Thursday, February 24, 2022

श्यामाप्रसाद मुखर्जी के बदलिदान के कारण कश्मीर बच पाया था

06 जुलाई 2021

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डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को चढ़ाया गया था तथाकथित धर्मनिरेपक्षता की बलि, इन्हे मिली थी देशप्रेम की सज़ा और इनकी मृत्यु तक को बना दिया गया ऐसा रहस्य जिसे आज तक खोलने की किसी की भी हिम्मत नहीं हो पायी है। जी हाँ चर्चा चल रही है नकली धर्मनिरपेक्षता की आंधी और हिन्दू विरोध की सुनामी में अपने आप को स्वाहा कर के कश्मीर को बचा लेने वाले अमर बलिदानी श्यामा प्रसाद मुखर्जी की.... आज भी जब जब और जहाँ जहाँ ये नारे गूँजते हैं की जहाँ हुए बलिदान मुखर्जी वो कश्मीर हमारा है तो उस महापुरुष की याद आ जाती है जिसे पहले जेल और बाद में मृत्यु इसलिए दे डाली गयी क्योकि उन्होंने कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बताते हुए वहां कूच कर देने का एलान कर दिया।



भारत माता के इस वीर पुत्र का जन्म 6 जुलाई 1901 को एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। इनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी बंगाल में एक शिक्षाविद् और बुद्धिजीवी के रूप में प्रसिद्ध थे। कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक होने के पश्चात श्री मुखर्जी 1923 में सेनेट के सदस्य बने। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात, 1924 में उन्होंने कलकत्ता उच्च न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में नामांकन कराया। 1926 में उन्होंने इंग्लैंड के लिए प्रस्थान किया जहाँ लिंकन्स इन से उन्होंने 1927 में बैरिस्टर की परीक्षा उत्तीर्ण की। 33 वर्ष की आयु में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त हुए और विश्व का सबसे युवा कुलपति होने का सम्मान प्राप्त किया। श्री मुखर्जी 1938 तक इस पद को शुशोभित करते रहे।


अपने कार्यकाल में उन्होंने अनेक रचनात्मक सुधार किये तथा इस दौरान ‘कोर्ट एंड काउंसिल ऑफ़ इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस बैंगलोर’ तथा इंटर यूनिवर्सिटी बोर्ड के सक्रिय सदस्य भी रहे। श्यामाप्रसाद अपनी माता पिता को प्रतिदिन नियमित पूजा-पाठ करते देखते तो वे भी धार्मिक संस्कारों को ग्रहण करने लगे। वे पिताजी के साथ बैठकर उनकी बातें सुनते। माँ से धार्मिक एवं ऐतिहासिक कथाएँ सुनते-सुनते उन्हें अपने देश तथा संस्कृति की जानकारी होने लगी। वे माता-पिता की तरह प्रतिदिन माँ काली की मूर्ति के समक्ष बैठकर दुर्गा सप्तशती का पाठ करते। परिवार में धार्मिक उत्सव व त्यौहार मनाया जाता तो उसमें पूरी रुचि के साथ भाग लेते। गंगा तट पर मंदिरों में होने वाले सत्संग समारोहों में वे भी भाग लेने जाते। आशुतोष मुखर्जी चाहते थे कि श्यामाप्रसाद को अच्छी से अच्छी शिक्षा दी जाए। उन दिनों कलकत्ता में अंग्रेजी माध्यम के अनेक पब्लिक स्कूल थे।


आशुतोष बाबू यह जानते थे कि इन स्कूलों में लार्ड मैकाले की योजनानुसार भारतीय बच्चों को भारतीयता के संस्कारों से काटकर उन्हें अंग्रेजों के संस्कार देने वाली शिक्षा दी जाती है। उन्होंने एक दिन मित्रों के साथ विचार-विमर्श कर निर्णय लिया कि बालकों तथा किशोरों को शिक्षा के साथ-साथ भारतीयता के संस्कार देने वाले विद्यालय की स्थापना कराई जानी चाहिए। उनके अनन्य भक्त विश्वेश्वर मित्र ने योजनानुसार ‘मित्र इंस्टीट्यूट’ की स्थापना की। भवानीपुर में खोले गये इस शिक्षण संस्थान में बंग्ला तथा संस्कृत भाषा का भी अध्ययन कराया जाता था। श्यामा प्रसाद को किसी अंग्रेजी पब्लिक स्कूल में दाखिला दिलाने की बजाए ‘मित्र इंस्टीट्यूट’ में प्रवेश दिलाया गया। आशुतोष बाबू की प्रेरणा से उनके अनेक मित्रों ने अपने पुत्रों को इस स्कूल में दाखिला दिलाया। वे स्वयं समय-समय पर स्कूल पहुँच कर वहाँ के शिक्षकों से पाठ्यक्रम के विषय में विचार-विमर्श किया करते थे।


“श्यामाप्रसाद मुखर्जी नेहरू की पहली सरकार में मंत्री थे। जब नेहरू-लियाक़त पैक्ट हुआ तो उन्होंने और बंगाल के एक और मंत्री ने इस्तीफ़ा दे दिया। उसके बाद उन्होंने जनसंघ की नींव डाली। आम चुनाव के तुरंत बाद दिल्ली के नगरपालिका चुनाव में कांग्रेस और जनसंघ में बहुत कड़ी टक्कर हो रही थी। इस माहौल में संसद में बोलते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कांग्रेस पार्टी पर आरोप लगाया कि वो चुनाव जीतने के लिए वाइन और मनी का इस्तेमाल कर रही है।” विडम्बना यह है कि तात्कालीन सत्ता के खिलाफ जाकर सच बोलने की जुर्रत करने वाले डॉ. मुखर्जी को इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी, और उससे भी बड़ी विडम्बना की बात ये है कि आज भी देश की जनता उनकी रहस्यमयी मौत के पीछे की सच को जान पाने में नाकामयाब रही है।


डॉ. मुखर्जी इस प्रण पर सदैव अडिग रहे कि जम्मू एवं कश्मीर भारत का एक अविभाज्य अंग है। उन्होंने सिंह-गर्जना करते हुए कहा था कि, “एक देश में दो विधान, दो निशान और दो प्रधान, नहीं चलेगा- नही चलेगा।” समान नागरिक संहिता बनाने की बात करने वालों ने भी कभी पलट कर ये नहीं जानना चाहा की किस ने और क्यों मारा कश्मीर के रक्षक श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी को? उस समय भारतीय संविधान के



370 में यह प्रावधान किया गया था कि कोई भी भारत सरकार से बिना परमिट लिए हुए जम्मू-कश्मीर की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकता। डॉ. मुखर्जी इस प्रावधान के सख्त खिलाफ थे। उनका कहना था कि, “नेहरू जी ने ही ये बार-बार ऐलान किया है कि जम्मू व कश्मीर राज्य का भारत में 100% विलय हो चुका है, फिर भी यह देखकर हैरानी होती है कि इस राज्य में कोई भारत सरकार से परमिट लिए बिना दाखिल नहीं हो सकता।


मखर्जी ने कहा कि मैं नही समझता कि भारत सरकार को यह हक़ है कि वह किसी को भी भारतीय संघ के किसी हिस्से में जाने से रोक सके क्योंकि खुद नेहरू ऐसा कहते हैं कि इस संघ में जम्मू व कश्मीर भी शामिल है।” उन्होंने इस प्रावधान के विरोध में भारत सरकार से बिना परमिट लिए हुए जम्मू व कश्मीर जाने की योजना बनाई। इसके साथ ही उनका अन्य मकसद था वहां के वर्तमान हालात से स्वयं को वाकिफ कराना क्योंकि जम्मू व कश्मीर के तात्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला की सरकार ने वहां के सुन्नी कश्मीरी मुसलमानों के बाद दूसरे सबसे बड़े स्थानीय भाषाई डोगरा समुदाय के लोगों पर असहनीय जुल्म ढाना शुरू कर दिया था।


1950 के आसपास ईस्ट पाकिस्तान में हिन्दुओं पर जानलेवा हमले शुरु हो गये। करीब 50 लाख हिन्दू ईस्ट पाकिस्तान को छोड़ भारत वापस आ गए। हिन्दुओं की यह हालत देखकर मुखर्जी चाहते थे कि देश पाकिस्तान के खिलाफ सख्त कदम उठाए। वह कुछ कहते इससे पहले जवाहरलाल नेहरु और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने समझौता कर लिया था। समझौते के मुताबिक दोनों देश के रिफ्यूजी बिना किसी परेशानी के अपने-अपने देश आ जा सकते थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी को नेहरु जी की यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आई। उन्होंने तुरंत ही कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया। इस्तीफ़ा देते ही उन्होंने रिफ्यूजी की मदद के काम में खुद को झोंक दिया।


आख़िरकार कश्मीर को अलग कर दिया गया। उसे अपना एक नया झंडा और नई सरकार दे दी गई। एक नया कानून भी जिसके तहत कोई दूसरे राज्य का व्यक्ति वहां जाकर नहीं बस सकता। सब कुछ खत्म हो चुका था, लेकिन मुखर्जी आसानी से हार मानने वालों में से नहीं थे। ‘एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान नहीं चलेंगे’ के नारे के साथ वह कश्मीर के लिए निकल पड़े। नेहरु को इस बात की खबर हुई तो उन्होंने हर हाल में मुखर्जी को रोकने का आदेश जारी कर दिया। उन्हें कश्मीर जाने की इजाजत नहीं थी। ऐसे में मुखर्जी के पास गुप्त तरीके से कश्मीर पहुंचने के सिवा कोई दूसरा विकल्प न था। वह कश्मीर पहुंचने में सफल भी रहे।


मगर उन्हें पहले कदम पर ही पकड़ लिया गया। उन पर बिना इजाजत कश्मीर में घुसने का आरोप लगा। एक अपराधी की तरह उन्हें श्रीनगर की जेल में बंद कर दिया गया। कुछ वक्त बाद उन्हें दूसरी जेल में शिफ्ट कर दिया गया। कुछ वक्त बाद उनकी बीमारी की खबरें आने लगी। वह गंभीर रुप से बीमार हुए तो उन्हें अस्पताल ले जाया गया। वहां कई दिन तक उनका इलाज किया गया। माना जाता है कि इसी दौरान उन्हें ‘पेनिसिलिन’ नाम की एक दवा का डोज दिया गया। चूंकि इस दवा से मुखर्जी को एलर्जी थी, इसलिए यह उनके लिए हानिकारक साबित हुई।


कहते हैं कि डॉक्टर इस बात को जानते थे कि यह दवा उनके लिए जानलेवा है। बावजूद इसके उन्हें यह डोज दिया गया। धीरे-धीरे उनकी तबियत और खराब होती गई। अंतत: 23 जून 1953 को उन्होंने हमेशा के लिए अपनी आंखें बंद कर ली। मुखर्जी की मौत की खबर उनकी मां को पता चली तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने नेहरु से गुहार लगाई कि उनके बेटे की मौत की जांच कराई जाये। उनका मानना था कि उनके बेटे की हत्या हुई है। यह गंभीर मामला था, लेकिन नेहरू ने इसे अनदेखा कर दिया। हालाँकि, कश्मीर में उनके किये इस आन्दोलन का काफी फर्क पड़ा और बदलाव भी हुआ और कश्मीर अलग बनता बच गया।


इस कड़ी में, नेहरु का रवैया लोगों के गले से नहीं उतरा। वह मुखर्जी की मौत के वाजिब कारण को जानना चाहते थे। लोगों ने आवाजें भी उठाई, लेकिन सरकार के सामने किसी की एक नहीं चली। नतीजा यह रहा कि उनकी मौत का रहस्य उनके साथ ही चला गया। इतने सालों बाद भी किसी के पास जवाब नहीं है कि उनकी मौत के पीछे की असल वजह क्या थी?


कश्मीर की अखंडता के उस महान रक्षक अमर बलिदानी श्यामा प्रसाद मुखर्जी की गाथा सदा-सदा के लिए अमर रहेगी।


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क्या मनुष्य को मांस खाना चाहिए? जानिए- सच क्या है?

05 जुलाई 2021

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वास्तव में शाकाहार हर प्राणी से प्रेम करना सिखाता है क्योंकि शाकाहारी व्यक्ति हिंसा नहीं करता और जो हिंसा नहीं करता उससे अन्य जीव जंतु भी प्रेम करते हैं।



इसान जबसे इस दुनिया में आया है तबसे उसके साथ एक चीज़ और आई है और वो है भूख। भूख ऐसी बात है जो इंसान को कुछ भी करने के लिए मजबूर कर देती है। कई बार तो भूख के लिए इंसान वो सब कर जाता है जो उसे किसी भी हाल में नहीं करने चाहिए।


उन्हीं न करने योग्य कामों में एक है- मांस भक्षण। अक्सर देखा जाता है कि हम अपनी भूख मिटाने के लिए किसी भी मासूम और बेज़ुबान जानवर को मारकर खा जाते हैं लेकिन यह नैतिकता की दृष्टि से, मानवता की दृष्टि से और विज्ञान की दृष्टि से बिल्कुल भी ठीक नहीं है। चलिए, आइये देखते हैं कैसे?


अगर इस संसार के सभी जीवों को देखा जाए तो उनमें मनुष्य ही सबसे ज्यादा श्रेष्ठ और क्रियाशील है। ईश्वर ने जो नेमतें और ताक़तें इंसानों को दी हैं वो और किसी जीव और किसी प्राणी को नहीं बक्शी इसलिए हम इंसानों की ज़िम्मेदारी भी सबसे अधिक है। इंसान अपने हुनर और दिमाग का इस्तेमाल करके भी अन्य जीवों से अपना भोजन प्राप्त कर सकता है, जैसे- गाय, भैंस का दूध बेचकर, भेड़ से ऊन बेचकर , हाथी से महावत बनकर, घोड़े से तांगा आदि चलाकर। इस तरह से वन्य जीवों को मारे बिना भी इनके जरिए भूख का इलाज हो सकता है तो फिर क्यों बेवजह इनकी हत्या का पाप अपने सिर लें?


हालांकि इसपर ये सवाल उठाया जा सकता है कि जो पेड़-पौधे खाए जाते हैं उनमें भी तो जीवन होता है, अगर उनको खाना पाप नहीं है तो मांस खाना कैसे पाप हुआ! इस सवाल का जवाब ये है कि पेड़-पौधे आदि वनस्पति सुषुप्ति अवस्था में यानी एक तरह की गहरी नींद में होते हैं। उन्हें काटने या तोड़ने पर हमारी तरह पीड़ा का अनुभव नहीं होता। वानस्पतिक खाद्यपदार्थ जाग्रत प्राणियों द्वारा स्वेच्छा से दिये गए दूध आदि की तरह होते हैं। इस तरह वनस्पतियों से प्राप्त भोजन खाना गलत नहीं है। वह मांस नहीं होता। वह उनका स्वाभाविक फल है। वे इससे आगे बढ़ने में सक्षम नहीं हैं। अगर यदि हम आम-अमरूद जैसे फल हिंसा समझकर न खावें तो वे सड़कर खाने के लायक ही नहीं रहेंगे और फिर उनका कोई फायदा भी नहीं रहेगा। इसी तरह अगर हरी-भरी सब्जियों को भी यूं ही छोड़ दिया जाए तो वे भी सूखकर बेकार हो जाएंगी और किसी काम की नहीं रहेंगी। आप सब अक्सर खबरों में सुनते होंगे कि आज इतना टन गेंहू गोदाम में पड़े पड़े खराब हो गया।


लकिन वन्य जीवों के साथ ऐसा नहीं होता। पेड़ पौधों की अपेक्षा वन्य जीव अधिक मात्रा में सुख दुख का अनुभव करते हैं। उनमें प्रजनन क्षमता भी होती है जिससे वे अपना वंश बढाते हैं। उन्हें काटने मारने पर रक्त की धार सीधी दिखाई देती है। अपने परिजन की मृत्यु पर पशु भी आंसू बहाते हैं तो फिर उनपर इस तरह का अत्याचार क्यों? दूसरी बात यदि आप प्रोटीन विटामिन्स आदि के लिए मांस को सही मानते हो तो यह तर्क भी पूरी तरह से ठीक नहीं क्योंकि जो प्रोटीन मिनरल्स पशुओं में होते हैं वो उनमें प्राकृतिक रूप से नहीं होते। वो सभी तत्व वन्य जीव, पेड़-पौधों से ही प्राप्त करते हैं। अंग्रेजी भाषा में इसे फ़ूड चेन कहा जाता है। इस तरह जब पशु पक्षी भी शाकाहार से ज़रूरी तत्व पा सकते हैं तो हम क्यों नहीं? हम तो उनसे बहुत अधिक श्रेष्ठ हैं तो फिर हम क्यों मांस का ही रास्ता चुनें? इस पर तर्क करनेवाले ये तर्क देते हैं कि शेर आदि हिंसक जीव भी तो मांस खाते हैं तो हम क्यों न खाएं तो इस पर मैं यही कहूंगा कि सर्वप्रथम तो ये कि मांसाहार उनका प्राकृतिक भोजन है, उनके पास अन्य कोई विकल्प ही नहीं है और न ही उनका बौद्धिक स्तर इतना ऊँचा है कि वे इंसानों की तरह वृक्ष आदि उगा सकें। दूसरा ये कि वे मांस खाने के लिए मेहनत करते हैं। अपने शिकार से लड़कर उसे प्राप्त करते हैं और वे उसे उसी हालत में खाते हैं जिस हालत में वे उसे प्राप्त करते हैं। वे मांस के साथ-साथ हड्डी भी पचा लेने में सक्षम हैं लेकिन इंसानों के साथ यहां भी उल्टा है पहले क्रूरता से उसे मारते हैं और फिर उसे पकाकर भिन्न भिन्न मसालों का प्रयोग कर उसे बनाते हैं जिससे मांस का भयानक रूप ढंक जाता है और खाने के लायक बनता है। हम उसे जैसे का तैसा ग्रहण नहीं कर सकते वहीं अगर पेड़ पौधों की बात की जाए तो पेड़ पौधे हमें जिस अवस्था में मिलते हैं हम उसी अवस्था में उनका सेवन कर सकते हैं। उन्हें भोजन की तरह पकाकर खाने की भी ज़रूरत नहीं और वे मांस की अपेक्षा सुपाच्य भी होते हैं। फिर भी लोग यह कहकर मांस भक्षण करते हैं कि यदि हम इन्हें नहीं खाएंगे तो इनकी जनसंख्या बढ़ जाएगी तो इस मामले में मैं पूछना चाहूंगा कि हजारों प्रजातियां ऐसी हैं जो विलुप्ति की कगार पर हैं वो भी तब जब उन्हें खाया नहीं जाता। बाघ कोई नहीं खाता फिर भी वे मिट रहे हैं। नीलगायी कभी कभार ही दिखाई देती है। धीरे धीरे हाथी भी कम हो रहे हैं तो बिना खाए इनकी जनसंख्या नहीं बढ़ी तो अन्यों की कैसे बढ़ेगी? अगर इनकी जनसंख्या बढ़ भी गयी तो कुदरत उसका रास्ता खुद ब खुद ढूंढ लेगी। मनुष्य को तो लगभग कोई नहीं खाता मगर फिर भी प्रकृति मनुष्य की जनसंख्या को काबू में रखने का उपाय खोज ही लेती है और जो प्रकृति मनुष्य की जनसंख्या वश में कर सकती है वह पशुओं की जनसंख्या वश में क्यों नहीं कर सकती?


मांसाहार मनुष्य का भोजन नहीं है उसका एक कारण और है और वो ये है कि मांसाहार हर काल एवं हर परिस्थिति में नहीं किया जा सकता लेकिन शाकाहार जब चाहे तब किया जा सकता है। जब एक शिशु जन्म लेता है तब वह दूध ही पीता है, बहुत-से त्योहारों में मांसाहार छोड़ना ही पड़ता है और मांसाहार हमारे लिए हर जगह उपलब्ध हो जाए ऐसा भी नहीं है किंतु शाकाहार व्यंजन हर जगह मिल ही जाता है। इतिहास में इस विषय में प्रमाण हैं। भगवान राम को जंगलो में भी कंद मूल फल मिल जाते हैं। मांसाहार का विकल्प होने पर भी वे शबरी के बेर ही खाते हैं। पांडव बारह वर्ष जंगलों में बिताते हैं लेकिन एक भी जीव हत्या नहीं करते। महाराणा प्रताप जंगलों में भटकते भटकते घास की रोटी खाते हैं लेकिन पेट के लिए किसी की जान नहीं लेते। इस आधुनिक युग में भी ऐसी ऐसी महान विभूतियां हुईं हैं जिन्होंने शाकाहारी रहते हुए भी मांसाहारियों को बदल दिया। उन्हें में से एक थे महर्षि रमण। उन्होंने एक बार किसी सिंह के पंजे से कांटे को निकालकर साफ किया जिससे वह शेर भी उनका भक्त हो गया। इसके बाद वह हर रोज उनके आश्रम आता और उनके पैर चाटकर चला जाता।


इसी तरह सन् 1937 की घटना है जब किसी साधु ने एक शेर के बच्चे को पकड़कर केवल दूध साग आदि से उसका लालन पालन किया जिससे वह शेर पूरी तरह अहिंसक हो गया। जहाँ जहाँ वह साधु जाता वहां वहां वह भी जाता मगर इस दौरान उस शेर ने किसी को भी हानि नहीं पहुंचाई। इसी तरह का एक वाकया अमेरिका में भी हुआ। सन् 1946 से 1955 की घटना है। अमेरिका के एक चिड़ियाघर में एक शेरनी ने एक मादा शेर को जन्म दिया जिसकी एक टांग खराब थी इसलिए उस शेरनी के बच्चे को जॉर्ज नाम के व्यक्ति को सौंप दिया जोकि स्वभाव से ही जानवर प्रेमी था। उसने उस मादा शेरनी के बच्चे को ठीक करने के लिए नौ साल तक गाय का दूध पिलाया जिससे उसकी टांग अच्छी हो गई। तब जॉर्ज ने सोचा इसे मांस वगैरह भी देना चाहिए लेकिन उस  शेरनी ने मांस की तरफ मुंह उठाकर देखा भी नहीं। मांस देखते ही वह बेचैन हो जाती थी और बड़े होने पर भी उसका यह स्वभाव नहीं बदला। वह हिंसक प्राणी होकर भी सबसे प्यार करती थी। यहां तक छोटे छोटे बच्चे भी उसकी पीठ पर बिना डर के घूमते थे। अपने इस स्वभाव से वह इतनी प्रसिद्ध हो गई थी कि उसकी खबरें अमेरिका के पहले ही पेज पर छपने लगी। चिड़ियाघर में भी वह हमेशा खुली ही रहती थी। ये उसके सात्विक आहार का प्रभाव था जिसने उसे भी सात्विक बना दिया था क्योंकि कहावत है कि जैसा खाय अन्न वैसा होय मन।


इस शेरनी के बारे में जानकर मांसाहार को सही ठहरानेवाले लोगों को सोचना चाहिए कि अगर शाकाहार उसके जीवन में इतना बदलाव ला सकता है तो आपका जीवन शाकाहार से कितना बदल जायेगा और जब शेर जैसे खूंखार जानवर बिना मांस के रह सकते हैं जो कि उनका प्राकृतिक भोजन है तो मनुष्य क्यों नहीं रह सकता?


वास्तव में शाकाहार हर प्राणी से प्रेम करना सिखाता है क्योंकि शाकाहारी व्यक्ति हिंसा नहीं करता और जो हिंसा नहीं करता उससे अन्य जीव जंतु भी प्रेम करते हैं। महर्षि पतंजलि 'योगसूत्र' में लिखते हैं- अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।।


अर्थात अहिंसा की प्रतिष्ठा हो जाने पर उसके समीप रहनेवाले अन्य प्राणी भी वैर त्याग देते हैं। यही कारण है कि हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि जंगलों में भी आवास बनाकर वन्य जीवों के साथ शांति से रहते थे और महर्षि रमण तो इसके साक्षात प्रमाण हैं। उनके संग ने एक हिंसक पशु को भी अहिंसक बना दिया इसलिए मांसाहार छोड़िए, पशु पक्षियों से प्रेम कीजिए, बदले में आपको उनसे प्रेम ही मिलेगा।


अगर मेरे इस लेख को पढ़कर किसी एक व्यक्ति ने भी मांसाहार त्याग दिया तो मैं समझूंगा कि मेरी मेहनत सफल हुई।    

(साभार- शांतिधर्मी पत्रिका, जून अंक 2020)


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अमेरिका में वर्ल्ड पार्लियामेंट में दो संतों ने सनातन धर्म का लहराया है परचम

04 जुलाई 2021

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सवामी विवेकानंद ने अमेरिका के शिकागो में 11 सितंबर 1893 को आयोजित विश्व धर्म परिषद में जो भाषण दिया था उसकी प्रतिध्वनि युगों-युगों तक सुनाई देती रहेगी।

https://youtu.be/wmswegtRqus



हिन्दू संस्कृति का परचम लहराने के लिए वर्ल्ड रिलीजियस पार्लियामेंट (विश्व धर्मपरिषद) शिकागो में भारत का नेतृत्व 11 सितम्बर 1893 को स्वामी विवेकानंदजी ने और ठीक उसके 100 साल बाद 4 सितम्बर 1993 को हिंदू संत आशारामजी बापू ने किया था।


लकिन दुर्भाग्य है कि जिन संतों को "भारत रत्न" की उपाधि से अलंकृत करना चाहिए उन्हें ईसाई मिशनरियों के इशारे पर राजनीति के तहत झूठे आरोपों द्वारा जेल में भेजा जाता है और विदेशी फण्ड से चलनेवाली भारतीय मीडिया द्वारा उन्हें बदनाम कराया जाता है।


सवामी विवेकानंद ने जब हिंदुओं की घरवापसी शुरू की और पादरियों का विरोध शुरू किया तब ईसाई मिशनरियों की कठपुतली बने वीरचंद गांधी द्वारा अखबारों में उनके लिए गन्दा-गंदा लिखा गया। स्वामी विवेकानंदजी पर स्त्री लंपट, चरित्रहीन, विलासी युवान- इस तरह के अनेक आरोप लगाए गए। उनके हयाती काल में उन्हें इतना परेशान किया गया, उनका इतना कुप्रचार किया गया कि उनके गुरुजी की समाधि के लिये एक गज जमीन तक उन्हें नहीं मिली थी। पर अब पूरी दुनिया स्वामी विवेकानंदजी व उनके गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस का जय-जयकार करती है।


जब वे धरती से चले गए, अर्थात् इतिहास के पन्नों पर जब उनकी महिमा आयी तब लोग उनको इतना आदर - सम्मान देते हैं पर उनके हयाती काल में उनके साथ दुष्टों ने कैसा व्यवहार किया...!!


सावधान!! क्या हम भी ऐसा व्यवहार हयात संतों के साथ तो नहीं कर रहे...??


बता दें कि आज भी यही सिलसिला चल रहा है। मल्टीनेशनल कंपनियों को भारी घाटा होने के कारण ही आशारामजी बापू षड़यंत्र के तहत फंसाये गए हैं; क्योंकि उनके 8 करोड़ भक्त बीड़ी, सिगरेट, दारू, चाय, कॉफी, सॉफ्ट कोल्डड्रिंक आदि नहीं पीते हैं, वेलेंटाइन डे आदि नहीं मनाते जिससे विदेशी कंपनियों को अरबों-खरबों का घाटा हो रहा था। उन्होंने लाखों हिन्दुओं की घरवापसी कराई, करोड़ों लोगों को सनातन धर्म की शिक्षा दी और आदिवासी क्षेत्रों में जाकर मकान, पैसे, जीवन उपयोगी सामग्री वितरित की इसलिए ईसाई मिशनरियों ने और विदेशी कंपनियों ने मिलकर मीडिया में बदनाम करवाया और राजनीतिकारों से मिलकर झूठे केस में फंसाया।


फकीरी स्वभाव के संत आशारामजी बापू 8 वर्ष से कष्टदायी जेल में हैं। इसके बावजूद उन्होंने समता का साथ नहीं छोड़ा है। 8-10 करोड़ साधकों का बल होने के बाद भी कभी उसका दुरुपयोग नहीं किया, हमेशा शांति का संदेश देके शासन-प्रशासन को सहयोग दिया। जेल में रहकर भी हमेशा अपने भक्तों को समता, धीरज और अहिंसा का संदेश भेजते रहे। जहर उगलनेवाले टीवी चैनलों ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया। बापू नहीं चाहते कि उनके भक्त उनके लिए कष्ट सहें, कानून को हाथ में लेकर कोई भी गलत कदम उठायें। वे हमेशा कहते रहते हैं: ‘‘सबका मंगल, सबका भला हो।’’ वे स्वयं कष्ट सहकर मुस्कराते हैं और अपने साधकों को कहते हैं:

"मुस्कुराकर गम का जहर जिनको पीना आ गया।

यह हकीकत है कि जहाँ में उनको जीना आ गया।।’’

बापू हर परिस्थिति में सम रहने का जो उपदेश देते हैं, वह उनके स्वयं के जीवन में, व्यवहार में प्रत्यक्ष देखने को मिलता है।


आज हर वह व्यक्ति पीड़ित है, जिसे अपने देश, धर्म और संस्कृति तथा इनके रक्षक संतों से प्यार है। आज दुःखद बात यह है कि देश के इतने बड़े संत, जिन्होंने विश्व धर्मसंसद में स्वामी विवेकानंद के बाद भारत का प्रतिनिधित्व किया और भारतीय संस्कृति की महानता का डंका बजाया तथा पूरे विश्व को प्रेम और भाईचारा सिखाया, उनको 8 वर्ष से जेल में रखा गया है। इसे अन्याय की पराकाष्ठा नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे?


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अमेरिकन रेनी लीन ने अपनाया हिन्दू धर्म, आशाराम बापू के लिए छेड़ा अभियान

03 जुलाई 2021

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सनातन हिंदू धर्म की महिमा जितनी भी गाई जाए- कम है; अन्य धर्म के जिन्होंने भी इसकी महिमा समझी उन्होंने हिंदू धर्म अपना लिया है।



आपको बता दें कि अमेरिकन लेखिका व सामाजिक कार्यकर्ता रेनी लीन ने सनातन हिंदूधर्म के बारे में पढ़ा, उसकी महिमा जानी और हिंदू धर्म अपना लिया। रेनी वर्तमान में Voice For India संस्था के माध्यम से भारतीय संस्कृति और समाज के उत्थान और संरक्षण में अपना योगदान दे रही हैं।


रनी गोरक्षा, हिन्दू एकता, आयुर्वेद, कश्मीरी पंडित, बॉलीवुड का हिंदूद्वेष, भारतीय वास्तविक इतिहास पर आधारित पाठ्यक्रम की आवश्यकता आदि विषयों पर निर्भीक टिप्पणी करती आ रही हैं।


रनी लीन ने भारत में हिन्दू संत आशारामजी बापू के सनातम धर्म व भारत देश और समाज उत्थान के कार्यों को और उनपर हो रहे अन्याय की पराकाष्ठा को देखते हुए बापू आशारामजी को रिहा करने का एक अभियान छेड़ दिया है।


रनी ने ट्वीट करके बताया कि हिंदुओं पर हमेशा हमले होते रहते हैं। श्री आसाराम बापू के द्वारा धर्म के लिए किए गए सतत कार्यों के कारण उनपर बेबुनियाद / योजनाबद्ध छेड़छाड़ का आरोप लगाया गया था। बापूजी 2013 से जेल में हैं और कई जानलेवा खतरनाक बीमारियों से पीड़ित हैं। उन्हें तुरंत रिहा करने की आवश्यकता है।

इस अभियान का समर्थन करें। #freeasarambapu

https://twitter.com/Voice_For_India/status/1410586092479389696?s=19


आपको बता दें कि कुछ दिन पहले ऑस्ट्रेलिया की एक युवती ने भी हिंदू संत आशाराम बापू की रिहाई की मांग करते हुए वीडियो भेजा था।

https://youtu.be/YwELDddpR44


ऑस्ट्रेलिया की युवती ग्रेलोरे सैनी ने कहा था, "आसाराम बापू 85 साल के हैं, वो कोरोना पॉजिटिव हो गए थे, वे अभी जेल में हैं। कोरोना वायरस वृद्ध लोगों के लिए ज़्यादा खतरनाक है।

अन्य बहुत सारे अपराध करनेवाले कैदियों को छोड़ा गया है तो बापू को क्यों नहीं छोड़ा?  मेरी विनती है कि बापूजी को बेल अथवा पैरोल पे छोड़ दें।"


विदेश के लोग भी संतों के साथ हो रहे अन्याय को समझकर उनकी रिहाई की अपील कर रहे हैं; भारत सरकार व न्यायालय कब रिहा करते हैं- देखते हैं।


आपको स्पष्ट कर देते हैं कि जिस समय लड़की ने छेड़छाड़ का आरोप लगाया है उस समय तो वो अपने मित्र से कॉल पर बात कर रही थी और बापू आशारामजी एक कार्यक्रम में व्यस्त थे, वहाँ पर 50-60 लोग भी थे, उन्होंने कोर्ट में गवाही भी दी है, लड़की का कॉल डिटेल भी दिया गया है फिर भी उनको जेल में रखना कहां तक उचित है?

https://youtu.be/V0sr9yHj1Go


उनको साजिश के तहत फंसाना और बाहर नहीं आने देना- उसके मुख्य कारण ये हैं:-


1). लाखों धर्मांतरित ईसाइयों को पुनः हिंदू बनाया व करोड़ों हिन्दुओं को अपने धर्म के प्रति जागरूक किया व आदिवासी इलाकों में जाकर धर्म के संस्कार, मकान, जीवनोपयोगी सामग्री दी, जिससे धर्मान्तरण करानेवालों का धंधा चौपट हो गया।


2). कत्लखाने जाती हज़ारों गौ-माताओं को बचाकर उनके लिए विशाल गौशालाओं का निर्माण करवाया।


3). शिकागो विश्व धर्मपरिषद में स्वामी विवेकानंदजी के 100 साल बाद जाकर हिन्दू संस्कृति का परचम लहराया।


4). विदेशी कंपनियों द्वारा देश को लूटने से बचाकर आयुर्वेद/होम्योपैथिक के प्रचार-प्रसार द्वारा एलोपैथिक दवाइयों के कुप्रभाव से असंख्य लोगों का स्वास्थ्य और पैसा बचाया।


5). लाखों-करोड़ों विद्यार्थियों को सारस्वत्य मंत्र देकर और योग व उच्च संस्कार का प्रशिक्षण देकर ओजस्वी-तेजस्वी बनाया।


6). इंग्लैंड, पाकिस्तान, चाईना, अमेरिका और बहुत सारे देशों में जाकर सनातन हिंदू धर्म का ध्वज फहराया।


7). वैलेंटाइन डे का कुप्रभाव रोकने हेतु "मातृ-पितृ पूजन दिवस" का प्रारम्भ करवाया।


8). क्रिसमस डे के दिन प्लास्टिक के क्रिसमस ट्री को सजाने के बजाय तुलसी पूजन दिवस मनाना शुरू करवाया।


9). करोड़ों लोगों को अधर्म से धर्म की ओर मोड़ दिया।


10). नशामुक्ति अभियान के द्वारा लाखों लोगों को व्यसनमुक्त कराया।


🚩11). वैदिक शिक्षा पर आधारित अनेकों गुरुकुल खुलवाए।


12). मुश्किल हालातों में कांची कामकोटि पीठ के "शंकराचार्य श्री जयेंद्र सरस्वतीजी", बाबा रामदेव, मोरारी बापू, साध्वी प्रज्ञा एवं अन्य संतों का साथ दिया।


13. बच्चों के लिए "बाल संस्कार केंद्र", युवाओं के लिए "युवा सेवा संघ", महिलाओं के लिए "महिला उत्थान मंडल" खोलकर उनका जीवन धर्ममय व उन्नत बनाया।


ऐसे अनेक भारतीय संस्कृति के उत्थान के कार्य किये हैं जो विस्तार से नहीं बता पा रहे हैं।


हिंदू संत आशाराम बापू पर जिस तरह से षड्यंत्र हुआ है उसको देखते हुए और उनके द्वारा किए गये राष्ट्र-संस्कृति व समाज उत्थान के सेवाकार्य तथा उनकी उम्र का ध्यान रखते हुए न्यायालय और सरकार को उन्हें शीघ्र रिहा करना चाहिए।


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बंगाल हिंसा: 15000 घटनाएँ, 25 मौतें, 7000 महिलाओं से बदसलूकी

02 जुलाई 2021

azaadbharat.org


अखण्ड भारतवर्ष के कई टुकड़े कर दिए गए और कई देश बना दिये गये। आज का जो भारत हमारे पास है वो भारतवर्ष का महज एक छोटा टुकड़ा मात्र है क्योंकि अभी जितनी भूमि भारत देश में है, उससे कई गुना ज्यादा भूमि पर अलग देश बन चुके हैं।



हमारे पास अभी जो भारत देश है उसमें मूलनिवासी हिंदू (आर्य) पूरे भारत में बहुसंख्यक थे लेकिन आज भारत में ही 9 राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक बन चुके हैं और ऊपर से आज हम जाति-पांति में बंटकर लड़ रहे हैं और कुछ हिंदुओं को तो अपने धर्म से कोई लेना देना ही नहीं है; सेक्युलर बनते जा रहे हैं जो अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं क्योंकि धर्म रहेगा तभी देश बचेगा। देश बचाने के लिए सबसे पहले सनातन हिन्दू धर्म को बचाना जरूरी है। 


पश्चिम बंगाल में हिंसा 


पश्चिम बंगाल में 2 मई 2021 को विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद राजनीतिक हिंसा भड़क उठी थी। इस दौरान हिंसा की करीब 15 हजार घटनाएँ हुईं। इनमें 25 लोगों की मौत हो गई और करीब 7000 महिलाओं के साथ बदसलूकी की गई। यह दावा सिक्किम हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस रहे प्रमोद कोहली की अगुवाई वाली फैक्ट फाइंडिंग टीम की रिपोर्ट में किया गया है।


यह रिपोर्ट मंगलवार (29 जून 2021) को केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किशन रेड्डी को सौंपी गई थी। यह टीम सिविल सोसायटी ग्रुप ‘कॉल फॉर जस्टिस’ ने हिंसा की जाँच के लिए गठित की थी। रिपोर्ट में कहा गया है, “स्पष्ट संकेत है कि ज्यादातर घटनाएँ छिटपुट नहीं, बल्कि पूर्व नियोजित, संगठित और षड्यंत्रपूर्ण थीं।”


कद्रीय गृह राज्य मंत्री किशन रेड्डी ने रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि राज्य के 16 जिले चुनाव के बाद हुई हिंसा से प्रभावित हुए हैं। उन्होंने कहा, “रिपोर्ट में कहा गया है कि चुनाव के बाद हुई हिंसा के कारण कई लोगों ने पश्चिम बंगाल में अपना घर छोड़ दिया है और असम, झारखंड और ओडिशा में शरण ली है।”


रिपोर्ट के अनुसार, कुछ खतरनाक अपराधियों, माफिया डॉन और आपराधिक गिरोहों, जो पहले से ही पुलिस रिकॉर्ड में थे, ने कथित तौर पर इन घातक हमलों को अंजाम दिया। जिससे यह स्पष्ट होता है कि राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को चुप कराने के लिए इन्हें राजनीतिक संरक्षण प्राप्त था।

रिपोर्ट में दावा किया गया है कि आवासीय और वाणिज्यिक संपत्तियों को नष्ट करने और तोड़फोड़ की घटनाओं को अंजाम देने का एकमात्र उद्देश्य लोगों को उनकी आजीविका से वंचित करना और उन्हें आर्थिक रूप विकलांग करना था।


बगाल में मंगलवार को पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा था, “रिपोर्ट कहती है कि हिंसा एक सुनियोजित साजिश थी और अपराधी, राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ शामिल थे। इसमें कहा गया है कि पुरुषों की हत्या की गई और महिलाओं का बलात्कार किया गया। कई राज्यों में चुनाव हुए लेकिन ऐसी हिंसा कहीं नहीं देखी गई। महिलाओं को सबसे अधिक हमलों का सामना करना पड़ा, जबकि राज्य की मुख्यमंत्री एक महिला हैं।”


गौरतलब है कि रिपोर्ट में बंगाल की सीएम को राज्य में हिंसा रोकने में नाकाम बताया गया है। ये भी बताया गया है कि टीम को कई जगहों पर क्रूड बम और पिस्टल की अवैध फैक्ट्री मिली। कमेटी के सदस्यों द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट 63 पेज की है। इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए टीम पश्चिम बंगाल गई थी, जहाँ से 200 से ज्यादा तस्वीरें, करीब 50 से ज्यादा वीडियो एनालिसिस कर इसे तैयार किया गया। यह टीम ग्राउंड पर भी लोगों से मिली। रिपोर्ट ये भी बताती है कि हिंसा में सिर्फ उन लोगों को निशाना बनाया गया जिन्होंने अपना वोट एक निश्चित पार्टी को नहीं दिया।


https://twitter.com/OpIndia_in/status/1410123591727779841?s=19


भारत हिन्दूबहुल देश है लेकिन विदेशी आक्रमणकारियों ने आकर बलपूर्वक या लालच से धर्मपरिवर्तन का चक्र चलाया; वो स्थिति आज भी बनी हुई है देश में। ईसाई मिशनरियां लालच देकर और मुस्लिम बलपूर्वक या छलपूर्वक धर्मपरिवर्तन कराने का प्रयास पुरजोर कर रहे हैं जिससे हिन्दुओं के लिए चिंताजनक स्थिति बनी हुई है। अगर ऐसा आगे भी चलता रहा तो 9 राज्यों की तरह अन्य राज्यों में भी शीघ्र हिन्दू अल्पसंख्यक हो जाएंगे।


आकडों के अनुसार इन सात राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में हिन्दू इतने प्रतिशत ही बचे हैं - मिजोरम (2.70%), लक्षद्वीप (2.80%), नागालैंड (8.70%), मेघालय (11.50%), जम्मू-कश्मीर (28.40%), अरुणाचल प्रदेश (29.00%), पंजाब (38.50%) और मणिपुर में (41.40) प्रतिशत है।  तीन राज्यों नागालैंड, मिजोरम और मेघालय में ईसाई बहुसंख्यक होते जा रहे हैं। जम्मू-कश्मीर और लक्षद्वीप में मुस्लिम समुदाय बहुसंख्यक है।


भारत में हिन्दू खत्म किये जा रहे हैं। अगर अब भी हिन्दू नहीं जागे तो हिंदुओं का अस्तित्व समाप्त होता चला जायेगा।


दुओं के खात्मे की बड़ी भयंकर साजिश रची जा रही है।


अभी भी समय है- हिन्दू ज्यादा बच्चे पैदा करें, धर्म की शिक्षा दें और जातिवाद छोड़कर एक बन जायें, नहीं तो कहीं सुरक्षित नहीं रह पाएंगे।


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ऑस्ट्रेलिया की लड़की ने संत आशाराम बापू के बारे में कही बड़ी बात...

ऑस्ट्रेलिया की लड़की ने संत आशाराम बापू के बारे में कही बड़ी बात...

https://youtu.be/YwELDddpR44


01 जुलाई 2021

azaadbharat.org


हिन्दू धर्मगुरु आशाराम बापू की उम्र 85 वर्ष की है, 8 साल से जोधपुर सेंट्रल जेल में बंद हैं। कुछ समय पहले वे कोरोना संक्रमित हुए थे, एलोपैथी दवाई दी गई जिसका उनपर प्रतिकूल असर हुआ और उनका हीमोग्लोबिन 3.7 चला गया था। काफी समय इलाज चला, उसके बाद वापिस उनको जेल भेज दिया गया। उनकी शारीरिक स्थिति अभी भी गंभीर बनी हुई है। 



इस विषय को लेकर ऑस्ट्रेलिया की लड़की ग्रेलोरे सैनी ने कहा "सारी दुनिया कोरोना वायरस पैंडेमिक के प्रकोप से जूझ रही है। मैंने सुना है कि भारत देश के सुप्रीम कोर्ट ने आदेश जारी किया है कि भारतीय जेलों में जो कैदी हैं उनको बेल या पैरोल पर छोड़ दिए जाए। क्योंकि जेलों  में बहुत भीड़ है। कोरोना काल में इतनी भीड़ में साफ़ सफाई रखना मुश्किल होगा इसलिए जेलों की भीड़ कम करने के लिए जिससे कि कोरोना के रोकथाम में मदद हो, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने ये आदेश जारी किया है।" 


आगे कहा कि आसाराम बापूजी, जो कि एक वृद्ध 85 साल के व्यक्ति  हैं, वो कोरोना पॉजिटिव हो गए थे कुछ समय पहले। वो अब भी जेल में हैं और उनको बेल या पैरोल अब तक नहीं दी गई है। 

हम जानते हैं कि कोरोना वायरस वयस्क अथवा वृद्ध लोगों के लिए ज़्यादा खतरनाक है। जब आसारामजी बापू 85 साल के हैं और कोविड19 पॉजिटिव हो गए थे तो उनको अब तक बेल पे छोड़ा क्यों नहीं गया?


वो एक अति वृद्ध व्यक्ति हैं जिनको जेल जैसी भीड़ भरी जगह में रखा गया है। अन्य बहुत सारे अपराध करनेवाले कैदियों को छोड़ा गया है तो आसाराम बापूजी को क्यों नहीं छोड़ा? 

मेरी प्रशासन से विनती है कि आप प्लीज आसाराम बापूजी को बेल अथवा पैरोल पे छोड़ दें। धन्यवाद!


आपको स्पष्ट बता देते हैं कि जिस समय लड़की ने छेड़छाड़ का आरोप लगाया है उस समय तो वो अपने मित्र से कॉल पर बात कर रही थी और बापू आशारामजी किसी कार्यक्रम में व्यस्त थे, वहाँ पर 50-60 लोग भी थे, उन्होंने कोर्ट में गवाही भी दी है, लड़की का कॉल डिटेल भी दिया गया है फिर भी उनको जेल में रखना कहां तक उचित है?

https://youtu.be/V0sr9yHj1Go


उनको साजिश के तहत फंसाना और बाहर नहीं आने देना- उसके मुख्य कारण ये हैं:-


1). लाखों धर्मांतरित ईसाइयों को पुनः हिंदू बनाया व करोड़ों हिन्दुओं को अपने धर्म के प्रति जागरूक किया व आदिवासी इलाकों में जाकर धर्म के संस्कार, मकान, जीवनोपयोगी सामग्री दी, जिससे धर्मान्तरण करानेवालों का धंधा चौपट हो गया।


2). कत्लखाने जाती हज़ारों गौ-माताओं को बचाकर उनके लिए विशाल गौशालाओं का निर्माण करवाया।


3). शिकागो विश्व धर्मपरिषद में स्वामी विवेकानंदजी के 100 साल बाद जाकर हिन्दू संस्कृति का परचम लहराया।


4). विदेशी कंपनियों द्वारा देश को लूटने से बचाकर आयुर्वेद/होम्योपैथिक के प्रचार-प्रसार द्वारा एलोपैथिक दवाइयों के कुप्रभाव से असंख्य लोगों का स्वास्थ्य और पैसा बचाया।


5). लाखों-करोड़ों विद्यार्थियों को सारस्वत्य मंत्र देकर और योग व उच्च संस्कार का प्रशिक्षण देकर ओजस्वी-तेजस्वी बनाया।


6). इंग्लैंड, पाकिस्तान, चाईना, अमेरिका और बहुत सारे देशों में जाकर सनातन हिंदू धर्म का ध्वज फहराया।


7). वैलेंटाइन डे का कुप्रभाव रोकने हेतु "मातृ-पितृ पूजन दिवस" का प्रारम्भ करवाया।


8). क्रिसमस डे के दिन प्लास्टिक के क्रिसमस ट्री को सजाने के बजाय तुलसी पूजन दिवस मनाना शुरू करवाया।


9). करोड़ों लोगों को अधर्म से धर्म की ओर मोड़ दिया।


10). नशामुक्ति अभियान के द्वारा लाखों लोगों को व्यसनमुक्त कराया।


11). वैदिक शिक्षा पर आधारित अनेकों गुरुकुल खुलवाए।


12). मुश्किल हालातों में कांची कामकोटि पीठ के "शंकराचार्य श्री जयेंद्र सरस्वतीजी", बाबा रामदेव, मोरारी बापू, साध्वी प्रज्ञा एवं अन्य संतों का साथ दिया।


13. बच्चों के लिए "बाल संस्कार केंद्र", युवाओं के लिए "युवा सेवा संघ", महिलाओं के लिए "महिला उत्थान मंडल" खोलकर उनका जीवन धर्ममय व उन्नत बनाया।


ऐसे अनेक भारतीय संस्कृति के उत्थान के कार्य किये हैं जो विस्तार से नहीं बता पा रहे हैं।


हिंदू संत आशाराम बापू पर जिस तरह से षड्यंत्र हुआ है उसको देखते हुए और उनके द्वारा किए गये राष्ट्र-संस्कृति व समाज उत्थान के सेवाकार्य तथा उनकी उम्र का ध्यान रखते हुए न्यायालय और सरकार को उन्हें शीघ्र रिहा करना चाहिए।


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Wednesday, February 23, 2022

अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन 1855 से शुरू हो गया था जिसका मिटा दिया इतिहास...

30 जून 2021

azaadbharat.org


भारत की आज़ादी के प्रथम प्रयास 1855 में सन्थाल पहले ऐसे योद्धा थे जिन्होंने अंग्रेजों को समय दिया देश छोड़ कर भाग जाने का ... ये किसी भी अंग्रेज के लिए चौंक जाने जैसी बात थी। 



सवाधीनता संग्राम में 1855 ई. एक मील का पत्थर है; पर वस्तुतः यह समर इससे भी पहले प्रारम्भ हो गया था। वर्तमान झारखंड के संथाल परगना क्षेत्र में हुआ 'संथाल हूल' या 'संथाल विद्रोह' इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। संथाल परगना उपजाऊ भूमि वाला वनवासी क्षेत्र है। वनवासी स्वभाव से धर्म और प्रकृति के प्रेमी तथा सरल होते हैं। इसका जमींदारों ने सदा लाभ उठाया है। कीमती वन उपज लेकर उसीके भार के बराबर नमक जैसी सस्ती चीज देना वहां आम बात थी। अंग्रेजों के आने के बाद ये जमींदार उनसे मिल गये और संथालों पर दोहरी मार पड़ने लगी। घरेलू आवश्यकता हेतु लिये गये कर्ज पर कई बार साहूकार 50 से 500 प्रतिशत तक ब्याज ले लेते थे।

 

1789 में संथाल क्षेत्र के एक वीर बाबा तिलका मांझी ने अपने साथियों के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध कई सप्ताह तक सशस्त्र संघर्ष किया था। उन्हें पकड़कर अंग्रेजों ने घोड़े की पूंछ से बांधकर सड़क पर घसीटा और फिर उनकी खून से लथपथ देह को भागलपुर में पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी।


1855 में ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध महान संथाल विद्रोह हुआ था। संथाल विद्रोह को संताली भाषा में ‘संताल हूल’ कहते हैं। संथाल परगना का पूर्ववर्ती नाम ‘दामिनी को’ था यह नाम ब्रिटिश शासकों ने दिया था। ‘दामिनी को’ क्षेत्र पहले बीहड़ जंगल था। अंग्रेज शासक जंगल की कटाई कर खेती लायक जमीन बनाने के लिए आसपास के क्षेत्र के संताल आदिवासियों को मजदूरी करने के लिए प्रलोभन देकर लाए थे।


सथाल आदिवासियों ने पहले अंग्रेजी हुकूमत के आदेशानुसार जंगल-झाड़ साफ किया और खेती लायक जमीन बनाई। उस जमीन पर जब संथालों ने खेती करनी शुरू की तो ‘दिकू महाजन’ लगान वसूलने लगे। इसके साथ ही ब्रिटिश पुलिस संथालों पर अत्याचार व शोषण करने लगे। जब संथालों पर ब्रिटिश हुकूमत द्वारा शोषण, जुल्म, अन्याय, अत्याचार की अति हो गई, तब संथालों को विद्रोह के लिए विवश होना पड़ा। उस समय दुमका स्थित बरहेट प्रखंड के अंतर्गत भोगनाडीह गांव में चुन्नू मुर्मू की छह संतानें थीं, जिनमें चार लड़के और दो लड़कियां थीं। चार भाइयों और दो बहनों के नाम थे- सिद्धू मुर्मू, कान्हू मुरमू, चांद मुर्मू, भैरव मुर्मू, फूलो मुर्मू और झानो मुर्मू। इन सगे भाई-बहनों ने संथाल समाज के लोगों को जागृत किया, संगठित किया और ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह के लिए ललकारा। 1855 में 30 जून काे भोगनाडीह गांव स्थित एक विशाल मैदान में संथाल जनजाति के लोग एकत्र हुए थे जिनका नेतृत्व सिद्धू मुर्मू और कान्हू मुर्मू कर रहे थे। उस दिन दोनों भाइयों ने ब्रिटिश शासकों को ललकारा और संथाल हूल के लिए ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा दिया। उसी दिन यह संकल्प लिया गया कि हमारी मेहनत की कमाई खेती-बाड़ी, जल-जंगल-जमीन हमारी है। अंग्रेजों की गुलामी अब हम बर्दाश्त नहीं करेंगे। इस उद्घोष के साथ उसी दिन से संथाल विद्रोह की शुरुआत हुई।


इससे बौखला कर शासन ने उन्हें गिरफ्तार करने का प्रयास किया, पर ग्रामीणों के विरोध के कारण वे असफल रहे। अब दोनों भाइयों ने सीधे संघर्ष का निश्चय कर लिया। इसके लिए शालवृक्ष की टहनी घुमाकर क्रांति का संदेश घर-घर पहुंचा दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि उस क्षेत्र से अंग्रेज शासन लगभग समाप्त ही हो गया। इससे उत्साहित होकर एक दिन 50,000 संथाल वीर अंग्रेजों को मारते-काटते कोलकाता की ओर चल दिये। यह देखकर शासन ने मेजर बूरी के नेतृत्व में सेना भेज दी। पांच घंटे के खूनी संघर्ष में शासन की पराजय हुई और संथाल वीरों ने पकूर किले पर कब्जा कर लिया। सैकड़ों अंग्रेज सैनिक मारे गये। इससे कम्पनी के अधिकारी घबरा गये। अतः पूरे क्षेत्र में 'मार्शल लॉ' लगाकर उसे सेना के हवाले कर दिया गया।

 

अब अंग्रेजी सेना को खुली छूट मिल गयी। अंग्रेजी सेना के पास आधुनिक शस्त्रास्त्र थे, जबकि संथाल वीरों के पास तीर-कमान जैसे परम्परागत हथियार, अतः बाजी पलट गयी और चारों ओर खून की नदी बहने लगी। इस युद्ध में लगभग 20,000 वनवासी वीरों ने प्राणाहुति दी। प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार हंटर ने इस युद्ध के बारे में अपनी पुस्तक 'एनल्स ऑफ रूरल बंगाल' में लिखा है, ''संथालों को आत्मसमर्पण जैसे किसी शब्द का ज्ञान नहीं था। जबतक उनका ड्रम बजता रहता था, वे लड़ते रहते थे। जबतक उनमें से एक भी शेष रहा, वह लड़ता रहा। ब्रिटिश सेना में एक भी ऐसा सैनिक नहीं था, जो इस साहसपूर्ण बलिदान पर शर्मिन्दा न हुआ हो।''

 

इस संघर्ष में सिद्धू और कान्हू के साथ उनके अन्य दो भाई चांद और भैरव भी वीरगति को प्राप्त हो गये। इस घटना की याद 30 जून को प्रतिवर्ष 'हूल दिवस' मनाया जाता है। कार्ल मार्क्स ने अपनी पुस्तक 'नोट्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री' में इस घटना को जनक्रांति कहा है। भारत सरकार ने भी वीर सिद्धू और कान्हू की स्मृति को चिरस्थायी बनाये रखने के लिए एक डाक टिकट जारी किया है। आज भारत के शौर्य के उन सभी सितारों को उनके उद्घोष दिवस पर उन्हें बारम्बार नमन।


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