Friday, April 7, 2023

तात्या टोपे के जीते जी कभी चैन से नहीं बैठ पाए थे अंग्रेज

7 Apirl 2023

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🚩भारत के इस महान स्वतंत्रता सेनानी का जन्म महाराष्ट्र राज्य के एक छोटे से गांव येवला में हुआ था। ये गांव नासिक के निकट पटौदा जिले में स्थित है। वहीं इनका असली नाम ‘रामचंद्र पांडुरंग येवलकर’ था और ये एक ब्राह्मण परिवार से थे,इनके पिता का नाम पाण्डुरंग त्र्यम्बक भट्ट बताया जाता है। जो कि महान राजा पेशवा बाजीराव द्वितीय के यहां पर कार्य करते थे। इतिहास के अनुसार उनके पिता बाजीराव द्वितीय के गृह-सभा के कार्यों को संभालते थे। भट्ट पेशवा बाजीराव द्वितीय के काफी खास लोगों में से एक थे। वहीं तात्या की माता का नाम रुक्मिणी बाई था और वो एक गृहणी थी। 


🚩अंग्रेजों ने भारत में अपना साम्राज्य फैलाने के मकसद से उस समय के कई राजाओं से उनके राज्य छीन लिए थे। अंग्रेजों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय से भी उनका राज्य छीनने की कोशिश की। लेकिन पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेजों के सामने घुटने टेकने की जगह उनसे युद्ध लड़ना उचित समझा। लेकिन इस युद्ध में पेशवा की हार हुई और अंग्रेंजों ने उनसे उनका राज्य छीन लिया। इतना ही नहीं अंग्रेजों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय को उनके राज्य से निकाल दिया और उन्हें कानपुर के बिठूर गांव में भेज दिया। वहीं तात्या के पिता भी अपने पूरे परिवार सहित बाजीराव द्वितीय के साथ बिठूर में जाकर रहने लगे। जिस वक्त तात्या के पिता उनको बिठूर लेकर गए थे, उस वक्त तात्या की आयु मात्र 4 वर्ष की थी।



🚩बिठूर गांव में ही तात्या टोपे ने युद्ध करने का प्रशिक्षण ग्रहण किया था, तात्या के संबंध बाजीराव द्वितीय के गोद लिए पुत्र नाना साहब के साथ काफी अच्छे थे और इन दोनों ने एक साथ शिक्षा भी ग्रहण की थी।


🚩साल 1857 के विद्रोह में तात्या टोपे की भूमिका 


🚩अंग्रेजों द्वारा हर साल पेशवा को 8 लाख रुपये पेंशन के रूप में दिए जाते थे। लेकिन जब उनकी मृत्यु हो गई तो अंग्रेजों ने उनके परिवार को ये पेंशन देना बंद कर दिया। इतना ही नहीं उन्होंने उनके गोद लिए पुत्र नाना साहब को उनका उत्तराधिकारी मानने से भी इंकार कर दिया। वहीं अंग्रेजों द्वारा लिए गए इस निर्णय से नाना साहब और तात्या काफी नाराज थे और यहां से ही उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ रणनीति बनाना शुरू कर दिया। वहीं साल 1857 में जब देश में स्वतंत्रता संग्राम शुरू होने लगा तो इन दोनों ने इस संग्राम में हिस्सा लिया। नाना साहब ने तात्या टोपे को अपनी सेना की जिम्मेदारी देते हुए उनको अपनी सेना का सलाहकार मानोनित किया। वहीं अंग्रेजों ने साल 1857 में कानुपर पर हमला कर दिया और ये हमला ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की अगुवाई में किया गया था। नाना ज्यादा समय तक अंग्रेजों से सामना नहीं कर पाए और उनकी हार हो गई। हालांकि इस हमले के बाद भी नाना साहब और अंग्रेजों की बीच और कई युद्ध हुए। लेकिन उन सभी युद्ध में नाना की हार ही हुई। वहीं नाना ने कुछ समय बाद कानपुर को छोड़ दिया और वो अपने परिवार के साथ नेपाल जाकर रहने लगे। कहा जाता है कि नेपाल में ही उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली थी।


🚩वहीं अंग्रेजों के साथ हुए युद्ध में पराजय मिलने के बाद भी तात्या टोपे ने हार नहीं मानी और उन्होंने अपनी खुद की एक सेना का गठन किया। तात्या ने अपनी सेना की मदद से कानपुर को अंग्रेजों के कब्जे से छुड़ाने के लिए रणनीति तैयार की थी। लेकिन हैवलॉक ने बिठूर पर भी अपनी सेना की मदद से धावा बोल दिया और इस जगह पर ही तात्या अपनी सेना के साथ थे। इस हमले में एक बार फिर तात्या की हार हुई थी। लेकिन तात्या अंग्रेजों के हाथ नहीं लगे और वहां से भागने में कामयाब हुए।


🚩तात्या और रानी लक्ष्मी बाई


🚩जिस तरह से अंग्रेजों ने नाना साहब को बाजीराव पेशवा का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया था। वैसे ही अंग्रेजों ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के गोद दिए पुत्र को भी उनकी संपत्ति का वारिस नहीं माना। वहीं अंग्रेजों के इस निर्णय से तात्या काफी गुस्से में थे और उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई की मदद करने का फैसला किया। कहा जाता है कि तात्या पहले से ही रानी लक्ष्मीबाई को जानते थे और ये दोनों मित्र थे।


🚩साल 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ हुए विद्रोह में रानी लक्ष्मीबाई ने भी बढ़-चढ कर हिस्सा लिया था और ब्रिटिश इस विद्रोह से जुड़े हर व्यक्ति को चुप करवाना चाहते थे । साल 1857 में सर ह्यूरोज की आगुवाई में ब्रिटिश सेना ने झांसी पर हमला कर दिया था। वहीं जब तात्या टोपे को इस बात का पता चला तो उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई की मदद करने का फैसला लिया। तात्या ने अपनी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश सेना का मुकाबला किया और लक्ष्मीबाई को अंग्रेजों के शिकंजे से बचा लिया। इस युद्ध पर विजय प्राप्त करने के बाद रानी और तात्या टोपे कालपी चले गए। जहां पर जाकर इन्होंने अंग्रेजों से लड़ने के लिए अपने आगे की रणनीति तैयार की।

तात्या जानते थे, की अंग्रेजों को हराने के लिए उनको अपनी सेना को और मजबूत करना होगा। अंग्रेजों का सामना करने के लिए तात्या ने एक नई रणनीति बनाते हुए महाराजा जयाजी राव सिंधिया के साथ हाथ मिला लिया। जिसके बाद इन दोनों ने साथ मिलकर ग्वालियर के प्रसिद्ध किले पर अपना आधिकार कायम कर लिया। तात्या के इस कदम से अंग्रेजों को काफी धक्का लगा और उन्होंने तात्या को पकड़ने की अपनी कोशिशों को और तेज कर दिया। वहीं 18 जून, 1858 में ग्वालियर में हुए अंग्रेजों के खिलाफ एक युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई हार गई और उन्होंने अंग्रेजों से बचने के लिए खुद को आग के हवाले कर दिया।


🚩तात्या टोपे का संघर्ष


🚩अंग्रेजों ने अपने खिलाफ शुरू हुए हर विद्रोह को लगभग खत्म कर दिया था। लेकिन अंग्रेजों के हाथ तात्या टोपे अभी तक नहीं लगे थे। ब्रिटिश इंडिया तात्या को पकड़ने की काफी कोशिशें करती रही, लेकिन तात्या अपना ठिकाना समय-समय पर बदलते रहे।


🚩तात्या टोपे की मृत्यु


🚩कहा जाता है कि तात्या कभी भी अंग्रेजों के हाथ नहीं लगे थे और उन्होंने अपनी अंतिम सांस गुजरात राज्य में साल 1909 में ली थी। तात्या ने राजा मानसिंह के साथ मिलकर एक रणनीति तैयार की थी जिसके चलते अंग्रेजों ने किसी दूसरे व्यक्ति को तात्या समझकर पकड़ लिया था और उसको फांसी दे दी थी। तात्या के जिंदा होने के सबूत समय-समय पर मिलते रहे हैं और तात्या टोपे के भतीजे ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि तात्या को कभी भी फांसी नहीं दी गई थी।


🚩तात्या टोपे से जुड़ी अन्य जानकारी-


🚩तात्या टोपे ने अंग्रेजों के खिलाफ लगभग 150 युद्ध लड़े हैं, जिसके चलते अंग्रेजों को काफी नुकसान हुए था और उनके करीब 10 ,000 सैनिकों की मृत्यु इन युद्धों के दौरान हुई थी।


🚩तात्या टोपे ने कानपुर को ब्रिटिश सेना से छुड़वाने के लिए कई युद्ध किए। लेकिन उनको कामयाबी मई, 1857 में मिली और उन्होंने कानपूर पर कब्जा कर लिया। हालांकि ये जीत कुछ दिनों तक ही थी और अंग्रेजों ने वापस से कानपुर पर कब्जा कर लिया था।


🚩भारत सरकार द्वारा दिया गया सम्मान

तात्या टोपे द्वारा किए गए संघर्ष को भारत सरकार द्वारा भी याद रखा गया और उनके सम्मान में भारत सरकार ने एक डाक टिकट भी जारी किया था। इस डाक टिकट के ऊपर तात्या टोपे की फोटो बनाई गई थी। इसके अलावा मध्य प्रेदश में तात्या टोपे मेमोरियल पार्क भी बनवाया गया है। जहां पर इनकी एक मूर्ती लगाई गई है। ताकि हमारे देश की आने वाले पीढ़ी को इनका बलिदान   याद रहे।


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