Thursday, December 17, 2020

खुलासा : पादरी चर्च में कन्फेशन परंपरा के चलते कर हैं यौनशोषण

17 दिसंबर 2020


कैथलिक चर्च की दया, शांति और कल्याण की असलियत दुनिया के सामने उजागर हो ही गयी है । मानवता और कल्याण के नाम पर क्रूरता की पोल खुल चुकी है । चर्च  कुकर्मों की  पाठशाला व सेक्स स्कैंडल का अड्डा बन गया है । पोप बेनेडिक्ट सोलहवें ने पादरियों द्वारा किये गए इस कुकृत्य के लिए माफी माँगी थी ।




कन्फेशन यानी अपनी गलतियों को खुलकर किसी से कहना । जिससे मन से बोझ तो उतरता है, साथ ही कन्फेस ये भी बताता है कि वो गलती दोबारा नहीं होगी । कैथोलिक और ऑर्थोडॉक्स चर्च में कन्फेशन आम है । लोग अक्सर पादरी के सामने अपने सिन यानी पापों को कन्फेस करते हैं, लेकिन ये यौन उत्पीड़न का जरिया बनने लगा है । केरल के कोट्टायम में एक महिला ने एक के बाद एक चार पादरियों पर उसे ब्लैकमेल करके यौन शोषण का आरोप लगाया ।

इसी से मिलता-जुलता मामला पंजाब के जालंधर से आया, जहां पीड़िता का आरोप था कि कन्फ़ेशन के दौरान अपने राज बांटने पर पहले एक पादरी ने उसका यौन शोषण किया । इसके बाद से कन्फेशन की प्रक्रिया सवालों के घेरे में है । यहां तक कि राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) ने चर्च में कन्फेशन पर रोक लगाने की सिफारिश भी की । अपनी सिफारिश में आयोग ने लिखा कि ये महिलाओं की सुरक्षा में रोड़ा हैं ।

जानिए, क्या है ये कन्फेशन और कैसे बन गया यौन शौषण का जरिया :-

चर्च में कन्फेशन की प्रक्रिया का बाइबिल में जिक्र मिलता है । इसे ऑग्सबर्ग कन्फेशन कहा जाता है, जिसके दो स्टेप हैं । पहला पाप की समझ से पैदा होने वाला डर और दूसरा चरण है जिसमें किसी को अपनी गलती का अहसास हो जाए और साथ ही ये यकीन भी हो जाए कि ईश्वर ने उसे पाप की माफी दे दी है । बाइबिल के दूसरे चैप्टर में माना गया है कि रोजमर्रा के कामों के दौरान सबसे कोई न कोई गलती हो जाती है, जिनका प्रायश्चित्त होना जरूरी है तभी मन शुद्ध होता है । चर्च के पादरी को ईश्वर का प्रतिनिधि मानते हुए उसके सामने पापों का कन्फेशन किया जाता है ।

ये है प्रक्रिया :-

चर्च में कन्फेशन के लिए एक जगह तय होती है । वहां कन्फेस करने वाले व्यक्ति और पादरी के सामने आमतौर पर एक परदा होता है । इन दोनों के अलावा और कोई भी वहां मौजूद नहीं होता है । पादरी के सामने कन्फेशन बॉक्स में खड़ा होकर कोई भी अपनी गलतीं बता सकता है और यकीन करता है कि पादरी उस राज को अपने और ईश्वर तक ही सीमित रखेगा ।

कौन नहीं कर सकता है कन्फेस :-

10 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए कन्फेशन की प्रक्रिया नहीं है क्योंकि माना जाता है कि उन्हें सहीं-गलत का कोई अहसास नहीं होता है और वे जो भी करते हैं, भूल हो सकती है लेकिन अपराध नहीं । इसी तरह से मानसिक रूप से अपेक्षाकृत कमजोर लोगों के लिए इस प्रक्रिया का कोई मतलब नहीं है, यानी उन्हें भी इसकी इजाजत नहीं ।

पूरी दुनिया में यौन शोषण :-

कन्फेशन बॉक्स को आजकल डार्क बॉक्स कहा जा रहा है क्योंकि इसके साथ ही महिलाओं के यौन शोषण का लंबा सिलसिला सुनाई पड़ रहा है । भारत के अलावा यूरोप, अमेरिका और दूसरे देशों में भी कैथोलिक चर्चों में पादरियों द्वारा यौन शोषण की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं । अमेरिका के पेनसिल्वेनिया में पादरियों द्वारा हजार से भी ज्यादा बच्चों के यौन शोषण की एक खबर ने पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया । यहां तक कि रोमन कैथोलिक चर्च के पोप को दुनियाभर के पादरियों के इन अपराधों के लिए माफी मांगनी पड़ी है । पादरियों द्वारा यौन शोषण की घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए वैटिकन सिटी ने कई सख्त फैसले लिए, जिसमें पादरियों का निलंबन भी शामिल रहा ।

महिलाओं के साथ यौन शोषण के अधिकतर मामलों की वजह कन्फेशन रहा, जिसके बूते पादरी उन्हें ब्लैकमेल करने लगे । इसी को देखते हुए महिला आयोग ने कन्फेशन की प्रक्रिया बंद करने की सिफारिश की । आयोग ने कहा कि चर्च में यौन शोषण की पारदर्शी जांच केंद्रीय एजेंसी के जरिए होनी चाहिए । 
स्त्रोत : न्यूज 18

कन्नूर (केरल) के कैथोलिक चर्च की एक  नन सिस्टर मैरी चांडी  ने पादरियों और ननों का चर्च और उनके शिक्षण संस्थानों में व्याप्त व्यभिचार का जिक्र अपनी आत्मकथा ‘ननमा निरंजवले स्वस्ति’ में किया है कि ‘चर्च के भीतर की जिन्दगी आध्यात्मिकता के बजाय वासना से भरी थी । एक पादरी ने मेरे साथ बलात्कार की कोशिश की थी । मैंने उस पर स्टूल चलाकर इज्जत बचायी थी । ’ यहाँ गर्भ में ही बच्चों को मार देने की प्रवृत्ति होती है । सान डियेगो चर्च के अधिकारियों ने पादरियों के द्वारा किये गये बलात्कार, यौन-शोषण आदि के 140 से अधिक अपराधों के मामलों को निपटाने के लिए 9.5 करोड़ डॉलर चुकाने का ऑफर किया था ।

देश-विदेशों में इतनी बड़ी-बड़ी घटनाएं घटित हो रही हैं लेकिन मीडिया को इसपर चर्चा करने की या न्यूज दिखाने की फुर्सत नहीं है, उसे तो केवल हिन्दू संस्कृति मिटानी है इसलिए पवित्र हिन्दू साधु-संतों को ही बदनाम करना है ।

गांधी जी ने बताया था कि धर्म परिवर्तन वह जहर है जो सत्य और व्यक्ति की जड़ों को खोखला कर देता है । हमें गौमांस भक्षण और शराब पीने की छूट देनेवाला ईसाई धर्म नहीं चाहिए ।

फिलॉसफर नित्शे लिखते हैं कि मैं ईसाई धर्म को एक अभिशाप मानता हूँ, उसमें आंतरिक विकृति की पराकाष्ठा है । वह द्वेषभाव से भरपूर वृत्ति है । इस भयंकर विष का कोई मारण नहीं । ईसाईत गुलाम, क्षुद्र और चांडाल का पंथ है ।

हिंदुस्तानी ऐसे धर्म, पादरी और चर्च से बचके रहें । धर्मपरिवर्तन करके अपना जीवन बर्बाद न करें । याद रहे श्रीमद्भागवत गीता में श्री कृष्ण ने भी कहा है कि "स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः" अर्थात स्वधर्ममें मरना भी कल्याणकारक है, पर परधर्म तो भय उपजानेवाला है । अतः धर्मान्तरण की आंधी से बचकर रहें ।

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Wednesday, December 16, 2020

कम्युनिस्टों का असली चेहरा जानकर आप भी चौक जायेंगे...

16 दिसंबर 2020


कार्ल मार्क्‍स ने बड़ा जोर देकर कहा था, 'मजहब लोगों के लिए अफीम के समान है (Religion as the opium of the people)।

कम्युनिस्ट शासन वाले देशों ने कभी भी इस्लामिक शरिया कानून को विचार लायक भी नहीं समझा। उनकी नजर में शरिया कानून ईश्वरीय कानून नहीं है। किसी भी मुस्लिम बहुल देश ने कम्युनिष्ट शासन पद्धति को नहीं माना। 90% मुस्लिम देशों में समाजवाद की बात करना भी अपराध है।

भारत में कम्युनिस्ट




सामाजिक विषमता को टार्गेट कर के कम्युनिस्ट अपने विषैले प्रचार से प्रस्थापित सत्ता के विरोध में जनमत तैयार करते हैं।

चूंकि कम्युनिस्ट खुद को धर्महीन कहलाते हैं, उन्हें विधर्मी कहकर उनका मुकाबला नहीं किया जा सकता।

उनकी एक विशेषता है कि वे शत्रु का बारीकी से अभ्यास करते हैं, धर्म की त्रुटियाँ या प्रचलित कुरीतियाँ इत्यादि के बारे में सामान्य आदमी से ज्यादा जानते हैं। वाद में काट देते हैं। इनका धर्म न होने से श्रद्धा के परिप्रेक्ष्य से इन पर पलटवार नहीं किया जा सकता।

इस तरह वे जनसमुदाय को एकत्र रखनेवाली ताक़त जो कि धर्म है, उसकी दृढ़ जडें काटने के प्रयास करते हैं।

समाज को एकजुट नहीं रहने देते, बैर भाव में बिखरे खंड खंड हो जाये, यही इनकी कोशिश होती हैं।

इस बिखरे हुए समाज पर इस्लाम का खूंखार और सुगठित आक्रमण हो, तो फिर प्रतिकार क्षीण पड़ जाता है। अगर यही इस्लाम सीधे धर्म पर आक्रमण करे तो धर्म के अनुयायी संगठित हों, लेकिन उन्हें बिखराने का काम यही कम्युनिस्ट कर चुके होते हैं। चुन चुन कर इन बिखरे हुओं को समाप्त करना आसान होता है। कम्युनिस्ट भारतीय राष्ट्रवाद के किसी भी शत्रु से सहकार्य करेंगे। भारतीयों को अब सोचना है। वक़्त ज्यादा नहीं है आज इस्‍लामिक आतंकवाद पर यदि कोई बोलना चाहता है तो सबसे पहले ये कम्‍युनिस्‍ट ही आतंकी को बचाने में सहायता करने आते हैं।

कुछ साल पहले कोच्चि में माकपा की बैठक में अनोखा नजारा देखने को मिला। मौलवी ने नमाज की अजान दी तो माकपा की बैठक में मध्यांतर की घोषणा कर दी गई। मुस्लिम कार्यकर्ता बाहर निकले। रात को उन्हें रोजा तोड़ने के लिए पार्टी की तरफ से नाश्ता परोसा गया। यह बैठक वहां के रिजेंट होटल हॉल में हो रही थी। कुछ साल हुए कन्नूर (केरल) से माकपा सांसद केपी अब्दुल्लाकुट्टी हज यात्रा पर गए। जब बात फैली तो सफाई दी कि अकादमिक वजहों से गए थे। मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का कोई भी नेता केपी अब्दुल्लाकुट्टी के हज यात्रा के खिलाफ बोलने का साहस नहीं जुटा पा रहा है। 'मगर यह सफेद झूठ था क्योंकि उन्होंने उमरा भी कराया था। अकादमिक वजहों से जाने वाला उमरा जैसा धार्मिक कर्मकांड नहीं कराएगा। (उमरा -सउदी जाकर मजहबी फर्ज करने को उमरा कहते हैं )। वहीं जब पश्चिम बंगाल के खेल व परिवहन मंत्री सुभाष चक्रवर्ती तारापीठ मंदिर गए तो पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने तो यहां तक कह दिया, 'सुभाष चक्रवर्ती पागल हैं।

कम्युनिस्ट हिन्दुओं के मानबिन्दुओं का अपमान करने में ही सबसे आगे रहे हैं। इसलिए सीपीएम नेता कडकम्पल्ली सुरेंद्रन जब यह झूठ बोलते हैं कि 'किसी भी संगठन द्वारा मंदिरों का इस्तेमाल हथियारों और शारीरिक प्रशिक्षण के लिए करना श्रद्धालुओं के साथ अन्याय है।' तब हिन्दुओं के खिलाफ किसी साजिश की बू आती है। जिन्होंने कभी हिन्दुओं की चिंता नहीं की, वे हिन्दुओं की आड़ लेकर राष्ट्रवादी विचारधारा पर प्रहार करना चाह रहे हैं। सरकार की नीयत मंदिरों पर कब्जा जमाने की है। केरल की विधानसभा में एक विधेयक पेश किया गया है। इस विधेयक के पारित होने के बाद केरल के मंदिरों में जो भी नियुक्तियाँ होंगी, वह सब लोक सेवा आयोग (पीएससी) के जरिए होंगी। माकपा सरकार इस व्यवस्था के जरिए मंदिरों की संपत्ति और उनके प्रशासनिक नियंत्रण को अपने हाथ में रखना चाहती है। मंदिरों की देखरेख और प्रबंधन के लिए पूर्व से गठित देवास्वोम बोर्ड की ताकत को कम करना का भी षड्यंत्र माकपा सरकार कर रही है। माकपा सरकार ने देवास्वोम बोर्ड को 'सफेद हाथी' की संज्ञा दी है और इस बोर्ड को समाप्त करना ही उचित समझती है।

दरअसल, दो अलग-अलग कानूनों के जरिए माकपा सरकार ने हिंदू मंदिरों की संपत्ति पर कब्जा जमाने का षड्यंत्र रचा है। एक कानून के जरिए मंदिर के प्रबंधन को सरकार (माकपा) के नियंत्रण में लेना है और दूसरे कानून के जरिए मंदिरों से राष्ट्रवादि विचारधारा को दूर रखना है। ताकि जब कम्युनिस्ट मंदिरों की संपत्ति का दुरुपयोग करें, तब उन्हें टोकने-रोकने वाला कोई उपस्थित न हो। हमारे प्रगतिशील कामरेड वर्षों से भोपाल गैस कांड को लेकर अमेरिकी कंपनी तथा वहां के शासकों की निर्ममता के विरूध्द आग उगलते रहे हैं। लेकिन भोपाल गैस कांड के लिए दोषी यूनियन कार्बाइड की मातृ संस्था बहुराष्ट्रीय अमेरिकी कंपनी डाऊ केमिकल्स को हल्दिया-नंदीग्राम में केमिकल कारखाना लगाने के लिए बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार न्यौता दिया था। यह कैसा मजाक और दोहरा मानदंड है। आप भोपाल गैस कांड के लिए दोषी प्रबंधकों तथा पीड़ितों को मुआवजा न देने वाले लोगों को दंडित करवाने के बजाय उनकी आरती उतारने के लिए बेताब हैं।

सेक्युलरिज्म के नियम -

अफजल गुरू, कसाब और मदानी जैसे आतंकवादियों के प्रति उदासीनता बरती जाए तब तो ऐसे लोग भी सेक्युलरवादी होते है परन्तु एमसी शर्मा के बलिदान का समर्थन किया जाए तो वे लोग साम्प्रदायिक बन जाते है।

एम.एफ. हुसैन सेक्युलर है परन्तु तस्लीमा नसरीन साम्प्रदायिक है, तभी तो उसे पश्चिम बंगाल के सेक्युलर राज्य से बाहर निकाल दिया गया। इस्लाम का अपमान करने वाला डेनिश कार्टूनिस्ट तो साम्प्रदायिक है परन्तु हिन्दुत्व का अपमान करने वाले करूणानिधि को सेक्युलर माना जाता है।

मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के बलिदान का उपहास उड़ाना सेक्युलरवादी होता है, दिल्ली पुलिस की मंशा पर सवाल खड़ा करना सेक्युलरवादी होता है, परन्तु एटीएस के स्टाइल पर सवाल खड़ा करना साम्प्रदायिकता के घेरे में आता है।

राष्ट्र-विरोधी 'सिमी' सेक्युलर है तो राष्ट्रवादी रा.स्व.सं साम्प्रदायिक है।

एमआईएम, पीडीपी, एयूडीएफ और आईयूएमएल जैसी विशुध्द मजहब-आधारित पार्टियां सेक्युलर है, परन्तु भाजपा साम्प्रदायिक है।

बांग्लादेशी आप्रवासियों, विशेष रूप से मुस्लिमों का और एयूडीएफ का समर्थन करना सेक्युलर है, परन्तु कश्मीरी पंडितों का समर्थन करना साम्प्रदायिक है।

नंदीग्राम में 2000 एकड़ क्षेत्र में किसानों पर गोलियों की बरसात करना सेक्युलरिज्म है परन्तु अमरनाथ में 100 एकड़ की भूमि की मांग करना साम्प्रदायिक है। मजहबी धर्मांतरण सेक्युलर है तो उनका पुन: धर्मांतरण करना साम्प्रदायिक होता है।

कुछ चुनिंदा समुदायों को स्कॉलरशिप और आरक्षण सेक्युलरिज्म है परन्तु सभी योग्य-सुपात्र भारतीयों के बारे में इस प्रकार की चर्चा करना भी साम्प्रदायिक होता है। मजहबी आधार पर आर्मी, न्यायपालिका, पुलिस में जनगणना कराना कांग्रेस और वामपंथियों की नजरों में सेक्युलरिज्म है परन्तु एक-भारत की बात करना भी साम्प्रदायिक है। हिन्दू समुदाय के कल्याण की बात करना साम्प्रदायिक है तो उधर मुस्लिम तुष्टिकरण सेक्युलर है।

कामरेडों का नमाज में भाग लेना, हज जाना और चर्च जाना तो सेक्युलरिज्म है परन्तु हिन्दूओं का मंदिरों में जाना या पूजा में भाग लेना साम्प्रदायिक है। पाठय-पुस्तकों में छत्रपति शिवाजी और गुरू गोविन्द सिंह जैसी धार्मिक नेताओं के प्रति अपशब्दावली का इस्तेमाल 'डिटोक्सीफिकेशन' या सेक्युलरिज्म माना जाता है और भारत सभ्यता का महिमामंडन साम्प्रदायिक कहा जाता है।

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Tuesday, December 15, 2020

संविधान के सभी अनुच्छेद सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू क्यों नहीं हैं?

15 दिसंबर 2020


कुछ समय से देश में समान नागरिक संहिता की चर्चा बार-बार हो रही है, लेकिन वह आगे नहीं बढ़ पा रही है। इसी तरह हिंदू मंदिरों को सरकारी कब्जे से मुक्त कराने की मांग भी अनुसनी बनी हुई है। छोटे-मोटे संगठन और एक्टिविस्ट धर्मांतरण के विरुद्ध कानून बनाने की भी मांग कर रहे हैं। भोजन उद्योग में हलाल मांस का दबाव बढ़ाने की संगठित गतिवधियों के विरुद्ध भी असंतोष बढ़ा है। शिक्षा अधिकार कानून में हिंदू-विरोधी पक्षपात पर भी काफी उद्वेलन है। आखिर इन मांगों पर सत्ताधारियों का क्या रुख है?




समान नागरिक संहिता की चाह तो मूल संविधान में ही थी, लेकिन शासकों ने शुरू से इसे उपेक्षित किया। कई बार सुप्रीम कोर्ट के पूछने पर भी कार्रवाई नहीं की। समान संहिता की मांग हिंदू मुद्दा नहीं, बल्कि सेक्युलर मांग है। यह मांग तो सेक्युलरवादियों को करनी चाहिए। धर्मांतरण रोकना भी कानूनी प्रतिबंध का विषय नहीं। धर्मांतरण कराने में मिशनरी रणनीति और कटिबद्धता ऐसी है कि चीन जैसा कठोर शासन भी महज कानून से इसे रोकने में विफल रहा है। धर्मांतरण रोकने के आसान रास्ते की आस छोड़नी चाहिए। इसका उपाय शिक्षा और वैचारिक युद्ध में है। उससे कतरा कर संगठित धर्मांतरणकारियों से पार पाना असंभव है।

कुछ लोग जब-तब हिंदू राष्ट्र की बातें किया करते हैं, जबकि यथार्थवादी मांग यह होती कि हिंदुओं को दूसरे समुदायों जैसे बराबर अधिकार मिलें। दुर्भाग्यवश अधिकांश लोगों को इसकी चेतना नहीं। हालिया समय में संविधान के अनुच्छेद 25 से 31 की हिंदू-विरोधी व्याख्या स्थापित कर दी गई है। कई शैक्षिक, सांस्कृतिक, सामाजिक अधिकारों पर केवल गैर-हिंदुओं यानी अल्पसंख्यकों का एकाधिकार बना दिया गया है।

सरकार हिंदू शिक्षा संस्थान और मंदिरों पर मनचाहा हस्तक्षेप करती है और अपनी शर्तें लादती है। वह ऐसा गैर-हिंदू संस्थाओं पर नहीं करती। इसी तरह अल्पसंख्यकों को संवैधानिक उपचार पाने का दोहरा अधिकार है, जो हिंदुओं को नहीं है। हिंदू केवल नागरिक रूप में न्यायालय से कुछ मांग सकते हैं, जबकि अन्य नागरिक और अल्पसंख्यक, दोनों रूपों में संवैधानिक अधिकार रखते हैं। ऐसा अंधेर दुनिया के किसी लोकतंत्र में नहीं कि अल्पसंख्यक को ऐसे विशेषाधिकार हों जो अन्य को न मिलें। यह हमारे संविधान निर्माताओं की कल्पना न थी।

1970 के आसपास कांग्रेस-कम्युनिस्ट दुरभिसंधि और हिंदू संगठनों के निद्रामग्न होने से संविधान के अनुच्छेद 25 से 31 को मनमाना अर्थ दिया जाने लगा। संविधान की उद्देशिका में जबरन "सेक्युलर" शब्द जोड़ने से लेकर दिनों-दिन विविध अल्पसंख्यक संस्थान, आयोग, मंत्रालय आदि बना-बना कर अधिकाधिक सरकारी संसाधन मोड़ने जैसे अन्यायपूर्ण कार्य होते गए। विडंबना यह कि इनमें कुछ कार्य स्वयं हिंदूवादी कहलाने वाले नेताओं ने किए। वे केवल सत्ता कार्यालय, भवन, कुर्सी आदि की चाह में रहे।

नीतियों में होते परिवर्तनों की दूरगामी मार पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया। इसके विपरीत, कम्युनिस्टों ने शिक्षा-संस्कृति की धारा पर कब्जा करने की कोशिश की, क्योंकि सामाजिक बदलाव का मूल स्रोत वही होती है। इसीलिए सत्ता पर काबिज हुए बिना भी कम्युनिस्टों ने देश की शिक्षा-संस्कृति पर वर्चस्व बनाया और हिंदू ज्ञान-परंपरा को बेदखल कर दिया। आज हिंदू धर्म-समाज डूबता जहाज समझा जाने लगा है, जिससे निकल कर ही जान बचाई जा सकती है। इन सच्चाइयों की अनदेखी कर अनेक हिंदूवादी खुद अपनी वाह-वाही करते हैं, किंतु हालिया दशकों में भारत में ही हिंदू धर्म का चित्रण जातिवादी, उत्पीड़क, दकियानूस आदि जैसा प्रचलित हुआ है। यही विदेशों में प्रतिध्वनित हुआ। किसी पार्टी की सत्ता बनने से इसमें अंतर नहीं पड़ा, यह विविध घटनाओं से देख सकते हैं।

अयोध्या में राम-जन्मभूमि के लिए सदियों पुराने सहज हिंदू संघर्ष की जितनी बदनामी पिछले तीन दशकों में हुई, वह पूरे इतिहास में कभी नहीं मिलती। सदैव दूसरों को दोष देना और अपनी भूल न देखना बचकानापन है। यहां ईसाई और इस्लामी दबदबा बढ़ने में उनके नेताओं का समर्पण और दूरदृष्टि भी कारण है। उन्होंने कुर्सी के लिए अपने धर्म-समाज के मूल हितों से कभी समझौता नहीं किया। यह न समझना आत्मप्रवंचना है।

हिंदुओं को दूसरों के समान संवैधानिक अधिकार दिलाने की लड़ाई जरूरी है। इसमें दूसरे का कुछ नहीं छिनेगा। केवल हिंदुओं को भी वह मिलेगा, जो मुसलमानों, ईसाइयों को हासिल है। "संविधान दिवस" मनाने की अपील तो ठीक है, लेकिन यह समझा जाना चाहिए कि संविधान के अनुच्छेद 25-31 को देश के सभी नागरिकों के लिए समान रूप से लागू करना आवश्यक। यह न केवल संविधान की मूल भावना के अनुरूप, बल्कि सहज न्याय है। हिंदुओं के हित की कुंजी अन्य धर्मावलंबियों जैसे समान अधिकार में है। स्वतंत्र भारत में हिंदू समाज का मान-सम्मान, क्षेत्र संकुचित होता गया है और यह प्रक्रिया चालू है।

धर्मांतरण रोकना सामाजिक काम है। भारत में यह आसान भी है। धर्मांतरण को समान धरातल पर लाना चाहिए। विभिन्न धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन-परीक्षण का वातावरण बनाना चाहिए। चूंकि ईसाइयत और इस्लाम धर्मांतरणकारी हैं, इसलिए वे विपरीत गमन का विरोध नहीं कर सकते। वस्तुत: पश्चिम में पिछली दो-तीन सदियों में एक विस्तृत श्रेष्ठ साहित्य तैयार हुआ, जिसने ईसाइयत की कड़ी समीक्षा कर यूरोप को चर्च के अंधविश्वासों से मुक्त कराया। फलत: वहां ईसाइयत में धर्मांतरण शून्यप्राय हो गए।

उसी विमर्श को भारत लाकर यहां ईसाई मिशनों को ठंडा करना था, किंतु दुर्भाग्य से गांधीजी ने उस आलोचनात्मक विमर्श के बदले मिशनरी प्रचारों को ही आदर देकर ईसाइयों को ‘अच्छा ईसाई’ बनने का उपदेश दिया। फलत: यहां मिशनरी और जम गए, जबकि धर्मांतरण रोकने का रामबाण सभी धर्मों के वैचारिक दावों के खुले बौद्धिक परीक्षण में है। इसी से हिंदू, बौद्ध, सिख धर्म सुरक्षित होंगे, कानून बनाकर नहीं। तुलनात्मक धर्म अध्ययन और शोध को विषय के रूप में शिक्षा में स्थापित करना इस में उपयोगी होगा।

यह सब करना कोई "हिंदू राष्ट्र" बनाना नहीं, बल्कि हिंदू-विरोधी भेदभाव खत्म कर स्थिति सामान्य बनाना भर है। जैसे जम्मू-कश्मीर में धारा 370 हटाना सामान्यीकरण है, कोई हिंदू राज्य बनाना नहीं। इसी प्रकार अनुच्छेद 25-31 के व्यवहार में की गई विकृति को खत्म कर उसे सबके लिए बराबर घोषित करना एक सामान्यीकरण भर होगा। इसके बिना हिंदुओं के हितों पर दिनों-दिन चोट बढ़ती जाएगी। - डॉ. शंकर शरण

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Monday, December 14, 2020

निर्भया कांड पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की असलियत..

 14 दिसंबर 2020


16 दिसम्बर आने वाला है। निर्भया कांड की बरसी है। टीवी चैनल पर अनेक मानवाधिकार कार्यकर्ता बलात्कार के विरोध में बड़ी बड़ी बातें कहते मिलेंगे। मगर हम आज भी वही हैं जहाँ हम पहले थे। कुछ नहीं बदला। जानते है क्यों? क्योंकि जो लोग निर्भया को लेकर सबसे अधिक विलाप करेंगे वो ईमानदार नहीं हैं। वे सबसे बड़े पाखंडी हैं।




वही कार्यकर्ता जनवरी से लेकर नवम्बर तक क्या कार्य करते हैं, यह किसी ने नहीं सोचा। हम आपको बताते है वे सारा साल क्या करते हैं।

1. जनवरी में Kiss of Love के नाम से सड़कों पर चूमाचाटी करते हैं।

2. फरवरी में LGTB के नाम पर लड़के लड़कियों के और लड़कियां लड़कों के इन्द्र धनुषी कपड़ें पहन कर सड़कों पर परेड निकालेंगे।

3. मार्च में इन्टरनेट पर अश्लील/पोर्न साइट को प्रतिबंधित करने के सरकार के फैसले के विरोध में सड़कों पर परेड निकालेंगे।

4. अप्रैल में JNU में पेड़ों पर कंडोम बांध कर खुशी प्रकट करेंगे।

5. मई में खजुराओ की नंगी मूर्तियों की तस्वीरों की Art exhibition यानि कला प्रदर्शनी लगाएंगे।

6. जून में कामसूत्र जैसी किसी अश्लील फ़िल्म की बम्पर कमाई करवाएंगे।

7. जुलाई में सन्नी लेओनी को सबसे प्रतिभाशाली अभिनेत्री का ख़िताब प्रदान करेंगे।

8. अगस्त में 50 शेड्स ऑफ़ ग्रे जैसे अश्लील उपन्यास को चटकारे लेकर पढेंगे।

9. सितम्बर में थाईलैंड में मालिश करवाने जायेंगे।

10. अक्टूबर में पिछली छोड़कर अगली के पीछे भागेंगे।

11. नवम्बर में किसी प्रतिबंधित sex पावर बढ़ाने वाली दवा के दुष्प्रभाव से अस्पताल में भर्ती होंगे।

इन तथाकथित मानव अधिकार कार्यकर्ताओं से,चटर-पटर अंग्रेजी बोलने वालों से, नास्तिकों से, साम्यवादियों से, जीन्स और काला कुर्ता पहन कर डपली बजाने वालों से, बड़ी बिंदी गैंग से, NGO धंधे वालों से, आधुनिक सोच वालों से, civil society वालों से हमें दूर ही रखना हे ईश्वर।

क्योंकि इन पाखंडियों से तो हम जैसे सनातन धर्म मानने वाले, हिंदी बोलने वाले, नशा न करने वाले, पुरानी सोच वाले, अपनी सभ्यता और संस्कृति को मानने वाले, ब्रह्मचर्य और संयम विज्ञान को मानने वाले गंवार ही बहुत अच्छे हैं। - डॉ विवेक आर्य

भारतीय संस्कृति को तोड़ने के लिए ये लोग षड्यंत्र करते रहते हैं नहीं तो हमारी संस्कृति में नारी को नारायणी का रूप दिया गया है, हमारी संस्कृति में स्त्री को पुज्य भाव से देखा जाता है पर षड्यंत्र पूर्वक अश्लीलता परोस कर हमारी संस्कृति बिगाड़ कर बलात्कार बढ़ा रहे हैं इससे सावधान रहने की आवश्यकता हैं।

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Sunday, December 13, 2020

क्रिसमस पर कई देशों ने लगा रखा है बेन, फिर भारत में क्यों मना रहे हैं ??

13 दिसंबर 2020


भारत एक ऐसा देश है जहां जिन आक्रमणकारी अंग्रेजों ने 200 साल तक देश को गुलाम बनाये रखा, भारत की संपत्ति लूटकर ले गये, अत्याचार किये, बहन-बेटियों की इज्जत लूटी, जिनसे भारत आज़ाद कराने में न जाने कितने देशवासियों ने अपने प्राणों को आहुति दे दी, उसकी कद्र किये बिना आज भी उन अंग्रेजो के बनाये त्यौहार क्रिसमस को मनाया जा रहा है ।




दुनिया में कई देशों में क्रिसमस पर प्रतिबंध लगा दिया है, उन देशों ने कारण बताया है कि हमारे देश की संस्कृति के विरुद्ध है, फिर भारत जहां की संस्कृति नष्ट करने के लिए ईसाई मिशनरियां अरबों खरबों रुपए लगा रही है वो क्यो ये त्यौहार मना रहे हैं ??

ब्रुनई देश में क्रिसमस पर प्रतिबंध

ब्रुनई देश के सुलतान ने 2015 से क्रिसमस पर बेन लगा दिया है, सुलतान ने तो क्रिसमस मानने वालों के लिए सख्त कानून बना दिया है, सुलतान ने कहा कि "यहां कोई भी क्रिसमस मनाते पकड़ा गया तो पांच साल तक कैद में डाल दिया जाएगा। यहाँ तक क़ि किसी को भी इस मौके पर बधाई देते हुए भी पाया गया या किसी ने सैंटा टोपी भी पहनी तो कैद की सजा भुगतनी होगी।"

उन्होंने कहा क़ि, क्रिसमस उत्सव के दौरान लोग क्रॉस धारण करते हैं, कैंडल जलाते हैं, क्रिसमस ट्री बनाते हैं, उनके धार्मिक गीत गाते हैं, क्रिसमस की बधाई देते हैं और उनके धर्म की प्रशंसा करते हैं। ये सारी गतिविधियाँ हमारे देश के विरूद्ध हैं। क्रिसमस के उत्सव से हमारी आस्था प्रभावित होती है।’ 

सोमालिया देश में क्रिसमस पर प्रतिबंध

सोमालिया देश की सरकार ने भी 2015 से क्रिसमस का जश्न मनाने पर रोक लगा दी है। सरकार ने चेताया कि इससे देश की जनता की आस्थाओं को खतरा हो सकता है।

उत्तर कोरिया में क्रिसमस पर प्रतिबंध

उत्तर कोरिया के तानाशाह शासक किम जोंग ने क्रिसमस मनाने पर प्रतिबंध लगा दिया है। किम जोंग ने क्रिसमस की जगह अपनी दादी किम जोंग सुक का जन्मदिन मनाने का फरमान सुनाया।

2014 में भी उत्तर कोरिया में क्रिसमस पर बैन लगा दिया गया था। यही नहीं बड़े क्रिसमस ट्री को भी हटाने का फैसला किया था। दक्षिणी कोरिया की ओर से लगाए गए बड़े क्रिसमस ट्री को हटाया गया। खुद किम जोंग क्रिसमस पर लगाए जाने वाले इन पेड़ों से नफरत करते हैं। प्योंगयांग में किसी भी दुकान या रेस्त्रां से इन्हे हटा दिया जाता है। कोरिया में सबसे ज्यादा ईसाई लोग प्योंगयांग में ही रहते हैं। यहां पर मानव अधिकार की बात करने वाले 50 हजार से 70 हजार ईसाइयों को जेलों के अंदर बंद कर दिया गया था।

चीनी विश्वविद्यालय में क्रिसमस पर प्रतिबंध, 

चीन के पूर्वोत्तर प्रांत लिआओनिंग में स्थित शेनयांग फार्मास्युटिकल विश्वविद्यालय ने 2017 में छात्रों को जारी अपने नोटिस में उनसे परिसर में किसी भी तरह का पश्चिमी त्यौहार जैसे क्रिसमस आयोजित नहीं करने के लिए कहा।

छात्र संगठन यूथ लीग ने कारण बताते हुए कहा कि कुछ नौजवान पश्चिमी त्यौहार को लेकर आंख मूंद कर उत्साहित रहते हैं, खासकर क्रिसमस संध्या या क्रिसमस के दिन और पश्चिमी संस्कृति से बचने की जरूरत है। 

चीन में यह पहली बार नहीं है जब किसी शैक्षणिक संस्थान क्रिसमस पर प्रतिबंध लगाया है। चीन में ऐसा मानना है कि पश्चिमी या विदेशी संस्कृति चीन की प्राचीन संस्कृति का क्षय कर देगी।

धन्यवाद है उन देशों को जिन्होंने इतनी छोटी आबादी वाले देश में भी क्रिसमस न मनाने का आदेश जारी किया ।

एक हमारा भारत देश जहाँ धर्म निरपेक्षता के नाम पर हिन्दू धर्म की ही जड़े काटी जा रही है।

सभी धर्म का सम्मान हो सकता है लेकिन सभी धर्म समान नही हो सकते।

हिन्दू धर्म सनातन धर्म है। ये कब से शुरू हुआ कोई नही जानता। भगवान राम भी इसी सनातन धर्म में प्रगटे और भगवान श्री कृष्ण भी।

उन देशों में क्रिसमस मनाने से वहाँ की संस्कृति नष्ट होने की आशंका है तो भारत में हम क्यों ये क्रिसमस मनाये। जबकि भारत तो ऋषि-मुनियों का देश है।

देशवासियों को सावधान होना होगा, दारू पीने वाली, गौ-मास खाने वाले, पराई स्त्रियों के साथ डांस और शारिरिक संबंध बनाने वाले पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करके उनका त्यौहार क्रिसमस न मानकर उस दिन तुलसी पूजन करें।

क्रिसमस ट्री बनाने में सामग्री व्यर्थ न गंवाएं, क्योंकि क्रिसमस ट्री यदि पेड़ों को काटकर बनाएगे तो करोड़ों पेड़ कटते हैं, यदि प्लास्टिक ट्री  हो तो करोड़ों किलोग्राम कैंसरकारक नष्ट नहीं हो सकने वाला रासायनिक कचरा बनता है। 

अतः 25 दिसम्बर को 24 घण्टे ऑक्सीजन देने वाली तुलसी पूजन करें ।

गौरतलब है कि अपने सनातन धर्म की गरिमा से जन-जन को अवगत कराने और देश में सुख, सौहार्द, स्वास्थ्य, शांति का वातावरण बनें और जन-मानस का जीवन मंगलमय हो इस लोकहितकारी उद्देश्य से हिन्दू संत आसारामजी बापू ने वर्ष 2014 से 25 दिसम्बर को ‘तुलसी पूजन' दिवस शुरू करवाया जो कि पिछले छ सालों से इस पर्व की लोकप्रियता विश्वस्तर पर देखी गयी है।

सभी लोग संकल्प लें कि 25 दिसम्बर को क्रिसमस डे न मनाकर 'तुलसीपूजा के रूप में मनायेगे।

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Saturday, December 12, 2020

पराक्रमी वीर जनरल जोरावर सिंह ने तिब्बत व बाल्टिस्तान तक फहराया था भगवा

12 दिसंबर 2020


ये वो पराक्रमी थे जिनको अगर इतिहास में उचित स्थान मिलता तो आज की नई पीढ़ी बहुत कुछ समझती और उनका अनुसरण करती लेकिन न जाने किस मानसिकता और क्या सोच को रख कर किताबों को लिखने वालें तमाम नकली कलमकारों ने ऐसी ऐसी कहानियां गढ़ डाली जो भारत को लूटने वालों को महान और भारत का पुननिर्माण करने निकले योद्धाओं को गुमनाम कर डाला।




उन्ही तमाम पराक्रमियों में से एक महान योद्धा जनरल जोरावर सिंह का आज बलिदान दिवस है। जनरल जोरावर सिंह ने जम्मू के डोगरा सेना के सेनापति के रूप में लद्दाख, बाल्टिस्तान, लेह जीत कर जम्मू राज्य का हिस्सा बनाया। इन्होने तिब्बत क्षेत्र के मानसरोवर और कैलाश ( तीर्थ पुरी ) तथा भारत और नेपाल के संगम स्थल तकलाकोट तक विजय हासिल की। इन्होने भारत की विजय पताका भारत के बाहर तिब्बत और बाल्टिस्तान तक फहरायी।

तोयो ( अब चीन में ) में युद्ध करते हुए गोली लगने से इनका देहांत हुआ और तोयो में आज भी इनकी समाधि मौजूद है। लद्दाख जिस वीर सेनानी के कारण आज भारत में है, उनका नाम है जनरल जोरावर सिंह। 13 अप्रैल, 1786 को इनका जन्म ग्राम अनसरा (जिला हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश) में ठाकुर हरजे सिंह के घर में हुआ था। जोरावर सिंह महाराजा गुलाब सिंह की डोगरा सेना में भर्ती हो गये।

राजा ने इनके सैन्य कौशल से प्रभावित होकर कुछ समय में ही इन्हें सेनापति बना दिया। वे अपनी विजय पताका लद्दाख और बाल्टिस्तान तक फहराना चाहते थे। अतः जोरावर सिंह ने सैनिकों को कठिन परिस्थितियों के लिए प्रशिक्षित किया और लेह की ओर कूच कर दिया।

किश्तवाड़ के मेहता बस्तीराम के रूप में इन्हें एक अच्छा सलाहकार मिल गया। सुरू के तट पर वकारसी तथा दोरजी नामग्याल को हराकर जनरल जोरावर सिंह की डोगरा सेना लेह में घुस गयी। इस प्रकार लद्दाख जम्मू राज्य के अधीन हो गया। अब जोरावर ने बाल्टिस्तान पर हमला किया।

लद्दाखी सैनिक भी अब उनके साथ थे। अहमदशाह ने जब देखा कि उसके सैनिक बुरी तरह कट रहे हैं, तो उसे सन्धि करनी पड़ी। जोरावर ने उसके बेटे को गद्दी पर बैठाकर 7,000 रु. वार्षिक जुर्माने का फैसला कराया। अब उन्होंने तिब्बत की ओर कूच किया। हानले और ताशी गांग को पारकर वे आगे बढ़ गये।

अब तक जोरावर सिंह और उनकी विजयी सेना का नाम इतना फैल चुका था कि रूडोक तथा गाटो ने बिना युद्ध किये हथियार डाल दिये। अब ये लोग मानसरोवर के पार तीर्थपुरी पहुँच गये। वहां 8,000 तिब्बती सैनिकों ने परखा में मुकाबला किया, जिसमे तिब्बती पराजित हुए। जोरावर सिंह तिब्बत, भारत तथा नेपाल के संगम स्थल तकलाकोट तक जा पहुँचे। वहाँ का प्रबन्ध उन्होंने मेहता बस्तीराम को सौंपा तथा वापस तीर्थपुरी आ गये।

जोरावर सिंह के पराक्रम की बात सुनकर अंग्रेजों के कान खड़े हो गये। उन्होंने पंजाब के राजा रणजीत सिंह पर उन्हें नियन्त्रित करने का दबाव डाला। निर्णय हुआ कि 10 दिसम्बर, 1841 को तिब्बत को उसका क्षेत्र वापस कर दिया जाये। इसी बीच जनरल छातर की कमान में दस हजार तिब्बती सैनिकों की जनरल जोरावर सिंह के 300 डोगरा सैनिकों से मुठभेड़ हुई। राक्षसताल के पास सभी डोगरा सैनिक बलिदान हो गये।

जोरावर सिंह ने गुलामखान तथा नोनो के नेतृत्व में सैनिक भेजे, पर वे सब भी शहीद हुये। अब वीर जोरावर सिंह स्वयं आगे बढ़े। वे तकलाकोट को युद्ध का केन्द्र बनाना चाहते थे पर तिब्बतियों की विशाल सेना ने 10 दिसम्बर, 1841 को टोयो में इन्हें घेर लिया। दिसम्बर की भीषण बर्फीली ठण्ड में तीन दिन तक घमासान युद्ध चला।

12 दिसम्बर को जोरावर सिंह को गोली लगी और वे घोड़े से गिर पड़े। डोगरा सेना तितर-बितर हो गयी। तिब्बती सैनिकों में जोरावर सिंह का इतना भय था कि उनके शव को स्पर्श करने का भी वे साहस नहीं कर पा रहे थे। बाद में उनके अवशेषों को चुनकर एक स्तूप बना दिया गया। 'सिंह छोतरन' नामक यह खंडित स्तूप आज भी टोयो में देखा जा सकता है। तिब्बती इसकी पूजा करते हैं।

इस प्रकार जोरावर सिंह ने भारत की विजय पताका भारत से बाहर तिब्बत और बाल्टिस्तान तक फहरायी। वह भारत ही नहीं अपितु विश्व के एकमात्र योद्धा हैं जिनके शौर्य व वीरता से प्रभावित होकर शत्रु सेना द्वारा उनकी समाधि बनाई गई हो। उन्होंने लद्दाख को जम्मू रियासत का अंग बताया जो भारत का अभिन्न अंग है।

प्रकार इस वीर सपूत ने 12 दिसंबर 1841 ई. को तिब्बती से लड़ते हुए टोयो नामक स्थान पर वीरगति प्राप्त की। तिब्बतियों ने इनके उनकी समाधि बनाई। उन्होंने कहा कि वे हमारे प्रेरणास्त्रोत हैं।

लुटेरे, आक्रमणकारी, बलात्कारी मुग़लों और अंग्रेजों का इतिहास पढ़ाया जाता है लेकिन ऐसे भारत के वीर सपूतों का इतिहास पढ़ाया नही जाता है, जनता की मांग है कि अब अपने राष्ट्र व सनातन धर्म के योद्धाओं का इतिहास पढ़ाया जाना चाहिए।

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Friday, December 11, 2020

विभाजनकारी विषबेल बढ़ाने की कोशिश...

11 दिसंबर 2020


पिछले कुछ समय से पंजाब में जिस प्रकार की घटनाएं सामने आई हैं उसने पाकिस्तान में बैठे इस्लामी कट्टरपंथियों और जिहादियों के साथ ही पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ और खालिस्तानी आतंकियों के बीच एक बार फिर से हो रहे विषाक्त संयोजन का पर्दाफाश कर दिया है। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि पंजाब को पुन: अलगाववाद और आतंकवाद की आग में झोंकने का षड्यंत्र रचा जा रहा है।




आतंकवादी जाकिर मूसा सहित अन्य कश्मीरी आतंकियों की पंजाब में बढ़ती गतिविधियों से सुरक्षाबल चौकस हैं। पंजाब का हालिया घटनाक्रम और खासकर निरंकारियों पर हमले की घटना 1980-90 दशक के घावों की याद दिला रही है। जरनैल सिंह भिंडरांवाले का उभार, स्वर्ण मंदिर में ‘ऑपरेशन ब्लूस्टार’ और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या के परिणामस्वरूप दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों में सिखों का ‘प्रायोजित’ नरसंहार आज भी अधिकांश भारतीयों के मानस में पीड़ा और दहशत पैदा करता है। यह सर्वविदित है कि पाकिस्तान भारत की एकता और अखंडता को नष्ट कर उसे दार-उल-इस्लाम में परिवर्तित करने के अपने अधूरे एजेंडे को पूरा करना चाहता है। इसी लक्ष्य की पूर्ति हेतु उसने खालिस्तान जैसे ¨हसक आंदोलन को पहले जन्म दिया और उसे संरक्षण दे रहा है।

यक्ष प्रश्न है कि जिस पंथ की उत्पत्ति सनातन संस्कृति की रक्षा करने हेतु हुई उसके कुछ लोग क्यों पाकिस्तान के सहयोगी बन रहे हैं ? इस विषबेल की जड़ें 1857 की क्रांति से जुड़ी हैं जिसकी अंग्रेज कभी पुनरावृत्ति नहीं चाहते थे। इसके लिए अंग्रेजों ने ‘बांटो और राज करो’ की विभाजनकारी नीति अपनाई। हिंदू-मुस्लिम विवाद इसमें सबसे सरल रहा और औपनिवेशिक शासकों ने मुस्लिम अलगाव पैदा करने लिए सैयद अहमद खान जैसे नेता चुने।

अंग्रेजों के लिए सबसे मुश्किल काम हिंदुओं और सिखों के बीच कड़वाहट पैदा करना था। इसका कारण स्पष्ट था, क्योंकि सिख पंथ के जन्म से ही पंजाब का हर हिंदू, गुरुओं के प्रति श्रद्धा का भाव रखता था और प्रत्येक सिख स्वयं को हिंदुओं और धर्म का रक्षक मानता था। इस अनोखे संबंध की नींव सिख गुरुओं ने ही रखी थी। इसलिए अंग्रेजों को सिख समाज में वैसा विश्वासपात्र नहीं मिला जैसा उन्हें मुस्लिम समुदाय में सैयद अहमद खान के रूप में प्राप्त हो गया था। तब अंग्रेजों ने आयरलैंड में जन्मे अपने ही एक अधिकारी मैक्स आर्थर मैकॉलीफ का चुनाव किया।

मैकॉलीफ ने पहले 1862 में इंपीरियल सिविल सर्विस (आइसीएस) में प्रवेश लिया और फिर 1864 में उन्हें पंजाब भेज दिया गया। इसी कालखंड में उन्होंने सिख पंथ को अपनाया और भाई काहन सिंह नाभा की सहायता से पवित्र ग्रंथ ‘गुरुग्रंथ साहिब’ का अंग्रेजी में अनुवाद किया। बाद में, उनकी छह खंडों में आई पुस्तक ‘द सिख रिलीजन-इट्स गुरु, सैक्रेड राइटिंग्स एंड ऑथर’ भी प्रकाशित हुई। भाई काहन सिंह प्रसिद्ध सिख शब्दावलीकार और कोशकार थे। उन्होंने ‘सिंह सभा आंदोलन’ में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने मैकॉलीफ की बौद्धिक प्रेरणा से ही 1897-98 में ‘हम हिंदू नहीं’ नाम से प्रकाशन निकाला था जिसमें उल्लिखित विचारधारा के आधार पर पाकिस्तान ने 1970-80 के दशक में खालिस्तान आंदोलन खड़ा किया और आज भी वह उसे अपने एजेंडे के अनुरूप सुलगाता रहता है। करतारपुर गलियारे के पीछे की उसकी मंशा पर मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने भी संदेह जता दिया है।

उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में एक उच्च अंग्रेज अधिकारी का सिख पंथ अपनाना महत्वपूर्ण घटनाक्रम था। मैकॉलीफ की पुस्तक की प्रस्तावना में इतिहासकार और लेखक खुशवंत सिंह ने लिखा था, ‘मैकॉलीफ की नियुक्ति के पीछे ब्रिटिश शासकों का कुटिल उद्देश्य निहित था। लॉर्ड डलहौजी ने सिख साम्राज्य को हड़पने के बाद पाया कि उस समय हिंदू और सिखों में विभाजन की कोई रेखा ही नहीं थी।’ आगे खुशवंत सिंह ने लिखा, ‘ब्रिटिश प्रशासकों को लगा कि स्थिति उनके अनुकूल तब होगी जब वह खालसा सिखों को उनकी विशिष्ट और अलग पहचान के लिए प्रोत्साहित करेंगे।’ मैकॉलीफ ने भी धीरे-धीरे सिखों को मुख्यधारा से दूर करते हुए अंग्रेजों का विश्वासपात्र सहयोगी बताने का प्रयास किया। उन्होंने ‘द सिख रिलीजन-खंड-1’ में लिखा , ‘एक दिन गुरु तेग बहादुर अपनी जेल की ऊपरी मंजिल पर थे। तब औरंगजेब को लगा कि गुरु दक्षिण दिशा स्थित शाही जनाना (महिलाओं के कक्ष) की ओर देख रहे हैं। औरंगजेब ने उन पर शिष्टाचार के उल्लंघन करने का आरोप लगा दिया। तब गुरु ने कहा-सम्राट औरंगजेब, मैं तुम्हारे निजी कक्ष या फिर तुम्हारी रानियों की ओर नहीं देख रहा था। मैं तो उन यूरोपीय निदेशकों की तलाश में था जो समुद्र पार करके तुम्हारे साम्राज्य को नष्ट करने के लिए यहां आ रहे हैं।’ इसका अर्थ यह बताया गया कि मैकॉलीफ ने भारत पर औपनिवेशिक शासन पर सिख गुरुओं की मुहर लगवाने का प्रयास किया था।

अंग्रेजों की विभाजनकारी रणनीति का परिणाम जल्द ही सामने आ गया। 1 मई 1905 को स्वर्ण मंदिर के तत्कालीन प्रबंधक ने परिसर में ब्राह्मणों के पूजा-पाठ पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद वहां से हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया गया। पंजाब के अन्य गुरुद्वारों में भी ऐसा ही हुआ। जिस जनरल डायर ने 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग नरसंहार की पटकथा लिखी थी उसे अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार ने आमंत्रित कर सिरोपा भेंट किया। वर्ष 1901 की जनगणना के अनुसार, तत्कालीन पंजाब में सिखों की जनसंख्या 10 लाख थी। तब जनगणना आयुक्त ने निर्देश दिया कि हिंदुओं से अलग सिखों की गणना की जाए। परिणामस्वरूप, 1911 में सिखों की आबादी एकाएक बढ़कर 30 लाख हो गई। अंग्रेजों ने ब्रिटिश सेना में अलग से खालसा रेजीमेंट का गठन किया जिसमें सैनिकों को ‘पांच ककार’ धारण करने का स्पष्ट निर्देश था। ऐसा इसलिए किया गया ताकि खालसा और सिख गुरुओं के अन्य शिष्यों के बीच अंतर दिखाया जा सके।

अंग्रेजों द्वारा दी गई पहचान समाज को खंडित करती है और पाकिस्तान सहित देश के शत्रुओं को सहायता देती है। विडंबना है कि भारत में इन विभाजनकारी नीतियों का अनुसरण आज भी किया जा रहा है। सिख गुरुओं द्वारा दिखाया गया मार्ग न केवल भारत को जोड़ता है, बल्कि वैश्विक मानवता में एकता का भी संदेश देता है। स्पष्ट है कि आज इसकी आवश्यकता और बढ़ गई है कि सिख गुरुओं की परंपराओं, दर्शन और जीवनशैली का अनुसरण किया जाए ताकि उस विभाजनकारी मानसिकता का सामना किया जा सके जिसे अंग्रेजों ने अपने औपनिवेशिक साम्राज्य को स्थापित करने हेतु किया था।
(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं स्तंभकार हैं)
साभार- दैनिक जागरण


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