19 अप्रैल 2021
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रामायण को लाखों वर्ष हो गये लेकिन जनता के हृदयपटल से विलुप्त नहीं हुई, क्योंकि ‘रामायण’ में वर्णित आदर्श चरित्र विश्वसाहित्य में मिलना दुर्लभ है ।
भगवान श्री राम को 14 वर्ष का वनवास हुआ तो भगवान श्री राम की धर्मपत्नी माँ सीता ने भी सहर्ष वनवास स्वीकार कर लिया। परन्तु बचपन से ही बड़े भाई की सेवा मे रहने वाले लक्ष्मणजी कैसे रामजी से दूर हो जाते? माता सुमित्रा से तो उन्होंने आज्ञा ले ली थी, वन जाने की... परन्तु जब पत्नी उर्मिला के कक्ष की ओर बढ़ रहे थे तो सोच रहे थे कि माँ ने तो आज्ञा दे दी, परन्तु अपनी धर्म पत्नी उर्मिला को कैसे समझाऊंगा? क्या कहूंगा?
यही सोच विचार करके लक्ष्मणजी जैसे ही अपने कक्ष में पहुंचे तो देखा कि उर्मिलाजी आरती का थाल लेकर खड़ी थीं और बोलीं- "आप मेरी चिंता छोड़िये, प्रभु श्री राम की सेवा में वन को जाइए। मैं आपको नहीं रोकूँगी। मेरे कारण आपकी सेवा में कोई बाधा न आये, इसलिये साथ जाने की जिद्द भी नहीं करूंगी।"
लक्ष्मणजी को कहने में संकोच हो रहा था। परन्तु उनके कुछ कहने से पहले ही उर्मिलाजी ने उन्हें संकोच से बाहर निकाल दिया। वास्तव में यही पत्नी का धर्म है। पति संकोच में पड़े, उससे पहले ही धर्मपत्नी उसके मन की बात जानकर उसे संकोच से बाहर कर दे!!
लक्ष्मणजी चले गये, परन्तु 14 वर्ष तक उर्मिलाजी ने एक तपस्विनी की भांति कठोर तप किया। वन में भैया-भाभी की सेवा में लक्ष्मणजी कभी सोये नहीं, परन्तु उर्मिलाजी ने भी अपने महलों के द्वार कभी बंद नहीं किये और सारी रात जाग-जागकर उस दीपक की लौ को बुझने नहीं दिया।
मघनाथ से युद्ध करते हुए जब लक्ष्मणजी को शक्ति लग जाती है और श्री हनुमानजी उनके लिये संजीवनी का पहाड़ लेके लौट रहे होते हैं, तो बीच में अयोध्या में भरतजी उन्हें राक्षस समझकर बाण मारते हैं और हनुमानजी गिर जाते हैं। तब हनुमानजी सारा वृत्तांत सुनाते हैं कि माता सीताजी को रावण ले गया, लक्ष्मण जी मूर्छित हैं।
यह सुनते ही कौशल्याजी कहती हैं कि श्री राम को कहना कि लक्ष्मण के बिना अयोध्या में पैर भी मत रखना। राम वन में ही रहे। माता सुमित्रा कहती हैं कि राम से कहना कि कोई बात नहीं। अभी शत्रुघ्न है। मैं उसे भेज दूंगी। मेरे दोनों पुत्र राम सेवा के लिये ही तो जन्मे हैं। माताओं का प्रेम देखकर श्री हनुमानजी की आँखों से अश्रुधारा बह रही थी। परन्तु जब उन्होंने उर्मिलाजी को देखा तो सोचने लगे कि यह क्यों एकदम शांत और प्रसन्न खड़ी हैं? क्या इन्हें अपनी पति के प्राणों की कोई चिंता नहीं??
हनुमानजी पूछते हैं- हे देवी, आपकी प्रसन्नता का कारण क्या है? आपके पति के प्राण संकट में हैं। सूर्य उदित होते ही सूर्य कुल का दीपक बुझ जायेगा। उर्मिलाजी का उत्तर सुनकर तीनों लोकों का कोई भी प्राणी उनकी वंदना किये बिना नहीं रह पाएगा।
उर्मिला बोलीं- "मेरा दीपक संकट में नहीं है, वो बुझ ही नहीं सकता। रही सूर्योदय की बात तो आप चाहें तो कुछ दिन अयोध्या में विश्राम कर लीजिये, क्योंकि आपके वहां पहुंचे बिना सूर्य उदित हो ही नहीं सकता। आपने कहा कि प्रभु श्रीराम मेरे पति को अपनी गोद में लेकर बैठे हैं। जो योगेश्वर राम की गोदी में लेटा हो, काल उसे छू भी नहीं सकता। यह तो वो दोनों लीला कर रहे हैं। मेरे पति जब से वन गये हैं, तब से सोये नहीं हैं। उन्होंने न सोने का प्रण लिया था। इसलिए वे थोड़ी देर विश्राम कर रहे हैं। और जब भगवान् की गोद मिल गयी तो थोड़ा विश्राम ज्यादा हो गया। वे उठ जायेंगे। और शक्ति मेरे पति को लगी ही नहीं, शक्ति तो रामजी को लगी है। मेरे पतिदेव की हर श्वास में राम हैं, हर धड़कन में राम, उनके रोम-रोम में राम हैं, उनके खून की बूंद-बूंद में राम हैं, और जब उनके शरीर और आत्मा में सिर्फ राम ही हैं, तो शक्ति रामजी को ही लगी, दर्द रामजी को ही हो रहा है। इसलिये हनुमानजी आप निश्चिन्त होके जाएँ। सूर्य उदित नहीं होगा।"
रामायण का दूसरा प्रसंग
भरतजी नंदिग्राम में रहते हैं, शत्रुघ्नजी उनके आदेश से राज्य संचालन करते हैं।
एक रात की बात है, माता कौशिल्याजी को सोते में अपने महल की छत पर किसी के चलने की आहट सुनाई दी। नींद खुल गई । पूछा कौन है?
मालूम पड़ा श्रुतिकीर्ति जी हैं। नीचे बुलाया गया ।
श्रुतिकीर्तिजी, जो सबसे छोटी हैं, आकर चरणों में प्रणाम कर खड़ी हो गईं।
माता कौशिल्याजी ने पूछा, श्रुति ! इतनी रात को अकेली छत पर क्या कर रही हो बिटिया? क्या नींद नहीं आ रही?
शत्रुघ्न कहाँ है?
श्रुतिकीर्ति की आँखें भर आईं, माँ की छाती से चिपटी, गोद में सिमट गईं; बोलीं, माँ उन्हें तो देखे हुए तेरह वर्ष हो गए ।
उफ ! कौशल्या जी का हृदय काँप गया।
तुरंत आवाज लगी, सेवक दौड़े आए। आधी रात ही पालकी तैयार हुई, आज शत्रुघ्नजी की खोज होगी, माँ चली ।
आपको मालूम है, शत्रुघ्नजी जी कहाँ मिले ?
अयोध्याजी के जिस दरवाजे के बाहर भरतजी नंदिग्राम में तपस्वी होकर रहते हैं, उसी दरवाजे के भीतर एक पत्थर की शिला हैं, उसी शिला पर, अपनी बाँह का तकिया बनाकर लेटे मिले ।
माँ सिराहने बैठ गईं, बालों में हाथ फिराया तो शत्रुघ्न जी ने आँखें खोलीं, माँ ! उठे, चरणों में गिरे। माँ ! आपने क्यों कष्ट किया? मुझे बुलवा लिया होता।
माँ ने कहा, शत्रुघ्न ! यहाँ क्यों ?
शत्रुघ्नजी की रुलाई फूट पड़ी, बोले- माँ ! भैया श्री रामजी पिताजी की आज्ञा से वन चले गए, भैया लक्ष्मणजी उनके पीछे चले गए, भैया भरतजी भी नंदिग्राम में हैं, क्या ये महल, ये रथ, ये राजसी वस्त्र, विधाता ने मेरे ही लिए बनाए हैं?
माता कौशल्या जी निरुत्तर रह गईं ।
दखो यह रामकथा है...।
यह भोग की नहीं त्याग की कथा है, यहाँ त्याग की प्रतियोगिता चल रही है और सभी प्रथम हैं, कोई पीछे नहीं रहा!
चारों भाइयों का प्रेम और त्याग एक-दूसरे के प्रति अद्भुत, अभिनव और अलौकिक है।
रामायण जीवन जीने की सबसे उत्तम शिक्षा देती है।
भगवान श्रीराम के वनवास का मुख्य कारण मंथरा के लिए भी श्रीराम के हृदय में विशाल प्रेम है। रामायण का कोई भी पात्र तुच्छ नहीं है, हेय नहीं है। श्रीराम की दृष्टि में तो रीछ और बंदर भी तुच्छ नहीं हैं। जामवंत, हनुमान, सुग्रीव, अंगदादि सेवक भी उन्हें उतने ही प्रिय हैं जितने भरत, शत्रुघ्न, लखन और माँ सीता। माँ कौशल्या, कैकयी एवं सुमित्रा जितनी प्रिय हैं, उतनी ही शबरी श्रीराम को प्यारी लगती हैं।
राम राज्य इन सबके प्रेम, त्याग, समर्पण , बलिदान से ही आया। हमें भी अपने परिवार के साथ रामायण पढ़कर, देखकर घर से रामराज्य की शुरूआत करनी चाहिए।
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