18 अप्रैल 2021
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यति स्वामी नरसिंहानंदजी के विरुद्ध मौलवी-मौलाना फतवे जारी कर रहे हैं। कोई उनका सर कलम करने की मांग करता है, कोई सर कलम करनेवाले को लाखों देने की इच्छा प्रकट करता है। आज से ठीक 100 वर्ष पहले भी ऐसे ही फतवे स्वामी श्रद्धानन्द के विरुद्ध दिल्ली से लेकर लाहौर की मस्जिदों से दिए गये थे। कारण था- स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा चलाया गया हिन्दू संगठन और शुद्धि आंदोलन।
आधुनिक भारत में "शुद्धि" के सर्वप्रथम प्रचारक स्वामी दयानंद थे तो उसे आंदोलन के रूप में स्थापित कर सम्पूर्ण हिन्दू समाज को संगठित करने वाले स्वामी श्रद्धानन्द थे। सबसे पहली शुद्धि स्वामी दयानंद ने अपने देहरादून प्रवास के समय एक मुसलमान युवक की की थी जिसका नाम अलखधारी रखा गया था। स्वामीजी के निधन के पश्चात पंजाब में विशेष रूप से मेघ, ओड और रहतिये जैसी निम्न और पिछड़ी समझी जानेवाली जातियों का शुद्धिकरण किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य उनकी पतित, तुच्छ और निकृष्ट अवस्था में सामाजिक एवं धार्मिक सुधार करना था।
आर्यसमाज द्वारा चलाये गए शुद्धि आंदोलन का व्यापक स्तर पर विरोध हुआ क्योंकि हिन्दू जाति सदियों से कूपमण्डूक मानसिकता के चलते सोते रहना अधिक पसंद करती थी। आगरा और मथुरा के समीप मलकाने राजपूतों का निवास था जिनके पूर्वजों ने एकाध शताब्दी पहले ही इस्लाम की दीक्षा ली थी। मलकानों के रीति-रिवाज़ अधिकतर हिन्दू थे और चौहान, राठौड़ आदि गोत्र के नाम से जाने जाते थे। 1922 में क्षत्रिय सभा मलकानों को राजपूत बनाने का आवाहन कर सो गई मगर मुसलमानों में इससे पर्याप्त चेतना हुई एवं उनके प्रचारक गांव-गांव घूमने लगे। यह निष्क्रियता स्वामी श्रद्धानन्द की आँखों से छिपी नहीं रही। 11 फरवरी 1923 को भारतीय शुद्धि सभा की स्थापना करते समय स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा शुद्धि आंदोलन आरम्भ किया गया। स्वामीजी द्वारा इस अवसर पर कहा गया कि जिस धार्मिक अधिकार से मुसलमानों को तब्लीग़ और तंज़ीम का हक है उसी अधिकार से उन्हें अपने बिछुड़े भाइयों को वापिस अपने घरों में लौटाने का हक है। आर्यसमाज ने 1923 के अंत तक 30 हजार मलकानों को शुद्ध कर दिया।
मसलमानों में इस आंदोलन के विरुद्ध प्रचंड प्रतिकिया हुई। जमायत-उल-उलेमा ने बम्बई में 18 मार्च, 1923 को मीटिंग कर स्वामी श्रद्धानन्द एवं शुद्धि आंदोलन की आलोचना कर निंदा प्रस्ताव पारित किया। स्वामीजी की जान को खतरा बताया गया मगर उन्होंने "परमपिता ही मेरे रक्षक हैं, मुझे किसी अन्य रखवाले की जरुरत नहीं है" कहकर निर्भीक सन्यासी होने का प्रमाण दिया। कांग्रेस के श्री राजगोपालाचारी, मोतीलाल नेहरू एवं पंडित जवाहरलाल नेहरू ने धर्मपरिवर्तन को व्यक्ति का मौलिक अधिकार मानते हुए तथा शुद्धि के औचित्य पर प्रश्न करते हुए तत्कालीन राष्ट्रीय आंदोलन के सन्दर्भ में उसे असामयिक बताया। शुद्धि सभा गठित करने एवं हिन्दुओं को संगठित करने पर स्वामीजी का ध्यान 1912 में उनके कलकत्ता प्रवास के समय आकर्षित हुआ था जब कर्नल यू. मुखर्जी ने 1911 की जनगणना के आधार पर यह सिद्ध किया कि अगले 420 वर्षों में हिन्दुओं की अगर इसी प्रकार से जनसँख्या कम होती गई तो उनका अस्तित्व मिट जायेगा। इस समस्या से निपटने के लिए हिन्दुओं का संगठित होना आवश्यक था और संगठित होने के लिए स्वामीजी का मानना था कि हिन्दू समाज को अपनी दुर्बलताओं को दूर करना चाहिए। सामाजिक विषमता, जातिवाद, दलितों से घृणा, नारी उत्पीड़न आदि से जब तक हिन्दू समाज मुक्ति नहीं पा लेगा तब तक हिन्दू समाज संगठित नहीं हो सकता।
इस बीच हिन्दू और मुसलमानों के मध्य खाई बराबर बढ़ती गई। 1920 के दशक में भारत में भयंकर हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। केरल के मोपला, पंजाब के मुल्तान, कोहाट, अमृतसर, सहारनपुर आदि दंगों ने अंतर को और बढ़ा दिया। इस समस्या पर विचार करने के लिए 1923 में दिल्ली में कांग्रेस ने एक बैठक का आयोजन किया जिसकी अध्यक्षता स्वामीजी को करनी पड़ी। मुसलमान नेताओं ने इस वैमनस्य का कारण स्वामीजी द्वारा चलाये गए शुद्धि आंदोलन और हिन्दू संगठन को बताया। स्वामीजी ने सांप्रदायिक समस्या का गंभीर और तथ्यात्मक विश्लेषण करते हुए दंगों का कारण मुसलमानों की संकीर्ण सांप्रदायिक सोच को बताया। इसके पश्चात भी स्वामीजी ने कहा कि मैं आगरा से शुद्धि प्रचारकों को हटाने को तैयार हूँ अगर मुस्लिम उलेमा अपने तब्लीग के मौलवियों को हटा दें। परन्तु मुस्लिम उलेमा नहीं माने।
इसी बीच स्वामीजी को ख्वाजा हसन निज़ामी द्वारा लिखी पुस्तक 'दाइए-इस्लाम' पढ़कर हैरानी हुई। इस पुस्तक को चोरी छिपे केवल मुसलमानों में उपलब्ध करवाया गया था। स्वामीजी के एक शिष्य ने अफ्रीका से इसकी प्रति स्वामीजी को भेजी थी। इस पुस्तक में मुसलमानों को हर अच्छे-बुरे तरीके से हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की अपील निकाली गई थी। हिन्दुओं
घर-मुहल्लों में जाकर औरतों को चूड़ी बेचने से, वैश्याओं को ग्राहकों में, नाई द्वारा बाल काटते हुए इस्लाम का प्रचार करने एवं मुसलमान बनाने के लिए कहा गया था। विशेष रूप से 6 करोड़ दलितों को मुसलमान बनाने के लिए कहा गया था जिससे मुसलमान जनसँख्या में हिन्दुओं के बराबर हो जाएं और उससे राजनैतिक अधिकारों की अधिक माँग की जा सके। स्वामीजी ने निज़ामी की पुस्तक का पहले "हिन्दुओं सावधान, तुम्हारे धर्म दुर्ग पर रात्रि में छिपकर धावा बोला गया है" के नाम से अनुवाद प्रकाशित किया एवं इसका उत्तर "अलार्म बेल अर्थात खतरे का घंटा" के नाम से प्रकाशित किया। इस पुस्तक में स्वामीजी ने हिन्दुओं को छुआछूत का दमन करने और समान अधिकार देने को कहा जिससे मुसलमान लोग दलितों को लालच भरी निगाहों से न देखें। इस बीच कांग्रेस के काकीनाड़ा के अध्यक्षीय भाषण में मुहम्मद अली ने 6 करोड़ अछूतों को आधा-आधा हिन्दू और मुसलमान के बीच बाँटने की बात कहकर आग में घी डालने का काम किया।
महात्मा गांधी भी स्वामीजी के गंभीर एवं तार्किक चिंतन को समझने में असमर्थ रहे एवं उन्होंने यंग इंडिया के 29 मई, 1925 के अंक में 'हिन्दू-मुस्लिम तनाव: कारण और निवारण' शीर्षक से एक लेख में स्वामीजी पर अनुचित टिप्पणी कर डाली। उन्होंने लिखा "स्वामी श्रद्धानन्दजी भी अब अविश्वास के पात्र बन गये हैं। मैं जानता हूँ कि उनके भाषण प्राय: भड़काने वाले होते हैं। दुर्भाग्यवश वे यह मानते हैं कि प्रत्येक मुसलमान को आर्य धर्म में दीक्षित किया जा सकता है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार अधिकांश मुसलमान सोचते हैं कि किसी-न-किसी दिन हर गैरमुस्लिम इस्लाम को स्वीकार कर लेगा। श्रद्धानन्दजी निडर और बहादुर हैं। उन्होंने अकेले ही पवित्र गंगातट पर एक शानदार ब्रह्मचर्य आश्रम (गुरुकुल) खड़ा कर दिया है।"
सवामीजी सधे क़दमों से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहे। एक ओर मौलाना अब्दुल बारी द्वारा दिए गए बयान जिसमें इस्लाम को न मानने वालो को मारने की वकालत की गई थी के विरुद्ध महात्मा गांधीजी की प्रतिक्रिया पक्षपातपूर्ण थी। गांधीजी अब्दुल बारी को 'ईश्वर का सीधा-सादा बच्चा' और 'एक दोस्त' के रूप में सम्बोधित करते थे जबकि स्वामीजी द्वारा की गई इस्लामी कट्टरता की आलोचना उन्हें अखरती थी। गांधीजी ने कभी भी मुसलमानों की कट्टरता की आलोचना नहीं की और न ही उनके दोषों को उजागर किया। इसके चलते कट्टरवादी सोचवाले मुसलमानों का मनोबल बढ़ता गया एवं सत्य और असत्य के मध्य वे भेद करने में असफल हो गए। मुसलमानों में स्वामीजी के विरुद्ध तीव्र प्रचार का यह फल निकला कि एक मतान्ध व्यक्ति अब्दुल रशीद ने बीमार स्वामी श्रद्धानन्द को गोली मार दी और उनका तत्काल देहांत हो गया।
सवामीजी का उद्देश्य विशुद्ध धार्मिक था ना कि राजनीतिक। हिन्दू समाज में समानता उनका लक्ष्य था। अछूतोद्धार, शिक्षा एवं नारी जाति में जागरण कर वह एक महान समाज की स्थापना करना चाहते थे। आज समस्त हिन्दू समाज का यह कर्तव्य है कि उनके द्वारा छोड़े गए शुद्धि चक्र को पुन: चलाये। यह तभी संभव होगा जब हम मन से दृढ़ निश्चय करें कि आज हमें जातिवाद को मिटाना है और हिन्दू जाति को संगठित करना है।
इन 100 वर्षों में अपने महान पूर्वजों के बलिदान से हमने क्या सीखा? यह यक्ष प्रश्न है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर स्वामी नरसिंहानंदजी के बयान के बाद से हम क्यों मौन हैं? हमारा कर्तव्य हमें क्या स्मरण करवा रहा है? यह आपको सोचना होगा। माँ भारती की पुकार सुनो, हे वीर महारथियों के पुत्रों। - डॉ.विवेक आर्य
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