Tuesday, January 5, 2021

बांग्लादेश में हिंदुओं की दुर्दशा देखकर आपकी भी रूह कांप जायेगी

05 जनवरी 2021


बांग्लादेश की स्वतंत्रता के लिए हिन्दू लड़े । उसके बदले में उन्हें क्या मिला? यह प्रश्‍न उपस्थित हो रहा है । बांग्लादेश जब से स्वतंत्र हुआ है, तब से आज तक वहां 15 लाख से अधिक हिन्दुओं की हत्या की गई है । स्वतंत्रता के पश्‍चात वहां के शासन ने संविधान में इस्लाम धर्मानुसार आचरण करने की धारा घुसाई । तब से निरंतर वहां के हिन्दुओं की धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार नकारा जा रहा है। वहां के हिन्दुओं को किसी प्रकार का न्याय अथवा अधिकार नहीं मिलता, अपितु हिन्दुओं की भूमि बलपूर्वक दबा ली गई । हिन्दू लड़कियों का अपहरण कर अत्याचार किए जाते हैं ।




प्रोफेसर बरकत ने ढाका यूनिवर्सिटी में किताब के विमोचन के दौरान बताया कि 1964 से 2013 के बीच लगभग 1 करोड़ 13 लाख हिंदुओं ने धार्मिक भेदभाव और उत्पीड़न के कारण से बांग्लादेश छोड़ा । 

बांग्लादेश में 2020 में विभिन्न घटनाओं में कम से कम 149 हिन्दुओं को मौत के घाट उतार दिया गया। इतना ही नहीं, 149 की हत्या के अलावा 7036 हिन्दू घायल भी हुए। ‘जटिया हिंदू महाजोत’ संगठन ने ये आँकड़े दिए हैं। साथ ही ये भी बताया गया है कि ये आँकड़े पिछले वर्ष के मुकाबले कहीं ज्यादा हैं। संगठन ने बुधवार (दिसंबर 30, 2020) को प्रेस कॉन्फ्रेंस कर के ये जानकारी दी और मुल्क में हिन्दुओं की सुरक्षा का मुद्दा उठाया।

संगठन के महासचिव गोबिंद चंद्र प्रमाणिक ने बताया कि बांग्लादेश में हिन्दुओं पर अत्याचार लगातार बढ़ता ही जा रहा है। राजधानी में ढाका रिपोर्टर्स यूनिटी के दफ्तर में आयोजित इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में जनवरी 1 से लेकर दिसंबर 29 तक के 2020 के आँकड़े सामने रखे गए। अगर 2019 के आँकड़ों को देखें तो उस साल 108 हिन्दुओं की हत्या कर दी गई थी और विभिन्न घटनाओं में 484 घायल हुए थे।
वहीं 2020 में 94 हिन्दुओं का अपहरण कर के उन्हें निशाना बनाया गया। साथ ही 2623 हिन्दुओं को जबरन इस्लाम कबूलने के लिए मजबूर किया गया। अगर 2019 की बात करें तो उस साल ये आँकड़े क्रमशः 76 और 18 थे। 2020 में इसमें कई गुना ज्यादा बढ़ोतरी हुई। कुल मिला कर बांग्लादेश में 2020 में 53 हिन्दू महिलाओं-बच्चों के साथ बलात्कार किया गया और पूरे साल में 370 मंदिरों की प्रतिमाओं को क्षतिग्रस्त करने की घटनाएँ हुईं।

ये दोनों आँकड़े भी 2019 में 42 और 246 थे। संगठन ने ये भी जानकारी दी कि 2020 में 2125 हिन्दू परिवारों को मुल्क छोड़ कर जाने के लिए मजबूर किया गया। ये संख्या 2019 में 379 थी। इतना ही नहीं, धार्मिक स्थलों पर हमले भी कई गुना बढ़ गए। 2020 में 163 मंदिरों पर हमला किया गया, या फिर उन्हें जला डाला गया। 2019 में ये संख्या 153 थी। कुल मिला कर हिन्दू समाज पर अत्याचार की 40,703 घटनाएँ सामने आईं।

2019 में ये आँकड़ा 31,505 था। बता दें कि बांग्लादेश से हिन्दुओं के अपहरण, जबरन धर्मांतरण, हिन्दू महिलाओं के बलात्कार, मंदिरों पर हमले, प्रतिमाओं को तोड़ने की घटनाएँ आए दिन होती रहती हैं और अंतरराष्ट्रीय मीडिया भी अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो रहे इस अत्याचार पर मुखर नहीं रहता। वर्ल्ड हिन्दू फेडरेशन बांग्लादेश चैप्टर (world hindu federation bangladesh chapter) द्वारा जारी सूची के अनुसार, अकेले मई 2020 में ही हिंदुओं के 10 मंदिरों को तोड़ दिया गया था।

भारत में अल्पसंख्यक समुदाय पर कुछ होता है तो मीडिया दिन-रात खबरें दिखाती रहती है और सेक्युलर लोग उनके बचाव में टूट पड़ते हैं लेकिन बांग्लादेश में हर रोज इतना हिन्दुओं का पलायन होना व उनके ऊपर इतना अत्याचार होने पर मीडिया और  सेक्युलर लोगों ने चुप्पी क्यों साधी है ???

भारत सरकार को पाकिस्तान व बांग्लादेश के हिंदुओं की रक्षा के लिए ठोस कदम उठाना चाहिए।

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Monday, January 4, 2021

पश्चिमी नव-वर्ष से युवाधन का पतन

  अंग्रेज तो चले गए लेकिन भारत वासियों को मानसिक रूप से गुलाम बनाकर गए। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है। अंग्रेजों की गुलामी के समय भारत में शिक्षा का स्तर जनसंख्या अनुपात में बहुत कम था तो इसका लाभ उठाकर अंग्रेजों ने भारत वासियों को मानसिक रूप से भी गुलाम बनाया और आज भी वही गुलामी भारतीयों की दिलो-दिमाग में बनी हुई है। इसका एक प्रमुख उदाहरण है 1 जनवरी को नया साल मनाने की लोगों में अनावश्यक उत्सुकता। इस 1 जनवरी का सभी लोग हुड़दंग, शोरगुल, रॉक-पॉप संगीत, डांस, शराब- कबाब आदि के साथ स्वागत करते हैं और तथाकथित शिक्षित युवा वर्ग तो पश्चिमी नव-वर्ष का इस प्रकार स्वागत करना अपना गौरव समझते हैं। ऐसा कर, क्या वे अपनी सनातन संस्कृति का अपमान नही कर रहे? ऐसा कर, क्या वे सामाजिक विघटन की ओर कदम नही बढ़ा रहे? 31 दिसंबर की रात को ऐसी असभ्यता से अपने समाज को तो हम लज्जित करते ही हैं ऊपर से डीजे और आतिशबाजी से पर्यावरण भी प्रदूषित करते हैं। साथ ही विदेशी गिफ्ट्स, ग्रीटिंग्स-कार्ड, शराब, आदि की खरीदी से विदेशों में पैसा भेज कर अपने देश को आर्थिक रूप से कमजोर करने का अपराध भी करते हैं। यह बहुत ही चिंतनीय है कि इस नए साल के उत्साह में युवा वर्ग का कितना पतन हो रहा है। विदेशी उत्सवों के अंधानुसरण से धन और समय की बर्बादी तो होती ही है, जो समाज के नैतिक मूल्यों का ह्रास होता है उस ओर तो हमारा ध्यान भी नही जाता। २५ दिसम्बर से ५-७ जनवरी के दिनों में युवाओं में आत्महत्या एवं गर्भनिरोधक दवाइयों की बिक्री में  बढ़ोतरी हो जाती है। क्या ये समाज के उत्थान के संकेत हैं? ये कैसा उत्सव है कि मनुष्य पशुओं से भी गया-बीता हो गया? ऐसा नव-वर्ष भारतीयों के लिए ही नही, पूरी मानवजाति के लिए अभिशाप है। 


इन दिनों में प्रकृति में भी कोई उमंग-उल्लास नहीं रहती - सभी ओर सिर्फ कड़कती ठंड। इस विषय पर प्रबुद्ध-वर्ग को विचार-मंथन करना चाहिए और इस तरह देश को आर्थिक, सामाजिक व नैतिक क्षति पहुंचाने वाले आयोजनों का बहिष्कार कर एकजुट होकर कार्य करना चाहिए ।   


भारतवासी तो ऋतु एवं धर्म-संगत भारतीय पंचांग के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नूतन वर्ष मनाते आए हैं। समाज को उत्साह प्रदान कर मन को प्रफुल्लित कर दे ऐसी नूतन-वर्ष की परंपरा भारतवर्ष में सदियों से चली आ रही है। भारतीय नूतन वर्ष का आगमन जगत-जननी माँ जगदम्बा की उपासना के लिए निर्दिष्ट बसंत-ऋतु में पड़ने वाले नवरात्र-पर्व से एवं ऋषि-मुनियों की वैदिक अनुष्ठान की वेला से होता है। इस ऋतु की अलग ही छंटा होती है, पर्यावरण भी अनुकूल होता है और प्रकृति स्वयं हमे इस परिवर्तन-काल का स्वागत करने का संकेत करती है। इन दिनों में वसंत ऋतु  धरती को अपनी खिलखिलाहट से भर देती है। रंग-बिरंगे फूलों से सजी धरती बहुत ही सुहावनी प्रतीत होती है। पंछियों का कलरव, भौंरों का गुंजन आदि मधुर-ध्वनियों से वातावरण अलंकृत रहता है। मनुष्यों में भी वसंत ऋतु का उमंग, उल्लास, आनंद समाहित रहता है।


जो हमारी संस्कृति के अनुकूल नही, ऐसी काल-गणना और नव-वर्ष को हम क्यूँ मनायें? हम भारतवासियों को अपना नूतन-वर्ष, चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को ही मनाना चाहिए। स्वदेशी संस्कृति का अनुसरण कर हम एकजुट होंगे, अपने पूर्वजों का मान बढ़ाएंगे। ऐसा कर हम गौरवान्वित ही नही, उल्लसित भी होंगे क्योंकि इस परम्परा को हमारे आराध्य श्री राम-कृष्ण और ऋषि-मुनियों ने हमारे उत्थान के लिए ही निर्दिष्ट किया है।


पाठकों से यही निवेदन है कि वे अपना कीमती समय और साधन सांसकृतिक उत्सवों को मनाने में लगाएँ। इसी में अपना, परिवार का और समाज का कल्याण है।


बसन्त कुमार मानिकपुरी

छत्तीसगढ़ (भारत)

भारत से मुगल साम्राज्य को उखाड़ फेंकने वाले गोविंद सिंह का इतिहास

04 जनवरी  2020


सिख समुदाय के दसवें धर्म-गुरु (सतगुरु) गोविंद सिंह जी का जन्म पौष शुदि सप्तमी संवत 1723 ( 5 जनवरी 1666) को हुआ था । उनका जन्म बिहार के पटना शहर में हुआ था।




उनके पिता गुरू तेग बहादुर की मृत्यु के उपरान्त 11 नवम्बर सन 1675 को वे गुरू बने । वह एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक संत थे।

सन 1699 में बैसाखी के दिन उन्होने खालसा पन्थ की स्थापना की । जो सिखों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है।

गुरू गोविन्द सिंह ने सिखों के पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में सुशोभित किया।

उन्होंने मुगलों या उनके सहयोगियों (जैसे, शिवालिक पहाड़ियों के राजा) के साथ 14 युद्ध लड़े । धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान किया, जिसके लिए उन्हें 'सरबंसदानी' भी कहा जाता है । इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं ।

गुरु गोविंद सिंह जो विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक तथा कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में 52 कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे।

गुरु गोबिन्द सिंह का जन्म!!

प्राग राज के निवास समय श्री गोबिंद राय जी के जन्म से एक दिन पहले माता नानकी जी ने स्वाभाविक श्री गुरु तेग बहादुर जी (Shri Guru Teg Bahadar Ji) को कहा कि बेटा! आप जी के पिता ने एक बार मुझे वचन दिया था कि तेरे घर तलवार का धनी बड़ा प्रतापी शूरवीर पोत्र ईश्वर का अवतार होगा । मैं उनके वचनों को याद करके प्रतीक्षा कर रही हूँ कि आपके पुत्र का मुँह मैं कब देखूँगी !
बेटा जी! मेरी यह मुराद पूरी करो, जिससे मुझे सुख की प्राप्ति हो ।

अपनी माता जी के यह मीठे वचन सुनकर गुरु जी ने वचन किया कि माता जी! आप जी का मनोरथ पूरा करना अकाल पुरख के हाथ मैं है । हमें भरोसा है कि आप के घर तेज प्रतापी ब्रह्मज्ञानी पौत्र देंगे ।

गुरु जी के ऐसे आशावादी वचन सुनकर माता जी बहुत प्रसन्न हुए । माता जी के मनोरथ को पूरा करने के लिए गुरु जी नित्य प्रति प्रातकाल त्रिवेणी स्नान करके अंतर्ध्यान हो कर वृति जोड़ कर बैठ जाते व पुत्र प्राप्ति के लिए अकाल पुरुष की आराधना करते ।

गुरु जी की नित्य आराधना और याचना अकाल पुरख के दरबार में स्वीकार हो गई। उसने हेमकुंट के महा तपस्वी दुष्ट दमन को आप जी के घर माता गुजरी जी के गर्भ में जन्म लेने कि आज्ञा की । जिसे स्वीकार करके श्री दमन (दसमेश) जी ने अपनी माता गुजरी जी के गर्भ में आकर प्रवेश किया ।

गुरु गोविंद सिंह का जन्म नौवें सिख गुरु तेगबहादुर और माता गुजरी के घर पटना में 5 जनवरी 1666 को हुआ था। जब वह पैदा हुए थे उस समय उनके पिता असम में धर्म उपदेश को गये थे। उन्होंने बचपन में फारसी, संस्कृत की शिक्षा ली और एक योद्धा बनने के लिए सैन्य कौशल सीखा।

गुरु गोबिंद सिंह की तीन पत्नियाँ थी :-

21जून, 1677 को 10 साल की उम्र में उनका विवाह माता जीतो के साथ आनंदपुर से 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में किया गया। उन दोनों के 3 लड़के हुए जिनके नाम थे – जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फतेह सिंह ।

4अप्रैल, 1684 को 17 वर्ष की आयु में उनका दूसरा विवाह माता सुंदरी के साथ आनंदपुर में हुआ। उनका एक बेटा हुआ जिसका नाम था अजीत सिंह।

15 अप्रैल 1700 को 33 वर्ष की आयु में उन्होंने माता साहिब देवन से विवाह किया। वैसे तो उनकी कोई संतान नहीं थी पर सिख धर्म के पन्नों पर उनका दौर भी बहुत प्रभावशाली रहा।

गुरु गोबिन्द सिंह मार्ग :-

अप्रैल 1685 में, सिरमौर के राजा मत प्रकाश के निमंत्रण पर गुरू गोबिंद सिंह ने अपने निवास को सिरमौर राज्य के पांवटा शहर में स्थानांतरित कर दिया । सिरमौर राज्य के गजट के अनुसार, राजा भीम चंद के साथ मतभेद के कारण गुरु जी को आनंदपुर साहिब छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था और वे वहाँ से टोका शहर चले गये । मत प्रकाश ने गुरु जी को टोका से सिरमौर की राजधानी नाहन के लिए आमंत्रित किया। नाहन से वह पांवटा के लिए रवाना हुये। मत प्रकाश ने गढ़वाल के राजा फतेह शाह के खिलाफ अपनी स्थिति मजबूत करने के उद्देश्य से गुरु जी को अपने राज्य में आमंत्रित किया था। राजा मत प्रकाश के अनुरोध पर गुरु जी ने पांवटा मे बहुत कम समय में उनके अनुयायियों की मदद से एक किले का निर्माण करवाया। गुरु जी पांवटा में लगभग तीन साल के लिए रहे और कई ग्रंथों की रचना की।

सन 1687 में नादौन की लड़ाई में, गुरु गोविंद सिंह, भीम चंद, और अन्य मित्र देशों की पहाड़ी राजाओं की सेनाओं ने अलिफ खान और उनके सहयोगियों की सेनाओं को हरा दिया था । और भट्ट वाहिस के अनुसार, नादौन पर बने व्यास नदी के तट पर गुरु गोबिंद सिंह आठ दिनों तक रहे और विभिन्न महत्वपूर्ण सैन्य प्रमुखों का दौरा किया।

भंगानी के युद्ध के कुछ दिन बाद, रानी चंपा (बिलासपुर की विधवा रानी) ने गुरु जी से आनंदपुर साहिब (या चक नानकी जो उस समय कहा जाता था) वापस लौटने का अनुरोध किया जिसे गुरु जी ने स्वीकार किया । वह नवंबर 1688 में वापस आनंदपुर साहिब पहुंच गये ।

1695 में, दिलावर खान (लाहौर का मुगल मुख्य) ने अपने बेटे हुसैन खान को आनंदपुर साहिब पर हमला करने के लिए भेजा । मुगल सेना हार गई और हुसैन खान मारा गया। हुसैन की मृत्यु के बाद, दिलावर खान ने अपने आदमियों जुझार हाडा और चंदेल राय को शिवालिक भेज दिया। हालांकि, वे जसवाल के गज सिंह से हार गए थे। पहाड़ी क्षेत्र में इस तरह के घटनाक्रम मुगल सम्राट औरंगजेब के लिए चिंता का कारण बन गए और उसने क्षेत्र में मुगल अधिकार बहाल करने के लिए सेना को अपने बेटे के साथ भेजा।

खालसा पंथ की स्थापना :-

गुरु गोविंद सिंह जी का नेतृत्व सिख समुदाय के इतिहास में बहुत कुछ नया रंग ले कर आया। उन्होंने सन 1699 में बैसाखी के दिन खालसा जो कि सिख धर्म के विधिवत् दीक्षा प्राप्त अनुयायियों का एक सामूहिक रूप है उसका निर्माण किया।

सिख समुदाय के एक सभा में उन्होंने सबके सामने पूछा – कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है? उसी समय एक स्वयंसेवक इस बात के लिए राजी हो गया और गुरु गोबिंद सिंह उसे तम्बू में ले गए और कुछ देर बाद वापस लौटे एक खून लगे हुए तलवार के साथ। गुरु ने दोबारा उस भीड़ के लोगों से वही सवाल दोबारा पूछा और उसी प्रकार एक और व्यक्ति राजी हुआ और उनके साथ गया पर वे तम्बू से जब बाहर निकले तो खून से सना तलवार उनके हाथ में था। उसी प्रकार पांचवा स्वयंसेवक जब उनके साथ तम्बू के भीतर गया, कुछ देर बाद गुरु गोबिंद सिंह सभी जीवित सेवकों के साथ वापस लौटे और उन्होंने उन्हें पंज प्यारे या पहले खालसा का नाम दिया।

उसके बाद गुरु गोबिंद जी ने एक लोहे का कटोरा लिया और उसमें पानी और चीनी मिला कर दुधारी तलवार से घोल कर अमृत का नाम दिया। पहले 5 खालसा के बनाने के बाद उन्हें छटवां खालसा का नाम दिया गया जिसके बाद उनका नाम गुरु गोबिंद राय से गुरु गोबिंद सिंह रख दिया गया। उन्होंने क शब्द के पांच महत्व खालसा के लिए समझाये और कहा – केश, कंगा, कड़ा, किरपान, कच्चेरा।

यह कहा जाता है कि गुरु गोबिंद सिंह ने कुल चौदह युद्ध लड़े परन्तु कभी भी किसी पूजा के स्थल के लोगों को ना ही बंदी बनाया या क्षतिग्रस्त किया।

भंगानी का युद्ध Battle of Bhangani (1688)नादौन का युद्ध

Battle of Nadaun (1691)गुलेर का युद्ध

Battle of Guler (1696)आनंदपुर का पहला युद्ध

First Battle of Anandpur (1700)आनंदपुर साहिब का युद्ध

Battle of Anandpur Sahib (1701) निर्मोहगढ़ का युद्ध

Battle of Nirmohgarh (1702) बसोली का युद्ध

Battle of Basoli (1702) आनंदपुर का युद्ध

Battle of Anandpur (1704) सरसा का युद्ध

Battle of Sarsa (1704) चमकौर का युद्ध

Battle of Chamkaur (1704) मुक्तसर का युद्ध Battle of Muktsar (1705)

परिवार के लोगों की मृत्यु :-

कहा जाता है कि सिरहिन्द के मुस्लिम गवर्नर ने गुरु गोबिंद सिंह के माता और दो पुत्र को बंदी बना लिया था। जब उनके दोनों पुत्रों ने इस्लाम धर्म को कुबूल करने से मना कर दिया तो उन्हें जिन्दा दफना दिया गया। अपने पोतों के मृत्यु के दुःख को ना सह सकने के कारण माता गुजरी भी ज्यादा दिन तक जीवित ना रह सकी और जल्द ही उनकी मृत्यु हो गयी। मुगल सेना के साथ युद्ध करते समय 1704 में उनके दोनों बड़े बेटों की मृत्यु हो गयी।

जफरनामा :-

गुरु गोबिंद सिंह ने जब देखा कि मुगल सेना ने गलत तरीके से युद्ध किया है और क्रूर तरीके से उनके पुत्रों का हत्या कर दी है तो हथियार डाल देने के बजाये गुरु गोविंद सिंह ने औरंगजेब को एक जफरनामा (विजय की चिट्ठी) लिखा, जिसमें उन्होंने औरगंजेब को चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है।

 8 मई सन्‌ 1705 में 'मुक्तसर' नामक स्थान पर मुगलों से भयानक युद्ध हुआ, जिसमें गुरुजी की जीत हुई। मुक्तसर को पंजाब में दोबारा गुरु जी ने स्थापित किया और अदि ग्रन्थ Adi Granth के नए अध्याय को बनाने के लिए खुद को समर्पित कर दिया जो पांचवें सिख गुरु अर्जुन द्वारा संकलित किया गया है।

उन्होंने अपने लेखन का एक संग्रह बनाया है जिसको नाम दिया दसम ग्रन्थ Dasam Granth और अपनी स्वयं की आत्मकथा जिसका नाम रखा है बिचित्र नाटक Bicitra Natak.

अक्टूबर सन्‌ 1706 में गुरुजी दक्षिण में गए जहाँ पर उनको औरंगजेब की मृत्यु का पता लगा। औरंगजेब ने मरते समय एक शिकायत पत्र लिखा था। हैरानी की बात है कि जो सब कुछ लुटा चुका था, (गुरुजी) वो फतहनामा लिख रहे थे व जिसके पास सब कुछ था वह शिकस्त नामा लिख रहा है। इसका कारण था सच्चाई। गुरुजी ने युद्ध सदैव अत्याचार के विरुद्ध किए थे न कि अपने निजी लाभ के लिए।

अन्तिम समय :-

औरंगजेब की मृत्यु के बाद आपने बहादुरशाह को बादशाह बनाने में मदद की। गुरुजी व बहादुरशाह के संबंध अत्यंत मधुर थे। इन संबंधों को देखकर सरहद का नवाब वजीत खाँ घबरा गया। अतः उसने दो पठान गुरुजी के पीछे लगा दिए। इन पठानों ने गुरुजी पर धोखे से घातक वार किया, जिससे 7 अक्टूबर 1708 में गुरुजी (गुरु गोबिन्द सिंह जी) नांदेड साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गए। अंत समय में सिक्खों को गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानने को कहा व खुद भी माथा टेका। गुरुजी के बाद माधोदास ने, जिसे गुरुजी ने सिक्ख बनाया बंदासिंह बहादुर नाम दिया था, जिन्होंने सरहद पर आक्रमण किया और अत्याचारियों की ईंट से ईंट बजा दी।

 गुरु गोविंद सिंह के नारा था : ‘चिड़ियों से मैं बाज़ लड़ाऊं, सवा लाख से एक लड़ाऊं ।

जिनका एक एक सिपाही मुगलों को धूल चटा देता था, जिनका नाम सुनते ही औरंगजेब के पसीने छूटने लगते थे उन गुरु गोविंद सिंह जी को प्राणों से प्यारा था धर्म।

 धर्म की रक्षा के लिए कुर्बान हो गए ऐसे गुरु गोविंद सिंह को शत्- शत् नमन।

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Sunday, January 3, 2021

भास्कर हिंदू विरोधी : देवी-देवताओं के अपमान पर चुप रहने की सलाह दे रहा है

03 जनवरी 2021


कई समय से हिन्दू देवी-देवताओं को अपमानित करने और हिंदूवादी संगठनों के खिलाफ बेतुकी बयानबाजी करने वाले कथित कॉमेडियन मुनव्वर फारूकी (Munawar Faruqui) की शुक्रवार (जनवरी 01, 2021) शाम कुछ लोगों ने पिटाई कर डाली। ‘दैनिक भास्कर’ जैसे मीडिया संस्थानों को हमेशा से ही अपमानित होते आ रहे लोगों की प्रतिक्रिया से आपत्ति है।




समाचार पत्र ‘दैनिक भास्कर’ ने इस घटना के सम्बन्ध में जो खबर प्रकाशित की हैं उसका शीर्षक है, “हिंदूवादी नेताओं की गुंडागर्दी: देवताओं और अमित शाह पर टिप्पणी का आरोप, शो में कॉमेडियन को पीटा।”

जाहिर सी बात है कि ‘भास्कर’ ने यहाँ पर मुनव्वर फारूकी (Munawar Faruqui) की कुटाई करने वाली भीड़ के प्रति अपना फैसला सुनाते हुए यह शीर्षक लिखा है। साथ ही, यह समाचार पत्र चाहता है कि हिन्दुओं को अपमानित कर अपना ‘कॉमेडी’ का करियर बनाने की चाह रखने वाला हर दूसरा आदमी इसी तरह से मनचाही बयानबाजी कर एक बड़े समूह को लज्जित करता रहे और वह समूह इन सभी बातों का विरोध भी न करे।

यानी, मुनव्वर फारूकी भगवान राम से लेकर जला कर मार दिए गए कारसेवकों का मजाक उड़ाता रहे, तब मीडिया की नजरों में वह ‘कॉमेडी’ है और जब हिन्दुओं ने इसका विरोध किया तो वह गुंडागर्दी हो गई। निश्चित रूप से किसी भी तरह की हिंसा का समर्थन नहीं किया जा सकता लेकिन किसी भी तरह के उकसावे को भी जायज नहीं ठहराया जा सकता है। ऐसे में, विरोध को ‘गुंडई’ कह देना भी एक तरह से हिन्दू घृणा से सनी मीडिया द्वारा फारूकी जैसों के कारनामों का समर्थन ही है।

वास्तव में, सोशल मीडिया के बढ़ते चलन ने यह साबित भी किया है कि हिन्दुओं को या उनके देवी-देवताओं को लगातार अपमानित कर, उनकी भावनाओं को निरंतर आहत कर एक वर्ग-विशेष का चहेता बनने की इच्छा रखने वाले रातों-रात ‘स्टार’ भी बन गए। लेकिन यह अब एक चलन के साथ ही एक बढ़िया करियर विकल्प भी बनकर उभरा है और हिन्दू विरोधी घृणा से सने लोग इसे अवसर की तरह देखने लगे हैं।

लेकिन मीडिया का इन सब विषयों पर लिया गया पक्ष हैरान करता है। यदि मुनव्वर फारूकी की पिटाई करने वाले भीड़ ‘गुंडा’ थी तो फिर साल-दो साल से समाज एक एक बड़े वर्ग की भावनाओं का लगातार अपमान करने वाला फारूकी ‘कॉमेडियन’ कैसे कहा जा सकता है?

लेकिन ‘भास्कर’ चाहता है कि देवी-देवताओं को कोई गाली दे तो आप सुनते रहें और कोई प्रतिक्रिया ना दें। विरोध नहीं करें। और अगर आप ऐसा करेंगे तो यह गुंडई होगी। यह एकतरफा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता इस देश के उदार और सेक्युलर वर्ग की पसंदीदा फैंटेसी बन चुकी है और मीडिया ने इसे जमकर भुनाया है। यह वही मुनव्वर फारुकी है, जिसने कॉमेडी के नाम पर माता सीता पर अभद्र टिप्पणी करते हुए कहा था, “मेरा पिया घर आया ओ राम जी। राम जी डोंट गिव अ फ़क अबाउट पिया। यह सुन राम जी कहते हैं मैं खुद चौदह साल से घर नहीं गया। अगर सीता ने सुन लिया, वो तो शक करेगी। सीता को तो माधुरी पे पहले से ही शक है। वो गाना है तेरा करूँ गिन-गिन इंतजार। उसे लग रहा है वनवास गिन रही है 14 पर आकर रुक गई।”

इस हरकत के बाद मुनव्वर फारुकी पर एफ़आईआर भी दर्ज की गई थी लेकिन उसका नतीजा सामने नहीं आया। इसके अलावा, उसने गोधरा में जलाकर मार डाले गए 59 कारसेवकों का मजाक उड़ाया था। गोधरा कांड के लिए उसने अमित शाह और आरएसएस को जिम्मेदार ठहराया था। संज्ञान में यह वीडियो आने के बाद राष्ट्रीय सेवा संघ (RSS) ने उस पर कानूनी एक्शन लेने की बात कही थी।

क्या ये सब बातें कहीं से भी कॉमेडी या हास्य कही जा सकती हैं? अगर यह हास्य है तो उसे पहले अपने मजहब से इसकी शुरुआत की चाहिए, जिसमें हो सकता है कि अन्य धर्मों से अधिक हास्य की सम्भावन निकल आएँ। लेकिन शायद खुद मुनव्वर फारूकी जैसों को खुद भी सभी धर्मों की सहिष्णुता और असहिष्णुता के पैमानों का सही-सही अंदाजा है, इसी कारण ये उस धर्म को निशाना बनाना ज्यादा आसान समझते हैं, जहाँ उनकी जिंदगी पर बात नहीं आती और बात बस एक-आध FIR और ‘ट्विटर आउटरेज’ में दफ़्न हो जाती हैं।

‘भास्कर’ जैसे मीडिया गिरोहों का मुनव्वर फारूकी की खबरों में लिया गया पक्ष इस देश की सहिष्णुता और इसके उदारवाद का एकदम नग्न और स्पष्ट परिचय है। ये समय-समय पर इसी तरह खुद अपना आवरण उतारकर सामने आते रहेंगे।

फिलहाल एक और ‘गुंडागर्दी की खबर’ जो सामने आई है, वह ये कि हिन्दू देवी-देवताओं और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पर अभद्र टिप्पणी करने के आरोप में कथित कॉमेडियन मुनव्वर फारूकी समेत 5 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है।

दैनिक भास्कर पहले भी हिंदूत्व के खिलाफ छापता रहा है, कभी हिंदू त्यौहार नही मनाने की सलाह देता रहा है जिससे जनता में भारी रोष है और उसपर कड़ी कार्यवाही करने की मांग उठ रही है।

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Saturday, January 2, 2021

लव जिहाद में फंसी हिंदू युवतियों की दुर्दशा और नेताओं का मौन

02 जनवरी 2021


मुंबई की एक विदुषी ने लिखा है कि उनके सामने गत तीन महीनों में पाँच मामलें आए जिसमें मुस्लिम लड़कों ने अबोध हिन्दू लड़कियों पर डोरे डाल कर, शारीरिक उत्तेजना दिला या संबंध बनाकर, ब्लैकमेल कर, निकाह कर, धर्म-परिवर्तन कराकर, फिर जल्द उपेक्षित और मार-पीट कर, कुछ मामले में दोस्तों-संबंधियों द्वारा बलात्कार भी करवा कर, फिर अपना दूसरा निकाह कर, पहली को लाचार नौकर जैसी बनाकर रख दिया। हिन्दू विधवाओं या विवाह के बाद अलग हुई युवा स्त्रियों को भी निशाना बना कर यह हो रहा है। ऐसी शादियों से तलाक लेकर अलग होने की कोशिश करने वालियों को भी धमकी, प्रताड़ना मिली। अदालत से गुजारा देने का आदेश मिलने पर भी वह नहीं मिलता।




कुछ हेर-फेर के साथ अधिकांश लव-जिहाद में यही हो रहा है। एक बार केरल हाई कोर्ट के संज्ञान लेने पर भी ऐसी घटनाएं रोकने के लिए सत्ताधारियों और कानून द्वारा कुछ नहीं किया जा रहा। उक्त विदुषी ने सामाजिक चेतना जगाने की बात की, जो सही है। पर क्या सत्ता और न्याय संस्थाओं की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती, जबकि इन मामलों में उत्पीड़न, धोखा, अत्याचार मौजूद है? क्या वे संसद या विधान सभा में इस पर चर्चा भी नहीं करा सकते, जिस से कम से कम सामाजिक चेतना तो बने?

विचित्र यह कि ऐसी परिघटनाएं जिसमें हिन्दुओं को तरह-तरह की सांस्कृतिक, राजनीतिक वंचना, अपमान, भेद-भाव और अन्याय सहना पड़ रहा है, इसकी शिकायत वे भी बरसों-दशकों से करते रहे हैं जो आज ऊँची कुर्सियों पर हैं, किन्तु कुर्सी पर पहुँच कर उनकी बोलती बंद हो जाती है। वे हर तरह की बातें करते हैः विकास, चुनाव, स्वच्छता, गैस, पानी, पार्टी, नेता, वाड्रा, सर्जिकल, पाकिस्तान, आदि, किन्तु जिन पर उनका मुँह स्थायी रूप से बंद हो जाता है, वह वे बातें हैं जिन पर पहले बोलते रहे थे, जब तक उन्हें ऊँची जिम्मेदारी नहीं मिली थी। पार्टी, संगठन या सत्ता में।

तो क्या पद पाकर वे मजबूत होने के बजाए कमजोर हो जाते हैं? अपने मन की नहीं बोल सकते। किसी अन्याय पर कुछ करना तो दूर, टीका-टिप्पणी करने से भी परहेज करते हैं। पुराने सहयोगियों से संपर्क तोड़ लेते हैं। मेल, फोन का जबाव नहीं देते। यह संकोच है, या डर, विवशता? या कि सत्ता पाकर उन्हें ऐसे सत्य का बोध हो जाता है जिस से पिछली बातें झूठी, अनुचित, अतिरंजित या महत्वहीन लगने लगती हैं? यदि यह भी हो, तो क्या उनकी जिम्मेदारी नहीं कि सत्ता-पदों से बाहर रहे साथियों को सचाई से अवगत कराकर ऐसी शिकायतें करना बंद कराएं?

कम से कम बीस वर्षों के अनुभव से पाया है कि ऐसे आलोचनात्मक लेखों की वैसे हिन्दूवादी प्रशंसा करते हैं, जो सत्ता-पदों पर नहीं हैं। दूसरे या तो मौन, या लानत-मलानत करते हैं कि लेखक पराजित मानस है, छिद्रान्वेषी है, बड़ी तस्वीर नहीं देखता, अपने ही पक्ष का निंदक है, आदि। यहाँ तक कि दंडित भी करते हैं! लेकिन जिन समस्याओं से हिन्दू धर्म-समाज त्रस्त है, उन पर उनका कभी कोई बयान या हस्तक्षेप नहीं होता। तब ये सत्ता, संसाधन किस लिए हाथ में लिए जाते हैं?

जबकि अनेक छोटी और बड़ी समस्याएं भी मामूली हस्तक्षेप से सुधर सकती हैं। कई मामलों में किसी साहस की भी जरूरत नहीं। केवल तनिक बुद्धि लगाने की बात है। इसी लव-जिहाद पर यदि संसद में एक बहस ही हो जाए, तो काफी उपाय निकल जाएगा। किन्तु किसी ऐसी चिन्ता पर उन्हें कभी बाहर भी विचार-विमर्श, या संवाद तक मंजूर नहीं रह जाता। वैसे वे सत्ता-संसाधनों से सैकड़ों गोष्ठियाँ, सेमिनार, सम्मेलन, व्याख्यान, प्रकाशन, प्रचार, आदि करते रहते हैं। लेकिन उनके विषय हिन्दू चिन्ताओं को छोड़ कर बाकी हर चीज हैं। जिस में सब से बड़ा हिस्सा नेता-पार्टी का गौरवगान, आत्म-प्रशंसा, और प्राचीन हिन्दू वैभव का कीर्तन रहता है।

अतः प्रश्न उठता है – क्या सत्ता पाकर हिन्दू ही कमजोर हो जाते हैं? या कि वे पहले ही कमजोर थे, और हैं? क्योंकि प्रायः मुसलमान कैसे भी पद पर हों, अपने मजहब, समुदाय के हितों पर बोलना कभी बंद नहीं करते। यहाँ तक कि अहंकारी, गैर-कानूनी माँग भी करते हैं। साथ ही, खुले या चुपचाप इस्लामी जमीन, संसाधन, संस्थान और प्रभाव बढ़ाने में लगे रहते हैं। परवाह नहीं करते कि मीडिया या सत्ता उन्हें क्या कहती है, क्या नहीं। तब हिन्दुओं को क्या हो जाता है कि सत्ता पाकर वे कांग्रेसी, कम्युनिस्ट, जातिवादी, और नकली भाषा बोलने लगते हैं। ऊपर से इस की जयकार में संकोच करने पर पुराने साथियों को फटकारते हैं। सत्ताधारी सहयोगियों की भयंकर गलतियों पर भी चुप रहते हैं। जिन गलत कामों के लिए दूसरे की निंदा करते थे, ठीक वही करने के लिए अपने नेताओं की प्रशंसा करते हैं।

पद पाकर प्रायः हिन्दू नेता झूठ बोलने लगते हैं। चाहे विषय धार्मिक, मिशनरी, इस्लामी हो, या वैदेशिक, सामाजिक, ऐतिहासिक। यह पहले नहीं था। अंग्रेजों के समय हमारे नेता हिन्दू समाज की चिन्ताओं पर बोलने में संकोच नहीं करते थे। तब स्वतंत्र भारत में क्या हो गया, कि हिन्दू चिन्ताएं औपचारिक विवर्श से ही बाहर हो गईं? उन का उल्लेख निजी बात-चीत में, अंदरखाने रह गया। बरसों से सारे भाषण, बयान, गोष्ठी, सेमिनार, प्रेस-कांफ्रेंस, साहित्य छान लीजिए। अपवादों को छोड़कर कोई महत्वपूर्ण नेता, लेखक, समाजसेवी, मठाधीश, उद्योगपति, आदि किसी हिन्दू संत्रास पर चिन्ता करते, बोलते, माँग करते नहीं मिलेंगे। मानो कोई सेंसरशिप लगी हो।

यह कैसी सेंसरशिप है? विदेशी शासक कब के चले गए। उन के राज में दयानन्द, मालवीय, तिलक, श्रीअरविन्द, श्रद्धानन्द, गाँधी, प्रेमचंद, निराला, बिड़ला, गोयनका, खुल कर हिन्दू समाज की चिन्ता रखते थे। तब स्वदेशी शासन में क्या हो गया, कि मुसलमानों को देश-बाँटकर अलग दे देने के बाद भी, हिन्दू महानुभाव डरे, लजाए, आँख चुराए जीवन जीते हैं? पुराने साथियों से बचते ही नहीं, बल्कि असहमति रखने वाले विशिष्ट ज्ञानियों को भी दंडित तक कर डालते हैं! अरुण शौरी अकेले नहीं, जिन्हें अछूत बना दिया गया। यह मूढ़ता की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है, कि जिन्हें उपेक्षित करना था, उन्हें ईनाम दिये गये और समाज जिन्हें सम्मानित होने की आशा करता था, उन्हीं पर तिरस्कार अपमान की चोट पड़ी!

हिन्दू नेताओं, मध्य-वर्ग को क्या हो गया है? क्या उन की प्रतिभा मर गई ? हिन्दूवादी संगठनों ने अपने यहाँ कैसी नैतिक, वैचारिक, आत्मिक ट्रेनिंग दी है, जिस का परिणाम नियमित बनाव-छिपाव, दोहरापन एवं मूढ़ता है ? शिक्षा पर जैसी नई अ-नीति या नीति-शून्यता अभी बनी है, वह पहले कभी नहीं बनी थी! जो बुद्धि सब से मूलभूत क्षेत्र में ऐसी नीतिहीनता गढ़ सकती है, वह दूसरे काम चाणक्य जैसी करेगी, यह नितांत अविश्वसनीय है।

इस सांस्कृतिक परिदृश्य में वह हिन्दू चरित्र नहीं, जिसका उपनिषदों से लेकर स्वामी विवेकानन्द, टैगोर, निराला से लेकर राम स्वरूप तक ने आख्यान किया है। आज जो हो रहा है कि वह गाँधी-नेहरूवादी अहंकार, अज्ञान और पाखंड का ही एक रूप है। कुछ बेहतर या बदतर।

आगे हरि-इच्छा जो भी हो! पर ऐसे एलीट से कोई आशा नहीं बँधती, जो हिन्दू अबलाओं की दुर्गति देखकर भी उस से आँखें चुराकर निरंतर अपनी पीठ खुद ठोकने में लगा हो। - डॉ. शंकर शरण

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Friday, January 1, 2021

औरंगजेब पर जिनसे कांपता था उन गोकुल सिंह का पराक्रम अदुभुत था

01 जनवरी 2021


भारतवासीयों का टीवी, फिल्में, सीरियल, अखबार, पढ़ाई, झूठे इतिहास आदि द्वारा ऐसा ब्रेनवॉश कर दिया है कि जिन अंग्रेजों ने भारत को 200 साल गुलाम बनाकर रखा, देशवासियों को प्रताड़ित किया, देश की संपत्ति लूटकर ले गये उन ईसाई अंग्रेजों के नये साल पर बधाई दे रहे हैं, जश्न मना रहे हैं, लेकिन जिन क्रांतिकारीयों ने इन अंग्रेजों को भगाने में और मुगलों की नींव समाप्त करने में अपने प्राणों की बलि दे दी तथा आज जिनके कारण हम इस देश में स्वतंत्र घूम रहे हैं ऐसे योद्धाओं को भुला दिया ।




ऐसे ही एक भारत माता के वीर सपूत थे गोकुल सिंह, जिन्होंने विशाल मुगल सेना के दांत खट्टे कर दिए थे और औरंगजेब के पसीने छुड़वा दिए थे । उनका आज (1 जनवरी) बलिदान दिवस है, उनका इतिहास पढ़कर आप भी अपने पूर्वजों की वीरता पर गर्व महसूस करेंगे और विदेशी आक्रांताओं मुगलों तथा अंग्रेजों से नफरत करने लगेंगे ।

सन् 1666  में इस्लामिक राक्षस औरंगजेब के अत्याचारों से हिन्दू जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी । मंदिरों को तोड़ा जा रहा था, हिन्दू स्त्रियों की इज्जत लूटकर उन्हें मुस्लिम बनाया जा रहा था। औरंगजेब और उसके सैनिक पागल हाथी की तरह हिन्दू जनता को मथते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे ।

हिंदुओं को दबाने के लिए औरंगजेब ने अब्दुन्नवी नामक एक कट्टर मुसलमान को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया । अब्दुन्नवी के सैनिकों का एक दस्ता मथुरा जनपद में चारों ओर लगान वसूली करने निकला । मथुरा के पास सिनसिनी गाँव के सरदार गोकुल सिंह के आह्वान पर किसानों ने लगान देने से इंकार कर दिया, परतन्त्र भारत के इतिहास में वह "पहला असहयोग आन्दोलन" था ।

दिल्ली के सिंहासन के नाक तले समरवीर धर्मपरायण हिन्दू वीर योद्धा गोकुल सिंह और उनकी किसान सेना ने आतताई औरंगजेब को हिंदुत्व की ताकत का एहसास दिलाया ।

मई 1669 में अब्दुन्नवी ने सिहोरा गाँव पर हमला किया । उस समय वीर गोकुल सिंह गाँव में ही थे । भयंकर युद्ध हुआ लेकिन इस्लामी शैतान अब्दुन्नवी और उसकी सेना सिहोरा के वीर हिन्दुओं के सामने टिक ना पाई और सारे इस्लामिक पिशाच गाजर-मूली की तरह काट दिए गए ।

गोकुल सिंह की सेना में जाट, राजपूत, गुर्जर, यादव, मेव, मीणा इत्यादि सभी जातियों के हिन्दू थे, सब अपनी जाति-पाति भूलकर एक हिंदू थे। इस विजय ने मृतप्राय हिन्दू समाज में नए प्राण फूँक दिए थे ।

इसके बाद पाँच माह (5 महीनों ) तक भयंकर युद्ध होते रहे । मुगलों की सभी तैयारियां और चुने हुए सेनापति प्रभावहीन और असफल सिद्ध हुए । क्या सैनिक और क्या सेनापति सभी के ऊपर गोकुलसिंह का वीरता और युद्ध संचालन का आतंक बैठ गया । अंत में सितंबर मास में, बिल्कुल निराश होकर, शफ शिकन खाँ ने गोकुलसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा । गोकुल सिंह ने औरंगेजब का प्रस्ताव अस्वीकार करते हुए  कहा कि "औरंगजेब कौन होता है हमें माफ करने वाला, माफी तो उसे हम हिन्दुओं से मांगनी चाहिए उसने अकारण ही हिन्दू धर्म का बहुत अपमान किया है ।

अब औरंगजेब 28 नवम्बर 1669 को दिल्ली से चलकर खुद मथुरा आया गोकुल सिंह से लड़ने के लिए। औरंगजेब ने मथुरा में अपनी छावनी बनाई और अपने सेनापति होशयार खाँ को एक मजबूत एवं विशाल सेना के साथ युद्ध के लिए भेजा ।

आगरा शहर का फौजदार होशयार खाँ 1669 सितंबर के अंतिम सप्ताह में अपनी-अपनी सेनाओं के साथ आ पहुंचे । यह विशाल सेना चारों ओर से गोकुलसिंह को घेरा लगाते हुए आगे बढ़ने लगी । गोकुलसिंह के विरुद्ध किया गया यह अभियान, उन आक्रमणों से विशाल स्तर का था, जो बड़े-बड़े राज्यों और वहां के राजाओं के विरुद्ध होते आए थे । इस वीर के पास न तो बड़े-बड़े दुर्ग थे, न अरावली की पहाड़ियाँ और न ही महाराष्ट्र जैसा विविधतापूर्ण भौगोलिक प्रदेश । इन अलाभकारी स्थितियों के बावजूद, उन्होंने जिस धैर्य और रण-चातुर्य के साथ, एक शक्तिशाली साम्राज्य की केंद्रीय शक्ति का सामना करके, बराबरी के परिणाम प्राप्त किए, वह सब अभूतपूर्व है ।

औरंगजेब की तोपों,धर्नुधरों, हाथियों से सुसज्जित तीन लाख (3 लाख) लोगों की विशाल सेना और गोकुल सिंह के किसानों की बीस हजार (20 हजार) की सेना में भयंकर युद्ध छिड़ गया । चार दिन तक भयंकर युद्ध चलता रहा और गोकुल सिंह की छोटी सी अवैतनिक सेना अपने बेढंगे व घरेलू हथियारों के बल पर ही अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित और प्रशिक्षित मुगल सेना पर भारी पड़ रही थी ।

भारत के इतिहास में ऐसे युद्ध कम हुए हैं जहाँ कई प्रकार से बाधित और कमजोर पक्ष, इतने शांत निश्चय और अडिग धैर्य के साथ लड़ा हो । हल्दी घाटी के युद्ध का निर्णय कुछ ही समय में हो गया था। पानीपत के तीनों युद्ध एक-एक दिन में ही समाप्त हो गए थे, परन्तु वीरवर गोकुलसिंह का युद्ध तीसरे दिन भी चला । इस लड़ाई में सिर्फ पुरुषों ने ही नहीं, बल्कि उनकी स्त्रियों ने भी पराक्रम दिखाया ।

चार दिन के युद्ध के बाद जब गोकुल सिंह की सेना युद्ध जीतती हुई प्रतीत हो रही थी तभी हसन अली खान के नेतृत्व में एक नई विशाल मुगलिया टुकड़ी आ गई और इस टुकड़ी के आते ही गोकुल की सेना हारने लगी । युद्ध में अपनी सेना को हारता देख हजारों नारियाँ जौहर की पवित्र अग्नि में खाक हो गई ।

गोकुल सिंह और उनके ताऊ उदय सिंह को सात हजार साथियों सहित बंदी बनाकर आगरा में औरंगजेब के सामने पेश किया गया । औरंगजेब ने कहा "जान की खैर चाहते हो तो इस्लाम कबूल कर लो और रसूल के बताए रास्ते पर चलो । बोलो क्या इरादा है इस्लाम या मौत ?

अधिसंख्य धर्म-परायण हिन्दुओं ने एक सुर में कहा - "औरंगजेब, अगर तेरे खुदा और रसूल मोहम्मद का रास्ता वही है जिस पर तू चल रहा है तो धिक्कार है तुझे, हमें तेरे रास्ते पर नहीं चलना l"

इतना सुनते ही औरंगजेब के संकेत से गोकुल सिंह की बलशाली भुजा पर जल्लाद का बरछा चला । गोकुल सिंह ने एक नजर अपने भुजाविहीन रक्तरंजित कंधे पर डाली और फिर बड़े ही घमण्ड के साथ जल्लाद की ओर देखा और कहा दूसरा वार करो ।

दूसरा बरछा चलते ही वहाँ खड़ी जनता आर्तनाद कर उठी और फिर गोकुल सिंह के शरीर के एक-एक जोड़ काटे गए । गोकुल सिंह का सिर जब कटकर धरती माता की गोद में गिरा तो मथुरा में केशवराय जी का मंदिर भी भरभराकर गिर गया । यही हाल उदय सिंह और बाकि साथियों का भी किया गया । उनके छोटे- छोटे बच्चों को जबरन मुसलमान बना दिया गया । 1 जनवरी 1670 ईसवी का दिन था वह।

ऐसे अप्रतिम वीर का कोई भी इतिहास नहीं पढ़ाया गया और न ही कहीं कोई सम्मान ही दिया गया । न ही उनके नाम पर न कोई विश्वविद्यालय है और न कोई केन्द्रीय या राजकीय परियोजना । कितना एहसान फरामोश, कृतघ्न है हिंदू समाज!!

कैसे वीर हुए इस धरा पर, जिन्होंने देश व धर्म के लिए प्राण न्यौछावर कर दिये पर इस्लाम नहीं अपनाया। गोकुलसिंह सिर्फ जाटों के लिए शहीद नहीं हुए थे न उनका राज्य ही किसी ने छीन लिया था, न कोई पेंशन बंद कर दी थी, बल्कि उनके सामने तो अपूर्व शक्तिशाली मुगल-सत्ता, दीनतापूर्वक, सन्धि करने की तमन्ना लेकर गिड़-गिड़ाई थी ।

शर्म आती है हमें कि हम ऐसे अप्रतिम वीर को कागज के ऊपर भी सम्मान नहीं दे सके । शाही इतिहासकारों ने उनका उल्लेख तक नहीं किया । केवल जाट पुरूष ही नहीं बल्कि उनकी वीरांगनायें भी अपनी ऐतिहासिक दृढ़ता और पारंपरिक शौर्य के साथ उन सेनाओं का सामना करती रही ।

दुर्भाग्य की बात है कि भारत की इन वीरांगनाओं और सच्चे सपूतों का कोई उल्लेख शाही टुकड़ों पर पलने वाले तथाकथित इतिहासकारों ने नहीं किया ।

1669 की क्रान्ति के जननायक, परतंत्र भारत में असहयोग आन्दोलन के जन्मदाता, राष्ट्रधर्म रक्षक वीर गोकुल सिंह जी और उनके सात हजार क्रान्तिकारी साथियों के बलिदान दिवस पर {1जनवरी} उनको शत-शत नमन ।

कैसे वीर थे वो अलबेले,कैसी अमर है उनकी कहानी। सरदार गोकुल सिंह जी की, आओ याद करें कुर्बानी।।

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Thursday, December 31, 2020

भारतीय सनातन संस्कृति सर्वोत्तम व महान क्यो है?

 पश्चिमी संस्कृति के क्रिसमस डे की जगह पूज्य संत श्री आशारामजी बापू की दिव्य सौगात 25 दिसंबर को तुलसी-पूजन दिवस के रूप में मनाना सर्वहितकारी है। 





क्रिसमस का उत्सव मनाने के लिए लोग शंकुधर वृक्ष काट कर घर लाते हैं और फिर सजाते हैं - ये वृक्ष पृथ्वी के उत्तरी पृष्ठ पर कार्बन डायोक्साईड को कम करने वाले सबसे कारगर जंगल बनाते हैं। जो शिक्षित, प्रगतिवादी समाजवर्ग हिंदुओं को दीवाली पर दिया जलाने पर global warming के उलाहने देता है उनका ध्यान इधर क्यों नही आकर्षित होता। कुछ लोग पेड़ काटने के बजाये प्लास्टिक के पेड़ ( क्रिसमस ट्री ) से भी अपना उत्सव मनाते हैं। पर वह भी वातावरण के लिए घातक है, इसके निस्तारण में तो बहुत रासायनिक प्रदूषण होता है।

दुर्बल निर्णय शक्ति के कारण हम पश्चिमी समाज का अनुसरण करने लगे। ये बुद्धिमानी नहीं है - इसमें पर्यावरण व समाज - दोनो की हानि अवश्यंभावी है। पश्चिम देशों की देखा-देखी भारत में भी 25 दिसंबर से 1 जनवरी तक क्रिसमस-उत्सव मनाया जाने लगा है जिसमें सभ्य-समाज भी दारू पीता है, मांस खाता है, डांस-पार्टी आदि के बहाने महिलाओं से छेड़खानी करता है। इन दिनों में आत्महत्या, महिलाओं से दुष्कर्म एवम् सड़क-दुर्घटनाएँ अत्यधिक घटित होती है। ऐसा सिर्फ यूरोप या अमेरिका में ही नही अब भारत में भी घटित होने लगा है।

सच पूछे तो इस त्यौहार का हमारी संस्कृति-समाज से कोई सरोकार नही है। ऊपर से यह हमारी स्वदेशी सभ्यता को भ्रष्ट करने वाला है। इसको मनाना माने आसुरी गुणों को बढ़ावा देना है। सनातन संस्कृति और अपने गौरवशाली इतिहास की सुरक्षा हेतु हमे इसको स्वीकारना नही चाहिए।

जहाँ एक ओर क्रिसमस मनाने के दुष्परिणाम सर्वविदित हैं तो दूसरी ओर तुलसी-निष्ठा से समाज उत्थान भी विदित है। तुलसी माता में निष्ठा धर्म, काम, अर्थ और मोक्ष चारो दिलाने में सक्षम है। इसीलिए धर्म, समाज के उत्थान की दृष्टि से संत श्री आशारामजी बापू ने सन 2012 से 25 दिसम्बर को तुलसी-पूजन दिवस के रूप में मनाने का आवाह्न किया। इस पवित्र परंपरा से सभी भारतवासी लाभान्वित हो रहे हैं। परिवार सहित मनाने से बुद्धिबल, मनोबल , चारित्र्यबल और आरोग्यबल तो बढ़ता है पर मानसिक अवसाद, दुर्व्यसन, आत्महत्या आदि कुत्सित कर्म करने की रूचि भी चली जाती है।

सिर्फ भारत में ही नहीं विश्व के कई अन्य देशों में भी तुलसी को पूजनीय व शुभ मानते हैं और तुलसी की पूजा करते हैं। पूर्वकाल में ग्रीस के ईस्टर्न-चर्च नामक संप्रदाय में तुलसी की पूजा होती थी। तुलसी मानव जीवन की रक्षक व पोषक है। यह स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी है - कई प्रकार के औषधीय गुण इसमें विद्यमान है। तुलसी का पूजन, सेवन व रोपण करने से अनेक प्रकार के लाभ होते हैं। भगवान विष्णु ने स्वयं तुलसी को सर्व-पूज्या होने का वरदान दिया है। तुलसी प्रदूषित वायु को शुद्ध कर पर्यावरण की सुरक्षा करती है ।  पूरे भारतवर्ष में तुलसी का पौधा सुलभ और सुप्रसिद्ध है। अधिकांश हिंदू अपने घरों में तुलसी का रोपण करते हैं और बहुत पवित्रता से इसकी पूजा कर भगवान श्री हरि की कृपा प्राप्त करते हैं। जो भी जन समुदाय सत्संग और सेवा कार्यों मे जुड़े हैं उनके घरों में प्रायः संध्या के समय तुलसी की पूजा होती है।

क्रिसमस डे जैसे त्योहार के नाम पर शराब-कबाब के जश्न, मांस-भक्षण, धूम्रपान और नशे आदि करना हमें कतई शोभा नही देता। भारतीय संस्कृति व सभ्यता का दमन करने वाली संस्कृति का अनुसरण हमे नही करना है। ऐसा करना ऋषि-मुनियों की संतानों को ग्लानि से भर देता है। अतः 25 दिसंबर को तुलसी-पूजन दिवस मनाकर देश में जागृति लाएं। अपने परिवार, पड़ोस व समाज को ऊँचा उठायें - विश्व पटल पर भारतवर्ष का गौरव बढ़ाएँ।

आईये 25 दिसम्बर को तुलसी पूजन दिवस मनाएं।

बसन्त कुमार मानिकपुरी
पाली, जिला -कोरबा
छत्तीसगढ़, भारत