Saturday, January 2, 2021

लव जिहाद में फंसी हिंदू युवतियों की दुर्दशा और नेताओं का मौन

02 जनवरी 2021


मुंबई की एक विदुषी ने लिखा है कि उनके सामने गत तीन महीनों में पाँच मामलें आए जिसमें मुस्लिम लड़कों ने अबोध हिन्दू लड़कियों पर डोरे डाल कर, शारीरिक उत्तेजना दिला या संबंध बनाकर, ब्लैकमेल कर, निकाह कर, धर्म-परिवर्तन कराकर, फिर जल्द उपेक्षित और मार-पीट कर, कुछ मामले में दोस्तों-संबंधियों द्वारा बलात्कार भी करवा कर, फिर अपना दूसरा निकाह कर, पहली को लाचार नौकर जैसी बनाकर रख दिया। हिन्दू विधवाओं या विवाह के बाद अलग हुई युवा स्त्रियों को भी निशाना बना कर यह हो रहा है। ऐसी शादियों से तलाक लेकर अलग होने की कोशिश करने वालियों को भी धमकी, प्रताड़ना मिली। अदालत से गुजारा देने का आदेश मिलने पर भी वह नहीं मिलता।




कुछ हेर-फेर के साथ अधिकांश लव-जिहाद में यही हो रहा है। एक बार केरल हाई कोर्ट के संज्ञान लेने पर भी ऐसी घटनाएं रोकने के लिए सत्ताधारियों और कानून द्वारा कुछ नहीं किया जा रहा। उक्त विदुषी ने सामाजिक चेतना जगाने की बात की, जो सही है। पर क्या सत्ता और न्याय संस्थाओं की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती, जबकि इन मामलों में उत्पीड़न, धोखा, अत्याचार मौजूद है? क्या वे संसद या विधान सभा में इस पर चर्चा भी नहीं करा सकते, जिस से कम से कम सामाजिक चेतना तो बने?

विचित्र यह कि ऐसी परिघटनाएं जिसमें हिन्दुओं को तरह-तरह की सांस्कृतिक, राजनीतिक वंचना, अपमान, भेद-भाव और अन्याय सहना पड़ रहा है, इसकी शिकायत वे भी बरसों-दशकों से करते रहे हैं जो आज ऊँची कुर्सियों पर हैं, किन्तु कुर्सी पर पहुँच कर उनकी बोलती बंद हो जाती है। वे हर तरह की बातें करते हैः विकास, चुनाव, स्वच्छता, गैस, पानी, पार्टी, नेता, वाड्रा, सर्जिकल, पाकिस्तान, आदि, किन्तु जिन पर उनका मुँह स्थायी रूप से बंद हो जाता है, वह वे बातें हैं जिन पर पहले बोलते रहे थे, जब तक उन्हें ऊँची जिम्मेदारी नहीं मिली थी। पार्टी, संगठन या सत्ता में।

तो क्या पद पाकर वे मजबूत होने के बजाए कमजोर हो जाते हैं? अपने मन की नहीं बोल सकते। किसी अन्याय पर कुछ करना तो दूर, टीका-टिप्पणी करने से भी परहेज करते हैं। पुराने सहयोगियों से संपर्क तोड़ लेते हैं। मेल, फोन का जबाव नहीं देते। यह संकोच है, या डर, विवशता? या कि सत्ता पाकर उन्हें ऐसे सत्य का बोध हो जाता है जिस से पिछली बातें झूठी, अनुचित, अतिरंजित या महत्वहीन लगने लगती हैं? यदि यह भी हो, तो क्या उनकी जिम्मेदारी नहीं कि सत्ता-पदों से बाहर रहे साथियों को सचाई से अवगत कराकर ऐसी शिकायतें करना बंद कराएं?

कम से कम बीस वर्षों के अनुभव से पाया है कि ऐसे आलोचनात्मक लेखों की वैसे हिन्दूवादी प्रशंसा करते हैं, जो सत्ता-पदों पर नहीं हैं। दूसरे या तो मौन, या लानत-मलानत करते हैं कि लेखक पराजित मानस है, छिद्रान्वेषी है, बड़ी तस्वीर नहीं देखता, अपने ही पक्ष का निंदक है, आदि। यहाँ तक कि दंडित भी करते हैं! लेकिन जिन समस्याओं से हिन्दू धर्म-समाज त्रस्त है, उन पर उनका कभी कोई बयान या हस्तक्षेप नहीं होता। तब ये सत्ता, संसाधन किस लिए हाथ में लिए जाते हैं?

जबकि अनेक छोटी और बड़ी समस्याएं भी मामूली हस्तक्षेप से सुधर सकती हैं। कई मामलों में किसी साहस की भी जरूरत नहीं। केवल तनिक बुद्धि लगाने की बात है। इसी लव-जिहाद पर यदि संसद में एक बहस ही हो जाए, तो काफी उपाय निकल जाएगा। किन्तु किसी ऐसी चिन्ता पर उन्हें कभी बाहर भी विचार-विमर्श, या संवाद तक मंजूर नहीं रह जाता। वैसे वे सत्ता-संसाधनों से सैकड़ों गोष्ठियाँ, सेमिनार, सम्मेलन, व्याख्यान, प्रकाशन, प्रचार, आदि करते रहते हैं। लेकिन उनके विषय हिन्दू चिन्ताओं को छोड़ कर बाकी हर चीज हैं। जिस में सब से बड़ा हिस्सा नेता-पार्टी का गौरवगान, आत्म-प्रशंसा, और प्राचीन हिन्दू वैभव का कीर्तन रहता है।

अतः प्रश्न उठता है – क्या सत्ता पाकर हिन्दू ही कमजोर हो जाते हैं? या कि वे पहले ही कमजोर थे, और हैं? क्योंकि प्रायः मुसलमान कैसे भी पद पर हों, अपने मजहब, समुदाय के हितों पर बोलना कभी बंद नहीं करते। यहाँ तक कि अहंकारी, गैर-कानूनी माँग भी करते हैं। साथ ही, खुले या चुपचाप इस्लामी जमीन, संसाधन, संस्थान और प्रभाव बढ़ाने में लगे रहते हैं। परवाह नहीं करते कि मीडिया या सत्ता उन्हें क्या कहती है, क्या नहीं। तब हिन्दुओं को क्या हो जाता है कि सत्ता पाकर वे कांग्रेसी, कम्युनिस्ट, जातिवादी, और नकली भाषा बोलने लगते हैं। ऊपर से इस की जयकार में संकोच करने पर पुराने साथियों को फटकारते हैं। सत्ताधारी सहयोगियों की भयंकर गलतियों पर भी चुप रहते हैं। जिन गलत कामों के लिए दूसरे की निंदा करते थे, ठीक वही करने के लिए अपने नेताओं की प्रशंसा करते हैं।

पद पाकर प्रायः हिन्दू नेता झूठ बोलने लगते हैं। चाहे विषय धार्मिक, मिशनरी, इस्लामी हो, या वैदेशिक, सामाजिक, ऐतिहासिक। यह पहले नहीं था। अंग्रेजों के समय हमारे नेता हिन्दू समाज की चिन्ताओं पर बोलने में संकोच नहीं करते थे। तब स्वतंत्र भारत में क्या हो गया, कि हिन्दू चिन्ताएं औपचारिक विवर्श से ही बाहर हो गईं? उन का उल्लेख निजी बात-चीत में, अंदरखाने रह गया। बरसों से सारे भाषण, बयान, गोष्ठी, सेमिनार, प्रेस-कांफ्रेंस, साहित्य छान लीजिए। अपवादों को छोड़कर कोई महत्वपूर्ण नेता, लेखक, समाजसेवी, मठाधीश, उद्योगपति, आदि किसी हिन्दू संत्रास पर चिन्ता करते, बोलते, माँग करते नहीं मिलेंगे। मानो कोई सेंसरशिप लगी हो।

यह कैसी सेंसरशिप है? विदेशी शासक कब के चले गए। उन के राज में दयानन्द, मालवीय, तिलक, श्रीअरविन्द, श्रद्धानन्द, गाँधी, प्रेमचंद, निराला, बिड़ला, गोयनका, खुल कर हिन्दू समाज की चिन्ता रखते थे। तब स्वदेशी शासन में क्या हो गया, कि मुसलमानों को देश-बाँटकर अलग दे देने के बाद भी, हिन्दू महानुभाव डरे, लजाए, आँख चुराए जीवन जीते हैं? पुराने साथियों से बचते ही नहीं, बल्कि असहमति रखने वाले विशिष्ट ज्ञानियों को भी दंडित तक कर डालते हैं! अरुण शौरी अकेले नहीं, जिन्हें अछूत बना दिया गया। यह मूढ़ता की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है, कि जिन्हें उपेक्षित करना था, उन्हें ईनाम दिये गये और समाज जिन्हें सम्मानित होने की आशा करता था, उन्हीं पर तिरस्कार अपमान की चोट पड़ी!

हिन्दू नेताओं, मध्य-वर्ग को क्या हो गया है? क्या उन की प्रतिभा मर गई ? हिन्दूवादी संगठनों ने अपने यहाँ कैसी नैतिक, वैचारिक, आत्मिक ट्रेनिंग दी है, जिस का परिणाम नियमित बनाव-छिपाव, दोहरापन एवं मूढ़ता है ? शिक्षा पर जैसी नई अ-नीति या नीति-शून्यता अभी बनी है, वह पहले कभी नहीं बनी थी! जो बुद्धि सब से मूलभूत क्षेत्र में ऐसी नीतिहीनता गढ़ सकती है, वह दूसरे काम चाणक्य जैसी करेगी, यह नितांत अविश्वसनीय है।

इस सांस्कृतिक परिदृश्य में वह हिन्दू चरित्र नहीं, जिसका उपनिषदों से लेकर स्वामी विवेकानन्द, टैगोर, निराला से लेकर राम स्वरूप तक ने आख्यान किया है। आज जो हो रहा है कि वह गाँधी-नेहरूवादी अहंकार, अज्ञान और पाखंड का ही एक रूप है। कुछ बेहतर या बदतर।

आगे हरि-इच्छा जो भी हो! पर ऐसे एलीट से कोई आशा नहीं बँधती, जो हिन्दू अबलाओं की दुर्गति देखकर भी उस से आँखें चुराकर निरंतर अपनी पीठ खुद ठोकने में लगा हो। - डॉ. शंकर शरण

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Friday, January 1, 2021

औरंगजेब पर जिनसे कांपता था उन गोकुल सिंह का पराक्रम अदुभुत था

01 जनवरी 2021


भारतवासीयों का टीवी, फिल्में, सीरियल, अखबार, पढ़ाई, झूठे इतिहास आदि द्वारा ऐसा ब्रेनवॉश कर दिया है कि जिन अंग्रेजों ने भारत को 200 साल गुलाम बनाकर रखा, देशवासियों को प्रताड़ित किया, देश की संपत्ति लूटकर ले गये उन ईसाई अंग्रेजों के नये साल पर बधाई दे रहे हैं, जश्न मना रहे हैं, लेकिन जिन क्रांतिकारीयों ने इन अंग्रेजों को भगाने में और मुगलों की नींव समाप्त करने में अपने प्राणों की बलि दे दी तथा आज जिनके कारण हम इस देश में स्वतंत्र घूम रहे हैं ऐसे योद्धाओं को भुला दिया ।




ऐसे ही एक भारत माता के वीर सपूत थे गोकुल सिंह, जिन्होंने विशाल मुगल सेना के दांत खट्टे कर दिए थे और औरंगजेब के पसीने छुड़वा दिए थे । उनका आज (1 जनवरी) बलिदान दिवस है, उनका इतिहास पढ़कर आप भी अपने पूर्वजों की वीरता पर गर्व महसूस करेंगे और विदेशी आक्रांताओं मुगलों तथा अंग्रेजों से नफरत करने लगेंगे ।

सन् 1666  में इस्लामिक राक्षस औरंगजेब के अत्याचारों से हिन्दू जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी । मंदिरों को तोड़ा जा रहा था, हिन्दू स्त्रियों की इज्जत लूटकर उन्हें मुस्लिम बनाया जा रहा था। औरंगजेब और उसके सैनिक पागल हाथी की तरह हिन्दू जनता को मथते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे ।

हिंदुओं को दबाने के लिए औरंगजेब ने अब्दुन्नवी नामक एक कट्टर मुसलमान को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया । अब्दुन्नवी के सैनिकों का एक दस्ता मथुरा जनपद में चारों ओर लगान वसूली करने निकला । मथुरा के पास सिनसिनी गाँव के सरदार गोकुल सिंह के आह्वान पर किसानों ने लगान देने से इंकार कर दिया, परतन्त्र भारत के इतिहास में वह "पहला असहयोग आन्दोलन" था ।

दिल्ली के सिंहासन के नाक तले समरवीर धर्मपरायण हिन्दू वीर योद्धा गोकुल सिंह और उनकी किसान सेना ने आतताई औरंगजेब को हिंदुत्व की ताकत का एहसास दिलाया ।

मई 1669 में अब्दुन्नवी ने सिहोरा गाँव पर हमला किया । उस समय वीर गोकुल सिंह गाँव में ही थे । भयंकर युद्ध हुआ लेकिन इस्लामी शैतान अब्दुन्नवी और उसकी सेना सिहोरा के वीर हिन्दुओं के सामने टिक ना पाई और सारे इस्लामिक पिशाच गाजर-मूली की तरह काट दिए गए ।

गोकुल सिंह की सेना में जाट, राजपूत, गुर्जर, यादव, मेव, मीणा इत्यादि सभी जातियों के हिन्दू थे, सब अपनी जाति-पाति भूलकर एक हिंदू थे। इस विजय ने मृतप्राय हिन्दू समाज में नए प्राण फूँक दिए थे ।

इसके बाद पाँच माह (5 महीनों ) तक भयंकर युद्ध होते रहे । मुगलों की सभी तैयारियां और चुने हुए सेनापति प्रभावहीन और असफल सिद्ध हुए । क्या सैनिक और क्या सेनापति सभी के ऊपर गोकुलसिंह का वीरता और युद्ध संचालन का आतंक बैठ गया । अंत में सितंबर मास में, बिल्कुल निराश होकर, शफ शिकन खाँ ने गोकुलसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा । गोकुल सिंह ने औरंगेजब का प्रस्ताव अस्वीकार करते हुए  कहा कि "औरंगजेब कौन होता है हमें माफ करने वाला, माफी तो उसे हम हिन्दुओं से मांगनी चाहिए उसने अकारण ही हिन्दू धर्म का बहुत अपमान किया है ।

अब औरंगजेब 28 नवम्बर 1669 को दिल्ली से चलकर खुद मथुरा आया गोकुल सिंह से लड़ने के लिए। औरंगजेब ने मथुरा में अपनी छावनी बनाई और अपने सेनापति होशयार खाँ को एक मजबूत एवं विशाल सेना के साथ युद्ध के लिए भेजा ।

आगरा शहर का फौजदार होशयार खाँ 1669 सितंबर के अंतिम सप्ताह में अपनी-अपनी सेनाओं के साथ आ पहुंचे । यह विशाल सेना चारों ओर से गोकुलसिंह को घेरा लगाते हुए आगे बढ़ने लगी । गोकुलसिंह के विरुद्ध किया गया यह अभियान, उन आक्रमणों से विशाल स्तर का था, जो बड़े-बड़े राज्यों और वहां के राजाओं के विरुद्ध होते आए थे । इस वीर के पास न तो बड़े-बड़े दुर्ग थे, न अरावली की पहाड़ियाँ और न ही महाराष्ट्र जैसा विविधतापूर्ण भौगोलिक प्रदेश । इन अलाभकारी स्थितियों के बावजूद, उन्होंने जिस धैर्य और रण-चातुर्य के साथ, एक शक्तिशाली साम्राज्य की केंद्रीय शक्ति का सामना करके, बराबरी के परिणाम प्राप्त किए, वह सब अभूतपूर्व है ।

औरंगजेब की तोपों,धर्नुधरों, हाथियों से सुसज्जित तीन लाख (3 लाख) लोगों की विशाल सेना और गोकुल सिंह के किसानों की बीस हजार (20 हजार) की सेना में भयंकर युद्ध छिड़ गया । चार दिन तक भयंकर युद्ध चलता रहा और गोकुल सिंह की छोटी सी अवैतनिक सेना अपने बेढंगे व घरेलू हथियारों के बल पर ही अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित और प्रशिक्षित मुगल सेना पर भारी पड़ रही थी ।

भारत के इतिहास में ऐसे युद्ध कम हुए हैं जहाँ कई प्रकार से बाधित और कमजोर पक्ष, इतने शांत निश्चय और अडिग धैर्य के साथ लड़ा हो । हल्दी घाटी के युद्ध का निर्णय कुछ ही समय में हो गया था। पानीपत के तीनों युद्ध एक-एक दिन में ही समाप्त हो गए थे, परन्तु वीरवर गोकुलसिंह का युद्ध तीसरे दिन भी चला । इस लड़ाई में सिर्फ पुरुषों ने ही नहीं, बल्कि उनकी स्त्रियों ने भी पराक्रम दिखाया ।

चार दिन के युद्ध के बाद जब गोकुल सिंह की सेना युद्ध जीतती हुई प्रतीत हो रही थी तभी हसन अली खान के नेतृत्व में एक नई विशाल मुगलिया टुकड़ी आ गई और इस टुकड़ी के आते ही गोकुल की सेना हारने लगी । युद्ध में अपनी सेना को हारता देख हजारों नारियाँ जौहर की पवित्र अग्नि में खाक हो गई ।

गोकुल सिंह और उनके ताऊ उदय सिंह को सात हजार साथियों सहित बंदी बनाकर आगरा में औरंगजेब के सामने पेश किया गया । औरंगजेब ने कहा "जान की खैर चाहते हो तो इस्लाम कबूल कर लो और रसूल के बताए रास्ते पर चलो । बोलो क्या इरादा है इस्लाम या मौत ?

अधिसंख्य धर्म-परायण हिन्दुओं ने एक सुर में कहा - "औरंगजेब, अगर तेरे खुदा और रसूल मोहम्मद का रास्ता वही है जिस पर तू चल रहा है तो धिक्कार है तुझे, हमें तेरे रास्ते पर नहीं चलना l"

इतना सुनते ही औरंगजेब के संकेत से गोकुल सिंह की बलशाली भुजा पर जल्लाद का बरछा चला । गोकुल सिंह ने एक नजर अपने भुजाविहीन रक्तरंजित कंधे पर डाली और फिर बड़े ही घमण्ड के साथ जल्लाद की ओर देखा और कहा दूसरा वार करो ।

दूसरा बरछा चलते ही वहाँ खड़ी जनता आर्तनाद कर उठी और फिर गोकुल सिंह के शरीर के एक-एक जोड़ काटे गए । गोकुल सिंह का सिर जब कटकर धरती माता की गोद में गिरा तो मथुरा में केशवराय जी का मंदिर भी भरभराकर गिर गया । यही हाल उदय सिंह और बाकि साथियों का भी किया गया । उनके छोटे- छोटे बच्चों को जबरन मुसलमान बना दिया गया । 1 जनवरी 1670 ईसवी का दिन था वह।

ऐसे अप्रतिम वीर का कोई भी इतिहास नहीं पढ़ाया गया और न ही कहीं कोई सम्मान ही दिया गया । न ही उनके नाम पर न कोई विश्वविद्यालय है और न कोई केन्द्रीय या राजकीय परियोजना । कितना एहसान फरामोश, कृतघ्न है हिंदू समाज!!

कैसे वीर हुए इस धरा पर, जिन्होंने देश व धर्म के लिए प्राण न्यौछावर कर दिये पर इस्लाम नहीं अपनाया। गोकुलसिंह सिर्फ जाटों के लिए शहीद नहीं हुए थे न उनका राज्य ही किसी ने छीन लिया था, न कोई पेंशन बंद कर दी थी, बल्कि उनके सामने तो अपूर्व शक्तिशाली मुगल-सत्ता, दीनतापूर्वक, सन्धि करने की तमन्ना लेकर गिड़-गिड़ाई थी ।

शर्म आती है हमें कि हम ऐसे अप्रतिम वीर को कागज के ऊपर भी सम्मान नहीं दे सके । शाही इतिहासकारों ने उनका उल्लेख तक नहीं किया । केवल जाट पुरूष ही नहीं बल्कि उनकी वीरांगनायें भी अपनी ऐतिहासिक दृढ़ता और पारंपरिक शौर्य के साथ उन सेनाओं का सामना करती रही ।

दुर्भाग्य की बात है कि भारत की इन वीरांगनाओं और सच्चे सपूतों का कोई उल्लेख शाही टुकड़ों पर पलने वाले तथाकथित इतिहासकारों ने नहीं किया ।

1669 की क्रान्ति के जननायक, परतंत्र भारत में असहयोग आन्दोलन के जन्मदाता, राष्ट्रधर्म रक्षक वीर गोकुल सिंह जी और उनके सात हजार क्रान्तिकारी साथियों के बलिदान दिवस पर {1जनवरी} उनको शत-शत नमन ।

कैसे वीर थे वो अलबेले,कैसी अमर है उनकी कहानी। सरदार गोकुल सिंह जी की, आओ याद करें कुर्बानी।।

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Thursday, December 31, 2020

भारतीय सनातन संस्कृति सर्वोत्तम व महान क्यो है?

 पश्चिमी संस्कृति के क्रिसमस डे की जगह पूज्य संत श्री आशारामजी बापू की दिव्य सौगात 25 दिसंबर को तुलसी-पूजन दिवस के रूप में मनाना सर्वहितकारी है। 





क्रिसमस का उत्सव मनाने के लिए लोग शंकुधर वृक्ष काट कर घर लाते हैं और फिर सजाते हैं - ये वृक्ष पृथ्वी के उत्तरी पृष्ठ पर कार्बन डायोक्साईड को कम करने वाले सबसे कारगर जंगल बनाते हैं। जो शिक्षित, प्रगतिवादी समाजवर्ग हिंदुओं को दीवाली पर दिया जलाने पर global warming के उलाहने देता है उनका ध्यान इधर क्यों नही आकर्षित होता। कुछ लोग पेड़ काटने के बजाये प्लास्टिक के पेड़ ( क्रिसमस ट्री ) से भी अपना उत्सव मनाते हैं। पर वह भी वातावरण के लिए घातक है, इसके निस्तारण में तो बहुत रासायनिक प्रदूषण होता है।

दुर्बल निर्णय शक्ति के कारण हम पश्चिमी समाज का अनुसरण करने लगे। ये बुद्धिमानी नहीं है - इसमें पर्यावरण व समाज - दोनो की हानि अवश्यंभावी है। पश्चिम देशों की देखा-देखी भारत में भी 25 दिसंबर से 1 जनवरी तक क्रिसमस-उत्सव मनाया जाने लगा है जिसमें सभ्य-समाज भी दारू पीता है, मांस खाता है, डांस-पार्टी आदि के बहाने महिलाओं से छेड़खानी करता है। इन दिनों में आत्महत्या, महिलाओं से दुष्कर्म एवम् सड़क-दुर्घटनाएँ अत्यधिक घटित होती है। ऐसा सिर्फ यूरोप या अमेरिका में ही नही अब भारत में भी घटित होने लगा है।

सच पूछे तो इस त्यौहार का हमारी संस्कृति-समाज से कोई सरोकार नही है। ऊपर से यह हमारी स्वदेशी सभ्यता को भ्रष्ट करने वाला है। इसको मनाना माने आसुरी गुणों को बढ़ावा देना है। सनातन संस्कृति और अपने गौरवशाली इतिहास की सुरक्षा हेतु हमे इसको स्वीकारना नही चाहिए।

जहाँ एक ओर क्रिसमस मनाने के दुष्परिणाम सर्वविदित हैं तो दूसरी ओर तुलसी-निष्ठा से समाज उत्थान भी विदित है। तुलसी माता में निष्ठा धर्म, काम, अर्थ और मोक्ष चारो दिलाने में सक्षम है। इसीलिए धर्म, समाज के उत्थान की दृष्टि से संत श्री आशारामजी बापू ने सन 2012 से 25 दिसम्बर को तुलसी-पूजन दिवस के रूप में मनाने का आवाह्न किया। इस पवित्र परंपरा से सभी भारतवासी लाभान्वित हो रहे हैं। परिवार सहित मनाने से बुद्धिबल, मनोबल , चारित्र्यबल और आरोग्यबल तो बढ़ता है पर मानसिक अवसाद, दुर्व्यसन, आत्महत्या आदि कुत्सित कर्म करने की रूचि भी चली जाती है।

सिर्फ भारत में ही नहीं विश्व के कई अन्य देशों में भी तुलसी को पूजनीय व शुभ मानते हैं और तुलसी की पूजा करते हैं। पूर्वकाल में ग्रीस के ईस्टर्न-चर्च नामक संप्रदाय में तुलसी की पूजा होती थी। तुलसी मानव जीवन की रक्षक व पोषक है। यह स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी है - कई प्रकार के औषधीय गुण इसमें विद्यमान है। तुलसी का पूजन, सेवन व रोपण करने से अनेक प्रकार के लाभ होते हैं। भगवान विष्णु ने स्वयं तुलसी को सर्व-पूज्या होने का वरदान दिया है। तुलसी प्रदूषित वायु को शुद्ध कर पर्यावरण की सुरक्षा करती है ।  पूरे भारतवर्ष में तुलसी का पौधा सुलभ और सुप्रसिद्ध है। अधिकांश हिंदू अपने घरों में तुलसी का रोपण करते हैं और बहुत पवित्रता से इसकी पूजा कर भगवान श्री हरि की कृपा प्राप्त करते हैं। जो भी जन समुदाय सत्संग और सेवा कार्यों मे जुड़े हैं उनके घरों में प्रायः संध्या के समय तुलसी की पूजा होती है।

क्रिसमस डे जैसे त्योहार के नाम पर शराब-कबाब के जश्न, मांस-भक्षण, धूम्रपान और नशे आदि करना हमें कतई शोभा नही देता। भारतीय संस्कृति व सभ्यता का दमन करने वाली संस्कृति का अनुसरण हमे नही करना है। ऐसा करना ऋषि-मुनियों की संतानों को ग्लानि से भर देता है। अतः 25 दिसंबर को तुलसी-पूजन दिवस मनाकर देश में जागृति लाएं। अपने परिवार, पड़ोस व समाज को ऊँचा उठायें - विश्व पटल पर भारतवर्ष का गौरव बढ़ाएँ।

आईये 25 दिसम्बर को तुलसी पूजन दिवस मनाएं।

बसन्त कुमार मानिकपुरी
पाली, जिला -कोरबा
छत्तीसगढ़, भारत

अंग्रेजों वाला 1 जनवरी नववर्ष मना रहे हैं तो पढ़ लीजिये सच्चाई क्या है?

31 दिसंबर 2020


देश में स्वराज्य की मांग जोर पकड रही थी। अंग्रेज भयभीत थे, इसलिए उन्होंने नया साल 1930 संयुक्त प्रांत की हर सामाजिक एवं धार्मिक संस्था से मनाने का आदेश जारी किया और साथ ही यह भी धमकी दी कि जो संस्था यह नया साल नहीं मनाएगी उसके सदस्यों को जेल भेज दिया जाएगा।




आपको बता दें कि सृष्टि का जिस दिन निर्माण हुआ था उस दिन ही चैत्री शुक्लपक्ष प्रतिपदा थी और सनातन हिंदू धर्म में इसी दिन को नूतन वर्ष मनाया जाता है लेकिन 700 साल मुग़लों और 200 साल अंग्रेजों के गुलाम रहे जिसके कारण हम अपना नूतन वर्ष भूल गए और अंग्रेजों के नूतन वर्ष मनाने लगे, अंग्रेज गये 70 साल से ऊपर हो गए लेकिन उनकी शिक्षा की पढ़ाई करने के कारण मानसिक गुलामी अभी नहीं गई जिसके कारण अपना नूतन वर्ष हमें याद भी नहीं आता है।

जो भारतीय नूतन वर्ष भूल गए हैं और अंग्रेजों वाला नया वर्ष मना रहे हैं उनके लिए कवि ने अपनी व्यथा प्रकट करते हुए एक कविता लिखी है आप भी पढ़ लीजिये...।

ना सुंदर फूल खिलते हैं, ना वातावरण में महकते हैं।
प्रकृति भी निस्तेज सी लगती, ना ही पक्षी चकहते हैं।।

01 जनवरी नववर्ष से हमें क्या मतलब, क्यों मनाये हम हर्ष।
हम हैं सनातन संस्कृति परंपरा से, हम क्यों मनाएं ईसाई नववर्ष।।

सबसे पहले ईसाई नववर्ष, जूलियस सीजर ने मनवाया।
अंग्रेज़ों ने भारत में आकर, इस परंपरा को और चमकाया।।

सनातन संस्कृति से ईसाई नववर्ष का, कोई सरोकार नहीं है।
क्यों हो पाश्चात्य संस्कृति के पीछे अंधे, ये हमारे संस्कार नहीं हैं।।

क्यों हो व्यसनों की तरफ आकर्षित, क्यों पीएं शराब, बियर।
क्यों करें अपना नैतिक पतन, क्यों बोलें हैप्पी न्यू ईयर।।

ईसाई देशों में खूब बम पटाखे फोड़ेंगे, मीडिया वाले कुछ नहीं कहेंगे।
होली दीवाली में प्रदूषण देखने वाले, देखना इस पर मौन रहेंगे।।

वास्तव में ये नववर्ष नहीं है, ये है सनातन संस्कृति पर प्रहार।
समय की मांग है एकत्र हो, करो ईसाई नववर्ष का बहिष्कार।।

चैत्र मास शुक्लपक्ष प्रतिपदा को, चलो हम नववर्ष मनाएं।
रंगोली बनाएं, दीप जलाएं, घर घर भगवा पताका फहराए।। - कवि सुरेन्द्र भाई

इस कविता के माध्यम से हमें समझना चाहिए कि अंग्रेजो के द्वारा थोपा गया नूतन वर्ष हमारा सांस्कृतिक, शारिरिक, मानसिक और सामाजिक पतन करता है जो राष्ट्र के लिए भी हानि करता है इसलिए हमें ऐसे त्यौहार से बचना चाहिए और अपने आसपास ऐसा कोई गलती से नया साल मना रहा हो तो उसको भी समझाइये कि भाई ये हमारा त्यौहार नहीं है हमारी संस्कृति सबसे महान है और वे नूतन वर्ष चैत्री शुक्लपक्ष प्रतिपदा को आएगा उस दिन हम सभी मिलकर धूमधाम से मनायेंगे।

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Wednesday, December 30, 2020

पादरी ने 22 हजार हिंदुओं की हत्या की थी, 1 जनवरी को हैप्पी न्यू ईयर बोलने वाले जान ले इतिहास

30 दिसंबर 2020


ईसाईयत और इस्लाम ये दो पंथ ऐसे हैं जिनका जन्म भारत के बाहर हुआ है । ईसाई लोग भारत में आए लगभग दूसरी शताब्दी में । तब यहां का राजा हिन्दू था, प्रजा हिन्दू थी और व्यवस्था भी हिन्दू थी । फिर भी इन ईसाईयों को केरल के राजा ने, प्रजा ने आश्रय दिया, चर्च बनाने के लिए जमीन उपलब्ध कराई, धर्म पालन और धर्म प्रचार की अनुमति प्रदान की । इस कारण आज केरल में ईसाईयों की संख्या 20 प्रतिशत से अधिक है । उसी प्रकार जब भारत में अंग्रेजी राज कायम हुआ तब से यहां के हिन्दुओं को ईसाई बनाने का काम चल रहा है ।




हिन्दू समाज के इस मतान्तरण के खिलाफ राजा राममोहन रॉय, स्वामी दयानंद, स्वामी श्रद्धानंद से लेकर महात्मा गांधी, डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार आदि महानुभावों ने चिंता जताई है । भारत सरकार ने मध्य प्रदेश, उड़ीसा, अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों ने धर्मान्तरण विरोधी कानून बनाए हैं, फिर भी ईसाई मिशनरियों द्वारा नए-नए तरीके खोज कर गरीब, पिछड़े, झुग्गियों में रहनेवाले हिन्दू लोगों के धर्म परिवर्तन का काम धड़ल्ले से चलता है ।

ईसाईयत का यह इतिहास क्रूरता, हिंसा, धर्मविरोधी आचरण एवं असहिष्णुता से भरा पड़ा है। गोवा के अन्दर ईसाई मिशनरी फ्रांसिस जेवियर, जिसके शव का निर्लज्ज प्रदर्शन अभी भी गोवा के चर्च के भीतर हो रहा है, ने गोवा के हिन्दू लोगों पर क्रूरतापूर्ण तरीके अपनाकर अत्याचार किए और गैर-ईसाईयों को ईसाई बनाया । ए.के. प्रियोलकर द्वारा लिखित ‘Goa Inquisition’ नामक पुस्तक में इसका विस्तार से वर्णन किया है । भोले-भाले वनवासी, गिरिवासी और गरीब लोगों को झांसा देकर ईसाई बनाना इन मिशनरियों का मुख्य धंधा है।

पोप जॉन पोल जब 1999 में भारत आए थे तब उन्होंने भारत के ईसाइयों को आह्वान किया था कि जिस प्रकार शुरुआत के ईसाई पादरियों, संत फ्रांसिस जेवियर, रॉबर्ट दी नोबिलि, आदि जैसे उनके पूर्वजों ने प्रथम सहस्राब्दी में समूचा यूरोप, दूसरे में अफ्रीका और अमेरिका को ईसाई बनाया, उसी प्रकार तीसरी सहस्राब्दी में एशिया में ईसा मसीह के क्रॉस को मजबूत उनका उद्देश्य है, ताकि दुनिया में ईसाईयत का साम्राज्य कायम हो सके । पोप के आदेश का पालन करने के लिए तत्पर ईसाई मिशनरी तुरंत इस काम को अंजाम देने में लगे हैं और भले-बुरे सभी उपायों का अवलम्बन कर हिन्दू समाज को तोड़ने के षड्यंत्र में लगे हैं।

सम्पूर्ण विश्व को ईसाईयत के झंडे के नीचे लाने की योजना के तहत फ्रांसिस जेवियर ने भारत में जो काले कारनामे किये थे, उस इतिहास के एक क्रूर अध्याय को जानने के लिए आपके लिए प्रस्तुत है ।

500 साल पहले गोवा में कुमुद राजा का शासन चलता था । राजा कुमुद को जबरदस्ती से हटा कर पोर्तुगीज ने गोवा को अपने कब्जे में कर दिया ।

पुर्तगाल सेना के साथ केथलिक पादरी ने भी धर्मान्तरण करने के लिए बड़ी संख्या में हमला किया। हर गाँव में लोगो को धमकी और जबरन ईसाई बनाते पादरी ने गोवा के पूरे शहर पर कब्जा किया । जो लोग चलने के लिए तैयार नहीं होते उनको क्रूरता से मार दिया जाता ।

जैनधर्मी राजा कुमुद और गोवा के सारे 22 हजार जैनों को भी धर्म परिवर्तन करने के लिए ईसाईयों ने धमकी दे दी कि 6 महीनों में जैन धर्म छोड़ कर ईसाई धर्म स्वीकार कर दो अथवा मरने के लिए तैयार हो जाओ राजा कुमुद एवं और भी जैन मरने के लिए तैयार थे परंतु धर्म परिवर्तन के लिए हरगिज राजी नहीं थे ।

छः महीने के दौरान ईसाई जेवियर्स ने जैनों का धर्म परिवर्तन करने के लिए साम-दाम, दंड-भेद जैसे सभी प्रयत्न कर देखे । तब भी एक भी जैन ईसाई बनने के लिए तैयार नहीं हुआ। तब क्रूर जेवियर्स पोर्तुगीझ लश्कर को सभी का कत्ल करने के लिए सूचित किया। एक बड़े मैदान में राजा कुमुद और जसिं धर्मी श्रोताओं, बालक-बालिकाओं को बांध कर खड़ा कर दिया गया। एक के बाद एक को निर्दयता से कत्ल करना शुरू किया । ईसाई जेवियर्स हँसते मुख से संहारलीला देख रहा था । ईसाई बनने के लिए तैयार न होनेवालों के ये हाल होंगे। यह संदेश जगत को देने की इच्छा थी। बदले की प्रवृति को वेग देने के लिए ऐसी क्रूर हिंसा की होली जलाई थी।

केथलिक ईसाई धर्म के मुख्य पॉप पोल ने ईसाई पादरी जेवियर्स के बदले के कार्य की प्रशंसा की और उसके लिए उसने बहाई हुई खून की नदियों के समाचार मिलते पॉप की खुशी की सीमा नहीं रही । जेवियर्स को विविध इलाक़ा देकर सम्मान किया। जेवियर्स को सेंट जेवियर्स के नाम से घोषित किया और भारत में शुरू हुई अंग्रेजी स्कूल और कॉलेजों की श्रेणी में सेंट जेवियर्स का नाम जोड़ने में आया। आज भारत में सबसे बड़ा स्कूल नेटवर्क में सेंट जेवियर्स है।

हजारों जैनों और हिंदुओं के खून से पूर्ण एक क्रूर ईसाई पादरी के नाम से चल रही स्कूल में लोग तत्परता से डोनेशन की बड़ी रकम दे कर अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेज रहें है। कैसे करुणता है और जेवियर्स कि बदले की वृत्ति को पूर्ण समर्थन दे रहे पुर्तगालियों को पॉप ने पूरे एशिया खंड के बदले की वृत्ति के सारे हक दे दिए। धर्म परिवर्तन प्राण की बलि देकर भी नहीं करने वाले गोवा के राजा कुमुद और बाईस हजार धर्मनिष्ठ जैनों का ये इतिहास जानने के बाद हमें इससे बोध पाठ लेना चाहिए। आज की रहन-सहन में पश्चिमीकरण ईसाईकरण का प्रभाव बढ़ रहा है। भारत की तिथि-मास भूलते जा रहें है। अंग्रेजी तारीख पर ही व्यवहार बढ़ रहा है। भारतीय पहेरवेश घटता जा रहा है ।पश्चिमीकरण की दीमक हमें अंदर से कमज़ोर कर रही है। धर्म और संस्कृति रक्षा के लिए फनाहगिरी संभाले ।
स्त्रोत : ह्रदय परिवर्तन पत्रिका, दिसम्बर 2017

हिंदुस्तानी ईसाइयत का 1 जनवरी नुतन वर्ष मनाने लग गए, बधाई देने लग गए पहले उनको यह इतिहास पढ़ना चाहिए कि पादरियों ने कैसा अत्याचार किया है हिंदुओं पर सही इतिहास पढेंगे तो पता चलेगा कि भारतीय खुद का नुतन वर्ष सृष्टि रचना की तिथि चैत्री शुक्लपक्ष प्रतिपदा भूल गए। हमें इस दिन न बधाई देना है और न ही लेना है कोई देता है तो उसको समझाना है कि अपना नुतन वर्ष चैत्री शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को हैं।

जनता की मांग है कि सरकार भी ईसाई मिशनरियां और धर्मान्तरण पर रोक लगाएं और हिंदुस्तानियों को कॉन्वेंट स्कूल में बच्चों को नहीं पढ़ना चाहिए और न ही धर्मपरिवर्तन करना चाहिए तभी देश, समाज सुरक्षित रहेगा।

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Tuesday, December 29, 2020

भयानक रिपोर्ट : 1 जनवरी को नववर्ष मनाने वाले सावधान हो जाएं

29 दिसंबर 2020


भारत की इतनी दिव्य और महान संस्कृति है कि इसका अनुसरण करने वाला बिना किसी वस्तु, व्यक्ति के यहां तक कि विपरीत परिस्थितियों में भी सुखी रह सकता है, इसके विपरीत विदेशों में भोग सामग्री होते हुए भी वहां के लोग इतने दुःखी व चिंतित हैं कि वहां के आंकड़े देखकर दंग रह जाएंगे आप लोग !!




फिर भी भारत का एक बड़ा वर्ग उनका अंधानुकरण कर, उनका नववर्ष मनाने लगा  और भूल गया अपनी संस्कृति को ।

एक सर्वे के अनुसार...

ईसाई नववर्ष पर तीन गुनी हुई एल्कोहल की खपत:-

वाणिज्य एवं उद्योग मंडल ( एसोचेम - ASSOCHAM ) के क्रिसमस और ईसाई नववर्ष पर एल्कोहल पर खपत किये गये सर्वेक्षण में यह निष्कर्ष सामने आया है कि इन अवसरों पर 14 से 19 वर्ष के किशोर भी शराब व मादक पदार्थों का जमकर सेवन करते हैं और यही कारण है कि इस दौरान शराब की खपत तीन गुनी बढ़ जाती है।

इन दिनों में दूसरे मादक पेय पदार्थों की भी खपत बढ़ जाती है । बड़ों के अलावा छोटी उम्रवाले भी बड़ी संख्या में इनका सेवन करते हैं । इससे किशोर-किशोरियों, कोमल वय के लड़के-लड़कियों को शारीरिक नुकसान तो होता ही है, उनका व्यवहार भी बदल जाता है और हरकतें भी जोखिमपूर्ण हो जाती हैं । उसका परिणाम कई बार एचआईवी संक्रमण (एड्स रोग) के तौर पर सामने आता है तो कइयों को टी.बी., लीवर की बीमारी, अल्सर और गले का कैंसर जैसे कई असाध्य रोग भी पैदा हो जाते हैं । करीब 70 प्रतिशत किशोर फेयरवेल पार्टी, क्रिसमस एवं ईसाई नूतन वर्ष पार्टी, वेलेंटाइन डे और बर्थ डे जैसे अवसरों पर शराब का सेवन करते हैं । एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार भारत में कुल सड़क दुर्घटनाओं में से 40 प्रतिशत शराब के कारण होती हैं ।

सूत्रों का कहना है कि क्रिसमस (25 दिसम्बर से 1 जनवरी ) के दिनों में शराब आदि नशीले पदार्थों का सेवन, युवाधन की तबाही व आत्महत्याएँ खूब होती हैं ।

भारत से 10 गुणा ज्यादा दवाईयां खर्च होती हैं ।

पाश्चात्य संस्कृति और त्यौहार का अनुसरण करने पर यूरोप, अमेरिका आदि देशों में मानसिक रोग इतने बढ़ गए हैं कि हर दस व्यक्ति में से एक को मानसिक रोग होता है । दुर्वासनाएँ इतनी बढ़ी हैं कि हर छः सेकंड में एक बलात्कार होता है और हर वर्ष लगभग 20 लाख से अधिक कन्याएँ विवाह के पूर्व ही गर्भवती हो जाती हैं । वहाँ पर 65% शादियाँ तलाक में बदल जाती हैं । AIDS की बीमारी दिन दुगनी रात चौगुनी फैलती जा रही है | वहाँ के पारिवारिक व सामाजिक जीवन में क्रोध, कलह, असंतोष, संताप, उच्छृंखता, उद्यंडता और शत्रुता का महा भयानक वातावरण छाया रहता है ।

विश्व की लगभग 4% जनसंख्या अमेरिका में है । उसके उपभोग के लिये विश्व की लगभग 40% साधन-सामग्री (जैसे कि कार, टी वी, वातानुकूलित मकान आदि) मौजूद हैं फिर भी वहाँ अपराधवृति इतनी बढ़ी है कि हर 10 सेकण्ड में एक सेंधमारी होती है, 1 लाख व्यक्तियों में से 425 व्यक्ति कारागार में सजा भोग रहे हैं । इन सबका मुख्य कारण दिव्य संस्कारों की कमी है ।

31 दिसम्बर की रात नए साल के स्वागत के लिए लोग जमकर दारू पीते हैं । हंगामा करते हैं, महिलाओं से छेड़खानी करते हैं, रात को दारू पीकर गाड़ी चलाने से दुर्घटना की सम्भावना, रेप जैसी वारदात, पुलिस व प्रशासन बेहाल और भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का विनाश होता है और 1 जनवरी से आरंभ हुई ये घटनाएं सालभर में बढ़ती ही रहती हैं ।

जबकि भारतीय नववर्ष नवरात्रों के व्रत से शुरू होता है ।घर-घर में माता रानी की पूजा होती है । शुद्ध सात्विक वातावरण बनता है । चैत्र प्रतिपदा के दिन से महाराज विक्रमादित्य द्वारा विक्रमी संवत् की शुरुआत, भगवान झूलेलाल का जन्म, नवरात्रे प्रारंम्भ, ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि की रचना इत्यादि का संबंध है ।

भोगी देश का अन्धानुकरण न करके युवा पीढ़ी भारत देश की महान संस्कृति को पहचाने ।

1 जनवरी में सिर्फ नया कलैण्डर आता है, लेकिन चैत्र में नया पंचांग आता है उसी से सभी भारतीय पर्व ,विवाह और अन्य मुहूर्त देखे जाते हैं । इसके बिना हिन्दू समाज जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता इतना महत्वपूर्ण है ये कैलेंडर यानि पंचांग ।

स्वयं सोचें कि क्यों मनाएं एक जनवरी को नया वर्ष..???

केवल कैलेंडर बदलें अपनी संस्कृति नहीं...!!!

रावण रूपी पाश्‍चात्य संस्कृति के आक्रमणों को नष्ट कर चैत्र प्रतिपदा के दिन नववर्ष का विजयध्वज अपने घरों व मंदिरों पर फहराएं ।

अंग्रेजी गुलामी तजकर ,अमर स्वाभिमान भर लें भारतवासी । हिन्दू नववर्ष मनाकर खुद में आत्मसम्मान भर लें भारतवासी ।।

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Monday, December 28, 2020

अंग्रेजों का नया साल 1 जनवरी मना रहे हैं तो सावधान, होती है भयंकर हानि

28 दिसंबर 2020


आजकल, 31 दिसंबर की रात्रि में छोटे बालकों से वृद्ध तक सभी एक-दूसरे को शुभकामना संदेश-पत्र अथवा प्रत्यक्ष मिलकर हैप्पी न्यू इयर कहते हुए नववर्ष की शुभकामनाएं देते हैं ।




वास्तविक, भारतीय संस्कृति के अनुसार चैत्र-प्रतिपदा(गुड़ीपाडवा) ही हिंदुओं का नववर्ष दिन है । किंतु, आज के हिंदु 31 दिसंबर की रात्रि में नववर्ष दिन मनाकर अपने आपको धन्य मानने लगे हैं । आजकल, भारतीय वर्षारंभ दिन चैत्र प्रतिपदा पर एक-दूसरे को शुभकामनाएं देनेवाले हिंदुओं के दर्शन भी दुर्लभ हो गए हैं ।

चैत्री नूतन वर्ष के फायदें और 31 दिसंबर के नुकसान

हिंदु धर्म के अनुसार शुभ कार्य का आरंभ ब्रह्ममुहूर्त में उठकर, स्नानादि शुद्धिकर्म के पश्‍चात, स्वच्छ वस्त्र एवं अलंकार धारण कर, धार्मिक विधि-विधान से करना चाहिए । इससे व्यक्ति पर वातावरण की सात्विकता का संस्कार होता है ।

31 दिसंबर की रात्रि में किया जानेवाला मद्यपान एवं नाच-गाना, भोगवादी वृत्ति का परिचायक है । इससे हमारा मन भोगी बनेगा । इसी प्रकार, रात्रि का वातावरण तामसिक होने से हमारे भीतर तमोगुण बढ़ेगा । इन बातों का ज्ञान न होने के कारण, अर्थात धर्मशिक्षा न मिलने के कारण, ऐसे दुराचारों में रुचि लेने वाली आज की युवा पीढी भोगवादी एवं विलासी बनती जा रही है । इस संबंध में इनके अभिभावक भी आनेवाले संकट से अनभिज्ञ दिखाई देते हैं ।

ऋण उठाकर 31 दिसंबर मनाते हैं

प्रतिवर्ष दिसंबर माह आरंभ होने पर, मराठी तथा स्वयं भारतीय संस्कृति का झूठा अभिमान अनुभव करने वाले परिवारों में चर्चा आरंभ होती है, `हमारे बच्चे अंग्रेजी माध्यम में पढते हैं । 'क्रिसमस’ कैसे मनाना है, यह उन्हें पाठशाला में पढ़ाते हैं, अत: हमारे घर ‘ना ताल’ का त्यौहार मनाना ही पड़ता है, आदि।’ तत्पश्चात वे क्रिसमस ट्री, सजाने का साहित्य, बच्चों को सांताक्लॉज की टोपी, सफेद दाढ़ी मूंछें, विक, मुखौटा, लाल लंबा कोट, घंटा आदि वस्तुएं ऋण उठाकर खरीदते हैं । गोवा में एक प्रसिद्ध आस्थापन ने 25 फीट के अनेक क्रिसमस ट्री प्रत्येक को 1 लाख 50 हजार रुपयों में खरीदे हैं । ये सब करनेवालों को एक ही बात बताने की इच्छा है, कि ऐसा कर हम एक प्रकार से धर्मांतर ही कर रहे हैं । कोई भी तीज-त्यौहार, व्यक्ति को आध्यात्मिक लाभ हो, इस उद्देश्य से मनाया जाता है ! हिंदू धर्म के हर तीज-त्यौहार से उन्हें मनानेवाले, आचार-विचार तथा कृत्यों में कैसे उन्नत होंगे, यही विचार हमारे ऋषि-मुनियों ने किया है । अत: ईश्वरीय चैतन्य, शक्ति एवं आनंद देनेवाले `गुड़ीपाडवा’ के दिन ही नववर्ष का स्वागत करना शुभ एवं हितकारी है ।

अनैतिक तथा कानून द्रोही कृत्य कर नववर्ष का स्वागत !

वर्तमान में पाश्चात्त्य प्रथाओं के बढ़ते अंधानुकरण से तथा उनके नियंत्रण में जाने से अपने भारत में भी नववर्ष ‘गुड़ीपाडवा’ की अपेक्षा बडी मात्रा में 31 दिसंबर की रात 12 बजे मनाने की कुप्रथा बढ़ने लगी है । वास्तव में रात के 12 बजे ना रात समाप्त होती है, ना दिन का आरंभ होता है । अत: नववर्ष भी कैसे आरंभ होगा ? इस समय केवल अंधेरा एवं रज-तम का राज होता है । इस रात को युवकों का मदिरापान, नशीले पदार्थों का सेवन करने की मात्रा में बढोतरी हुई है । युवक-युवतियों का स्वेच्छाचारी आचरण बढ़ा है । तथा मदिरापान कर तेज सवारी चलाने से दुर्घटनाओं में बढोतरी हुई है । कुछ स्थानों पर भार नियमन रहते हुए बिजली की झांकी सजाई जाती है, रातभर बड़ी आवाज में पटाखे जलाकर प्रदूषण बढ़ाया जाता है, तथा कर्ण कर्कश ध्वनिवर्धक लगाकर उनके तालपर अश्लील पद्धति से हाथ-पांव हिलाकर नाच किया जाता है, गंदी गालियां दी जाती हैं तथा लडकियों को छेडने की घटना बढकर कानून एवं सुव्यवस्था के संदर्भ में गंभीर समस्या उत्पन्न होती है । नववर्ष के अवसर पर आरंभ हुई ये घटनाएं सालभर में बढती ही रहती हैं ! इस ख्रिस्ती नए वर्ष ने युवा पीढ़ी को विलासवाद तथा भोगवाद की खाई में धकेल दिया है ।

राष्ट्र तथा धर्म प्रेमियो, इन कुप्रथाओं को रोकने हेतु आपको ही आगे आने की आवश्यकता है !

31 दिसंबर को होने वाले अपकारों के कारण अनेक नागरिक, स्त्रियों तथा लडकियों का घर से बाहर निकलना असंभव हो जाता है । राष्ट्र की युवा पीढी ध्वस्त होने के मार्ग पर है । इसका महत्त्व जानकर हिंदू जनजागृति समिति इस विषय में जनजागृति कर पुलिस एवं प्रशासन की सहायता से उपक्रम चला रही है । ये गैरप्रकार रोकने हेतु 31 दिसंबर की रात को प्रमुख तीर्थक्षेत्र, पर्यटनस्थल, गढ-किलों जैसे ऐतिहासिक तथा सार्वजनिक स्थान पर मदिरापान-धूम्रपान करना तथा प्रीतिभोज पर प्रतिबंध लगाना आवश्यक है । पुलिस की ओर से गश्तीदल नियुक्त करना, अपकार करनेवाले युवकों को नियंत्रण में लेना, तेज सवारी चलाने वालों पर तुरंत कार्यवाही करना, पटाखों से होनेवाले प्रदूषण के विषय में जनता को जागृत करना, ऐसी कुछ उपाय योजना करने पर इन अपकारों पर निश्चित ही रोक लगेगी । आप भी आगे आकर ये गैरप्रकार रोकने हेतु प्रयास करें । ध्यान रखें, 31 दिसंबर मनाने से आपको उसमें से कुछ भी लाभ तो होता ही नहीं, किंतु सारे ही स्तरों पर, विशेष रूप से अध्यात्मिक स्तर पर बड़ी हानि होती है ।

हिंदू जनजागृति समिति के प्रयासों की सहायता करें !

नए वर्ष का आरंभ मंगलदायी हो, इस हेतु शास्त्र समझकर भारतीय संस्कृतिनुसार ‘चैत्र शुद्ध प्रतिपदा’, अर्थात ‘गुड़ीपाडवा’ को नववर्षारंभ मनाना नैसर्गिक, ऐतिहासिक तथा अध्यात्मिक दृष्टि से सुविधाजनक तथा लाभदायक है । अत: पाश्चात्त्य विकृति का अंधानुकरण करने से होनेवाला भारतीय संस्कृति का अधःपतन रोकना, हम सबका ही आद्यकर्तव्य है । राष्ट्राभिमान का पोषण करने तथा गैरप्रकार रोकने हेतु हिंदू जनजागृति समिति की ओर से आयोजित उपक्रम को जनता से सहयोग की अपेक्षा है । भारतीयो, गैरप्रकार, अनैतिक तथा धर्मद्रोही कृत्य कर नए वर्ष का स्वागत न करें, यह आपसे विनम्र विनती ! – श्री. शिवाजी वटकर, समन्वयक, हिंदू जनजागृति समिति, मुंबई-ठाणे-रायगढ ।

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