Thursday, January 9, 2020

हिंदुओं की ऐतिहासिक भूलें, जो हमारे विनाश का कारण बन सकती हैं

09 जनवरी 2020

*🚩श्री अरविन्द ने सौ साल पहले ही कहा था कि भारत की सब से बड़ी समस्या विदेशी शासन नहीं है। गरीबी भी नहीं है। सब से बड़ी समस्या है – सोचने-समझने की शक्ति का ह्रास! इसे उन्होंने ‘चिंतन-फोबिया’ कहा था। कि मानो हम सोचने-विचारने से डरते हैं। औने-पौने किसी मामले को निबटाने की कोशिश करते हैं। चाहे वह वैयक्तिक हो या सामाजिक या राष्ट्रीय। इस से कोई भी कार्य अच्छी तरह से तय नहीं होता, नतीजन समस्याएं बनी रहती हैं, बल्कि बिगड़ती जाती हैं।*

*🚩वह एक सटीक अवलोकन था। स्वामी विवेकानन्द ने भी उसी कमी को ‘आत्म-विस्मरण’ कहा था। स्वतंत्र भारत में वह दूर होने के बदले और बढ़ गया। आकर्षक लगने वाली विविध, विदेशी विचारधाराओं को हमारे शासकों, उच्च-वर्गीय लोगों, बुद्धिजीवियों ने बिना किसी जाँच-परख के अपना लिया। आज हिन्दू लोग अपना धर्म और इतिहास बहुत कम जानते हैं। इस से उनका आत्म-विस्मरण बढ़ता जाता है।*

*🚩हमारी असली दुर्बलता कहीं और है, जिस से सेना या सुरक्षा बलों का भी सही समय पर सही प्रयोग नहीं होता। अज्ञान और भय एक-दूसरे को बढ़ाते हैं। यह आज के हिन्दू समाज की कड़वी सच्चाई है। हिन्दू समाज अज्ञान में डूबा, विखंडित और दुर्बल है। यह देश की केंद्रीय समस्या है। इसे शिक्षा के माध्यम से सरलतापूर्वक एक पीढ़ी या बीस वर्षो में दूर कर लिया जा सकता था, पर हिन्दू-विरोधी वामपंथी नीतियों तथा विदेशी मतवादों के दबाव में उलटा ही किया गया। रोजगारपरक बनाने के नाम पर सार्वजनिक शिक्षा मूल्य-विहीन, इसलिए घोर अशिक्षा में बदल गई है। दूसरी ओर, देश में राज्य-कर्म मुख्यतः नगरपालिका जैसे काम करने, पार्टी-बंदी और मीठी झूठी बातें कहने, तरह-तरह के भाषण देने में बदल कर रह गया है।*

*🚩यह राष्ट्र की मानसिक क्षमता में ह्रास के उदाहरण हैं। इनमें पिछले सौ साल से कोई विशेष सुधार हुआ नहीं लगता। ऐसी ही स्थितियों में मुट्ठी भर शत्रु भी आक्रामक होकर बड़ी संख्या पर विजयी हो सकते हैं। सन् 1947 में देश-विभाजन और फिर निरंतर जगह-जगह हिन्दुओं के विस्थापन का यही कारण रहा है। इसका उपाय अच्छी सेना या युद्धक विमान मात्र नहीं हैं। क्योंकि शक्ति हथियारों में नहीं, उनका उपयोग करने और करवाने वालों के चरित्र और मानस में होती है।*

*🚩श्रीअरविन्द के शब्दों में, ‘हम ने शक्ति को छोड़ दिया है और इसलिए शक्ति ने भी हमें छोड़ दिया है। … कितने प्रयास हो चुके हैं। कितने धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक आंदोलन शुरू किए जा चुके। लेकिन सब का एक ही परिणाम रहा या होने को है। थोड़ी देर के लिए वे चमकते हैं, फिर प्रेरणा मंद पड़ जाती है, आग बुझ जाती है और अगर वे बचे भी रहें तो खाली सीपियों या छिलकों के रूप में रहते हैं, जिन में से ब्रह्म निकल गया है या वे तमस के वश में हैं।’ (भवानी मंदिर, 1905) इस दुरअवस्था से निकलने के लिए सब से पहले हमें अपना सच्चा इतिहास जानना चाहिए। ठीक है कि गत हजार साल से हिन्दुओं ने दो साम्राज्यवादों का प्रतिरोध किया। लेकिन जिस मर्मांतक शत्रु को वे पहचान चुके थे, उसके सामने सदियों तक विफलता भयावह पैमाने की थी। उन विफलताओं के सबक आज भी प्रासंगिक हैं।*

*🚩पहली, सैन्य-कला की विफलता। दूसरी, राजनीतिक। आरंभिक चरणों में शाहीया, चौहान, चंदेल, गहड़वाल और चालुक्य जैसे हिन्दू राज्य अरब, तुर्क इस्लामी हमलावरों की तुलना में वित्तीय संसाधन और मानव-बल, दोनों में श्रेष्ठ थे, किन्तु हिन्दू उनका ढंग से उपयोग कर पाने में विफल रहे। इसका बड़ा कारण था हिन्दुओं की आध्यात्मिक समझ में आई गिरावट। उस से पहले के युग में जब यूनानी आक्रमणकारी अलेक्जेंडर ने भारत के एक ब्राह्मण से पूछा था कि उन्होंने क्या सिखाया जिससे हिन्दू ऐसी ऊँची वीरता से भरे होते हैं, तो ब्राह्मण ने एक पंक्ति में उत्तर दिया था – ‘‘हम ने अपने लोगों को सम्मान के साथ जीना सिखाया है।’’ किन्तु पाँचवीं सदी के बाद स्थिति बदलने लगी। पहले के महाभारत, रामायण, पुराण और मनुस्मृति, आदि की तुलना में अब हिन्दू साहित्य बहुत हल्के होते गए।*

*🚩पहले का हिन्दू साहित्य मानव आत्मा की महान ऊँचाइयों में विचरता है, पर साथ ही पार्थिव जीवन के हरेक पक्ष पर भी पूरा ध्यान देता है। इस में किसी बुराई को सहने या बिना दंड के क्षमा करने का कहीं कोई स्थान नहीं था। लेकिन बाद के हमारे आध्यात्मिक और दार्शनिक साहित्य में धरती पर जिए जाने वाले जीवन के प्रति एक वितृष्णा का भाव आ गया। इस से पीठ मोड़ लेना सर्वोच्च मानवीय गुण कहा गया। धर्म वह व्यापक धारणा न रहा जो मानवीय संबंधों की पूरी समृद्धि को अपने घेरे में लेता है, बल्कि इसे वैयक्तिक मुक्ति के लक्ष्य में सीमित कर दिया गया। तीसरी विफलता थी, आस-पास के विश्व में घट रही घटनाओं के प्रति मानसिक सतर्कता का अभाव।*

*🚩इस प्रकार, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और मानसिक स्तरों पर तिहरी विफलता ने हिन्दू समाज को एक अभूतपूर्व स्थिति में आवश्यक नीतियाँ बनाने और लागू करने के अयोग्य बना दिया। वैसी नीतियाँ, जिस से वह अपने देश में एक कैंसरनुमा रोग की स्थाई उपस्थिति से मुक्त हो सकता था।*

*🚩हजार साल पहले का आक्रमणकारी इस्लामी साम्राज्यवाद ‘केवल-हम-सही’ होने के तेज बुखार से ग्रस्त था। उसे किसी कड़ी दवा की बड़ी जरूरत थी। यदि उन्हें बलपूर्वक समझाया जाता कि जो काम वे मार्त्तंड मंदिर या सोमनाथ के साथ करते हैं, वही उनके मक्का-मदीना के साथ भी किया जा सकता है, तो वे ठहर कर सोचते और सामान्य हो जाते। लेकिन हिन्दुओं ने उस मतवादी आवेश को ठंडा करने की कभी कोशिश नहीं की, जबकि उनमें वह सैनिक और वित्तीय शक्ति थी। यह बहुत बड़ी भूल हुई।*

*🚩तब से बहुत समय बीत चुका है। पर वह बुखार आज भी भारत में मौजूद है, और उसके प्रति वही गफलत भी। सेक्यूलरवादी, वामपंथी और राष्ट्रवादी भी हमारे इतिहास को विकृत करने में लगे हैं, कि इस्लाम ने कभी हिन्दुओं या हिन्दू धर्म को हानि पहँचाने की चाह नहीं रखी थी! क्या हिन्दू समाज को फिर इस आत्म-विस्मरण, गफलत की कीमत चुकानी होगी? पर अब कटिबद्ध इस्लामी प्रहार के समक्ष हिन्दू समाज नहीं बच सकेगा। इसका मानसिक, नैतिक, आध्यात्मिक स्वास्थ्य वैसा नहीं है। न भूलें कि सेना, प्रक्षेपास्त्र और परमाणु बम होते हुए भी कश्मीर से हिन्दुओं का सफाया हुआ है!*

*🚩भारत के सच्चे देशभक्त और धर्म-परायण लोग यदि पार्टी-बंदी से ऊपर उठकर राष्ट्रीय स्थिति पर विचार करें, तभी उन्हें वस्तु-स्थिति का सही आभास होगा। जो समाज आत्म-दया से ग्रस्त है, जो हर उत्पीड़क की ओर से बोलने में लग जाता है, जो पक्के दुश्मनों से अपने लिए अच्छे आचरण का प्रमाण-पत्र पाने की जरूरत महसूस करता है – ऐसे समाज के लिए ऐसी दुनिया में कोई आशा नहीं, जो दिनो-दिन अधिक हिंसक होती जा रही है। इसलिए, हमें शक्ति के साथ-साथ ज्ञान की आराधना भी करनी चाहिए। लेखक : डॉ. शंकर शरण*

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Wednesday, January 8, 2020

बॉलीवुड संस्कृति विरोधी था अब देश विरोधी भी बन गया है

08 जनवरी 2020

*🚩बॉलीवुड के कुछ सितारे CAA का विरोध कर रहे हैं, कुछ वामपंथी JNU के समर्थन में आये हद तो तब हो गई जब देश विरोधी लोगों का समर्थन देने के लिए अभिनेत्री दीपिका पादुकोण भी पहुँच गई*

*★लेकिन दीपिका कभी 1984 क़त्लेआम के पीड़ित परिवारों से क्यों नहीं मिली?*

*★मध्य प्रदेश में सिखों पर हुए अत्याचार पर कभी कुछ क्यों नहीं बोला?*

*★ननकाना साहिब में हुए Hate Attack पर क्यों एक ट्वीट तक भी नहीं किया?*

*★लाखों पंडितों को भगा दिया और सैकड़ों का कत्ल कर दिया तब क्यों कुछ नहीं बोला?*

*★और अब देश के गद्दारों के समर्थन में कैसे उतर आई?* 

*🚩इससे सिद्ध होता है कि इन लोगों ने हिंदू संस्कृति को नष्ट करने का प्रयत्न किया अब देश विरोध में भी आ गए हैं।*

*🚩हमारे युवा अपना आदर्श बॉलीवुड की इन नचनियों को मानते हैं, और ये भांड नचनियां अपनी फिल्मों के जरिये लवजिहाद, बलात्कार, मर्डर, गद्दारी और लूट के नए नए तरीके सिखाते हैं....ये सब हमारे संस्कृति और देश नष्ट करने के षड्यंत्र हैं।*

*🚩आपको बता दें कि हर शुक्रवार कोई न कोई फ़िल्म आ ही जाती है। अब आने वाले शुक्रवार (जनवरी 10, 2020) को ही ले लीजिए। दक्षिण के 70 वर्षीय महानायक रजनीकांत उस दिन ‘दरबार’ लेकर आ रहे हैं। इसमें वे सुनील शेट्टी से फाइट करते दिखेंगे। उसी दिन हिंदी सिनेमा के सुपरस्टार अजय देवगन मराठा योद्धा पर बनी फ़िल्म ‘तानाजी’ लेकर आ रहे हैं। जहाँ रजनीकांत अपनी फ़िल्मों का प्रचार करने के लिए किसी शो वगैरह में जाते नहीं, अजय देवगन ने हर बड़े टीवी शो में जाकर अपनी फ़िल्म का प्रचार किया है। अजय देवगन आक्रामक प्रचार के लिए जाने भी जाते हैं।*

*🚩हालाँकि, यहाँ बात हम इन दो फ़िल्मों की नहीं करेंगे, क्योंकि इन दो बड़ी फ़िल्मों के साथ एक तीसरी फ़िल्म भी आ रही है। उसका नाम है- छपाक। फ़िल्म की कहानी वास्तविक बताई गई है। एसिड अटैक का सामना करने वाली हमारे देश की बेटी लक्ष्मी अग्रवाल की कहानी इस फ़िल्म में दिखाई गई है। लक्ष्मी को क्या कुछ झेलना पड़ा, वो जान कर कोई भी रो पड़ेगा। उनका पूरा चेहरा जल गया। फिर भी वो लड़ीं, एक योद्धा की तरह। तमाम मुश्किलों का सामना कर वो महिला सशक्तिकरण की आवाज़ बन कर उभरीं।*

*🚩बायोपिक बॉलीवुड का फैशन रहा है और मात्र 1 रुपए में अपनी कहानी देने वाले मिल्खा सिंह पर बनी फिल्मों ने भी 100 करोड़ की कमाई की है। मेरीकॉम पर बनी फ़िल्म ने भी अच्छी-ख़ासी कमाई की। लेकिन, ठीक उसी तरह वास्तविकता पर फ़िल्में बनाने का दावा कर सच्चाई से छेड़छाड़ करना भी बॉलीवुड का फैशन रहा है। जब फ़िल्म के बारे में चर्चा नहीं हो रही हो तो जबरदस्ती उसे विवादों में घसीटने का भी एक ट्रेंड रहा है। जब टॉपिक कॉन्ट्रोवर्शियल होता है तो उस पर चर्चा होती है, वो लोगों तक पहुँचता है। ‘छपाक’ का सामना भी दो बड़ी फ़िल्मों से है।*

*🚩सबसे पहले ये जानते हैं कि लक्ष्मी अग्रवाल के साथ हुआ क्या था? किशोरावस्था में लक्ष्मी भी आम लड़की की तरह थी। घंटों ख़ुद को आईने में देखती थीं, क्योंकि उनका सपना था कि वो टी.वी पर आए। 32 वर्ष के नईम ख़ान ने 15 साल की लक्ष्मी पर सिर्फ़ इसीलिए तेज़ाब फेंक दिया क्योंकि उसने शादी से इंकार कर दिया था। नईम उर्फ़ गुड्डू लगातार एस.एम.एस कर लक्ष्मी को परेशान करता था। लक्ष्मी की माँ तक को यकीन नहीं हुआ कि नईम ने ऐसा किया है, क्योंकि नईम जान-पहचान वाला था। वो लक्ष्मी की दोस्त का भाई था। लक्ष्मी ने कविताएँ लिखीं, फैशन को लेकर दुनिया के नजरिए को बदला, टीवी पर आईं और एसिड अटैक पीड़ितों के लिए उन्होंने अभियान चलाया। जबकि ये खबर है कि एसिड फेंकने वाले नदीम खान का नाम बदलकर 'राजेश' हिंदू नाम कर दिया गया, यह फिल्म में एसिड फेंकने वाले का नाम बदलने के बहाने उसका धर्म बदला गया है और ये हिंदू धर्म को बदनाम करने की एक कोशिश है।*

*🚩जब फ़िल्म ‘छपाक’ के वास्तविकता से प्रेरित होने और सच्ची घटना पर आधारित होने की बात कही जाती है, तब ये तो पूछा जाएगा कि इस घटना के दोषियों को इसमें किस रूप में दिखाया गया है। सिनेमा वाले ऐसे किसी भी विवाद में नहीं पड़ना चाहते, जिससे उन्हें इस बात का ख़तरा हो कि उनके ख़िलाफ़ एक भी मुस्लिम सड़क पर निकल कर विरोध-प्रदर्शन कर सकता है। अभी हमने देखा कि फराह ख़ान, रवीना टंडन और भारती सिंह को रोमन कैथोलोक बिशप से मिल कर माफ़ी माँगनी पड़ी, क्योंकि ईसाई समुदाय उनके ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहा था। सोशल मीडिया पर सार्वजनिक रूप से माफ़ी माँगने से भी काम नहीं चला तो उन्होंने लिखित में अलग-अलग माफ़ीनामा सौंपा। क्यों सौंपा? क्योंकि वो विवादों से दूर भागना चाहते थे। वो ऐसा क्यों चाहते थे?*

*🚩क्योंकि विवाद ईसाई समुदाय से जुड़ा था। लेकिन जैन मुनि तरुण सागर पर विवादित टिप्पणी करने वाला संगीतकार तब उनकी चौखट पर पहुॅंचा जब उसे पुलिसिया कार्रवाई का डर सताने लगा। लेकिन, जब मामला ईसाई या मुस्लिम धर्म से जुड़ा रहता है तो इन्हें माफी मांगने में सेकेंड भर देरी नहीं लगती। विवाद मुस्लिम अथवा ईसाई समुदाय से जुड़ा हो अथवा उनके विरोध का डर हो तो एक भी बॉलीवुड सितारा रिस्क नहीं लेना चाहता। वहीं जब बात बहुसंख्यक समुदाय की हो, तब लाख प्रदर्शनों के बावजूद वो माफ़ी नहीं माँगते और दिखाते हैं कि ‘देखो, हम उपद्रवियों के सामने नहीं झुक रहे।’ वो ऐसा क्यों करते हैं?*

*🚩जब विश्वरूपम में कमल हसन दिखाते हैं कि आतंकी इस्लामी टोपी पहने गोलियाँ चला रहे हैं तो उन्हें इतना परेशान किया जाता है कि वो देश छोड़ कर जाने की बातें करने लगते हैं। ‘चक दे इंडिया’ में मीर रंजन नेगी को कबीर ख़ान बना दिया जाता है। पूरा लब्बोलुआब ये है कि जब किसी ने अच्छा कार्य किया हो तो उसे हिन्दू से मुस्लिम बनाने में बॉलीवुड वालों को कोई समस्या नहीं होती। लेकिन, जब किसी ने कोई बुरा कार्य किया हो तो उसके किरदार को मुस्लिम से हिन्दू बना दिया जाता है। क्यों? क्योंकि मामला ‘उनका’ हो तो रिस्क नहीं लेना है।*

*🚩अगर आप सोच रहे हैं कि ये सब नया है तो शायद आप ग़लतफहमी में हैं। दरअसल, ये तो बॉलीवुड का ट्रेंड रहा है। सलीम ख़ान और जावेद अख्तर की कहानियों में ढोंगी, लालची, चाटुकार, लुटेरा और ठग जैसे किरदारों को पंडित दिखाया जाता था। ठीक इसके उलट, देश के लिए क़ुरबानी की बात करने वाले, वफ़ादार दोस्त, दूसरों का भला करने वाला और कुछ ज्यादा ही ईमानदार किरदारों को मुस्लिम दिखाया जाता था। ये ट्रेंड शुरू से चला आ रहा है। ‘पद्मावत’ में एक पंडित को चाटुकार और गद्दार दिखाया गया। ‘शोले’ में एक ‘बेचारा’ मौलवी, जो अपने बेटे को ‘कुर्बान कर देने’ की बात करता है। ‘वास्तव’ में परेश रावल का किरदार, एक ईमानदार दोस्त जो रघु के लिए जान दे देता है। लम्बा इतिहास रहा है ऐसा।*

*🚩जेएनयू में दीपिका पादुकोण ने जाकर उस कंट्रोवर्सी को जन्म दे दिया, जिससे फ़िल्म की चर्चा हो और जिस पर लाख विवादों के बावजूद माफ़ी न माँग कर ख़ुद की छवि और ‘मजबूत’ दिखाई जा सके।*

*🚩पीआर एजेंसियों के इशारों पर नाचने वाली बॉलीवुड सेलेब्रिटी होते ही ऐसे हैं। जब फलाँ मुद्दा ख़ूब चल रहा है तो उस पर उनसे बयान दिलवाया जाता है। विवाद में पड़े बिना जब पब्लिसिटी की जरूरत होती है तो यही अभिनेता या अभिनेत्री सोशल मीडिया में ’संविधान की प्रस्तावना’ को शेयर कर देते हैं। वैसे ही दीपिका ने सीएए, हैदराबाद एनकाउंटर, निर्भया फ़ैसला और मुस्लिमों के आतंक पर कुछ नहीं बोला। लेकिन चूँकि उनकी फ़िल्म का रिलीज डेट नजदीक है, जेएनयू में उनकी उपस्थिति ने वो काम कर दिया, जो उनके बयान देने से भी नहीं होता। यही बॉलीवुड की रीत है।*

*🚩बॉलीबुड द्वारा हमारी संस्कृति खत्म करने की कोशिश की जा रही है और अब कुछ देश विरोधियों का साथ देकर देश विरोधी भी बन गए हैं ।अतः इनका बहिष्कार करना ही एकमात्र विकल्प है।*

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Tuesday, January 7, 2020

पड़ोस देश में दलित हिंदुओं की दुर्दशा जानकर रोंगटे खड़े हो जाएंगे

*🚩पड़ोस देश में दलित हिंदुओं की दुर्दशा जानकर रोंगटे खड़े हो जाएंगे*

07 जनवरी 2020

*🚩पड़ोस से भारत आने वालों में ज्यादातर दलित हिंदू हैं, फिर भी दलित नेता सीएए के विरोध में खड़े हैं इसके लिए आपको जानना जरूरी है कि वहां दलित हिंदू व सिखों की कैसा दुर्दशा हुई है।*

*🚩वर्ष 1971 के भारत-पाक युद्ध में अमेरिका पाकिस्तान का साथ दे रहा था, पर पूर्वी पाकिस्तान में पाक फौज द्वारा किए जा रहे जनसंहार ने ढाका में तैनात अमेरिकी विदेश विभाग के अधिकारियों को अंदर तक झकझोर दिया था। वे वाशिंगटन को भेजे जा रहे अपने खुफिया संदेशों में बांग्ला भाषियों और खास तौर से पूर्वी पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं के भीषण नरसंहार का आंखों देखा हाल लिख रहे थे। यूं तो झगड़ा पश्चिमी पाकिस्तान के उर्दू भाषी और पूर्वी पाकिस्तान के बांग्ला भाषी मुसलमानों के बीच था पर पाक फौज के जनरलों और जमात-ए-इस्लामी के मौलानाओं को लगता था कि बंगाली मुसलमान बंगाली हिंदुओं के सांस्कृतिक प्रभाव में आकर इस्लाम से भ्रष्ट हो चुके हैं और इसलिए पाकिस्तान से अलग होना चाहते हैं। इसी कारण हिंदुओं पर खास तौर पर जुल्म ढाया जा रहा था।*

*🚩जनसंहार के लिए भारत का हस्तक्षेप*

*★ हिंदुओं की मार-काट इतनी बर्बर थी कि ढाका में तैनात अमेरिकी राजनयिकों को अपनी सरकार की पाकिस्तान परस्त नीति की निंदा करते हुए एक विरोध पत्र वाशिंगटन को भेजना पड़ा। यह अमेरिका के इतिहास में राजनायिकों के द्वारा भेजा गया पहला ऐसा पत्र था। इस जनसंहार और उससे उपजे शरणार्थी संकट से निपटने के लिए भारत को हस्तक्षेप करना पड़ा और इसके चलते ही बांग्लादेश का जन्म हुआ।*

*🚩धर्मनिरपेक्ष देश इस्लामिक देश बन गया*

*★ शुरू में तो यह धर्मनिरपेक्ष देश था पर कुछ अर्से बाद ही वह 1975 में इस्लामिक देश में बदल गया और फिर वहां के इस्लामिक कट्टरपंथियों ने हिंदू अल्पसंख्यकों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। इस अत्याचार के पहले शिकार दलित हिंदू बने, क्योंकि वही ज्यादा असहाय थे।*

*🚩बांग्लादेश में हिंदु 31% से 8% हो गए*

*★ 1947 में पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश में हिंदुओं की जनसंख्या तकरीबन 31 प्रतिशत थी जो आज मात्र 8 प्रतिशत के करीब रह गई है। इस अवधि में बांग्लादेश की कुल आबादी तकरीबन सवा तीन गुना बढ़ चुकी है। न्यूयार्क स्टेट यूनिवर्सिटी की शोधकर्ता शची दस्तीदार ने 2008 में किए गए अपने शोध में पाया था कि 4 करोड़ 90 लाख हिंदू बांग्लादेश से गायब हो चुके हैं। धार्मिक आधार पर उत्पीड़न की ऐसी दूसरी मिसाल नहीं है। जाहिर है या तो इन हिंदुओं को मार डाला गया या धर्म परिवर्तन या फिर पलायन के लिए मजबूर कर दिया गया।*

*🚩अफगानिस्तान में 2500 हिंदू बचे हैं*

*★ यही हाल अफगानिस्तान में हुआ, जहां 1970 के दशक में हिंदू और सिखों की जनसंख्या सात लाख हुआ करती थी। यह वर्तमान में घटकर मात्र 2500 रह गई है। पिछले तीन दशक में 90 फीसदी सिख और हिंदू अफगानिस्तान छोड़ कर भाग चुके हैं और बाकी इस्लामिक कट्टरपंथीयों का निशाना बन चुके हैं।*

*🚩पाक में हिंदू 15% से 1.5% हो गए*

*★ पाकिस्तान में भी हालात कुछ अलग नहीं हैं। 1947 में बंटवारे के समय वहां हिंदुओं की जनसंख्या 15 प्रतिशत थी जो आज मात्र डेढ़-दो प्रतिशत रह गई है। अब जरा इसकी तुलना भारत से कीजिए। 1951 से 2011 के बीच मुसलमानों की जनसंख्या में भागीदारी 9.6 प्रतिशत से बढ़कर 14.2 प्रतिशत हो गई, जबकि हिंदुओं की जनसंख्या का प्रतिशत 84.1 प्रतिशत से घटकर 78.6 हो गया।*

*🚩गैर-मुस्लिमों को देशों को छोड़कर भागने के अलावा कोई चारा नहीं था*

*★ आखिर नागरिकता कानून को भेदभाव भरा बताने वाले यह क्यों नहीं देख रहे कि पाकिस्तान, बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के साथ ऐसा क्या किया जा रहा कि वे लाखों की संख्या में गायब होते जा रहे हैं? इसे बंटवारे के बाद पाकिस्तान के कश्मीर पर हुए हमले के दौरान उसके कब्जे में आए शहरों में हुए घटनाक्रम से आसानी से समझा जा सकता है। पीओके के मीरपुर जिले की हिंदू आबादी तकरीबन 10000 थी जो शरणार्थियों के आने के चलते 25000 तक बढ़ गई थी। इनमें से मात्र 2000 लोग ही जीवित भारत पहुंच पाए। सैकड़ों की संख्या में अपहृत हिंदू महिलाओं को झेलम, रावलपिंडी और पेशावर में बेच दिया गया। पाकिस्तान, बांग्लादेश में आज भी गैर-मुस्लिमों पर हमले बेहद आम हैं। स्थितियां ऐसी बन चुकी हैं कि गैर मुस्लिमों के पास इन देशों को छोड़कर भागने या इस्लाम को कुबूल करने या फिर जानवरों जैसा जीवन जीने और मारे जाने के अलावा कोई चारा नही। इसका एक प्रमाण पाकिस्तान के हिंदू क्रिकेटर दानिश कनेरिया हैं, जिनके बारे में शोएब अख्तर ने यह खुलासा कर चौंकाया कि साथी खिलाड़ी उनके साथ खाना खाना पसंद नहीं करते थे।*

*🚩पाक में हर साल 1000 हिंदू लड़कियों का अपहरण*

*★ मानवाधिकार संगठनों और पाक मीडिया की मानें तो पाकिस्तान में हर साल तकरीबन 1000 हिंदू लडकियों का अपहरण कर लिया जाता है और अपहरणकर्ता जबरन उनका धर्म बदलवा कर उनसे शादी कर लेते हैं। इनमें बड़ी तादाद नाबालिग लड़कियों की होती है। पाकिस्तानी महिला पत्रकार आयशा असगर की मानें तो पाकिस्तान में हर महीने 20-25 हिंदू और ईसाई लड़कियां बलात्कारियों का शिकार बनती हैं। स्थितियां इतनी विकट हैं कि पेशावर जैसे इलाकों में हिंदू और सिख शवों का दाहकर्म न कर पाने के कारण उन्हें दफनाने के लिए मजबूर हैं। हिंदू मंदिरों और गुरूद्वारों पर हमले होते ही रहते हैं।*

*🚩5000 हिंदू हर साल भारत पलायन कर रहे हैं*

*★ पाकिस्तान हिंदू कांउसिल की मानें तो धार्मिक उत्पीड़न के चलते 5000 हिंदू हर साल भारत पलायन कर रहे हैं। 1947 में बंटवारे के बाद पाकिस्तान में बचे हिंदुओं में से ज्यादातर दलित और आदिवासी हैं, जिन्हें पाकिस्तान सरकार ने भारत नहीं आने दिया था। पाकिस्तान में भारत के पहले उच्चायुक्त श्रीप्रकाश अपने संस्मरणों में लिखते हैं कि जब उन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली से प्रार्थना की कि इन लोगों को भारत जाने दिया जाए तो लियाकत ने जवाब दिया कि अगर इन्हें जाने दिया तो कराची की गलियां और शौचालय कौन साफ करेगा?*

*🚩पाक के कानून मंत्री जोगेंद्रनाथ को भारत में शरण लेनी पड़ी थी*

*★ पाकिस्तान में दलितों की दुर्दशा का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री बनने वाले दलित नेता जोगेंद्रनाथ मंडल तक को भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी थी। पाकिस्तान से भारत भाग कर आ रहे हिंदुओं में ज्यादातर संख्या दलितों और आदिवासियों की है, लेकिन कई दलित नेता भी नागरिकता कानून के विरोध में जुटे हुए हैैं। आखिर इन्हें दलित हितैषी कैसे कहें?*


*🚩मुस्लिमों और गैर-मुस्लिमों से समानता का व्यवहार नहीं किया जा सकता*

*★ सीएए के जो आलोचक यह कहते हैं कि यह धर्म के आधार पर भेदभाव कर समानता के अधिकार का हनन करता है, वे यह भूल जाते हैं कि भारतीय संविधान युक्तियुक्त वर्गीकरण की अनुमति देता है। समानता का संवैधानिक सिद्धांत यह है कि असमान परिस्थिति वाले समूहों के साथ समानता का व्यवहार असमानता उत्पन्न करता है। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में मुसलमानों का धर्म राज्य द्वारा संरक्षित है जबकि इस्लाम से इतर किसी धर्म को कोई संरक्षण नहीं है। इसीलिए वहां से आने वाले मुस्लिमों और गैर-मुस्लिमों से समानता का व्यवहार नहीं किया जा सकता।*
*लेखक - दिव्य कुमार सोती*

*🚩इन तथ्यों को जानकर भी अगर दलित हिंदू जातिवाद में लड़ते रहे तो फिर मुस्लिम और ईसाई लोग उनको अपना शिकार बना देंगे और फिर वे सदा के लिए मानसिक गुलाम बना दिया जाएगा अतः जाति-पाती में नहीं बंटकर एक बने रहें।*

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Monday, January 6, 2020

1125 विद्यालयों से सुप्रीम कोर्ट प्रार्थना हटा देगी ?



06 जनवरी 2020

*🚩सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ अब इस पर विचार करेगी कि केंद्रीय विद्यालयों में बच्चों को संस्कृत में प्रार्थना करना उचित है या नहीं ? असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय और कुछ अन्य प्रार्थनाओं पर आपत्ति जताने वाली याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश आरएफ नरीमन ने कहा, चूंकि असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय जैसी प्रार्थना उपनिषद से ली गई है इसलिए उस पर आपत्ति की जा सकती है और इस पर संविधान पीठ विचार कर सकती है । क्या इसका यह मतलब है कि उपनिषद अपने आप में आपत्तिजनक स्रोत हैं और उनसे बच्चों को जोड़ना या पढ़ाना उपयुक्त नहीं है ? शोपेनहावर, मैक्स मूलर या टॉल्सटॉय जैसे महान विदेशी विद्वानों ने भी यह सुनकर अपना सिर पीट लिया होता कि भारत में असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय जैसी प्रार्थना पर आपत्ति की जा रही है । इस आपत्ति पर भारतीय मनीषियों का दुःखी और चकित होना स्वाभाविक है । उपनिषदों को मानवता की सर्वोच्च ज्ञान-धरोहर माना जाता है । वास्तविक विद्वत जगत में यह इतनी जानी-मानी बात है कि उसे लेकर दिखाई जा रही अज्ञानता पर हैरत होती है । मैक्स वेबर जैसे आधुनिक समाजशास्त्री ने म्यूनिख विश्वविद्यालय में अपने प्रसिद्ध व्याख्यान पॉलिटिक्स एज ए वोकेशन में कहा था कि राजनीति और नैतिकता के संबंध पर संपूर्ण विश्व साहित्य में उपनिषद जैसा व्यवस्थित चिंतन स्रोत नहीं है ।* 

*🚩आज यदि डॉ. भीमराव आंबेडकर होते तो उन्होंने भी माथा ठोक लिया होता । ध्यान रहे कि मूल संविधान के सभी अध्यायों की चित्र-सज्जा रामायण और महाभारत के विविध प्रसंगों से की गई थी । ठीक उन्हीं विषयों की पृष्ठभूमि में, जिन पर संविधान के विविध अध्याय लिखे गए । उस मूल संविधान पर संविधान सभा के 284 सदस्यों के हस्ताक्षर हैं । दिल्ली के तीन-मूर्ति पुस्तकालय में उसे देखा जा सकता है । उपनिषद जैसे विशुद्ध ज्ञान-ग्रंथ तो छोड़िए, धर्म-ग्रंथ कहे जाने वाले रामायण और महाभारत को भी संविधान निर्माताओं ने त्याज्य या संदर्भहीन नहीं समझा था । उनके उपयोग से कराई गई सज्जा का आशय ही इन ग्रंथों को अपना आदर्श मानना था ।*

*🚩संविधान के भाग-3 यानी सबसे महत्वपूर्ण समझे जाने वाले मूल अधिकार वाले अध्याय की सज्जा भगवान राम, सीता और लक्ष्मण से की गई है । अगले महत्वपूर्ण अध्याय भाग-4 की सज्जा में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को गीता का उपदेश दिए जाने का दृश्य है । यहां तक कि संविधान के भाग-5 की सज्जा ठीक उपनिषद के दृश्य से की गई है जिसमें ऋषि के पास शिष्य बैठकर ज्ञान ग्रहण करते दिख रहे हैं । यह सब महज सजावटी चित्र नहीं थे, बल्कि उन अध्यायों की मूल भावना (मोटिफ) के रूप में सोच-समझ कर दिए गए थे । इस पर कभी कोई मतभेद नहीं रहा ।*

*🚩शायद आज हमारे न्यायविदों को भी इस तथ्य की जानकारी नहीं है कि मूल संविधान हिंदू धर्मग्रंथों के मोटिफ से सजाया गया था । इसे उस समय के महान चित्रकार नंदलाल बोस ने बनाया था, जिन्होंने कविगुरु रबींद्रनाथ टैगोर से शिक्षा पाई थी । लगता है कि बहुतेरे वकील भी यह नहीं जानते कि संविधान की मूल प्रस्तावना में सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द नहीं थे । इन्हें इंदिरा गांधी की ओर से थोपे गए आपातकाल के दौरान छल-बल पूर्वक घुसा दिया गया था ।*

*🚩हमारे अज्ञान का जैसा विकास हो रहा है, उसे देखते हुए  हैरत नहीं कि मूल संविधान की उस सज्जा पर भी आपत्ति सुनने को मिले और उस पर न्यायालय विचार करता दिखे । ऐसे तर्क दिए जा सकते हैं कि एक सेक्युलर संविधान में हिंदू धर्म-ग्रंथों का मोटिफ क्यों बने रहना चाहिए ? उन सबको हटाकर संविधान को सभी धर्म के नागरिकों के लिए सम-दर्शनीय किस्म की कानूनी किताब बना देना चाहिए । आखिर, जब उपनिषद को ही आपत्तिजनक माना जा रहा है तब राम और कृष्ण तो हिंदुओं के साक्षात् भगवान ही हैं । ऐसी स्थिति में संविधान में उनका चित्र होना सेक्युलरिज्म के आदर्श के लिए निहायत नाराजगी की बात हो सकती है । यह संपूर्ण प्रसंग हमारी भयंकर शैक्षिक दुर्गति को दिखाता है । स्कूल-कॉलेजों से लेकर विश्वविद्यालयों तक की शिक्षा में हमारी महान ज्ञान-परंपरा को बाहर रखने से ही यह स्थिति बनी है । हमारे बड़े-बड़े लोग भी भारत की विश्व प्रसिद्ध सांस्कृतिक विरासत से परिचित तक नहीं हैं । उपनिषद जैसे शुद्ध ज्ञान-ग्रंथ को मजहबी मानना अज्ञानता को दिखाता है । जबकि रामायण को भी मजहबी नहीं, वैश्विक सांस्कृतिक धरोहर माना जाता है । तभी इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम देश रामलीला का नाट्य राष्ट्रीय उत्साह से करते हैं ।*

*🚩अभी जो स्थिति है उसमें संविधान पीठ इस आपत्ति को संभवत: खारिज कर देगी । इस पर देश-विदेश में होने वाली कड़ी प्रतिक्रियाओं से उन्हें समझ में आ जाएगा कि उन्होंने किस चीज पर हाथ डाला है । पर यह अपने आप में कोई संतोष की बात नहीं । यदि हमारी दुर्गति यह हो गई कि हमारे एलीट अपनी महान ज्ञान-परंपरा से ही नहीं, बल्कि अपने हालिया संविधान की भावना तक से लापरवाह हो गए हैं तो हमारी दिशा निश्चित रूप से गिरावट की ओर ही है । तब यह केवल समय की बात है कि संविधान, कानून और शिक्षा को और भी गिरा डाला जाएगा ।*

*🚩भारत में यहां के मूल धर्म-ज्ञान-संस्कृति परंपरा के विरोध का मूल कारण हिंदू-विरोध में है । इस प्रसंग को राष्ट्रवादी जितना ही भुला दें, उन्हें समझना चाहिए कि सदैव अपनी पार्टी, चुनाव और सत्ता के मद में डूबे रहने से भारतीय धर्म-संस्कृति और शिक्षा की कितनी गंभीर हानि होती गई है । उन्हें इसकी कभी परवाह नहीं रही । आज जो सरकारी स्कूलों में उपनिषद पढ़ाने पर आपत्ति कर रहे हैं, कल को वे रामायण, महाभारत और उपनिषद को सरकारी पुस्तकालयों से भी हटाने की मांग करने लगें तो हैरत नहीं । इस दुर्गति तक पहुंचनेे में हमारे सभी दलों का समान योगदान है । उनका भी जिन्होंने अज्ञान और वोट-बैंक के लालच में हिंदू-विरोधियों की मांगों को दिनोंदिन स्वीकार करते हुए संविधान तथा शिक्षा को हिंदू-विरोधी दिशा दी । साथ ही उनका भी जिन्होंने उतने ही अज्ञान और भयवश उसे चुपचाप स्वीकार किया । केवल सत्ताधारी को हटाकर स्वयं सत्ताधारी बनने की जुगत में लगे रहे । यही करते हुए पिछले छह-सात दशक बीते हैं, और हमारी शिक्षा-संस्कृति, कानून और राजनीति की दुर्गति होती गई है । केवल देश के आर्थिक विकास पर सारा ध्यान रखते हुए तमाम बौद्धिक विमर्श ने भी वही वामपंथी अंदाज अपनाए रखा ।*

*🚩इसी का लाभ उठाते हुए हिंदू-विरोधी मतवादों ने स्वतंत्र भारत में धीरे-धीरे सांस्कृतिक, शैक्षिक, वैचारिक क्षेत्र पर चतुराई पूर्वक अपना शिकंजा कसा । उन्होंने कभी गरीबी, विकास, बेरोजगारी, जैसे मुद्दों की परवाह नहीं की । अनुभवी और दूरदर्शी होने के कारण उन्होंने सदैव बुनियादी विषयों पर ध्यान रखा । यही कारण है कि आज भारत का मध्यवर्ग दिनोंदिन अपने से ही दूर होता जा रहा है । इसी को विकास व उन्नति मान रहा है। केवल समय की बात होगी कि विशाल ग्रामीण, कस्बाई समाज भी उन जैसा हो जाएगा, क्योंकि जिधर बड़े लोग जाएं, पथ वही होता है । जिन्हें इस पर चिंता हो उन्हें इसे दलीय नहीं, राष्ट्रीय विषय समझना चाहिए । तदनुरूप विचार करना चाहिए । अन्यथा वे इसके समाधान का मार्ग कभी नहीं खोज पाएंगे । दलीय पक्षधरता का दुष्चक्र उन्हें अंतत: दुर्गति दिशा को ही स्वीकार करने पर विवश करता रहेगा । जो अब तक होता रहा है और जिसका दुष्परिणाम यह दु:खद प्रसंग है। - डॉ. शंकर शरण*

*🚩केंद्रीय विद्यालयों में जो बच्चें प्रार्थना करते है वे केवल हिंदूओ के लिए ही नहीं बल्कि सभी मनुष्यों के लिए परम् हितकारी है ।*
*प्रार्थना है...*
*असतो मा सदगमय ॥*
*तमसो मा ज्योतिर्गमय ॥*
*मृत्योर्मामृतम् गमय ॥*
*इसका हिन्दू में अर्थ है कि*
*हे प्रभु! हमें असत्य से सत्य की ओर ले चलो ।अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो ।। मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो ॥*

*अब ऐसा कौन मनुष्य होगा जो सत्य की तरफ, प्रकाश की तरफ ओर अमरता की तरफ नहीं जाना चाहता होगा ? फिर भी इन्हें इस संस्कृत प्रार्थना में हिन्दू धर्म का प्रचार दिखता है !*

*🚩ईसाइयों के कॉन्वेंट स्कूलों में जो उनकी की प्रार्थना करवाई जाती है उसपर उन्हें कोई आपत्ति नहीं है, मदरसों में कुरान पढ़ाई जाती है उसपर उनको कोई आपत्ति नही है। बस हिन्दू धर्म को नष्ट करने के सपने देखते रहते हैं ।*

*भारत को आजादी धर्म के बँटवारे से मिली है परन्तु आज यह लगता है भारत में हिन्दूओं को अभी आजादी  नहीं मिली है ।*

*🚩अपनी संस्कृति पर हो रहे कुठाराघात को रोकने के लिए हिंदुस्तानियों को संगठित होकर आवाज उठानी चाहिए ।*


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