क्या न्यायपालिका मीडिया और विधानपालिका के दबाव में चल रही है?
3 सितंबर 2019
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भारत देश विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है मतलब भारत की जनता अपनी सरकार स्वयं मतदान द्वारा चुनती है।
लोकतंत्र के कुल चार स्तम्भ माने गए हैं। ये स्तम्भ हैं
1. न्यायपालिका
2. कार्यपालिका
3. विधानपालिका
4. मीडिया
2. कार्यपालिका
3. विधानपालिका
4. मीडिया
न्यायपालिका को लोकतंत्र का सबसे मजबूत स्तम्भ माना गया है। भारतीय संविधान ने ही विधानपालिका और कार्यपालिका की चुनाव प्रक्रिया, कार्यकाल, शक्तियों और कार्यक्षेत्र को परिभाषित किया है।
पर ऐसा लगता है कि भारत देश में मात्र कहने को ही न्यायपालिका लोकतंत्र का सबसे मजबूत स्तम्भ है। विधानपालिका ने सदा न्यायपालिका को प्रभावित किया है।
सबसे बड़ा उदाहरण है राजनेताओं पर चल रहे केस जो सालों साल चलते रहते हैं। राजेनताओं को बेल पर बेल, अग्रिम बेल भी बड़ी आसानी से मिल जाती है। जैसे राहुल गांधी सोनिया गांधी, रॉबट वाड्रा, पी चिदंबरम आदि को अनगिनत बार बेल मिल चुकी है। चारा घोटाले वाले केस में लालू जी को भी कई बार जमानत मिली थी। फिर बाद में या तो ये आरोपी ही सिद्ध नहीं होते और अगर होते हैं तो सजा कम से कम मिलती हैं। फिर बाद में इनको पैरोल या जमानत बड़ी ही आसानी से मिल जाती हैं।
दूसरी ओर हिन्दू संतों को झूठे केसों में भी बेल नहीं मिलती। सालों साल केस चलते हैं, एक दिन की भी बेल नहीं मिलती। कुछ संत तो निचली अदालत में दोषी करार हुए पर बाद में ऊपरी अदालत से बाइज्जत बरी हुए। इन संतों को ना ही एक दिन की बेल मिली और ना ही एक दिन की पैरोल? साध्वी प्रज्ञा जी, स्वामी असीमानन्द जी, स्वामी जयेंद्र सरस्वती जी आदि कई नाम है इस सूची में। क्या बेल या पैरोल का प्रावधान बस राजनेताओं के लिए ही है?
पहलू खान की मोबलीचिंग में मौत हुई। 6 आरोपियों पर अलवर कोर्ट में केस चला। कोर्ट ने सबको बाइज्जत बरी कर दिया। इस पर कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा ने कहा कि "पहलू खान मामले में लोअर कोर्ट का फैसला चौंका देने वाला है। हमारे देश में अमानवीयता की कोई जगह नहीं होनी चाहिए और भीड़ द्वारा हत्या एक जघन्य अपराध है।"
फिर प्रियंका गांधी वाड्रा का एक ट्वीट और आता है - "राजस्थान सरकार द्वारा भीड़ द्वारा हत्या के खिलाफ कानून बनाने की पहल सराहनीय है। आशा है कि पहलू खान मामले में न्याय दिलाकर इसका अच्छा उदाहरण पेश किया जाएगा।"
कानून व्यवस्था का ऐसे खुलेआम मजाक क्यों उड़ाते हैं राजनेता? किसने इनको अधिकार दिया कि कानून व्यवस्था पर गलत टिप्पणी करे? क्या ये उचित है कि कोई ऐसे न्यायालय के फैसले पर उंगली उठाए? ऐसे बयान देने वाले नेताओं पर कार्यवाही क्यों नहीं होती?
अभी हाल में भ्रष्टाचार के केस में पी चिदंबरम को गिरफ्तार किया गया तो राहुल गांधी, प्रियंका गांधी वाड्रा, कपिल सिब्बल और दूसरे कई नेता उसके बचाव में कूद पड़े। एक भ्र्ष्टाचार में संलिप्त राजनेता को समर्थन क्यों? और फिर कानून व्यवस्था के तहत हो रही कार्यवाही पर प्रश्न क्यों, उसमें खलल डालने की कोशिश क्यों? क्या ये नेता कानून व्यवस्था से भी बड़े हो गए हैं?
जब कानून व्यवस्था ने मनी लॉन्ड्रिंग और अवैध कब्जे के मामले में आज़म खान पर कार्यवाही की तो वो बोला कि हमारे पूर्वजों ने गलती कि जो बटवारे के समय पाकिस्तान नहीं गए। देखिए किस स्तर तक गिर चुके हैं राजनेता। पहले अपराध करते हैं, फिर उसे धर्म से जोड़कर धार्मिक भावनाएं भड़काने की कोशिश करते हैं। अकबरुद्दीन ओवैसी कहता है कि 15 मिनट पुलिस हटा लो, सभी हिन्दुओं को काट देंगे। ऐसे नेता पहले ही कानून तोड़ चुके हैं फिर कानून व्यवस्था को चोट पहुँचाने वाली बयानबाजी करते हैं। ऐसे राजनेताओं पर क्यों कानून व्यवस्था उचित कार्यवाही नहीं कर पा रही?
ये तो बस कुछ उदाहरण ही दिए हैं और ये कोई नई चीज नहीं, ये वर्षों से होता आ रहा है। कब तक विधानपालिका न्यायपालिका को तुच्छ सिद्ध करती रहेगी?
अब आइए मीडिया पर। मर्यादा की सीमा लांघना मीडिया के लिए आम बात हो गई है। ये खुद ही जज बन जाती है, बिना न्यायालय का फैसला आए किसी को भी अपराधी ठहरा देती है। निर्दोष लोगों की भी झूठी खबर बनाकर इतना बदनाम कर देती है कि उस बदनामी की भरपाई नहीं हो पाती। वे न्यायालय से तो निर्दोष छूटकर बाहर आ जाते हैं पर मीडिया द्वारा ब्रेनवाश किए हुए समाज उनको हमेशा गलत नजर से देखता है।
किसी निर्दोष को दोषी दिखाते हुए जब ज्यादा खबर चलती है तो समाज में नकारात्मक माहौल तैयार हो जाता है और जज भी दबाव में आ जाते हैं और निर्दोष को भी दोषी करार देना पड़ता है।
ऐसे निर्दोष कई साल जेलों में प्रताड़ित होते हैं, कुछ भाग्यशाली ऊपरी अदालतों से छूट जाते हैं पर जो कीमती समय नष्ठ हुआ, उसका क्या, क्या मीडिया वो समय लौटा पाएगी? जो मानसिक प्रताड़ना हुई, उसकी भरपाई मीडिया कैसे करेगी?
मीडिया धार्मिक तुष्टिकरण का कुकृत्य भी कर रही है और इसके लिए कानून को मोहरा भी बना रही है। किसी पादरी या मौलवी के कुकृत्यों की खबर मीडिया कभी नहीं दिखाती और हिन्दू संतों के विषय में गलत खबर बार बार दिखाती रहती है। 13 बार बलात्कार का आरोपी पादरी फ्रांको मुल्लकल को 21 दिन में बेल मिल गई थी और मीडिया ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। 2-3 दिन बाद मुख्य गवाह संदिग्ध परिस्थितियों में मृत पाया गया पर मीडिया में कोई खबर नहीं। राजनेताओं और फिल्मी हस्तियों को पैरोल पर पैरोल मिलती है पर मीडिया द्वारा कोई प्रतिरोध नहीं।
पर जब हिन्दू संतों की बात आती है और उनको अगर फ़र्ज़ी केस में ही बेल मिल रही होती हैं तो मीडिया ऐसे विलाप करने लगती हैं जैसे उन संत को बेल मिलने से प्रलय आ जाएगी। इससे जज दबाव में आ जाता है और वो बेल को ठुकरा देता है। हिन्दू संतों के विषय में तो गवाहों के मरने की, गवाहों पर हमला होने की फ़र्ज़ी खबर पहले ही चला दी जाती है ताकि जज संत को बेल ही ना दे। और फ़र्ज़ी केस में दोषी करार दिए जाने के बाद जब कोई संत पैरोल मांगता है तो मीडिया पहले ही विलाप शुरू कर देती है और इससे संतों को पैरोल भी नहीं मिल पाती। एक भी संत का नाम बता दो जो आज तक बेल या पैरोल पर एक दिन भी बाहर आया हो।
ये तो बस कुछ उदाहरण ही दिए हैं। देख लीजिए किस प्रकार मीडिया लोकतंत्र के सबसे मजबूत स्तम्भ न्यायपालिका को प्रभावित करने के लिए अपनी मर्यादा का उल्लंघन कर रही है।
कब तक न्यायपालिका की अस्मिता के साथ खिलवाड़ करेंगी विधानपालिका और मीडिया। देश का संविधान कहता है कि न्यायपालिका लोकतंत्र का सबसे मजबूत स्तम्भ है और इस स्तम्भ को वास्विकता में सबसे मजबूत स्तम्भ बनाने के लिए अब देश की जनता को ही आवाज़ उठानी पड़ेगी तभी देश की स्तिथि सुधर पाएगी।
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