शक्ति और शांति के पुंज, शहीदों के सरताज, सिखों के पांचवें गुरु श्री अर्जुन देव जी कि शहादत अतुलनीय है। मानवता के सच्चे सेवक, धर्म के रक्षक, शांत और गंभीर स्वभाव के स्वामी श्री गुरु अर्जुन देव जी अपने युग के सर्वमान्य लोकनायक थे। वह दिन-रात संगत कि सेवा में लगे रहते थे। श्री गुरु अर्जुन देव जी सिख धर्म के पहले शहीद थे।
#भारतीय #दशगुरु परम्परा के #पंचम #गुरु श्री गुरु अर्जुनदेव जी गुरु #रामदास के #सुपुत्र थे। उनकी माता का नाम बीवी भानी जी था।
Guru Arjan Devaji was the first martyr, after which the Mughalos began to perish ...
उनका जन्म 15 अप्रैल, 1563 ई. को हुआ था। प्रथम सितंबर 1581 को वे गुरु गद्दी पर विराजित हुए। 8 जून 1606 को उन्होंने #धर्म व सत्य कि रक्षा के लिए 43 वर्ष की आयु में अपने प्राणों की आहुति दे दी।
संपादन कला के गुणी गुरु अर्जुन देव जी ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का संपादन भाई गुरदास की सहायता से किया। उन्होंने रागों के आधार पर श्री ग्रंथ साहिब जी में संकलित वाणियों का जो वर्गीकरण किया है, उसकी मिसाल मध्यकालीन धार्मिक ग्रंथों में दुर्लभ है। यह उनकी सूझ-बूझ का ही प्रमाण है कि श्री ग्रंथ साहिब जी में 36 महान वाणीकारों की वाणियां बिना किसी भेदभाव के संकलित हुई । श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के कुल 5894 शब्द हैं, जिनमें 2216 शब्द श्री गुरु अर्जुन देव जी महाराज के हैं। पवित्र बीड़ रचने का कार्य सम्वत 1660 में शुरू हुआ तथा 1661 सम्वत में यह कार्य संपूर्ण हो गया।
ग्रंथ साहिब के संपादन को लेकर कुछ असामाजिक तत्वों ने अकबर बादशाह के पास यह शिकायत कि, की ग्रंथ में इस्लाम के खिलाफ लिखा गया है लेकिन बाद में जब अकबर को वाणी की महानता का पता चला, तो उन्होंने भाई गुरदास एवं बाबा बुढ्ढाके माध्यम से 51 मोहरें भेंट कर खेद ज्ञापित किया।
#अकबर कि सम्वत 1662 में हुई #मौत के बाद उसका पुत्र #जहांगीर गद्दी पर बैठा जो बहुत ही कट्टर विचारों वाला था। अपनी आत्मकथा ‘#तुजुके_जहांगीरी’ में उसने स्पष्ट लिखा है कि वह गुरु अर्जुन देव जी के बढ़ रहे प्रभाव से बहुत दुखी था। इसी दौरान जहांगीर का पुत्र #खुसरो बगावत करके आगरा से पंजाब की ओर आ गया।
जहांगीर को यह सूचना मिली थी कि गुरु अर्जुन देव जी ने खुसरो की मदद की है इसलिए उसने 15 मई 1606 ई. को गुरु जी को परिवार सहित पकड़ने का हुक्म जारी किया। उनका परिवार मुरतजाखान के हवाले कर घरबार लूट लिया गया। इसके बाद गुरु जी ने शहीदी प्राप्त की। अनेक कष्ट झेलते हुए गुरु जी शांत रहे, उनका मन एक बार भी कष्टों से नहीं घबराया।
गुरु अर्जुन देव जी को लाहौर में 17 जून 1606 ई. को भीषण गर्मी के दौरान ‘यासा’ के तहत लोहे कि गर्म तवी पर बिठाकर #शहीद कर दिया गया। यासा के अनुसार किसी व्यक्ति का #रक्त #धरती पर गिराए बिना उसे यातनाएं देकर शहीद कर दिया जाता है।
गुरु जी के शीश पर गर्म-गर्म रेत डाली गई। जब गुरु जी का शरीर अग्नि के कारण बुरी तरह से जल गया तो इन्हें ठंडे पानी वाले रावी दरिया में नहाने के लिए भेजा गया जहां गुरु जी का पावन शरीर रावी में आलोप हो गया। जिस स्थान पर आप ज्योति ज्योत समाए उसी स्थान पर लाहौर में रावी नदी के किनारे गुरुद्वारा डेरा साहिब (जो अब पाकिस्तान में है) का निर्माण किया गया है। गुरुजी ने लोगों को #विनम्र रहने का #संदेश दिया। आप विनम्रता के पुंज थे। कभी भी आपने किसी को #दुर्वचन नहीं बोले।
#गुरवाणी में आप फर्माते हैं :
‘तेरा कीता जातो नाही मैनो जोग कीतोई॥
मै निरगुणिआरे को गुण नाही आपे तरस पयोई॥
तरस पइया मिहरामत होई सतगुर साजण मिलया॥
नानक नाम मिलै ता जीवां तनु मनु थीवै हरिया॥’
श्री गुरु अर्जुनदेव जी की #शहादत के समय दिल्ली में मध्य एशिया के मुगल वंश के जहांगीर का राज था और उन्हें राजकीय कोप का ही शिकार होना पड़ा। जहांगीर ने श्री गुरु अर्जुनदेव जी को मरवाने से पहले उन्हें अमानवीय यातानाएं दी।
मसलन चार दिन तक #भूखा रखा गया। ज्येष्ठ मास की तपती दोपहर में उन्हें तपते रेत पर बिठाया गया। उसके बाद खौलते पानी में रखा गया। परन्तु श्री गुरु अर्जुनदेव जी ने एक बार भी उफ तक नहीं की और इसे परमात्मा का विधान मानकर स्वीकार किया।
#बाबर ने तो श्री गुरु नानक जी को भी कारागार में रखा था। लेकिन श्री गुरु #नानकदेव जी ने तो पूरे देश में घूम-घूम कर हताश हुई जाति में नई प्राण चेतना फूंक दी। जहांगीर के अनुसार उनका परिवार #मुरतजाखान के हवाले कर लूट लिया गया। इसके बाद गुरु जी ने #शहीदी प्राप्त की। अनेक कष्ट झेलते हुए गुरु जी शांत रहे, उनका मन एक बार भी कष्टों से नहीं घबराया ।
तपता तवा उनके शीतल स्वभाव के सामने सुखदाई बन गया। तपती रेत ने भी उनकी निष्ठा भंग नहीं की। गुरु जी ने प्रत्येक कष्ट हंसते-हंसते झेलकर यही अरदास की-
तेरा कीआ मीठा लागे॥ हरि नामु पदारथ नाटीयनक मांगे॥
जहांगीर द्वारा श्री गुरु अर्जुनदेव जी को दिए गए #अमानवीय #अत्याचार और अन्त में उनकी मृत्यु जहांगीर की योजना का हिस्सा थी । श्री गुरु अर्जुनदेव जी जहांगीर की असली योजना के अनुसार ‘#इस्लाम के अन्दर’ तो क्या आते, इसलिए उन्होंने विरोचित शहादत के मार्ग का चयन किया। इधर जहांगीर कि आगे की तीसरी पीढ़ी या फिर मुगल वंश के बाबर की छठी पीढ़ी औरंगजेब तक पहुंची। उधर श्री #गुरुनानकदेव जी की दसवीं पीढ़ी श्री गुरु गोविन्द सिंह तक पहुंची।
यहां तक पहुंचते-पहुंचते ही श्री नानकदेव की दसवीं पीढ़ी ने मुगलवंश की नींव में #डायनामाईट रख दिया और उसके नाश का इतिहास लिख दिया।
#संसार जानता है कि मुट्ठी भर मरजीवड़े सिंघ रूपी खालसा ने 700 साल पुराने विदेशी वंशजों को मुगल राज सहित सदा के लिए #ठंडा कर दिया।
100 वर्ष बाद महाराजा #रणजीत सिंह के नेतृत्व में भारत ने पुनः स्वतंत्रता कि सांस ली। शेष तो कल का #इतिहास है लेकिन इस पूरे संघर्षकाल में पंचम गुरु श्री गुरु अर्जुनदेव जी कि #शहादत सदा सर्वदा सूर्य के ताप की तरह प्रखर रहेगी।
गुरु जी शांत और गंभीर स्वभाव के स्वामी थे। वे अपने युग के सर्वमान्य #लोकनायक थे । मानव-कल्याण के लिए उन्होंने आजीवन शुभ कार्य किए।
गुरु जी के शहीदी पर्व पर उन्हें याद करने का अर्थ है धर्म कि रक्षा आत्म-बलिदान देने को भी तैयार रहना। उन्होंने संदेश दिया कि महान जीवन मूल्यों के लिए आत्म-बलिदान देने को सदैव तैयार रहना चाहिए, तभी कौम और #राष्ट्र अपने गौरव के साथ जीवंत रह सकते हैं।
आज भी हिन्दू संतो को सताया जा रहा है, झूठे केस बनाकर जेल भिजवाया जा रहा है ऐसा लग रहा है कि अभी भी मुगल काल चल रहा है जो साधु-संत ईसाई धर्मान्तरण रोकते है, विदेशी प्रोडक्ट बन्द करवाकर स्वदेशी अपनाने के लिए करोड़ो लोगो को प्रेरित करते है, विदेशों में जाकर हिन्दू धर्म की महिमा बताते है, करोड़ो लोगों का व्यशन छुड़वाते है, करोड़ो लोगो को सनातन हिन्दू संस्कृति के प्रति प्रेरित करते हैं, जन-जागृति लाते है, गरीबों में जाकर जीवनुपयोगी वस्तुओं का वितरण करते है, गौशालायें खोलते है उन महान संतो को विदेशी ताकतों के इशारे पर मीडिया द्वारा बदनाम करवाकर झूठे केस में जेल भिजवाया जा रहा है इससे साफ पता चलता है कि मुगल तो गये लेकिन आज भी उनकी नस्ले देश में है जो ये षड्यंत्र करवा रही है।
वर्तमान में भी हिन्दू समाज को जगे रहना जरूरी है नही तो विदेशी ताकते देश को गुलाम बनाने कि ताक में बैठी है।
जिनका नाम लेकर दिन का शुभारंभ करे, ऐसे नामों में एक हैं #महाराणा प्रताप । उनका नाम उन पराक्रमी राजाओं कि सूचि में सुवर्णाक्षरों में लिखा गया है जो देश, धर्म, संस्कृति तथा इस देश कि स्वतंत्रता कि रक्षा हेतु जीवन भर जूझते रहे ! उनकी वीरता कि पवित्र स्मृति को यह विनम्र अभिवादन है ।
इस बार महाराणा प्रताप जयंती 16 जून को है।
मेवाड़ के महान राजा #महाराणा प्रताप सिंह का नाम कौन नहीं जानता ? भारत के इतिहास में यह नाम वीरता, पराक्रम, त्याग तथा देशभक्ति जैसी विशेषताओं हेतु निरंतर प्रेरणादाई रहा है ।मेवाड़ के सिसोदिया परिवार में जन्मे अनेक पराक्रमी योद्धा जैसे बाप्पा रावल, राणा हमीर, राणा संगको ‘राणा’ यह उपाधि दी गई अपितु #महाराणा ’ उपाधिसे केवल प्रताप सिंहबको सम्मानित किया गया ।
Under the name of Maharana Pratap, Akbar used to sweat even in sleep, know his history
#महाराणा प्रताप का बचपन
#महाराणा प्रताप का जन्म वर्ष 1540 में हुआ । मेवाड़ के राणा उदय सिंह, द्वितीय, के 33 बच्चे थे । उनमें प्रताप सिंह सबसे बड़े थे । स्वाभिमान तथा धार्मिक आचरण प्रताप सिंह की विशेषता थी । #महाराणा प्रताप बचपन से ही दृढ़ तथा बहादूर थे बड़ा होने पर यह एक महापराक्रमी पुरुष बनेगा, यह सभी जानते थे । सर्वसाधारण शिक्षा लेने से खेलकूद एवं हथियार बनाने की कला सीखने में उन्हें अधिक रुचि थी ।
#महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक !
महाराणा प्रताप सिंह के काल में दिल्ली पर अकबर बादशाह का शासन था । हिंदू राजाओं कि शक्ति का उपयोग कर दूसरे हिंदू राजाओं को अपने नियंत्रण में लाना, यह उनकी नीति थी । कई राजपूत राजाओं ने अपनी महान परंपरा तथा लड़ने की वृत्ति छोड़कर अपनी बहुओं तथा कन्याओं को अकबर के अंत:पूर में भेजा ताकि उन्हें अकबर से इनाम तथा मानसम्मान मिलें । अपनी मृत्यू से पहले उदय सिंह ने उनकी सबसे छोटी पत्नी का बेटा जगम्मल को राजा घोषित किया जबकि प्रताप सिंह जगम्मल से बड़े थे प्रभु रामचंद्र जैसे अपने छोटे भाई के लिए अपना अधिकार छोडकर मेवाड़ से निकल जाने को तैयार थे । किंतु सभी सरदार राजा के निर्णय से सहमत नहीं हुए । अत: सब ने मिलकर यह निर्णय लिया कि जगमल को सिंहासन का त्याग करना पड़ेगा । #महाराणा प्रताप सिंह ने भी सभी सरदार तथा लोगों की इच्छा का आदर करते हुए मेवाड़ की जनता का नेतृत्व करने का दायित्व स्वीकार किया ।
#महाराणा प्रताप की अपनी मातृभूमि को मुक्त कराने की अटूट प्रतिज्ञा !
#महाराणा प्रताप का वजन 110 किलो, लम्बाई 7'5”थी, दो म्यान वाली तलवार और 80 किलो का भाला रखते थे ।
महाराणा प्रताप के शत्रुओं ने मेवाड़ को चारों ओर से घेर लिया था । #महाराणा प्रताप के दो भाई शक्ति सिंह एवं जगमल अकबर से मिले हुए थे । सबसे बड़ी समस्या थी आमने- सामने लडने हेतु सेना खड़ी करना जिसके लिए बहुत धन की आवश्यकता थी ।
महाराणा प्रताप की सारी संदूके खाली थीं जबकी #अकबर के पास बहुत बड़ी सेना, अत्यधिक संपत्ति तथा और भी सामग्री बड़ी मात्रा में थी । किंतु महाराणा प्रताप निराश नहीं हुए अथवा कभी भी ऐसा नहीं सोचा कि वे #अकबर से किसी बात में न्यून(कम) हैं ।
#महाराणा प्रताप को एक ही चिंता थी, अपनी मातभूमि को मुगलों के चंगुल से मुक्त कराना। एक दिन उ्न्होंने अपने विश्वास के सारे सरदारों की बैठक बुलाई तथा अपने गंभीर एवं वीरता से भरे शब्दों में उनसे आहवाहन किया ।
उन्होंने कहा,‘ मेरे बहादूर बंधुआ, अपनी मातृभूमि, यह पवित्र मेवाड़ अभी भी मुगलों के चंगुल में है । आज मैं आप सबके सामने प्रतिज्ञा करता हूं कि, जबतक #चितौड़ मुक्त नहीं हो जाता मैं सोने अथवा चांदी की थाली में खाना नहीं खाऊंगा, मुलायम गद्देपर नहीं सोऊंगा तथा राज प्रासाद में भी नहीं रहुंगा इसकी अपेक्षा मैं पत्तल पर खाना खाउंगा, जमीन पर सोउंगा तथा झोपडे में रहुंगा । जबतक #चितौड़ मुक्त नहीं हो जाता तबतक मैं दाढी भी नहीं बनाउंगा । मेरे पराक्रमी वीरों, मेरा विश्वास है कि आप अपने तन-मन-धन का त्याग कर यह प्रतिज्ञा पूरी होने तक मेरा साथ दोगे ।
अपने राजा की प्रतिज्ञा सुनकर सभी सरदार प्रेरित हो गए तथा उन्होंने अपने राजा की तन-मन-धन से सहायता करेंगे तथा शरीर में रक्त की आखरी बूंद तक उसका साथ देंगे किसी भी परिस्थिति में मुगलों से #चितौड़ मुक्त होने तक अपने ध्येय से नहीं हटेंगे, ऐसी प्रतिज्ञा की । उन्होंने #महाराणा से कहा- विश्वास करो हम सब आपके साथ हैं, आपके एक संकेत पर अपने प्राण न्यौछावर कर देंगे ।
#अकबर अपने महल में जब वह सोता था तब #महाराणा प्रताप का नाम सुनकर रात में नींद में कांपने लगता था। #अकबर की हालत देख उसकी पत्नियां भी घबरा जाती, इस दौरान वह जोर-जोर से #महाराणा प्रताप का नाम लेता था।
हल्दी घाट की लड़ाई #महाराणा प्रताप एक महान योद्धा
#अकबर ने महाराणा प्रताप को अपने चंगुल में लाने का अथाह प्रयास किया किंतु सब व्यर्थ सिद्ध हुआ! #महाराणा प्रताप के साथ जब कोई समझौता नहीं हुआ तो अकबर अत्यंत क्रोधित हुआ और उसने युद्ध घोषित किया । #महाराणा प्रताप ने भी सिद्धताएं आरंभ कर दी । उसने अपनी राजधानी अरवली पहाड़ के दुर्गम क्षेत्र कुंभल गढ़ में स्थानांतरित की । #महाराणा प्रताप ने अपनी सेना में आदिवासी तथा जंगलों में रहनेवालों को भरती किया । इन लोगों को युद्ध का कोई अनुभव नहीं था किंतु उसने उन्हें प्रशिक्षित किया । उन्होंने सारे राजपूत सरदारोंको मेवाड़ के स्वतंत्रता के झंडे के नीचे इकट्ठा होने हेतु आहवाहन किया ।
#महाराणा प्रताप के 22,000 सैनिक अकबर की 80,000 सेना से हल्दी घाट में भिड़े । महाराणा प्रताप तथा उसके सैनिकों ने युद्ध में बड़ा पराक्रम दिखाया किंतु उसे पीछे हटना पड़ा। #अकबर की सेना भी राणा प्रताप की सेना को पूर्ण रूप से पराभूत करने में असफल रही । महाराणा प्रताप एवं उसका विश्वसनीय घोडा ‘ चेतक ’ इस युद्ध में अमर हो गए । #हल्दीघाट के युद्ध में ‘ चेतक ’ गंभीर रुप से घायल हो गया था किंतु अपने स्वामी के प्राण बचाने हेतु उसने एक नहर के उस पार लंबी छलांग लगाई । नहर के पार होते ही ‘ चेतक ’ गिर गया और वहीं उसकी मृत्यु हुई । इस प्रकार अपने प्राणों को संकट में डालकर उसने राणा प्रताप के प्राण बचाएं । लौहपुरुष #महाराणा अपने विश्वसनीय घोड़े की मृत्यू पर एक बच्चे की तरह फूट-फूटकर रोये ।
तत्पश्चात जहां चेतक ने अंतिम सांस ली थी वहां उन्होंने एक सुंदर उद्यान का निर्माण किया । #अकबरने महाराणा प्रताप पर आक्रमण किया किंतु छह महिने युद्ध के उपरांत भी अकबर महाराणा को पराभूत न कर सका तथा वह दिल्ली लौट गया । अंतिम उपाय के रूप में अकबर ने एक #पराक्रमी योद्धा सर सेनापति जगन्नाथ को 1584 में बहुत बड़ी सेना के साथ मेवाड़ पर भेजा, दो वर्ष के अथक प्रयासों के पश्चात भी वह राणा प्रताप को नहीं पकड़ सका ।
महाराणा प्रताप का कठोर प्रारब्ध
जंगलों में तथा पहाडों की घाटियों में भटकते हुए राणा प्रताप अपना परिवार अपने साथ रखते थे । शत्रू के कहीं से भी तथा कभी भी आक्रमण करने का संकट सदैव बना रहता था । जंगल में ठीक से खाना प्राप्त होना बडा कठिन था । कई बार उन्हें खाना छोडकर बिना खाए-पिए ही प्राण बचाकर जंगलों में भटकना पडता था ।
शत्रू के आने की खबर मिलते ही एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर भागना पडता था । वे सदैव किसी न किसी संकट से घिरे रहते थे । एक बार महारानी जंगल में रोटियां सेंक रही थी उनके खाने के बाद उसने अपनी बेटी से कहा कि, बची हुई रोटी रात के खाने के लिए रख दे किंतु उसी समय एक जंगली बिल्ली ने झपट्टा मारकर रोटी छीन ली और राजकन्या असहायता से रोती रह गई । रोटी का वह टुकडा भी उसके प्रारब्धमें नहीं था । राणा प्रताप को बेटी की यह स्थिति देखकर बडा दुख हुआ। अपनी वीरता, स्वाभिमान पर उन्हें बहुत क्रोध आया तथा विचार करने लगे कि उसका युद्ध करना कहां तक उचित है ! मन की इस दुविधा स्थिति में उसने #अकबर के साथ समझौता करने की बात मान ली ।
पृथ्वीराज, अकबर के दरबार का एक कवी जिसे राणा प्रताप बडा प्रिय था उसने राजस्थानी भाषा में राणा प्रताप का आत्मविश्वास बढाकर उसे अपने निर्णय से परावृत्त करनेवाला पत्र कविता के रुप में लिखा । पत्र पढकर राणा प्रताप को लगा जैसे उन्हें 10,000 सैनिकों का बल प्राप्त हुआ हो । उनका मन स्थिर तथा शांत हुआ । अकबर की शरण में जाने का विचार उसने अपने मन से निकाल दिया तथा अपने ध्येय सिद्धि हेतु सेना अधिक संगठित करने के प्रयास आरंभ किए ।
भामाशाह की महाराणा के प्रति भक्ति महाराणा प्रताप के वंशजोें के दरबार में एक राजपूत सरदार था । राणा प्रताप जिन संकटों से मार्गक्रमण रहे था तथा जंगलों में भटक रहे थे इससे वह बडा दुखी हुआ । उसने राणा प्रताप को ढेर सारी संपत्ति दी, जिससे वह 25,000 की सेना 12 वर्ष तक रख सके । महाराणा प्रतापको बडा आनंद हुआ एवं कृतज्ञता भी लगी ।
आरंभमें महाराणा प्रताप ने #भामाशाह की सहायता स्वीकार करने से मना किया किंतु उनके बार-बार कहने पर राणा ने संपात्ति का स्वीकार किया । #भामाशाहसे धन प्राप्त होनेके पश्चात राणा प्रतापको दूसरे स्रोत से धन प्राप्त होना आरंभ हुआ । उन्होंने सारा धन अपनी सेना का विस्तार करने में लगाया तथा चितौड़ छोडकर मेवाड को मुक्त किया ।
अपने शासनकाल में उन्होने युद्ध में उजड़े गाँवों को पुनः व्यवस्थित किया। नवीन राजधानी #चावण्ड को अधिक आकर्षक बनाने का श्रेय महाराणा प्रताप को जाता है। राजधानी के भवनों पर कुम्भाकालीन स्थापत्य की अमिट छाप देखने को मिलती है। #पद्मिनी चरित्र की रचना तथा दुरसा आढा की कविताएं महाराणा प्रताप के युग को आज भी अमर बनाये हुए हैं।
महाराणा प्रताप की अंतिम इच्छा
#महाराणा प्रताप की मृत्यु हो रही थी तब वे घास के बिछौनेपर सोए थे, क्योंकि #चितौड़ को मुक्त करने की उनकी प्रतिज्ञा पूरी नहीं हुई थी । अंतिम क्षण उन्होंने अपने बेटे अमर सिंह का हाथ अपने हाथ में लिया तथा चितौड़ को मुक्त करने का दायित्व उसे सौंपकर शांति से परलोक सिधारे । क्रूर बादशाह अकबर के साथ उनके युद्ध की इतिहास में कोई तुलना नहीं । जब लगभग पूरा राजस्थान मुगल बादशाह अकबरके नियंत्रणमें था, #महाराणा प्रतापने #मेवाड़ को बचाने के लिए 12 वर्ष युद्ध किया ।
अकबर ने महाराणा को पराभूत करने के लिए बहुत प्रयास किए किंतु अंत तक वह अपराजित ही रहा । इसके अतिरिक्त उन्होंने राजस्थान का बहुत बडा क्षेत्र मुगलों से मुक्त किया । कठिन संकटों से जाने के पश्चात भी उन्होंने अपना तथा अपनी मातृभूमिका नाम पराभूत होने से बचाया । उनका पूरा जीवन इतना उज्वल था कि स्वतंत्रताका दूसरा नाम ‘ #महाराणा प्रताप ’ हो सकता है । उनकी #पराक्रमी स्मृति को हम #श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ।
महाराणा प्रताप में अच्छे सेनानायक के गुणों के साथ-साथ अच्छे व्यस्थापक की विशेषताएँ भी थी। अपने सीमित साधनों से ही अकबर जैसी शक्ति से दीर्घ काल तक टक्कर लेने वाले वीर #महाराणा प्रताप की मृत्यु पर #अकबर भी दुःखी हुआ था।
आज भी महाराणा प्रताप का नाम असंख्य भारतीयों के लिये #प्रेरणास्रोत है। राणा प्रताप का स्वाभिमान भारत माता की पूंजी है। वह अजर अमरता के गौरव तथा मानवता के विजय सूर्य है। राणा प्रताप की "देशभक्ति" पत्थर की अमिट लकीर है। ऐसे #पराक्रमी भारत माँ के वीर सपूत महाराणा प्रताप को #राष्ट्र का #शत्-शत् नमन।