13 मई 2019
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दिल्ली हाई कोर्ट ने कुछ समय पहले बयान दिया है कि ईसाई मिशनरी द्वारा किये जाने वाले कार्य भारतीय संविधान के अंतर्गत वैध है । डॉ क्रिस्टो थॉमस मूलरूप से भारत के रहने वाले हैं जो वर्षों पहले अमरीका चले गए थे। कुछ समय पहले वह भारत आकर चिकित्सा सेवा देने लगे। उन पर आरोप लगा कि वह सेवा की आड़ में ईसाई मिशनरी के धर्मान्तरण का कार्य कर रहे हैं। आपका वीजा निलंबित कर विदेश वापिस भेज दिया गया। आपने दिल्ली हाई कोर्ट में अपने निलंबन को चुनौती दी। कोर्ट ने आपके पक्ष में फैसला सुनाते हुआ कहा कि मिशनरी द्वारा किये जाने वाला कार्य संविधान के अंतर्गत आता हैं। संविधान में कोई धारा ऐसी नहीं है जो उन्हें अपने कार्यों को करने से रोकती हो।
कोर्ट के फैसले से जहाँ ईसाई मिशनरियों की मानो लाटरी निकल गई मगर कोर्ट ने भारत देश की अखंडता और सुरक्षा की अनदेखी कर दी। कोर्ट ने धर्मान्तरण से होने वाले दूरगामी परिणामों की भी अनदेखी कर दी। कोर्ट ने वर्तमान एवं पूर्व में ईसाई मिशनरियों द्वारा देशविरुद्ध किये गए कार्यों को भी नहीं देखा। कोर्ट ने यह भी नहीं देखा कि तमिलनाडु के कुंडमकुलम के परमाणु संयंत्र का विरोध करने वालों में चर्च से सम्बंधित लोग संलिप्त पाए गए थे। कोर्ट ने यह भी नहीं देखा कि उड़ीसा में स्वामी लक्ष्मणानंद जी की हत्या में चर्च समर्थक आतंकवादियों का हाथ था। कोर्ट ने यह भी नहीं देखा कि उत्तरपूर्वी राज्यों में रियांग वनवासी चर्च समर्थित हिंसा के कारण ही निर्वासित जीवन जी रहे हैं। कोर्ट ने यह भी नहीं देखा कि देश में होने वाले चुनावों में चर्च सरकार के चयन के लिए एकतरफ़ा फतवे जारी कर ईसाई समाज को प्रभावित करता हैं। कोर्ट ने यह भी नहीं देखा कि किस प्रकार देश में ईसाई मिशनरी धर्मान्तरण के कार्यों को प्रलोभन देकर कर रहे हैं। धर्मान्तरण पर बनी नियोगी कमेटी की रिपोर्ट को भी कोर्ट ने संज्ञान में नहीं लिया। संसद में ओमप्रकाश त्यागी द्वारा धर्मान्तरण के विरोध में प्रस्तुत किये गए विधेयक पर आज तक दोबारा चर्चा न होना भी चिंता का विषय हैं।
ईसाई धर्मान्तरण के विरुद्ध सबसे अधिक मुखर स्वर हमारे ही देश के गणमान्य व्यक्तियों ने उठाया हैं। महात्मा गाँधी, स्वामी दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, स्वामी विवेकानंद, लाला लाजपत राय, डॉ अम्बेडकर, वीर सावरकर आदि ने चर्च द्वारा किये जाने वाले धर्मान्तरण के विरुद्ध अपना व्यक्तव्य दिया था। उनका मानना था कि धर्मांतरण से आस्थाएं बदल जाती है, पूर्वजों के प्रति भाव बदल जाता है। जो पूर्वज पहले पूज्य होते थे, धर्मांतरण के बाद वही घृणा के पात्र बन जाते हैं। खान पान बदल जाता है, पहनावा बदल जाता है। नाम बदल जाते हैं, विदेशी नाम, जिसका अर्थ स्वयं उन्हें ही मालूम नहीं हो ऐसे नाम धर्मांतरण के बाद रखे जाते हैं। इसलिए धर्मांतरण का वास्तविक अर्थ राष्टांतरण है।
धर्मांतरण के प्रति महात्मा गाँधी का भाव क्या था? यह उन्होंने अपनी आत्मकथा में उल्लेख किया है। यह तब की बात है जब वह विद्यालय में पढ़ते थे। उन्होंने लिखा कि “ उन्हीं दिनों मैने सुना कि एक मशहूर हिन्दू सज्जन अपना धर्म बदल कर ईसाई बन गये हैं। शहर में चर्चा थी कि बपतिस्मा लेते समय उन्हें गोमांस खाना पड़ा और शराब पीनी पड़ी । अपनी वेशभूषा भी बदलनी पड़ी तथा तब से हैट लगाने और यूरोपीय वेशभूषा धारण करने लगे। मैने सोचा जो धर्म किसी को गोमांस खाने शराब पीने और पहनावा बदलने के लिए विवश करे वह तो धर्म कहे जाने योग्य नहीं है। मैने यह भी सुना नया कन्वर्ट अपने पूर्वजों के धर्म को उनके रहन सहन को तथा उनके देश को गालियां देने लगा है। इस सबसे मुझसे ईसाईयत के प्रति नापसंदगी पैदा हो गई। ” ( एन आटोवाय़ोग्राफी आर द स्टोरी आफ माइं एक्सपेरिमेण्ट विद ट्रूथ, पृष्ठ -3-4 नवजीवन, अहमदाबाद)
गांधी जी का स्पष्ट मानना था कि ईसाई मिशनरियों का मूल लक्ष्य उद्देश्य भारत की संस्कृति को समाप्त कर भारत का यूरोपीयकरण करना है। उनका कहना था कि भारत में आम तौर पर ईसाइयत का अर्थ है भारतीयों को राष्ट्रीयता से रहित बनाना और उसका यूरोपीयकरण करना।
गांधीजी ने धर्मांतरण के लिए मिशनरी प्रयासों के सिद्धांतों का ही विरोध किया। गांधी जी मिशनरियों आध्यात्मिक शक्तिसंपन्न व्यक्ति नहीं मानते थे बल्कि उन्हें प्रोपगेण्डिस्ट मानते थे। गांधी जी ने एक जगह लिखा कि “ दूसरों के हृदय को केवल आध्यात्मिक शक्तिसंपन्न व्यक्ति ही प्रभावित कर सकता है। जबकि अधिकांश मिशनरी बाकपटु होते हैं, आध्यात्मिक शक्ति संपन्न व्यक्ति नहीं। “ ( संपूर्ण गांधी बाङ्मय, खंड-36, पृष्ठ -147)
गांधी जी ने क्रिश्चियन मिशन पुस्तक में कहा है कि "भारत में ईसाईयत अराष्ट्रीयता एवं यूरोपीयकरण का पर्याय बन चुकी है।"(क्रिश्चियम मिशन्स, देयर प्लेस इंडिया, नवजीवन, पृष्ठ-32)। उन्होंने यह भी कहा कि ईसाई पादरी अभी जिस तरह से काम कर रहे हैं उस तरह से तो उनके लिए स्वतंत्र भारत में कोई भी स्थान नहीं होगा। वे तो अपना भी नुकसान कर रहे हैं। वे जिनके बीच काम करते हैं उन्हें हानि पहुंचाते हैं और जिनके बीच काम नहीं करते उन्हें भी हानि पहुंचाते हैं। सारे देश को वे नुकसान पहुंचाते हैं। गाधीजी धर्मांतरण (कनवर्जन) को मानवता के लिए भयंकर विष मानते थे। गांधी जी ने बार -बार कहा कि धर्मांतरण महापाप है और यह बंद होना चाहिए।"
उन्होंने कहा कि “मिशनरियों द्वारा बांटा जा रहा पैसा तो धन पिशाच का फैलाव है।“ उन्होंने कहा कि “ आप साफ साफ सुन लें मेरा यह निश्चित मत है, जो कि अनुभवों पर आधारित हैं, कि आध्यात्मिक विषयों पर धन का तनिक भी महत्व नहीं है। अतः आध्य़ात्मिक चेतना के प्रचार के नाम पर आप पैसे बांटना और सुविधाएं बांटना बंद करें।"
1935 में एक मिशनरी नर्स ने गांधी जी से पूछा “क्या आप धर्मांतरण के लिए मिशनरियों के भारत आगमन पर रोक लगा देना चाहते है? गांधी जी ने उत्तर दिया “मैं रोक लगाने वाला कौन होता हूँ, अगर सत्ता मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं, तो मैं धर्मांतरण का यह सारा धंधा ही बंद करा दूँ । मिशनरियों के प्रवेश से उन हिन्दू परिवारों में, जहाँ मिशनरी बैठे हैं, वेशभूषा, रीति-रिवाज और खान-पान तक में परिवर्तन हो गया है । आज भी हिन्दू धर्म की निंदा जारी हैं ईसाई मिशनिरयों की दुकानों में मरडोक की पुस्तकें बिकती हैं। इन पुस्तकों में सिवाय हिन्दू धर्म की निंदा के और कुछ है ही नहीं। अभी कुछ ही दिन हुए, एक ईसाई मिशनरी एक दुर्भिक्ष-पीड़ित अंचल में खूब धन लेकर पहुँचा वहाँ अकाल-पीड़ितों को पैसा बाँटा व उन्हें ईसाई बनाया फिर उनका मंदिर हथिया लिया और उसे तुड़वा डाला। यह अत्याचार नहीं तो क्या है, जब उन लोगों ने ईसाई धर्म अपनाया तो तभी उनका मंदिर पर अधिकार समाप्त। वह हक उनका बचा ही नहीं। ईसाई मिशनरी का भी मंदिर पर कोई हक नहीं। पर वह मिशनरी का भी मंदिर पर कोई हक नहीं। पर वह मिशनरी वहाँ पहुँचकर उन्हीं लोगों से वह मंदिर तुडवाला है, जहाँ कुछ समय पहले तक वे ही लोग मानते थे कि वहाँ ईश्वर वास है। ‘‘ ( संपूर्ण गांधी बांङ्मय खंड-61 पृष्ठ-48-49)
स्वामी दयानन्द ने एक बार कहा था कि देखो जयपुर आदि नगरों में गिरिजाघर बन गए है जहाँ पर आर्यों के पुरोधा श्री राम और श्री कृष्ण की निंदा की जाती हैं। इस पर शासक वर्ग को ध्यान देना चाहिए। उन्होंने अपने जीवन में अनेक ईसाई पादरियों से शास्त्रार्थ कर वेदों के पक्ष को बाइबिल के सिद्धांतों से बेहतर सिद्ध किया। सत्यार्थ प्रकाश रूपी ग्रन्थ में उन्होंने 13 वें समुल्लास में ईसाई मत की तार्किक विवेचना कर हिन्दू समाज पर जो अप्रतिम उपकार किया। वह उसके लिए धन्य हैं।लाला लाजपत राय द्वारा प्राकृतिक आपदाओं में अनाथ बच्चों एवं विधवा स्त्रियों को मिशनरी द्वारा धर्मान्तरित करने का पुरजोर विरोध किया गया जिसके कारण यह मामला अदालत तक पहुंच गया। ईसाई मिशनरी द्वारा किये गए कोर्ट केस में लाला जी की विजय हुई एवं एक आयोग के माध्यम से लाला जी ने यह प्रस्ताव पास करवाया की जब तक कोई भी स्थानीय संस्था निराश्रितों को आश्रय देने से मना न कर दे तब तक ईसाई मिशनरी उन्हें अपना नहीं सकती। डॉ अम्बेडकर को ईसाई समाज द्वारा अनेक प्रलोभन ईसाई मत अपनाने के लिए दिए गए मगर यह जमीनी हकीकत से परिचित थे की ईसाई मत ग्रहण कर लेने से भी दलित समाज अपने मुलभुत अधिकारों से वंचित ही रहेगा। वीर सावरकर कहते थे “यदि कोई व्यक्ति धर्मान्तरण करके ईसाई या मुसलमान बन जाता है तो फिर उसकी आस्था भारत में न रहकर उस देश के तीर्थ स्थलों में हो जाती है जहाँ के धर्म में वह आस्था रखता है, इसलिए धर्मान्तरण यानी राष्ट्रान्तरण है।
इस प्रकार से प्राय: सभी देशभक्त नेता ईसाई धर्मान्तरण के विरोधी रहे है एवं उसे राष्ट्र एवं समाज के लिए हानिकारक मानते है।
इस प्रकार से प्राय: सभी देशभक्त नेता ईसाई धर्मान्तरण के विरोधी रहे है एवं उसे राष्ट्र एवं समाज के लिए हानिकारक मानते है।
भारत में वर्तमान में प्रत्येक राज्य में बड़े पैमाने पर ईसाई धर्मप्रचारक मौजूद है जो मूलत: ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में सक्रिय हैं। अरुणालच प्रदेश में वर्ष 1971 में ईसाई समुदाय की संख्या 1 प्रतिशत थी जो वर्ष 2011 में बढ़कर 30 प्रतिशत हो गई है। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि भारतीय राज्यों में ईसाई प्रचारक किस तरह से सक्रिय हैं। इसी तरह नगालैंड में ईसाई जनसंख्या 93 प्रतिशत, मिजोरम में 90 प्रतिशत, मणिपुर में 41 प्रतिशत और मेघालय में 70 प्रतिशत हो गई है। चंगाई सभा और धन के बल पर भारत में ईसाई धर्म तेजी से फैल रहा है।
वर्ष 2011 में भारत की कुल आबादी 121.09 करोड़ है। जारी जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक देश में ईसाइयों की आबादी 2.78 करोड़ है। जो देश की कुल आबादी का 2.3% है। ईसाइयों की जनसंख्या वृद्धि दर 15.5% रही, जबकि सिखों की 8.4%, बौद्धों की 6.1% और जैनियों की 5.4% है। ध्यान दीजिये ईसाईयों की वृद्धि दर का कारण केवल ईसाई समाज में बच्चे अधिक पैदा होना नहीं हैं। अपितु हिन्दुओं का ईसाई मत को स्वीकार करना भी हैं।
इसलिए राष्ट्रहित को देखते हुए धर्मान्तरण पर लगाम देश में अवश्य लगनी चाहिए।- डॉ विवेक आर्य
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