22 मई 2021
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राजा राममोहन राय अपने काल के प्रसिद्ध समाज सुधारकों में से थे। वे हिन्दू समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और कुरीतियों के विरोध में आवाज़ उठाते थे। वे अंग्रेजी शिक्षा और अंग्रेजी भाषा के बड़े समर्थक भी थे। इसलिए अंग्रेज उन्हें अपना आदमी समझते थे। सती प्रथा पर प्रतिबन्ध के लिए भी अंग्रेजों ने उन्हें सहयोग दिया था। राममोहन राय ने ग्रीक और हिब्रू भाषा का विस्तृत अध्ययन कर ईसाई मत के इतिहास और मान्यताओं का गहरा अध्ययन भी किया था।
उसी काल में ईसाईयों ने बंगाल के ईसाईकरण की योजना बनाई। यूरोप और अमेरिका से ईसाई मिशनरियों के जत्थे के जत्थे भर-भर कर बंगाल आने लगे। ईसाइयत के प्रचार के लिए ईसाईयों ने ऐसे-ऐसे तरीके अपनाये जो कोई मतान्ध व्यक्ति ही अपना सकता है। ईसाई पादरियों ने बड़ी संख्या में ऐसे साहित्य को प्रकाशित किया जिनमें हिन्दू देवी-देवताओं के विषय में भद्दी-भद्दी टिप्पणियों की भरमार थी और ईसाइयत की भर-भर कर प्रशंसा थी। इस साहित्य को ईसाई पादरी गली-मोहल्लों, हिन्दू मंदिरों-मठों, चौराहों पर खड़े होकर जोर-जोर से पढ़ते। अत्यंत गरीब और पिछड़े हुए हिन्दू, ईसाइयों के विशेष निशाने पर होते थे। अंग्रेजी राज होने के कारण हिन्दू समाज केवल रोष प्रकट करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पाता था।
राजा राममोहन राय पादरियों की इस करतूत से अत्यंत क्षुब्ध हुए। उन्होंने ईसाइयों की ऐसी कुटिल नीतियों का अपनी कलम से विरोध करना आरम्भ कर दिया। जो अंग्रेज उनके कभी प्रगाढ़ साथी थे वे उनके मुखर विरोधी हो गए। राजाजी ने अनेक पुस्तकें ईसाइयत के विरोध में प्रकाशित की थीं। उन्होंने बांग्ला और अंग्रेजी भाषा में द ब्राह्मणीकल मैगज़ीन (The Brahmanical Magazine) के नाम से पत्रिका भी प्रकाशित करनी आरम्भ की थी। इस पत्रिका के पहले अंक में ही उन्होंने ईसाई मिशनरियों के हिन्दुओं और मुसलमानों को ईसाई बनाने के तौर-तरीकों का पर्दाफाश किया था। राजाजी लिखते हैं कि अगर ईसाई मिशनरी में दम हो तो जिन देशों में अंग्रेजों का राज्य नहीं है, जैसे- इस्लामिक तुर्की आदि, वहां इसी विधि से अपना प्रचार करके दिखाए। अंग्रेजी राज में ऐसा करना बड़ा सरल है। एक ताकतवर सत्ता का एक कमजोर प्रजा पर ऐसी गुंडागर्दी करना कौन सा बड़ा कार्य है?
राजाजी ने ईसाइयों के विभिन्न मतों में विभाजित होने और एक-दूसरे का घोर विरोधी होने का विषय भी उठाया। उन्होंने लिखा कि ईसाइयों में ही यूनिटेरियन (Unitarian) और फ्रीथिंकर (Free Thinker) जैसे अनेक समूह हैं जो ट्रिनिटी के सिद्धांत को बाइबिल सिद्धांत ही नहीं मानते जैसा बाकि ईसाई समाज मानता है। रोमन कैथोलिक, प्रोटोस्टेंट, यूनिटेरियन आदि एक दूसरे को कुफ्र और अपना विरोधी बताते हैं। यह कहां की ईसाइयत है?
राजाजी ने ईसाइयों के ट्रिनिटी सिद्धांत (Theory of Trinity) पर भी कटाक्ष किया। इस सिद्धांत के अनुसार एक ईश्वर, एक ईश्वर का दूत और एक पवित्र आत्मा- ये तीन भिन्न-भिन्न सत्ता हैं। जो एक भी है और अलग भी हैं। राजाजी का कहना था कि यह कैसे संभव है कि एक ईश्वर अपना ही सन्देश देने के लिए अपना ही दूत बन जायेगा? अपना ही नौकर बनकर सूली पर चढ़ जायेगा? राजाजी ने इस विषय से सम्बंधित एक व्यंग भी प्रकाशित था। इस व्यंग के अनुसार एक यूरोपियन मिशनरी अपने तीन चीनी शिष्यों से पूछता है कि बाइबिल के अनुसार ईश्वर एक है अथवा अनेक। पहला शिष्य कहता है ईश्वर तीन हैं। दूसरा कहता है कि ईश्वर दो हैं और तीसरा कहता है कि कोई ईश्वर नहीं है। ईसाई मिशनरी उनसे इस उत्तर को समझाने का आग्रह करता है। पहला शिष्य कहता है कि एक ईश्वर, एक ईश्वर का दूत और एक पवित्र आत्मा के आधार पर ईश्वर तीन हुए। दूसरा कहता है कि ईश्वर का दूत अर्थात ईसा मसीह तो सूली पर चढ़ाकर मार दिया गया। इसलिए तीन में से दो रह गए। तीसरा शिष्य कहता है कि ईसाइयों का एक ईश्वर ईसा मसीह था जिसे 1800 वर्ष पहले सूली पर चढ़ाकर मार दिया गया। इसलिए ईसाइयों का अब कोई ईश्वर नहीं है। प्रश्न पूछने वाला ईसाई मिशनरी हक्का बक्का रह गया।
राजाजी ईसाइयों के पाप क्षमा होने के सिद्धांत के भी बड़े आलोचक थे। उनका कहना था कि यह कैसे संभव है कि करोड़ों लोगों द्वारा किया गया पाप अकेले ईसा मसीह भुगत सकता है? पाप करे कोई अन्य और भुगते कोई अन्य। ईसा मसीह ने जब कोई पापकर्म ही नहीं किया तो वह क्यों अन्यों का पाप कर्म भुगते? क्या यह किसी निरपराध को भयंकर सजा देना और पापी को अपराध मुक्त करने के समान नहीं है? पापियों को पाप का दंड न मिलना और किसी अन्य को उसके पापों की सजा मिलना अव्यावहारिक एवं असंभव है। इस खिचड़ी से अच्छा तो हिन्दुओं का कर्मफल का सिद्धांत है कि जो जैसा करेगा वैसा भरेगा।
राजाजी ने बाइबिल में वर्णित चमत्कार की कहानियों की भी समीक्षा लिखी। बाइबिल में वर्णित चमत्कार की को गपोड़े सिद्ध करते हुए राजाजी लिखते हैं कि जिन काल्पनिक कहानियों से ईसाई मिशनरी हिन्दुओं को प्रभावित करना चाहते हैं, उन कहानियों से कहीं अधिक विश्वसनीय एवं प्रभाववाली कहानियां तो ऋषि अगस्त्य, ऋषि वशिष्ठ , ऋषि गौतम से लेकर श्री राम, श्री कृष्ण और नरसिंह अवतार के विषय में मिलती हैं। आखिर ईसाई मिशनरी ऐसा क्या प्रस्तुत करना चाहते हैं जो हमारे पास पहले से ही नहीं हैं?
राजाजी का वर्षों तक ईसाई पादरियों से संवाद चला। उनके प्रयासों से बंगाल के सैकड़ों कुलीन परिवारों से लेकर निर्धन परिवारों के हिन्दू ईसाई बनने से बच गए। राजाजी की इंग्लैंड में असमय मृत्यु से उनका मिशन अधूरा रह गया। ब्रह्मसमाज के बाद के केशवचन्द्र सेन जैसे नेता ईसाइयत, अंग्रेजियत और आधुनिकता के प्रभाव में आकर हमारी ही संस्कृति के विरोधी बन गए। मगर राजाजी अपनी विद्वता और ज्ञान का सारा श्रेय अपने प्राचीन धर्मग्रंथों जैसे दर्शन-उपनिषद् आदि को ही आजीवन देते रहे।
इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों में राजाजी को केवल सती-प्रथा के विरोध में आंदोलन चलानेवाले के रूप में प्रस्तुत किया जाता हैं। मगर उनका हिन्दू समाज की ईसाइयत से रक्षा करनेवाले बुद्धिजीवी के रूप में योगदान को साम्यवादी इतिहासकारों ने जानबूझकर भुला दिया। राजाजी के योगदान को हम सदा स्मरण कर उनसे प्रेरणा लेते रहेंगे।
आज भी ईसाई मिशनरिज पुरजोश से हिंदुस्तान में धर्मांतरण का धंधा चला रहे हैं; उनके आगे जो आ रहे हैं उनकी हत्या करवा दी जाती है अथवा आजीवन कारावास करवा दिया जाता है जैसे कि ओडिशा के स्वामी लक्ष्मणानंदजी की हत्या करवा दी और दारा सिंह व आशाराम बापू को आजीवन कारावास करवा दिया। इसलिए देशवासी सावधान रहें औऱ ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण की आड़ में वोटबैंक बढ़ाकर देश की सत्ता हासिल करने के षडयंत्र को रोकें।
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