Friday, May 17, 2019

भगवान बुद्ध ने समाज को जगाया पर उनके खिलाफ ही रचा गया षड्यंत्र

17 मई 2019
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🚩 भगवान बुद्ध का जन्म 483 और 563 ईस्वी पूर्व के बीच शाक्यगणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के निकटलुंबिनी, नेपाल में हुआ था । लुम्बिनी वन नेपाल के तराई क्षेत्र में कपिलवस्तु और देवदह के बीच नौतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में रुक्मिनदेई नामक स्थान के पास स्थित था ।
🚩 कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी को अपने नैहर देवदह जाते हुए रास्ते में प्रसव पीड़ा हुई और वहीं उन्होंने एक बालक को जन्म दिया । शिशु का नाम सिद्धार्थ रखा गया ।
🚩कपिलवस्तु के राजा शुद्धोदन का युवराज था सिद्धार्थ! यौवन में कदम रखते ही विवेक और वैराग्य जाग उठा। युवान पत्नी यशोधरा और नवजात शिशु राहुल की मोह-ममता की रेशमी जंजीर काटकर महाभीनिष्क्रमण (गृहत्याग) किया। एकान्त अरण्य में जाकर गहन ध्यान साधना करके अपने साध्य तत्त्व को प्राप्त कर लिया।
🚩एकान्त में तपश्चर्या और ध्यान साधना से खिले हुए इस आध्यात्मिक कुसुम की मधुर सौरभ लोगों में फैलने लगी। अब सिद्धार्थ भगवान बुद्ध के नाम से जन-समूह में प्रसिद्ध हुए। हजारों हजारों लोग उनके उपदिष्ट मार्ग पर चलने लगे और अपनी अपनी योग्यता के मुताबिक आध्यात्मिक यात्रा में आगे बढ़ते हुए आत्मिक शांति प्राप्त करने लगे। असंख्य लोग बौद्ध भिक्षुक बनकर भगवान बुद्ध के सान्निध्य में रहने लगे। उनके पीछे चलने वाले अनुयायियों का एक संघ स्थापित हो गया।

🚩चहुँ ओर नाद गूँजने लगे :
 *बुद्धं शरणं गच्छामि।*
धम्मं शरणं गच्छामि।
संघं शरणं गच्छामि।
🚩श्रावस्ती नगरी में भगवान बुद्ध का बहुत यश फैला। लोगों में उनकी जय-जयकार होने लगी। लोगों की भीड़-भाड़ से विरक्त होकर बुद्ध नगर से बाहर जेतवन में आम के बगीचे में रहने लगे। नगर के पिपासु जन बड़ी तादाद में वहाँ हररोज निश्चित समय पर पहुँच जाते और उपदेश-प्रवचन सुनते। बड़े-बड़े राजा महाराजा भगवान बुद्ध के सान्निध्य में आने जाने लगे।
🚩समाज में तो हर प्रकार के लोग होते हैं। अनादि काल से दैवी सम्पदा के लोग एवं आसुरी सम्पदा के लोग हुआ करते हैं। बुद्ध का फैलता हुआ यश देखकर उनका तेजोद्वेष करने वाले लोग जलने लगे। और जैसा कि संतों के साथ हमेशा से होता आ रहा है ऐसे उन दुष्ट तत्त्वों ने बुद्ध को बदनाम करने के लिए कुप्रचार किया। विभिन्न प्रकार की युक्ति-प्रयुक्तियाँ लड़ाकर बुद्ध के यश को हानि पहुँचे ऐसी बातें समाज में वे लोग फैलाने लगे। उन दुष्टों ने अपने षड्यंत्र में एक वेश्या को समझा-बुझाकर शामिल कर लिया।
🚩वेश्या बन-ठनकर जेतवन में भगवान बुद्ध के निवास-स्थान वाले बगीचे में जाने लगी। धनराशि के साथ दुष्टों का हर प्रकार से सहारा एवं प्रोत्साहन उसे मिल रहा था। रात्रि को वहीं रहकर सुबह नगर में वापिस लौट आती। अपनी सखियों में भी उसने बात फैलाई।
🚩लोग उससे पूछने लगेः "अरी! आजकल तू दिखती नहीं है?कहाँ जा रही है रोज रात को?"
"मैं तो रोज रात को जेतवन जाती हूँ। वे बुद्ध दिन में लोगों को उपदेश देते हैं और रात्रि के समय मेरे साथ रंगरलियाँ मनाते हैं। सारी रात वहाँ बिताकर सुबह लौटती हूँ।"
🚩वेश्या ने पूरा स्त्रीचरित्र आजमाकर षड्यंत्र करने वालों का साथ दिया । लोगों में पहले तो हल्की कानाफूसी हुई लेकिन ज्यों-ज्यों बात फैलती गई त्यों-त्यों लोगों में जोरदार विरोध होने लगा। लोग बुद्ध के नाम पर फटकार बरसाने लगे। बुद्ध के भिक्षुक बस्ती में भिक्षा लेने जाते तो लोग उन्हें गालियाँ देने लगे। बुद्ध के संघ के लोग सेवा-प्रवृत्ति में संलग्न थे। उन लोगों के सामने भी उँगली उठाकर लोग बकवास करने लगे।
🚩बुद्ध के शिष्य जरा असावधान रहे थे। #कुप्रचार के समय साथ ही साथ सुप्रचार होता तो कुप्रचार का इतना प्रभाव नहीं होता।
🚩शिष्य अगर निष्क्रिय रहकर सोचते रह जाएं कि 'करेगा सो भरेगा... भगवान उनका नाश करेंगे..' तो कुप्रचार करने वालों को खुला मैदान मिल जाता है।
🚩 संत के सान्निध्य में आने वाले लोग श्रद्धालु, सज्जन, सीधे सादे होते हैं, जबकि दुष्ट प्रवृत्ति करने वाले लोग कुटिलतापूर्वक कुप्रचार करने में कुशल होते हैं। फिर भी जिन संतों के पीछे सजग समाज होता है उन संतों के पीछे उठने वाले कुप्रचार के तूफान समय पाकर शांत हो जाते हैं और उनकी सत्प्रवृत्तियाँ प्रकाशमान हो उठती हैं।
🚩कुप्रचार ने इतना जोर पकड़ा कि बुद्ध के निकटवर्ती लोगों ने 'त्राहिमाम्' पुकार लिया। वे समझ गये कि यह व्यवस्थित आयोजन पूर्वक षड्यंत्र किया गया है। बुद्ध स्वयं तो पारमार्थिक सत्य में जागे हुए थे। वे बोलतेः "सब ठीक है, चलने दो। व्यवहारिक सत्य में वाहवाही देख ली। अब निन्दा भी देख लें। क्या फर्क पड़ता है?"
🚩शिष्य कहने लगेः "भन्ते! अब सहा नहीं जाता। संघ के निकटवर्ती भक्त भी अफवाहों के शिकार हो रहे हैं। समाज के लोग अफवाहों की बातों को सत्य मानने लग गये हैं।"
🚩बुद्धः "धैर्य रखो। हम पारमार्थिक सत्य में विश्रांति पाते हैं। यह विरोध की आँधी चली है तो शांत भी हो जाएगी। समय पाकर सत्य ही बाहर आयेगा। आखिर में लोग हमें जानेंगे और मानेंगे।"
🚩कुछ लोगों ने अगवानी का झण्डा उठाया और राज्यसत्ता के समक्ष जोर-शोर से माँग की कि बुद्ध की जाँच करवाई जाये। लोग बातें कर रहे हैं और वेश्या भी कहती है कि बुद्ध रात्रि को मेरे साथ होते हैं और दिन में सत्संग करते हैं।
🚩बुद्ध के बारे में जाँच करने के लिए राजा ने अपने आदमियों को फरमान दिया। अब षड्यंत्र करनेवालों ने सोचा कि इस जाँच करने वाले पंच में अगर सच्चा आदमी आ जाएगा तो अफवाहों का सीना चीरकर सत्य बाहर आ जाएगा। अतः उन्होंने अपने षड्यंत्र को आखिरी पराकाष्ठा पर पहुँचाया। अब ऐसे ठोस सबूत खड़ा करना चाहिए कि बुद्ध की प्रतिभा का अस्त हो जाये।
🚩षडयंत्रकारियों ने वेश्या को दारु पिलाकर जेतवन भेज दिया। पीछे से गुण्डों की टोली वहाँ गई। वेश्या के साथ बलात्कार आदि सब दुष्ट कृत्य करके उसका गला घोंट दिया और लाश को बुद्ध के बगीचे में गाड़कर पलायन हो गये।
🚩लोगों ने राज्यसत्ता के द्वार खटखटाये थे लेकिन सत्तावाले भी कुछ लोग दुष्टों के साथ जुड़े हुए थे। ऐसा थोड़े ही है कि सत्ता में बैठे हुए सब लोग दूध में धोये हुए व्यक्ति होते हैं।
🚩राजा के अधिकारियों के द्वारा जाँच करने पर वेश्या की लाश हाथ लगी। अब दुष्टों ने जोर-शोर से चिल्लाना शुरु कर दिया।
🚩"देखो, हम पहले ही कह रहे थे। वेश्या भी बोल रही थी लेकिन तुम भगतड़े लोग मानते ही नहीं थे। अब देख लिया न? बुद्ध ने सही बात खुल जाने के भय से वेश्या को मरवाकर बगीचे में गड़वा दिया। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी। लेकिन सत्य कहाँ तक छिप सकता है? मुद्दामाल हाथ लग गया। इस ठोस सबूत से बुद्ध की असलियत सिद्ध हो गई। सत्य बाहर आ गया।"
🚩लेकिन उन मूर्खों को पता नहीं कि तुम्हारा बनाया हुआ कल्पित सत्य बाहर आया, वास्तविक सत्य तो आज ढाई हजार वर्ष के बाद भी वैसा ही चमक रहा है। आज बुद्ध भगवान को लाखों लोग जानते हैं, आदरपूर्वक मानते हैं। उनका तेजोद्वेष करने वाले दुष्ट लोग कौन-से नरकों में जलते होंगे क्या पता!
🚩 वर्तमान में जिन संतों के ऊपर आरोप लग रहे हैं उनके भक्त अगर सच्चाई किसी को बताने जाएंगे तो दुष्ट प्रकृति के लोग तो बोलेंगे ही, लेकिन जो हिंदूवादी और राष्ट्रवादी कहलाने वाले लोग है वे भी यही बोलेंगे की कि बुद्ध तो भगवान थे, आजकल के संत ऐसे ही है, उनको इतने पैसे की क्या जरूत है? लड़कियों से क्यों मिलते हैं..??? ऐसे कपड़े क्यों पहनते हैं..??? आदि आदि...।
🚩पर उनको पता नही है कि पहले ऋषि मुनियों के पास इतनी सम्पत्ति होती थी कि राजकोष में धन कम पड़ जाता था तो ऋषि मुनियों से लोन लिया जाता था और रही कपड़े की बात तो कई भक्तों की भावना होती है तो पहन लेते हैं और लड़कियां दुःखी होती हैं तो उनके मां-बाप लेकर आते हैं तो कोई दुःख होता है तो मिल लेते हैं,उनके घर थोड़े ही बुलाने जाते हैं और भी कई तर्क वितर्क करेगे लेकिन भक्तों को दुःखी नहीं होना चाहिए। सबके बस की बात नही है कि महापुरुषों को पहचान पाये, आप अपने गुरूदेव का प्रचार प्रसार करते रहें, एक दिन ऐसा आएगा कि निंदा करने वाले भी आपके पास आयेंगे और बोलेंगे कि मुझे भी अपने गुरु के पास ले चलो।
🚩विदेशी फंडेड मीडिया ने हिंदू साधु-संतों की झूठी कहानी बनाकर समाज को परोसी, जिससे समाज गुमराह हो गया और सच्चाई न जानकर झूठ को ही सच मान बैठे, कुछ स्वार्थी नेता राष्ट्रविरोधी ताकतों से मिलकर झूठे केस में संतो को जेल भिजवा रहे हैं पर उसका भी देर सवेर खुलासा होगा क्योंकि सत्य को परेशान किया जाता है पराजित कभी नहीं...।
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Thursday, May 16, 2019

देश में हिंदुओं की हालत क्या है वो भी वर्तमान घटना से देख लें

16 मई 2019
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🚩दिल्ली के मोती नगर में ध्रुव त्यागी की हत्या देखकर लगता है जैसे हिंदुस्तान में हिंदू होना ही पाप है और हत्या इस्लाम में बहुत पवित्र कर्म समझा जाता हो। एक आदमी अपनी बेटी की इज्जत से खिलवाड़ की शिकायत लेकर पड़ोस के शम्से आलम के पास जाता है। शम्से आलम शिकायत सुनने की बजाय अपने घरवालों को बुला लाता है जिसमें उसकी मां, उसका बाप, उसकी बहने और सगे संबंधी सब शामिल होते हैं।

🚩और सब मिलकर ध्रुव त्यागी पर टूट पड़ते हैं। शम्से आलम अपनी मां से कहता है घर से सामान लेकर आओ और उसकी मां दौड़कर घर से जानवर काटने वाला हथियार उठा लाती है। फिर उसी हथियार से ध्रुव त्यागी को टुकड़े टुकड़े कर दिया जाता है। ध्रुव का बेटा बीच बचाव करने के लिए आता है तो उसको भी चाकू से छलनी कर दिया जाता है। ग्यारह लोग जिसमें कि सब एक ही परिवार के थे सबने मिलकर ध्रुव की हत्या इसलिए कर दी क्योंकि वो अपनी बेटी से छेड़खानी की शिकायत करने की गलती कर बैठे थे।
🚩अगर कुछ लिंचिंग होती है तो वो यही है। सामूहिक रूप से किसी एक निहत्थे व्यक्ति की निर्मम हत्या। पहले चाकुओं से वार किया फिर पत्थर से सिर कुचल दिया। और इस निर्मम हत्याकांड में महिलाएं बीच बचाव करने की बजाय सहयोगी की भूमिका निभाती रहीं।
🚩जो लोग मुस्लिम मोहल्लों में या उसके आसपास भी रहे होंगे उनके लिए यह सब बहुत आश्चर्यजनक नहीं लग रहा होगा। कई बार मैंने खुद मुसलमानों को झुंड बनकर दूसरों पर टूटते देखा है वह भी तब जब गलती उनकी खुद की ही होती है, लेकिन सच्चे मुसलमान की ट्रेनिंग का हिस्सा होता है, अपनी गलती कभी मत मानों क्योंकि इन गलीच हिन्दुओं के साथ तुम जो कर रहे हो उससे तुम्हारा शबाब बढ़ रहा है। ऐसे में काफिर, मुशरिक गलीच हिन्दुओं के खिलाफ एक होना ही तुम्हारे मुसलमान होने की पहली और आखिरी निशानी है।
🚩आज इंडिया गेट पर ध्रुव त्यागी की हत्या के विरोध में जमा हुए लोगों में वह लड़की भी शामिल थी जिसके साथ शम्से आलम ने छेड़खानी किया था। उसके चेहरे पर कोई रंग नहीं था। आज उसे अपने लड़की होने पर शर्म आ रही होगी कि काश वह लड़की न होती तो शायद उसके बाप की जान न जाती।
🚩एक लड़की को उसके अस्तित्व पर शर्मसार होने पर मजबूर करनेवाले लोगों ने रमजान के "पवित्र" महीने में उसे जीवनभर के लिए इस्लाम की सच्ची सीख दे दिया है। बाकी टीवी और पोर्टल के सेकुलर लुच्चे चाहे जितना चीखें चिल्लायें, अब वह किसी पर भरोसा नहीं कर पायेगी। दुर्भाग्य से इस देश में मुसलमानों को लेकर समझ इन लुच्चे सेकुलरों के पाखंड से नहीं बल्कि ऐसी ही घटनाओं और व्यवहारों से विकसित हुई है। अगर भारत में मुसलमानों से नफरत है तो उस नफरत की बुनियाद में ऐसी असंख्य घटनाएं हैं जो कहीं रिकार्ड पर नहीं हैं लेकिन समाज उनसे सबक लेकर व्यवहार करता है। जैसे, दिल्ली के इस गांव ने निर्णय ले लिया है कि अब गांव में किसी मुसलमान को कमरा किराये पर नहीं दिया जाएगा।
🚩अब लुच्चे सेकुलर जितना चाहें उतना छाती पीटें । चाहें तो जाकर पहलू खान के पहलू में दफन हो जाएं, उनके किसी कुतर्क का समाज पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। - -संजय तिवारी
🚩प्राचीन में पूरी दुनिया में केवल सनातन (हिंदू) धर्म ही था, लेकिन आज समिटकर केवल भारत में ही बचा है, पर खेद की बात है भारत मे 80 प्रतिशत हिंदू है पर उनको पराया रखा गया है उनकी सारी सुविधाएं अल्पसंख्यक लोगों को दी जा रही है, राजनैतिक पार्टियां उनका समर्थन कर रही हैं और आज हिंदुओं पर अत्याचार सरेआम हो रहा है तो न तो कोई नेता बोल रहा है ना ही कोई मीडिया बोल रही है और ना ही कोई कानून हिंदुओं के पक्ष में आ रहा है इसका कारण है हिंदुओं को अपने धर्म व धर्मगुरुओं के प्रति आस्था नहीं होना और आपसी एकता नहीं होने के कारण ही यह दुर्दशा हो रही है ।
🚩वर्तमान में कई हिंदुनिष्ठ कार्यकर्ता, नेता, और हिंदू साधु-संत हिंदुओं को जागरूक कर रहे हैं, अपने धर्म की महानता बताकर जागृति ला रहे हैं, लेकिन हिंदू जग तो नहीं रहा है और ऊपर जो जगा रहे हैं उनपर भयंकर षड्यंत्र हो रहे हैं, उनकी हत्या कर दी जाती है, झूठे केस करके जेल भिजवाया जाता है, मीडिया में बदनामी करवाई जाती है । यह सब देखकर हिंदू जाग तो नहीं रहा है ऊपर से अपने धर्मगुरुओं पर हो रहे अत्याचार को देखकर ठहाका लगाते हैं, स्वयं उनकी आलोचना करते हैं, इसके कारण आज हिंदू निःसहाय होते जा रहा है अगर अभी भी हिंदू ऐसे ही रहा तो दिल्ली की मोतीनगर जैसी अनेक घटनाओं के लिए तैयार रहें।
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Wednesday, May 15, 2019

क्रांतिकारी सुखदेवजी के बारे में आपको यह बातें पता नहीं होंगी,जो जानना जरूरी है

15 मई 2019 

🚩हमारा भारतवर्ष पहले स्वतन्त्र एवं धन-धान्य से परिपूर्ण था लेकिन भारत की यह सम्पन्नता विदेशी लोगों की नजर में खटकने लगी। हमारे भोलेपन का फायदा उठाकर अंग्रेजों ने हमारे देश पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों के अत्याचार ने इस सीमा को पार कर लिया था और भारतवासी इस अत्याचार से मुक्ति पाने के लिए छटपटाने लगे। एक ओर महात्मा गांधी का अहिंसा आन्दोलन चल पड़ा और दूसरी ओर क्रान्तिकारियों ने क्रान्ति का बिगुल बजा दिया। ऐसे ही एक वीर क्रान्तिकारी थे सुखदेव।



🚩उनका जन्म 15 मई, सन् 1907 में पंजाब प्रान्त के लायलपुर नामक स्थान में हुआ था (वर्तमान में लायलपुर पाकिस्तान में है)। उनकी माताजी अत्यन्त धार्मिक तथा भावुक प्रवृत्ति वाली महिला थीं और परिवार आर्यसमाजी था, जिसका अत्यधिक प्रभाव सुखदेवजी पर पड़ा। धार्मिक बातों में उनकी बहुत रुचि थी और अपनी मां से तो वीर रस की कहानियां भी सुना करते थे। इसका प्रभाव यह हुआ कि वे वीर और निडर बन गए एवं योद्धा बनकर देशसेवा में लग गए। उनका स्वाभाव बड़ा ही शांत और कोमल था, इसलिए उनके सहपाठी और शिक्षक सदैव उनका आदर और प्यार करते थे। उनके स्वाभाव में उदारता की भावना यथेष्ट थी। वे अपने सिद्धांतों में बड़े दृढ़ थे। जो दिल में समा जाती थी वह सारे संसार का विरोध करने पर भी छोड़ना नहीं चाहते थे। वे अपनी धुन के पक्के थे। सहपाठियों में जब किसी विषय को लेकर तर्क-वितर्क उपस्थित होता तो वो बड़ी दृढ़ता से अपना पक्ष समर्थन करते और अंत में  उनकी अकाट्य युक्तियों के सामने प्रतिद्वंदी को मस्तक झुक देना पड़ता।  समाज के सत्संगों में वे बड़े उत्साह से भाग लिया करते थे, इसके अलावा हवन, योगाभ्यास और संध्या का भी शोक था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी लायलपुर में स्थित आर्य स्कूल से शुरू हुई, विद्यालय का नाम धनपतमल आर्य स्कूल था। यहां से शिक्षा ग्रहण करने के बाद उनको सनातन हाईस्कूल में भर्ती कर दिया गया था और सन् 1922 में उनने प्रवेशिका की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में पास की। परिवार क्रान्तिकारी था। इनके चाचा अचिन्त राम क्रान्तिकारी गतिविधियों में संलग्न रहा करते थे। वे भी आन्दोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया करते थे।

🚩सन् 1919 की एक घटना है- जब सुखदेव केवल बारह साल के थे, उनके चाचा अचिन्त राम सरकार विरोधी गतिविधि में गिरफ्तार कर लिए गए थे। उस समय सुखदेव थोड़ा-थोड़ा समझने लगे थे कि अंग्रेज उनके दुश्मन हैं, उनको हमारे इस देश पर शासन करने का कोई हक नहीं है। इन गोरों से हमारे देश को जितना जल्दी हो आजाद कराया जाए- यही हम सब भारतवासियों के लिए अच्छा होगा।

🚩सन् 1920-21में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटना घटित हुई- उन दिनों बालक सुखदेव कक्षा नौ में पढ़ते थे। तभी ब्रिटिश सरकार की ओर से हुक्म आया कि शहर के सारे विद्यालयों के छात्र-छात्राएं एक जगह एकत्रित होकर ब्रिटिश झण्डे का अभिवादन करेंगे। बालक सुखदेव भला इस समारोह में कैसे शामिल होते! क्योंकि वे अंग्रेजों को अपना कट्टर दुश्मन समझते थे। इसलिए उस समारोह में जाने के बजाय सीधे घर आ गए। घर आकर जब उन्होंने यह घटना अपने चाचाजी को सुनाई तो चाचा अपने भतीजे की बात पर जरा भी नाराज नहीं हुए, बल्कि उनकी देशभक्ति तथा निडरता को देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हो उठे। देश में एक-के-बाद-एक ऐसी घटनाएं घटती जा रही थीं जिन्हें देखकर व सुनकर सुखदेव का मन देशभक्ति की तरफ बढ़ता ही जा रहा था।

🚩सन् 1921 में गांधी जी ने भारत में असहयोग अवज्ञा आन्दोलन शुरू कर दिया। इस आन्दोलन से सारे भारतवासियों में एक अद्भुत विचारधारा उत्पन्न हो गई। पूरे भारत में विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार होने लगा। जगह-जगह विदेशी वस्तुओं को जलाया जा रहा था। पंजाब में भी लोग जगह-जगह विदेशी वस्तुओं की होली जलाने लगे, एक अजीब-सा माहौल बन गया था। इस घटना ने सुखदेव के दिल पर एक ऐसी छाप छोड़ी जो कि उन्होंने विदेशी वस्त्रों तथा वस्तुओं का पूर्ण रूप से त्याग करने का निश्चय कर लिया। राष्ट्र-सेवा ही आपने अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बना लिया था तथा प्रण किया कि जब तक मैं जीवित रहूंगा, देश-सेवा करता रहूंगा।

🚩कुछ समय पश्चात् वे भगतसिंह के सम्पर्क में आये। भगतसिंह उनके विचारों से काफी प्रभावित हुए। दल में वह ऐसी ही नौजवानों को चाहते थे, जो अपनी चिन्ता किये बगैर मातृभूमि के लिए अपने प्राण त्यागने को सदा तैयार रहें। सन् 1926 में भगतसिंह तथा अन्य क्रान्तिकारियों ने मिलकर लाहौर में "नौजवान भारत सभा" की स्थापना की, इस सभा में क्रान्तिकारी सुखदेव भी शामिल थे। "नौजवान भारत सभा" क्रान्तिकारी आन्दोलन का एक खुला मंच था। इस सभा का काम लोगों को अपने उद्देश्य तथा विचारों के बारे में अवगत कराना था। इस सभा की स्थापना गुप्त संगठन के कार्य का क्षेत्र तैयार करना और लोगों में उग्र राष्ट्रीय भावना को जगाना था। भगतसिंह इस सभा के मुख्य सूत्रधार थे। सुखदेव भी इस सभा के प्रमुख एवं सक्रिय सदस्यों में से एक थे। लाहौर में कमीशन आ रहा था, क्रान्तिकारियों को इसकी सूचना पहले ही मिल गई थी। उन्हें जोरदार प्रदर्शन करके अपना विरोध प्रकट करना था। सुखदेव, भगतसिंह तथा अन्य पांच-छह क्रान्तिकारियों ने मिलकर एक योजना बनायी। एक क्रान्तिकारी के घर प्रदर्शन के लिए काले झण्डे तैयार किए जा रहे थे। किसी तरह से पुलिस को इसकी सूचना मिल गई। वे इस प्रदर्शन को विफल करना चाहते थे, उन्होंने देशभक्तों को गिरफ्तार करने के लिये विभिन्न स्थानों पर छापे मारे। क्रान्तिकारी पुलिस की आंखों में धूल झोंककर सभी क्रान्तिकारी वहां से भाग खड़े हुए। किसी कारणवश सुखदेव वहां से भाग नहीं सके, वह वहीं पकड़े गए। पुलिस वाले बहुत अधिक खुश हुए और आपस में कह रहे थे- "चलो एक तो मिला! इसी से ही सारे लोगों के बारे में पता चल जाएगा।"
लेकिन वाह रे सुखदेव! पुलिस की कितनी मार खाई। यातनाएं सहीं, मगर दल के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा। इस प्रकार के क्रान्तिकारी को नमन। उनने निडर होकर पुलिस वालों को करारा जवाब दिया-" मैं मर जाऊंगा लेकिन तुम्हें कभी भी आने साथियों के बारे में नहीं बताऊंगा।"

🚩एक बार की बात है, लाहौर की बोस्टल जेल में भूख हड़ताल को तोड़ने के लिए क्रान्तिकारियों की पिटाई हो रही थी, अंग्रेज पिटाई करके भूख हड़ताल को तोड़ना चाहते थे। डॉक्टर क्रान्तिकारियों को जबरदस्ती दूध पिलाना चाहता था, इसके लिए जेल अधिकारियों की सहायता ली गई। जेल का बड़ा दरोगा खान बहादुर खैरदीन, बारह-पन्द्रह तगड़े सिपाही एक-एक करके कैदी क्रान्तिकारियों को कोठरियों से अस्पताल तक पहुंचाने में व्यस्त थे। दरोगा ने सुखदेव की कोठरी खुलवाई। कोठरी का दरवाजा खुलते ही सुखदेव तीर की तरह भाग निकले। दस रोज के अनशन के बाद भी उन्होंने ऐसी दौड़ लगाई कि जेल के अधिकारी परेशान हो गए। दस दिन का भूखा आदमी भी इस कदर फुर्ती से दौड़ सकता है, इस बात की उन्हें ज़रा भी उम्मीद नहीं थी। बड़ी मुश्किल से जब सुखदेव काबू में आया तो उसने मारपीट शुरी कर दी। किसी को मारा- किसी को काट खाया। अपने आदमियों को एक भूखे आदमी से पिटते देख दरोगा को गुस्सा आ गया। डॉक्टर के पास ले जाने से पहले उसने सुखदेव की खूब मरम्मत करवा दी, परन्तु वह बेझिझक मार खाते गए और दरोगा की ओर उपेक्षा के भाव से मुस्कुराते रहे। उनकी इस शरारतभरी मुस्कुराहट से दरोगा अत्यधिक क्रोधित हो उठा। जब सिपाही और दरोगा उसे टांगकर अस्पताल ले जा रहे थे तो उसने टांगें फटकारनी शुरू कर दीं। दरोगा पास आकर हिदायत देने लगा। सुखदेव ने दरोगा के सीने पर ऐसी लात मारी कि वह बेचारा धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा। दरोगा चाहता तो सुखदेव की अच्छी मरम्मत करवा सकता था, परन्तु वह अपनी झेंप मिटाने के लिए वहां से चला गया। सुखदेव हटी स्वभाव के थे, अगर उनको कोई बात सवार हो गई तो मजाल है जो कोई उनके फैसले को डिगा दे। उनके बाएं हाथ पर "ॐ" शब्द गुदा हुआ था। फरारी की हालत में पहचान के लिए यह बहुत बड़ी निशानी थी। आगरे में बम बनाने के लिए नाइट्रिक एसिड खरीदकर रखा गया था। "ॐ" शब्द मिटाना जरूरी था, जिससे पकड़े जाने पर पहचान न हो सके। इस "ॐ" शब्द को मिटाने के लिए उन्होंने गुदे हुए स्थान पर बहुत-सा नाइट्रिक एसिड डाल दिया। शाम तक जहां-जहां एसिड लगा था, गहरे घाव हो गए। पूरा हाथ सूज गया औए बुखार भी चढ़ आया। साथियों से पूछने पर उसने एक शब्द भी नहीं कहा और न ही तकलीफ के कारण हंसी-ठिठोली में कमी आने दी। एक दिन शाम को वह दुर्गा भाभी के घर पहुंचा। भगवती भाई उस समय कहीं बाहर गए हुए थे। भाभी रसोईघर में खाना बना रही थीं। सुखदेव चुपचाप भगवती भाई के कमरे में जाकर बैठ गया। इस प्रकार सुखदेव को काफी देर खामोश देखकर भाभी को उत्सुकता होने लगी कि वह अकेला कमरे में क्या कर रहा है? जाकर देखा तो दंग रह गयीं।
सुखदेव ने मेज पर मोमबत्ती जला रखी थी और उसकी लौ पर हाथ किये बैठा था। जिस स्थान पर उसका नाम लिखा था, वहां की खाल जल चुकी थी। वह अधूरा काम छोड़ना नहीं चाहता था। इस दृश्य को देखकर भाभी के रोंगटे खड़े हो गए- इस स्वभाव के थे वीर सुखदेव।

🚩नौजवानों की क्रान्तिकारी टोलियों ने फिर से हथियार उठा लिए थे, किसी भी तरह देश को आजाद कराना था। सुखदेव का काम भी बड़ी तत्परता से चल रहा था। दल की केन्द्रीय समिति की बैठक हुई- जिसमें यह निश्चय किया गया कि दिल्ली के असेम्बली भवन में बम फेंका जाए। इस कार्य को भगतसिंह करना चाहता था लेकिन दल के अन्य सदस्यों ने उसकी बात नहीं मानी। साण्डर्स की हत्या के सिलसिले में पंजाब पुलिस भगतसिंह के पीछे पड़ी थी। भगतसिंह के पकड़े जाने का अर्थ था- उसकी फांसी, जो दल के लोग नहीं चाहते थे। उनका इरादा किसी दूसरे व्यक्ति को भेजने का था- और यही निश्चय किया गया कि भगतसिंह के स्थान पर अन्य किसी को भेजा जाएगा, जो इस काम को कुशलतापूर्वक सम्पन्न कर सके। सौभाग्य से सुखदेव इस सभा में नहीं थे। बम फेंकने के लिए समिति की आज्ञा की जरूरत थी। भगतसिंह ने आग्रह करके समिति की बैठक बुलाई। सुखदेव को भी इस बैठक में बुलाया गया। भगतसिंह बम फेंकने के लिए अड़ गया। विवश होकर समिति को उसकी बात माननी पड़ी। सुखदेव अपने मित्र को खोना नहीं चाहते थे इस कारण उन्होंने भगतसिंह से बहस भी की लेकिन भगतसिंह के जिद्द के कारण उदास होकर उसी शाम किसी से कुछ कहे बिना सुखदेव लाहौर पहुंच गया। सड़क से जुलूस जब गुजर रहा था तो पुलिस के इशारे पर उसके किसी आदमी ने उस जुलूस में बम फेंक दिया। शहर में दंगा भड़क उठा। पुलिस इस दंगे को दबा नहीं पाई तथा अपनी इस करतूत पर वह खिसिया गयी थी। क्रान्तिकारियों को इस दंगे से जोड़कर वह अपना मतलब हल करना चाहती थी। पुलिस वालों ने सबसे पहले भगतसिंह को पकड़ा लेकिन वह जमानत पर छूट गए। इसके बाद वहां से सुखदेव को गिरफ्तार किया गया, जिसमें उसके कई अन्य साथी थे।

🚩भगतसिंह, सुखदेव और विजय कुमार सिन्हा ने तीन सदस्यों की कमेटी बनाई जिसका काम हर क्षेत्र में अंग्रेज अफसरों का विरोध करना था। उनका हमेशा से एक ही नारा था- 'क्रान्ति अमर रहे', 'वन्देमातरम्', 'इन्कलाब जिन्दाबाद'!
क्रान्तिकारियों को अंग्रेज अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे। दुश्मनों को खत्म करने के लिए उन्होंने चुन-चुनकर उनको फांसी देने शुरू कर दिया था। वे समझते थे कि इस तरह उनके मनोबल को गिरा देंगे- लेकिन यह उनकी सबसे बड़ी भूल थी। लाहौर कारगर में सुखदेव, भगतसिंह व राजगुरु तीनों ही कैद थे। उनके मुकदमे की सुनवाई, अदालत में चल रही थी। अंग्रेजों का ध्येय समाप्त हो चुका था। उन्होंने मुकदमे की सुनवाई भी पूरी नहीं होने दी सरकार को भय था कि अगर निष्पक्ष फैसला हुआ तो उसकी हार हो सकती है, और क्रांतिकारी भी छूट जाएंगे, यह सब कैसे सम्भव था! 7 अक्टूबर, सन् 1930 में सरकार ने सुखदेव, भगतसिंह तथा राजगुरु को फांसी की सजा सुना दी। सरकार इस फैसले को छिपाकर न रख सकी। लोगों को अंग्रेजों की जल्दबाजी में किये गए फैसले के बारे में पता हो चुका था। यह फैसला सुनकर चारों ओर क्रान्ति आ गई। अगले दिन 8 अक्टूबर को उत्तर भारत के प्रत्येक स्थान पर हड़ताल हो गई। पूरा वातावरण 'भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव जिन्दाबाद' के नारों से गूंजने लगा।

🚩फांसी पर चढ़ने से पहले उन तीनों के होठों पर मुस्कान थिरक रही थी, उन्हें अपनी मौत का जरा-सा भी भय नहीं था। 23 मार्च, सन् 1931 की शाम को लाहौर की केन्द्रीय जेल में तीनों क्रान्तिकारियों भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी पर लटका दिया गया।

🚩भारत के इतिहास में इन तीनों क्रान्तिकारियों का नाम सवर्ण अक्षरों में लिखा गया। इस बात में कोई सन्देह नहीं कि आर्यवर्त के वीर पुत्र सुखदेव एक सच्चे देशभक्त थे, उन्होंने देश पर हंसते-हंसते अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। हम सभी को उनपर गर्व होना चाहिए तथा उनके जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए कि जब-जब हमारे देश पर कोई संकट आएगा, तब-तब हम सभी एक मजबूत दीवार बनकर उस संकट का सामना करेंगे। - प्रियांशु सेठ

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Tuesday, May 14, 2019

क्रांतिकारी वीर सावरकरजी ने अंग्रेजों से माफ़ी क्यों मांगी?

14 मई 2019
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🚩राजस्थान मे पिछली भाजपा सरकार में किताबों मे जनसंघ के वीरसावरकर को महान क्रांतिकारी, देशभक्त और आजीवन देश की स्वतंत्रता का तप करनेवाला बताया था, लेकिन कांग्रेस सरकार ने आते ही तमाम संघ से जुड़े हुए शहीदों की कहानी पाठ्यक्रम में बदलनी शुरु कर दी । लोकसभा चुनाव राजस्थान में खत्म हुआ ही है कि कांग्रेस सरकार ने वीर सावरकर को दसवीं की किताब मे ‘कारागार से बाहर आने के लिए अंग्रेजों से क्षमा मांगनेवाला व्यक्ति’ उल्लेखित किया है ।
🚩जानिए सच्चाई क्या थी?

वीर सावरकर भारत देश के महान क्रांतिकारियों में से एक थे। पूर्व के कांग्रेस राज की बात है। मणिशंकर अय्यर ने मुस्लिम तुष्टिकरण को बढ़ावा देने के लिए अण्डमान स्थित सेलुलर जेल से वीर सावरकर के स्मृति चिन्हों को हटवा दिया। यहाँ तक उन्हें अंग्रेजों से माफ़ी मांगने के नाम पर गद्दार तक कहा था। भारत देश की विडंबना देखिये जिन महान क्रांतिकारियों ने अपना जीवन देश के लिए बलिदान कर दिया। उन क्रांतिकारियों के नाम पर जात-पात, प्रांतवाद, विचारधारा, राजनीतिक हित आदि के आधार पर विभाजन कर दिया गया। इस विभाजन का एक मुख्य कारण देश पर सत्ता करने वाला एक दल भी रहा। जिसने केवल गांधी-नेहरू को देश के लिए संघर्ष करने वाला प्रदर्शित किया। जिससे यह भ्रान्ति पैदा हो गई हैं कि देश को स्वतंत्रता गांधी जी/कांग्रेस ने दिलाई । वीर सावरकर भी स्वाधीनता के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले, सर्वस्व समर्पित करने वाले असंख्य क्रांतिकारियों, अमर हुतात्माओं में से एक थे जिनकी पूर्ण रूप से उपेक्षा की गई।
🚩वीर सावरकर ने अपनी कहानी में अंडमान की यात्राओं पर प्रकाश डालते हुए कोल्हू में बैल की तरह जुत कर तेल पेरने का बड़ा ही सजीव वर्णन किया है | उन्होंने लिखा है -
"हमें तेल का कोल्हू चलने का काम सोंपा गया जो बेल के ही योग्य माना जाता है | जेल में सबसे कठिन काम कोल्हू चलाना ही था | सवेरे उठते ही लंगोटी पहनकर कमरे में बंद होना तथा सांय तक कोल्हू का डंडा हाथ से घुमाते रहना | कोल्हू में नारियल की गरी पड़ते ही वह इतना भारी चलने लगता की हृदय पुष्ट शरीर के व्यक्ति भी उसकी बीस फेरियां करते रोने लग जाते | राजनीतिक कैदियों का स्वास्थ्य खराब हो या भला, ये सब सख्त काम उन्हें दिए ही जाते थे | चिकित्सा शास्त्र भी इस प्रकार साम्राज्यवादियों के हाथ की कठपुतली हो गया | सवेरे दस बजे तक लगातार चक्कर लगाने से श्वास भारी हो जाता और प्रायः सभी को चक्कर आ जाता या कोई बेहोश हो जाते | दोपहर का भोजन आते ही दरवाजा खुल पड़ता, बंदी थाली भर लेता और अंदर जाता की दरवाजा बंद |
🚩"यदि इस बीच कोई अभागा कैदी चेष्टा करता की हाथ पैर धोले या बदन पर थोड़ी धूप लगा ले तो नम्बरदार का पारा चढ़ जाता | वह मा बहन की गालियाँ देनी शुरू कर देता था | हाथ धोने का पानी नहीं मिलता था, पीने के पानी के लिए तो नम्बरदार के सैंकड़ों निहार करने पड़ते थे | कोल्हू को चलाते चलाते पसीने से तर हो जाते, प्यास लग जाती | पानी मांगते तो पानी वाला पानी नहीं देता था | यदि कहीं से उसे एकाध चुटकी तम्बाकू की दे दी तो अच्छी बात होती , नहीं तो उलटी शिकायत होती की ये पानी बेकार बहाते हैं जो जेल में एक बड़ा भारी जुर्म होता | यदि किसी ने जमादार से शिकायत की तो वः गुस्से में कह उठता - " दो कटोरी पानी देने का हुक्म है , तुम तो तीन पि गया | और पानी क्या तुम्हारे बाप के यहाँ से आएगा ? " नहाने की तो कल्पना करना ही अपराध था | हां , वर्षा हो तो भले नहा लें | " केवल पानी ही नहीं अपितु " भोजन की भी वही स्थिति थी | खाना देकर जमादार कोठरी बंद कर देता और कुछ देर में हल्ला करने लगता - " बैठो मत , शाम को तेल पूरा हो नही तो पीटे जाओगे | और जो सजा मिलेगी सो अलग | " इसे वातावरण में बंदियों को खाना निगलना भी कठिन हो जाता | बहुत से ऐसा करते की मुंह में कौर रख लिया और कोल्हू चलाने लगे | कोल्हू पेरते पेरते , थालियों में पसीना टपकाते टपकाते , कौर को उठाकर मुंह में भरकर निगलते कोल्हू पेरते रहते | " 100 में से एकाध ऐसे थे जो दिन भर कोल्हू में जुतकर तीस पौंड तेल निकाल पाते | जो कोल्हू चलाते चलाते थककर हाय हाय कर दते उन पर जमादार और वार्डन की मार पड़ती | तेल पूरा न होने पर उपर से थप्पड़ पड़ रहे हैं , आँखों में आंसुओं की धारा बह रही है | "
🚩वीर सावरकर जानते थे कि यह अत्याचार क्रांतिकारियों पर अंग्रेजों द्वारा इसलिए किया जा रहा है ताकि वे मानसिक रूप से विक्षिप्त होकर या तो पागल हो जाएं अथवा मर जाएं । अंग्रेजों की छदम न्यायप्रियता का यह साक्षात उदहारण था। इतिहास फिर से दोहरा रहा था। औरंगजेब ने भी कभी अंग्रेजों के समान शिवाजी को कैद कर समाप्त करने का सोचा था ताकि शिवजी दक्कन का कभी दोबारा मुँह न देख सके। जन्मभूमि से इतनी दूर जाकर इस प्रकार से मरना वीर सावरकर को किसी भी प्रकार से स्वीकार्य नहीं था। उन्हें लगा की उनका जीवन इसी प्रकार से नष्ट हो जायेगा।
🚩मातृभूमि की सेवा वह कभी नहीं कर पाएंगे। उन्होंने साम,दाम, दंड और भेद की वही नीति अपनाई जो वीर शिवाजी ने औरंगज़ेब की कैद में अपनाई थी। उन्होंने अंग्रेजों से क्षमा मांग कर मातृभूमि जाने का प्रस्ताव उनके समक्ष रखा। अंग्रेज उनकी कूटनीति का शिकार बन गए। वीर सावरकर को सशर्त रिहा कर दिया गया। अपने निर्वासित जीवन में उन्हें न रत्नागिरी से बाहर नहीं निकलना था और न ही किसी भी प्रकार की क्रांतिकारी गतिविधि में भाग लेना था। वीर सावरकर ने अवसर का समुचित लाभ उठाया। उन्होंने अण्डमान जेल के कैदियों के अधिकारों के लिए आंदोलन किया। उससे भी बढ़कर उन्होंने छुआछूत रूपी अन्धविश्वास के विरोध में आंदोलन चलाया। वीर सावरकर ने पतित पावन मंदिर की स्थापना की जिसमें बिना किसी भेदभाव के ब्राह्मण से लेकर शूद्र सभी को प्रवेश करने की अनुमति थी। सामूहिक भोज का आयोजन किया जिसमें शूद्रों के हाथ से ब्राह्मण भोजन ग्रहण करते थे। दलित बच्चों को जनेऊ धारण करवाने से लेकर गायत्री मंत्र की शिक्षा दी। रत्नागिरि में वीर सावरकर ने छुआछूत रूपी अभिशाप को समाप्त करने के लिए अत्यंत प्रभावशाली आंदोलन किया। इसके साथ साथ जनचेतना के लिए उनका लेखन कार्य अविरल चलता रहा।
🚩खेद है कि वीर सावरकर के इस चिंतन, श्रम और पुरुषार्थ की अनदेखी कर साम्यवादी इतिहासकार अपनी आदत के मुताबिक उन्हें गद्दार कहकर अपमानित करते हैं।  उनकी माफ़ी मांगने की कूटनीति को कायरता के रूप में प्रेषित करते है। धिक्कार है ऐसे पक्षपाती लेखकों को और ऐसे राजनेताओं को जो वीर सावरकर के महान कार्यों की उपेक्षा कर अपने राजनीतिक हितों को साधने में लगे हुए हैं। उन्हें गद्दार कहते है।  वीर सावरकर गद्दार नहीं अपितु स्वाभिमानी थे। देशभक्त थे। धर्मयोद्धा थे। अनेक क्रांतिकारियों के मार्गदर्शक थे। कूटनीतिज्ञ थे। प्रबुद्ध लेखक थे। आत्मस्वाभिमानी थे। समाज सुधारक थे।
🚩आईये आज हम लोग यह प्राण करे कि हम भी #VeerSavarkar के समान छुआछूत मिटाने, धर्म रक्षा, देश भक्ति के लिए पुरुषार्थ करेंगे।

हमारे क्रांतिकारी महान है गद्दार कभी नहीं। गद्दार तो वो है जो उनकी आलोचना करते है। - डॉ विवेक आर्य
🚩स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकरजी को ‘अंग्रजों से माफी मांगनेवाला’ बतानेवाली कांग्रेस सरकार का धिक्कार है !
🚩कांग्रेस को जरा वह कोठरी देखकर आनी चाहिए जहां सावरकरजी को काला पानी की शिक्षा दी गर्इ थी । मातृभूमि की सेवा के लिए अपना जीवन व्यतीत करनेवाले सपूत पर प्रश्नचिन्ह निर्माण करना यह दुर्भाग्यपूर्ण है !
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