16 मई 2020

(1) औरंगाबाद, महाराष्ट्र में 08 मई को 16 मजदूरों को मालगाड़ी ने रौंद दिया। ये पैदल अपने घर जा रहे थे और थककर रेल की पटरी पर सो गए थे। इतने थक गए थे कि मालगाड़ी की आवाज़ तक नहीं सुनाई दी। ऐसे सोए कि फिर कभी नहीं उठे।
(2) उत्तर प्रदेश के औरैया जिले में 16 मई को सुबह भीषण हादसे में 24 प्रवासी मजदूरों की मौत हो गई। सभी श्रमिक एक ट्रक और ट्रोले में सवार थे। दिल्ली-कानपुर हाइवे पर हुए दर्दनाक हादसे में 36 श्रमिक गंभीर रूप से घायल हैं। इनमें से ज्यादातर मजदूर बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के रहने वाले थे।
(3) बिहार के पूर्णिया जिले की मुख्तारा सादातपुर में लखनऊ-मुजफ्फरपुर हाईवे के किनारे राेती दिखीं। जब पूछा तो बताया- ‘डेढ़ माह तक पानी बिस्किट पर जिंदगी कटी। मजदूरी करते थे। अचानक कर्फ्यू लग गया। क्या खाते? साथ काम करने वाले पैदल ही निकलने लगे, तो हम भी चल दिए। खुद किसी तरह भूखे रह लिए, बच्चे भूख से रोते-रोते बेसुध हो सो जाते, तो कलेजा फट जाता। कई दिनों तक एक रोटी के चार-चार टुकड़े कर पानी में भिगो कर बच्चों काे खिलाया।’ मुख्तारा की यह पीड़ा काेराेना के कारण मजदूरी पर आए संकट की कहानी है। गुड़गांव से लौटते वक्त लखनऊ के पास ट्रक ने उसके पति काे टक्कर मार दी, जिससे उसका पैर टूट गया। कई बार गिड़गिड़ाने पर भी मदद नहीं मिली। आखिरकार एक गिट्टी लदे ट्रक वाले ने बैठा लिया।
(4) रायपुर में एक ह्रदय विदारक दृश्य देखा गया। जितने भी मजदूर एक जगह से दूसरी जगह जा रहे हैं, उनके बच्चों के चेहरे मुरझाए हुए और आंखें सूखे हुए दिखे। और आखिर दर्द बयां भी किससे करें? एक बच्चा पत्थर पर बैठा था। मां की गोद की आदत तो जैसे छूट गई और अब तो पत्थर पर भी नींद आ जाती है। मजदूर महाराष्ट्र से निकलकर, छत्तीसगढ़, ओडिशा, बिहार, झारखंड जाने के लिए निकले हैं। मजदूर कहते हैं कि कि सब कुछ सहन हो जाता है, लेकिन बच्चों के चेहरे देख रोना आता है। कभी दूध मिल जाता है, तो कभी भूखे ही चलते रहना पड़ता है। बच्चों का सफर भी ऐसा कि कभी मां की गोद सफर का सहारा बनती है, तो कभी पिता की अंगुली और कंधे, और कभी-कभी पत्थर भी। और ये सफर अभी जारी है .......
(5) मुजफ्फरपुर में श्रवण कुमार नामक मजदूर दिखाई दिया। हरियाणा के गुड़गांव में सिलाई-कढ़ाई करने वाला श्रवण कंधे पर बैग टांगे पैदल ही 1000 किमी से ज्यादा के सफर पर है। पैदल चलते-चलते रास्ते में दिखने वाले ट्रक, ट्रोला और अन्य वाहनों से हाथ हिलाकर मदद मांगता, लेकिन सब अपने-अपने रास्ते निकल जाते और श्रवण वहीं छूट जाता। 7 दिन पैदल चलकर इतना थक चुका है कि पांव एक कदम आगे बढ़ने को तैयार नहीं। बढ़ने की कोशिश करता है तो पांव के छाले तड़पा देेते हैं। हाल पूछने पर फफक-फफक कर रो पड़ता है। बताता है- ‘6 हजार रुपए महीना मिलता था। काम-धंधा बंद हो गया तो मजदूर पिता ने गांव से कुछ पैसे भेजे, जो जल्द खत्म हो गए। मकान मालिक ने भी दो महीने का किराया लेकर जाने को कह दिया। बस, अब जल्द घर पहुंचना है।’
(6) भोपाल में देश का भविष्य नंगे पैर दिखाई दिया। 05 साल का राहुल पिता के साथ नंगे पैर 700 किमी के सफर पर चल रहा है। सुबह का समय है पर सड़क अभी से गर्म होने लगी है। साथ में माता-पिता भी हैं। ना गर्म सड़क से बचने का कोई उपाय और ना तेज धूप से बचने का जतन। उसे तो शायद यह भी पता नहीं कि वह किस मंजिल की तरफ और क्यों जा रहा है? लेकिन इतना जरूरी जानता है कि मिस्त्री का काम करने वाले पिता अविनाश दास सब कुछ समेटकर कहीं जा रहे हैं। अविनाश भोपाल के बंजारी इलाके में मिस्त्री का काम करते थे और जब कोई मदद नहीं मिली, तो पैदल ही छत्तीसगढ़ के अपने गांव मुंगेली के लिए निकल पड़े। अब ना तो पैसे बचे हैं और ना ही खाने-पीने का कोई सामान।
(7) लखनऊ के मलीहाबाद की रहने वाली गुड़िया ने रुंधे गले से सवाल किया कि अगर उन्हें खाना मिल ही जाता तो रात में चोरों की तरह क्यों भागते? मकान मालिक ने उनका सामान निकालकर बाहर फेंक दिया था। लेकिन अगर खाना मिल गया होता तो कहीं टेंट में ही रहकर जिंदगी गुजार लेते। जब खाना नहीं मिला तो वे अपनी किस्मत के भरोसे तीनों बच्चों के साथ निकल पड़ीं। वे आनंद विहार रेलवे स्टेशन की रेल पटरियों के सहारे लखनऊ के लिए निकल चुकी हैं। सड़क से जाते समय उन्हें पकड़े जाने का डर है। उन्हें अपनी मंजिल कब मिलेगी, अपने घर तक कैसे पहुंचेंगी, इसका कोई अंदाजा नहीं है। रास्ते में बच्चों की भूख कैसे मिटेगी, इस सवाल पर उनकी आंखें केवल आसमान की ओर उठ जाती हैं। उनके गले से कोई आवाज नहीं निकलती।
(8) यूपी के सुल्तानपुर के रहने वाले महेश बताते हैं कि लगभग 15 दिन हो गए, उनके पास कोई काम नहीं है। खाने-पीने के लिए कुछ भी नहीं है। दिल्ली सरकार के रैन बसेरों या स्कूलों में भी उन्हें खाने की कोई व्यवस्था होती नहीं दिखी तो पैदल ही घर जाने का निर्णय कर लिया। अब वे अपने चार अन्य साथियों के साथ सुल्तानपुर के लिए निकल चुके हैं। लगभग 650 किलोमीटर का दिल्ली से सुल्तानपुर का उनका सफर कैसे गुजरेगा, इसकी उन्हें कोई जानकारी नहीं है।
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