Monday, February 21, 2022

पास्टर के धर्म-परिवर्तन के खेल में फंस रहे छत्तीसगढ़ के हजारों हिन्दू परिवार

19 मई 2021

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भारत का ईसाईकरण करने का पुरजोर कार्य ईसाई मिशनरी कर रही है। आतंकवाद से भी ज्यादा खतरा मिशनरियों से है जो भोले-भाले लोगों को लालच देकर ब्रेनवॉश करके अपने धर्म मे लाते हैं। ध्यान रहे ये लोग धर्मपरिवर्तन का खेल अपने वोटबैंक के लिए कर रहे हैं। क्योंकि उन्हें सत्ता हासिल करनी है। औऱ इनके आगे जो आते हैं उनकी हत्या करवा दी जाती है अथवा मीडिया में बदनाम करवाकर जेल भिजवाया जाता है, उदाहरणतः ओडिसा में स्वामी लक्ष्मणानन्दजी की हत्या कर दी और दारा सिंह तथा संत आसाराम बापू को जेल भिजवा दिया।



सिख धर्म के महान गुरुओं के प्रदेश पंजाब में विगत 8 -10 सालों से धर्म परिवर्तन का खेल जोरों पर है । जिसका मुख्यालय जालंधर है जहां चंगाई सभा की आड़ में कथित पास्टर बजिंदर सिंह जो मूलतः यूपी का छद्म हिंदू युवक है। वह आज जालंधर सहित पंजाब के अनेक प्रांतों में अपना जाल बिछा चुका है। पंजाब ही नहीं, आज जम्मू से लेकर खासकर हिंदी भाषी क्षेत्रों में अपनी जाल बिछाते हुए छत्तीसगढ़ भी पहुंच चुका है। छत्तीसगढ़ के मेट्रो सिटी कहे जाने वाले रायपुर, भिलाई, दुर्ग में इनके हजारों की संख्या में अनुयाई ऑनलाइन ज्ञान की प्राप्ति, प्रार्थना करते व छूते ही बीमारी ठीक कराने के आश्वासन में फंसते जा रहे हैं ।


इस वैश्विक महामारी कोरोना काल में भी हजारों परिवार ऑनलाइन जुड़कर उनकी चंगाई सभा के हिस्सा बन अपने धर्म को छोड़ क्रिश्चियन धर्म अपनाने को अग्रसर हैं।

देश सहित प्रदेश का प्रशासन मौन साधे बैठा है। हमेशा की तरह बड़ी घटना का इंतजार... जैसे आज तक होता आया है । 


पजाब सहित अन्य प्रांतों से बाबाओं को कारनामे करते और जेल जाते हम सब ने देखा है। पता नहीं, धर्मांतरण ठग पादरी बजिन्दर सिंह के कुख्यात कारनामों का उजागर कब होगा?


परे देश में पैर पसार चुके पादरी बजिंदर सिंह के गुर्गों का मुख्य निशाना गरीब, लाचार, गंभीर बीमारी से ग्रसित परिवार ही होते हैं। उनका दावा है- दुष्ट आत्माओं से छुटकारा दिलाना, लाइलाज गंभीर बीमारियों को चुटकी बजाते हुए ठीक कर देना। अंधे देखेंगे…लंगड़े चलने लगेंगे… तमाम गंभीर बीमारी ठीक हो जाएंगी… ये उनका मुख्य स्लोगन है। दुष्ट आत्माओं से तत्काल मुक्ति भी दिलाने का आश्वासन देकर इलाकों के लोगों से वसूली इनका मुख्य धंधा है। आज छत्तीसगढ़ में भी धर्म परिवर्तन का खेल इसकी आड़ में जारी है। यूं तो छत्तीसगढ़ में पहले से ही सरगुजा परिक्षेत्र, जशपुर, कुनकुरी, रायगढ़, पेंड्रा मरवाही मिशनरियों के कब्जे में हैं। गरीबी और लाचारी के चलते गरीब आदिवासियों ने वर्षों पहले अपना धर्म परिवर्तन कर लिया है। अब मैदानी इलाके में पादरी बलविंदर सिंह के गुंडे अपनी जाल में भोले भाले मध्यम वर्गीय परिवार की महिलाओं को बहला-फुसलाकर प्रेयर में जोड़ते हैं, प्रार्थना की आड़ में समस्याओं के समाधान के झूठे आश्वासन में फंसते लोगों को अपना मूल हिन्दू धर्म छोड़ चर्च की राह पर लाते हैं।


कख्यात पादरी बजिंदर सिंह बलात्कार का आरोपी


पंजाब के मशहूर पादरी बजिन्दर सिंह पर एक महिला के साथ एक साल में 3 बार बलात्कार करने का आरोप 2018 में लगा है। महिला की शिकायत के बाद पादरी बजिन्दर सिंह को पुलिस ने हिरासत में ले लिया है। 36 वर्षीय एक महिला ने अपनी शिकायत में पुलिस को बताया है कि चर्च ऑफ ग्लोरी एंड विजडम के अध्यक्ष बजिन्दर सिंह उसे अपनी कार से चंडीगढ़ के सेक्टर 63 स्थित घर ले जाते थे, जहां उन्होंने महिला के साथ 3 बार बलात्कार की घटना को अंजाम दिया। पुलिस का कहना है कि उन्होंने आरोपी की टोयोटा फॉर्च्यूनर कार को रिकवर कर लिया था।

जांच के दौरान पुलिस को पता चला है कि आरोपी बजिन्दर एक पवित्र जल की बिक्री भी करता है। बजिन्दर का दावा है कि यह पवित्र जल विशेष प्रार्थनाओं से स्वच्छ किया गया है और इसे पीने से हर तरह का दर्द ठीक हो सकता है। पुलिस का कहना है कि वह इस पवित्र जल को काफी ऊंची कीमतों पर बेचता है। इसके साथ ही आरोपी ने इस पवित्र जल की बिक्री बढ़ाने के लिए यूट्यूब चैनल और फेसबुक पेज भी बनाए हुए हैं, ताकि ज्यादा से ज्यादा इसकी मार्केटिंग कर सके। वहीं दूसरी तरफ आरोपी पादरी का दावा है कि पीड़ित महिला ने उसके खिलाफ गलत आरोप लगाए हैं। पुलिस पूछताछ में बजिन्दर ने कहा कि उसका पीड़ित महिला के साथ पैसों के लेन-देन को लेकर झगड़ा हुआ था, जिसके चलते महिला ने उसके खिलाफ शिकायत की है। आरोपी का कहना है कि उसकी लोकप्रियता के चलते उसे निशाना बनाया जा रहा है।


फयूचर बताने के दावे करनेवाला पादरी लड़की से जबरदस्ती के आरोप में दिल्ली एयरपोर्ट से अरेस्ट


खुद को यीशू मसीह का पैगंबर बताकर फ्यूचर में होने वाली घटनाओं की भविष्यवाणी करनेवाले बजिंदर सिंह को जीरकपुर पुलिस ने उसीकी फॉलोअर युवती से रेप करने के आरोपं दिल्ली में गिरफ्तार किया ।


मजफ्फरनगर का रहनेवाला


मूलरूप से यूपी के मुजफ्फरनगर के रहनेवाले बजिंदर सिंह का यहां कोई पक्का ठिकाना नहीं है। उसका पासपोर्ट राजस्थान का बना है। वहां उसकी ससुराल है। देश में अलग-अलग जगह वह अपनी सभाएं करता था। सभाओं में यह ऐसा ड्रामा करवाता था कि मानो यह सारी समस्याएं दूर कर सकता है। दूर-दूर से लोग उसके पास आते थे और अपनी प्रॉब्लम बताते थे। बजिंदर दावा करता था कि वह उनकी दिक्कत चुटकियों में दूर कर देगा।


लाखों की संख्या में फॉलोवर्स व सम्मोहन विधि मनोवैज्ञानिक से हिप्नोटिज्म का मास्टरमाइंड


बजिंदर के पंजाब भर में लाखों फॉलोअर्स बताए जा रहे हैं। यूट्यूब पर बजिंदर सिंह के कई ऐसे वीडियो हैं, जिसमें वह सुपर स्टार सलमान खान सहित कई बड़े सितारों की भविष्यवाणी करने का दावा कर रहा है। सूट-बूट और सिक्योरिटी में रहने वाला बजिंदर सिंह अपने भाषणों के दौरान सुंदर लड़कियां पर नजर रखता था। बाद में उन लड़कियों को अपनी स्पेशल टीम में शामिल करता था। जिस लड़की के साथ रेप किया गया, वह भी बजिंदर सिंह की सभाओं में जाती थी। वहीं बजिंदर ने उसे देखा और बाद में उसे अपने जाल में फंसाया।

https://ashmitanews.in/12621/


ईसाई मिशनरी भारत को तेजी से तोड़ रही है- सावधान रहें देशवासी।


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Tuesday, February 15, 2022

जानिए रहस्य माँ गंगा की उत्पति कैसे हुई और पृथ्वी पर कैसे आई?

18 मई 2021

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 गंगा नदी उत्तर भारत की केवल जीवनरेखा नहीं, अपितु हिंदू धर्म का सर्वोत्तम तीर्थ है। ‘आर्य सनातन वैदिक संस्कृति’ गंगा के तट पर विकसित हुई, इसलिए गंगा हिंदुस्तान की राष्ट्ररूपी अस्मिता है एवं भारतीय संस्कृति का मूलाधार है। इस कलियुग में श्रद्धालुओं के पाप-ताप नष्ट हों, इसलिए ईश्वर ने उन्हें इस धरा पर भेजा है। वे प्रकृति का बहता जल नहीं; अपितु सुरसरिता (देवनदी) हैं। उनके प्रति हिंदुओं की आस्था गौरीशंकर की भांति सर्वोच्च है। गंगाजी मोक्षदायिनी हैं इसीलिए उन्हें गौरवान्वित करते हुए पद्मपुराण में (खण्ड ५, अध्याय ६०, श्लोक ३९) कहा गया है, ‘सहज उपलब्ध एवं मोक्षदायिनी गंगाजी के रहते विपुल धनराशि व्यय (खर्च) करनेवाले यज्ञ एवं कठिन तपस्या का क्या लाभ ?’ नारदपुराण में तो कहा गया है, ‘अष्टांग योग, तप एवं यज्ञ, इन सबकी अपेक्षा गंगाजी का निवास उत्तम है । गंगाजी भारत की पवित्रता का सर्वश्रेष्ठ केंद्र बिंदु हैं, उनकी महिमा अवर्णनीय है।



मां गंगाजी की ब्रह्मांड में उत्पत्ति:-


‘वामनावतार में श्री विष्णु ने दानवीर बलीराजा से भिक्षा के रूप में तीन पग भूमि का दान मांगा। राजा बलि इस बात से अनभिज्ञ थे कि स्वयं भगवान श्री विष्णु ही वामन के रूप में आए हैं, राजा ने उसी क्षण भगवान वामन को तीन पग भूमि दान की। भगवान वामन ने विराट रूप धारण कर पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी तथा दूसरे पग में अंतरिक्ष व्याप लिया। दूसरा पग उठाते समय वामन के (श्रीविष्णु के) बाएं पैर के अंगूठे के धक्के से ब्रह्मांड का सूक्ष्म-जलीय कवच टूट गया। उस छिद्र से गर्भोदक की भांति ‘ब्रह्मांड के बाहर के सूक्ष्म-जल ने ब्रह्मांड में प्रवेश किया। यह सूक्ष्म-जल ही गंगा है। गंगाजी का यह प्रवाह सर्वप्रथम सत्यलोक में गया।ब्रह्मदेव ने उसे अपने कमंडलु में धारण किया। तदुपरांत सत्यलोक में ब्रह्माजी ने अपने कमंडलु के जल से श्रीविष्णु के चरणकमल धोए। उस जल से गंगाजी की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात गंगाजी की यात्रा सत्यलोक से क्रमशः तपोलोक, जनलोक, महर्लोक, इस मार्ग से स्वर्गलोक तक हुई। जिस दिन गंगाजी की उत्पत्ति हुई वह दिन ‘गंगा जयंती’ (वैशाख शुक्ल सप्तमी है) इन दिनों में गंगाजी में गोता मारने से विशेष सात्विकता, प्रसन्नता और पुण्यलाभ होता है।


पृथ्वी पर गंगाजी की उत्पत्ति:


सर्यवंश के राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ आरंभ किया। उन्हों ने दिग्विजय के लिए यज्ञीय अश्व भेजा एवं अपने 60 सहस्त्र (हजार) पुत्रों को भी उस अश्व की रक्षा हेतु भेजा। इस यज्ञ से भयभीत इंद्रदेव ने यज्ञीय अश्व को कपिल मुनि के आश्रम के निकट बांध दिया। जब सगर पुत्रों को वह अश्व कपिल मुनि के आश्रम के निकट प्राप्त हुआ, तब उन्हें लगा, ‘कपिलमुनि ने ही अश्व चुराया है’। इसलिए सगर पुत्रों ने ध्यानस्थ कपिल मुनि पर आक्रमण करने की सोची । कपिलमुनि को अंतर्ज्ञान से यह बात ज्ञात हो गई तथा अपने नेत्र खोले। उसी क्षण उनके नेत्रों से प्रक्षेपित तेज से सभी सगर पुत्र भस्म हो गए। कुछ समय पश्चात सगर के प्रपौत्र राजा अंशुमन ने सगर पुत्रों की मृत्यु का कारण खोजा एवं उनके उद्धार का मार्ग पूछा। कपिल मुनि ने अंशुमन से कहा, "गंगाजी को स्वर्ग से भूतल पर लाना होगा। सगर पुत्रों की अस्थियों पर जब गंगाजल प्रवाहित होगा, तभी उनका उद्धार होगा !’’ मुनिवर के बताए अनुसार गंगा को पृथ्वी पर लाने हेतु अंशुमन ने तप आरंभ किया। अंशुमन की मृत्यु के पश्चात उसके सुपुत्र राजा दिलीप ने भी गंगावतरण के लिए तपस्या की। अंशुमन एवं दिलीप के हजार वर्ष तप करने पर भी गंगावतरण नहीं हुआ, परंतु तपस्या के कारण उन दोनों को स्वर्ग लोक प्राप्त हुआ। (वाल्मीकि रामायण, काण्ड १, अध्याय ४१, २०-२१)


‘राजा दिलीप की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र राजा भगीरथ ने कठोर तपस्या की। उनकी इस तपस्या से प्रसन्न होकर गंगामाता ने राजा भगीरथ से कहा, ‘‘मेरे इस प्रचंड प्रवाह को सहना पृथ्वी के लिए कठिन होगा। अतः तुम भगवान शंकर को प्रसन्न करो।’’ आगे भगीरथ की घोर तपस्या से शंकर प्रसन्न हुए तथा भगवान शंकर ने गंगाजी के प्रवाह को जटा में धारण कर उसे पृथ्वी पर छोडा। इस प्रकार हिमालय में अवतीर्ण गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे हरिद्वार, प्रयाग आदि स्थानों को पवित्र करते हुए बंगाल के उपसागर में (खाडी में) लुप्त हुईं।


बता दे कि जिस दिन गंगाजी की उत्पत्ति हुई वह दिन ‘गंगा जयंती’ (वैशाख शुक्ल सप्तमी) हैं और जिस दिन गंगाजी पृथ्वी पर अवतरित हुईं वह दिन ‘गंगा दशहरा’ (ज्येष्ठ शुक्ल दशमी ) के नाम से जाना जाता है।


जगद्गुरु आद्य शंकराचार्यजी, जिन्होंने कहा है : एको ब्रह्म द्वितियोनास्ति । द्वितियाद्वैत भयं भवति ।। उन्होंने भी ‘गंगाष्टक’ लिखा है, गंगा की महिमा गायी है। रामानुजाचार्य, रामानंद स्वामी, चैतन्य महाप्रभु और स्वामी रामतीर्थ ने भी गंगाजी की बड़ीमा गायी है। कई साधु-संतों, अवधूत-मंडलेश्वरों और जती-जोगियों ने गंगा माता की कृपा का अनुभव किया है, कर रहे हैं तथा बाद में भी करते रहेंगे।


अब तो विश्व के वैज्ञानिक भी गंगाजल का परीक्षण कर दाँतों तले उँगली दबा रहे हैं! उन्होंने दुनिया की तमाम नदियों के जल का परीक्षण किया परंतु गंगाजल में रोगाणुओं को नष्ट करने तथा आनंद और सात्त्विकता देने का जो अद्भुत गुण है, उसे देखकर वे भी आश्चर्यचकित हो उठे।


हषिकेश में स्वास्थ्य-अधिकारियों ने पुछवाया कि यहाँ से हैजे की कोई खबर नहीं आती, क्या कारण है ? उनको बताया गया कि यहाँ यदि किसीको हैजा हो जाता है तो उसको गंगाजल पिलाते हैं। इससे उसे दस्त होने लगते हैं तथा हैजे के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं और वह स्वस्थ हो जाता है। वैसे तो हैजे के समय घोषणा कर दी जाती है कि पानी उबालकर ही पियें। किंतु गंगाजल के पान से तो यह रोग मिट जाता है और केवल हैजे का रोग ही मिटता है ऐसी बात नहीं है, अन्य कई रोग भी मिट जाते हैं। तीव्र व दृढ़ श्रद्धा-भक्ति हो तो गंगास्नान व गंगाजल के पान से जन्म-मरण का रोग भी मिट सकता है।


सन् 1947 में जलतत्त्व विशेषज्ञ कोहीमान भारत आया था। उसने वाराणसी से गंगाजल लिया। उस पर अनेक परीक्षण करके उसने विस्तृत लेख लिखा, जिसका सार है - ‘इस जल में कीटाणु-रोगाणुनाशक विलक्षण शक्ति है।


दनिया की तमाम नदियों के जल का विश्लेषण करनेवाले बर्लिन के डॉ. जे. ओ. लीवर ने सन् 1924 में ही गंगाजल को विश्व का सर्वाधिक स्वच्छ और कीटाणु-रोगाणुनाशक जल घोषित कर दिया था।


‘आइने अकबरी’ में लिखा है कि ‘अकबर गंगाजल मँगवाकर आदर सहित उसका पान करते थे। वे गंगाजल को अमृत मानते थे।’ औरंगजेब और मुहम्मद तुगलक भी गंगाजल का पान करते थे। शाहनवर के नवाब केवल गंगाजल ही पिया करते थे।


कलकत्ता के हुगली जिले में पहुँचते-पहुँचते तो बहुत सारी नदियाँ, झरने और नाले गंगाजी में मिल चुके होते हैं। अंग्रेज यह देखकर हैरान रह गये कि हुगली जिले से भरा हुआ गंगाजल दरियाई मार्ग से यूरोप ले जाया जाता है तो भी कई-कई दिनों तक वह बिगड़ता नहीं है। जबकि यूरोप की कई बर्फीली नदियों का पानी हिन्दुस्तान लेकर आने तक खराब हो जाता है।


अभी रुड़की विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक कहते हैं कि ‘गंगाजल में जीवाणुनाशक और हैजे के कीटाणुनाशक तत्त्व विद्यमान हैं।


फरांसीसी चिकित्सक हेरल ने देखा कि गंगाजल से कई रोगाणु नष्ट हो जाते हैं। फिर उसने गंगाजल को कीटाणुनाशक औषधि मानकर उसके इंजेक्शन बनाये और जिस रोग में उसे समझ न आता था कि इस रोग का कारण कौन-से कीटाणु हैं, उसमें गंगाजल के वे इंजेक्शन रोगियों को दिये तो उन्हें लाभ होने लगा!


सत तुलसीदासजी कहते हैं : गंग सकल मुद मंगल मूला। सब सुख करनि हरनि सब सूला।। (श्रीरामचरित. अयो. कां. : 86.2)


सभी सुखों को देनेवाली और सभी शोक व दुःखों को हरनेवाली माँ गंगा के तट पर स्थित तीर्थों में पाँच तीर्थ विशेष आनंद-उल्लास का अनुभव कराते हैं : गंगोत्री, हर की पौड़ी (हरिद्वार), प्रयागराज त्रिवेणी, काशी और गंगासागर। गंगा दशहरे के दिन गंगा में गोता मारने से सात्त्विकता, प्रसन्नता और विशेष पुण्यलाभ होता है।



गंगाजी की वंदना करते हुए कहा गया है :

संसारविषनाशिन्यै जीवनायै नमोऽस्तु ते । तापत्रितयसंहन्त्र्यै प्राणेश्यै ते नमो नमः ।।

देवी गंगे ! आप संसाररूपी विष का नाश करनेवाली हैं। आप जीवनरूपा हैं। आप आधिभौतिक,आधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों प्रकार के तापों का संहार करनेवाली तथा प्राणों की स्वामिनी हैं। आपको बार-बार नमस्कार है।


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जानना जरूरी है कौनसा दूध पीना चाहिए

17 मई 2021

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दूध सम्पूर्ण आहार है पर आजकल की चकाचौंध वाली दुनिया में जीने वाले कुछ बच्चे दूध पीने में अरुचि रखते हैं तो कुछ बच्चों को उनके मां-बाप दूध की महिमा जानकर, दूध पिलाते हैं । दूध छोटे, बड़े, बुजुर्ग, महिलाएं सभी को पीना चाहिए क्योंकि दूध पीने से अधिकतर रोग पास में फटकते भी नहीं है पर हमें जानना जरूरी है कि कौनसा दूध पीना चाहिए और कौनसा नहीं ।



बाजार में जो दूध मिलता है वे अधिकतर या तो जर्सी गाय या भैंस या पाउडर का मिलता है जो हमारी सेहत के लिए इतना अनुकूल नहीं है । देशी गाय का ही दूध पीना चाहिए, वही पृथ्वी पर का अमृत है ।


जर्सी गाय के दूध का नुकसान-


जर्सी गाय का दूध पीनेवालों में आँतों का कैंसर अधिक पाया गया है । वैज्ञानिक डॉ. कीथ वुडफोर्ड ने अपनी पुस्तक ‘द डेविल इन द मिल्क’ में लिखा है कि ‘विदेशी गायों का दूध मानव-शरीर में ‘बीटा केसोमॉर्फीन-7’ नामक विषाक्त तत्त्व छोड़ता है । इसके कारण मधुमेह, धमनियों में खून जमना, दिल का दौरा, ऑटिज्म और स्किजोफ्रेनिया (एक प्रकार का मानसिक रोग) जैसी घातक बीमारियाँ होती हैं ।’


पाउडर का अथवा सार तत्त्व निकाला हुआ या गाढ़ा माना जानेवाला भैंस का दूध पीने का फैशन चल पड़ा है इसलिए लोगों की बुद्धि भी भैंसबुद्धि बनती जा रही है और बच्चों का विकास इतना नहीं हो पाता है, जर्सी गाय से भैंस का दूध थोड़ा ठीक माना जाता है ।


देशी गाय का दूध-


शास्त्रों ने व वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है कि देशी गाय का दूध अमृत के समान है व अनेक रोगों का स्वतः सिद्ध उपचार है । देशी गाय का दूध सेवन करने से किशोर-किशोरियों की शरीर की लम्बाई व पुष्टता उचित मात्रा में विकसित होती है, हड्डियाँ भी मजबूत बनती हैं एवं बुद्धि का विलक्षण विकास होता है ।


भारतीय नस्ल की देशी गाय की रीढ़ में सूर्यकेतु नामक एक विशेष नाड़ी होती है। जब इस पर सूर्य की किरणें पड़ती हैं तब यह नाड़ी सूर्य किरणों से सुवर्ण के सूक्ष्म कणों का निर्माण करती है । इसलिए देशी गाय के दूध-मक्खन तथा घी में पीलापन रहता है । यह पीलापन शरीर में उपस्थित विष को समाप्त अथवा बेअसर करने में लाभदायी सिद्ध होता है । रासायनिक खादों, प्रदूषण आदि के कारण हवा, पानी एवं आहार के द्वारा शरीर में जो विष एकत्रित होता है उसको नष्ट करने की शक्ति देशी गाय के दूध में है । अंग्रेजी दवाओं के सेवन से शरीर में उत्पन्न होने वाले दुष्प्रभावों (साईड इफेक्टस) का भी शमन करता है।


देशी गोदुग्ध में प्रोटीन की 'अमीनो एसिड' की प्रचुर मात्रा होने से यह सुपाच्य तथा चर्बी की मात्रा कम होने से कोलेस्ट्रोल रहित होता है।


देशी गाय के दूध में उपस्थित 'सेरीब्रोसाइडस' मस्तिष्क को ताजा रखने एवं बौद्धिक क्षमता बढ़ाने से लिए उत्तम टॉनिक का निर्माण करते हैं ।


कारनेल विश्वविद्यालय में पशुविज्ञान विशेषज्ञ प्रोफेसर रोनाल्ड गोरायटे के अनुसार देशी गाय के दूध में उपस्थित MDGI प्रोटीन शरीर की कोशिकाओं को कैंसरयुक्त होने से बचती है ।


देशी गौदुग्ध पर अनेक देशों में और भी नये-नये परीक्षण हो रहे हैं तथा सभी परीक्षणों से इसकी नवीन विशेषताएँ प्रकट हो रही हैं । धीरे-धीरे वैज्ञानिकों की समझ में आ रहा है कि भारतीय ऋषियों ने गाय को माता, अवध्य तथा पूजनीय क्यों कहा है ।


देशी गाय का दूध पृथ्वी पर सर्वोत्तम आहार है । उसे मृत्युलोक का अमृत कहा गया है । मनुष्य की शक्ति एवं बल को बढ़ाने वाला देशी गाय का दूध जैसा दूसरा कोई श्रेष्ठ पदार्थ इस त्रिलोकी में नहीं है ।


केवल देशी गाय के दूध में ही विटामिन ए होता है, किसी अन्य पशु के दूध में नहीं ।


देशी गाय का दूध, जीर्णज्वर, मानसिक रोगों, मूर्च्छा, भ्रम, संग्रहणी, पांडुरोग, दाह, तृषा, हृदयरोग, शूल, गुल्म, रक्तपित्त, योनिरोग आदि में श्रेष्ठ है।


प्रतिदिन देशी गाय के दूध के सेवन से तमाम प्रकार के रोग एवं वृद्धावस्था नष्ट होती है। उससे शरीर में तत्काल वीर्य उत्पन्न होता है।


देशी गाय के दूध से बनी मिठाइयों की अपेक्षा अन्य पशुओं के दूध से बनी मिठाइयाँ जल्दी बिगड़ जाती हैं।


देशी गाय को शतावरी खिलाकर उस गाय के दूध पर मरीज को रखने से क्षय रोग (T.B.)  मिटता है ।


देशी गाय के दूध में दैवी तत्त्वों का निवास है । देशी गाय के दूध में अधिक से अधिक तेज तत्व एवं कम से कम पृथ्वी तत्व होने के कारण, उस दूध का सेवन करने वाला व्यक्ति प्रतिभासम्पन्न होता है और उसकी ग्रहण शक्ति (Grasping Power) खिलती है । ओज-तेज बढ़ता है । इस दूध में विद्यमान 'सेरीब्रोसाडस' तत्वदिमाग एवं बुद्धि के विकास में सहायक है ।

कवल देशी गाय के दूध में ही Stronitan तत्व है जो कि अणुविकिरणों का प्रतिरोधक है । रशियन वैज्ञानिक देशी गाय के घी-दूध को एटम बम के अणु कणों के विष का शमन करने वाला मानते हैं और उसमें रासायनिक तत्व नहीं के बराबर होने के कारण उसके अधिक मात्रा में पीने से भी कोई 'साइड इफेक्ट' या नुकसान नहीं होता ।


रस के वैज्ञानिक देशी गाय के दूध को आण्विक विस्फोट से उत्पन्न विकिरण के शरीर पर पड़े दुष्प्रभाव को शमन करने वाला मानते हैं ।


कारनेल विश्वविद्यालय के पशुविज्ञान के विशेषज्ञ प्रोफेसर रोनाल्ड गोरायटे कहते हैं कि "देशी गाय के दूध से प्राप्त होने वाले MDGI  प्रोटीन के कारण शरीर की कोशिकाएं कैंसरयुक्त होने से बचती हैं ।"


देशी गाय के दूध से कोलेस्ट्रॉल नहीं बढ़ता बल्कि हृदय एवं रक्त की धमनियों के संकोचन का निवारण होता है । इस दूध में दूध की अपेक्षा आधा पानी डालकर, पानी जल जाये तब तक उबालकर पीने से कच्चे दूध की अपेक्षा पचने में अधिक हल्का होता है ।


देशी गाय के दूध में उसी गाय का घी मिलाकर पीने से और गाय के घी से बने हुए हलुए को, सहन हो सके उतने गर्म-गर्म कोड़े जीभ पर फटकारने से कैंसर मिटने की बात जानने में आयी है ।


दशी गाय का दूध अत्यंत स्वादिष्ट, स्निग्ध, मुलायम, चिकनाई से युक्त, मधुर, शीतल, रूचिकर, बुद्धिवर्धक,बलवर्धक, स्मृतिवर्धक, जीवनदायक, रक्तवर्धक,वाजीकारक, आयुष्यकारक एवं सर्वरोग को हरनेवाला है ।


अतः आज से संकल्प ले कि जर्सी गाय, भैंस अथवा पाउडर का दूध नही पिएंगे केवल देशी गाय का ही दूध पियेंगे । कुछ पाठकों के प्रश्न होंगे कि देशी गाय का दूध कहा मिलेगा तो आसपास के लोग मिलकर अपने आजूबाजू में गौशालायें चालू करवाइए जिससे आपको देशी गाय दूध मिलेगा, गौहत्या रुकेगी और आप स्वस्थ्य रहेंगे ।


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देशवासियों के नाम एक फकीर का संदेश : हिंदुत्व को बचा लो...

16 मई 2021

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शरीमति इंदिरा गांधी से लेकर तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी तक की भेंट करने वाले बोरिया बाबा ने बताया कि यदि आज हमारे देश में घंटे-घड़ियाल व मंत्रों की ध्वनि सुनाई पड़ रही है, मंदिरों में सुबह-शाम आरती की घंटियां बज रही है, तो यह सब हमारे साधु-संतो व गुरु लोगों की कृपा का फल है।



औरंगजेब के जमाने में तलवार की ताकत से धर्मांतरण का ऐसा भयंकर बवंडर चला था कि यदि उस समय हमारे आध्यात्मिक गुरु गोविंद सिंह जी तलवार उठा कर हिंदू धर्म की रक्षा नहीं करते तो आज पूरा हिंदुस्तान ही पाकिस्तान बन गया होता।


आज फिर ईसाई मिशनरियों ने हमारे देश को एक ईसाई-राष्ट्र बनाने के लिए एक भयंकर युद्ध छेड़ा हुआ है, ऐसे समय में हिंदू संत आसाराम बापू ने उनके खिलाफ मोर्चा संभाला हुआ था,किंतु इटली की ईसाई महिला सोनिया गांधी की सरकार ने एक षड्यंत्र रच कर उनको कारागार में भेज दिया।


सत आसाराम बापू को समाज से दूर करते ही धर्मांतरणकारी शक्तियों के हौसले अब आसमान की बुलंदी को छू रहे हैं।पिछले कुछ वर्षों में इन लोगों ने जितने इसाई बना दिए हैं,उतने तो शायद पिछले 50 वर्षों में भी नहीं बना पाए थे और आश्चर्य की बात यह है कि आज अधर्म के पक्ष में खड़े बड़े-बड़े राजनेता व तथाकथित बुद्धिजीवी भी यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि “हिंदू” जिस दिन भी इस देश में अल्पसंख्यक बन जाएगा— उस दिन सारा भारत एक कश्मीरी बन जाएगा।


कई लाख कश्मीरी हिंदू आज भी भारत मे ही शरणार्थी बने घूम रहे हैं।


आपको बता दें कि बोरिया बाबा के गुरूजी बाबा बैताली राम जी जिनका शरीर इस धरा पर लगभग 350 वर्षों तक रहा था।


बोरिया बाबा अपने जीवन के 60-70 वर्ष हिमालय में तपस्या कर अब लोक-कल्याणार्थ नीचे आकर देश में पर्यावरण सुधार के कार्य में जुटे हुए हैं।


इसी सिलसिले में बाबा की भेंट देश के राजनेताओं, श्रीमति इंदिरा गांधी से लेकर वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी तक भी होती रही है।


भतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी तो बाबा का जब भी दिल्ली आना होता था, वो उन्हें अपने भोंडसी आश्रम जरुर लेकर जाते थे।


यही बोरिया बाबा ने पहले भी हिन्दू संत आसाराम बापू को रिहा करने के लिए पत्र लिखा था उसमें बताया था कि कांग्रेस पार्टी ने 80 वर्षीय संत आशारामजी बापू को एक झूठे मुकदमें में फंसाकर जेल भेज दिया था । मैडम सोनिया ने अपनी हुकूमत में और भी हिन्दू संतो को खूब फंसाया है । अब मैडम सोनिया व उसके पुत्र के कर्म पूरे हो चुके हैं। उनका राजपाट छीन चुका है अब दोनों ही असहाय होकर घूम रहे हैं।


शास्त्र वचन भी है...

संत कै दूखनि नीचु निचाई।

संत दोखी का थाउ को नाहीँ।।


सत आशारामजी बापू पिछले 50 वर्षों से इस देश की सेवा में जुटे हुए थे। अपने सत्संग ,गुरुकुल व गौशालाओं के जरिये वो भारत की सनातन संस्कृति धर्म व गौ-माता की खूब सेवा कर रहे थे । देश में ईसाई मिशनरियों द्वारा हिन्दुओं को धड़ाधड़ ईसाई बनाये जाने के कामों में इससे रोक लग रही थी । और इसी कारण से मैडम सोनिया उनसे नाराज हो गयी थी।


दश के लोगों को पूरी उम्मीद थी कि मोदी जी की सरकार आ जाने पर संत आशारामजी बापू को तुरंत न्याय मिल जायेगा। इस लिए देश के बड़े- बड़े साधु संतो ने भी भाजपा की जीत के लिये खूब-खूब प्रार्थनाएँ, यज्ञ तथा भंडारे किये थे। लेकिन संत आशारामजी बापू की रिहाई न होने के कारण ही आज भारत के बड़े - बड़े साधु संत व मठाधीश तक भयभीत है।


उन संतो का कहना है कि जब इतने बड़े संत के साथ सरकार ऐसा बर्ताव कर सकती है तो हम लोंगो की तो बिसात ही क्या है! इस लिये कोई भी संत महात्मा इस बारे मे खुल कर बोल भी नहीं पा रहा है।मोदी जी मेरा आपसे कहना है कि जिस राजा के राज में संत सताए जाएँ तथा संत महात्मा भयभीत होकर रहें, तो उस राजा का भविष्य कतई उज्जवल नहीं है।


म भी संत महात्माओं की इस पवित्र भारत भूमि पर 100 वर्षों से भी अधिक समय से  विचरण कर रहा एक वैष्णव अघोरी फकीर हूँ। मैंने भी आपके लिए माँ भगवती से खूब प्रार्थनाएं की थी । इसलिए मेरी तो आपको सलाह है कि संत आशारामजी बापू एक निर्दोष संत हैं । आप सम्मान के साथ उनकी आजादी का जल्दी से जल्दी प्रबंध कर दें।


भारत के हजारों संत इसके लिए आपको आशीर्वाद और दुआएं देंगे तथा आपके उज्जवल भविष्य के लिए प्रार्थना भी करेंगे।


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Saturday, February 12, 2022

करांतिकारी सुखदेवजी के बारे में आपको ये बातें पता नहीं होंगी, जो जाननी जरूरी हैं

15 मई 2021

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हमारा भारतवर्ष पहले स्वतन्त्र एवं धन-धान्य से परिपूर्ण था, लेकिन भारत की यह सम्पन्नता विदेशी लोगों की नजर में खटकने लगी। हमारे भोलेपन का फायदा उठाकर अंग्रेजों ने हमारे देश पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों के अत्याचार ने इस सीमा को पार कर लिया था कि भारतवासी इस अत्याचार से मुक्ति पाने के लिए छटपटाने लगे। एक ओर महात्मा गांधी का अहिंसा आन्दोलन चल पड़ा और दूसरी ओर क्रान्तिकारियों ने क्रान्ति का बिगुल बजा दिया। ऐसे ही एक वीर क्रान्तिकारी थे सुखदेव।



उनका जन्म 15 मई, सन् 1907 में पंजाब प्रान्त के लायलपुर नामक स्थान में हुआ था (वर्तमान में लायलपुर पाकिस्तान में है)। उनकी माताजी अत्यन्त धार्मिक तथा भावुक प्रवृत्तिवाली महिला थीं और परिवार आर्यसमाजी था, जिसका अत्यधिक प्रभाव सुखदेवजी पर पड़ा। धार्मिक बातों में उनकी बहुत रुचि थी और अपनी मां से तो वीर रस की कहानियां भी सुना करते थे। इसका प्रभाव यह हुआ कि वे वीर और निडर बन गए एवं योद्धा बनकर देशसेवा में लग गए। उनका स्वभाव बड़ा ही शांत और कोमल था, इसलिए उनके सहपाठी और शिक्षक सदैव उनका आदर और उनसे प्यार करते थे। उनके स्वभाव में उदारता की भावना यथेष्ट थी। वे अपने सिद्धांतों में बड़े दृढ़ थे। जो बात दिल में समा जाती थी वह सारे संसार का विरोध करने पर भी छोड़ना नहीं चाहते थे। वे अपनी धुन के पक्के थे। सहपाठियों में जब किसी विषय को लेकर तर्क-वितर्क उपस्थित होता तो वो बड़ी दृढ़ता से अपना पक्ष रखते और अंत में उनकी अकाट्य युक्तियों के सामने प्रतिद्वंदी को मस्तक झुका देना पड़ता।  समाज के सत्संगों में वे बड़े उत्साह से भाग लिया करते थे, इसके अलावा हवन, योगाभ्यास और संध्या का भी शोक था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी लायलपुर में स्थित आर्य स्कूल से शुरू हुई, विद्यालय का नाम धनपतमल आर्य स्कूल था। यहां से शिक्षा ग्रहण करने के बाद उनको सनातन हाईस्कूल में भर्ती कर दिया गया था और सन् 1922 में उन्होंने प्रवेशिका की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में पास की। परिवार क्रान्तिकारी था। इनके चाचा अचिन्त राम क्रान्तिकारी गतिविधियों में संलग्न रहा करते थे। वे भी आन्दोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया करते थे।


सन् 1919 की एक घटना है- जब सुखदेव केवल बारह साल के थे, उनके चाचा अचिन्त राम सरकार विरोधी गतिविधि में गिरफ्तार कर लिए गए थे। उस समय सुखदेव थोड़ा-थोड़ा समझने लगे थे कि अंग्रेज उनके दुश्मन हैं, उनको हमारे इस देश पर शासन करने का कोई हक नहीं है। इन गोरों से हमारे देश को जितना जल्दी हो आजाद कराया जाए- यही हम सब भारतवासियों के लिए अच्छा होगा।


सन् 1920-21में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटना घटित हुई- उन दिनों बालक सुखदेव कक्षा नौ में पढ़ते थे। तभी ब्रिटिश सरकार की ओर से हुक्म आया कि शहर के सारे विद्यालयों के छात्र-छात्राएं एक जगह एकत्रित होकर ब्रिटिश झण्डे का अभिवादन करेंगे। बालक सुखदेव भला इस समारोह में कैसे शामिल होते! क्योंकि वे अंग्रेजों को अपना कट्टर दुश्मन समझते थे। इसलिए उस समारोह में जाने के बजाय सीधे घर आ गए। घर आकर जब उन्होंने यह घटना अपने चाचाजी को सुनाई तो चाचा अपने भतीजे की बात पर जरा भी नाराज नहीं हुए, बल्कि उनकी देशभक्ति तथा निडरता को देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हो उठे। देश में एक-के-बाद-एक ऐसी घटनाएं घटती जा रही थीं जिन्हें देखकर व सुनकर सुखदेव का मन देशभक्ति की तरफ बढ़ता ही जा रहा था।


सन् 1921 में गांधीजी ने भारत में असहयोग आन्दोलन शुरू कर दिया। इस आन्दोलन से सारे भारतवासियों में एक अद्भुत विचारधारा उत्पन्न हो गई। पूरे भारत में विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार होने लगा। जगह-जगह विदेशी वस्तुओं को जलाया जा रहा था। पंजाब में भी लोग जगह-जगह विदेशी वस्तुओं की होली जलाने लगे, एक अजीब-सा माहौल बन गया था। इस घटना ने सुखदेव के दिल पर एक ऐसी छाप छोड़ी जो कि उन्होंने विदेशी वस्त्रों तथा वस्तुओं का पूर्ण रूप से त्याग करने का निश्चय कर लिया। राष्ट्र-सेवा ही आपने अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बना लिया था तथा प्रण किया कि जब तक मैं जीवित रहूंगा, देश-सेवा करता रहूंगा।


कछ समय पश्चात् वे भगतसिंह के सम्पर्क में आये। भगतसिंह उनके विचारों से काफी प्रभावित हुए। दल में वह ऐसी ही नौजवानों को चाहते थे, जो अपनी चिन्ता किये बगैर मातृभूमि के लिए अपने प्राण त्यागने को सदा तैयार रहें। सन् 1926 में भगतसिंह तथा अन्य क्रान्तिकारियों ने मिलकर लाहौर में "नौजवान भारत सभा" की स्थापना की, इस सभा में क्रान्तिकारी सुखदेव भी शामिल थे। "नौजवान भारत सभा" क्रान्तिकारी आन्दोलन का एक खुला मंच था। इस सभा का काम लोगों को अपने उद्देश्य तथा विचारों के बारे में अवगत कराना था। इस सभा की स्थापना गुप्त संगठन के कार्य का क्षेत्र तैयार करना और लोगों में उग्र राष्ट्रीय भावना को


गाना था। भगतसिंह इस सभा के मुख्य सूत्रधार थे। सुखदेव भी इस सभा के प्रमुख एवं सक्रिय सदस्यों में से एक थे। लाहौर में कमीशन आ रहा था, क्रान्तिकारियों को इसकी सूचना पहले ही मिल गई थी। उन्हें जोरदार प्रदर्शन करके अपना विरोध प्रकट करना था। सुखदेव, भगतसिंह तथा अन्य पांच-छह क्रान्तिकारियों ने मिलकर एक योजना बनायी। एक क्रान्तिकारी के घर प्रदर्शन के लिए काले झण्डे तैयार किए जा रहे थे। किसी तरह से पुलिस को इसकी सूचना मिल गई। वे इस प्रदर्शन को विफल करना चाहते थे, उन्होंने देशभक्तों को गिरफ्तार करने के लिये विभिन्न स्थानों पर छापे मारे। पुलिस की आंखों में धूल झोंककर सभी क्रान्तिकारी वहां से भाग खड़े हुए। किसी कारणवश सुखदेव वहां से भाग नहीं सके, वह वहीं पकड़े गए। पुलिस वाले बहुत अधिक खुश हुए और आपस में कह रहे थे- "चलो एक तो मिला! इसीसे ही सारे लोगों के बारे में पता चल जाएगा।"

लेकिन वाह रे सुखदेव! पुलिस की कितनी मार खाई। यातनाएं सहीं, मगर दल के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा। इस प्रकार के क्रान्तिकारी को नमन। उन्होंने निडर होकर पुलिसवालों को करारा जवाब दिया-" मैं मर जाऊंगा लेकिन तुम्हें कभी भी अपने साथियों के बारे में नहीं बताऊंगा।"


एक बार की बात है- लाहौर की बोस्टल जेल में भूख हड़ताल को तोड़ने के लिए क्रान्तिकारियों की पिटाई हो रही थी, अंग्रेज पिटाई करके भूख हड़ताल को तोड़ना चाहते थे। डॉक्टर क्रान्तिकारियों को जबरदस्ती दूध पिलाना चाहता था, इसके लिए जेल अधिकारियों की सहायता ली गई। जेल का बड़ा दरोगा खान बहादुर खैरदीन बारह-पन्द्रह तगड़े सिपाही के साथ एक-एक करके कैदी क्रान्तिकारियों को कोठरियों से अस्पताल तक पहुंचाने में व्यस्त था। दरोगा ने सुखदेव की कोठरी खुलवाई। कोठरी का दरवाजा खुलते ही सुखदेव तीर की तरह भाग निकले। दस रोज के अनशन के बाद भी उन्होंने ऐसी दौड़ लगाई कि जेल के अधिकारी परेशान हो गए। दस दिन का भूखा आदमी भी इस कदर फुर्ती से दौड़ सकता है, इस बात की उन्हें ज़रा भी उम्मीद नहीं थी। बड़ी मुश्किल से जब सुखदेव काबू में आया तो उसने मारपीट शुरू कर दी। किसी को मारा, किसी को काट खाया। अपने आदमियों को एक भूखे आदमी से पिटते देख दरोगा को गुस्सा आ गया। डॉक्टर के पास ले जाने से पहले उसने सुखदेव की खूब मरम्मत करवा दी, परन्तु वह बेझिझक मार खाते गए और दरोगा की ओर उपेक्षा के भाव से मुस्कुराते रहे। उनकी इस शरारतभरी मुस्कुराहट से दरोगा अत्यधिक क्रोधित हो उठा। जब सिपाही और दरोगा उसे टांगकर अस्पताल ले जा रहे थे तो उसने टांगें फटकारनी शुरू कर दीं। दरोगा पास आकर हिदायत देने लगा। सुखदेव ने दरोगा के सीने पर ऐसी लात मारी कि वह बेचारा धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा। दरोगा चाहता तो सुखदेव की अच्छी मरम्मत करवा सकता था, परन्तु वह अपनी झेंप मिटाने के लिए वहां से चला गया।


सखदेव हठी स्वभाव के थे, अगर उनपर कोई बात सवार हो गई तो मजाल है जो कोई उनके फैसले को डिगा दे। उनके बाएं हाथ पर "ॐ" शब्द गुदा हुआ था। फरारी की हालत में पहचान के लिए यह बहुत बड़ी निशानी थी। आगरे में बम बनाने के लिए नाइट्रिक एसिड खरीदकर रखा गया था। "ॐ" शब्द मिटाना जरूरी था, जिससे पकड़े जाने पर पहचान न हो सके। इस "ॐ" शब्द को मिटाने के लिए उन्होंने गुदे हुए स्थान पर बहुत-सा नाइट्रिक एसिड डाल दिया। शाम तक जहां-जहां एसिड लगा था, गहरे घाव हो गए। पूरा हाथ सूज गया और बुखार भी चढ़ आया। साथियों से पूछने पर उसने एक शब्द भी नहीं कहा और न ही तकलीफ के कारण हंसी-ठिठोली में कमी आने दी।

एक दिन शाम को वह दुर्गा भाभी के घर पहुंचा। भगवती भाई उस समय कहीं बाहर गए हुए थे। भाभी रसोईघर में खाना बना रही थीं। सुखदेव चुपचाप भगवती भाई के कमरे में जाकर बैठ गया। इस प्रकार सुखदेव को काफी देर खामोश देखकर भाभी को उत्सुकता होने लगी कि वह अकेला कमरे में क्या कर रहा है? जाकर देखा तो दंग रह गयीं।

सुखदेव ने मेज पर मोमबत्ती जला रखी थी और उसकी लौ पर हाथ किये बैठा था। जिस स्थान पर उसका नाम लिखा था, वहां की खाल जल चुकी थी। वह अधूरा काम छोड़ना नहीं चाहते थे। इस दृश्य को देखकर भाभी के रोंगटे खड़े हो गए। इस स्वभाव के थे वीर सुखदेव।


नौजवानों की क्रान्तिकारी टोलियों ने फिर से हथियार उठा लिए थे, किसी भी तरह देश को आजाद कराना था। सुखदेव का काम भी बड़ी तत्परता से चल रहा था। दल की केन्द्रीय समिति की बैठक हुई- जिसमें यह निश्चय किया गया कि दिल्ली के असेम्बली भवन में बम फेंका जाए। इस कार्य को भगतसिंह करना चाहता था लेकिन दल के अन्य सदस्यों ने उसकी बात नहीं मानी। सैण्डर्स की हत्या के सिलसिले में पंजाब पुलिस भगतसिंह के पीछे पड़ी थी। भगतसिंह के पकड़े जाने का अर्थ था- उनकी फांसी, जो दल के लोग नहीं चाहते थे। उनका इरादा किसी दूसरे व्यक्ति को भेजने का था- और यही निश्चय किया गया कि भगतसिंह के स्थान पर अन्य किसी को भेजा जाएगा, जो इस काम को कुशलतापूर्वक सम्पन्न कर सके। सौभाग्य सुखदेव इस सभा में नहीं थे। बम फेंकने के लिए समिति की आज्ञा की जरूरत थी। भगतसिंह ने आग्रह करके समिति की बैठक बुलाई। सुखदेव को भी इस बैठक में बुलाया गया। भगतसिंह बम फेंकने के लिए अड़ गया। विवश होकर समिति को उसकी बात माननी पड़ी। सुखदेव अपने मित्र को खोना नहीं चाहते थे इस कारण उन्होंने भगतसिंह से बहस भी की लेकिन भगतसिंह के जिद्द के कारण उदास होकर उसी शाम किसी से कुछ कहे बिना सुखदेव लाहौर पहुंच गये। सड़क से जुलूस जब गुजर रहा था तो पुलिस के इशारे पर उसके किसी आदमी ने उस जुलूस में बम फेंक दिया। शहर में दंगा भड़क उठा। पुलिस इस दंगे को दबा नहीं पाई तथा अपनी इस करतूत पर वह खिसिया गयी थी। क्रान्तिकारियों को इस दंगे से जोड़कर वह अपना मतलब हल करना चाहती थी। पुलिसवालों ने सबसे पहले भगतसिंह को पकड़ा लेकिन वह जमानत पर छूट गए। इसके बाद वहां से सुखदेव को गिरफ्तार किया गया, साथ में उसके कई अन्य साथी थे।


भगतसिंह, सुखदेव और विजय कुमार सिन्हा ने तीन सदस्यों की कमेटी बनाई थी जिसका काम हर क्षेत्र में अंग्रेज अफसरों का विरोध करना था। उनका हमेशा से एक ही नारा था- 'क्रान्ति अमर रहे', 'वन्देमातरम्', 'इन्कलाब जिन्दाबाद'!


करान्तिकारियों को अंग्रेज अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे। दुश्मनों को खत्म करने के लिए उन्होंने चुन-चुनकर उनको फांसी देना शुरू कर दिया था। वे समझते थे कि इस तरह उनके मनोबल को गिरा देंगे- लेकिन यह उनकी सबसे बड़ी भूल थी। लाहौर कारागर में सुखदेव, भगतसिंह व राजगुरु तीनों ही कैद थे। उनके मुकदमे की सुनवाई अदालत में चल रही थी। अंग्रेजों का ध्येय समाप्त हो चुका था। उन्होंने मुकदमे की सुनवाई भी पूरी नहीं होने दी। सरकार को भय था कि अगर निष्पक्ष फैसला हुआ तो उसकी हार हो सकती है, और क्रांतिकारी भी छूट जाएंगे, यह सब कैसे सम्भव था! 7 अक्टूबर, सन् 1930 में सरकार ने सुखदेव, भगतसिंह तथा राजगुरु को फांसी की सजा सुना दी। सरकार इस फैसले को छिपाकर न रख सकी। लोगों को अंग्रेजों की जल्दबाजी में किये गए फैसले के बारे में पता हो चुका था। यह फैसला सुनकर चारों ओर क्रान्ति आ गई। अगले दिन 8 अक्टूबर को उत्तर भारत के प्रत्येक स्थान पर हड़ताल हो गई। पूरा वातावरण 'भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव जिन्दाबाद' के नारों से गूंजने लगा।


फांसी पर चढ़ने से पहले उन तीनों के होठों पर मुस्कान थिरक रही थी, उन्हें अपनी मौत का जरा-सा भी भय नहीं था। 23 मार्च, सन् 1931 की शाम को लाहौर की केन्द्रीय जेल में तीनों क्रान्तिकारियों- भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी पर लटका दिया गया।


भारत के इतिहास में इन तीनों क्रान्तिकारियों का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया। इस बात में कोई सन्देह नहीं कि आर्यावर्त के वीर पुत्र सुखदेव एक सच्चे देशभक्त थे, उन्होंने देश पर हंसते-हंसते अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। हम सभी को उनपर गर्व होना चाहिए तथा उनके जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए कि जब-जब हमारे देश पर कोई संकट आएगा, तब-तब हम सभी एक मजबूत दीवार बनकर उस संकट का सामना करेंगे। - प्रियांशु सेठ


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शभाजी राजे 120 युद्धों में से एक भी नहीं हारे, पर इतिहास गायब कर दिया !

14 मई 2021

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शभाजी राजा ने अपनी अल्पायु में जो अलौकिक कार्य किए, उससे पूरा हिंदुस्थान प्रभावित हुआ। इसलिए प्रत्येक हिंदू को उनके प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए। उन्होंने साहस एवं निडरताके साथ औरंगजेब की आठ लाख सेना का सामना किया तथा अधिकांश मुगल सरदारों को युद्ध में पराजित कर उन्हें भागने के लिए विवश कर दिया। २४ से ३२ वर्ष की आयु तक शंभुराजा ने मुगलों की पाशविक शक्ति से लड़ाई की एवं एक बार भी यह योद्धा पराजित नहीं हुआ। इसलिए औरंगजेब दीर्घकाल तक महाराष्ट्र में युद्ध करता रहा । उसके दबाव से संपूर्ण उत्तर हिंदुस्थान मुक्त रहा। इसे शंभाजी महाराज का सबसे बडा कार्य कहना पड़ेगा। यदि उन्होंने औरंगजेब के साथ समझौता किया होता अथवा उसका आधिपत्य स्वीकार किया होता तो वह दो-तीन वर्षों में ही पुन: उत्तर हिंदुस्थान में आ धमकता; परंतु शंभाजी राजा के संघर्ष के कारण औरंगजेब को २७ वर्ष दक्षिण भारत में ही रुकना पडा । इससे उत्तर में बुंदेलखंड, पंजाब और राजस्थान में हिंदुओं की नई सत्ताएं स्थापित होकर हिंदू समाज को सुरक्षा मिली ।


वीर शिवाजी के पुत्र वीर शम्भाजी को अयोग्य आदि की संज्ञा देकर बदनाम करते हैं। जबकि सत्य ये है कि अगर वीर शम्भाजी कायर होते तो वे औरंगजेब की दासता स्वीकार कर इस्लाम ग्रहण कर लेते। वह न केवल अपने प्राणों की रक्षा कर लेते अपितु अपने राज्य को भी बचा लेते। वीर शम्भाजी का जन्म 14  मई 1657 को हुआ था।  आप वीर शिवाजी के साथ अल्पायु में औरंगजेब की कैद में आगरे के किले में बंद भी रहे थे। आपने 11 मार्च 1689 को वीरगति प्राप्त की थी। इस लेख के माध्यम से हम शम्भाजी के जीवन बलिदान की घटना से धर्मरक्षा की प्रेरणा ले सकते हैं। इतिहास में ऐसे उदाहरण विरले ही मिलते हैं।



औरंगजेब के जासूसों ने सूचना दी कि शम्भाजी इस समय अपने पांच-दस सैनिकों के साथ वारद्वारी से रायगढ़ की ओर जा रहे हैं। बीजापुर और गोलकुंडा की विजय में औरंगजेब को शेख निजाम के नाम से एक सरदार भी मिला जिसे उसने मुकर्रब की उपाधि से नवाजा था। मुकर्रब अत्यंत क्रूर और मतान्ध था। शम्भाजी के विषय में सूचना मिलते ही उसकी बांछे खिल उठी। वह दौड़ पड़ा रायगढ़ की ओर। शम्भाजी अपने मित्र कवि कलश के साथ इस समय संगमेश्वर पहुँच चुके थे। वह एक बाड़ी में बैठे थे कि उन्होंने देखा कवि कलश भागे चले आ रहे है और उनके हाथ से रक्त बह रहा है।  कलश ने शम्भाजी से कुछ भी नहीं कहा बल्कि उनका हाथ पकड़कर उन्हें खींचते हुए बाड़ी के तलघर में ले गए परन्तु उन्हें तलघर में घुसते हुए मुकर्रब खान के पुत्र ने देख लिया था। शीघ्र ही मराठा रणबांकुरों को बंदी बना लिया गया। शम्भाजी व कवि कलश को लोहे की जंजीरों में जकड़ कर मुकर्रब खान के सामने लाया गया।  वह उन्हें देखकर खुशी से नाच उठा।  दोनों वीरों को बोरों के समान हाथी पर लादकर मुस्लिम सेना बादशाह औरंगजेब की छावनी की और चल पड़ी।


औरंगजेब को जब यह समाचार मिला तो वह ख़ुशी से झूम उठा। उसने चार मील की दूरी पर उन शाही कैदियों को रुकवाया। वहां शम्भाजी और कवि कलश को रंग बिरंगे कपडे और विदूषकों जैसी घुंघरूदार लम्बी टोपी पहनाई गयी।  फिर उन्हें ऊंट पर बैठा कर गाजे बाजे के साथ औरंगजेब की छावनी पर लाया गया। औरंगजेब ने बड़े ही अपशब्दों में उनका स्वागत किया। शम्भाजी के नेत्रों से अग्नि निकल रही थी परन्तु वह शांत रहे। उन्हें बंदीगृह भेज दिया गया।  औरंगजेब ने शम्भाजी का वध करने से पहले उन्हें इस्लाम कबूल करने का न्योता देने के लिए रूहल्ला खान को भेजा।


नर केसरी लोहे के सींखचों में बंद था। कल तक जो मराठों का सम्राट था। आज उसकी दशा देखकर करुणा को भी दया आ जाये। फटे हुए चिथड़ों में लिप्त हुआ उनका शरीर मिट्टी में पड़े हुए स्वर्ण के समान हो गया था। उन्हें स्वर्ग में खड़े हुए छत्रपति शिवाजी टकटकी बांधे हुए देख रहे थे।  पिताजी, पिताजी वे चिल्ला उठे- मैं आपका पुत्र हूँ।  निश्चित रहिये। मैं मर जाऊँगा लेकिन…..


लेकिन क्या शम्भा जी …रूहल्ला खान ने एक ओर से प्रकट होते हुए कहा-

तुम मरने से बच सकते हो शम्भाजी परन्तु एक शर्त पर।


शम्भाजी ने उत्तर दिया- मैं उन शर्तों को सुनना ही नहीं चाहता।  शिवाजी का पुत्र मरने से कब डरता है।


लेकिन जिस प्रकार तुम्हारी मौत यहाँ होगी उसे देखकर तो खुद मौत भी थर्रा उठेगी शम्भाजी- रुहल्ला खान ने कहा।


कोई चिंता नहीं, उस जैसी मौत भी हम हिन्दुओं को नहीं डरा सकती।  संभव है कि तुम जैसे कायर ही उससे डर जाते हों। - शम्भाजी ने उत्तर दिया।


लेकिन… रुहल्ला खान बोला, वह शर्त है बड़ी मामूली।  तुझे बस इस्लाम कबूल करना है।  तेरी जान बक्श दी जाएगी। शम्भाजी बोले- बस रुहल्ला खान आगे एक भी शब्द मत निकालना मलेच्छ।  रुहल्ला खान अट्टहास लगाते हुए वहाँ से चला गया।


उस रात लोहे की तपती हुई सलाखों से


की दोनों आँखे फोड़ दी गयी  उन्हें खाना और पानी भी देना बंद कर दिया गया।


आखिर 11  मार्च को वीर शम्भा जी के बलिदान का दिन आ गय।  सबसे पहले शम्भाजी का एक हाथ काटा गया, फिर दूसरा, फिर एक पैर को काटा गया और फिर दूसरा पैर। शम्भाजी का करपाद विहीन धड़ दिन भर खून की तलैय्या में तैरता रहा।  फिर सांयकाल में उनका सर काट दिया गया और उनका शरीर कुत्तों के आगे डाल दिया गया।  फिर भाले पर उनके सर को टांगकर सेना के सामने उसे घुमाया गया और बाद में कूड़े में फेंक दिया गया।


मराठों ने अपनी छातियों पर पत्थर रखकर अपने सम्राट के सर का इंद्रायणी और भीमा के संगम पर तुलापुर में दाह-संस्कार किया। आज भी उस स्थान पर शम्भाजी की समाधि है जो पुकार पुकार कर वीर शम्भाजी की याद दिलाती है कि हम सर कटा सकते हैं पर अपना प्यारा वैदिक धर्म कभी नहीं छोड़ सकते।


मित्रों, शिवाजी के तेजस्वी पुत्र शंभाजी के अमर बलिदान की यह गाथा हिन्दू माताएं अपनी लोरियों में बच्चों को सुनायें तो हर घर से महाराणा प्रताप और शिवाजी जैसे महान वीर जन्मेंगे। इतिहास के इन महान वीरों के बलिदान के कारण ही आज हम गर्व से अपने आपको श्री राम और श्री कृष्ण की संतान कहने का गर्व करते हैं। आईये, आज हम प्रण लें- हम उन्हीं वीरों के पथ के अनुगामी बनेंगे।


शाहीर योगेश के शब्दो में कहना है, तो…


‘देश धरम पर मिटनेवाला शेर शिवा का छावा था ।

महापराक्रमी परम प्रतापी एक ही शंभू राजा था ।।१।।


तेजपुंज तेजस्वी आंखें निकल गईं पर झुका नहीं।

दृष्टि गई पर राष्ट्रोन्नति का दिव्य स्वप्न तो मिटा नहीं।।२।।


दोनों पैर कटे शंभू के ध्येय मार्गसे हटा नहीं।

हाथ कटे तो क्या हुआ सत्कर्म कभी भी छूटा नहीं।।३।।


जिह्वा काटी रक्त बहाया धरम का सौदा किया नहीं।।

शिवाजी का ही बेटा था वह गलत राहपर चला नहीं।।४।।


रामकृष्ण, शालिवाहनके पथसे विचलित हुआ नहीं।।

गर्व से हिंदू कहने में कभी किसीसे डरा नहीं।।


वर्ष तीन सौ बीत गए अब शंभू के बलिदानको ।

कौन जीता कौन हारा पूछ लो संसारको।।५।।


कोटि-कोटि कंठों में तेरा आज गौरवगान है।

अमर शंभू तू अमर हो गया तेरी जय जयकार है।।६।।


भारतभूमि के चरणकमल पर जीवन पुष्प चढाया था।

है दूजा दुनिया में कोई, जैसा शंभू राजा था ।।७।।’


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जानिए भारत को आज परशुरामजी की क्यों आवश्यकता है?

13 मई 2021

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भगवान परशुरामजी का जन्म भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी क्षत्राणी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था। वे भगवान विष्णु के छठे अंशावतार थे। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुरामजी कहलाये।



शक्तिधर परशुरामजी का चरित्र एक ओर जहाँ शक्ति के केन्द्र सत्ताधीशों को त्यागपूर्ण आचरण की शिक्षा देता है वहीं दूसरी ओर वह शोषित, पीड़ित, क्षुब्ध जनमानस को भी उसके शक्ति और सामर्थ्य का एहसास दिलाता है। शासकीय दमन के विरूद्ध वह क्रान्ति का शंखनाद है। वह सर्वहारा वर्ग के लिए अपने न्यायोचित अधिकार प्राप्त करने की मूर्तिमंत प्रेरणा है। वह राजशक्ति पर लोकशक्ति का विजयघोष है।


आज स्वतंत्र भारत में सैकड़ों-हजारों सहस्रबाहु देश के कोने-कोने में विविध स्तरों पर सक्रिय हैं। ये लोग कहीं साधु-संतों की हत्या करते हैं, अपमानित करते हैं या कहीं न कहीं न्याय का आडम्बर करते हुए भोली जनता को छल रहे हैं; कहीं उसका श्रम हड़पकर अबाध विलास में ही राजपद की सार्थकता मान रहे हैं, तो कहीं अपराधी माफिया गिरोह खुलेआम आतंक फैला रहे हैं। तब असुरक्षित जन-सामान्य की रक्षा के लिए आत्म-स्फुरित ऊर्जा से भरपूर व्यक्तियों के निर्माण की बहुत आवश्यकता है। इसकी आदर्श पूर्ति के निमित्त परशुरामजी जैसे प्रखर व्यक्तित्व विश्व इतिहास में विरले ही हैं।  इस प्रकार परशुरामजी का चरित्र शासक और शासित दोनों स्तरों पर प्रासंगिक है।


शस्त्र शक्ति का विरोध करते हुए अहिंसा का ढोल चाहे कितना ही क्यों न पीटा जाये, उसकी आवाज सदा ढोल के पोलेपन के समान खोखली और सारहीन ही सिद्ध हुई है। उसमें ठोस यथार्थ की सारगर्भिता कभी नहीं आ सकी। सत्य, हिंसा और अहिंसा के संतुलन बिंदु पर ही केन्द्रित है। कोरी अहिंसा और विवेकहीन पाशविक हिंसा- दोनों ही मानवता के लिए समान रूप से घातक हैं। आज जब हमारे साधु-संत और राष्ट्र की सीमाएं असुरक्षित हैं; कभी कारगिल, कभी कश्मीर, कभी बांग्लादेश तो कभी देश के अन्दर नक्सलवादी शक्तियों के कारण हमारी अस्मिता का चीरहरण हो रहा है, तब परशुरामजी जैसे वीर और विवेकशील व्यक्तित्व के नेतृत्व की आवश्यकता है।


गत शताब्दी में कोरी अहिंसा की उपासना करने वाले हमारे नेतृत्व के प्रभाव से हम जरुरत के समय सही कदम उठाने में हिचकते रहे हैं। यदि सही और सार्थक प्रयत्न किया जाये तो देश के अन्दर से ही प्रश्न खड़े होने लगते हैं। परिणाम यह है कि हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों और व्यवस्थापकों की धमनियों का लहू इतना सर्द हो गया है कि देश की जवानी को व्यर्थ में ही कटवाकर भी वे आत्मसंतोष और आत्मश्लाघा का ही अनुभव करते हैं। अपने नौनिहालों की कुर्बानी पर वे गर्व अनुभव करते हैं, उनकी वीरता के गीत तो गाते हैं किन्तु उनके हत्यारों से बदला लेने के लिए उनका खून नहीं खौलता। प्रतिशोध की ज्वाला अपनी चमक खो बैठी है। शौर्य के अंगार तथाकथित संयम की राख से ढंके हैं। शत्रु-शक्तियां सफलता के उन्माद में सहस्रबाहु की तरह उन्मादित हैं लेकिन परशुरामजी अनुशासन और संयम के बोझ तले मौन हैं।


राष्ट्रकवि दिनकर ने सन् 1962 ई. में चीनी आक्रमण के समय देश को ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ शीर्षक से ओजस्वी काव्यकृति देकर सही रास्ता चुनने की प्रेरणा दी थी। युग चारण ने अपने दायित्व का सही-सही निर्वाह किया। किन्तु राजसत्ता की कुटिल और अंधी स्वार्थपूर्ण लालसा ने हमारे तत्कालीन नेतृत्व के बहरे कानों तक उसकी पुकार ही नहीं आने दी। पांच दशक बीत गये। इस बीच एक ओर साहित्य में परशुराम के प्रतीकार्थ को लेकर समय पर प्रेरणाप्रद रचनाएं प्रकाश में आती रहीं और दूसरी ओर सहस्रबाहु की तरह विलासिता में डूबा हमारा नेतृत्व राष्ट्र-विरोधी षड़यंत्रों को देश के भीतर और बाहर दोनों ओर पनपने का अवसर देता रहा। परशुरामजी पर केन्द्रित साहित्यिक रचनाओं के संदेश को व्यावहारिक स्तर पर स्वीकार करके हम साधारण जनजीवन और राष्ट्रीय गौरव की रक्षा कर सकते हैं।


महापुरूष किसी एक देश, एक युग, एक जाति या एक धर्म के नहीं होते। वे तो सम्पूर्ण मानवता की, समस्त विश्व की, समूचे राष्ट्र की विभूति होते हैं। उन्हें किसी भी सीमा में बाँधना ठीक नहीं। दुर्भाग्य से हमारे यहां स्वतंत्रता में महापुरूषों को स्थान, धर्म और जाति की बेड़ियों में जकड़ा गया है। विशेष महापुरूष विशेष वर्ग के द्वारा ही सत्कृत हो रहे हैं। एक समाज विशेष ही विशिष्ट व्यक्तित्व की जयंती मनाता है। अन्य जन उसमें रूचि नहीं दर्शाते, अक्सर ऐसा ही देखा जा रहा है। यह स्थिति दुभाग्यपूर्ण है। महापुरूष चाहे किसी भी देश, जाति, वर्ग, धर्म आदि से संबंधित हो, वह बके लिए समान रूप से पूज्य है, अनुकरणीय है।


इस संदर्भ में भगवान परशुरामजी, जो उपर्युक्त विडंबनापूर्ण स्थिति के चलते केवल ब्राह्मण वर्ग तक सीमित हो गए हैं, समस्त शोषित वर्ग के लिए प्रेरणा स्रोत क्रान्तिदूत के रूप में स्वीकार किये जाने योग्य हैं और सभी शक्तिधरों के लिए संयम के अनुकरणीय आदर्श हैं ।


भा माने -अध्यात्म

रत माने - उसमें रत रहने वाले

"जिस देश के लोग अध्यात्म में रत रहते हैं उसका नाम है भारत।"


भारत की गरिमा सदा उसकी संस्कृति व साधु-संतों से ही रही है। भगवान भी बार-बार जिस धरा पर अवतरित होते आये हैं वो भूमि भारत की भूमि है। किसी भी देश को माँ कहकर संबोधित नहीं किया जाता पर भारत को "भारत माता" कहकर संबोधित किया जाता है क्योंकि यह देश आध्यात्मिक देश है, संतों महापुरुषों का देश है। भौतिकता के साथ-साथ यहाँ आध्यात्मिकता को भी उतना ही महत्व दिया गया है। पर आज के पाश्चात्य कल्चर की ओर बढ़ते कदम इसकी गरिमा को भूलते चले जा रहे हैं; संतों महापुरुषों का महत्व, उनके आध्यात्मिक स्पन्दन भूलते जा रहे हैं।


सत और समाज के बीच खाई खोदने में एक बड़ा वर्ग सक्रिय है। ईसाई मिशनरियां सक्रिय हैं, मीडिया सक्रिय है, विदेशी कम्पनियाँ सक्रिय हैं, विदेशी फण्ड से चलने वाले NGOs सक्रिय हैं, जिहादी सक्रिय हैं, कई राजनैतिक दल व नेता सक्रिय हैं; क्योंकि इनका उद्देश्य है- भारतीय संस्कृति को मिटाकर पश्चिमी सभ्यता लाने का जिससे विदेशी कंपनियों की प्रोडक्ट की बिक्री भारी मात्रा में होगी और धर्मान्तरण भी जोरों शोरों से होगा, फिर उनका वोटबैंक बढ़ जायेगा और देश को गुलामी की जंजीरों में जकड़ लेंगे।


इतने सब वर्ग जब एक साथ सक्रिय होंगे तो किसी के भी प्रति गलत धारणाएं समाज के मन में उत्पन्न करना बहुत ही आसान हो जाता है और यही हो रहा है हमारे संत समाज के साथ।


पिछले कुछ सालों से एक दौर ही चल पड़ा है हिन्दू संतों को लेकर। किसी संत की हत्या कर दी जाती है या किसी संत को झूठे केस में सालों जेल में रखा जाता है फिर विदेशी फण्ड से चलने वाली मीडिया उनको अच्छे से बदनाम करके उनकी छवि समाज के सामने इतनी धूमिल कर देती है कि समाज उन झूठे आरोपों के पीछे की सच्चाई तक पहुँचने का प्रयास ही नहीं करता।


अब समय है कि समाज को जागना होगा- भारतीय संस्कृति व साधु-संतों के साथ हो रहे अन्याय को समझने के लिए। अगर अब भी हिन्दू मौन दर्शक बनकर देखता रहा तो हिंदुओं का भविष्य खतरे में है।


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