19 दिसंबर 2019
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*दुनिया भारत को "हिंदू देश" जानती है। अनुच्छेद 370 हटाने को सामान्य बताते हुए सऊदी प्रिंस ने कहा था कि "वह तो हिंदू देश है", लेकिन यही देश यानी भारत जब पड़ोस के उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों को शरण दे रहा है तो आपत्ति हो रही है। आपत्ति करने वालों में अग्रणी हिंदू परिवारों में जन्मे नेता और बुद्धिजीवी भी हैं। उन्हें बांग्लादेश और पाकिस्तान में प्रताड़ित हो रहे हिंदू धर्म-समाज के सिवा सबकी चिंता है। उन्हें हिंदू समाज के अतिरिक्त कहीं कोई अंधविश्वास, क्रूरता, गंदगी नहीं दिखती। यह विचित्र संवेदनहीनता है। विडंबना यह है कि यह संवेदनहीनता स्वतंत्र भारत में विकसित हुई।*
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*भारतीय अर्थव्यवस्था में धीमेपन को ’हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ’ कहकर कोसा गया, जबकि कारण नेहरूवादी कम्युनिस्ट नीतियां थीं। हालांकि गत सात सौ साल से भारत हिंदू शासकों द्वारा नहीं, वरन विदेशियों से शासित रहा, फिर भी सारी गड़बड़ी का कारण हिंदू समाज को बताया जाता है। वस्तुत: लंबी विदेशी दासता और विजातीय शिक्षा ने एक वर्ग को आत्महीन बना दिया है। वे हिंदुओं पर होने वाले अन्याय, भेदभाव से निर्विकार रहते हैं, जबकि बाकी देश-विदेश के किसी भी समूह के लिए भरपूर परेशान होते हैं। इसी का नया उदाहरण सामने है।*
*सत्तर वर्षों से उपेक्षित, अनाथ हिंदुओं, बौद्धों और अन्य ऐसे ही अल्पसंख्यकों को नागरिकता मिलने के निर्णय से वे तनिक भी प्रसन्न नहीं हुए। वे मुस्लिम आव्रजकों के लिए चिंतित हैं और इस पर संविधान की दुहाई दे रहे हैैं। यह भूलकर कि संविधान देश के नागरिकों पर लागू होता है, विदेशी लोगों पर नहीं। अन्य देशों, लोगों, घटनाओं आदि पर नीति आवश्यकतानुसार बनती है। जैसे यह तर्क मूर्खतापूर्ण है कि किसी देश के साथ संधि की तो दूसरे के साथ क्यों नहीं की? वैसे ही कहा जा रहा है कि एक शरणार्थी को लिया तो दूसरे को क्यों नहीं लिया?*
*जो लोग अभी अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश के मुस्लिम ‘उत्पीड़ितों’ के लिए आहें भर रहे हैं, उन्होंने कभी भी देश के अंदर ही चार लाख कश्मीरी पंडितों के अपमान, विस्थापन और सामूहिक संहार पर एक बयान तक नहीं दिया, जुलूस और विरोध तो दूर की बात है। इसी तरह पाकिस्तान, बांग्लादेश, फिजी, मलेशिया आदि में हिंदुओं और अन्य अल्ससंख्यकों के साथ होते दुर्व्यवहार, जुल्म पर कभी एक शब्द नहीं कहा।*
*अरब देशों में काम करने वाले लाखों हिंदू अपने धर्म-त्योहार नहीं मना सकते, मगर इस पर हमारे बौद्धिकों ने कभी औपचारिक प्रतिवाद नहीं किया। नागरिकता कानून पर सारे शोर-शराबे के पीछे भारतीय हितों के विरोध की राजनीति है। यह अन्य धर्मों के दुखियारों की चिंता हरगिज नहीं है। यह हिंदू धर्म-समाज पर चोट करने, लज्जित, अपमानित करने का नया बहाना है। इन निंदकों ने कभी जेहादियों या धोखाधड़ी से धर्मांतरण कराने वाले मिशनरियों की भी आलोचना नहीं की। माओवादियों, उग्रवादियों की क्रूर हिंसा पर भी उन्हें कुछ महसूस नहीं होता, किंतु कोई हिंदू संगठन अपने मंदिरों पर इस्लामी या सरकारी कब्जा हटाने की मांग करे तो इन्हें नागवार लगता है। वे अयातुल्ला खुमैनी और यासीर अराफात जैसे शासकों के लिए शोकमग्न होते हैं। यही भावना औपचारिक शिक्षा तक में घुसा दी गई है। पाठ्य पुस्तकों में महानतम हिंदू ज्ञान-ग्रंथों के प्रति भी तिरस्कार मिलता है, जबकि हिंसा और अंधविश्वास से भरी सामग्री के प्रति आदर भरे लंबे-लंबे अध्याय हैं।*
*रोज घटने वाले ऐसे विचित्र कारनामों की सूची अंतहीन है। उनमें केवल एक समान तत्व है। हर हिंदू पीड़ा और चाह की निंदा, खिल्ली उड़ाना तथा हर मुस्लिम, ईसाई गतिविधि को समर्थन या उनका बचाव, चाहे वह गैर-कानूनी, हिंसक और अमानवीय ही क्यों न हो। नियमित ऐसे समाचार आते रहते हैं, लेकिन नागरिकता का मुद्दा जनसांख्यिकी समस्या से भी जुड़ा है, इसलिए यह अधिक गंभीर है। आज यूरोप और अमेरिका में भी जनसांख्यिकी एक बड़ा मुद्दा है, क्योंकि यह जेहादी हथियार के रूप में भी प्रयोग हो रहा है।*
*ब्रिटेन में कंजरवेटिव पार्टी की हालिया जीत में यह एक प्रमुख कारण है, जहां लोगों ने यूरोपीय संघ से अलग होने का निश्चय दोहराया। वे अरब से आने वाले शरणार्थियों को रोकना चाहते हैं, क्योंकि कई इस्लामी संगठनों की रणनीति मुस्लिम आबादी बढ़ाकर प्रभुत्व कायम करना है। बहुत पहले लाहौर में इस्लामी देशों की एक बैठक में यूरोप में मुस्लिम आव्रजन बढ़ाकर ‘जनसांख्यिकी प्रभुत्व’ की योजना घोषित की गई थी। कुछ भारतीय मुस्लिम नेता भी ऐसी बातें कहते रहते हैं। वे कश्मीर पर मुंह सिले रखते हैैं, पर बोस्निया, अफगानिस्तान, इराक जैसे देशों के लिए नियमित बयान जारी करते रहते हैं। यह पूरा परिदृश्य मामले की गंभीरता दिखाता है।*
*पूर्वी यूरोप ने तो मुस्लिम आव्रजन पर पूरी पांबदी लगा दी है। आरके ओहरी की पुस्तक ‘लांग मार्च ऑफ इस्लाम’ में दुनिया के जेहादी आंदोलनों का लेखा-जोखा है। जब दुनिया में मुस्लिम आबादी 18 प्रतिशत थी तो केवल सात देशों में जेहाद चल रहा था। आज यह आबादी बढ़कर 22 प्रतिशत हो गई है तो तीस देश जेहाद की मार झेल रहे हैं। सीरिया, लेबनान, बोस्निया, कोसोवो इसके उदाहरण हैं।*
*याद रहे कि भारत विभाजन भी जेहादी सिद्धांत पर हुआ था। मुस्लिम लीग के पाकिस्तान प्रस्ताव में भी जेहाद का उल्लेख था। फिर भारत में कश्मीर या बंगाल को भारत से अलग करने की बात भी केवल मुस्लिम संख्या बल के आधार पर ही की जाती रही है। तब क्या दुनिया के एकमात्र हिंदू देश भारत को फिक्र नहीं करनी चाहिए कि यहां जनसांख्यिकी और न बिगड़े? यहां के मुसलमान पहले ही अपने लिए एक अलग देश तक ले चुके हैं। ये बातें कोई सांप्रदायिकता, असहिष्णुता नहीं, बल्कि अपना धर्म और देश बचाने की चिंता है। इससे आंख चुराने को प्रगतिशीलता कहा जा रहा है। वास्तव में इसी कारण बंगाल और दिल्ली की हिंसा पर चुप्पी साधी जा रही है। यह एक सुनियोजित साजिश ही है कि पहले लोगों को उकसाया गया, फिर जब वे हिंसा पर उतरे तो अराजकता फैलाने वालों के बजाय पुलिस और सरकार को कोसा जा रहा है।*
*यह दुखद है कि सेक्युलर-वामपंथी बौद्धिक जिस पीड़ा, अन्याय और भेदभाव की चिंता सारी दुनिया के लोगों के लिए करते हैं, वह सौ वर्षों से हिंदू भी झेल रहे हैं, किंतु हमारे विचित्र बौद्धिक इन्हें अपने हाल पर छोड़ अपना आक्रोश और दुख बाकी हरेक के लिए व्यक्त करते हैं। उन्हें समझना चाहिए कि व्यक्ति की तरह हर देश की भी अपनी आत्मा और नियति होती है। भारत की आत्मा और नियति हिंदू धर्म से जुड़ी है। इसकी रक्षा और चिंता करना किसी सच्चे भारतीय का प्रथम कर्तव्य होना चाहिए। यह हमारे देश ही नहीं, विश्व के हित के लिए भी जरूरी है, लेकिन उसकी अनदेखी करने को ही बौद्धिकता का पर्याय बना दिया गया है। - डॉ. शंकर शरण*
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