23 अगस्त 2020
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के शुभारंभ का उत्सव मनाते हुए हमें यह भी विचार करना चाहिए कि आखिर मंदिरों का विध्वंस क्यों होता रहा? सही उत्तर पाए बिना मंदिरों की सुरक्षा संदिग्ध बनी रहेगी। आज भी पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नाइजीरिया आदि देशों में मंदिरों, चर्चों के विध्वंस की घटनाएं घट रही हैं। पाकिस्तानी क्षेत्र में 1947 के बाद से सैकड़ों मंदिरों का विध्वंस हुआ।
कश्मीर में असंख्य मंदिर तोड़े गए, मंदिरों का विध्वंस कम्युनिज्म ने भी बड़े पैमाने पर किया।
बीते कुछ दशकों में कश्मीर में भी असंख्य मंदिर तोड़े गए। यह सब एक ही समस्या की विभिन्न अभिव्यक्तियां हैं। नोट करें कि चर्चों, मंदिरों का ध्वंस कम्युनिज्म ने भी बड़े पैमाने पर किया। चीन और तिब्बत में हजारों बौद्ध मठ-मंदिरों को तोड़ा गया। स्टालिन युग में रूस और पूर्वी यूरोप में असंख्य चर्चों को ध्वस्त कर वहां स्वीमिंग पूल आदि बना डाले गए थे। इसका कारण मतवादी दुराग्रह ही था। इसीलिए कम्युनिज्म के खात्मे पर उन्हीं स्थानों पर फिर चर्च बनाए गए।
इस्लामी हमलावरों ने जो काम सदियों पहले किया वही तालिबान, आइएस कर रहे हैं।
इस्लामी हमलावरों द्वारा भी दुनिया भर में चर्च, मंदिर आदि तोड़ने का कारण उनका यह मतवाद है कि इस्लाम के सिवा किसी मत को रहने नहीं देना है। इसीलिए गजनवी औरंगजेब जैसे तमाम हमलावरों एवं शासकों ने जो सदियों पहले किया वही तालिबान, जैसे मुहम्मद, आइएस आदि अभी भी कर रहे हैं। इसके पीछे मतांधता ही है। इसकी अनदेखी करने के दुष्परिणामों का अनुमान कठिन नहीं है। अभी तुर्की में इसी की झलक मिली।
ओटोमन सुल्तान मुहम्मद ने 1453 में हागिया सोफिया चर्च को जबरन मस्जिद में बदला।
चूंकि ईसाई देशों ने हागिया सोफिया को पुन: चर्च बनाने की फिक्र न की इसलिए उसे फिर मस्जिद में बदल डाला गया। इस्लाम के जन्म से भी पहले बना यह चर्च लगभग एक हजार साल तक विश्व का महत्वपूर्ण चर्च था। ओटोमन सुल्तान मुहम्मद ने 1453 में हागिया सोफिया को जबरन मस्जिद में बदला। महान तुर्क नेता मुस्तफा कमाल पाशा ने इस्लामी खलीफत खत्म करने के बाद 1935 में उसे संग्रहालय बना दिया। उसी को अभी फिर मस्जिद कर दिया गया। विस्मरण और स्मरण समानता से हो तभी विश्व में विभिन्न धर्मावलंबी साथ रह सकते हैं। किसी मतवाद को विशेषाधिकार देने पर ऐसे विध्वंस रुकने के बजाय बढ़ेंगे। यही समस्या की मूल गुत्थी है। इसे न छूने से ही भारत में मंदिरों की मुक्ति का प्रश्न लटका रह गया।
गांधी जी ने इस्लामी मतवाद पर चुप रहने की घातक परंपरा बनाई। इसलिए उसके कार्यों को रोकना कठिन हो गया। रूस में तोड़े गए चर्चों की पुर्नस्थापना इसीलिए हुई कि उससे पहले कम्युनिस्ट मतवाद पर प्रश्न उठाकर उसे पराजित किया गया। तुर्की में पाशा ने भी खलीफत, शरीयत खत्म करके ही हागिया सोफिया को संग्रहालय बनाया। इसलिए अन्य हिंदू मंदिरों की मुक्ति मुस्लिमों को राष्ट्रवाद या हिंदू भावनाओं को आदर देने जैसी बातों से नहीं हो सकती। ऐसी बचकानी दलीलें सदैव निष्प्रभावी रहेंगी।
वैश्विक साम्राज्य की चाह रखने वाले मतवादों को बचकानेपन से नहीं झुकाया जा सकता।
विश्व इतिहास से समझना चाहिए कि वैश्विक साम्राज्य की चाह रखने वाले मतवादों को बचकानेपन से नहीं झुकाया जा सकता। मानवीय समानता का यह नियम सामने रखना होगा कि दूसरों के विरुद्ध वह काम न करो जो तुम अपने विरुद्ध दूसरों से नहीं चाहते। इस समानता और सत्यनिष्ठा में ही उपाय है। राजनीतिक इस्लाम के एकमात्र सत्य होने के दावे को कसौटी पर कसकर उसकी असलियत दिखानी होगी।
अगर इस्लामी दावा असत्य है तो मुसलमानों को भी उसे छोड़कर सत्य अपनाना चाहिए।
अगर इस्लामी दावा और विशेषत: उसका मूल राजनीतिक भाग असत्य है तो मुसलमानों को भी उसे छोड़कर सत्य अपनाना चाहिए। यही समान और सत्यनिष्ठ समाधान है। आज नहीं तो कल बहस इसी पर आएगी। इस्लामी संगठन तो सदैव अपने बिंदु पर टिके रहे हैं। आश्चर्यजनक रूप से दूसरे ही इससे बचते हैं। मुस्लिम ब्रदरहुड, इस्लामिक स्टेट, तालिबानी, तब्लीगी आदि तमाम संगठन, शासक और उलेमा इस्लाम की सत्यता के दावे पर ही अपने सारे काम करते हैं। उनकी मार झेलने वाले उस दावे को चुनौती देना छोड़ बाकी सब कुछ करते रहे।
रामजन्मभूमि मंदिर: मुस्लिम पक्ष बार-बार पैंतरा बदलता रहा, हिंदुओं को स्थान न देने पर अड़ा रहा।
युद्ध, बमबारी, उदारतापूर्वक धन देना, अपीलें करना आदि, मगर जिस एक टेक पर राजनीतिक इस्लाम खड़ा है उसे खारिज नहीं करते। तब समाधान हो तो कैसे? हमें रामजन्मभूमि मंदिर के मुक्ति संघर्ष से शिक्षा लेनी चाहिए। मुस्लिम पक्ष बार-बार पैंतरा बदलता रहा, लेकिन हिंदुओं को वह स्थान न देने पर अड़ा रहा, जबकि उसका मुसलमानों के लिए कोई महत्व न था। इसकी तुलना में हिंदुओं के लिए रामजन्मभूमि और अयोध्या सदियों से पवित्र महान तीर्थों में अग्रगण्य है। इसे कुछ कथित सेक्युलर, लिबरल स्वीकार करने से अभी भी बच रहे हैं।
असल लड़ाई संपत्ति की नहीं, वरन साम्राज्यवादी मतवाद बनाम सत्य की है।
अनुभव बताता है कि अन्य हिंदू श्रद्धास्थलों की मुक्ति के लिए फिर वैसा अभियान चलाने के बजाय मूल बिंदु पर आना होगा। असल लड़ाई संपत्ति की नहीं, वरन साम्राज्यवादी मतवाद बनाम सत्य की है। समस्या यह नहीं कि कुछ मुसलमान दूसरों के तीर्थों पर कब्जा रखना चाहते हैं। समस्या वह मतवादी विश्वास है जो उन्हें इसके लिए प्रेरित करता है। जब तमाम इस्लामी संगठन दूसरों को मुसलमान बनाना अपना अधिकार समझते हैं तो उन्हें अधर्म से हटाकर सन्मार्ग पर लाना दूसरों का अधिकार है। इस्लाम को एकमात्र सत्य कहने का उत्तर उसे असत्य साबित करना है। मुसलमानों को राजनीतिक इस्लाम की गलती दिखाना एक शांतिपूर्ण कार्य है। कमाल पाशा ने ठीक यही किया था। उन्होंने इस्लामी मतवाद को पुराना एवं मृत कहकर तुर्की से निकाल बाहर किया था। यह प्रक्रिया अभी भी चल रही है।
वैचारिक चुनौती से ही चर्च की और कम्युनिज्म की तानाशाही पराजित हुई।
दुनिया भर में इस्लाम छोड़ने वाले मुसलमान यानी मुलहिद बढ़ रहे हैं। यह कम्युनिस्ट मतवाद और चर्च मतवाद के साथ पहले हो चुका है। वैचारिक चुनौती से ही मध्ययुग में चर्च की और हाल में कम्युनिज्म की तानाशाही पराजित हुई। कोई युद्ध नहीं हुआ। इस्लामी मतवाद के साथ यह और आसान है, क्योंकि आधुनिक सूचना संसाधनों के युग में सत्य-असत्य की परख करना सबके हाथ में हैं।
दुनिया में मुस्लिम आबादी का बाह्य विस्तार भले हो रहा हो, किंतु भीतर से सांस्कृतिक रिक्तता बढ़ रही है।
अब इस्लाम और शेष विश्व के इतिहास, दर्शन, साहित्य में योगदान को कोई मुस्लिम स्वयं परख सकता है। दुनिया में मुस्लिम आबादी, संस्थानों का बाह्य विस्तार भले हो रहा हो, किंतु भीतर से सांस्कृतिक रिक्तता बढ़ रही है। इमामों, अयातुल्लाओं की सेंसरशिप इंटरनेट ने बेकार कर दी है। विश्व के महान विद्वानों ने इस्लाम की समीक्षाएं की हैं। उनमें मुस्लिम भी हैं। अब वह इंटरनेट की बदौलत सुदूर गांवों तक सहज उपलब्ध है। उसे जानना और मुस्लिमों को जानने के लिए कहना चाहिए। अभी तक ऐसा न करने से ही कट्टरपंथियों ने मुसलमानों को अपनी मुट्ठी में कैद रखा है। यह कैद टूटनी चाहिए। - लेखक राजनीतिशास्त्र प्रोफेसर शंकर शरण
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