Saturday, February 12, 2022

कम्युनिस्टों की जहरीली कलम देश का कर रही है नुकसान

11 मई 2021

azaadbharat.org


पश्चिमी बंगाल मे हिंदुओं (विशेष रूप से दलित हिन्दू) का अमानुषिक उत्पीड़न 2 मई की रात से लगातार जारी है। सम्पूर्ण मीडिया इसपर चुप है। राज्य सरकार अपराधियों का साथ दे रही है तो केन्द्र सरकार चुप है। बड़ी संख्या में बंगाल से भाग कर असम में शरण लिए लोगों की खबरे आ रही हैं। परंतु मीडिया और सभी राजनैतिक दल इस पर चुप हैं। 



परसिद्ध अमेरिकी लेखक हावर्ड फास्ट ने अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी में 16 वर्ष काम किया था। वह लिखते हैं कि पार्टी से सहानुभूति रखने वाले बाहरी बुद्धिजीवियों में प्राय: पार्टी सदस्यों से भी अधिक अंधविश्वास दिखता है। कम्युनिज्म के सिद्धांत-व्यवहार के ज्ञान या अनुभव के बदले वे अपनी कल्पना और प्रवृत्ति से अपनी राय बना लेते हैं। यह बात दुनिया भर के कम्युनिस्ट समर्थकों के लिए सच है।


चोर तबरेज आलम की पिटाई के कारण मरने पर रविश कुमार 33 घंटे चिल्लाया और पालघर के सन्यासियों के क्रूर संहार पर 33 सेकंड। बंगाल के नरसंहार और सामूहिक बलात्कार पर पूरी तरह चुप। 


भारत में इसी तरह का एक उदाहरण है- अरुंधती राय, जिसने कुछ समय से नक्सली कम्युनिस्टों के समर्थन का झंडा उठा रखा है। कुछ समय पहले इसने एक लेख “वाकिंग विद द कामरेड्स” लिखा। लेख का अंतिम निष्कर्ष यह है कि सन् 1947 से ही भारत एक औपनिवेशिक शक्ति है, जिसने दूसरों पर सैनिक आक्रमण करके उनकी जमीन हथियाई। इसी तरह भारत के तमाम आदिवासी क्षेत्र स्वाभाविक रूप से नक्सलवादियों के हैं, जिनपर इंडियन स्टेट ने सैनिक बल से अवैध कब्जा किया हुआ है। इस साम्राज्यवादी युद्धखोर ‘अपर कास्ट हिंदू स्टेट’ ने मुस्लिमों, ईसाईयों, सिखों, कम्युनिस्टों, दलितों, आदिवासियों और गरीबों के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है।


महाश्वेता देवी उच्चतम कोटि की लेखिका थीं, वामपंथीं थीं, नक्सलियों की हमदर्द थीं, इन देशद्रोहियों के मानवाधिकार का पुरजोर समर्थन करती थीं, अपनी एकपक्षीय काल्पनिक कहानियों में देश के प्रहरियों को अत्याचारी और बलात्कारी साबित करती थीं, सैकड़ों बेगुनाह सुरक्षाकर्मियों के नक्सलियों द्वारा मारे जाने पर होंठ सी लेती थीं, जंगलों में राष्ट्रभक्त आदिवासियों की नक्सलवादियों द्वारा कंगारू कोर्ट लगाकर निर्मम हत्या पर इनकी दोनों आंखों में मोतियाबिंद पककर उतर जाता था, जातिवादी नक्सली कमांडरों द्वारा लगातार किये जा रहे महिला नक्सलियों के यौन शोषण पर इनकी लेखनी को लकवा मार देता था। 


नक्सलियों के मारे जाने को सुरक्षा बलों की हिंसा बता इसका विरोध करती थीं और फटाफट-फटाफट इसपर लेख , कहानियां लिख डालती थीं, लेकिन नक्सलियों द्वारा की जा रही जवानों की हत्याओं पर इनका 'सिंगल लाइनर' आ जाता था, "मैं हिंसा के पक्ष में नहीं हूं।" नक्सली हिंसा और अपराध के विरोध में कभी कुछ नहीं लिखा। लिखतीं तो यह पोस्ट भी निरर्थक होती। सुरक्षा बलों का मानवाधिकार इनके लिये बेमानी था।


कभी नक्सली हत्या के विरूद्ध नहीं लिखा। नक्सलवाद में मौजूद जातिवाद और आदिवासी नक्सल महिलाओं के यौन शोषण और उनकी जघन्य हत्याओं से आंखें फेर लीं। निर्दोष नागरिकों और सुरक्षादल के जवानों की हत्या पर उनका साहित्यिक दिल कभी भी नहीं पसीजा। 


लगभग सौ साल पहले रूसी कम्युनिस्टों को सार्वजनिक लेखन-भाषण की तकनीक सिखाते हुए लेनिन ने कहा था कि जो भी तुम्हारा विरोधी या प्रतिद्वंद्वी हो, पहले उस पर ‘प्रमाणित दोषी का लेबल चिपका दो. उस पर मुकदमा हम बाद में चलाएंगे.’ तबसे सारी दुनिया के कम्युनिस्टों ने इस आसान, पर घातक तकनीक का जमकर उपयोग किया है। अपने अंधविश्वास, संगठन बल और दुनिया को बदल डालने के रोमांटिक उत्साह से उनमें ऐसा नशा रहा है कि प्राय: किसी पर प्रमाणित दोषी का बिल्ला चिपकाने और हर तरह की गालियां देने के बाद वे मुकदमा चलाने की जरूरत भी नहीं महसूस करते!


इसी मानसिकता से लेनिन-स्तालिन-माओवादी सत्ताओं ने दुनिया भर में अब तक दस करोड़ से अधिक निर्दोष लोगों की हत्याएं कीं। भारत के माओवादी उनसे भिन्न नहीं रहे हैं। जिस हद तक उनका प्रभाव क्षेत्र बना है, वहां वे भी उसी प्रकार निर्मम हत्याएं करते रहे हैं। अरुंधती ने भी नोट किया है कि नक्सलियों ने गलती से निर्दोषों की भी हत्याएं की हैं। किंतु ध्यान दें, यहां निर्दोष का मतलब- माओवादी-लेनिनवादी समझ से निर्दोष, न कि हमारी-आपकी अथवा भारतीय संविधान या कानून की दृष्टि से। दूसरे शब्दों में, जिसे माओवादियों और उनके अरुंधती जैसे अंध-समर्थकों ने ‘दोषी’ बता दिया, उसे तरह-तरह की यंत्रणा देकर मार डालना बिलकुल सही।


कछ साल पहले हरियाणा के महेंद्रगढ़ जिले के केंन्द्रीय विश्वविद्यालय के अंग्रेजी और विदेशी भाषा विभाग ने महाश्वेता देवी की लघु कथा 'द्रौपदी' पर आधारित नाटक का मंचन किया। इस कथा में द्रौपदी नाम की आदिवासी महिला की सुरक्षादलों के हाथों मुठभेड़ें मारे जाने का एकतरफा वर्णन है। नाटक में वर्दीधारी सुरक्षा दलों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों और बलात्कार को दिखाया जा रहा था। ध्यान दें कि जब सारा देश उरी में हुये सेना के जवानों के बलिदान से दुखी था, आक्रोशित था, पाकिस्तान को सबक सिखाने को तत्पर था, इस निंदक नाटक का मंचन जनता और सैन्य दलों के मनोबल को तोड़ने का सोचा समझा षड़यंत्र था। स्थानीय नागरिकों द्वारा गठित 'सैनिक सम्मान संघर्ष समिति' नेे इस नाट्य-मंचन का विरोध किया और पुलिस को सूचितकर इसे बंद करवाया। https://bit.ly/3oeCVuk


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