21 नवम्बर 2018
महान वीरांगना झलकारीबाई को भी याद करने का दिन 22 नवम्बर है जिनकी वीरता किसी भी मायने में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई से कम नहीं थी, पर अफसोस उन्हें इतिहास और हमारे हृदयों में वो स्थान नहीं मिल पाया जो मिलना चाहिए था । ये महान वीरांगना थी, झलकारीबाई जो झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में, महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं । 22 नवंबर 1830 को झांसी के पास के भोजला गाँव में एक निर्धन कोली परिवार में सदोवर सिंह और जमुना देवी के घर में जन्मी झलकारी को कोई औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं हो पाई, लेकिन उन्होनें घुड़सवारी और हथियारों का प्रयोग करने में महारत हासिल करके खुद को एक अच्छे योद्धा के रूप में विकसित कर लिया । उनकी बहादुरी ही झाँसी की सेना के सिपाही पूरन कोरी से उनके विवाह का माध्यम बनी जो अपनी वीरता के लिए पूरे झाँसी में प्रसिद्ध थे ।
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एक बार गौरी पूजा के अवसर पर झलकारी गाँव की अन्य महिलाओं के साथ महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले मे गयीं, वहाँ रानी लक्ष्मीबाई उन्हें देख कर अवाक रह गयी क्योंकि झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह दिखतीं थीं (दोनो के रूप में आलौकिक समानता थी)। अन्य औरतों से झलकारी की बहादुरी के किस्से सुनकर रानी लक्ष्मीबाई बहुत प्रभावित हुईं । रानी ने झलकारी को दुर्गा सेना में शामिल करने का आदेश दिया । झलकारी ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी का प्रशिक्षण लिया ।
यह वह समय था जब झांसी की सेना को किसी भी ब्रिटिश दुस्साहस का सामना करने के लिए मजबूत बनाया जा रहा था । चूँकि वे रानी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं इस कारण शत्रु को धोखा देने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं । अपने अंतिम समय में भी वे रानी के वेश में युद्ध करते हुए वे अंग्रेज़ों के हाथों पकड़ी गयीं और रानी को किले से भाग निकलने का अवसर मिल गया । कहा जाता है कि झलकारी बाई का पति पूरन किले की रक्षा करते हुए शहीद हो गया लेकिन झलकारी ने बजाय अपने पति की मृत्यु का शोक मनाने के, ब्रिटिशों को धोखा देने की एक योजना बनाई ।
जब किले का पतन निश्चित हो गया तो रानी के सेनापतियों और झलकारी बाई ने उन्हें कुछ सैनिकों के साथ किला छोड़कर भागने की सलाह दी । योजनानुसार महारानी लक्ष्मीबाई एवं झलकारी दोनों पृथक-पृथक द्वार से किले बाहर निकलीं । झलकारी ने तामझाम अधिक पहन रखा था जिस कारण शत्रु ने उन्हें ही रानी समझा और उन्हें ही घेरने का प्रयत्न किया । रानी अपने घोड़े पर बैठ अपने कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ झांसी से दूर निकल गईं । शत्रु सेना से घिरी झलकारी भयंकर युद्ध करने लगी । एक भेदिए ने पहचान लिया और उसने भेद खोलने का प्रयत्न किया । वह भेद खोले, इसके पूर्व ही झलकारी ने उसे अपनी गोली का निशाना बनाया । दुर्भाग्य से वह गोली एक ब्रिटिश सैनिक को लगी और वह गिरकर मर गया । वह भेदिया तो बच गया पर झलकारी घेर ली गई ।
ब्रिटिश शिविर में पहँचने पर उसने चिल्लाकर कहा कि वो जनरल ह्यूग रोज़ से मिलना चाहती है । रोज़ और उसके सैनिक प्रसन्न थे कि न सिर्फ उन्होने झांसी पर कब्जा कर लिया है बल्कि जीवित रानी भी उनके कब्ज़े में है । जनरल ह्यूग रोज़, जो उसे रानी ही समझ रहा था, ने झलकारी बाई से पूछा कि उसके साथ क्या किया जाना चाहिए ? तो उसने दृढ़ता के साथ कहा,मुझे फाँसी दो । एक अन्य ब्रिटिश अफसर ने कहा--“मुझे तो यह स्त्री पगली मालूम पड़ती है ।” जनरल रोज ने इसका तत्काल उत्तर देते हुए कहा---“यदि भारत की एक प्रतिशत नारियाँ इसी प्रकार पागल हो जाएँ तो हम अंग्रेजों को सब कुछ छोड़कर यहाँ से चले जाना होगा।”
उधर डोली में बैठी झलकारी बाई को देखकर फिरंगी दल भौंचक्का रह गया । रानी आ गई, झांसी की रानी ने समर्पण कर दिया है, जैसी चर्चा हर सैनिक कर रहा था। डोली जैसे ही सेना के बीच पहुंची, गद्दार दूल्हाजू ने शोर मचा दिया कि अरे यह रानी नहीं है झलकारी है ।उसके बताने पर पता चला कि यह रानी लक्ष्मी बाई नहीं बल्कि महिला सेना की सेनापति झलकारी बाई है जो अग्रेंजी सेना को धोखा देने के लिए रानी लक्ष्मीबाई बन कर लड़ रही है । ब्रिटिश सेनापति रोज ने झलकारी को डपटते हुए कहा कि-“आपने रानी बनकर हमको धोखा दिया है और महारानी लक्ष्मीबाई को यहाँ से निकालने में मदद की है। आपने हमारे एक सैनिक की भी जान ली है। मैं भी आपके प्राण लूँगा।”
झलकारी ने गर्व से उत्तर देते हुए कहा-“मार दे गोली, मैं प्रस्तुत हूँ।” सैनिक डोली पर झपटे कि झलकारी तुरन्त घोड़े पर सवार हो गई । तलवार म्यान से बाहर निकाल कर मारकाट करने लगी । ह्यूरोज जमीन पर गिर पड़ा, घबराकर बोला बहादुर औरत शाबास । जिस रानी की नौकरानी इतनी बहादुर है वह रानी कैसी होगी । झलकारी बाई ने बढ़ती हुई अंग्रेज सेना को रोका और द्रुतगति से मारकाट करने लगी । काफी संघर्ष के बाद जनरल रोज ने झलकारी को एक तम्बु में कैद कर लिया । इसके आगे इस विषय पर कुछ मतभेद है कि झलकारी बाई का अंत कैसे हुआ ।
वृंदावनलाल वर्मा, जिन्होने पहली बार झलकारीबाई का उल्लेख उनकी “झांसी की रानी” पुस्तक में किया था, के अनुसार रानी और झलकारीबाई के संभ्रम का खुलासा होने के बाद ह्यूरोज ने झलकारीबाई को मुक्त कर दिया था । उनके अनुसार झलकारी बाई का देहांत एक लंबी उम्र जीने के बाद हुआ था (उनके अनुसार उन्होने खुद झलकारीबाई के नाती से जानकारी ली थी)। बद्री नारायण अपनी Women heroes and Dalit assertion in north India: culture, identity and politics नाम की किताब में वर्मा जी से सहमत दिखते हैं । इस किंवदंती के अनुसार जनरल ह्यूरोज झलकारी का साहस और उसकी नेतृत्व क्षमता से बहुत प्रभावित हुआ, और झलकारी बाई को रिहा कर दिया था पर वो अंग्रेज जिन्होंने लाखों निर्दोष मनुष्यों और अनगिनत क्रांतिकारियों को कूर तरीकों से मारा था उनसे इस काम की आशा की ही नहीं जा सकती अतः यह केवल एक कयास मात्र लगता है ।
दूसरे पक्ष के कुछ इतिहासकारों का कहना है कि उन्हें अंग्रेजों द्वारा फाँसी दे दी गई, वहीं कुछ का कहना है कि उनका अंग्रेजों की कैद में जीवन समाप्त हुआ । इसके विपरीत कुछ इतिहासकार मानते हैं कि झलकारी इस युद्ध के दौरान वीरगति को प्राप्त हुई जो कि सहीं मालूम पड़ता है । श्रीकृष्ण सरल ने अपनी Indian revolutionaries: a comprehensive study, 1757-1961, Volume 1 पुस्तक में उनकी मृत्यु लड़ाई के दौरान हुई थी, ऐसा वर्णित किया है । अखिल भारतीय युवा कोली राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. नरेशचन्द्र कोली के अनुसार 4 अप्रैल 1857 को झलकारी बाई ने वीरगति प्राप्त की ।
झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है । वीरांगना झलकारी बाई का सबसे पहले उल्लेख बुन्देलखण्ड के सुप्रसिद्ध साहित्यिक इतिहासकार वृन्दावन लाल वर्मा ने अपने उपन्यास लक्ष्मीबाई में किया था जिसके बाद में धीरे - धीरे अनेक विद्वानों, सहित्यकारों, इतिहासकारों ने झलकारी के स्वतन्त्रता संग्राम के योगदान का उदघाटित किया। अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल (21-10-1993 से 16-05-1999 तक) और श्री माता प्रसाद ने झलकारी बाई की जीवनी की रचना की है। इसके अलावा चोखेलाल वर्मा ने उनके जीवन पर एक वृहद काव्य लिखा है, मोहनदास नैमिशराय ने उनकी जीवनी को पुस्तकाकार दिया है और भवानी शंकर विषारद ने उनके जीवन परिचय को लिपिबद्ध किया है।
झलकारी बाई का विस्तृत इतिहास भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण के प्रकाशन विभाग ने झलकारी बाई शीर्षक से ही प्रकाशित किया है । झांसी के इतिहासकारों में से अधिकतर ने वीरांगना झलकारी बाई को नियमित स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में सम्मिलित नहीं किया किन्तु बुन्देली के सुप्रसिद्ध गीतकार महाकवि अवधेश ने झलकारी बाई शीर्षक से एक नाटक लिखकर वीरांगना झलकारीबाई की ऐतिहासिकता प्रमाणित की है ।
वीरांगना झलकारी बाई के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में दिये गये योगदान से देश का अधिकतर जनमानस तो परिचित नहीं है किन्तु एक नकारात्मक घटना ने उन्हें कम से कम बुंदेलखंड क्षेत्र में जन - जन से परिचित करा दिया। हुआ यों कि मार्च 2010 में आगरा के दो प्रकाशकों चेतना प्रकाशन और कुमार पाब्लिकेशन ने बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय झांसी के पाठयक्रम के अनुसार एक पुस्तक प्रकाशित की जिसमें उन्होंने बहु विकल्पीय प्रश्नों में वीरांगना झलकारी को नर्तकी की श्रेणी में प्रकाशित कर वीरांगना को अपमानित करने का प्रयास किया ।
इन दोनों प्रकाशनों का राजनैतिक व्यक्तियों, सामाजिक संगठनों, बुद्धजीवियों, साहित्यकारों, पत्रकारों ने कड़ा विरोध किया और प्रकाशक के विरोध में समाज के विभिन्न क्षेत्रों से व्यक्त किये गये आक्रोश से स्वयंसिद्ध हो गया कि राष्ट्र के लिए त्याग और बलिदान की मिसाल पेश करने वाली वीरांगना को नर्तकी की श्रेणी में रखना केवल वीरांगना झलकारीबाई का ही अपमान नहीं था बल्कि झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम और देश की आजादी के लिए प्राण न्यौछावर करने वाले शहीदों का घोर अपमान था । लोगों का गुस्सा तब शान्त हुआ जब झांसी के मण्डलायुक्त के आदेश पर प्रकाशक के विरूद्ध मुकदमा पंजीकृत हो गया । वीरांगना झलकारी बाई के बारे में इस प्रकार की अपमान जनक टिप्पणी प्रकाशित करने के पहले भले ही आम जनमानस उनके योगदान को न जानता रहा हो किन्तु उस समय से समाज के सजग पाठक अवश्य परिचित हो गये है ।
यूँ तो भारत सरकार ने 22 जुलाई 2001 में झलकारी बाई के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया है था परन्तु कड़वा सच यही है कि हम कृतघ्नों ने अपने इन महान पूर्वजों को बिसरा दिया और ख़ास तौर पर उन्हें जिनका सम्बन्ध तथाकथित उच्च वर्ग से नहीं था । हमें अपनी इस गलती को सुधारना चाहिए और इन महान आत्माओं को उचित स्थान देना चाहिए । त्याग और बलिदान की अनूठी मिसाल पेश करने वाली वीरांगना झलकारीबाई को शत शत नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि ।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने झलकारी की बहादुरी को निम्न प्रकार पंक्तिबद्ध किया है -
जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झाँसी की झलकारी थी।
गोरों से लड़ना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी।
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