Monday, January 4, 2021

पश्चिमी नव-वर्ष से युवाधन का पतन

  अंग्रेज तो चले गए लेकिन भारत वासियों को मानसिक रूप से गुलाम बनाकर गए। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है। अंग्रेजों की गुलामी के समय भारत में शिक्षा का स्तर जनसंख्या अनुपात में बहुत कम था तो इसका लाभ उठाकर अंग्रेजों ने भारत वासियों को मानसिक रूप से भी गुलाम बनाया और आज भी वही गुलामी भारतीयों की दिलो-दिमाग में बनी हुई है। इसका एक प्रमुख उदाहरण है 1 जनवरी को नया साल मनाने की लोगों में अनावश्यक उत्सुकता। इस 1 जनवरी का सभी लोग हुड़दंग, शोरगुल, रॉक-पॉप संगीत, डांस, शराब- कबाब आदि के साथ स्वागत करते हैं और तथाकथित शिक्षित युवा वर्ग तो पश्चिमी नव-वर्ष का इस प्रकार स्वागत करना अपना गौरव समझते हैं। ऐसा कर, क्या वे अपनी सनातन संस्कृति का अपमान नही कर रहे? ऐसा कर, क्या वे सामाजिक विघटन की ओर कदम नही बढ़ा रहे? 31 दिसंबर की रात को ऐसी असभ्यता से अपने समाज को तो हम लज्जित करते ही हैं ऊपर से डीजे और आतिशबाजी से पर्यावरण भी प्रदूषित करते हैं। साथ ही विदेशी गिफ्ट्स, ग्रीटिंग्स-कार्ड, शराब, आदि की खरीदी से विदेशों में पैसा भेज कर अपने देश को आर्थिक रूप से कमजोर करने का अपराध भी करते हैं। यह बहुत ही चिंतनीय है कि इस नए साल के उत्साह में युवा वर्ग का कितना पतन हो रहा है। विदेशी उत्सवों के अंधानुसरण से धन और समय की बर्बादी तो होती ही है, जो समाज के नैतिक मूल्यों का ह्रास होता है उस ओर तो हमारा ध्यान भी नही जाता। २५ दिसम्बर से ५-७ जनवरी के दिनों में युवाओं में आत्महत्या एवं गर्भनिरोधक दवाइयों की बिक्री में  बढ़ोतरी हो जाती है। क्या ये समाज के उत्थान के संकेत हैं? ये कैसा उत्सव है कि मनुष्य पशुओं से भी गया-बीता हो गया? ऐसा नव-वर्ष भारतीयों के लिए ही नही, पूरी मानवजाति के लिए अभिशाप है। 


इन दिनों में प्रकृति में भी कोई उमंग-उल्लास नहीं रहती - सभी ओर सिर्फ कड़कती ठंड। इस विषय पर प्रबुद्ध-वर्ग को विचार-मंथन करना चाहिए और इस तरह देश को आर्थिक, सामाजिक व नैतिक क्षति पहुंचाने वाले आयोजनों का बहिष्कार कर एकजुट होकर कार्य करना चाहिए ।   


भारतवासी तो ऋतु एवं धर्म-संगत भारतीय पंचांग के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नूतन वर्ष मनाते आए हैं। समाज को उत्साह प्रदान कर मन को प्रफुल्लित कर दे ऐसी नूतन-वर्ष की परंपरा भारतवर्ष में सदियों से चली आ रही है। भारतीय नूतन वर्ष का आगमन जगत-जननी माँ जगदम्बा की उपासना के लिए निर्दिष्ट बसंत-ऋतु में पड़ने वाले नवरात्र-पर्व से एवं ऋषि-मुनियों की वैदिक अनुष्ठान की वेला से होता है। इस ऋतु की अलग ही छंटा होती है, पर्यावरण भी अनुकूल होता है और प्रकृति स्वयं हमे इस परिवर्तन-काल का स्वागत करने का संकेत करती है। इन दिनों में वसंत ऋतु  धरती को अपनी खिलखिलाहट से भर देती है। रंग-बिरंगे फूलों से सजी धरती बहुत ही सुहावनी प्रतीत होती है। पंछियों का कलरव, भौंरों का गुंजन आदि मधुर-ध्वनियों से वातावरण अलंकृत रहता है। मनुष्यों में भी वसंत ऋतु का उमंग, उल्लास, आनंद समाहित रहता है।


जो हमारी संस्कृति के अनुकूल नही, ऐसी काल-गणना और नव-वर्ष को हम क्यूँ मनायें? हम भारतवासियों को अपना नूतन-वर्ष, चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को ही मनाना चाहिए। स्वदेशी संस्कृति का अनुसरण कर हम एकजुट होंगे, अपने पूर्वजों का मान बढ़ाएंगे। ऐसा कर हम गौरवान्वित ही नही, उल्लसित भी होंगे क्योंकि इस परम्परा को हमारे आराध्य श्री राम-कृष्ण और ऋषि-मुनियों ने हमारे उत्थान के लिए ही निर्दिष्ट किया है।


पाठकों से यही निवेदन है कि वे अपना कीमती समय और साधन सांसकृतिक उत्सवों को मनाने में लगाएँ। इसी में अपना, परिवार का और समाज का कल्याण है।


बसन्त कुमार मानिकपुरी

छत्तीसगढ़ (भारत)

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