स्वार्थी, तामसी, आसुरी प्रकृति के कुकर्मी लोग बढ़ जाते हैं तब भगवान का प्रागट्य होता है
#पृथ्वी
आक्रान्त होकर श्रीहरि से अपने त्राण के लिए #प्रार्थना करती है। जो
पृथ्वी इन आँखों से दिखती है वह पृथ्वी का #आधिभौतिक स्वरूप है किंतु
कभी-कभी #पृथ्वी नारी या #गाय का रूप लेकर आती है वह पृथ्वी का #आधिदैविक
स्वरूप है।
janmashtami2017 |
पृथ्वी
से कहा गयाः "इतनी बड़ी-बड़ी इमारतें तुम पर बन गयी हैं इससे तुम पर कितना
सारा बोझा बढ़ गया !"तब पृथ्वी ने कहाः "इन इमारतों का कोई बोझा नहीं लगता
किंतु जब साधु-संतों और भगवान को भूलकर, सत्कर्मों को भूलकर, सज्जनों को
तंग करने वाले विषय-विलासी लोग बढ़ जाते हैं तब मुझ पर बोझा बढ़ जाता है।"
जब-जब
पृथ्वी पर इस प्रकार का बोझा बढ़ जाता है, तब तब पृथ्वी अपना बोझा उतारने
के लिए भगवान की शरण में जाती है। कंस आदि दुष्टों के पापकर्म बढ़ जाने पर
भी पापकर्मों के भार से बोझिल पृथ्वी देवताओं के साथ भगवान के पास गयी और
उसने श्रीहरि से प्रार्थना की तब भगवान ने कहाः "हे देवताओ ! पृथ्वी के साथ
तुम भी आये हो, धरती के भार को हलका करने की तुम्हारी भी इच्छा है, अतः
जाओ, तुम भी वृन्दावन में जाकर गोप-ग्वालों के रूप में अवतरित हो मेरी लीला
में सहयोगी बनो। मैं भी समय पाकर #वसुदेव-देवकी के यहाँ अवतार लूँगा।"
वसुदेव-देवकी
कोई साधारण मनुष्य नहीं थे। स्वायम्भुव मन्वंतर में वसुदेव 'सुतपा' नाम के
#प्रजापति और देवकी उनकी पत्नी 'पृश्नि' थीं। सृष्टि के विस्तार के लिए
ब्रह्माजी की आज्ञा मिलने पर उन्होंने भगवान को पाने के लिये बड़ा तप किया
था।
#समाज
में जब शोषक लोग बढ़ गये, दीन-दुखियों को सताने वाले व चाणूर और मुष्टिक
जैसे पहलवानों और दुर्जनों का पोषण करने वाले क्रूर राजा बढ़ गये, समाज
त्राहिमाम पुकार उठा, सर्वत्र भय व आशंका का घोर अंधकार छा गया तब भाद्रपद
मास (गुजरात-महाराष्ट्र में श्रावण मास) में कृष्ण पक्ष की उस अंधकारमयी
अष्टमी, #रोहिणी_नक्षत्र को #कृष्णावतार हुआ। जिस दिन वह निर्गुण, निराकार,
अच्युत, माया को वश करने वाले जीवमात्र के परम सुहृद प्रकट हुए वह आज का
पावन दिन जन्माष्टमी कहलाता है। उसकी आप सब को बधाई हो....
#श्रीमद्_भागवत
में भी आता है कि दुष्ट राक्षस जब राजाओं के रूप में पैदा होने लगे, प्रजा
का शोषण करने लगे, भोगवासना-विषयवासना से ग्रस्त होकर दूसरों का शोषण करके
भी इन्द्रिय-सुख और अहंकार के पोषण में जब उन राक्षसों का चित्त रम गया,
तब उन आसुरी प्रकृति के अमानुषों को हटाने के लिए तथा सात्त्विक भक्तों को
आनंद देने के लिए भगवान का अवतार हुआ।
समाज
में अव्यवस्था फैलने लगती है, सज्जन लोग पेट भरने में भी कठिनाइयों का
सामना करते हैं और दुष्ट लोग शराब-कबाब उड़ाते हैं, कंस, चाणूर, मुष्टिक
जैसे दुष्ट बढ़ जाते है और निर्दोष गोप-बाल जैसे अधिक सताये जाते हैं तब उन
सताये जाने वालों की संकल्प शक्ति और भावना शक्ति उत्कट होती है और सताने
वालों के दुष्कर्मों का फल देने के लिए भगवान का अवतार होता है ।
भगवान
अवतरित हुए तब जेल के दरवाजे खुल गये। पहरेदारों को नींद आ गयी।
रोकने-टोकने और विघ्न डालने वाले सब निद्राधीन हो गये। जन्म हुआ है जेल
में, एकान्त में, #वसुदेव-देवकी के यहाँ और लालन-पालन होता है #नंद-यशोदा
के यहाँ। #ब्रह्मसुख का प्राकट्य एक जगह पर होता है और उसका पोषण दूसरी जगह
पर होता है। श्रीकृष्ण का प्राकट्य देवकी के यहाँ हुआ है परंतु पोषण यशोदा
माँ के वहाँ होता है।
#श्रीकृष्ण
के जीवन में एक महत्त्वपूर्ण बात झलकती है कि बुझे दीयों को प्रकाश देने
का कार्य और उलझे हुए दिलों को सुलझाने का काम तो वे करते ही हैं, साथ ही
साथ इन कार्यों में आने वाले विघ्नों को, फिर चाहे वह मामा कंस हो या पूतना
या शकटासुर-धेनकासुर-अघासुर-बकासुर हो या फिर केशि हो, सबको श्रीकृष्ण
किनारे लगा देते हैं।
श्रीमद् भगवदगीता के चौथे अध्याय के सातवें एवं आठवें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अपने श्रीमुख से कहते हैं-
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।
1.परितृणाय साधुनाः साधु स्वभाव के लोगों का, सज्जन स्वभाववाले लोगों का रक्षण करना।
2. विनाशाय च दुष्कृताम् जब समाज में बहुत स्वार्थी, तामसी, आसुरी प्रकृति के कुकर्मी लोग बढ़ जाते हैं तब उनकी लगाम खींचना।
3.धर्मसंस्थापनार्थायः
धर्म की स्थापना करने के लिए अर्थात् अपने स्वजनों को, अपने भक्तों को तथा
अपनी ओर आने वालों को अपने स्वरूप का साक्षात्कार हो सके इसका मार्गदर्शन
करना।
भगवान
के अवतार के समय तो लोग लाभान्वित होते ही हैं किंतु भगवान का दिव्य
विग्रह जब अन्तर्धान हो जाता है, उसके बाद भी भगवान के गुण, कर्म और लीलाओं
का स्मरण करते-करते हजारों वर्ष बीत जाने के बाद भी मानव समाज लाभ उठाता
रहता है।
श्रीकृष्ण #जन्माष्टमी का व्रत करता है, वह सौ जन्मों के पापों से मुक्त हो जाता है।
एक जन्माष्टमी का व्रत एक हजार एकादशी के बराबर है ।
जो मनुष्य श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत करता है, वह सौ जन्मों के पापों से मुक्त हो जाता है।
(ब्रह्मवैवर्त पुराण)
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