Tuesday, February 15, 2022

देशवासियों के नाम एक फकीर का संदेश : हिंदुत्व को बचा लो...

16 मई 2021

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शरीमति इंदिरा गांधी से लेकर तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी तक की भेंट करने वाले बोरिया बाबा ने बताया कि यदि आज हमारे देश में घंटे-घड़ियाल व मंत्रों की ध्वनि सुनाई पड़ रही है, मंदिरों में सुबह-शाम आरती की घंटियां बज रही है, तो यह सब हमारे साधु-संतो व गुरु लोगों की कृपा का फल है।



औरंगजेब के जमाने में तलवार की ताकत से धर्मांतरण का ऐसा भयंकर बवंडर चला था कि यदि उस समय हमारे आध्यात्मिक गुरु गोविंद सिंह जी तलवार उठा कर हिंदू धर्म की रक्षा नहीं करते तो आज पूरा हिंदुस्तान ही पाकिस्तान बन गया होता।


आज फिर ईसाई मिशनरियों ने हमारे देश को एक ईसाई-राष्ट्र बनाने के लिए एक भयंकर युद्ध छेड़ा हुआ है, ऐसे समय में हिंदू संत आसाराम बापू ने उनके खिलाफ मोर्चा संभाला हुआ था,किंतु इटली की ईसाई महिला सोनिया गांधी की सरकार ने एक षड्यंत्र रच कर उनको कारागार में भेज दिया।


सत आसाराम बापू को समाज से दूर करते ही धर्मांतरणकारी शक्तियों के हौसले अब आसमान की बुलंदी को छू रहे हैं।पिछले कुछ वर्षों में इन लोगों ने जितने इसाई बना दिए हैं,उतने तो शायद पिछले 50 वर्षों में भी नहीं बना पाए थे और आश्चर्य की बात यह है कि आज अधर्म के पक्ष में खड़े बड़े-बड़े राजनेता व तथाकथित बुद्धिजीवी भी यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि “हिंदू” जिस दिन भी इस देश में अल्पसंख्यक बन जाएगा— उस दिन सारा भारत एक कश्मीरी बन जाएगा।


कई लाख कश्मीरी हिंदू आज भी भारत मे ही शरणार्थी बने घूम रहे हैं।


आपको बता दें कि बोरिया बाबा के गुरूजी बाबा बैताली राम जी जिनका शरीर इस धरा पर लगभग 350 वर्षों तक रहा था।


बोरिया बाबा अपने जीवन के 60-70 वर्ष हिमालय में तपस्या कर अब लोक-कल्याणार्थ नीचे आकर देश में पर्यावरण सुधार के कार्य में जुटे हुए हैं।


इसी सिलसिले में बाबा की भेंट देश के राजनेताओं, श्रीमति इंदिरा गांधी से लेकर वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी तक भी होती रही है।


भतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी तो बाबा का जब भी दिल्ली आना होता था, वो उन्हें अपने भोंडसी आश्रम जरुर लेकर जाते थे।


यही बोरिया बाबा ने पहले भी हिन्दू संत आसाराम बापू को रिहा करने के लिए पत्र लिखा था उसमें बताया था कि कांग्रेस पार्टी ने 80 वर्षीय संत आशारामजी बापू को एक झूठे मुकदमें में फंसाकर जेल भेज दिया था । मैडम सोनिया ने अपनी हुकूमत में और भी हिन्दू संतो को खूब फंसाया है । अब मैडम सोनिया व उसके पुत्र के कर्म पूरे हो चुके हैं। उनका राजपाट छीन चुका है अब दोनों ही असहाय होकर घूम रहे हैं।


शास्त्र वचन भी है...

संत कै दूखनि नीचु निचाई।

संत दोखी का थाउ को नाहीँ।।


सत आशारामजी बापू पिछले 50 वर्षों से इस देश की सेवा में जुटे हुए थे। अपने सत्संग ,गुरुकुल व गौशालाओं के जरिये वो भारत की सनातन संस्कृति धर्म व गौ-माता की खूब सेवा कर रहे थे । देश में ईसाई मिशनरियों द्वारा हिन्दुओं को धड़ाधड़ ईसाई बनाये जाने के कामों में इससे रोक लग रही थी । और इसी कारण से मैडम सोनिया उनसे नाराज हो गयी थी।


दश के लोगों को पूरी उम्मीद थी कि मोदी जी की सरकार आ जाने पर संत आशारामजी बापू को तुरंत न्याय मिल जायेगा। इस लिए देश के बड़े- बड़े साधु संतो ने भी भाजपा की जीत के लिये खूब-खूब प्रार्थनाएँ, यज्ञ तथा भंडारे किये थे। लेकिन संत आशारामजी बापू की रिहाई न होने के कारण ही आज भारत के बड़े - बड़े साधु संत व मठाधीश तक भयभीत है।


उन संतो का कहना है कि जब इतने बड़े संत के साथ सरकार ऐसा बर्ताव कर सकती है तो हम लोंगो की तो बिसात ही क्या है! इस लिये कोई भी संत महात्मा इस बारे मे खुल कर बोल भी नहीं पा रहा है।मोदी जी मेरा आपसे कहना है कि जिस राजा के राज में संत सताए जाएँ तथा संत महात्मा भयभीत होकर रहें, तो उस राजा का भविष्य कतई उज्जवल नहीं है।


म भी संत महात्माओं की इस पवित्र भारत भूमि पर 100 वर्षों से भी अधिक समय से  विचरण कर रहा एक वैष्णव अघोरी फकीर हूँ। मैंने भी आपके लिए माँ भगवती से खूब प्रार्थनाएं की थी । इसलिए मेरी तो आपको सलाह है कि संत आशारामजी बापू एक निर्दोष संत हैं । आप सम्मान के साथ उनकी आजादी का जल्दी से जल्दी प्रबंध कर दें।


भारत के हजारों संत इसके लिए आपको आशीर्वाद और दुआएं देंगे तथा आपके उज्जवल भविष्य के लिए प्रार्थना भी करेंगे।


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Saturday, February 12, 2022

करांतिकारी सुखदेवजी के बारे में आपको ये बातें पता नहीं होंगी, जो जाननी जरूरी हैं

15 मई 2021

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हमारा भारतवर्ष पहले स्वतन्त्र एवं धन-धान्य से परिपूर्ण था, लेकिन भारत की यह सम्पन्नता विदेशी लोगों की नजर में खटकने लगी। हमारे भोलेपन का फायदा उठाकर अंग्रेजों ने हमारे देश पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों के अत्याचार ने इस सीमा को पार कर लिया था कि भारतवासी इस अत्याचार से मुक्ति पाने के लिए छटपटाने लगे। एक ओर महात्मा गांधी का अहिंसा आन्दोलन चल पड़ा और दूसरी ओर क्रान्तिकारियों ने क्रान्ति का बिगुल बजा दिया। ऐसे ही एक वीर क्रान्तिकारी थे सुखदेव।



उनका जन्म 15 मई, सन् 1907 में पंजाब प्रान्त के लायलपुर नामक स्थान में हुआ था (वर्तमान में लायलपुर पाकिस्तान में है)। उनकी माताजी अत्यन्त धार्मिक तथा भावुक प्रवृत्तिवाली महिला थीं और परिवार आर्यसमाजी था, जिसका अत्यधिक प्रभाव सुखदेवजी पर पड़ा। धार्मिक बातों में उनकी बहुत रुचि थी और अपनी मां से तो वीर रस की कहानियां भी सुना करते थे। इसका प्रभाव यह हुआ कि वे वीर और निडर बन गए एवं योद्धा बनकर देशसेवा में लग गए। उनका स्वभाव बड़ा ही शांत और कोमल था, इसलिए उनके सहपाठी और शिक्षक सदैव उनका आदर और उनसे प्यार करते थे। उनके स्वभाव में उदारता की भावना यथेष्ट थी। वे अपने सिद्धांतों में बड़े दृढ़ थे। जो बात दिल में समा जाती थी वह सारे संसार का विरोध करने पर भी छोड़ना नहीं चाहते थे। वे अपनी धुन के पक्के थे। सहपाठियों में जब किसी विषय को लेकर तर्क-वितर्क उपस्थित होता तो वो बड़ी दृढ़ता से अपना पक्ष रखते और अंत में उनकी अकाट्य युक्तियों के सामने प्रतिद्वंदी को मस्तक झुका देना पड़ता।  समाज के सत्संगों में वे बड़े उत्साह से भाग लिया करते थे, इसके अलावा हवन, योगाभ्यास और संध्या का भी शोक था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी लायलपुर में स्थित आर्य स्कूल से शुरू हुई, विद्यालय का नाम धनपतमल आर्य स्कूल था। यहां से शिक्षा ग्रहण करने के बाद उनको सनातन हाईस्कूल में भर्ती कर दिया गया था और सन् 1922 में उन्होंने प्रवेशिका की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में पास की। परिवार क्रान्तिकारी था। इनके चाचा अचिन्त राम क्रान्तिकारी गतिविधियों में संलग्न रहा करते थे। वे भी आन्दोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया करते थे।


सन् 1919 की एक घटना है- जब सुखदेव केवल बारह साल के थे, उनके चाचा अचिन्त राम सरकार विरोधी गतिविधि में गिरफ्तार कर लिए गए थे। उस समय सुखदेव थोड़ा-थोड़ा समझने लगे थे कि अंग्रेज उनके दुश्मन हैं, उनको हमारे इस देश पर शासन करने का कोई हक नहीं है। इन गोरों से हमारे देश को जितना जल्दी हो आजाद कराया जाए- यही हम सब भारतवासियों के लिए अच्छा होगा।


सन् 1920-21में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटना घटित हुई- उन दिनों बालक सुखदेव कक्षा नौ में पढ़ते थे। तभी ब्रिटिश सरकार की ओर से हुक्म आया कि शहर के सारे विद्यालयों के छात्र-छात्राएं एक जगह एकत्रित होकर ब्रिटिश झण्डे का अभिवादन करेंगे। बालक सुखदेव भला इस समारोह में कैसे शामिल होते! क्योंकि वे अंग्रेजों को अपना कट्टर दुश्मन समझते थे। इसलिए उस समारोह में जाने के बजाय सीधे घर आ गए। घर आकर जब उन्होंने यह घटना अपने चाचाजी को सुनाई तो चाचा अपने भतीजे की बात पर जरा भी नाराज नहीं हुए, बल्कि उनकी देशभक्ति तथा निडरता को देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हो उठे। देश में एक-के-बाद-एक ऐसी घटनाएं घटती जा रही थीं जिन्हें देखकर व सुनकर सुखदेव का मन देशभक्ति की तरफ बढ़ता ही जा रहा था।


सन् 1921 में गांधीजी ने भारत में असहयोग आन्दोलन शुरू कर दिया। इस आन्दोलन से सारे भारतवासियों में एक अद्भुत विचारधारा उत्पन्न हो गई। पूरे भारत में विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार होने लगा। जगह-जगह विदेशी वस्तुओं को जलाया जा रहा था। पंजाब में भी लोग जगह-जगह विदेशी वस्तुओं की होली जलाने लगे, एक अजीब-सा माहौल बन गया था। इस घटना ने सुखदेव के दिल पर एक ऐसी छाप छोड़ी जो कि उन्होंने विदेशी वस्त्रों तथा वस्तुओं का पूर्ण रूप से त्याग करने का निश्चय कर लिया। राष्ट्र-सेवा ही आपने अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बना लिया था तथा प्रण किया कि जब तक मैं जीवित रहूंगा, देश-सेवा करता रहूंगा।


कछ समय पश्चात् वे भगतसिंह के सम्पर्क में आये। भगतसिंह उनके विचारों से काफी प्रभावित हुए। दल में वह ऐसी ही नौजवानों को चाहते थे, जो अपनी चिन्ता किये बगैर मातृभूमि के लिए अपने प्राण त्यागने को सदा तैयार रहें। सन् 1926 में भगतसिंह तथा अन्य क्रान्तिकारियों ने मिलकर लाहौर में "नौजवान भारत सभा" की स्थापना की, इस सभा में क्रान्तिकारी सुखदेव भी शामिल थे। "नौजवान भारत सभा" क्रान्तिकारी आन्दोलन का एक खुला मंच था। इस सभा का काम लोगों को अपने उद्देश्य तथा विचारों के बारे में अवगत कराना था। इस सभा की स्थापना गुप्त संगठन के कार्य का क्षेत्र तैयार करना और लोगों में उग्र राष्ट्रीय भावना को


गाना था। भगतसिंह इस सभा के मुख्य सूत्रधार थे। सुखदेव भी इस सभा के प्रमुख एवं सक्रिय सदस्यों में से एक थे। लाहौर में कमीशन आ रहा था, क्रान्तिकारियों को इसकी सूचना पहले ही मिल गई थी। उन्हें जोरदार प्रदर्शन करके अपना विरोध प्रकट करना था। सुखदेव, भगतसिंह तथा अन्य पांच-छह क्रान्तिकारियों ने मिलकर एक योजना बनायी। एक क्रान्तिकारी के घर प्रदर्शन के लिए काले झण्डे तैयार किए जा रहे थे। किसी तरह से पुलिस को इसकी सूचना मिल गई। वे इस प्रदर्शन को विफल करना चाहते थे, उन्होंने देशभक्तों को गिरफ्तार करने के लिये विभिन्न स्थानों पर छापे मारे। पुलिस की आंखों में धूल झोंककर सभी क्रान्तिकारी वहां से भाग खड़े हुए। किसी कारणवश सुखदेव वहां से भाग नहीं सके, वह वहीं पकड़े गए। पुलिस वाले बहुत अधिक खुश हुए और आपस में कह रहे थे- "चलो एक तो मिला! इसीसे ही सारे लोगों के बारे में पता चल जाएगा।"

लेकिन वाह रे सुखदेव! पुलिस की कितनी मार खाई। यातनाएं सहीं, मगर दल के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा। इस प्रकार के क्रान्तिकारी को नमन। उन्होंने निडर होकर पुलिसवालों को करारा जवाब दिया-" मैं मर जाऊंगा लेकिन तुम्हें कभी भी अपने साथियों के बारे में नहीं बताऊंगा।"


एक बार की बात है- लाहौर की बोस्टल जेल में भूख हड़ताल को तोड़ने के लिए क्रान्तिकारियों की पिटाई हो रही थी, अंग्रेज पिटाई करके भूख हड़ताल को तोड़ना चाहते थे। डॉक्टर क्रान्तिकारियों को जबरदस्ती दूध पिलाना चाहता था, इसके लिए जेल अधिकारियों की सहायता ली गई। जेल का बड़ा दरोगा खान बहादुर खैरदीन बारह-पन्द्रह तगड़े सिपाही के साथ एक-एक करके कैदी क्रान्तिकारियों को कोठरियों से अस्पताल तक पहुंचाने में व्यस्त था। दरोगा ने सुखदेव की कोठरी खुलवाई। कोठरी का दरवाजा खुलते ही सुखदेव तीर की तरह भाग निकले। दस रोज के अनशन के बाद भी उन्होंने ऐसी दौड़ लगाई कि जेल के अधिकारी परेशान हो गए। दस दिन का भूखा आदमी भी इस कदर फुर्ती से दौड़ सकता है, इस बात की उन्हें ज़रा भी उम्मीद नहीं थी। बड़ी मुश्किल से जब सुखदेव काबू में आया तो उसने मारपीट शुरू कर दी। किसी को मारा, किसी को काट खाया। अपने आदमियों को एक भूखे आदमी से पिटते देख दरोगा को गुस्सा आ गया। डॉक्टर के पास ले जाने से पहले उसने सुखदेव की खूब मरम्मत करवा दी, परन्तु वह बेझिझक मार खाते गए और दरोगा की ओर उपेक्षा के भाव से मुस्कुराते रहे। उनकी इस शरारतभरी मुस्कुराहट से दरोगा अत्यधिक क्रोधित हो उठा। जब सिपाही और दरोगा उसे टांगकर अस्पताल ले जा रहे थे तो उसने टांगें फटकारनी शुरू कर दीं। दरोगा पास आकर हिदायत देने लगा। सुखदेव ने दरोगा के सीने पर ऐसी लात मारी कि वह बेचारा धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा। दरोगा चाहता तो सुखदेव की अच्छी मरम्मत करवा सकता था, परन्तु वह अपनी झेंप मिटाने के लिए वहां से चला गया।


सखदेव हठी स्वभाव के थे, अगर उनपर कोई बात सवार हो गई तो मजाल है जो कोई उनके फैसले को डिगा दे। उनके बाएं हाथ पर "ॐ" शब्द गुदा हुआ था। फरारी की हालत में पहचान के लिए यह बहुत बड़ी निशानी थी। आगरे में बम बनाने के लिए नाइट्रिक एसिड खरीदकर रखा गया था। "ॐ" शब्द मिटाना जरूरी था, जिससे पकड़े जाने पर पहचान न हो सके। इस "ॐ" शब्द को मिटाने के लिए उन्होंने गुदे हुए स्थान पर बहुत-सा नाइट्रिक एसिड डाल दिया। शाम तक जहां-जहां एसिड लगा था, गहरे घाव हो गए। पूरा हाथ सूज गया और बुखार भी चढ़ आया। साथियों से पूछने पर उसने एक शब्द भी नहीं कहा और न ही तकलीफ के कारण हंसी-ठिठोली में कमी आने दी।

एक दिन शाम को वह दुर्गा भाभी के घर पहुंचा। भगवती भाई उस समय कहीं बाहर गए हुए थे। भाभी रसोईघर में खाना बना रही थीं। सुखदेव चुपचाप भगवती भाई के कमरे में जाकर बैठ गया। इस प्रकार सुखदेव को काफी देर खामोश देखकर भाभी को उत्सुकता होने लगी कि वह अकेला कमरे में क्या कर रहा है? जाकर देखा तो दंग रह गयीं।

सुखदेव ने मेज पर मोमबत्ती जला रखी थी और उसकी लौ पर हाथ किये बैठा था। जिस स्थान पर उसका नाम लिखा था, वहां की खाल जल चुकी थी। वह अधूरा काम छोड़ना नहीं चाहते थे। इस दृश्य को देखकर भाभी के रोंगटे खड़े हो गए। इस स्वभाव के थे वीर सुखदेव।


नौजवानों की क्रान्तिकारी टोलियों ने फिर से हथियार उठा लिए थे, किसी भी तरह देश को आजाद कराना था। सुखदेव का काम भी बड़ी तत्परता से चल रहा था। दल की केन्द्रीय समिति की बैठक हुई- जिसमें यह निश्चय किया गया कि दिल्ली के असेम्बली भवन में बम फेंका जाए। इस कार्य को भगतसिंह करना चाहता था लेकिन दल के अन्य सदस्यों ने उसकी बात नहीं मानी। सैण्डर्स की हत्या के सिलसिले में पंजाब पुलिस भगतसिंह के पीछे पड़ी थी। भगतसिंह के पकड़े जाने का अर्थ था- उनकी फांसी, जो दल के लोग नहीं चाहते थे। उनका इरादा किसी दूसरे व्यक्ति को भेजने का था- और यही निश्चय किया गया कि भगतसिंह के स्थान पर अन्य किसी को भेजा जाएगा, जो इस काम को कुशलतापूर्वक सम्पन्न कर सके। सौभाग्य सुखदेव इस सभा में नहीं थे। बम फेंकने के लिए समिति की आज्ञा की जरूरत थी। भगतसिंह ने आग्रह करके समिति की बैठक बुलाई। सुखदेव को भी इस बैठक में बुलाया गया। भगतसिंह बम फेंकने के लिए अड़ गया। विवश होकर समिति को उसकी बात माननी पड़ी। सुखदेव अपने मित्र को खोना नहीं चाहते थे इस कारण उन्होंने भगतसिंह से बहस भी की लेकिन भगतसिंह के जिद्द के कारण उदास होकर उसी शाम किसी से कुछ कहे बिना सुखदेव लाहौर पहुंच गये। सड़क से जुलूस जब गुजर रहा था तो पुलिस के इशारे पर उसके किसी आदमी ने उस जुलूस में बम फेंक दिया। शहर में दंगा भड़क उठा। पुलिस इस दंगे को दबा नहीं पाई तथा अपनी इस करतूत पर वह खिसिया गयी थी। क्रान्तिकारियों को इस दंगे से जोड़कर वह अपना मतलब हल करना चाहती थी। पुलिसवालों ने सबसे पहले भगतसिंह को पकड़ा लेकिन वह जमानत पर छूट गए। इसके बाद वहां से सुखदेव को गिरफ्तार किया गया, साथ में उसके कई अन्य साथी थे।


भगतसिंह, सुखदेव और विजय कुमार सिन्हा ने तीन सदस्यों की कमेटी बनाई थी जिसका काम हर क्षेत्र में अंग्रेज अफसरों का विरोध करना था। उनका हमेशा से एक ही नारा था- 'क्रान्ति अमर रहे', 'वन्देमातरम्', 'इन्कलाब जिन्दाबाद'!


करान्तिकारियों को अंग्रेज अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे। दुश्मनों को खत्म करने के लिए उन्होंने चुन-चुनकर उनको फांसी देना शुरू कर दिया था। वे समझते थे कि इस तरह उनके मनोबल को गिरा देंगे- लेकिन यह उनकी सबसे बड़ी भूल थी। लाहौर कारागर में सुखदेव, भगतसिंह व राजगुरु तीनों ही कैद थे। उनके मुकदमे की सुनवाई अदालत में चल रही थी। अंग्रेजों का ध्येय समाप्त हो चुका था। उन्होंने मुकदमे की सुनवाई भी पूरी नहीं होने दी। सरकार को भय था कि अगर निष्पक्ष फैसला हुआ तो उसकी हार हो सकती है, और क्रांतिकारी भी छूट जाएंगे, यह सब कैसे सम्भव था! 7 अक्टूबर, सन् 1930 में सरकार ने सुखदेव, भगतसिंह तथा राजगुरु को फांसी की सजा सुना दी। सरकार इस फैसले को छिपाकर न रख सकी। लोगों को अंग्रेजों की जल्दबाजी में किये गए फैसले के बारे में पता हो चुका था। यह फैसला सुनकर चारों ओर क्रान्ति आ गई। अगले दिन 8 अक्टूबर को उत्तर भारत के प्रत्येक स्थान पर हड़ताल हो गई। पूरा वातावरण 'भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव जिन्दाबाद' के नारों से गूंजने लगा।


फांसी पर चढ़ने से पहले उन तीनों के होठों पर मुस्कान थिरक रही थी, उन्हें अपनी मौत का जरा-सा भी भय नहीं था। 23 मार्च, सन् 1931 की शाम को लाहौर की केन्द्रीय जेल में तीनों क्रान्तिकारियों- भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी पर लटका दिया गया।


भारत के इतिहास में इन तीनों क्रान्तिकारियों का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया। इस बात में कोई सन्देह नहीं कि आर्यावर्त के वीर पुत्र सुखदेव एक सच्चे देशभक्त थे, उन्होंने देश पर हंसते-हंसते अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। हम सभी को उनपर गर्व होना चाहिए तथा उनके जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए कि जब-जब हमारे देश पर कोई संकट आएगा, तब-तब हम सभी एक मजबूत दीवार बनकर उस संकट का सामना करेंगे। - प्रियांशु सेठ


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शभाजी राजे 120 युद्धों में से एक भी नहीं हारे, पर इतिहास गायब कर दिया !

14 मई 2021

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शभाजी राजा ने अपनी अल्पायु में जो अलौकिक कार्य किए, उससे पूरा हिंदुस्थान प्रभावित हुआ। इसलिए प्रत्येक हिंदू को उनके प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए। उन्होंने साहस एवं निडरताके साथ औरंगजेब की आठ लाख सेना का सामना किया तथा अधिकांश मुगल सरदारों को युद्ध में पराजित कर उन्हें भागने के लिए विवश कर दिया। २४ से ३२ वर्ष की आयु तक शंभुराजा ने मुगलों की पाशविक शक्ति से लड़ाई की एवं एक बार भी यह योद्धा पराजित नहीं हुआ। इसलिए औरंगजेब दीर्घकाल तक महाराष्ट्र में युद्ध करता रहा । उसके दबाव से संपूर्ण उत्तर हिंदुस्थान मुक्त रहा। इसे शंभाजी महाराज का सबसे बडा कार्य कहना पड़ेगा। यदि उन्होंने औरंगजेब के साथ समझौता किया होता अथवा उसका आधिपत्य स्वीकार किया होता तो वह दो-तीन वर्षों में ही पुन: उत्तर हिंदुस्थान में आ धमकता; परंतु शंभाजी राजा के संघर्ष के कारण औरंगजेब को २७ वर्ष दक्षिण भारत में ही रुकना पडा । इससे उत्तर में बुंदेलखंड, पंजाब और राजस्थान में हिंदुओं की नई सत्ताएं स्थापित होकर हिंदू समाज को सुरक्षा मिली ।


वीर शिवाजी के पुत्र वीर शम्भाजी को अयोग्य आदि की संज्ञा देकर बदनाम करते हैं। जबकि सत्य ये है कि अगर वीर शम्भाजी कायर होते तो वे औरंगजेब की दासता स्वीकार कर इस्लाम ग्रहण कर लेते। वह न केवल अपने प्राणों की रक्षा कर लेते अपितु अपने राज्य को भी बचा लेते। वीर शम्भाजी का जन्म 14  मई 1657 को हुआ था।  आप वीर शिवाजी के साथ अल्पायु में औरंगजेब की कैद में आगरे के किले में बंद भी रहे थे। आपने 11 मार्च 1689 को वीरगति प्राप्त की थी। इस लेख के माध्यम से हम शम्भाजी के जीवन बलिदान की घटना से धर्मरक्षा की प्रेरणा ले सकते हैं। इतिहास में ऐसे उदाहरण विरले ही मिलते हैं।



औरंगजेब के जासूसों ने सूचना दी कि शम्भाजी इस समय अपने पांच-दस सैनिकों के साथ वारद्वारी से रायगढ़ की ओर जा रहे हैं। बीजापुर और गोलकुंडा की विजय में औरंगजेब को शेख निजाम के नाम से एक सरदार भी मिला जिसे उसने मुकर्रब की उपाधि से नवाजा था। मुकर्रब अत्यंत क्रूर और मतान्ध था। शम्भाजी के विषय में सूचना मिलते ही उसकी बांछे खिल उठी। वह दौड़ पड़ा रायगढ़ की ओर। शम्भाजी अपने मित्र कवि कलश के साथ इस समय संगमेश्वर पहुँच चुके थे। वह एक बाड़ी में बैठे थे कि उन्होंने देखा कवि कलश भागे चले आ रहे है और उनके हाथ से रक्त बह रहा है।  कलश ने शम्भाजी से कुछ भी नहीं कहा बल्कि उनका हाथ पकड़कर उन्हें खींचते हुए बाड़ी के तलघर में ले गए परन्तु उन्हें तलघर में घुसते हुए मुकर्रब खान के पुत्र ने देख लिया था। शीघ्र ही मराठा रणबांकुरों को बंदी बना लिया गया। शम्भाजी व कवि कलश को लोहे की जंजीरों में जकड़ कर मुकर्रब खान के सामने लाया गया।  वह उन्हें देखकर खुशी से नाच उठा।  दोनों वीरों को बोरों के समान हाथी पर लादकर मुस्लिम सेना बादशाह औरंगजेब की छावनी की और चल पड़ी।


औरंगजेब को जब यह समाचार मिला तो वह ख़ुशी से झूम उठा। उसने चार मील की दूरी पर उन शाही कैदियों को रुकवाया। वहां शम्भाजी और कवि कलश को रंग बिरंगे कपडे और विदूषकों जैसी घुंघरूदार लम्बी टोपी पहनाई गयी।  फिर उन्हें ऊंट पर बैठा कर गाजे बाजे के साथ औरंगजेब की छावनी पर लाया गया। औरंगजेब ने बड़े ही अपशब्दों में उनका स्वागत किया। शम्भाजी के नेत्रों से अग्नि निकल रही थी परन्तु वह शांत रहे। उन्हें बंदीगृह भेज दिया गया।  औरंगजेब ने शम्भाजी का वध करने से पहले उन्हें इस्लाम कबूल करने का न्योता देने के लिए रूहल्ला खान को भेजा।


नर केसरी लोहे के सींखचों में बंद था। कल तक जो मराठों का सम्राट था। आज उसकी दशा देखकर करुणा को भी दया आ जाये। फटे हुए चिथड़ों में लिप्त हुआ उनका शरीर मिट्टी में पड़े हुए स्वर्ण के समान हो गया था। उन्हें स्वर्ग में खड़े हुए छत्रपति शिवाजी टकटकी बांधे हुए देख रहे थे।  पिताजी, पिताजी वे चिल्ला उठे- मैं आपका पुत्र हूँ।  निश्चित रहिये। मैं मर जाऊँगा लेकिन…..


लेकिन क्या शम्भा जी …रूहल्ला खान ने एक ओर से प्रकट होते हुए कहा-

तुम मरने से बच सकते हो शम्भाजी परन्तु एक शर्त पर।


शम्भाजी ने उत्तर दिया- मैं उन शर्तों को सुनना ही नहीं चाहता।  शिवाजी का पुत्र मरने से कब डरता है।


लेकिन जिस प्रकार तुम्हारी मौत यहाँ होगी उसे देखकर तो खुद मौत भी थर्रा उठेगी शम्भाजी- रुहल्ला खान ने कहा।


कोई चिंता नहीं, उस जैसी मौत भी हम हिन्दुओं को नहीं डरा सकती।  संभव है कि तुम जैसे कायर ही उससे डर जाते हों। - शम्भाजी ने उत्तर दिया।


लेकिन… रुहल्ला खान बोला, वह शर्त है बड़ी मामूली।  तुझे बस इस्लाम कबूल करना है।  तेरी जान बक्श दी जाएगी। शम्भाजी बोले- बस रुहल्ला खान आगे एक भी शब्द मत निकालना मलेच्छ।  रुहल्ला खान अट्टहास लगाते हुए वहाँ से चला गया।


उस रात लोहे की तपती हुई सलाखों से


की दोनों आँखे फोड़ दी गयी  उन्हें खाना और पानी भी देना बंद कर दिया गया।


आखिर 11  मार्च को वीर शम्भा जी के बलिदान का दिन आ गय।  सबसे पहले शम्भाजी का एक हाथ काटा गया, फिर दूसरा, फिर एक पैर को काटा गया और फिर दूसरा पैर। शम्भाजी का करपाद विहीन धड़ दिन भर खून की तलैय्या में तैरता रहा।  फिर सांयकाल में उनका सर काट दिया गया और उनका शरीर कुत्तों के आगे डाल दिया गया।  फिर भाले पर उनके सर को टांगकर सेना के सामने उसे घुमाया गया और बाद में कूड़े में फेंक दिया गया।


मराठों ने अपनी छातियों पर पत्थर रखकर अपने सम्राट के सर का इंद्रायणी और भीमा के संगम पर तुलापुर में दाह-संस्कार किया। आज भी उस स्थान पर शम्भाजी की समाधि है जो पुकार पुकार कर वीर शम्भाजी की याद दिलाती है कि हम सर कटा सकते हैं पर अपना प्यारा वैदिक धर्म कभी नहीं छोड़ सकते।


मित्रों, शिवाजी के तेजस्वी पुत्र शंभाजी के अमर बलिदान की यह गाथा हिन्दू माताएं अपनी लोरियों में बच्चों को सुनायें तो हर घर से महाराणा प्रताप और शिवाजी जैसे महान वीर जन्मेंगे। इतिहास के इन महान वीरों के बलिदान के कारण ही आज हम गर्व से अपने आपको श्री राम और श्री कृष्ण की संतान कहने का गर्व करते हैं। आईये, आज हम प्रण लें- हम उन्हीं वीरों के पथ के अनुगामी बनेंगे।


शाहीर योगेश के शब्दो में कहना है, तो…


‘देश धरम पर मिटनेवाला शेर शिवा का छावा था ।

महापराक्रमी परम प्रतापी एक ही शंभू राजा था ।।१।।


तेजपुंज तेजस्वी आंखें निकल गईं पर झुका नहीं।

दृष्टि गई पर राष्ट्रोन्नति का दिव्य स्वप्न तो मिटा नहीं।।२।।


दोनों पैर कटे शंभू के ध्येय मार्गसे हटा नहीं।

हाथ कटे तो क्या हुआ सत्कर्म कभी भी छूटा नहीं।।३।।


जिह्वा काटी रक्त बहाया धरम का सौदा किया नहीं।।

शिवाजी का ही बेटा था वह गलत राहपर चला नहीं।।४।।


रामकृष्ण, शालिवाहनके पथसे विचलित हुआ नहीं।।

गर्व से हिंदू कहने में कभी किसीसे डरा नहीं।।


वर्ष तीन सौ बीत गए अब शंभू के बलिदानको ।

कौन जीता कौन हारा पूछ लो संसारको।।५।।


कोटि-कोटि कंठों में तेरा आज गौरवगान है।

अमर शंभू तू अमर हो गया तेरी जय जयकार है।।६।।


भारतभूमि के चरणकमल पर जीवन पुष्प चढाया था।

है दूजा दुनिया में कोई, जैसा शंभू राजा था ।।७।।’


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जानिए भारत को आज परशुरामजी की क्यों आवश्यकता है?

13 मई 2021

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भगवान परशुरामजी का जन्म भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी क्षत्राणी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था। वे भगवान विष्णु के छठे अंशावतार थे। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुरामजी कहलाये।



शक्तिधर परशुरामजी का चरित्र एक ओर जहाँ शक्ति के केन्द्र सत्ताधीशों को त्यागपूर्ण आचरण की शिक्षा देता है वहीं दूसरी ओर वह शोषित, पीड़ित, क्षुब्ध जनमानस को भी उसके शक्ति और सामर्थ्य का एहसास दिलाता है। शासकीय दमन के विरूद्ध वह क्रान्ति का शंखनाद है। वह सर्वहारा वर्ग के लिए अपने न्यायोचित अधिकार प्राप्त करने की मूर्तिमंत प्रेरणा है। वह राजशक्ति पर लोकशक्ति का विजयघोष है।


आज स्वतंत्र भारत में सैकड़ों-हजारों सहस्रबाहु देश के कोने-कोने में विविध स्तरों पर सक्रिय हैं। ये लोग कहीं साधु-संतों की हत्या करते हैं, अपमानित करते हैं या कहीं न कहीं न्याय का आडम्बर करते हुए भोली जनता को छल रहे हैं; कहीं उसका श्रम हड़पकर अबाध विलास में ही राजपद की सार्थकता मान रहे हैं, तो कहीं अपराधी माफिया गिरोह खुलेआम आतंक फैला रहे हैं। तब असुरक्षित जन-सामान्य की रक्षा के लिए आत्म-स्फुरित ऊर्जा से भरपूर व्यक्तियों के निर्माण की बहुत आवश्यकता है। इसकी आदर्श पूर्ति के निमित्त परशुरामजी जैसे प्रखर व्यक्तित्व विश्व इतिहास में विरले ही हैं।  इस प्रकार परशुरामजी का चरित्र शासक और शासित दोनों स्तरों पर प्रासंगिक है।


शस्त्र शक्ति का विरोध करते हुए अहिंसा का ढोल चाहे कितना ही क्यों न पीटा जाये, उसकी आवाज सदा ढोल के पोलेपन के समान खोखली और सारहीन ही सिद्ध हुई है। उसमें ठोस यथार्थ की सारगर्भिता कभी नहीं आ सकी। सत्य, हिंसा और अहिंसा के संतुलन बिंदु पर ही केन्द्रित है। कोरी अहिंसा और विवेकहीन पाशविक हिंसा- दोनों ही मानवता के लिए समान रूप से घातक हैं। आज जब हमारे साधु-संत और राष्ट्र की सीमाएं असुरक्षित हैं; कभी कारगिल, कभी कश्मीर, कभी बांग्लादेश तो कभी देश के अन्दर नक्सलवादी शक्तियों के कारण हमारी अस्मिता का चीरहरण हो रहा है, तब परशुरामजी जैसे वीर और विवेकशील व्यक्तित्व के नेतृत्व की आवश्यकता है।


गत शताब्दी में कोरी अहिंसा की उपासना करने वाले हमारे नेतृत्व के प्रभाव से हम जरुरत के समय सही कदम उठाने में हिचकते रहे हैं। यदि सही और सार्थक प्रयत्न किया जाये तो देश के अन्दर से ही प्रश्न खड़े होने लगते हैं। परिणाम यह है कि हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों और व्यवस्थापकों की धमनियों का लहू इतना सर्द हो गया है कि देश की जवानी को व्यर्थ में ही कटवाकर भी वे आत्मसंतोष और आत्मश्लाघा का ही अनुभव करते हैं। अपने नौनिहालों की कुर्बानी पर वे गर्व अनुभव करते हैं, उनकी वीरता के गीत तो गाते हैं किन्तु उनके हत्यारों से बदला लेने के लिए उनका खून नहीं खौलता। प्रतिशोध की ज्वाला अपनी चमक खो बैठी है। शौर्य के अंगार तथाकथित संयम की राख से ढंके हैं। शत्रु-शक्तियां सफलता के उन्माद में सहस्रबाहु की तरह उन्मादित हैं लेकिन परशुरामजी अनुशासन और संयम के बोझ तले मौन हैं।


राष्ट्रकवि दिनकर ने सन् 1962 ई. में चीनी आक्रमण के समय देश को ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ शीर्षक से ओजस्वी काव्यकृति देकर सही रास्ता चुनने की प्रेरणा दी थी। युग चारण ने अपने दायित्व का सही-सही निर्वाह किया। किन्तु राजसत्ता की कुटिल और अंधी स्वार्थपूर्ण लालसा ने हमारे तत्कालीन नेतृत्व के बहरे कानों तक उसकी पुकार ही नहीं आने दी। पांच दशक बीत गये। इस बीच एक ओर साहित्य में परशुराम के प्रतीकार्थ को लेकर समय पर प्रेरणाप्रद रचनाएं प्रकाश में आती रहीं और दूसरी ओर सहस्रबाहु की तरह विलासिता में डूबा हमारा नेतृत्व राष्ट्र-विरोधी षड़यंत्रों को देश के भीतर और बाहर दोनों ओर पनपने का अवसर देता रहा। परशुरामजी पर केन्द्रित साहित्यिक रचनाओं के संदेश को व्यावहारिक स्तर पर स्वीकार करके हम साधारण जनजीवन और राष्ट्रीय गौरव की रक्षा कर सकते हैं।


महापुरूष किसी एक देश, एक युग, एक जाति या एक धर्म के नहीं होते। वे तो सम्पूर्ण मानवता की, समस्त विश्व की, समूचे राष्ट्र की विभूति होते हैं। उन्हें किसी भी सीमा में बाँधना ठीक नहीं। दुर्भाग्य से हमारे यहां स्वतंत्रता में महापुरूषों को स्थान, धर्म और जाति की बेड़ियों में जकड़ा गया है। विशेष महापुरूष विशेष वर्ग के द्वारा ही सत्कृत हो रहे हैं। एक समाज विशेष ही विशिष्ट व्यक्तित्व की जयंती मनाता है। अन्य जन उसमें रूचि नहीं दर्शाते, अक्सर ऐसा ही देखा जा रहा है। यह स्थिति दुभाग्यपूर्ण है। महापुरूष चाहे किसी भी देश, जाति, वर्ग, धर्म आदि से संबंधित हो, वह बके लिए समान रूप से पूज्य है, अनुकरणीय है।


इस संदर्भ में भगवान परशुरामजी, जो उपर्युक्त विडंबनापूर्ण स्थिति के चलते केवल ब्राह्मण वर्ग तक सीमित हो गए हैं, समस्त शोषित वर्ग के लिए प्रेरणा स्रोत क्रान्तिदूत के रूप में स्वीकार किये जाने योग्य हैं और सभी शक्तिधरों के लिए संयम के अनुकरणीय आदर्श हैं ।


भा माने -अध्यात्म

रत माने - उसमें रत रहने वाले

"जिस देश के लोग अध्यात्म में रत रहते हैं उसका नाम है भारत।"


भारत की गरिमा सदा उसकी संस्कृति व साधु-संतों से ही रही है। भगवान भी बार-बार जिस धरा पर अवतरित होते आये हैं वो भूमि भारत की भूमि है। किसी भी देश को माँ कहकर संबोधित नहीं किया जाता पर भारत को "भारत माता" कहकर संबोधित किया जाता है क्योंकि यह देश आध्यात्मिक देश है, संतों महापुरुषों का देश है। भौतिकता के साथ-साथ यहाँ आध्यात्मिकता को भी उतना ही महत्व दिया गया है। पर आज के पाश्चात्य कल्चर की ओर बढ़ते कदम इसकी गरिमा को भूलते चले जा रहे हैं; संतों महापुरुषों का महत्व, उनके आध्यात्मिक स्पन्दन भूलते जा रहे हैं।


सत और समाज के बीच खाई खोदने में एक बड़ा वर्ग सक्रिय है। ईसाई मिशनरियां सक्रिय हैं, मीडिया सक्रिय है, विदेशी कम्पनियाँ सक्रिय हैं, विदेशी फण्ड से चलने वाले NGOs सक्रिय हैं, जिहादी सक्रिय हैं, कई राजनैतिक दल व नेता सक्रिय हैं; क्योंकि इनका उद्देश्य है- भारतीय संस्कृति को मिटाकर पश्चिमी सभ्यता लाने का जिससे विदेशी कंपनियों की प्रोडक्ट की बिक्री भारी मात्रा में होगी और धर्मान्तरण भी जोरों शोरों से होगा, फिर उनका वोटबैंक बढ़ जायेगा और देश को गुलामी की जंजीरों में जकड़ लेंगे।


इतने सब वर्ग जब एक साथ सक्रिय होंगे तो किसी के भी प्रति गलत धारणाएं समाज के मन में उत्पन्न करना बहुत ही आसान हो जाता है और यही हो रहा है हमारे संत समाज के साथ।


पिछले कुछ सालों से एक दौर ही चल पड़ा है हिन्दू संतों को लेकर। किसी संत की हत्या कर दी जाती है या किसी संत को झूठे केस में सालों जेल में रखा जाता है फिर विदेशी फण्ड से चलने वाली मीडिया उनको अच्छे से बदनाम करके उनकी छवि समाज के सामने इतनी धूमिल कर देती है कि समाज उन झूठे आरोपों के पीछे की सच्चाई तक पहुँचने का प्रयास ही नहीं करता।


अब समय है कि समाज को जागना होगा- भारतीय संस्कृति व साधु-संतों के साथ हो रहे अन्याय को समझने के लिए। अगर अब भी हिन्दू मौन दर्शक बनकर देखता रहा तो हिंदुओं का भविष्य खतरे में है।


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सुरेश चव्हाणके : 21की सदी की सबड़े बड़ी घटना, जिसके करोड़ो कार्यकर्ता तैयार हुए

12 मई 2021

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सुदर्शन न्यूज़ चैनल के मुख्य सम्पादक श्री सुरेश चव्हाणके ने मीडिया से बात करते हुए बताया कि व्यवस्था करना नेता का काम है संस्कार देना संत का काम है। आज़ादी के बाद सबसे ज्यादा प्रताड़ित अगर किसी को किया गया है तो संत आशाराम बापू को किया गया है। मैं उनके लिए कल भी आवाज़ उठाता था आज भी उठा रहा हूँ और कल भी उठाता रहूंगा।



समाज को उनके ऊपर हुए षडयंत्र समझना चाहिए। मैं आज भी भाषण में कहा न्यायपालिका के भी धर्म के ऊपर कैसे आक्रमण किया जा सकता है। इसके सैकड़ो उदारण है। मैं अपनी चैनल के माध्यम से कई बार कह चुका हूं। सत्य केवल न्यायपालिका से ही आता है ऐसा नहीं है। हम तो ईश्वर को माननेवाले व्यक्ति है। सत्य को देखने का नजरिया केवल न्यायपालिका से नहीं ईश्वर की दृष्टि से मिलता है उसको ध्यान देना चाहीये।


बापू आशारामजी पर षड्यंत्र यानी  समस्त हिन्दू संतों पर षड्यंत्र है।


मैं एक बात कई बार कह चुका हूं और आज इस भूमि पर दौहराना चाहूंगा। कोई घटनाएं क्यों होती है वो हमको पता नहीं होता। हमें पुरुषार्थ के साथ उनको बदलना चाहीये लेकिन बापूजी के साथ इस शताब्दि के सबसे बड़ा प्रताड़ना का जो विषय हुआ ये केवल एक व्यक्ति और एक संत का नहीं है। ये समस्त हिन्दू संतों का है। क्योंकि जिस गति से जिस लेवल से जिस रुट लेवल पर बापूजी काम कर रहें थे तो ये होना था। ये ऐसा धर्म की रक्षा करनेवालों पर अटेक होना ही है। हम पे भी हुआ है। और वो भगवान ने बचा लिया है। और बचाता जाएगा।


बापू आशारामजी पर षड्यंत्र से करोड़ो हिन्दू संस्कृति के कार्यकर्ता बन गए।


मैं बापू आशारामजी के बारे में एक बात हमेशा बोलता हूं साधकों के बारे में कि हिन्दुस्तान में खास करके धर्म रक्षा के विषय में कट्टर कार्यकर्ता तैयार होने में बहुत टाइम लगता है एक एक कार्यकर्ता तैयार होने में संविनय भी देखिए शाखा में जाता है फिर शिविरों में जाता है फिर भाषण सुनता है कार्यो में जॉइन होता है आंदोलनों में जाता है तब जाके कहि कार्य करता है। राजनीति कार्य तो इतना पुख्ता नहीं होता लेकिन जो सामाजिक क्षेत्र में क्रांतिकारी जो कार्य करता है उसमें तैयार होने में बहुत लंबा टाइम लगता है।


मैं भारत की नहीं पूरे विश्व की बात कर रहा हूँ। पूरे विश्व में एक ऐसी घटना है बापूजी की गिरफ्तारी जिसके बाद लोग भले ही आकड़े पर कम-ज्यादा हो लेकिन कम से कम एक दिन में एक करोड़ लोग हिन्दू कार्यकर्ता बन गए ऐसी ये घटना है। इसलिए मैं कम से कम आंकड़ा कह रहा हूँ क्योंकि लोग कहेंगे इतने तो 6 करोड़ नही हो सकते है। एक से तो कोई असहमत हो ही नहीं सकता। हमारा शत्रु भी नही हो सकता। तो एकदम से वो activate बन गए जो खुद केवल गुरु और भगवान इस लिंक में थे।


आध्यात्मिक व्यक्ति ज्यादा इधर उधर देखता नहीं समाज में क्या हो रहा है। लेकिन एकदम से वो अपने गुरु के न्याय के लिए संघर्ष करने लगा। तो उसको पता चला कि न्यायपालिका कितनी भ्रष्ट है। तो उसको पता चला कि पुलिस प्रशासन, सरकार, राजनैतिक दल सामान्य कार्य कर्ता तथाकथित हिन्दू संगठन अन्य साधु-संत ये बिखरे हुए होना कमजोर होना ये हमारे लिए निंदा का नहीं चिंता का विषय है। हम इसलिए उनका उल्लेख कर रहें है इसलिए ये घटना पता चली और उससे जो कार्यकर्ता बना है।


अब मैं जिस जगत से हूँ मीडिया जगत से हमारे क्षेत्र के भी कई लोग अब ये मानने लगे है कि ये ठीक है कि FIR हुआ जो भी हुआ लेकिन ये अधिक हो गया। ये अब लोग मानने लगे है यहाँ तक कि जो गैर धर्मी है वो भी अब ये कहने लगे कि हाँ अब ये ज्यादा हो गया। तो इसका मतलब है कि हिंदुस्तान को जिस मुद्दे को लेकर आपने जितने तमाम महापुरुषों के नाम लिए वो जिस मुद्दे को लेकर जगाने निकले थे। वो सारे जगाने का परिपत क्या होता है ये बापूजी की घटना ना केवल इस दशक में बल्कि आने वाले शतकों तक बताती रहेगी और मैं मानता हूं कि हिन्दू को जगाने संगठित करने और प्रेरित करने की सबसे बड़ी घटना भी रहेगी।


जनता की भी मांग है कि हिन्दू संत आशारामजी बापू को शीघ्र रिहा करना चाहिए।


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कम्युनिस्टों की जहरीली कलम देश का कर रही है नुकसान

11 मई 2021

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पश्चिमी बंगाल मे हिंदुओं (विशेष रूप से दलित हिन्दू) का अमानुषिक उत्पीड़न 2 मई की रात से लगातार जारी है। सम्पूर्ण मीडिया इसपर चुप है। राज्य सरकार अपराधियों का साथ दे रही है तो केन्द्र सरकार चुप है। बड़ी संख्या में बंगाल से भाग कर असम में शरण लिए लोगों की खबरे आ रही हैं। परंतु मीडिया और सभी राजनैतिक दल इस पर चुप हैं। 



परसिद्ध अमेरिकी लेखक हावर्ड फास्ट ने अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी में 16 वर्ष काम किया था। वह लिखते हैं कि पार्टी से सहानुभूति रखने वाले बाहरी बुद्धिजीवियों में प्राय: पार्टी सदस्यों से भी अधिक अंधविश्वास दिखता है। कम्युनिज्म के सिद्धांत-व्यवहार के ज्ञान या अनुभव के बदले वे अपनी कल्पना और प्रवृत्ति से अपनी राय बना लेते हैं। यह बात दुनिया भर के कम्युनिस्ट समर्थकों के लिए सच है।


चोर तबरेज आलम की पिटाई के कारण मरने पर रविश कुमार 33 घंटे चिल्लाया और पालघर के सन्यासियों के क्रूर संहार पर 33 सेकंड। बंगाल के नरसंहार और सामूहिक बलात्कार पर पूरी तरह चुप। 


भारत में इसी तरह का एक उदाहरण है- अरुंधती राय, जिसने कुछ समय से नक्सली कम्युनिस्टों के समर्थन का झंडा उठा रखा है। कुछ समय पहले इसने एक लेख “वाकिंग विद द कामरेड्स” लिखा। लेख का अंतिम निष्कर्ष यह है कि सन् 1947 से ही भारत एक औपनिवेशिक शक्ति है, जिसने दूसरों पर सैनिक आक्रमण करके उनकी जमीन हथियाई। इसी तरह भारत के तमाम आदिवासी क्षेत्र स्वाभाविक रूप से नक्सलवादियों के हैं, जिनपर इंडियन स्टेट ने सैनिक बल से अवैध कब्जा किया हुआ है। इस साम्राज्यवादी युद्धखोर ‘अपर कास्ट हिंदू स्टेट’ ने मुस्लिमों, ईसाईयों, सिखों, कम्युनिस्टों, दलितों, आदिवासियों और गरीबों के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है।


महाश्वेता देवी उच्चतम कोटि की लेखिका थीं, वामपंथीं थीं, नक्सलियों की हमदर्द थीं, इन देशद्रोहियों के मानवाधिकार का पुरजोर समर्थन करती थीं, अपनी एकपक्षीय काल्पनिक कहानियों में देश के प्रहरियों को अत्याचारी और बलात्कारी साबित करती थीं, सैकड़ों बेगुनाह सुरक्षाकर्मियों के नक्सलियों द्वारा मारे जाने पर होंठ सी लेती थीं, जंगलों में राष्ट्रभक्त आदिवासियों की नक्सलवादियों द्वारा कंगारू कोर्ट लगाकर निर्मम हत्या पर इनकी दोनों आंखों में मोतियाबिंद पककर उतर जाता था, जातिवादी नक्सली कमांडरों द्वारा लगातार किये जा रहे महिला नक्सलियों के यौन शोषण पर इनकी लेखनी को लकवा मार देता था। 


नक्सलियों के मारे जाने को सुरक्षा बलों की हिंसा बता इसका विरोध करती थीं और फटाफट-फटाफट इसपर लेख , कहानियां लिख डालती थीं, लेकिन नक्सलियों द्वारा की जा रही जवानों की हत्याओं पर इनका 'सिंगल लाइनर' आ जाता था, "मैं हिंसा के पक्ष में नहीं हूं।" नक्सली हिंसा और अपराध के विरोध में कभी कुछ नहीं लिखा। लिखतीं तो यह पोस्ट भी निरर्थक होती। सुरक्षा बलों का मानवाधिकार इनके लिये बेमानी था।


कभी नक्सली हत्या के विरूद्ध नहीं लिखा। नक्सलवाद में मौजूद जातिवाद और आदिवासी नक्सल महिलाओं के यौन शोषण और उनकी जघन्य हत्याओं से आंखें फेर लीं। निर्दोष नागरिकों और सुरक्षादल के जवानों की हत्या पर उनका साहित्यिक दिल कभी भी नहीं पसीजा। 


लगभग सौ साल पहले रूसी कम्युनिस्टों को सार्वजनिक लेखन-भाषण की तकनीक सिखाते हुए लेनिन ने कहा था कि जो भी तुम्हारा विरोधी या प्रतिद्वंद्वी हो, पहले उस पर ‘प्रमाणित दोषी का लेबल चिपका दो. उस पर मुकदमा हम बाद में चलाएंगे.’ तबसे सारी दुनिया के कम्युनिस्टों ने इस आसान, पर घातक तकनीक का जमकर उपयोग किया है। अपने अंधविश्वास, संगठन बल और दुनिया को बदल डालने के रोमांटिक उत्साह से उनमें ऐसा नशा रहा है कि प्राय: किसी पर प्रमाणित दोषी का बिल्ला चिपकाने और हर तरह की गालियां देने के बाद वे मुकदमा चलाने की जरूरत भी नहीं महसूस करते!


इसी मानसिकता से लेनिन-स्तालिन-माओवादी सत्ताओं ने दुनिया भर में अब तक दस करोड़ से अधिक निर्दोष लोगों की हत्याएं कीं। भारत के माओवादी उनसे भिन्न नहीं रहे हैं। जिस हद तक उनका प्रभाव क्षेत्र बना है, वहां वे भी उसी प्रकार निर्मम हत्याएं करते रहे हैं। अरुंधती ने भी नोट किया है कि नक्सलियों ने गलती से निर्दोषों की भी हत्याएं की हैं। किंतु ध्यान दें, यहां निर्दोष का मतलब- माओवादी-लेनिनवादी समझ से निर्दोष, न कि हमारी-आपकी अथवा भारतीय संविधान या कानून की दृष्टि से। दूसरे शब्दों में, जिसे माओवादियों और उनके अरुंधती जैसे अंध-समर्थकों ने ‘दोषी’ बता दिया, उसे तरह-तरह की यंत्रणा देकर मार डालना बिलकुल सही।


कछ साल पहले हरियाणा के महेंद्रगढ़ जिले के केंन्द्रीय विश्वविद्यालय के अंग्रेजी और विदेशी भाषा विभाग ने महाश्वेता देवी की लघु कथा 'द्रौपदी' पर आधारित नाटक का मंचन किया। इस कथा में द्रौपदी नाम की आदिवासी महिला की सुरक्षादलों के हाथों मुठभेड़ें मारे जाने का एकतरफा वर्णन है। नाटक में वर्दीधारी सुरक्षा दलों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों और बलात्कार को दिखाया जा रहा था। ध्यान दें कि जब सारा देश उरी में हुये सेना के जवानों के बलिदान से दुखी था, आक्रोशित था, पाकिस्तान को सबक सिखाने को तत्पर था, इस निंदक नाटक का मंचन जनता और सैन्य दलों के मनोबल को तोड़ने का सोचा समझा षड़यंत्र था। स्थानीय नागरिकों द्वारा गठित 'सैनिक सम्मान संघर्ष समिति' नेे इस नाट्य-मंचन का विरोध किया और पुलिस को सूचितकर इसे बंद करवाया। https://bit.ly/3oeCVuk


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बरिटिश शासन के खिलाफ 1857 का संग्राम क्यों शुरू हुआ था- जानना जरूरी है

10 मई 2021

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1857 का संग्राम ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक बड़ी और अहम घटना थी। इस क्रांति की शुरुआत 10 मई, 1857 ई. को मेरठ से हुई, जो धीरे-धीरे कानपुर, बरेली, झांसी, दिल्ली, अवध आदि स्थानों पर फैल गई। क्रांति की शुरूआत तो एक सैन्य विद्रोह के रूप में हुई, लेकिन समय के साथ उसका स्वरूप बदल कर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध एक जनव्यापी विद्रोह के रूप में हो गया, जिसे भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा गया। 



आइये आजादी की पहली लड़ाई के इस वर्षगांठ के मौके पर इससे जुड़ी खास बातें जानते हैं...


19वीं सदी की पहली आधी सदी के दौरान ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत के बड़े हिस्से पर कब्जा हो चुका था। जैसे-जैसे ब्रिटिश शासन का भारत पर प्रभाव बढ़ता गया, वैसे-वैसे भारतीय जनता के बीच ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष फैलता गया। पलासी के युद्ध के एक सौ साल बाद ब्रिटिश राज के दमनकारी और अन्यायपूर्ण शासन के खिलाफ असंतोष विद्रोह के रूप में भड़कने लगा जिसने भारत में ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की बात करें तो इससे पहले देश के अलग-अलग हिस्सों में कई घटनाएं घट चुकी थीं। जैसे कि 18वीं सदी के अंत में उत्तरी बंगाल में संन्यासी आंदोलन और बिहार एवं बंगाल में चुआड़ आंदोलन हो चुका था। 19वीं सदी के मध्य में कई किसान आंदोलन हुए।


19वीं सदी के पहले 5 दशकों में कई जनजातीय विद्रोह भी हुए, जैसे- मध्य प्रदेश में भीलों का, बिहार में संथालों और ओडिशा में गोंड़ एवं खोंड़ जनजातियों का विद्रोह अहम था। लेकिन इन सभी आंदोलनों का प्रभाव क्षेत्र बहुत सीमित था यानी ये स्थानीय प्रकृति के थे। अंग्रेजों के खिलाफ जो संगठित पहला विद्रोह भड़का वह 1857 में था। शुरू में तो यह सिपाहियों के विद्रोह के रूप में भड़का लेकिन बाद में यह जनव्यापी क्रांति बन गया।


विद्रोह के कौन-कौन से कारण थे?


राजनीतिक कारण


1857 के विद्रोह का प्रमुख राजनीतिक कारण ब्रिटिश सरकार की 'गोद निषेध प्रथा' या 'हड़प नीति' थी। यह अंग्रेजों की विस्तारवादी नीति थी जो ब्रिटिश भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी के दिमाग की उपज थी। कंपनी के गवर्नर जनरलों ने भारतीय राज्यों को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाने के उद्देश्य से कई नियम बनाए। उदाहरण के लिए, किसी राजा के निःसंतान होने पर उसका राज्य ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बन जाता था। राज्य हड़प नीति के कारण भारतीय राजाओं में बहुत असंतोष पैदा हुआ था। रानी लक्ष्मी बाई के दत्तक पुत्र को झांसी की गद्दी पर नहीं बैठने दिया गया। हड़प नीति के तहत ब्रिटिश शासन ने सतारा, नागपुर और झांसी को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया। अब अन्य राजाओं को भय सताने लगा कि उनका भी विलय थोड़े दिनों की बात रह गई है। इसके अलावा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहेब की पेंशन रोक दी गई जिससे भारत के शासक वर्ग में विद्रोह की भावना मजबूत होने लगी।


आग में घी का काम उस घटना ने किया जब बहादुर शाह द्वितीय के वंशजों को लाल किले में रहने पर पाबंदी लगा दी गई। कुशासन के नाम पर लार्ड डलहौजी ने अवध का विलय करा लिया जिससे बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी, अधिकारी एवं सैनिक बेरोजगार हो गए। इस घटना के बाद जो अवध पहले तक ब्रिटिश शासन का वफादार था, अब विद्रोही बन गया।


सामाजिक एवं धार्मिक कारण


भारत में तेजी से पैर पसारती पश्चिमी सभ्यता को लेकर समाज के बड़े वर्ग में आक्रोश था। 1850 में ब्रिटिश सरकार ने हिंदुओं के उत्तराधिकार कानून में बदलाव कर दिया और अब क्रिस्चन धर्म अपनाने वाला हिंदू ही अपने पूर्वजों की संपत्ति में हकदार बन सकता था। इसके अलावा मिशनरियों को पूरे भारत में धर्म परिवर्तन की छूट मिल गई थी। लोगों को लगा कि ब्रिटिश सरकार भारतीय लोगों को क्रिस्चन बनाना चाहती है। भारतीय समाज में सदियों से चली आ रही कुछ प्रथाओं, जैसे- सती प्रथा आदि को समाप्त करने पर लोगों के मन में असंतोष पैदा हुआ।


आर्थिक कारण


भारी टैक्स और राजस्व संग्रहण के कड़े नियमों के कारण किसान और जमींदार वर्गों में असंतोष था। इन सबमें से बहुत से ब्रिटिश सरकार की टैक्स मांग को पूरा करने में असक्षम थे और वे साहूकारों का कर्ज चुका नहीं पा रहे थे जिससे अंत में उनको अपनी पुश्तैनी जमीन से हाथ धोना पड़ता था। बड़ी संख्या में सिपाहियों का इन किसानों से संबंध था और इसलिए किसानों की पीड़ा से वे भी प्रभावित हुए।


इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के बाद भारतीय बाजार ब्रिटेन में निर्मित उत्पादों से पट गए। इससे भारत का स्थानीय कपड़ा उद्योग खासतौर पर तबाह हो गया। भारत के हस्तशिल्प उद्योग ब्रिटेन के मशीन से बने सस्ते सामानों का मुकाबला नहीं कर पाए। भारत कच्ची सामग्री का सप्लायर और ब्रिटेन में बने सामानों का उपभोक्ता बन गया। जो लोग अपनी आजीविका के लिए शाही पर आश्रित थे, सभी बेरोजगार हो गए। इसलिए अंग्रेजों के खिलाफ उनमें काफी गुस्सा भरा हुआ था।


सन्य कारण


भारत में ब्रिटिश सेना में 87 फीसदी से ज्यादा भारतीय सैनिक थे। उनको ब्रिटिश सैनिकों की तुलना में कमतर माना जाता था। एक ही रैंक के भारतीय सिपाही को यूरोपीय सिपाही के मुकाबले कम वेतन दिया जाता था। इसके अलावा भारतीय सिपाही को सूबेदार रैंक के ऊपर प्रोन्नति नहीं मिल सकती थी। इसके अलावा भारत में ब्रिटिश शासन के विस्तार के बाद भारतीय सिपाहियों की स्थिति बुरी तरह प्रभावित हुई। उनको अपने घरों से काफी दूर-दूर सेवा देनी पड़ती थी। 1856 में लार्ड कैनिंग ने एक नियम जारी किया जिसके मुताबिक सैनिकों को भारत के बाहर भी सेवा देनी पड़ सकती थी।


बंगाल आर्मी में अवध के उच्च समुदाय के लोगों की भर्ती की गई थी। उनकी धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक, उनका समुद्र (कालापानी) पार करना वर्जित था। उनलोगों को लार्ड कैनिंग के नियम से शक हुआ कि ब्रिटिश सरकार उनलोगों को क्रिस्चन बनाने पर तुली हुई है। अवध के विलय के बाद नवाब की सेना को भंग कर दिया गया। उनके सिपाही बेरोजगार हो गए और ब्रिटिश हुकूमत के कट्टर दुश्मन बन गए।


तात्कालिक कारण


1857 के विद्रोह के तात्कालिक कारणों में यह अफवाह थी कि 1853 की राइफल के कारतूस की खोल पर सूअर और गाय की चर्बी लगी हुई है। यह अफवाह हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों धर्म के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचा रही थी। ये राइफलें 1853 के राइफल के जखीरे का हिस्सा थीं।


मगल पांडे

29 मार्च, 1857 ई. को मंगल पांडे नाम के एक सैनिक ने 'बैरकपुर छावनी' में अपने अफसरों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, लेकिन ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों ने इस सैनिक विद्रोह को सरलता से नियंत्रित कर लिया और साथ ही उसकी बटालियन '34 एन.आई.' को भंग कर दिया। 24 अप्रैल को 3 एल.सी. परेड मेरठ में 90 घुड़सवारों में से 85 सैनिकों ने नए कारतूस लेने से इंकार कर दिया। आज्ञा की अवहेलना के कारण इन 85 घुड़सवारों को कोर्ट मार्शल द्वारा 5 वर्ष का कारावास दिया गया। 'खुला विद्रोह' 10 मई, दिन रविवार को सांयकाल 5 व 6 बजे के मध्य प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम पैदल टुकड़ी '20 एन.आई.' में विद्रोह की शुरूआत हुई, उसके बाद '3 एल.सी.' में भी विद्रोह फैल गया। इन विद्रोहियों ने अपने अधिकारियों के ऊपर गोलियां चलाई। मंगल पांडे ने 'ह्यूसन' को गोली मारी थी, जबकि 'अफसर बाग' की हत्या कर दी गई थी। मंगल पांडे को 8 अप्रैल को फांसी दे दी गई। 9 मई को मेरठ में 85 सैनिकों ने नई राइफल इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया जिनको नौ साल जेल की सजा सुनाई गई।


विद्रोह का प्रसार


इस घटना के बाद मेरठ छावनी में विद्रोह की आग भड़क गई। 9 मई को मेरठ विद्रोह 1857 के संग्राम की शुरूआत का प्रतीक था। मेरठ में भारतीय सिपाहियों ने ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या कर दी और जेल को तोड़ दिया। 10 मई को वे दिल्ली के लिए आगे बढ़े। 11 मई को मेरठ के क्रांतिकारी सैनिकों ने दिल्ली पहुंचकर, 12 मई को दिल्ली पर अधिकार कर लिया। इन सैनिकों ने मुगल सम्राट बहादुरशाह द्वितीय को दिल्ली का सम्राट घोषित कर दिया। शीघ्र ही विद्रोह लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, बरेली, बनारस, बिहार और झांसी में भी फैल गया। अंग्रेजों ने पंजाब से सेना बुलाकर सबसे पहले दिल्ली पर अधिकार किया। 21 सितंबर, 1857 ई. को दिल्ली पर अंग्रेजों ने पुनः अधिकार कर लिया, परन्तु संघर्ष में 'जॉन निकोलसन' मारा गया और लेफ्टिनेंट 'हडसन' ने धोखे से बहादुरशाह द्वितीय के दो पुत्रों 'मिर्जा मुगल' और 'मिर्जा ख्वाजा सुल्तान' एवं एक पोते 'मिर्जा अबूबक्र' को गोली मरवा दी। लखनऊ में विद्रोह की शुरुआत 4 जून, 1857 ई. को हुई। यहां के क्रांतिकारी सैनिकों द्वारा ब्रिटिश रेजिडेंसी के घेराव के बाद ब्रिटिश रेजिडेंट 'हेनरी लॉरेन्स' की मृत्यु हो गई। हैवलॉक और आउट्रम ने लखनऊ को दबाने का भरकस प्रयत्न किया, लेकिन वे असफल रहे। आखिर में कॉलिन कैंपवेल' ने गोरखा रेजिमेंट के सहयोग से मार्च, 1858 ई. में शहर पर अधिकार कर लिया। वैसे यहां क्रांति का असर सितंबर तक रहा।


बगावत को कुचलना


1857 का संग्राम एक साल से ज्यादा समय तक चला। इसे 1858 के मध्य में कुचला गया। मेरठ में विद्रोह भड़कने के चौदह महीने बाद 8 जुलाई, 1858 को आखिरकार कैनिंग ने घोषणा किया कि विद्रोह को पूरी तरह दबा दिया गया है।


विद्रोह की असफलता के कारण


सीमित आंदोलन

हालांकि, बहुत कम समय में आंदोलन देश के कई हिस्सों तक पहुंच गया लेकिन देश के एक बड़े हिस्से पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। खासतौर पर दोआब क्षेत्र में इसका असर रहा। दक्षिण के प्रांतों ने इसमें कोई हिस्सा नहीं लिया। अहम शासकों, जैसे- सिंधिया, होल्कर, जोधपुर के राणा और अन्यों ने विद्रोह का समर्थन नहीं किया।


परभावी नेतृत्व का अभाव


विद्रोह के लिए असरदार नेतृत्व का अभाव था। नाना साहेब, तांत्या टोपे और रानी लक्ष्मी बाई की

पर कोई शक नहीं है लेकिन वे आंदोलन को पूरे देश में असरदार नेतृत्व नहीं दे सके। इसके अलावा विद्रोहियों में अनुभव, संगठन क्षमता व मिलकर कार्य करने की शक्ति की कमी थी। विद्रोही क्रांतिकारियों के पास ठोस लक्ष्य एवं स्पष्ट योजना का अभाव था। उन्हें अगले क्षण क्या करना होगा और क्या नहीं- यह भी निश्चित नहीं था। वे मात्र भावावेश एवं परिस्थितिवश आगे बढ़े जा रहे थे। सैनिक दुर्बलता का विद्रोह की असफलता में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। बहादुरशाह जफर और नाना साहब एक कुशल संगठनकर्ता अवश्य थे, पर उनमें सैन्य नेतृत्व की क्षमता की कमी थी, जबकि अंग्रेजी सेना के पास लॉरेन्स ब्रदर्स, निकोलसन, हेवलॉक, आउट्रम एवं एडवर्ड जैसे कुशल सेनानायक थे।


सीमित संसाधन


विद्रोहियों के पास न संख्याबल था और न पैसा। उसके उलट ब्रिटिश सेना के पास बड़ी संख्या में सैनिक, पैसा और हथियार थे जिसके बल पर वे विद्रोह को कुचलने में सफल रहे।


मध्य वर्ग का हिस्सा नहीं लेना


1857 ई. के इस विद्रोह के प्रति 'शिक्षित वर्ग' पूर्ण रूप से उदासीन रहा। व्यापारियों एवं शिक्षित वर्ग ने कलकत्ता एवं बंबई में सभाएं कर अंग्रेजों की सफलता के लिए प्रार्थना भी की थी। अगर इस वर्ग ने अपने लेखों एवं भाषणों द्वारा लोगों में उत्साह का संचार किया होता, तो निःसंदेह ही क्रांति के इस विद्रोह का परिणाम कुछ ओर ही होता।


विद्रोह के परिणाम


विद्रोह के समाप्त होने के बाद 1858 ई. में ब्रिटिश संसद ने एक कानून पारित कर ईस्ट इंडिया कंपनी के अस्तित्व को समाप्त कर दिया और अब भारत पर शासन का पूरा अधिकार महारानी विक्टोरिया के हाथों में आ गया। इंग्लैंड में 1858 ई. के अधिनियम के तहत एक 'भारतीय राज्य सचिव' की व्यवस्था की गयी, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक 'मंत्रणा परिषद्' बनाई गई। इन 15 सदस्यों में 8 की नियुक्ति सरकार द्वारा करने तथा 7 की 'कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स' द्वारा चुनने की व्यवस्था की गई।

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हड़प नीति की समाप्ति


ब्रिटिश सरकार की हड़प नीति को समाप्त कर दिया गया। कानूनी वारिस के तौर पर पुत्र गोद लेने के अधिकार को स्वीकार किया गया। 

1857 का विद्रोह इसलिए भी अहम था क्योंकि भारत की आजादी की लड़ाई के लिए इसकी वजह से मार्ग प्रशस्त हुआ। स्त्रोत : नवभारत टाइम्स


इस आंदोलन से हमें समझना चाहिए कि वर्तमान में जिस तरह देश की स्थिति है उसमें भी कहीं न कहीं आज़ादी को खतरा है- ऐसा लग रहा है, इसलिए देश में रहते हुए देश के साथ गद्दारी करनेवालों की पहचान होनी चाहिए और उनके फन कुचलने चाहिए जिससे हमारा देश सुरक्षित रहे।


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