Thursday, October 3, 2024

वेदों में शून्य का महत्व

 4th October 2024

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🚩वेदों में शून्य का महत्व


मोहित गौड़ नामक आर्य युवक के शोध पत्र के प्रकाशित होने के बाद कई लोग उसकी प्रामाणिकता पर सवाल उठा रहे है। हालांकि, शोध पत्र जिस पत्रिका में प्रकाशित हुआ है, उसकी सत्यता पर पर्याप्त चर्चा हो चुकी है। इसलिए यहां हम केवल यह समझेंगे कि शोध पत्र में दिए गए प्रमाण सही कैसे है और वैदिक साहित्य में 'शून्य' का मूल क्या है।


🚩वेदों में शून्य का उल्लेख:

वेदों में 'शून्य' का उपयोग 'आकाश' या 'अंतरिक्ष' के लिए किया गया है, जिसका अर्थ अदृश्य,असीम और अनन्त है। उदाहरण के लिए:


🚩"आग्ने॑ स्थू॒रं र॒यिं भ॑र पृ॒थुं गोमं॑तम॒श्विनं॑ ।  

अं॒ग्धि खं व॒र्तया॑ प॒णिं ॥३"  

(ऋग्वेद १०।१५६।३)


🚩इस श्लोक में 'खं' का अर्थ आकाश या अंतरिक्ष है। यह स्पष्ट करता है कि वैदिक काल में शून्य को आकाश या अंतरिक्ष के रूप में देखा गया, जो एक असीम तत्व है। यजुर्वेद (४०।१७) में भी 'खं' का उल्लेख मिलता है:


🚩"ॐ खं ब्रह्म।"  

(यजुर्वेद ४०।१७)

यहाँ 'खं' को ब्रह्म के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो अनन्त और अपरिमेय है। आकाश या शून्य की यह व्याख्या दिखाती है कि शून्य को केवल 'अभाव' नहीं, बल्कि एक असीम सत्ता के रूप में समझा गया है। 


🚩वैदिक साहित्य और गणित में शून्य का महत्व:

वेदों में प्रस्तुत शून्य का यह विचार गणित में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारतीय गणित में शून्य का महत्व बहुत पहले से स्थापित हो चुका था, जहां इसे न केवल एक संख्यात्मक मान के रूप में, बल्कि एक दार्शनिक और वैज्ञानिक अवधारणा के रूप में देखा गया था। भास्कराचार्य द्वितीय (११५० ईस्वी) ने शून्य की गणितीय विशेषताओं को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया, जिसमें शून्य के साथ गुणा और विभाजन के नियम भी शामिल है। उन्होंने स्पष्ट किया कि किसी भी संख्या को शून्य से विभाजित करने पर अनन्त आता है:


🚩"वधादौ वियत् खस्य खं खेन घाते।  

खहारो भवेत् खेन भक्तश्च राशिः।  

अयमनन्तो राशिः खहर इत्युच्यते।"  

(बीजगणित श्लोक ३)


🚩यह श्लोक सिद्ध करता है कि किसी संख्या को शून्य से विभाजित करने पर अनन्त संख्या प्राप्त होती है, जिसे 'खहर' कहते है। शून्य का यह गणितीय सिद्धांत न केवल भारतीय गणित में बल्कि पूरी दुनियां में महत्वपूर्ण समझा गया है।


🚩शून्य और सृष्टि का संबंध:

बीजगणित श्लोक ४ में प्रलय और सृष्टि के समय अनन्त (अच्युत) में सभी प्राणियों के लीन और निर्गत होने के बारे में बताया गया है। यह श्लोक शून्य और अनन्त का दार्शनिक संबंध स्पष्ट करता है:

"अस्मिन् विकार। खहरे न राशी-  

अपि प्रविद्वेष्वपि निःसुतेषु।  

बहुष्वपि स्याद् लय-सृष्टि-कालेऽ  

नन्तेऽच्युते भूतगणेषु यत्वत्।"  

(बीजगणित श्लोक ४)


🚩यह श्लोक यह स्पष्ट करता है कि सृष्टि और प्रलय के समय सभी जीव अनन्त (विष्णु) में लीन हो जाते है और उसमें कोई विकार या परिवर्तन नहीं होता। ठीक इसी प्रकार शून्य में से कुछ घटाने या जोड़ने पर भी उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता, क्योंकि यह असीम और अनन्त है।


🚩शून्य और पूर्णता का सिद्धांत : शून्य की यह अवधारणा केवल गणित तक सीमित नहीं है। यह वैदिक और दार्शनिक स्तर पर भी महत्वपूर्ण है। उपनिषदों के शान्तिपाठ में भी शून्य और पूर्णता का सिद्धांत प्रस्तुत किया गया है :


🚩"पूर्णमदः पूर्णमिदं, पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।  

पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते॥"  

(शान्तिपाठ, उपनिषद)


🚩इस श्लोक का अर्थ है कि पूर्ण (असीम) से पूर्ण निकालने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है। यह सिद्धांत गणितीय शून्य पर भी लागू होता है, जहां शून्य से कुछ भी घटाने पर वह पूर्ण ही रहता है। यह शून्य की अनन्तता को दर्शाता है।


🚩शून्य का वास्तविक अर्थ : शून्य को केवल 'अभाव' या 'नहीं' के रूप में समझना एक बड़ी भूल है। पाणिनि के व्याकरण में 'अदर्शनं लोपः' (अष्टाध्यायी १.१.६०) सूत्र के अनुसार, लोप का अर्थ 'अदृश्य होना' है, न कि 'अभाव'। इसी प्रकार, शून्य का अर्थ किसी संख्या का अदृश्य रूप से विद्यमान होना है, जिसे हम साधारण अंकों से व्यक्त नहीं कर सकते। यह एक असीम संख्या का प्रतीक है, जिसे गणित में हम शून्य के रूप में स्वीकार करते है।


🚩शून्य का वैश्विक महत्व : भारतीय गणितज्ञों जैसे आर्यभट, ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य ने शून्य को वेदों से निःसृत किया है और इसे गणितीय परंपरा में महत्वपूर्ण स्थान दिया। विश्व भर के गणितीय विकास में भारतीय शून्य का योगदान अपरिहार्य है। शून्य ने आधुनिक गणित और विज्ञान को एक नई दिशा दी है और इसके बिना संख्याओं का गणना तंत्र अधूरा होता।


🚩निष्कर्ष :

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