Tuesday, February 22, 2022

देश, धर्म और संस्कृति बचाने के लिए हिन्दूराष्ट्र की आवश्यकता है

02 जून 2021

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वर्ष 1947 में विभाजन के उपरांत देश स्वतंत्र हुआ। तदुपरांत वर्ष 1950 में संविधान लागू हुआ। उस समय कहा गया कि सभी को समान न्याय मिलेगा। इस कारण सब अत्याचार भूलकर हिन्दू उसे स्वीकारने के लिए तैयार हो गए परंतु प्रत्यक्ष में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अल्पसंख्यकों को सुविधा देकर हिंदुओं का दमन किया जा रहा है। आज मुसलमान अपने धर्म के लिए ‘फिदायीन’ बनकर समय पड़ने पर अपने प्राण देने को तैयार हो जाते हैं। ऐसे समय हम हिन्दू अधिवक्ताओं को भी कानून का अध्ययन कर, न्यायालय में ‘फिदायीन’ बनकर हिन्दू को न्याय दिलाने के लिए निःस्वार्थ वृत्ति के साथ प्राणपण से प्रयास करने चाहिए । देश में बडी संख्या में हिन्दुओं का धर्मांतरण हो रहा है, इसे रोकना आवश्यक है। इस पृष्ठभूमि पर धर्मांतरण-विरोधी कानून बनाने के लिए अधिवक्ता प्रयास करें। हमें अपना भविष्य सुरक्षित करना है तो हिन्दूराष्ट्र स्थापना के प्रयास करने चाहिए- ऐसा प्रतिपादन लक्ष्मणपुरी (लखनऊ) के ‘हिन्दू फ्रंट फॉर जस्टिस’ के अध्यक्ष अधिवक्ता हरि शंकर जैन ने किया। 



अधिवक्ता हरि शंकर जैन द्वारा प्रस्तुत किए गए कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र . . .


1. 'हिन्दुओं के विरोध में निर्णय हो जाए, तो न्याय और निर्णय हिन्दुओं के पक्ष में हो जाए तो वह अन्याय’, ऐसी चिंताजनक स्थिति आज निर्मित हो गई है । 


अब ‘हिन्दू प्रथम’ (Hindu First) यह नारा देना चाहिए । जो कानून हिन्दुओं को न्याय नहीं दे सकता उसे बदलने की आज आवश्यकता है।


2. ‘हिन्दू अप्रसन्न (नाराज) हुए, तो सत्ता नहीं मिलेगी’, ऐसी कड़ी चेतावनी राजनीतिक दलों को देने की आवश्यकता है।


3. ‘धर्मनिरपेक्षता’- यह देश में स्थित एक राक्षस है। इसे गाड़ देना चाहिए!


4. सच्चर आयोग के अनुसार यदि मुसलमान गरीब हैं तो गली-गली में मस्जिद बनवाने के लिए पैसा कहां से आता है?


5. धर्मरक्षा के लिए सक्रिय होने पर कोई हिन्दुओं को सांप्रदायिक कहे तो अभिमान से कहें, हां ! हिन्दू सांप्रदायिक हैं !


6. आजकल सभी जगह मुसलमानी मानसिकता देखने को मिलती है। उसमें परिवर्तन लाकर हमें ‘हिन्दू विचार’ सामने रखने हैं।


7. हिन्दुओं का धर्मशास्त्र छोटे बच्चों तक पहुंचाना चाहिए। अंग्रेजी में कविता सुनाने पर माता-पिता अपने छोटे बच्चों की प्रशंसा करते हैं परंतु अपने बच्चों को गायत्रीमंत्र, हनुमानचालिसा का भी पठन करना चाहिए- ऐसा माता-पिता को लगता है?


8. कैराना (उत्तरप्रदेश) में हुए लोकसभा चुनाव के निर्णय के उपरांत ‘अल्लाह जीत गया, राम हार गया’, ऐसे नारे दिए गए। यदि ऐसे नारे नहीं सुनना चाहते हो तो हिन्दूराष्ट्र की स्थापना के लिए कार्य करना आवश्यक है।


हिन्दूराष्ट्र के लिए आवश्यकता पड़ने पर बलिदान देंगे! – अधिवक्ता हरि शंकर जैन


दश, धर्म और संस्कृति बचाने के लिए हिन्दूराष्ट्र की आवश्यकता है। हिन्दूराष्ट्र के लिए आवश्यकता पड़ने पर बलिदान भी देंगे परंतु हिन्दूराष्ट्र की मांग से पीछे नहीं हटेंगे। स्रोत : हिन्दू जन जागृति समिति


दनिया में ईसाइयों के 157 देश हैं और मुसलमानों के 57 देश हैं जबकि सच्चाई यह है कि हिन्दू ही सनातन धर्म है जबसे सृष्टि का उद्गम हुआ तब से है फिर भी एक भी हिन्दू देश नहीं है।


बता दें कि ईसाई धर्म की स्थापना 2000 साल पहले और मुसलमान धर्म की स्थापना 1400 साल पहले हुई फिर भी उनके इतने देश हो गये और सनातन हिन्दू धर्म सिमटता गया बड़ी दुःखद बात है। अब एक भारत ऐसा देश है जिसमें 80 प्रतिशत हिन्दू हैं लेकिन उन हिन्दुओं का धर्मान्तरण करवाया जा रहा है, जातियों में बांटकर लड़वाया जा रहा है, हिन्दूनिष्ठों व हिन्दू धर्मगुरुओं को झूठे केस में जेल में भिजवाया जा रहा है इससे साफ पता चलता है कि भारत में भी हिन्दू अपना अस्तित्व खो देंगे।


अब हिन्दुओं को जागना होगा और किसी भी हिन्दू पर अत्याचार हुआ हो तो उसके लिए एक होकर लड़ना होगा और भारत को हिन्दूराष्ट्र बनाने के लिए पुरजोश से प्रयत्न करना होगा तभी हिन्दू बच पायेगें नहीं तो खुद का धर्म भी खो देंगे।



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Monday, February 21, 2022

पटा पूरी तरह से हिंदुत्व व मानवता विरोधी बन चुकी है?

01 जून 2021

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भारत मे बिना मांगे सलाह देनेवालों की भरमार है। इसी तरह के बेकार सलाह देनेवालों मे मानवाधिकार और पशु अधिकार संबंधी संस्थाएं हैं। मानवाधिकारवालों को केवल आतंकवादियों और नक्सलियों के अधिकार की चिंता है तो पशु अधिकारवालों को गाय से दूध लेना अत्याचार दिखाई देता है।

इसी तरह की एक विदेशी संस्था है PETA (People for the Ethical Treatment of Animals ) जो पशुओं के नाम पर मोटा पैसा बनाती है। यह मूलतः अमेरिका की संस्था है जो भारत में सनातनधर्म-विरोधी एजेंडा चलाती है। 



दश की सबसे बड़ी डेयरी कंपनी अमूल (Amul) ने जानवरों के अधिकारों की रक्षा करनेवाले संगठन पेटा (PETA) के सुझाव पर सवाल उठाए हैं। PETA ने अमूल (Amul) को सुझाव दिया था कि उसे प्लांट बेस्ड डेयरी प्रोडक्ट पर स्विच कर जाना चाहिए।

अभी PETA ने भारत की प्रसिद्ध दूध उत्पाद बेचनेवाली कम्पनी अमूल को लिखा है कि वह गाय/ भैंस के दूध के स्थान पर VEGAN MILK ( सोयाबीन आदि से बना दूध जैसा द्रव) को बेचे।


ऐसी संस्थाएँ, भारत के संदर्भ में, हिन्दू लोगों की आस्था पर हमले करने, कृषकों की आय खत्म करने और बनावटी ज्ञान देने की साजिश करती ही नजर आती हैं। इसके अतिरिक्त इनके द्वारा कोई भी ढंग का कार्य नहीं किया जा रहा। त्योहारों पर इनके हर कैम्पेन में हिन्दूघृणा टपकती दिखती है। इनका एजेंडा वेटिकनपोषित संस्थाओं के एजेंडे से बिलकुल भी भिन्न नहीं है। 


🚩दध लग्जरी नहीं, आवश्यकता है। ऐसे में पेटा जब ‘वीगन दूध’ की बातें कर रही है तो वो यह भूल जाता है कि करोड़ों किसानों के रोजगार के साथ-साथ गरीबों के जीवन से खेलने की बातें कर रही है। सवाल यह है कि पेटावालों को ‘वीगन दूध’ की याद क्यों आती है? 


आप अगर वीगन मिल्क का मूल्य देखने जाएँगे तो आपको पता चलेगा कि एक लीटर ‘वीगन मिल्क’ का दाम 290 से लेकर ₹400 तक है। अब कोई यह समझाए कि गाँव में ₹30-35/लीटर और शहरों में ₹45-60/लीटर खरीदनेवाले लोग लगभग दस-गुणा मूल्य चुका कर किस बजट के हिसाब से दूध खरीदेंगे? भारत में हर व्यक्ति को वैसे भी दूध नहीं मिल पाता; जिनको मिल रहा है, उनमें से भी एक बहुत बड़ा हिस्सा उसे बच्चों के पोषण हेतु उपयोग में लाते हैं। 


दसरा कि शास्त्रों ने व वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है कि देशी गाय का दूध अमृत के समान है व अनेक रोगों का स्वतः सिद्ध उपचार है । देशी गाय का दूध सेवन करने से किशोर-किशोरियों की शरीर की लम्बाई व पुष्टता उचित मात्रा में विकसित होती है, हड्डियाँ भी मजबूत बनती हैं एवं बुद्धि का विलक्षण विकास होता है। तो इस दूध से वंचित करना मानवता के खिलाफ है।


कवल प्रोपगेंडा 

PETA को 2020 में लगभग 66.3 मिलियन डॉलर मिले जो भारतीय रुपयों में ₹4,77,36,00,000 (477 करोड़ से अधिक) होते हैं। इसमें से ₹459 करोड़ ($63.8 मिलियन) इन्हें दान से मिले। 

जुलाई 2020 में रक्षाबंधन पर PETA ने चमड़ामुक्त राखी के प्रचार पर करोड़ों खर्च किए। ध्यान रखें- बकरीद पर ये कुछ नहीं बोलती है। 

सूचना स्रोत -

https://dopolitics.in/peta-budget-propaganda-salary-expenses-animal-rights-fake-ngo/


आपको जानकर हैरानी होगी कि इस संस्था पर अमेरिका में मासूम जानवरों की जान लेने के आरोप लगते रहे हैं। यह भी स्पष्ट हो चुका है कि यह संस्था पशुओं को बचाने के नाम पर खुद इन पशुओं की हत्या कर देती है।


वर्जीनिया डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर एंड कंज्यूमर सर्विसेज (VDACS) की रिपोर्ट के मुताबिक PETA ने पिछले 2019 में 1,593 कुत्तों, बिल्लियों और अन्य पालतू जानवरों को मार दिया था। वहीं 2018 में 1771 जानवरों की हत्या कर दी गई। इसी तरह 2017 में 1809, 2016 में 1411 और 2015 में 1456 जानवरों को मार दिया गया। रिपोर्ट के अनुसार 1998 से लेकर 2019 तक PETA ने 41539 जानवरों की हत्या कर दी।


PETA यानी पीपल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स। यह संस्था खुद को पशुओं के अधिकार का संरक्षक कहती है। लेकिन इस मुखौटे के पीछे कई चेहरे छिपे हैं। हिंदुओं से घृणा करनेवाली यह संस्था जानवरों की निर्ममता से हत्या भी करती है। दीपावली पर ज्ञान देती है कि पटाखे नहीं फोड़ें नहीं तो पशु-पक्षी डर जाते हैं, लेकिन यही पेटा बकरीद पर पूरी विधि बताती है कि पशु हत्या कैसे करनी चाहिए।


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अहल्याबाई से नारियों को सीखना चाहिए- कितनी महानता छुपी है नारी में

31 मई 2021

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महिलाओं में अथाह सामर्थ्य छुपा है। जितने भी बड़े-बड़े संस्कृति व राष्ट्रप्रेमी योद्धा, महापुरुष, ऋषि-मुनि, वैज्ञानिक, नेता आदि जो भी महान हुए हैं उनके पीछे माँ का सबसे बड़ा हाथ है; माँ के अच्छे संस्कार के कारण ही बच्चे महान बन पाते हैं। इसलिए शास्त्रों में नारी को नारायणी भी कहा गया है लेकिन आज की नारी पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करने के कारण दुर्व्यसनों में फंसकर अपनी महिमा भूल गई है और उसे एक भोग्या के रूप में लोग देखने लगे हैं; इतिहास भी सही नहीं पढ़ाया जाता है जिसके कारण महिला अपनी महिमा भूल गई है।



अहल्याबाई होल्कर 


भारत में जिन महिलाओं का जीवन आदर्श, वीरता, त्याग तथा देशभक्ति के लिए सदा याद किया जाता है, उनमें रानी अहल्याबाई होल्कर का नाम प्रमुख है।

उनका जन्म 31 मई, 1725 को ग्राम छौंदी (अहमदनगर, महाराष्ट्र) में एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री मनकोजी राव शिन्दे परम शिवभक्त थे। अतः यही संस्कार बालिका अहल्या पर भी पड़े। 


एक बार इन्दौर के राजा मल्हारराव होल्कर ने वहां से जाते हुए मन्दिर में हो रही आरती का मधुर स्वर सुना। वहां पुजारी के साथ एक बालिका भी पूर्ण मनोयोग से आरती कर रही थी। उन्होंने उसके पिता को बुलवाकर उस बालिका को अपनी पुत्रवधू बनाने का प्रस्ताव रखा। मनकोजी राव भला क्या कहते, उन्होंने सिर झुका दिया। इस प्रकार वह आठ वर्षीय बालिका इन्दौर के राजकुंवर खांडेराव की पत्नी बनकर राजमहलों में आ गयी।


इन्दौर में आकर भी अहल्या पूजा एवं आराधना में रत रहती। कालान्तर में उन्हें दो पुत्री तथा एक पुत्र की प्राप्ति हुई। 1754 में उनके पति खांडेराव एक युद्ध में मारे गये। 1766 में उनके ससुर मल्हारराव का भी देहांत हो गया। इस संकटकाल में रानी ने तपस्वी की भांति श्वेत वस्त्र धारण कर राजकाज चलाया; पर कुछ समय बाद उनके पुत्र, पुत्री तथा पुत्रवधू भी चल बसे। इस वज्राघात के बाद भी रानी अविचलित रहते हुए अपने कर्तव्यमार्ग पर डटी रहीं। 


ऐसे में पड़ोसी राजा पेशवा राघोबा ने इन्दौर के दीवान गंगाधर यशवन्त चन्द्रचूड़ से मिलकर अचानक हमला बोल दिया। रानी ने धैर्य न खोते हुए पेशवा को एक मार्मिक पत्र लिखा। रानी ने लिखा कि यदि युद्ध में आप जीतते हैं, तो एक विधवा को जीतकर आपकी कीर्ति नहीं बढ़ेगी। और यदि हार गये, तो आपके मुख पर सदा को कालिख पुत जाएगी। मैं मृत्यु या युद्ध से नहीं डरती। मुझे राज्य का लोभ नहीं है, फिर भी मैं अन्तिम क्षण तक युद्ध करूंगी।


इस पत्र को पाकर पेशवा राघोबा चकित रह गया। इसमें जहां एक ओर रानी अहल्याबाई ने उस पर कूटनीतिक चोट की थी, वहीं दूसरी ओर अपनी कठोर संकल्पशक्ति का परिचय भी दिया था। रानी ने देशभक्ति का परिचय देते हुए उसे अंग्रेजों के षड्यन्त्र से भी सावधान किया था। अतः उसका मस्तक रानी के प्रति श्रद्धा से झुक गया और वह बिना युद्ध किये ही पीछे हट गया।


रानी के जीवन का लक्ष्य राज्यभोग नहीं था। वे प्रजा को अपनी सन्तान समझती थीं। वे घोड़े पर सवार होकर स्वयं जनता से मिलती थीं। उन्होंने जीवन का प्रत्येक क्षण राज्य और धर्म के उत्थान में लगाया। एक बार गलती करने पर उन्होंने अपने एकमात्र पुत्र को भी हाथी के पैरों से कुचलने का आदेश दे दिया था; पर फिर जनता के अनुरोध पर उसे कोड़े मार कर ही छोड़ दिया। 


धर्मप्रेमी होने के कारण रानी ने अपने राज्य के साथ-साथ देश के अन्य तीर्थों में भी मंदिर, कुएं, बावड़ी, धर्मशालाएं आदि बनवाईं। काशी का वर्तमान काशी विश्वनाथ मंदिर 1780 में उन्होंने ही बनवाया था। उनके राज्य में कला, संस्कृति, शिक्षा, व्यापार, कृषि आदि सभी क्षेत्रों का विकास हुआ।


13 अगस्त, 1795 ई0 को 70 वर्ष की आयु में उनका देहान्त हुआ। उनका जीवन धैर्य, साहस, सेवा, त्याग और कर्तव्यपालन का प्रेरक उदाहरण है। इसीलिए एकात्मता स्तोत्र के 11वें श्लोक में उन्हें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, चेन्नम्मा, रुद्रमाम्बा जैसी वीर नारियों के साथ याद किया जाता है।

(संदर्भ : राष्ट्रधर्म मासिक, मई 2011)


लज्जावासो भूषणं शुद्धशीलं पादक्षेपो धर्ममार्गे च यस्या।

नित्यं पत्युः सेवनं मिष्टवाणी धन्या सा स्त्री पूतयत्येव पृथ्वीम्।।

'जिस स्त्री का लज्जा ही वस्त्र तथा विशुद्ध भाव ही भूषण हो, धर्ममार्ग में जिसका प्रवेश हो, मधुर वाणी बोलने का जिसमें गुण हो वह पतिसेवा-परायण श्रेष्ठ नारी इस पृथ्वी को पवित्र करती है।'

भगवान शंकर महर्षि गर्ग से कहते हैं:

'जिस घर में सर्वगुणसंपन्ना नारी सुखपूर्वक निवास करती है, उस घर में लक्ष्मी निवास करती है। हे वत्स ! कोटि देवता भी उस घर को नहीं छोड़ते।'


🚩अब समय आ गया है नारी पाश्चात्य संस्कृति को छोड़कर भारतीय संस्कृति को अपनाकर अपनी महानता पहचाने।


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आयुर्वेद का पतन कब और कैसे शुरू हुआ?

30 मई 2021

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सर्वप्रथम हम आयुर्वेद को लेकर उत्पन्न भ्रांतियों के काल को 3 भागों में बाँटते हैं और उस पर चर्चा करते हैं:


1. मुग़ल काल।

2. ब्रिटिश काल।

3. मल्टीनेशनल कंपनियों का काल।



1. मुग़ल काल


मुग़लों के शासन काल में यूनानी हकीमों ने मुस्लिम रोगियों को आयुर्वेद से दूर कर यूनानी की तरफ लाने के लिए यह प्रचारित किया कि इसमें गौमूत्र मिला होता है, जबकि आयुर्वेद की 100 में से मात्र 2 या 3 दवाओं में ही गौमूत्र का प्रयोग किया जाता है तथा चूर्ण तो सभी उससे मुक्त होते हैं। इस भ्रांति का अब भी अधिकांश मुस्लिमों पर प्रभाव है तथा इसी कारण वे आयुर्वेद से दूरी बनाए हुए हैं।


2. ब्रिटिश काल


इस काल में अंग्रेज़ों ने कई भ्रांतियाँ हम भारतीयों में रोपीं। बहुत सी राजनैतिक थीं, लेकिन आयुर्वेद के बारे में एक भ्रांति बनाई गई कि ये दवाएँ बेअसर होती हैं तथा यदि असर भी करती हैं तो काफी समय के बाद। इन भ्रांतियों को फैलाकर वे त्वरित असरकारक अंग्रेज़ी दवाओं को भारत में स्थापित कर गए।


3. मल्टीनेशनल कम्पनियों का काल


जैसे-जैसे लोगों में शिक्षा का स्तर बढ़ा, आयुर्वेद को लेकर लोगों की विचारधारा बदली और बहुत बड़ी संख्या में लोग इससे जुड़ने लगे। इससे भारत की अर्थव्यवस्था में उछाल आया तथा अंग्रेज़ी दवाओं से लोग दूर होने लगे। ऐसे में मल्टीनेशनल कम्पनियों ने मीडिया के साथ मिलकर आयुर्वेद को बदनाम करना शुरू किया तथा इन्होंने वे भ्रम फैलाए जो कि इनकी कमज़ोरियाँ थीं जैसे ‘ये दवाएँ किडनी खराब करती हैं’, इन्होंने आयुर्वेद के साथ भी जोड़ दिया। लोग तब भी आयुर्वेद से जुड़ते रहे तो फिर इन्होंने यह शगूफ़ा छोड़ा कि आयुर्वेद की दवाओं में एलोपैथिक दवाएँ मिली होती हैं, विशेषतः ‘स्टेरॉइड्स’।


दष्प्रचार फैलने के कारण


1. एलोपैथिक चिकित्सकों की आयुर्वेद को लेकर अज्ञानता।


एलोपैथी के चिकित्सकों को आयुर्वेद की जड़ी-बूटियों के बारे में कुछ ज्ञान नहीं होता। उन्हें केवल अदरक, हल्दी, दूध या शहद के बारे में ही दादी माँ के नुस्खेवाला ज्ञान होता है। उन्हें आयुर्वेद की दिव्यता का कदापि अनुमान नहीं है। यदि उन्हें हम विशल्यकर्णी के बारे में बताएँ कि कैसे यह युद्ध में सैनिकों के तीर निकालने में काम आती थी और एक ही दिन में घाव भर देती थी, तो उन्हें इस पर बिल्कुल यकीन नहीं होगा। उन्हें दांत के कीड़ों को नष्ट करने के लिए उपयोग में ली जानेवाली जड़ी-बूटियों को हाथ के अंगूठे पर लेप कर नष्ट करनेवाली औषधियों के बारे में रत्तीभर भी ज्ञान नहीं। उन्हें तो वायुगोला या नाभि टलने जैसी किसी बीमारी के बारे में कोई ज्ञान ही नहीं तो इसके लिए दी जानेवाली दवाओं और उनका चमत्कारी असर कहाँ पता होगा? उन्हें तो यह भी पता नहीं कि आयुर्वेदिक दवाओं से गाँठ अथवा गठान को बिना ऑपरेशन के केवल बाह्य प्रयोग द्वारा ठीक किया जा सकता है। उन्हें तो इस पर भी यकीन नहीं कि आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों से हृदय के ब्लॉकेज हटाए जा सकते हैं। तो क्या उन्हें इस बात पर विश्वास होगा कि आयुर्वेद जड़ी-बूटियों से सायनोवियल फ्ल्यूड को पुनः उत्पन्न किया जा सकता है? अस्थमा के रोगी को हरिद्रा, कनक आदि औषधियों से एलर्जी के प्रभाव से मुक्त किया जा सकता है। वह रसमाणिक्य, टंकण, गंधक रसायन के बारे में क्या जानें कि यह चर्म रोगों को किस प्रकार नष्ट कर देते हैं?


अतिम 3 उदाहरणों का वर्णन इसलिए किया है कि इन तीनों रोगों (जोड़ों का दर्द, अस्थमा और चर्मरोग) में एलोपैथिक चिकित्सक स्टेरॉइड्स का बहुतायत से प्रयोग करते है। उन्हें ऐसा लगता है कि बिना स्टेरॉइड्स के इन रोगों में लाभ नहीं पाया जा सकता, लेकिन उन्हें कौन बताए की कनक, अर्क, वातगजाकुंश रस, रसराज रस, वृहदवात चिंतामणि, कुमारी आदि स्टेरॉइड्स से भी ज़्यादा असरकारक हैं तथा बिना किसी दुष्प्रभाव के इन रोगों में लाभ पहुँचा सकते हैं।


आयुर्वेदः निर्दोष एवं उत्कृष्ट चिकित्सा-पद्धति


आयुर्वेद एक निर्दोष चिकित्सा पद्धति है। इस चिकित्सा पद्धति से रोगों का पूर्ण उन्मूलन होता है और इसकी कोई भी औषधि दुष्प्रभाव (साईड इफेक्ट) उत्पन्न नहीं करती। आयुर्वेद में अंतरात्मा में बैठकर समाधिदशा में खोजी हुई स्वास्थ्य की कुंजियाँ हैं। एलोपैथी में रोग की खोज के विकसित साधन तो उपलब्ध हैं लेकिन दवाइयों की प्रतिक्रिया (रिएक्शन) तथा दुष्प्रभाव (साईड इफेक्टस) बहुत हैं। अर्थात् दवाइयाँ निर्दोष नहीं हैं क्योंकि वे दवाइयाँ बाह्य प्रयोगों एवं बहिरंग साधनों द्वारा खोजी गई हैं। आयुर्वेद में अर्थाभाव, रूचि का अभाव तथा वर्षों की गुलामी के कारण भारतीय खोजों और शास्त्रों के प्रति उपेक्षा और हीनदृष्टि के कारण चरक जैसे ऋषियों और भगवान अग्निवेष जैसे महापुरुषों की खोजों का फायदा उठानेवाले उन्नत मस्तिष्कवाले वैद्य भी उतने नहीं रहे और तत्परता से फायदा उठानेवाले लोग भी कम होते गये। इसका परिणामी दिखायी दे रहा है।


हम अपने दिव्य और सम्पूर्ण निर्दोष औषधीय उपचारों की उपेक्षा करके अपने साथ अन्याय कर रहे हैं। सभी भारतवासियों को चाहिए कि आयुर्वेद को विशेष महत्त्व दें और उसके अध्ययन में सुयोग्य रूचि लें। आप विश्वभर के डॉक्टरों का सर्वे करके देखें तो एलोपैथी का शायद ही कोई ऐसा डॉक्टर मिले जो 80 साल की उम्र में पूर्ण स्वस्थ, प्रसन्न, निर्लोभी हो। लेकिन आयुर्वेद के कई वैद्य 80 साल की उम्र में भी निःशुल्क उपचार करके दरिद्रनारायणों की सेवा करनेवाले, भारतीय संस्कृति की सेवा करनेवाले स्वस्थ सपूत हैं।


कछ वर्ष पहले न्यायाधीश हाथी साहब की अध्यक्षता में यह जाँच करने के लिए एक कमीशन बनाया गया था कि इस देश में कितनी दवाइयाँ जरूरी हैं और कितनी बिनजरूरी हैं जिन्हें कि विदेशी कम्पनियाँ केवल मुनाफा कमाने के लिए ही बेच रही हैं। फिर उन्होंने सरकार को जो रिपोर्ट दी, उसमें केवल 117 दवाइयाँ ही जरूरी थीं और 8400 दवाइयाँ बिल्कुल बिनजरूरी थीं। उन्हें विदेशी कम्पनियाँ भारत में मुनाफा कमाने के लिए ही बेच रही थीं और अपने ही देश के कुछ डॉक्टर लोभवश इस षडयंत्र में सहयोग कर रहे थे।


अतः हे भारतवासियों! हानिकारक रसायनों से और कई विकृतियों से भरी हुई एलोपैथी दवाइयों को अपने शरीर में डालकर अपने भविष्य को अंधकारमय न बनायें।


शुद्ध आयुर्वेदिक उपचार-पद्धति और भगवान के नाम का आश्रय लेकर अपना शरीर स्वस्थ व मन प्रसन्न रखिये।


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कनाडा के मेयर ने आशाराम बापू के मामले पर भारत सरकार को लिखा पत्र

29 मई 2021

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हिंदू संत आशाराम बापू की उम्र 84 वर्ष है। वे 2013 से जोधपुर सेंट्रल जेल में बंद हैं। जेल में असुविधाओं के बीच रहने के कारण और अधिक उम्र होने के कारण उनका स्वास्थ्य काफी गिर गया है। कई समाजसेवी संगठन, महिलाएं व उनके करोड़ों अनुयायी लगातार उनकी रिहाई की मांग कर रहे हैं पर आजतक उनको एक दिन की भी जमानत अथवा पेरोल नहीं मिल पाई है।



ऐसी परिस्थिति को देखते हुए कनाडा की सिटी ऑफ़ ब्रैम्पटन के मेयर पैट्रिक ब्राउन ने 25 मई को भारत सरकार को एक पत्र लिखा है।


मेयर पैट्रिक ब्राउन ने लिखा है कि मेरे संज्ञान में आया है कि 84 वर्षीय संत श्री आशारामजी बापू कोरोना वायरस से प्रभावित हुए हैं। अतः कनाडा में रह रहे उनके शिष्यों द्वारा उनके स्वास्थ्य को लेकर चिंता बढ़ती जा रही है।


सिटी ऑफ़ ब्रैम्पटन के मेयर के रूप में मैं औपचारिक अनुरोध कर रहा हूं। कृपया संत श्री आशारामजी बापू को मानवीय आधार पर राहत प्रदान करें।


कनाडा के मेयर पैट्रिक ब्राउन ने भारत सरकार को पत्र लिखकर बताया- "संत आशारामजी बापू ने अपने पूरे जीवनकाल में पूर्ण भारतवर्ष में निस्वार्थ सेवाएं दी हैं और उनके कई अनुयायी यहां कनाडा में भी हैं, उन्होंने जरूरतमंदों को सहारा दिया है। बापू आशारामजी की आध्यात्मिकता और विशालता ने भारत में युवाओं, बच्चे और महिला सशक्तिकरण व आदिवासी लोगों के कल्याण के लिए कई कार्य किये हैं।

कृपया संत आसारामजी बापू को मानवीय आधार पर तत्काल न्यायिक राहत प्रदान करें।"

https://twitter.com/Asharamjiashrm/status/1398625148039663616?s=19


आपको बता दें कि राष्ट्र व सनातन धर्म के लिए कार्य करने व धर्मांतरण पर रोक लगाने वाले 84 वर्षीय संत आशारामजी बापू को साजिश के तहत फंसाने के कई प्रमाण भी हैं फिर भी उनको 8 साल से जमानत नहीं मिलना कितना बड़ा अन्याय है। जब वे ऊपरी कोर्ट से निर्दोष बरी होंगे तब उनका कीमती समय कौन लौटाएगा?


आपको बता दें कि बापू आशारामजी के अहमदाबाद आश्रम में एक Fax आया था जिसमें 50 करोड़ की फिरौती की मांग की गई थी और न देने पर धमकी दी गई थी कि अगर बापू ने 50 करोड़ नहीं दिए तो झूठी लड़कियां तैयार करके झूठे केस में फंसा देंगे और कभी बाहर नहीं आ पाएंगे, पर कोर्ट ने इसके ऊपर कोई एक्शन नहीं लिया।

https://youtu.be/YegncME19aU


डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने भी कई बार खुलासा किया है कि बापू आशारामजी को धर्मपरिवर्तन पर रोक लगाने और लाखों हिन्दुओं की घरवापसी कराने के कारण षडयंत्र के तहत जेल भिजवाया गया है ।


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बड़ी हस्तियों ने अपना धर्म बदलकर अपना लिया विश्व का सर्वश्रेष्ठ हिंदू धर्म

28 मई 2020

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हिंदू धर्म विश्व का सबसे पुराना धर्म है। इसको सनातन धर्म भी कहते हैं। इसके विचारों और संस्कृति से दुनिया में कई लोग बहुत प्रभावित रहे हैं। इसकी शांति और अहिंसा जैसे तत्वों को दुनिया भर में अपनानेवाले लोगों की संख्या लाखों में है। लेकिन कई ऐसे लोग भी हैं जो बाकायदा इस धर्म से प्रभावित होकर इसकी दीक्षा ले लेते हैं। हर साल हिंदू धर्म अपनाने वाले लोगों में बहुत से सिलेब्रिटीज भी शामिल होते हैं। हम आपको ऐसे ही कुछ खास लोगों के बारे में बता रहे हैं।



••● नयनतारा: नयनतारा दक्षिण भारतीय फिल्मों की प्रसिद्ध अभिनेत्री हैं। उनका जन्म एक ईसाई परिवार में हुआ था लेकिन 2017 में उन्होंने हिंदू धर्म को अपना लिया था। इसके लिए बाकायदा उन्होंने चेन्नई के आर्यसमाज मंदिर में हिंदू धर्म की दीक्षा ली थी।


••● जूलिया रॉबर्ट्स: जूलिया रॉबर्ट्स एक हॉलीवुड एक्ट्रेस हैं। अमेरिका में जन्मी इस प्रसिद्ध एक्ट्रेस ने नॉटिंग हिल, माई बेस्ट फ्रेंड्स वेडिंग और 'ईट, प्रे, लव' जैसी फिल्मों में अभिनय किया है। भारत में 2010 में 'ईट, प्रे, लव' की शूटिंग के दौरान वे हिंदू धर्म से बहुत प्रभावित हुई थीं और उन्होंने हिंदू धर्म को अपना लिया था। तबसे वे कई मौकों पर खुद को एक हिंदू बता चुकी हैं।


••● जॉन कोल्ट्रान: ये एक अमेरिकन म्यूजिशियन हैं। जॉन का जन्म एक ईसाई परिवार में हुआ था। बड़े होने के साथ ही वे धीरे-धीरे हिंदू धर्म से प्रभावित होने लगे। बाद में उन्होंने पूरी तरह से हिंदू धर्म ग्रहण कर लिया।


••● ट्रेवर हाल: ट्रेवर एक अमेरिकी गायक, गिटारिस्ट और गीतकार हैं। उनका संगीत भी हिंदू धर्म से बहुत प्रभावित होता है। उनके गीतों में संस्कृत के मंत्र भी होते हैं। 2013 में जब वे भारत आए तो वे हिंदू धर्म से बहुत प्रभावित हुए थे, इसी के बाद उन्होंने हिंदू धर्म स्वीकार कर लिया और भारत में एक साधु का जीवन बिताया।


••● केआरएस-वन: केआरएस-वन का असली नाम लॉरेंस कृष्णा पार्कर है। वे अमेरिका के प्रसिद्ध रैप गायकों में से हैं। उनके नाम से ही पता चलता है कि वे हिंदू भगवान कृष्ण से प्रभावित हैं। उन्होंने अपनी किताब 'द गॉस्पेल ऑफ हिप-हॉप' में भी अपने धार्मिक विश्वासों की चर्चा की है। वे अपने अमेरिकन रैपर ग्रुप 'बूगी डाउन प्रोडक्शन' के जरिए बहुत मशहूर हुए हैं।


••● जैरी गार्सिया: जैरी गार्सिया अपने 'ग्रेटफुल डेड' नाम के बैंड के चलते फेमस हुए थे। वे एक अमेरिकन म्यूजिशियन थे और तीस साल तक बैंड से लीड गिटारिस्ट के तौर पर जुड़े रहे। बचपन से ही हिंदू धर्म की ओर उनका रुझान था और आजीवन उन्होंने धर्म का पालन किया। 1995 में उनकी मौत के बाद उनकी अस्थियां भारत में ऋषिकेश में गंगा नदी में प्रवाहित की गईं।


••● एलिजाबेथ गिल्बर्ट: एलिजाबेथ गिल्बर्ट 2006 में आए अपने संस्मरण 'ईट, प्रे, लव' के चलते चर्चित हुईं। वे एक लेखिका हैं। उनकी यह किताब 199 हफ्तों तक न्यूयॉर्क टाइम्स अखबार की बेस्ट सेलर की लिस्ट में रही थी। एलिजाबेथ अपनी इस सबसे प्रसिद्ध किताब को लिखने की प्रेरणा लेने के लिए भारत आई थीं और इसी वक्त उन्होंने हिंदू धर्म स्वीकार कर लिया था।


••● जॉर्ज हैरिसन: संगीत को दिलोजान से चाहनेवालों ने जॉर्ज हैरिसन का नाम जरूर सुना होगा। वे बीटल्स बैंड के मुख्य गिटारिस्ट थे। बीटल्स के ऑडियंस और फैन बेस में पूरी दुनिया के लोग शामिल थे। हैरिसन को दुनिया में रॉक म्यूजिक के जाने-माने सितारों में गिना जाता था। 1960 में हैरिसन ने ईसाई धर्म छोड़कर हिंदू धर्म अपना लिया था। उन्होंने अपने बैंड के बीच भी हिंदू धर्म का प्रचार किया था। 2001 में उनकी मौत हो गई थी। जिसके बाद उनकी अस्थियों को गंगा और यमुना के पवित्र माने जानेवाले जल में प्रवाहित किया गया था।


••● रसेल ब्रांड: रसेल ब्रांड अंग्रेजी जगत में अपनी कॉमेडी को लेकर फेमस हैं। वे एक जाने-माने टीवी प्रोड्यूसर, लेखक और स्क्रीन राइटर भी हैं। लोग उन्हें उनकी प्रसिद्ध फिल्म 'फॉरगेटिंग सारा मार्शेल' के लिए याद करते हैं। रसेल ब्रांड हिंदू धर्म के बारे में व्याख्यान भी देते हैं और ध्यान के पक्के समर्थक हैं। उनके हिंदू धर्म के प्रति आकर्षण को आप इससे समझ सकते हैं कि उन्होंने 2010 में जब केटी पेरी से शादी की तो इसके लिए वे राजस्थान आए और हिंदू परंपरा से उनकी शादी हुई।


••● काल पेन: काल पेन का जन्म अमेरिका में हिंदू परिवार में हुआ था। हाउस नाम के एक अमेरिकी टीवी सीरियल के चलते वे प्रसिद्ध हुए थे। उन्होंने कई फिल्मों में भी अभिनय किया है। वे 'हैरोल्ड एंड कुमार गो टू व्हाइट कैसल', 'सुपरमैन रिटर्न्स' और 'द नेमसेक' जैसी फिल्मों में भी अभिनय कर चुके हैं। उन्होंने अमेरिकी सरकार में एक सिविल सर्वेंट के तौर पर भी काम किया है और वे हिंदू धर्म के पक्के समर्थक हैं।


••● रिकी विलियम्स-


जे मासिस, एक गिटारिस्ट, एक गायक और एक बास प्लेयर हैं। उनका नाम रोलिंग स्टोन मैग्जीन के 10 महानतम गिटारिस्ट में शामिल हो चुका है। 2005 में उन्होंने अपना एक एल्बम रिलीज किया था जिसका नाम 'जे एंड फ्रैंड्स सिंग एंड चैंट फॉर अम्मा' था। इस एल्बम के गानों में हिंदू धर्म की एक आध्यात्मिक गुरुमाता आनंदमयी की तारीफ की गई थी।


••● अनिरुद्ध ज्ञानशिख: पाकिस्तानी मूल के ब्रिटिश लेखक अनवर शेख युवावस्था में कट्टर मुस्लिम थे और भारत विभाजन के दौरान उन्होंने गैर मुस्लिमों की हत्या भी की थी। बाद में उन्हें इस कार्य के लिए पश्चाताप अनुभव हुआ तो उन्होंने धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन आरम्भ किया और अन्त में हिन्दू धर्म में अपने नैतिक प्रश्नों का सही उत्तर पाकर हिन्दू हो गये। हिन्दू होने के बाद उन्होंने अपना नाम अनिरुद्ध ज्ञानशिख रख लिया था।


••● संत हरिदास: बंगाल के प्रसिद्ध वैष्णव संत हरिदास का जन्म एक मुस्लिम काजी के परिवार में हुआ था। उन्होंने चैतन्य महाप्रभु से वैष्णव धर्म की दीक्षा ली थी और धर्मद्रोह के आरोप में शहर काजी द्वारा दी गयी कोड़े खाने की सजा खाने के बाद भी अपनी धर्मनिष्ठा से विचलित नहीं हुए थे।


••● डॉक्टर आनंद सुमन: डॉक्टर आनंद सुमन का नाम सन् 80 से आरम्भ हुए दशक में चर्चित था। ये छतारी के नवाब के वंशज थे जो इस्लाम त्यागकर हिन्दू हो गये थे।


••● महन्त गुलाबनाथ: महन्त गुलाबनाथ नाथ सम्प्रदाय के प्रतिष्ठित सन्त थे तथा योगी आदित्यनाथ व उनके गुरु महन्त अवैद्यनाथ द्वारा आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। ये जन्म से मुस्लिम थे और इनका असली नाम गुल मुहम्मद था।


••● आशीष खान देवशर्मा: आशीष खान देवशर्मा प्रख्यात सरोदवादक हैं जिन्होंने हिन्दू धर्म स्वीकार करने के बाद अपने नाम में देवशर्मा जोड़ लिया है।


••● M.I.A: ये इंग्लिश कलाकार श्रीलंकाई मूल की हैं। वे एक पेंटर, डायरेक्टर और गीतकार भी हैं। उनके गानों में हिपहॉप, डांस और इलेक्ट्रॉनिक म्यूजिक प्रमुखता से होता है। उन्होंने अपना कैरियर फिल्ममेकिंग और डिजाइन में शुरू किया था। उन्होंने दावा किया था कि उनका फेमस 'सुपर बॉल मिडिल फिंगर' एक्ट देवी मतंगी को दिया गया ट्रिब्यूट था। मतंगी एक हिंदू देवी हैं।


••● माइली साइरस: माइली अपने संगीत के साथ ही अपने ड्रेसिंग सेंस के चलते भी चर्चा में रहती हैं। कुछ साल पहले वे तब चर्चा में आ गई थीं, जब उन्होंने अपने घर में लक्ष्मी की पूजा की थी और इसकी फोटो अपने इंस्टाग्राम पर अपलोड की थी। हालांकि बाद में यह फोटो हटा ली गई थी। लोगों का कहना था कि ऐसा उन्होंने अपने कैरियर में समृद्धि के लिए किया था। हालांकि इस बात को पुख्ता तौर पर नहीं कहा जा सकता कि वे हिंदू धर्म में कंवर्ट हो चुकी हैं।


हालांकि हिन्दू धर्म में औपचारिक धर्मान्तरण की व्यवस्था नहीं है। ऐसे में ऐतिहासिक व्यक्तित्वों- अकबर, कबीर व रसखान जैसे व्यक्तियों ने भी अनेक हिन्दू विश्वासों को स्वीकारने के बाद भी अपने को हिन्दू धर्म या उसके किसी सम्प्रदाय का अनुयायी नहीं घोषित किया था। इसी प्रकार विजयनगर के राजाओं हरिहर व बुक्का तथा शिवाजी के मित्र नेताजी पालेकर जैसे उन व्यक्तियों को भी छोड़ा जा सकता है जो मुसलमान होने के बाद भी पुनः हिन्दू धर्म में लौट आये।


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हिंदू संस्कृति के प्रति विश्वभर के महान विद्वानों की अगाध श्रद्धा अकारण नहीं रही है। इस संस्कृति की उस आदर्श आचार संहिता ने समस्त वसुधा को आध्यात्मिक एवं भौतिक उन्नति से पूर्ण किया, जिसे हिन्दुत्व के नाम से जाना जाता है।


हिन्दू धर्म का यह पूरा वर्णन नहीं है। इससे भी कई गुणा ज्यादा महिमा है क्योंकि हिन्दू धर्म सनातन धर्म है; इसके बारे में संसार की कोई कलम पूरा वर्णन नहीं कर सकती। आखिर में हिन्दू धर्म का श्लोक लिखकर विराम देते हैं।


सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया,

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग् भवेत्।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।


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जानिए नारदजी की कैसी थी लोकहितकारी पत्रकारिता

27 मई 2021

azaadbharat.org


पत्रकारिता की तीन प्रमुख भूमिकाएं हैं...

1)सूचना देना,

2)शिक्षित करना और

3) मनोरंजन करना।



गांधीजी ने हिन्द स्वराज में पत्रकारिता की इन तीनों भूमिकाओं को और अधिक विस्तार दिया है।


लोगों की भावनाएं जानना और उन्हें जाहिर करना। लोगों में जरूरी भावनाएं पैदा करना। यदि लोगों में दोष है तो किसी भी कीमत पर बेधड़क होकर उनको दिखाना।


भारतीय परम्पराओं में भरोसा करने वाले विद्वान मानते हैं कि देवर्षि नारद की पत्रकारिता ऐसी ही थी। देवर्षि नारद सम्पूर्ण और आदर्श पत्रकारिता के संवाहक थे। वे महज सूचनाएं देने का ही कार्य नहीं बल्कि सार्थक संवाद का सृजन करते थे।


दवताओं, दानवों और मनुष्यों- सबकी भावनाएं जानने का उपक्रम किया करते थे। जिन भावनाओं से लोकमंगल होता हो, ऐसी ही भावनाओं को जगजाहिर किया करते थे।


इससे भी आगे बढ़कर देवर्षि नारद घोर उदासीन वातावरण में भी लोगों को सद्कार्य के लिए उत्प्रेरित करने वाली भावनाएं जागृत करने का अनूठा कार्य किया करते थे।


दादा माखनलाल चतुर्वेदी के उपन्यास 'कृष्णार्जुन युद्ध' को पढ़ने पर ज्ञात होता है कि किसी निर्दोष के खिलाफ अन्याय हो रहा हो तो फिर वे अपने आराध्य भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण और उनके प्रिय अर्जुन के बीच भी युद्ध की स्थिति निर्मित कराने से नहीं चूकते। उनके इस प्रयास से एक निर्दोष यक्ष के प्राण बच गए।


यानी पत्रकारिता के सबसे बड़े धर्म और साहसिक कार्य- किसी भी कीमत पर समाज को सच से रू-ब-रू कराने से वे पीछे नहीं हटते थे।


सच का साथ उन्होंने अपने आराध्य के विरुद्ध जाकर भी दिया। यही तो है सच्ची पत्रकारिता, निष्पक्ष पत्रकारिता।

किसी के दबाव या प्रभाव में न आकर अपनी बात कहना।


मनोरंजन उद्योग ने भले ही फिल्मों और नाटकों के माध्यम से उन्हें विदूषक के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया हो, लेकिन देवर्षि नारद के चरित्र का बारीकी से अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होता है कि उनका प्रत्येक संवाद लोक कल्याण के लिए था। सिर्फ मूर्ख ही उन्हें कलहप्रिय कह सकते हैं।


नारदजी धर्माचरण की स्थापना के लिए ही सभी लोकों में विचरण करते थे । उनसे जुड़े सभी प्रसंगों के अंत में शांति, सत्य और धर्म की स्थापना का जिक्र आता है। स्वयं के सुख और आनंद के लिए वे सूचनाओं का आदान-प्रदान नहीं करते थे, बल्कि वे तो प्राणी-मात्र के आनंद का ध्यान रखते थे।


भारतीय परम्पराओं में भरोसा नहीं करनेवाले 'बुद्धिजीवी' भले ही देवर्षि नारद को प्रथम पत्रकार, संवाददाता या संचारक न मानें, लेकिन पथ से भटक गई भारतीय पत्रकारिता के लिए आज नारदजी ही सही मायने में आदर्श हो सकते हैं।


भारतीय पत्रकारिता और पत्रकारों को अपने आदर्श के रूप में नारदजी को देखना चाहिए, उनसे मार्गदर्शन लेना चाहिए । मिशन से प्रोफेशन बनने पर पत्रकारिता को इतना नुकसान नहीं हुआ था जितना कॉरपोरेट कल्चर के आने से हुआ है।


पश्चिम की पत्रकारिता का असर भी भारतीय मीडिया पर चढ़ने के कारण समस्याएं आई हैं। स्वतंत्रता आंदोलन में जिस पत्रकारिता ने 'एक स्वतंत्रता सेनानी' की भूमिका निभाई थी, वह पत्रकारिता अब धन्ना सेठों के कारोबारों की चौकीदार बनकर रह गई है।


पत्रकार इन धन्ना सेठों के इशारे पर कलम घसीटने को मजबूर महज मजदूर हैं। संपादक प्रबंधक हो गए हैं। उनसे लेखनी छीनकर, उन्हें लॉबिंग की जिम्मेदारी पकड़ा दी गई है।


आज कितने संपादक और प्रधान संपादक हैं जो नियमित लेखन कार्य कर रहे हैं...???

कितने संपादक हैं, जिनकी लेखनी की धमक है...???

कितने संपादक हैं, जिन्हें समाज में मान्यता है..???


'जो हुक्म सरकारी, वही पकेगी तरकारी' की कहावत को पत्रकारों ने जीवन में उतार लिया है।

मालिक जो हुक्म संपादकों को देता है, संपादक उसे अपनी टीम तक पहुंचा देता है। तयशुदा ढांचे में पत्रकार अपनी लेखनी चलाता है।

अब तो किसी भी खबर को छापने से पहले संपादक ही मालिक से पूछ लेते हैं- 'ये खबर छापने से आपके व्यावसायिक हित प्रभावित तो नहीं होंगे?'


खबरें कम विज्ञापन अधिक हैं।


'लक्षित समूहों' को ध्यान में रखकर खबरें लिखी और रची जा रही हैं। मोटी पगार की खातिर संपादक सत्ता ने मालिकों के आगे घुटने टेक दिए हैं। आम आदमी के लिए अखबारों और टीवी चैनल्स पर कहीं जगह नहीं है।


एक किसान की 'पॉलिटिकल आत्महत्या' होती है तो वह खबरों की सुर्खी बनती है। पहले पन्ने पर लगातार जगह पाती है। चैनल्स के प्राइम टाइम पर किसान की चर्चा होती है।


लेकिन इससे पहले बरसों से आत्महत्या कर रहे किसानों की सुध कभी मीडिया ने नहीं ली। जबकि भारतीय पत्रकारिता की चिंता होनी चाहिए- अंतिम व्यक्ति।


आखिरी आदमी की आवाज दूर तक नहीं जाती, उसकी आवाज को बुलंद करना पत्रकारिता का धर्म होना चाहिए; जो है तो, लेकिन व्यवहार में ऐसा कहीं भी दिखता नहीं है।


पत्रकारिता के आसपास


आजाद भारत, [27/05/2021 7:37 PM]

विश्वसनीयता का धुंध गहराता जा रहा है। पत्रकारिता की इस स्थिति के लिए कॉरपोरेट कल्चर ही एकमात्र दोषी नहीं है। बल्कि पत्रकार बंधु भी कहीं न कहीं दोषी हैं।


जिस उमंग के साथ वे पत्रकारिता में आए थे, उसे उन्होंने खो दिया।


'समाज के लिए कुछ अलग' और 'कुछ अच्छा' करने की इच्छा के साथ पत्रकारिता में आए युवाओं ने भी कॉरपोरेट कल्चर के साथ सामंजस्य बिठा लिया है।


बहरहाल, भारतीय पत्रकारिता की स्थिति पूरी तरह खराब भी नहीं है। बहुत-से संपादक-पत्रकार आज भी उसूलों के पक्के हैं। उनकी पत्रकारिता खरी है। उनकी कलम बिकी नहीं है। उनकी कलम झुकी भी नहीं है।


आज भी उनकी लेखनी आम आदमी के लिए है। लेकिन, यह भी कड़वा सच है कि ऐसे 'नारद पत्रकारों' की संख्या बेहद कम है। यह संख्या बढ़ सकती है।


कयोंकि सब अपनी इच्छा से बेईमान नहीं हैं। सबने अपनी मर्जी से अपनी कलम की धार को कुंद नहीं किया है। सबके मन में अब भी 'कुछ' करने का माद्दा है। वे आम आदमी, समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए लिखना चाहते हैं, लेकिन राह नहीं मिल रही है।


ऐसी स्थिति में देवर्षि नारद उनके आदर्श हो सकते हैं। आज की पत्रकारिता और पत्रकार नारदजी से सीख सकते हैं कि तमाम विपरीत परिस्थितियां होने के बाद भी कैसे प्रभावी ढंग से लोक कल्याण की बात कही जाए।


पत्रकारिता का एक धर्म है- निष्पक्षता


आपकी लेखनी तब ही प्रभावी हो सकती है जब आप निष्पक्ष होकर पत्रकारिता करें। पत्रकारिता में आप पक्ष नहीं बन सकते।


हां, पक्ष बन सकते हो लेकिन केवल सत्य का पक्ष।

भले ही नारद देवर्षि थे लेकिन वे देवताओं के पक्ष में नहीं थे। वे प्राणीमात्र की चिंता करते थे। देवताओं की तरफ से भी कभी अन्याय होता दिखता तो राक्षसों को आगाह कर देते थे।


देवता होने के बाद भी नारदजी बड़ी चतुराई से देवताओं की अधार्मिक गतिविधियों पर कटाक्ष करते थे, उन्हें धर्म के रास्ते पर वापस लाने के लिए प्रयत्न करते थे।


नारदजी घटनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं, प्रत्येक घटना को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखते हैं, इसके बाद निष्कर्ष निकाल कर सत्य की स्थापना के लिए संवाद सृजन करते हैं।


आज की पत्रकारिता में इसकी बहुत आवश्यकता है। जल्दबाजी में घटना का सम्पूर्ण विश्लेषण न करने के कारण गलत समाचार जनता में चला जाता है।


बाद में या तो खण्डन प्रकाशित करना पड़ता है या फिर जबरन गलत बात को सत्य सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। आज के पत्रकारों को इस जल्दबाजी से ऊपर उठना होगा। कॉपी-पेस्ट कर्म से बचना होगा। जब तक घटना की सत्यता और सम्पूर्ण सत्य प्राप्त न हो जाए, तब तक समाचार बहुत सावधानी से बनाया जाना चाहिए।


कहते हैं कि देवर्षि नारद एक जगह टिकते नहीं थे। वे सब लोकों में निरंतर भ्रमण पर रहते थे। आज के पत्रकारों में एक बड़ा दुर्गुण आ गया है, वे अपनी 'बीट' में लगातार संपर्क नहीं करते हैं। आज पत्रकार ऑफिस में बैठकर, फोन पर ही खबर प्राप्त कर लेता है। इस तरह की टेबल न्यूज अकसर पत्रकार की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न खड़ा करवा देती है।


नारदजी की तरह पत्रकार के पांव में भी चक्कर होना चाहिए। सकारात्मक और सृजनात्मक पत्रकारिता के पुरोधा देवर्षि नारद को आज की मीडिया अपना आदर्श मान ले और उनसे प्रेरणा ले तो अनेक विपरीत परिस्थितियों के बाद भी श्रेष्ठ पत्रकारिता संभव है। आदि पत्रकार देवर्षि नारद ऐसी पत्रकारिता की राह दिखाते हैं, जिसमें समाज के सभी वर्गों का कल्याण निहित है।- लोकेन्द्र सिंह


आज मीडिया की भूमिका अहम है, लेकिन मीडिया सिर्फ ब्लैकमेलिंग का धंधा बनकर रह गई है वो भी हिन्दू संस्कृति को तोड़ने के लिए। आज की मीडिया देश, सनातन संस्कृति तोड़ने के लिए लगी हुई है।


लकिन मीडिया हाउस को ध्यान रखना चाहिए जो सनातन नहीं मिटा रावण की दुष्टता से, जो सनातन नही मिटा कंस की क्रूरता से वो सनातन क्या मिटेगा आज की बिकाऊ मीडिया से।


समय रहते मीडिया चेत जाये तो अच्छा है नहीं तो मीडिया स्वयं अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है।


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