Monday, May 25, 2020

गुरु अर्जुन देवजी सबसे पहले शहीद हुए थे, उसके बाद मुगलो का विनाश शुरू हो गया...

25 मई 2020

🚩शक्ति और शांति के पुंज, शहीदों के सरताज, सिखों के पांचवें गुरु श्री अर्जुन देव जी कि शहादत अतुलनीय है। मानवता के सच्चे सेवक, धर्म के रक्षक, शांत और गंभीर स्वभाव के स्वामी श्री गुरु अर्जुन देव जी अपने युग के सर्वमान्य लोकनायक थे। वह दिन-रात संगत कि सेवा में लगे रहते थे। श्री गुरु अर्जुन देव जी सिख धर्म के पहले शहीद थे।

🚩भारतीय दशगुरु परम्परा के पंचम गुरु श्री गुरु अर्जुनदेव जी गुरु रामदास के सुपुत्र थे। उनकी माता का नाम बीवी भानी जी था। उनका जन्म 15 अप्रैल, 1563 ई. को हुआ था। प्रथम सितंबर 1581 को वे गुरु गद्दी पर विराजित हुए। 8 जून 1606 को उन्होंने धर्म व सत्य कि रक्षा के लिए 43 वर्ष की आयु में अपने प्राणों की आहुति दे दी। 

🚩संपादन कला के गुणी गुरु अर्जुन देव जी ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का संपादन भाई गुरदास की सहायता से किया। उन्होंने रागों के आधार पर श्री ग्रंथ साहिब जी में संकलित वाणियों का जो वर्गीकरण किया है, उसकी मिसाल मध्यकालीन धार्मिक ग्रंथों में दुर्लभ है। यह उनकी सूझ-बूझ का ही प्रमाण है कि श्री ग्रंथ साहिब जी में 36 महान वाणीकारों की वाणियां बिना किसी भेदभाव के संकलित हुई। श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के कुल 5894 शब्द हैं, जिनमें 2216 शब्द श्री गुरु अर्जुन देव जी महाराज के हैं। पवित्र बीड़ रचने का कार्य सम्वत 1660 में शुरू हुआ तथा 1661 में यह कार्य संपूर्ण हो गया।
🚩ग्रंथ साहिब के संपादन को लेकर कुछ असामाजिक तत्वों ने अकबर बादशाह के पास यह शिकायत कि, की ग्रंथ में इस्लाम के खिलाफ लिखा गया है लेकिन बाद में जब अकबर को वाणी की महानता का पता चला, तो उन्होंने भाई गुरदास एवं बाबा बुढ्ढाके माध्यम से 51 मोहरें भेंट कर खेद ज्ञापित किया।

🚩अकबर कि मौत के बाद उसका पुत्र जहांगीर गद्दी पर बैठा जो बहुत ही कट्टर विचारों वाला था। अपनी आत्मकथा ‘तुजुके-जहांगीरी’ में उसने स्पष्ट लिखा है कि वह गुरु अर्जुन देव जी के बढ़ रहे प्रभाव से बहुत दुखी था। इसी दौरान जहांगीर का पुत्र खुसरो बगावत करके आगरा से पंजाब की ओर आ गया।

🚩जहांगीर को यह सूचना मिली थी कि गुरु अर्जुन देव जी ने खुसरो की मदद की है इसलिए उसने 15 मई 1606 ई. को गुरु जी को परिवार सहित पकड़ने का हुक्म जारी किया। उनका परिवार मुरतजाखान के हवाले कर घरबार लूट लिया गया। इसके बाद गुरु जी ने शहीदी प्राप्त की। अनेक कष्ट झेलते हुए गुरु जी शांत रहे, उनका मन एक बार भी कष्टों से नहीं घबराया।

🚩गुरु अर्जुन देव जी को लाहौर में 17 जून 1606 ई. को भीषण गर्मी के दौरान ‘यासा’ के तहत लोहे कि गर्म तवी पर बिठाकर शहीद कर दिया गया। यासा के अनुसार किसी व्यक्ति का रक्त धरती पर गिराए बिना उसे यातनाएं देकर शहीद कर दिया जाता है।

🚩गुरु जी के शीश पर गर्म-गर्म रेत डाली गई। जब गुरु जी का शरीर अग्नि के कारण बुरी तरह से जल गया तो इन्हें ठंडे पानी वाले रावी दरिया में नहाने के लिए भेजा गया जहां गुरु जी का पावन शरीर रावी में आलोप हो गया। जिस स्थान पर आप ज्योति ज्योत समाए उसी स्थान पर लाहौर में रावी नदी के किनारे गुरुद्वारा डेरा साहिब (जो अब पाकिस्तान में है) का निर्माण किया गया है। गुरुजी ने लोगों को विनम्र रहने का संदेश दिया। आप विनम्रता के पुंज थे। कभी भी आपने किसी को दुर्वचन नहीं बोले।

🚩गुरवाणी में आप फरमाते हैं :
‘तेरा कीता जातो नाही मैनो जोग कीतोई॥
मै निरगुणिआरे को गुण नाही आपे तरस पयोई॥
तरस पइया मिहरामत होई सतगुर साजण मिलया॥
नानक नाम मिलै ता जीवां तनु मनु थीवै हरिया॥’


🚩श्री गुरु अर्जुनदेव जी की शहादत के समय दिल्ली में मध्य एशिया के मुगल वंश के जहांगीर का राज था और उन्हें राजकीय कोप का ही शिकार होना पड़ा। जहांगीर ने श्री गुरु अर्जुनदेव जी को मरवाने से पहले उन्हें अमानवीय यातानाएं दी।

🚩मसलन चार दिन तक भूखा रखा गया। ज्येष्ठ मास की तपती दोपहर में उन्हें तपते रेत पर बिठाया गया। उसके बाद खौलते पानी में रखा गया। परन्तु श्री गुरु अर्जुनदेव जी ने एक बार भी उफ तक नहीं की और इसे परमात्मा का विधान मानकर स्वीकार किया।

🚩बाबर ने तो श्री गुरु नानक जी को भी कारागार में रखा था। लेकिन श्री गुरु नानकदेव जी ने तो पूरे देश में घूम-घूम कर हताश हुई जाति में नई प्राण चेतना फूंक दी। जहांगीर के अनुसार उनका परिवार मुरतजाखान के हवाले कर लूट लिया गया। इसके बाद गुरु जी ने शहीदी प्राप्त की। अनेक कष्ट झेलते हुए गुरु जी शांत रहे, उनका मन एक बार भी कष्टों से नहीं घबराया।

🚩तपता तवा उनके शीतल स्वभाव के सामने सुखदाई बन गया। तपती रेत ने भी उनकी निष्ठा भंग नहीं की। गुरु जी ने प्रत्येक कष्ट हंसते-हंसते झेलकर यही अरदास की-

🚩तेरा कीआ मीठा लागे॥ हरि नामु पदारथ नाटीयनक मांगे॥

🚩जहांगीर द्वारा श्री गुरु अर्जुनदेव जी को दिए गए अमानवीय अत्याचार और अन्त में उनकी मृत्यु जहांगीर की योजना का हिस्सा थी। श्री गुरु अर्जुनदेव जी जहांगीर की असली योजना के अनुसार ‘इस्लाम के अन्दर’ तो क्या आते, इसलिए उन्होंने विरोचित शहादत के मार्ग का चयन किया। इधर जहांगीर कि आगे की तीसरी पीढ़ी या फिर मुगल वंश के बाबर की छठी पीढ़ी औरंगजेब तक पहुंची। उधर श्री गुरुनानकदेव जी की दसवीं पीढ़ी श्री गुरु गोविन्द सिंह तक पहुंची। 

🚩यहां तक पहुंचते-पहुंचते ही श्री नानकदेव की दसवीं पीढ़ी ने मुगलवंश की नींव में डायनामाईट रख दिया और उसके नाश का इतिहास लिख दिया।

🚩संसार जानता है कि मुट्ठी भर मरजीवड़े सिंघ रूपी खालसा ने 700 साल पुराने विदेशी वंशजों को मुगल राज सहित सदा के लिए ठंडा कर दिया।

🚩100 वर्ष बाद महाराजा रणजीत सिंह के नेतृत्व में भारत ने पुनः स्वतंत्रता कि सांस ली। शेष तो कल का इतिहास है लेकिन इस पूरे संघर्षकाल में पंचम गुरु श्री गुरु अर्जुनदेव जी कि शहादत सदा सर्वदा सूर्य के ताप की तरह प्रखर रहेगी।

🚩गुरु जी शांत और गंभीर स्वभाव के स्वामी थे। वे अपने युग के सर्वमान्य लोकनायक थे । मानव-कल्याण के लिए उन्होंने आजीवन शुभ कार्य किए।

🚩गुरु जी के शहीदी पर्व पर उन्हें याद करने का अर्थ है धर्म कि रक्षा आत्म-बलिदान देने को भी तैयार रहना। उन्होंने संदेश दिया कि महान जीवन मूल्यों के लिए आत्म-बलिदान देने को सदैव तैयार रहना चाहिए, तभी कौम और राष्ट्र अपने गौरव के साथ जीवंत रह सकते हैं।

🚩आज भी हिन्दू संतो को सताया जा रहा है, कहि हत्या की जा रही है तो कहि झूठे केस बनाकर जेल भिजवाया जा रहा है ऐसा लग रहा है कि अभी भी मुगल काल चल रहा है जो साधु-संत ईसाई धर्मान्तरण रोकते है, विदेशी प्रोडक्ट बन्द करवाकर स्वदेशी अपनाने के लिए करोड़ो लोगो को प्रेरित करते है, विदेशों में जाकर हिन्दू धर्म की महिमा बताते है, करोड़ो लोगों का व्यसन छुड़वाते है, करोड़ो लोगो को सनातन हिन्दू संस्कृति के प्रति प्रेरित करते हैं, जन-जागृति लाते है, गरीबों में जाकर जीवनुपयोगी वस्तुओं का वितरण करते है, गौशालायें खोलते है उन महान संतो को विदेशी ताकतों के इशारे पर मीडिया द्वारा बदनाम करवाकर झूठे केस में जेल भिजवाया जा रहा है इससे साफ पता चलता है कि मुगल तो गये लेकिन आज भी उनकी नस्ले देश में है जो ये षड्यंत्र करवा रही है।

🚩वर्तमान में भी हिन्दू समाज को जगे रहना जरूरी है नही तो विदेशी ताकते देश को गुलाम बनाने कि ताक में बैठी है।


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Sunday, May 24, 2020

जानिए औरंगजेब व मुगल साम्राज्य को कैसे खत्म किया वीर छत्रसाल ने?

24 मई 2020

🚩झाँसी के आसपास उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश की विशाल सीमाओं में फैली बुन्देलखण्ड की वीर भूमि में  ज्येष्ठ शुक्ल 3,विक्रम संवत 1706 (3/6/1649) को चम्पतराय और लालकुँवर के घर में वीर छत्रसाल का जन्म हुआ था। चम्पतराय सदा अपने क्षेत्र से मुगलों को खदेड़ने के प्रयास में लगे रहते थे। अतः छत्रसाल पर भी बचपन से इसी प्रकार के संस्कार पड़ गये।

🚩छत्रसाल भारत की मुक्ति चाहते थे-

शाहजहां के कुशासन की प्रतिक्रिया स्वरूप छत्रसाल का जन्म हुआ। जब उस महायोद्घा ने देखा कि लोग एक रोटी के लिए भी अपना जीवन बेच देना चाहते हैं, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि छत्रसाल जैसे देशभक्तों के हृदयों में आग न लगी हो ? आग लगी और इतनी तेज लगी कि संपूर्ण तंत्र को ही भस्मीभूत करने के लिए प्रचण्ड हो उठी।

🚩इसी तेज पुंज छत्रसाल को राजा सुजानसिंह की मृत्यु के उपरांत उसके भाई इंद्रमणि ने ओरछा की गद्दी संभालने के पश्चात 1674-1676 के मध्य अपनी सहायता देना बंद कर दिया, तो इस शासक के बहुत बड़े क्षेत्र को जीतकर छत्रसाल ने अपने राज्य में मिला लिया। तब इंद्रमणि पर छत्रसाल ने अपना शिकंजा कसना आरंभ किया तो वह भयभीत हो गया और उसने शीघ्र ही छत्रसाल के साथ संधि कर ली। उसने छत्रसाल को मुगलों के विरूद्घ सहायता देने का भी वचन दिया।

🚩तहवर खां को किया परास्त-

1679 ई. में औरंगजेब ने अपने चिरशत्रु शत्रुसाल (छत्रसाल) का मान मर्दन करने के लिए अपने बहुत ही विश्वसनीय योद्घा तहवर खां को विशाल सेना के साथ भेजा। छत्रसाल इस समय संडवा बाजने में अपनी स्वयं की वर यात्रा लेकर आये हुए थे। उस समय उनकी भंवरी पड़ रही थी, तो तहवर खां ने उसी समय उन्हें घेर लिया। छत्रसाल के विश्वसनीय साथी बलदीवान ने तहवर खां से टक्कर ली। भंवरी पड़ चुकने पर छत्रसाल ने तहवरखां की सेना के पृष्ठ भाग पर आक्रमण कर दिया और जब तक तहवरखां इस सच से परिचित होता कि उसकी सेना के पृृष्ठ भाग पर मार करने वाला योद्घा ही छत्रसाल है, तब तक छत्रसाल ने तहवरखां को भारी क्षति पहुंचा दी थी।

🚩जब तहवरखां अपनी सेना के पृष्ठ भाग की रक्षार्थ उस ओर चला तो बलदीवान भी उसके पीछे-पीछे चल दिया। रामनगर की सीमा में छत्रसाल की सेना से तहवरखां का सामना हो गया। अब सामने से छत्रसाल की सेना और पीछे से बल दीवान की सेना ने तहवरखां की सेना को मारना आरंभ कर दिया। अंत में तहवरखां वीरगढ़ की मुगल सैनिक चौकी की ओर भाग लिया। पर यह क्या? उसे तो छत्रसाल के सैनिक पहले ही नष्ट कर चुके थे। अब तो वह और भी कठिनाई में फंस गया। वीरगढ़ में उसे ऐसा लगा कि छत्रसाल की सेना मुगलों के भय से भागती फिर रही है तो उसने छत्रसाल का पीछा करना चाहा। उसे सूचना मिली कि छत्रसाल टोकरी की पहाड़ी पर छुपा है। तब वह उसी ओर चल दिया। उधर बलदीवान वीरगढ़ के पास छिपा सारी वस्तुस्थिति पर दृष्टि गढ़ाये बैठा था, उसे जैसे ही ज्ञात हुआ कि तहवरखां टोकरी की ओर बढ़ रहा है तो वह भी तुरंत उसी ओर चल दिया। छत्रसाल और बलदीवान शत्रु को इसी पहाड़ी पर ले आना चाहते थे क्योंकि यहां शत्रु को निर्णायक रूप से परास्त किया जा सकता था।

🚩यहां से बलदीवान ने एक सैनिक टुकड़ी छत्रसाल की सहायतार्थ भेजी। उसने स्वयं ने मुगलों को ऊपर न चढ़ने देने के लिए उनसे संघर्ष आरंभ कर दिया। यहां पर छत्रसाल की सेना के हरिकृष्ण मिश्र नंदन छीपी और कृपाराम जैसे कई वीरों ने अपना बलिदान दिया। पर उनका यह बलिदान व्यर्थ नहीं गया । कुछ ही समयोपरांत मुगल सेना भागने लगी। हमीरपुर के पास उस सेना का सामना छत्रसाल से हुआ तो तहवरखां को निर्णायक रूप से परास्त कर दिया गया। तहवरखां को अपने स्वामी औरंगजेब को मुंह दिखाने का भी साहस नहीं हुआ।

🚩कालिंजर विजय-

मुगल सत्ता व शासकों के पापों का प्रतिशोध लेता छत्रसाल अपनी नवविवाहिता पत्नी के साथ कालिंजर की ओर बढ़ा तो वहां के दुर्ग के मुगल दुर्ग रक्षक करम इलाही के हाथ-पांव फूल गये । कालिंजर का दुर्ग बहुत महत्वपूर्ण था । छत्रसाल ने 18 दिन के घेराव और संघर्ष के पश्चात अंत में इसे भी अपने अधिकार में ले ही लिया । दुर्ग पर छत्रसाल का भगवाध्वज फहर गया । इस युद्घ में बहुत से बुंदेले वीरों का बलिदान हुआ, पर उस बात की चिंता किसी को नहीं थी ।

🚩कालिंजर विजय की प्रसन्नता में बलिदान सार्थक हो उठे । सभी ने अपने वीरगति प्राप्त साथियों के बलिदानों को नमन किया और उनके द्वारा दिखाये गये मार्ग पर चलने की प्रतिज्ञा भी की । यहीं से छत्रसाल को लोगों ने 'महाराजा' कहना आरंभ किया । ये कालिंजर की महत्ता का ही प्रमाण है कि लोग अब छत्रसाल को 'महाराजा' कहने में गौरव अनुभव करने लगे। छत्रसाल महाराजा के इस सफल प्रयास से मुगल सत्ता को उस समय कितनी ठेस पहुंची होगी?-यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है ।

🚩छत्रसाल को घेरने की तैयारी होने लगी-

अब छत्रसाल की ख्याति इतनी बढ़ चुकी थी कि उनसे ईर्ष्या करने वाले या शत्रुता मानने वाले मुगल शासकों तथा उनके चाटुकार देशद्रोही 'जयचंदों' ने उन्हें घेरने का प्रयास करना आरंभ कर दिया । औरंगजेब के लिए यह अत्यंत लज्जाजनक स्थिति थी कि छत्रसाल जैसा एक युवक उसी की सेना से निकलकर उसी के सामने छाती तानकर खड़ा हो जाए और मिट्टी में से रातों रात एक साम्राज्य खड़ा करने में सफल हो जाए। विशेषत: तब जबकि यह साम्राज्य उसी के साम्राज्य को छिन्न-भिन्न करके तैयार किया जा रहा था ।

🚩छत्रसाल ने भी स्थिति को समझ लिया था। डा. भगवानदास गुप्त 'महाराजा छत्रसाल बुंदेला' में लिखते हैं कि-''छत्रसाल ने ऐसी परिस्थितियों में दूरदृष्टि का परिचय देते हुए औरंगजेब के पास अपने कार्यों की क्षमायाचना का एक पत्र लिखा। वास्तव में यह पत्र उन्होंने मुगलों को धोखे में डालने के लिए नाटकमात्र किया था। जिससे मुगल कुछ समय के लिए भ्रांति में रह जाएं और उन्हें अपनी तैयारियां करने का अवसर मिल जाए। क्योंकि छत्रसाल यह जान गये थे कि अब जो भी युद्घ होगा वह बड़े स्तर पर होगा। बुंदेलखण्ड की मिट्टी में रहकर किसी के लिए यह संभव ही नही था कि वह वहां स्वतंत्रता के विरूद्घ आचरण करे। इस मिट्टी में स्वतंत्रता की गंध आती थी और उस सौंधी सौंधी गंध को पाकर लोग वीरता के रस से भर जाते थे। छत्रसाल के साथ भी ऐसा ही होता था।''

🚩स्वामी प्राणनाथ और छत्रसाल-

स्वामी प्राणनाथ छत्रसाल के आध्यात्मिक गुरू थे-उन्होंने अपने प्रिय शिष्य के भीतर व्याप्त स्वतंत्रता और स्वराज्य के अमिट संस्कारों को और भी प्रखर कर दिया और उन्हें गतिशील बनाकर इस प्रकार सक्रिय किया कि संपूर्ण बुंदेलखण्ड ही नहीं, अपितु तत्कालीन हिंदू समाज भी उनसे प्राण ऊर्जा प्राप्त करने लगा। स्वामी प्राणनाथ और छत्रसाल का संबंध वैसा ही बन गया जैसा कि छत्रपति शिवाजी महाराज और समर्थ गुरू रामदास का संबंध था। स्वामी प्राणनाथ का उस समय हिन्दू समाज में अच्छा सम्मान था।

🚩साम्राज्य निर्माता छत्रसाल-

इसके पश्चात छत्रसाल ने जलालखां नामक एक सरदार का सामना किया और उसे बेतवा के समीप परास्त कर उससे 100 अरबी घोड़े, 70 ऊंट तथा 13 तोपें प्राप्त कीं । इसी प्रकार जब औरंगजेब द्वारा बारह हजार घुड़सवारों की सेना अनवर खां के नेतृत्व में 1679 ई. में भेजी गयी तो उसे भी छत्रसाल ने परास्त कर दिया ।

🚩इस प्रकार की अनेकों विजयों से तत्कालीन भारत के राजनीतिक गगन मंडल पर छत्रसाल ने जिस वीरता और साहस के साथ अपना साम्राज्य खड़ा किया उसने उनके नाम को इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर सदा-सदा के लिए अमर कर दिया । उनका पुरूषार्थ भारत के इतिहास के पृष्ठों को उनकी कान्ति से इस प्रकार महिमामंडित और गौरवान्वित कर गया कि लोग आज तक उन्हें सम्मान के साथ स्मरण करते हैं । उसका प्रयास हिंदू राष्ट्र निर्माण की दिशा में उठाया गया ठोस और महत्वपूर्ण कार्य था । दुर्भाग्य हमारा था कि हम ऐसे प्रयासों को निरंतर पीढ़ी दर पीढ़ी केवल इसीलिए अनवरतता या नैरतंर्य प्रदान नही कर पाये कि छत्रसाल जैसे राष्ट्रनिर्माताओं के चले जाने पर हमारे भीतर से ही कुछ 'जयचंद' उठते थे और उनके प्रयासों को धक्का देने के लिए सचेष्ट हो उठते थे ।

🚩यह सच है कि अपने काल के बड़े-बड़े शत्रुओं को समाप्त करना और महादुष्ट और निर्मम शासकों की नाक तले साम्राज्य खड़ा कर राष्ट्र निर्माण का कार्य संपन्न करना बहुत बड़ा कार्य था। जिसे शत्रु के अत्याचारों से मुक्त होने की दिशा में उठाया गया वंदनीय कृत्य ही माना जाना चाहिए ।

🚩औरंगजेब की नींद उड़ा दी थी छत्रसाल ने-

औरंगजेब की रातों की नींद छत्रसाल के कारण उड़ चुकी थी। वह जितने प्रयास करता था कि छत्रसाल का अंत कर दिया जाए-छत्रसाल था कि उतना ही बलशाली होकर उभरता था।

🚩शिवाजी महाराज की मृत्यु के उपरांत 14 अप्रैल 1680 ई. में औरंगजेब ने मिर्जा सदरूद्दीन (धमौनी का सूबेदार) को छत्रसाल को बंदी बनाने के लिए भेजा। छत्रसाल इस समय अपने गुरू छत्रपति शिवाजी की मृत्यु (4 अप्रैल 1680 ई.) से आहत थे। पर वह तलवार हाथ में लेकर युद्घ के लिए सूचना मिलते ही चल दिये।

🚩चिल्गा नौरंगाबाद (महोबा राठ के बीच) में दोनों पक्षों का आमना-सामना हो गया। छत्रसाल ने सदरूद्दीन की सेना के अग्रिम भाग पर इतनी तीव्रता से प्रहार किया कि वह जितनी शीघ्रता से आगे बढ़ रही थी उतनी ही शीघ्रता से पीछे भागने लगी। इससे सदरूद्दीन की सेना में खलबली मच गयी। सदरूद्दीन भी छत्रसाल की सेना के आक्रमण से संभल नही पाया और ना ही वह अपने भागते सैनिकों को कुछ समझा पाया कि भागिये मत, रूकिये और शत्रु का सामना वीरता से कीजिए। उसको स्वयं को भी भय लगने लगा।

🚩सदरूद्दीन को भी पराजित होना पड़ा-

इस युद्घ में परशुराम सोलंकी जैसे अनेकों हिंदू वीरों ने अपनी अप्रतिम वीरता का प्रदर्शन किया और मुगल सेना को भागने के लिए विवश कर दिया। पर सदरूद्दीन ने अपनी सेना को ललकारा और उसे कुछ समय पश्चात वह रोकने में सफल रहा। फिर युद्घ आरंभ हुआ। इस बार बुंदेले वीर छत्रसाल को मुगल सेना ने घेर लिया। पर वह वीर अपनी तलवार से शत्रु को काटता हुआ धीरे-धीरे पीछे हटता गया। वह बड़ी सावधानी से और योजनाबद्घ ढंग से पीछे हट रहा था और शत्रुसेना को अपने साथी परशुराम सोलंकी की सेना की जद में ले आने में सफल हो गया, जो पहले से ही छिपी बैठी थी। यद्यपि मुगल सैनिक छत्रसाल के पीछे हटने को ये मान बैठे थे कि वह अब हारने ही वाली है।

🚩परशुराम के सैनिक भूखे शेर की भांति मुगलों पर टूट पड़े। युद्घ का परिदृश्य ही बदल गया , सदरूद्दीन को अब हिंदू वीरों की वीरता के साक्षात दर्शन होने लगे। वीर बुंदेले अपना बलिदान दे रहे थे और बड़ी संख्या में शत्रु के शीश उतार-उतार कर मातृभूमि के ऋण से उऋण हो रहे थे। परशुराम सोलंकी, नारायणदास, अजीतराय, बालकृष्ण, गंगाराम चौबे आदि हिंदू योद्घाओं ने मुगल सेना को काट-काटकर धरती पर शवों का ढेर लगा दिया। अपनी पराजय को आसन्न देख सदरूद्दीन मियां ने अपने हाथी से उतरकर एक घोड़े पर सवार होकर भागने का प्रयास किया। जिसे छत्रसाल ने देख लिया। वह तुरंत उस ओर लपके और सदरूद्दीन को आगे जाकर घेर लिया। सदरूद्दीन के बहुत से सैनिकों ने उसका साथ दिया। छत्रसाल की सेना के नायक गरीबदास ने यहां भयंकर रक्तपात किया और अपना बलिदान दिया। पर सिर कटे गरीबदास ने भी कई मुगलों को काटकर वीरगति प्राप्त की। मुगल सेना का फौजदार बागीदास सिर विहीन गरीब दास की तलवार का ही शिकार हुआ था। गरीबदास की स्थिति को देखकर छत्रसाल और उनके साथियों ने और भी अधिक वीरता से युद्घ करना आरंभ कर दिया।

🚩अंत में सदरूद्दीन क्षमायाचना की मुद्रा में खड़ा हो गया। उसने छत्रसाल को चौथ देने का वचन भी दिया। छत्रसाल ने तो उसे छोड़ दिया पर बादशाह औरंगजेब ने उसे भरे दरबार में बुलाकर अपमानित किया और उसके सारे पद एवं अधिकारों से उसे विहीन कर दिया।

🚩हमीद खां को भी किया परास्त-

इसी प्रकार कुछ कालोपरांत छत्रसाल को एक हमीदखां नामक मुगल सेनापति के आक्रमण की जानकारी मिली। हमीदखां ने चित्रकूट की ओर से आक्रमण किया था और वह वहां के लोगों पर अत्याचार करने लगा था। तब उस मुगल को समाप्त करने के लिए छत्रसाल ने बलदीवान को 500 सैनिकों के साथ उधर भेजा। बलदीवान ने उस शत्रु पर जाते ही प्रबल प्रहार कर दिया और उसे प्राण बचाकर भागने के लिए विवश कर दिया। बलदीवान ने हमीद खां का पीछा किया और उसके द्वारा महोबा के जागीरदार को छत्रसाल के विरूद्घ उकसाने की सूचना पाकर उस जागीरदार को भी दंडित किया। यहां से बचकर भागा हमीद खां बरहटरा में जाकर लूटमार करने लगा तो वहां छत्रसाल के परमहितैषी कुंवरसेन धंधेरे ने हमीद खां को निर्णायक रूप से परास्त कर भागने के लिए विवश कर दिया।

🚩मुगल साम्राज्य हो गया छिन्न-भिन्न-

हम यहां पर स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि औरंगजेब भारतवर्ष में ऐसा अंतिम मुस्लिम बादशाह था-जिसके साम्राज्य की सीमाएं उसके जीवनकाल में भी तेजी से सिमटती चली गयीं। उसकी मृत्यु के पश्चात उसका साम्राज्य बड़ी तेजी से छिन्न-भिन्न हो गया था, और फिर कभी उन सीमाओं तक किसी भी मुगल बादशाह को राज्य करने का अवसर नही मिला। मुगलों के साम्राज्य को इस प्रकार छिन्न-भिन्न करने में छत्रसाल जैसे महायोद्घाओं का अप्रतिम योगदान था। हमें चाहे सन 1857 तक चले मुगल वंश के शासकों के नाम गिनवाने के लिए कितना ही विवश किया जाए पर सत्य तो यही है कि औरंगजेब की मृत्यु (1707 ई.) के पश्चात ही भारत से मुगल साम्राज्य समाप्त हो गया था। उसकी मृत्यु के पश्चात भारतीय स्वातंत्रय समर की दिशा और दशा में परिवर्तन आ गया था। जिसका उल्लेख हम यथासमय और यथास्थान करेंगे।

🚩यहां इतना स्पष्ट कर देना समीचीन होगा कि औरंगजेब अपने जीवन में बुंदेले वीरों के पराक्रमी स्वभाव से इतना भयभीत रहा कि वह कभी स्वयं बुंदेलखण्ड आने का साहस नही कर सका। वह दूर से ही दिल्ली की रक्षा करता रहा और उसकी योजना मात्र इतनी रही कि चाहे जो कुछ हो जाए और चाहे जितने बलिदान देने पड़ जाएं पर छत्रसाल को दिल्ली से दूर बुंदेलखण्ड में ही युद्घों में उलझाये रखा जाए और उससे 'दिल्ली दूर' रखी जाए। औरंगजेब जैसे बादशाह की इस योजना को जितना समझा जाएगा उतना ही हम छत्रसाल की वीरता को समझने में सफल होंगे। इतिहास के अध्ययन का यह नियम है कि अपने चरित नायक को समझने के लिए आप उसके शत्रु पक्ष की चाल को समझें और देखें कि आपके चरितनायक ने उन चालों को किस प्रकार निरर्थक सिद्घ किया या उनका सामना किया या शत्रु पक्ष को दुर्बल किया? निश्चय ही हम ऐसा समझकर छत्रसाल के प्रति कृतज्ञता से भर जाएंगे। - लेखक : राकेश कुमार आर्य

🚩हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे ही देश में लुटेरे, आक्रमणकारी, बलात्कारी, क्रूर मुगलों एवं अंग्रेजो इतिहास तो पढ़ाया जाता है, लेकिन छत्रसाल जैसे महान वीरों का नहीं पढ़ाया जाता है । वर्तमान सरकार से आशा है कि सहीं इतिहास पढ़ाया जाएगा ।

🚩भारत के ऐसे ही वीर सपूतों के लिए किसीने कहा है :
तुम अग्नि की भीषण लपट, जलते हुए अंगार हो ।
तुम चंचला की द्युति चपल, तीखी प्रखर असिधार हो ।।
तुम खौलती जलनिधि-लहर, गतिमय पवन उनचास हो ।
तुम राष्ट्र के इतिहास हो, तुम क्रांति की आख्यायिका ।।
भैरव प्रलय के गान हो, तुम इन्द्र के दुर्दम्य पवि ।
तुम चिर अमर बलिदान हो, तुम कालिका के कोप हो ।।
पशुपति रुद्र के भू्रलास हो, तुम राष्ट्र के इतिहास हो ।

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