभिन्न मुस्लिम संगठन भी सामने आए हैं ।  दारूल उलूम देवबंद ने एक फ़तवा जारी करके मुसलमानों से गौ वध न करने की अपील की है । दारूल उलूम देवबंद के फतवा विभाग के अध्यक्ष मुती हबीबुर्रहमान का कहना है कि भारत में गाय को माता के रूप में पूजा जाता है । इसलिए मुसलमानों को उनकी धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते हुए गौ वध से ख़ुद को दूर रखना चाहिए । उन्होंने कहा कि शरीयत किसी देश के क़ानून को तोड़ने का समर्थन नहीं करती । क़ाबिले ग़ौर है कि इस फ़तवे की पाकिस्तान में कड़ी आलोचना की गई थी । इसके बाद भारत में भी इस फ़तवे को लेकर ख़ामोशी अख्तियार कर ली गई ।

🚩गाय भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक अहम हिस्सा है । यहां गाय की पूजा की जाती है । यह भारतीय संस्कृति से जुड़ी है । महात्मा गांधी कहा करते थे कि अगर निःस्वार्थ भाव से सेवा का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण कहीं देखने को मिलता है तो वह गौ माता है। गाय का ज़िक्र करते हुए वह लिखते हैं:-

🚩"गौ माता जन्म देने वाली माता से श्रेष्ठ है । हमारी माता हमें दो वर्ष दुग्धपान कराती है और यह आशा करती है कि हम बड़े होकर उसकी सेवा करेंगे । गाय हमसे चारे और दाने के अलावा किसी और चीज़ की आशा नहीं करती । हमारी मां प्राय: रूग्ण हो जाती है और हमसे सेवा की अपेक्षा करती है । गौ माता शायद ही कभी बीमार पड़ती है । वह हमारी सेवा आजीवन ही नहीं करती, अपितु मृत्यु के बाद भी करती है । अपनी मां की मृत्यु होने पर हमें उसका दाह संस्कार करने पर भी धनराशि व्यय करनी पड़ती है । गौ माता मर जाने पर भी उतनी ही उपयोगी सिद्ध होती है, जितनी अपने जीवनकाल में थी । हम उसके शरीर के हर अंग-मांस, अस्थियां, आंतों, सींग और चर्म का इस्तेमाल कर सकते हैं । यह बात जन्म देने वाली मां की निंदा के विचार से नहीं कह रहा हूं, बल्कि यह दिखाने के लिए कह रहा हूं कि मैं गाय की पूजा क्यों करता हूं ।"- महात्मा गाँधी

महात्मा गाँधी का नाम लेकर पूर्व में अनेक सरकारें बनी मगर गौहत्या पर प्रतिबन्ध नहीं लगा । आज इस देश की सरकार से हम प्रार्थना करते हैं कि समस्त देश की भवनाओं का सम्मान करते हुए गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाएं एवं गौहत्या करने वालों को कठोर से कठोर दंड मिले ।

🚩महान गौरक्षकों को उनके तप और बलिदान के लिए कोटि कोटि नमन...
-डॉ विवेक आर्य

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Thursday, December 6, 2018

बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद पाकिस्तान में तोड़े गए थे 100 मंदिर : पत्रकार

06 दिसंबर 2018

🚩भारत में हिन्दू बहुसंख्यक हैं और मुसलमान अल्पसंख्यक हैं लेकिन आजतक कभी ऐसा नहीं हुआ है कि पाकिस्तान या बांग्लादेश आदि मुस्लिम देशों में हिन्दुओं के साथ अत्याचार हुआ तो भारत में मुस्लिमों के साथ हिन्दुओं ने गलत व्यवहार किया हो, लेकिन यहाँ तो उससे उल्टा दिखाई दे रहा है, भारत को लूटने वाले, हिन्दुओं का कत्लेआम करने वाले, बलात्कारी बाबर के नाम की मस्जिद 1992 में जब तोड़ दी तो पाकिस्तान में हिन्दुओ के साथ भयंकर अत्याचार हुआ और लगभग 100 हिन्दू मन्दिर तोड़ दिये गये, जबकि सबको ये ज्ञात है कि बाबरी मस्जिद श्री राम मंदिर की नींव पर बना था ।
100 temples were demolished in Pakistan
after demolition of Babri Masjid: journalist

🚩आज से 25  साल पहले मतलब कि 6 दिसंबर, 1192 को अयोध्या में कार सेवकों ने विवादित बाबरी ढांचे को ढहा दिया था । इस घटना की प्रतिक्रिया में पूरे देश में साम्प्रदायिक दंगे भड़के थे । यहां तक कि बाबरी विध्वंस की आग पड़ोसी देश पाकिस्तान-बांग्लादेश समेत कई देशों में भी भड़की थी । पड़ोसी देश पाकिस्तान में तो इस घटना के विरोधस्वरूप लगभग 100 मंदिरों को या तो गिरा दिया गया या फिर उसे तोड़-फोड़ कर नुकसान पहुंचाया गया ।

🚩पाकिस्तान के फोटो पत्रकार और बीबीसी से जुड़े शिराज हसन ने इन मंदिरों के फोटोज शेयर कर ट्विटर पर दावा किया था कि, “1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद पाकिस्तान में करीब 100 मंदिरों को दंगाइयों ने निशाना बनाया था । उन लोगों ने या तो इन मंदिरों को गिरा दिया या फिर उनमें तोड़-फोड़ की थी। इन अधिकांश मंदिरों में 1947 के देश विभाजन के शरणार्थी रहते थे !”

🚩अपने दूसरे ट्वीट में हसन ने लिखा है, “हमने इन खंडहर मंदिरों में रह रहे कई लोगों से बातचीत की है । इन लोगों ने साल 1992 के उस भयावह मंजर को याद करते हुए कहा कि हमने दंगाइयों से रहम की अपील की थी और कहा था कि यह हमारा आशियाना है, इसे मत तोड़ो लेकिन वो नहीं माने !” हसन ने अपनी बात को बल देने के लिए कुछ मंदिरों की तस्वीर भी शेयर की हैं । इनमें रावलपिंडी का कृष्ण मंदिर भी है, जिसका ऊपरी गुंबद दंगाइयों ने 1992 में तोड़कर गिरा दिया था।

🚩कृष्ण मंदिर कल्याण दास मंदिर:-

हसन ने एक अन्य ट्वीट में रावलपिंडी के ही कल्याण दास मंदिर की भी तस्वीर साझा की है, जहां आजकल दृष्टिहीनों का एक सरकारी स्कूल चलता है । स्कूल से जुड़े लोगों ने उन्हें बताया कि दंगाइयों ने यहां भी हमला बोला था लेकिन बहुत निवेदन करने के बाद उसे बचा लिया गया था । यह मंदिर सहीं सलामत हालत में दिखता है।

🚩बन्सिधर मंदिर सीतलादेवी मंदिर

आपको बता दें कि बाबरी विध्वंस के वक्त केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे । इस घटना के बाद पाकिस्तान, बांग्लादेश और इरान समेत कई देशों में भारतीय दूतावासों पर हमले भी हुए थे । पाकिस्तान और बांग्लादेश में एंटी हिन्दू दंगे भी भड़के थे । श्रीलंका के तत्कालीन राष्ट्रपति प्रेमदासा को बोधगया दौरा टालना पड़ा था । इरान ने तेल सप्लाय रोकने की धमकी दे डाली थी । स्त्रोत : जनसत्ता

🚩अल्पसंख्यकों को नहीं है धार्मिक आजादी 

अमेरिका द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि, पाकिस्तान में सिख, हिन्दू जैसे अल्पसंख्यक जबरन धर्मांतरण के डर में रहते हैं । रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि अल्पसंख्यकों को यह चिंता भी है कि पाकिस्तान सरकार जबरन धर्मांतरण को रोकने के लिए आवश्यक कदम नहीं उठा पाती है ।

🚩पाकिस्तान और बांग्लादेश में दिन-रात हिन्दुओं के घर जलाये जा रहे हैं #हिन्दू #महिलाओं की #इज्जत #लूटी जा रही है, #मंदिर, घर, दुकानों को तोड़ा जा रहा है, पुजारियों की हत्या की जा रही है, हिन्दुओं की संपत्ति हड़प ली जाती है, #हिन्दुओं को मारा-पीटा जा रहा है, दिन-रात #हिन्दुओं को पलायन होना पड़ रहा है, यहाँ तक कि हिन्दू मर जाता है तो उसको जला भी नहीं सकते है, उसपर किसी नेता, मीडिया, संयुक्त राष्ट्र और सेक्युलर लोगों की नजर क्यों नहीं जाती है ?

🚩भारत में तो हिंदुओं से कई गुना अधिक सुख-सुविधाएं मुसलमानों को दी जा रही हैं फिर भी कुछ गद्दार, सेक्युलर बोलते हैं  कि भारत में मुसलमान डरे हुए हैं, लेकिन आजतक ये नहीं बोला कि पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि मुसलमान बाहुल्य देश में हिन्दुओं पर कितना अत्याचार हो रहा है । नर्क से भी बत्तर जीवन जीना पड़ रहा है ।

🚩एक तरफ पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दुओं पर अत्याचार हो रहा है दिन-प्रतिदिन हिन्दू कम हो रहे हैं दूसरी ओर बंगाल, कश्मीर, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक आदि राज्यों में हिन्दुओं की हत्याएं हो रही हैं उस पर सभी ने चुप्पी क्यों साध ली है ?

भारत में अगर कोई हिन्दू कार्यकर्ता या हिन्दू साधु-संत इन अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाते हैं तो या तो उनको जेल भेज दिया जाता है या हत्या करवा दी जाती है ।

🚩ईसाई मिशनरियाँ और #मुस्लिम देश दिन-रात #हिंदुस्तान और पूरी दुनिया से हिन्दुओं को मिटाने में लगे हैं अतः हिन्दू सावधान रहें ।

अभी समय है हिन्दू #एक होकर #हिन्दुओं पर हो रहे प्रहार को रोकें तभी हिन्दू बच पायेंगे । हिन्दू होगा तभी सनातन संस्कृति बचेगी ।

🚩अगर #सनातन #संस्कृति नहीं बचेगी तो दुनिया में इंसानियत ही नहीं बचेगी क्योंकि #हिन्दू संस्कृति ही ऐसी है जिसने "वसुधैव कुटुम्बकम्" का वाक्य चरितार्थ करके दिखाया है ।

प्राणिमात्र में ईश्वरत्व के दर्शन कर, सर्वोत्वकृष्ट ज्ञान प्राप्त कर जीव में से #शिवत्व को प्रगट करने की क्षमता अगर किसी संस्कृति में है तो वो सनातन हिन्दू #संस्कृति में है ।

🚩हिंदुओं की बहुलता वाले देश #हिंदुस्तान में अगर आज हिन्दू #पीड़ित है तो सिर्फ और सिर्फ हिंदुओं की निष्क्रियता और अपनी महान संस्कृति की ओर विमुखता के #कारण !!

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