Tuesday, February 22, 2022

महाराणा प्रताप की शौर्यगाथा जानते हैं पर उनके पूर्वजों की शौर्यगाथा भी जानिए

13 जून 2021

azaadbharat.org


सर्यवंशी और चन्द्रवंशी राजाओं की सन्तान ही राजपूत लोग हैं। मेवाड़ के शासनकर्त्ता सूर्यवंशी राजपूत हैं। ये लोग सिसोदिया कहलाते हैं जो श्रीरामचन्द्रजी के पुत्र लव की सन्तान हैं। वाल्मीकि रामायण में आया है कि श्रीरामजी ने अपने अन्तिम समय लव को दक्षिण कौशल और कुश को उत्तरीय कौशल का राज्य दे दिया था। 



कर्नल जेम्सटॉड साहब की राय है कि मेवाड़ के वर्तमान शासनकर्त्ता के वंश के पूर्वज राजा कनकसेन ने ही पहले पहल जननी जन्मभूमि का त्याग किया था और इसीके किसी बेटे पोते ने सौराष्ट्र और बलभीपुर में अपने राज्य की नींव डाली थी। जिस समय शिलादित्य नामक राजा बलभीपुर में राज्य करता था, उस समय इन्होंने बलभीपुर पर आक्रमण करके उसको नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। युद्ध में बेचारा राजा भी काम न आया। इसकी रानी पुष्पवती गर्भवती थी। सन्तान की रक्षा के विचार से इसने एक गुफा में शरण ली। वहीं इसके गर्भ से एक पुत्ररत्न पैदा हुआ, जो गुह नाम से प्रसिद्ध हुआ। मेवाड़ के राजपूत लोग गुह के वंशधर होने के कारण गुहलौत कहलाते हैं।


बहुत समय के बाद इसी राजा गुह के वंश में नागादित्य नाम का एक राजा हुआ जिसका पुत्र बप्पारावल अपनी वीरता से सर्वत्र विख्यात हुआ। बप्पारावल की वीरता की जितनी भी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है। क्योंकि बप्पा सिर्फ चित्तौड़ के किले पर अपना झण्डा फहरा कर चुप नहीं बैठे थे, बल्कि अपनी अद्वितीय वीरता से इन्होंने कंधार, काश्मीर, ईराक, ईरान, तेहरान और अफगानिस्तान इत्यादि पाश्चात्य मुल्क के बादशाहों को भी जीत कर अपने अधीन कर लिया था। बप्पा रावल का असली नाम भोज था। किन्तु प्रजा इन्हें पिता के तुल्य मानती थी। यही कारण है कि वह बप्पा के नाम से विख्यात थे। बप्पा जब चित्तौड़गढ़ के गद्दी पर बैठे तो इनकी उम्र चौदह या पन्द्रह वर्ष से अधिक न थी।

इन्हीं के वंशधरों के हाथ में अब तक मेवाड़ के शासन की बागडोर चली आती है।


डोंगापुर, प्रतापगढ़ और बांसवाड़े पर भी अब तक इन्हीं की सन्तानों का अधिकार है। बप्पारावल की नवीं पीढ़ी में रावल खुमान बहुत ही विख्यात राजा हुए। इन्होंने खुरासान के एक आक्रमणकारी के दांत ऐसे खट्टे किए थे कि जिसे संसार देखकर चकित हो गया था। रावल खुमान के पश्चात् प्रसिद्ध राणा समरसिंह हुए। इस समय राजपूतों में आपसी अनबन और फूट की आग सुलग रही थी। जब भारतवर्ष को गुलामी की बेड़ियों में जकड़नेदवाले राजपूत कुलकलंक कन्नौज के राजा जयचन्द के संकेत से शहाबुद्दीन गोरी ने दिल्ली के अन्तिम हिन्दू राजा पृथ्वीराज की राजधानी दिल्ली पर आक्रमण किया था उस समय युद्ध के मैदान में राणाजी ऐसी बहादुरी से लड़े कि दुश्मन लोग भी उनकी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सके। इनका पुत्र कल्याणसिंह यवनों से लड़ता हुआ इनकी आंखों के सामने मारा गया था। इसके बाद इन्हें महाराजा पृथ्वीराज के मारे जाने का समाचार मिला। पर यह सुनकर भी इन्होंने अपने कर्त्तव्य से मुंह न मोड़ा और युद्ध में डटे रहे। जिधर निकल जाते उधर ही दुश्मनों को धराशायी कर देते थे। अन्त में आप भी इसी युद्ध में काम आये और संसार को यह दिखा गए कि सच्चे वीर लोग किस प्रकार अपने कर्त्तव्य का पालन अन्तिम श्वास तक करते रहते हैं।


राणा समरसिंह, राजा पृथ्वीराज के बहनोई थे। इनके बाद एक के बाद एक बहुत से राणा लोग मेवाड़ के सिंहासन पर बैठे। सन् १२७५ ई० में राणा लक्ष्मणसिंह गद्दी पर बैठे। उस समय वह नाबालिग थे; अतः राज्य के कठिन कार्यभार को संभालने योग्य नहीं थे और इस कारण इनके चाचा महाराणा भीमसिंह राज्य को संभालने और उचित रीति से इसका प्रबन्ध करने लगे। भीमसिंह की रानी पद्मिनी बड़ी ही रूपवती थी, साथ ही धर्मपरायण वीरांगना भी थी। अलाउद्दीन खिलजी इस समय दिल्ली का बादशाह था। इसने भी पद्मिनी की सुन्दरता का हाल सुना और अपने नापाक इरादों के कारण इसे बेगम बनाने का निश्चय किया। बस! फिर एक भारी तुर्क सेना के साथ वह चित्तौड़ पर चढ़ आया। किन्तु वीर राजपूत अपने राजा और रानी के लिए ऐसी वीरता से लड़े कि वह चित्तौड़ को विजय न कर सका। तब उसने अपनी प्रबल इच्छा जताई और कहा कि मैं एक बार रानी पद्मिनी को देख लूं। यदि मेरी बात मान ली जाएगी तो अपने लावलश्कर सहित मैं दिल्ली लौट जाऊंगा। भीमसिंह ने उत्तर दिया कि प्रत्यक्ष तो मैं पद्मिनी को दिखा न सकूंगा। किन्तु हां, एक आईना उसके सम्मुख इस प्रकार रख दिया जाएगा कि जिसमें से पद्मिनी का चेहरा उसे बखूबी दिखलाई दे। किन्तु वह स्वयं सामने न आयेगी, साथ ही यह भी शर्त रहेगी कि चित्तौड़ के भीतर वह केवल एक-दो रक्षकों के साथ आ सकता है। अलाउद्दीन ने उसकी यह बात मान ली, क्योंकि वह जानता था कि राजपूत अपनी बात के बड़े धनी होते हैं। अतः वह एक-दो आदमियों के साथ किले में चला गया और आईने में से पद्मिनी का चेहरा देख लिया। महाराणा भीमसिंह, बादशाह को किले के तक पहुंचाने चले आये, किन्तु ज्योंही वह बाहर निकले त्योंही तुर्की फौज का एक बेड़ा जो अलाउद्दीन के हुक्म से जंगल में छिपा हुआ था, घात पकड़ झपट कर निकला और भीमसिंह को छल से पकड़ कर कैद कर लिया। तब अलाउद्दीन ने कहा कि जब तक पद्मिनी अपने आप मेरे पास आकर मुझसे शादी न कर लेगी मैं राजा को नहीं छोडूंगा।

पद्मिनी पहले तो कुछ डरी, किन्तु थी वह बड़ी साहसी। उसने कहा- "मालूम हुआ तुर्कों में भी अपने वचन की आन नहीं है। इन्होंने हमें धोखा दिया है। बस इसका जवाब तुर्की ब तुर्की देना ही ठीक है। इसलिए उसने कहला भेजा कि यदि बादशाह राजा को छोड़ दे तो मैं अलाउद्दीन की बेगम बनने को खुशी से चली आऊंगी। मुझे अपनी समस्त दासियां और वस्त्राभूषण बन्द पालकियों में ले जाने की आज्ञा हो इसलिए कि जिसमें तुर्क सिपाही मुझे देख न सकें।" अलाउद्दीन ने यह बात स्वीकार कर ली। अब इधर पद्मिनी की पालकी किले से बाहर निकली। हर एक का ख्याल था कि इसमें रानी पद्मिनी है, किन्तु उसके स्थान में पालकी के भीतर एक बादल नाम का राजपूत बैठा हुआ था जिसके साथ-साथ सत्तर पालकियां और भी गयीं। तुर्क समझे कि इनमें दासियां, बांदियां और आभूषण आदि हैं, लेकिन हर एक में एक-एक राजपूत सिपाही सशस्त्र तैयार बैठा हुआ था। पालकी उठाने वाले भी कहार नहीं थे, बल्कि वास्तव में हर एक वीर राजपूत सिपाही ही थे। फिर पद्मिनी के चाचा वीर गोरा ने अलाउद्दीन से निवेदन किया कि पद्मिनी अपने पति से अन्तिम मुलाकात और उससे विदा होना चाहती है। यह सुनकर खिलजी को प्रसन्नता हुई। उसने कहा- भीमसिंह इस खेमे में बैठा है, रानी उससे मुलाकात कर सकती है। तब पालकी खेमे में ले गए, बादल बाहर निकला और उसके साथ लाए अंगकवच को भीमसिंह ने पहन लिया। भीमसिंह झट एक घोड़े पर सवार हुए और क्षण भर में पद्मिनी के रक्षार्थ उसके पास कुशलपूर्वक पहुंच गए। इधर तुर्कों और राजपूतों में घमासान लड़ाई हुई, जिसमें थोड़े ही राजपूत जीवित वापस पहुंचे। उन जीवित राजपूतों में एक बड़ा ही शूरवीर राजपूत बादल था। फिर अलाउद्दीन ने किले पर आक्रमण किया लेकिन सफल मनोरथ न हो सका इसलिए लाचार दिल्ली चला गया। साल दो साल बाद अलाउद्दीन ने पुन: अफगानियों और तुर्कों की बड़ी भारी फौज जमा कर ली और एकदम चित्तौड़ पर चढ़ आया। भीमसिंह अपने जाति के बहुत से मनुष्यों को नगर रक्षा करने में पहले ही गंवा चुके थे। जो राजपूत बाकी बच रहे थे वह सच्चे वीर और राजभक्त तो अवश्य थे परन्तु तुर्कों की सेना का सामना करने में असमर्थ थे। छ: महीनों तक यह युद्ध चलता रहा। दिन पर दिन राजपूत वीर मातृभूमि के लिए अपना सिर बलिदान करते जाते थे। इस प्रकार इधर राजपूत घट रहे थे और उधर तुर्की सेना दिल्ली से आकर बढ़ती जाती थी।


महाराणा के बारह बेटे थे। दूसरे दिन इनमें से सबसे बड़े बेटे के सिर पर सरपेच बांधा गया। इसने तीन दिन तक राज्य किया। और चौथे दिन मारा गया। इसी प्रकार बाकी में से प्रत्येक बारी-बारी से गद्दी पर बैठे। और हरेक तीन दिन तक राज्य करते हुए तुर्की की अथाह सेना से परास्त होकर मारे गए। होते-होते ग्यारह मुकुटधारियों का प्राण विसर्जन हो चुका और सबसे छोटा भाई बाकी रह गया। तब राजा ने अपने सामन्तों को अपने पास बुला करके कहा- "अब चित्तौड़ के लिए मैं अपनी जान देता हूं। अब इस बार मेरा ही सिर रणभूमि पर गिरेगा...।" अब भीमसिंह ने इस बार छोटा सा व्यूह बड़े शूरवीर सिपाहियों का रचकर तैयार कर लिया। अपने सबसे कनिष्ठ पुत्र को इस व्यूह का सेनानायक नियत कर लिया और कहा- "पुत्र! बस जाओ, तुर्कों से अभेद्य सेनादल को बेध कर अपना मार्ग निकाल लो। इनसे बचकर यहां से केवलगढ़ में चले जाओ और वहां मेवाड़ के राजा बनकर उस समय तक राज्य करो कि जब तक तुम में चित्तौड़ वापस लौट आने की पूरी शक्ति न आ जाये।" कुमार तो पहले जाने पर राजी नहीं हुए और कहने लगे- "नहीं पिताजी! मैं यहीं रहूंगा और शत्रु को मारकर पिता के साथ-साथ समर भूमि में प्राण गवाऊंगा।" किन्तु भीमसिंह ने न माना और कहा- क्या अपने वंश का एकबारगी नामोनिशान मिटाना चाहते हो? नहीं ऐसा कभी न होगा। पुत्र! तुम इसे कायम रखो। कुंवर ने लाचार होकर राजा की आज्ञा का पालन किया। अतः उसने और उसके साथियों ने दुश्मन की अथाह सेना को चीरते हुए अपना रास्ता साफ कर लिया। इसके बाद इनके खानदान में से एक व्यक्ति बहुत दिन के पश्चात् पुनः चित्तौड़ का राणा बनकर वापस लौट आया। - प्रियांशु सेठ


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