Saturday, February 12, 2022

करांतिकारी सुखदेवजी के बारे में आपको ये बातें पता नहीं होंगी, जो जाननी जरूरी हैं

15 मई 2021

azaadbharat.org


हमारा भारतवर्ष पहले स्वतन्त्र एवं धन-धान्य से परिपूर्ण था, लेकिन भारत की यह सम्पन्नता विदेशी लोगों की नजर में खटकने लगी। हमारे भोलेपन का फायदा उठाकर अंग्रेजों ने हमारे देश पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों के अत्याचार ने इस सीमा को पार कर लिया था कि भारतवासी इस अत्याचार से मुक्ति पाने के लिए छटपटाने लगे। एक ओर महात्मा गांधी का अहिंसा आन्दोलन चल पड़ा और दूसरी ओर क्रान्तिकारियों ने क्रान्ति का बिगुल बजा दिया। ऐसे ही एक वीर क्रान्तिकारी थे सुखदेव।



उनका जन्म 15 मई, सन् 1907 में पंजाब प्रान्त के लायलपुर नामक स्थान में हुआ था (वर्तमान में लायलपुर पाकिस्तान में है)। उनकी माताजी अत्यन्त धार्मिक तथा भावुक प्रवृत्तिवाली महिला थीं और परिवार आर्यसमाजी था, जिसका अत्यधिक प्रभाव सुखदेवजी पर पड़ा। धार्मिक बातों में उनकी बहुत रुचि थी और अपनी मां से तो वीर रस की कहानियां भी सुना करते थे। इसका प्रभाव यह हुआ कि वे वीर और निडर बन गए एवं योद्धा बनकर देशसेवा में लग गए। उनका स्वभाव बड़ा ही शांत और कोमल था, इसलिए उनके सहपाठी और शिक्षक सदैव उनका आदर और उनसे प्यार करते थे। उनके स्वभाव में उदारता की भावना यथेष्ट थी। वे अपने सिद्धांतों में बड़े दृढ़ थे। जो बात दिल में समा जाती थी वह सारे संसार का विरोध करने पर भी छोड़ना नहीं चाहते थे। वे अपनी धुन के पक्के थे। सहपाठियों में जब किसी विषय को लेकर तर्क-वितर्क उपस्थित होता तो वो बड़ी दृढ़ता से अपना पक्ष रखते और अंत में उनकी अकाट्य युक्तियों के सामने प्रतिद्वंदी को मस्तक झुका देना पड़ता।  समाज के सत्संगों में वे बड़े उत्साह से भाग लिया करते थे, इसके अलावा हवन, योगाभ्यास और संध्या का भी शोक था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी लायलपुर में स्थित आर्य स्कूल से शुरू हुई, विद्यालय का नाम धनपतमल आर्य स्कूल था। यहां से शिक्षा ग्रहण करने के बाद उनको सनातन हाईस्कूल में भर्ती कर दिया गया था और सन् 1922 में उन्होंने प्रवेशिका की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में पास की। परिवार क्रान्तिकारी था। इनके चाचा अचिन्त राम क्रान्तिकारी गतिविधियों में संलग्न रहा करते थे। वे भी आन्दोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया करते थे।


सन् 1919 की एक घटना है- जब सुखदेव केवल बारह साल के थे, उनके चाचा अचिन्त राम सरकार विरोधी गतिविधि में गिरफ्तार कर लिए गए थे। उस समय सुखदेव थोड़ा-थोड़ा समझने लगे थे कि अंग्रेज उनके दुश्मन हैं, उनको हमारे इस देश पर शासन करने का कोई हक नहीं है। इन गोरों से हमारे देश को जितना जल्दी हो आजाद कराया जाए- यही हम सब भारतवासियों के लिए अच्छा होगा।


सन् 1920-21में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटना घटित हुई- उन दिनों बालक सुखदेव कक्षा नौ में पढ़ते थे। तभी ब्रिटिश सरकार की ओर से हुक्म आया कि शहर के सारे विद्यालयों के छात्र-छात्राएं एक जगह एकत्रित होकर ब्रिटिश झण्डे का अभिवादन करेंगे। बालक सुखदेव भला इस समारोह में कैसे शामिल होते! क्योंकि वे अंग्रेजों को अपना कट्टर दुश्मन समझते थे। इसलिए उस समारोह में जाने के बजाय सीधे घर आ गए। घर आकर जब उन्होंने यह घटना अपने चाचाजी को सुनाई तो चाचा अपने भतीजे की बात पर जरा भी नाराज नहीं हुए, बल्कि उनकी देशभक्ति तथा निडरता को देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हो उठे। देश में एक-के-बाद-एक ऐसी घटनाएं घटती जा रही थीं जिन्हें देखकर व सुनकर सुखदेव का मन देशभक्ति की तरफ बढ़ता ही जा रहा था।


सन् 1921 में गांधीजी ने भारत में असहयोग आन्दोलन शुरू कर दिया। इस आन्दोलन से सारे भारतवासियों में एक अद्भुत विचारधारा उत्पन्न हो गई। पूरे भारत में विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार होने लगा। जगह-जगह विदेशी वस्तुओं को जलाया जा रहा था। पंजाब में भी लोग जगह-जगह विदेशी वस्तुओं की होली जलाने लगे, एक अजीब-सा माहौल बन गया था। इस घटना ने सुखदेव के दिल पर एक ऐसी छाप छोड़ी जो कि उन्होंने विदेशी वस्त्रों तथा वस्तुओं का पूर्ण रूप से त्याग करने का निश्चय कर लिया। राष्ट्र-सेवा ही आपने अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बना लिया था तथा प्रण किया कि जब तक मैं जीवित रहूंगा, देश-सेवा करता रहूंगा।


कछ समय पश्चात् वे भगतसिंह के सम्पर्क में आये। भगतसिंह उनके विचारों से काफी प्रभावित हुए। दल में वह ऐसी ही नौजवानों को चाहते थे, जो अपनी चिन्ता किये बगैर मातृभूमि के लिए अपने प्राण त्यागने को सदा तैयार रहें। सन् 1926 में भगतसिंह तथा अन्य क्रान्तिकारियों ने मिलकर लाहौर में "नौजवान भारत सभा" की स्थापना की, इस सभा में क्रान्तिकारी सुखदेव भी शामिल थे। "नौजवान भारत सभा" क्रान्तिकारी आन्दोलन का एक खुला मंच था। इस सभा का काम लोगों को अपने उद्देश्य तथा विचारों के बारे में अवगत कराना था। इस सभा की स्थापना गुप्त संगठन के कार्य का क्षेत्र तैयार करना और लोगों में उग्र राष्ट्रीय भावना को


गाना था। भगतसिंह इस सभा के मुख्य सूत्रधार थे। सुखदेव भी इस सभा के प्रमुख एवं सक्रिय सदस्यों में से एक थे। लाहौर में कमीशन आ रहा था, क्रान्तिकारियों को इसकी सूचना पहले ही मिल गई थी। उन्हें जोरदार प्रदर्शन करके अपना विरोध प्रकट करना था। सुखदेव, भगतसिंह तथा अन्य पांच-छह क्रान्तिकारियों ने मिलकर एक योजना बनायी। एक क्रान्तिकारी के घर प्रदर्शन के लिए काले झण्डे तैयार किए जा रहे थे। किसी तरह से पुलिस को इसकी सूचना मिल गई। वे इस प्रदर्शन को विफल करना चाहते थे, उन्होंने देशभक्तों को गिरफ्तार करने के लिये विभिन्न स्थानों पर छापे मारे। पुलिस की आंखों में धूल झोंककर सभी क्रान्तिकारी वहां से भाग खड़े हुए। किसी कारणवश सुखदेव वहां से भाग नहीं सके, वह वहीं पकड़े गए। पुलिस वाले बहुत अधिक खुश हुए और आपस में कह रहे थे- "चलो एक तो मिला! इसीसे ही सारे लोगों के बारे में पता चल जाएगा।"

लेकिन वाह रे सुखदेव! पुलिस की कितनी मार खाई। यातनाएं सहीं, मगर दल के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा। इस प्रकार के क्रान्तिकारी को नमन। उन्होंने निडर होकर पुलिसवालों को करारा जवाब दिया-" मैं मर जाऊंगा लेकिन तुम्हें कभी भी अपने साथियों के बारे में नहीं बताऊंगा।"


एक बार की बात है- लाहौर की बोस्टल जेल में भूख हड़ताल को तोड़ने के लिए क्रान्तिकारियों की पिटाई हो रही थी, अंग्रेज पिटाई करके भूख हड़ताल को तोड़ना चाहते थे। डॉक्टर क्रान्तिकारियों को जबरदस्ती दूध पिलाना चाहता था, इसके लिए जेल अधिकारियों की सहायता ली गई। जेल का बड़ा दरोगा खान बहादुर खैरदीन बारह-पन्द्रह तगड़े सिपाही के साथ एक-एक करके कैदी क्रान्तिकारियों को कोठरियों से अस्पताल तक पहुंचाने में व्यस्त था। दरोगा ने सुखदेव की कोठरी खुलवाई। कोठरी का दरवाजा खुलते ही सुखदेव तीर की तरह भाग निकले। दस रोज के अनशन के बाद भी उन्होंने ऐसी दौड़ लगाई कि जेल के अधिकारी परेशान हो गए। दस दिन का भूखा आदमी भी इस कदर फुर्ती से दौड़ सकता है, इस बात की उन्हें ज़रा भी उम्मीद नहीं थी। बड़ी मुश्किल से जब सुखदेव काबू में आया तो उसने मारपीट शुरू कर दी। किसी को मारा, किसी को काट खाया। अपने आदमियों को एक भूखे आदमी से पिटते देख दरोगा को गुस्सा आ गया। डॉक्टर के पास ले जाने से पहले उसने सुखदेव की खूब मरम्मत करवा दी, परन्तु वह बेझिझक मार खाते गए और दरोगा की ओर उपेक्षा के भाव से मुस्कुराते रहे। उनकी इस शरारतभरी मुस्कुराहट से दरोगा अत्यधिक क्रोधित हो उठा। जब सिपाही और दरोगा उसे टांगकर अस्पताल ले जा रहे थे तो उसने टांगें फटकारनी शुरू कर दीं। दरोगा पास आकर हिदायत देने लगा। सुखदेव ने दरोगा के सीने पर ऐसी लात मारी कि वह बेचारा धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा। दरोगा चाहता तो सुखदेव की अच्छी मरम्मत करवा सकता था, परन्तु वह अपनी झेंप मिटाने के लिए वहां से चला गया।


सखदेव हठी स्वभाव के थे, अगर उनपर कोई बात सवार हो गई तो मजाल है जो कोई उनके फैसले को डिगा दे। उनके बाएं हाथ पर "ॐ" शब्द गुदा हुआ था। फरारी की हालत में पहचान के लिए यह बहुत बड़ी निशानी थी। आगरे में बम बनाने के लिए नाइट्रिक एसिड खरीदकर रखा गया था। "ॐ" शब्द मिटाना जरूरी था, जिससे पकड़े जाने पर पहचान न हो सके। इस "ॐ" शब्द को मिटाने के लिए उन्होंने गुदे हुए स्थान पर बहुत-सा नाइट्रिक एसिड डाल दिया। शाम तक जहां-जहां एसिड लगा था, गहरे घाव हो गए। पूरा हाथ सूज गया और बुखार भी चढ़ आया। साथियों से पूछने पर उसने एक शब्द भी नहीं कहा और न ही तकलीफ के कारण हंसी-ठिठोली में कमी आने दी।

एक दिन शाम को वह दुर्गा भाभी के घर पहुंचा। भगवती भाई उस समय कहीं बाहर गए हुए थे। भाभी रसोईघर में खाना बना रही थीं। सुखदेव चुपचाप भगवती भाई के कमरे में जाकर बैठ गया। इस प्रकार सुखदेव को काफी देर खामोश देखकर भाभी को उत्सुकता होने लगी कि वह अकेला कमरे में क्या कर रहा है? जाकर देखा तो दंग रह गयीं।

सुखदेव ने मेज पर मोमबत्ती जला रखी थी और उसकी लौ पर हाथ किये बैठा था। जिस स्थान पर उसका नाम लिखा था, वहां की खाल जल चुकी थी। वह अधूरा काम छोड़ना नहीं चाहते थे। इस दृश्य को देखकर भाभी के रोंगटे खड़े हो गए। इस स्वभाव के थे वीर सुखदेव।


नौजवानों की क्रान्तिकारी टोलियों ने फिर से हथियार उठा लिए थे, किसी भी तरह देश को आजाद कराना था। सुखदेव का काम भी बड़ी तत्परता से चल रहा था। दल की केन्द्रीय समिति की बैठक हुई- जिसमें यह निश्चय किया गया कि दिल्ली के असेम्बली भवन में बम फेंका जाए। इस कार्य को भगतसिंह करना चाहता था लेकिन दल के अन्य सदस्यों ने उसकी बात नहीं मानी। सैण्डर्स की हत्या के सिलसिले में पंजाब पुलिस भगतसिंह के पीछे पड़ी थी। भगतसिंह के पकड़े जाने का अर्थ था- उनकी फांसी, जो दल के लोग नहीं चाहते थे। उनका इरादा किसी दूसरे व्यक्ति को भेजने का था- और यही निश्चय किया गया कि भगतसिंह के स्थान पर अन्य किसी को भेजा जाएगा, जो इस काम को कुशलतापूर्वक सम्पन्न कर सके। सौभाग्य सुखदेव इस सभा में नहीं थे। बम फेंकने के लिए समिति की आज्ञा की जरूरत थी। भगतसिंह ने आग्रह करके समिति की बैठक बुलाई। सुखदेव को भी इस बैठक में बुलाया गया। भगतसिंह बम फेंकने के लिए अड़ गया। विवश होकर समिति को उसकी बात माननी पड़ी। सुखदेव अपने मित्र को खोना नहीं चाहते थे इस कारण उन्होंने भगतसिंह से बहस भी की लेकिन भगतसिंह के जिद्द के कारण उदास होकर उसी शाम किसी से कुछ कहे बिना सुखदेव लाहौर पहुंच गये। सड़क से जुलूस जब गुजर रहा था तो पुलिस के इशारे पर उसके किसी आदमी ने उस जुलूस में बम फेंक दिया। शहर में दंगा भड़क उठा। पुलिस इस दंगे को दबा नहीं पाई तथा अपनी इस करतूत पर वह खिसिया गयी थी। क्रान्तिकारियों को इस दंगे से जोड़कर वह अपना मतलब हल करना चाहती थी। पुलिसवालों ने सबसे पहले भगतसिंह को पकड़ा लेकिन वह जमानत पर छूट गए। इसके बाद वहां से सुखदेव को गिरफ्तार किया गया, साथ में उसके कई अन्य साथी थे।


भगतसिंह, सुखदेव और विजय कुमार सिन्हा ने तीन सदस्यों की कमेटी बनाई थी जिसका काम हर क्षेत्र में अंग्रेज अफसरों का विरोध करना था। उनका हमेशा से एक ही नारा था- 'क्रान्ति अमर रहे', 'वन्देमातरम्', 'इन्कलाब जिन्दाबाद'!


करान्तिकारियों को अंग्रेज अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे। दुश्मनों को खत्म करने के लिए उन्होंने चुन-चुनकर उनको फांसी देना शुरू कर दिया था। वे समझते थे कि इस तरह उनके मनोबल को गिरा देंगे- लेकिन यह उनकी सबसे बड़ी भूल थी। लाहौर कारागर में सुखदेव, भगतसिंह व राजगुरु तीनों ही कैद थे। उनके मुकदमे की सुनवाई अदालत में चल रही थी। अंग्रेजों का ध्येय समाप्त हो चुका था। उन्होंने मुकदमे की सुनवाई भी पूरी नहीं होने दी। सरकार को भय था कि अगर निष्पक्ष फैसला हुआ तो उसकी हार हो सकती है, और क्रांतिकारी भी छूट जाएंगे, यह सब कैसे सम्भव था! 7 अक्टूबर, सन् 1930 में सरकार ने सुखदेव, भगतसिंह तथा राजगुरु को फांसी की सजा सुना दी। सरकार इस फैसले को छिपाकर न रख सकी। लोगों को अंग्रेजों की जल्दबाजी में किये गए फैसले के बारे में पता हो चुका था। यह फैसला सुनकर चारों ओर क्रान्ति आ गई। अगले दिन 8 अक्टूबर को उत्तर भारत के प्रत्येक स्थान पर हड़ताल हो गई। पूरा वातावरण 'भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव जिन्दाबाद' के नारों से गूंजने लगा।


फांसी पर चढ़ने से पहले उन तीनों के होठों पर मुस्कान थिरक रही थी, उन्हें अपनी मौत का जरा-सा भी भय नहीं था। 23 मार्च, सन् 1931 की शाम को लाहौर की केन्द्रीय जेल में तीनों क्रान्तिकारियों- भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी पर लटका दिया गया।


भारत के इतिहास में इन तीनों क्रान्तिकारियों का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया। इस बात में कोई सन्देह नहीं कि आर्यावर्त के वीर पुत्र सुखदेव एक सच्चे देशभक्त थे, उन्होंने देश पर हंसते-हंसते अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। हम सभी को उनपर गर्व होना चाहिए तथा उनके जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए कि जब-जब हमारे देश पर कोई संकट आएगा, तब-तब हम सभी एक मजबूत दीवार बनकर उस संकट का सामना करेंगे। - प्रियांशु सेठ


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