Monday, February 21, 2022

बड़ी हस्तियों ने अपना धर्म बदलकर अपना लिया विश्व का सर्वश्रेष्ठ हिंदू धर्म

28 मई 2020

azaadbharat.org


हिंदू धर्म विश्व का सबसे पुराना धर्म है। इसको सनातन धर्म भी कहते हैं। इसके विचारों और संस्कृति से दुनिया में कई लोग बहुत प्रभावित रहे हैं। इसकी शांति और अहिंसा जैसे तत्वों को दुनिया भर में अपनानेवाले लोगों की संख्या लाखों में है। लेकिन कई ऐसे लोग भी हैं जो बाकायदा इस धर्म से प्रभावित होकर इसकी दीक्षा ले लेते हैं। हर साल हिंदू धर्म अपनाने वाले लोगों में बहुत से सिलेब्रिटीज भी शामिल होते हैं। हम आपको ऐसे ही कुछ खास लोगों के बारे में बता रहे हैं।



••● नयनतारा: नयनतारा दक्षिण भारतीय फिल्मों की प्रसिद्ध अभिनेत्री हैं। उनका जन्म एक ईसाई परिवार में हुआ था लेकिन 2017 में उन्होंने हिंदू धर्म को अपना लिया था। इसके लिए बाकायदा उन्होंने चेन्नई के आर्यसमाज मंदिर में हिंदू धर्म की दीक्षा ली थी।


••● जूलिया रॉबर्ट्स: जूलिया रॉबर्ट्स एक हॉलीवुड एक्ट्रेस हैं। अमेरिका में जन्मी इस प्रसिद्ध एक्ट्रेस ने नॉटिंग हिल, माई बेस्ट फ्रेंड्स वेडिंग और 'ईट, प्रे, लव' जैसी फिल्मों में अभिनय किया है। भारत में 2010 में 'ईट, प्रे, लव' की शूटिंग के दौरान वे हिंदू धर्म से बहुत प्रभावित हुई थीं और उन्होंने हिंदू धर्म को अपना लिया था। तबसे वे कई मौकों पर खुद को एक हिंदू बता चुकी हैं।


••● जॉन कोल्ट्रान: ये एक अमेरिकन म्यूजिशियन हैं। जॉन का जन्म एक ईसाई परिवार में हुआ था। बड़े होने के साथ ही वे धीरे-धीरे हिंदू धर्म से प्रभावित होने लगे। बाद में उन्होंने पूरी तरह से हिंदू धर्म ग्रहण कर लिया।


••● ट्रेवर हाल: ट्रेवर एक अमेरिकी गायक, गिटारिस्ट और गीतकार हैं। उनका संगीत भी हिंदू धर्म से बहुत प्रभावित होता है। उनके गीतों में संस्कृत के मंत्र भी होते हैं। 2013 में जब वे भारत आए तो वे हिंदू धर्म से बहुत प्रभावित हुए थे, इसी के बाद उन्होंने हिंदू धर्म स्वीकार कर लिया और भारत में एक साधु का जीवन बिताया।


••● केआरएस-वन: केआरएस-वन का असली नाम लॉरेंस कृष्णा पार्कर है। वे अमेरिका के प्रसिद्ध रैप गायकों में से हैं। उनके नाम से ही पता चलता है कि वे हिंदू भगवान कृष्ण से प्रभावित हैं। उन्होंने अपनी किताब 'द गॉस्पेल ऑफ हिप-हॉप' में भी अपने धार्मिक विश्वासों की चर्चा की है। वे अपने अमेरिकन रैपर ग्रुप 'बूगी डाउन प्रोडक्शन' के जरिए बहुत मशहूर हुए हैं।


••● जैरी गार्सिया: जैरी गार्सिया अपने 'ग्रेटफुल डेड' नाम के बैंड के चलते फेमस हुए थे। वे एक अमेरिकन म्यूजिशियन थे और तीस साल तक बैंड से लीड गिटारिस्ट के तौर पर जुड़े रहे। बचपन से ही हिंदू धर्म की ओर उनका रुझान था और आजीवन उन्होंने धर्म का पालन किया। 1995 में उनकी मौत के बाद उनकी अस्थियां भारत में ऋषिकेश में गंगा नदी में प्रवाहित की गईं।


••● एलिजाबेथ गिल्बर्ट: एलिजाबेथ गिल्बर्ट 2006 में आए अपने संस्मरण 'ईट, प्रे, लव' के चलते चर्चित हुईं। वे एक लेखिका हैं। उनकी यह किताब 199 हफ्तों तक न्यूयॉर्क टाइम्स अखबार की बेस्ट सेलर की लिस्ट में रही थी। एलिजाबेथ अपनी इस सबसे प्रसिद्ध किताब को लिखने की प्रेरणा लेने के लिए भारत आई थीं और इसी वक्त उन्होंने हिंदू धर्म स्वीकार कर लिया था।


••● जॉर्ज हैरिसन: संगीत को दिलोजान से चाहनेवालों ने जॉर्ज हैरिसन का नाम जरूर सुना होगा। वे बीटल्स बैंड के मुख्य गिटारिस्ट थे। बीटल्स के ऑडियंस और फैन बेस में पूरी दुनिया के लोग शामिल थे। हैरिसन को दुनिया में रॉक म्यूजिक के जाने-माने सितारों में गिना जाता था। 1960 में हैरिसन ने ईसाई धर्म छोड़कर हिंदू धर्म अपना लिया था। उन्होंने अपने बैंड के बीच भी हिंदू धर्म का प्रचार किया था। 2001 में उनकी मौत हो गई थी। जिसके बाद उनकी अस्थियों को गंगा और यमुना के पवित्र माने जानेवाले जल में प्रवाहित किया गया था।


••● रसेल ब्रांड: रसेल ब्रांड अंग्रेजी जगत में अपनी कॉमेडी को लेकर फेमस हैं। वे एक जाने-माने टीवी प्रोड्यूसर, लेखक और स्क्रीन राइटर भी हैं। लोग उन्हें उनकी प्रसिद्ध फिल्म 'फॉरगेटिंग सारा मार्शेल' के लिए याद करते हैं। रसेल ब्रांड हिंदू धर्म के बारे में व्याख्यान भी देते हैं और ध्यान के पक्के समर्थक हैं। उनके हिंदू धर्म के प्रति आकर्षण को आप इससे समझ सकते हैं कि उन्होंने 2010 में जब केटी पेरी से शादी की तो इसके लिए वे राजस्थान आए और हिंदू परंपरा से उनकी शादी हुई।


••● काल पेन: काल पेन का जन्म अमेरिका में हिंदू परिवार में हुआ था। हाउस नाम के एक अमेरिकी टीवी सीरियल के चलते वे प्रसिद्ध हुए थे। उन्होंने कई फिल्मों में भी अभिनय किया है। वे 'हैरोल्ड एंड कुमार गो टू व्हाइट कैसल', 'सुपरमैन रिटर्न्स' और 'द नेमसेक' जैसी फिल्मों में भी अभिनय कर चुके हैं। उन्होंने अमेरिकी सरकार में एक सिविल सर्वेंट के तौर पर भी काम किया है और वे हिंदू धर्म के पक्के समर्थक हैं।


••● रिकी विलियम्स-


जे मासिस, एक गिटारिस्ट, एक गायक और एक बास प्लेयर हैं। उनका नाम रोलिंग स्टोन मैग्जीन के 10 महानतम गिटारिस्ट में शामिल हो चुका है। 2005 में उन्होंने अपना एक एल्बम रिलीज किया था जिसका नाम 'जे एंड फ्रैंड्स सिंग एंड चैंट फॉर अम्मा' था। इस एल्बम के गानों में हिंदू धर्म की एक आध्यात्मिक गुरुमाता आनंदमयी की तारीफ की गई थी।


••● अनिरुद्ध ज्ञानशिख: पाकिस्तानी मूल के ब्रिटिश लेखक अनवर शेख युवावस्था में कट्टर मुस्लिम थे और भारत विभाजन के दौरान उन्होंने गैर मुस्लिमों की हत्या भी की थी। बाद में उन्हें इस कार्य के लिए पश्चाताप अनुभव हुआ तो उन्होंने धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन आरम्भ किया और अन्त में हिन्दू धर्म में अपने नैतिक प्रश्नों का सही उत्तर पाकर हिन्दू हो गये। हिन्दू होने के बाद उन्होंने अपना नाम अनिरुद्ध ज्ञानशिख रख लिया था।


••● संत हरिदास: बंगाल के प्रसिद्ध वैष्णव संत हरिदास का जन्म एक मुस्लिम काजी के परिवार में हुआ था। उन्होंने चैतन्य महाप्रभु से वैष्णव धर्म की दीक्षा ली थी और धर्मद्रोह के आरोप में शहर काजी द्वारा दी गयी कोड़े खाने की सजा खाने के बाद भी अपनी धर्मनिष्ठा से विचलित नहीं हुए थे।


••● डॉक्टर आनंद सुमन: डॉक्टर आनंद सुमन का नाम सन् 80 से आरम्भ हुए दशक में चर्चित था। ये छतारी के नवाब के वंशज थे जो इस्लाम त्यागकर हिन्दू हो गये थे।


••● महन्त गुलाबनाथ: महन्त गुलाबनाथ नाथ सम्प्रदाय के प्रतिष्ठित सन्त थे तथा योगी आदित्यनाथ व उनके गुरु महन्त अवैद्यनाथ द्वारा आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। ये जन्म से मुस्लिम थे और इनका असली नाम गुल मुहम्मद था।


••● आशीष खान देवशर्मा: आशीष खान देवशर्मा प्रख्यात सरोदवादक हैं जिन्होंने हिन्दू धर्म स्वीकार करने के बाद अपने नाम में देवशर्मा जोड़ लिया है।


••● M.I.A: ये इंग्लिश कलाकार श्रीलंकाई मूल की हैं। वे एक पेंटर, डायरेक्टर और गीतकार भी हैं। उनके गानों में हिपहॉप, डांस और इलेक्ट्रॉनिक म्यूजिक प्रमुखता से होता है। उन्होंने अपना कैरियर फिल्ममेकिंग और डिजाइन में शुरू किया था। उन्होंने दावा किया था कि उनका फेमस 'सुपर बॉल मिडिल फिंगर' एक्ट देवी मतंगी को दिया गया ट्रिब्यूट था। मतंगी एक हिंदू देवी हैं।


••● माइली साइरस: माइली अपने संगीत के साथ ही अपने ड्रेसिंग सेंस के चलते भी चर्चा में रहती हैं। कुछ साल पहले वे तब चर्चा में आ गई थीं, जब उन्होंने अपने घर में लक्ष्मी की पूजा की थी और इसकी फोटो अपने इंस्टाग्राम पर अपलोड की थी। हालांकि बाद में यह फोटो हटा ली गई थी। लोगों का कहना था कि ऐसा उन्होंने अपने कैरियर में समृद्धि के लिए किया था। हालांकि इस बात को पुख्ता तौर पर नहीं कहा जा सकता कि वे हिंदू धर्म में कंवर्ट हो चुकी हैं।


हालांकि हिन्दू धर्म में औपचारिक धर्मान्तरण की व्यवस्था नहीं है। ऐसे में ऐतिहासिक व्यक्तित्वों- अकबर, कबीर व रसखान जैसे व्यक्तियों ने भी अनेक हिन्दू विश्वासों को स्वीकारने के बाद भी अपने को हिन्दू धर्म या उसके किसी सम्प्रदाय का अनुयायी नहीं घोषित किया था। इसी प्रकार विजयनगर के राजाओं हरिहर व बुक्का तथा शिवाजी के मित्र नेताजी पालेकर जैसे उन व्यक्तियों को भी छोड़ा जा सकता है जो मुसलमान होने के बाद भी पुनः हिन्दू धर्म में लौट आये।


https://hindi.news18.com/photogallery/knowledge/these-are-international-celebrities-who-are-following-hinduism-1794166.html


हिंदू संस्कृति के प्रति विश्वभर के महान विद्वानों की अगाध श्रद्धा अकारण नहीं रही है। इस संस्कृति की उस आदर्श आचार संहिता ने समस्त वसुधा को आध्यात्मिक एवं भौतिक उन्नति से पूर्ण किया, जिसे हिन्दुत्व के नाम से जाना जाता है।


हिन्दू धर्म का यह पूरा वर्णन नहीं है। इससे भी कई गुणा ज्यादा महिमा है क्योंकि हिन्दू धर्म सनातन धर्म है; इसके बारे में संसार की कोई कलम पूरा वर्णन नहीं कर सकती। आखिर में हिन्दू धर्म का श्लोक लिखकर विराम देते हैं।


सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया,

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग् भवेत्।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।


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जानिए नारदजी की कैसी थी लोकहितकारी पत्रकारिता

27 मई 2021

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पत्रकारिता की तीन प्रमुख भूमिकाएं हैं...

1)सूचना देना,

2)शिक्षित करना और

3) मनोरंजन करना।



गांधीजी ने हिन्द स्वराज में पत्रकारिता की इन तीनों भूमिकाओं को और अधिक विस्तार दिया है।


लोगों की भावनाएं जानना और उन्हें जाहिर करना। लोगों में जरूरी भावनाएं पैदा करना। यदि लोगों में दोष है तो किसी भी कीमत पर बेधड़क होकर उनको दिखाना।


भारतीय परम्पराओं में भरोसा करने वाले विद्वान मानते हैं कि देवर्षि नारद की पत्रकारिता ऐसी ही थी। देवर्षि नारद सम्पूर्ण और आदर्श पत्रकारिता के संवाहक थे। वे महज सूचनाएं देने का ही कार्य नहीं बल्कि सार्थक संवाद का सृजन करते थे।


दवताओं, दानवों और मनुष्यों- सबकी भावनाएं जानने का उपक्रम किया करते थे। जिन भावनाओं से लोकमंगल होता हो, ऐसी ही भावनाओं को जगजाहिर किया करते थे।


इससे भी आगे बढ़कर देवर्षि नारद घोर उदासीन वातावरण में भी लोगों को सद्कार्य के लिए उत्प्रेरित करने वाली भावनाएं जागृत करने का अनूठा कार्य किया करते थे।


दादा माखनलाल चतुर्वेदी के उपन्यास 'कृष्णार्जुन युद्ध' को पढ़ने पर ज्ञात होता है कि किसी निर्दोष के खिलाफ अन्याय हो रहा हो तो फिर वे अपने आराध्य भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण और उनके प्रिय अर्जुन के बीच भी युद्ध की स्थिति निर्मित कराने से नहीं चूकते। उनके इस प्रयास से एक निर्दोष यक्ष के प्राण बच गए।


यानी पत्रकारिता के सबसे बड़े धर्म और साहसिक कार्य- किसी भी कीमत पर समाज को सच से रू-ब-रू कराने से वे पीछे नहीं हटते थे।


सच का साथ उन्होंने अपने आराध्य के विरुद्ध जाकर भी दिया। यही तो है सच्ची पत्रकारिता, निष्पक्ष पत्रकारिता।

किसी के दबाव या प्रभाव में न आकर अपनी बात कहना।


मनोरंजन उद्योग ने भले ही फिल्मों और नाटकों के माध्यम से उन्हें विदूषक के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया हो, लेकिन देवर्षि नारद के चरित्र का बारीकी से अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होता है कि उनका प्रत्येक संवाद लोक कल्याण के लिए था। सिर्फ मूर्ख ही उन्हें कलहप्रिय कह सकते हैं।


नारदजी धर्माचरण की स्थापना के लिए ही सभी लोकों में विचरण करते थे । उनसे जुड़े सभी प्रसंगों के अंत में शांति, सत्य और धर्म की स्थापना का जिक्र आता है। स्वयं के सुख और आनंद के लिए वे सूचनाओं का आदान-प्रदान नहीं करते थे, बल्कि वे तो प्राणी-मात्र के आनंद का ध्यान रखते थे।


भारतीय परम्पराओं में भरोसा नहीं करनेवाले 'बुद्धिजीवी' भले ही देवर्षि नारद को प्रथम पत्रकार, संवाददाता या संचारक न मानें, लेकिन पथ से भटक गई भारतीय पत्रकारिता के लिए आज नारदजी ही सही मायने में आदर्श हो सकते हैं।


भारतीय पत्रकारिता और पत्रकारों को अपने आदर्श के रूप में नारदजी को देखना चाहिए, उनसे मार्गदर्शन लेना चाहिए । मिशन से प्रोफेशन बनने पर पत्रकारिता को इतना नुकसान नहीं हुआ था जितना कॉरपोरेट कल्चर के आने से हुआ है।


पश्चिम की पत्रकारिता का असर भी भारतीय मीडिया पर चढ़ने के कारण समस्याएं आई हैं। स्वतंत्रता आंदोलन में जिस पत्रकारिता ने 'एक स्वतंत्रता सेनानी' की भूमिका निभाई थी, वह पत्रकारिता अब धन्ना सेठों के कारोबारों की चौकीदार बनकर रह गई है।


पत्रकार इन धन्ना सेठों के इशारे पर कलम घसीटने को मजबूर महज मजदूर हैं। संपादक प्रबंधक हो गए हैं। उनसे लेखनी छीनकर, उन्हें लॉबिंग की जिम्मेदारी पकड़ा दी गई है।


आज कितने संपादक और प्रधान संपादक हैं जो नियमित लेखन कार्य कर रहे हैं...???

कितने संपादक हैं, जिनकी लेखनी की धमक है...???

कितने संपादक हैं, जिन्हें समाज में मान्यता है..???


'जो हुक्म सरकारी, वही पकेगी तरकारी' की कहावत को पत्रकारों ने जीवन में उतार लिया है।

मालिक जो हुक्म संपादकों को देता है, संपादक उसे अपनी टीम तक पहुंचा देता है। तयशुदा ढांचे में पत्रकार अपनी लेखनी चलाता है।

अब तो किसी भी खबर को छापने से पहले संपादक ही मालिक से पूछ लेते हैं- 'ये खबर छापने से आपके व्यावसायिक हित प्रभावित तो नहीं होंगे?'


खबरें कम विज्ञापन अधिक हैं।


'लक्षित समूहों' को ध्यान में रखकर खबरें लिखी और रची जा रही हैं। मोटी पगार की खातिर संपादक सत्ता ने मालिकों के आगे घुटने टेक दिए हैं। आम आदमी के लिए अखबारों और टीवी चैनल्स पर कहीं जगह नहीं है।


एक किसान की 'पॉलिटिकल आत्महत्या' होती है तो वह खबरों की सुर्खी बनती है। पहले पन्ने पर लगातार जगह पाती है। चैनल्स के प्राइम टाइम पर किसान की चर्चा होती है।


लेकिन इससे पहले बरसों से आत्महत्या कर रहे किसानों की सुध कभी मीडिया ने नहीं ली। जबकि भारतीय पत्रकारिता की चिंता होनी चाहिए- अंतिम व्यक्ति।


आखिरी आदमी की आवाज दूर तक नहीं जाती, उसकी आवाज को बुलंद करना पत्रकारिता का धर्म होना चाहिए; जो है तो, लेकिन व्यवहार में ऐसा कहीं भी दिखता नहीं है।


पत्रकारिता के आसपास


आजाद भारत, [27/05/2021 7:37 PM]

विश्वसनीयता का धुंध गहराता जा रहा है। पत्रकारिता की इस स्थिति के लिए कॉरपोरेट कल्चर ही एकमात्र दोषी नहीं है। बल्कि पत्रकार बंधु भी कहीं न कहीं दोषी हैं।


जिस उमंग के साथ वे पत्रकारिता में आए थे, उसे उन्होंने खो दिया।


'समाज के लिए कुछ अलग' और 'कुछ अच्छा' करने की इच्छा के साथ पत्रकारिता में आए युवाओं ने भी कॉरपोरेट कल्चर के साथ सामंजस्य बिठा लिया है।


बहरहाल, भारतीय पत्रकारिता की स्थिति पूरी तरह खराब भी नहीं है। बहुत-से संपादक-पत्रकार आज भी उसूलों के पक्के हैं। उनकी पत्रकारिता खरी है। उनकी कलम बिकी नहीं है। उनकी कलम झुकी भी नहीं है।


आज भी उनकी लेखनी आम आदमी के लिए है। लेकिन, यह भी कड़वा सच है कि ऐसे 'नारद पत्रकारों' की संख्या बेहद कम है। यह संख्या बढ़ सकती है।


कयोंकि सब अपनी इच्छा से बेईमान नहीं हैं। सबने अपनी मर्जी से अपनी कलम की धार को कुंद नहीं किया है। सबके मन में अब भी 'कुछ' करने का माद्दा है। वे आम आदमी, समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए लिखना चाहते हैं, लेकिन राह नहीं मिल रही है।


ऐसी स्थिति में देवर्षि नारद उनके आदर्श हो सकते हैं। आज की पत्रकारिता और पत्रकार नारदजी से सीख सकते हैं कि तमाम विपरीत परिस्थितियां होने के बाद भी कैसे प्रभावी ढंग से लोक कल्याण की बात कही जाए।


पत्रकारिता का एक धर्म है- निष्पक्षता


आपकी लेखनी तब ही प्रभावी हो सकती है जब आप निष्पक्ष होकर पत्रकारिता करें। पत्रकारिता में आप पक्ष नहीं बन सकते।


हां, पक्ष बन सकते हो लेकिन केवल सत्य का पक्ष।

भले ही नारद देवर्षि थे लेकिन वे देवताओं के पक्ष में नहीं थे। वे प्राणीमात्र की चिंता करते थे। देवताओं की तरफ से भी कभी अन्याय होता दिखता तो राक्षसों को आगाह कर देते थे।


देवता होने के बाद भी नारदजी बड़ी चतुराई से देवताओं की अधार्मिक गतिविधियों पर कटाक्ष करते थे, उन्हें धर्म के रास्ते पर वापस लाने के लिए प्रयत्न करते थे।


नारदजी घटनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं, प्रत्येक घटना को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखते हैं, इसके बाद निष्कर्ष निकाल कर सत्य की स्थापना के लिए संवाद सृजन करते हैं।


आज की पत्रकारिता में इसकी बहुत आवश्यकता है। जल्दबाजी में घटना का सम्पूर्ण विश्लेषण न करने के कारण गलत समाचार जनता में चला जाता है।


बाद में या तो खण्डन प्रकाशित करना पड़ता है या फिर जबरन गलत बात को सत्य सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। आज के पत्रकारों को इस जल्दबाजी से ऊपर उठना होगा। कॉपी-पेस्ट कर्म से बचना होगा। जब तक घटना की सत्यता और सम्पूर्ण सत्य प्राप्त न हो जाए, तब तक समाचार बहुत सावधानी से बनाया जाना चाहिए।


कहते हैं कि देवर्षि नारद एक जगह टिकते नहीं थे। वे सब लोकों में निरंतर भ्रमण पर रहते थे। आज के पत्रकारों में एक बड़ा दुर्गुण आ गया है, वे अपनी 'बीट' में लगातार संपर्क नहीं करते हैं। आज पत्रकार ऑफिस में बैठकर, फोन पर ही खबर प्राप्त कर लेता है। इस तरह की टेबल न्यूज अकसर पत्रकार की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न खड़ा करवा देती है।


नारदजी की तरह पत्रकार के पांव में भी चक्कर होना चाहिए। सकारात्मक और सृजनात्मक पत्रकारिता के पुरोधा देवर्षि नारद को आज की मीडिया अपना आदर्श मान ले और उनसे प्रेरणा ले तो अनेक विपरीत परिस्थितियों के बाद भी श्रेष्ठ पत्रकारिता संभव है। आदि पत्रकार देवर्षि नारद ऐसी पत्रकारिता की राह दिखाते हैं, जिसमें समाज के सभी वर्गों का कल्याण निहित है।- लोकेन्द्र सिंह


आज मीडिया की भूमिका अहम है, लेकिन मीडिया सिर्फ ब्लैकमेलिंग का धंधा बनकर रह गई है वो भी हिन्दू संस्कृति को तोड़ने के लिए। आज की मीडिया देश, सनातन संस्कृति तोड़ने के लिए लगी हुई है।


लकिन मीडिया हाउस को ध्यान रखना चाहिए जो सनातन नहीं मिटा रावण की दुष्टता से, जो सनातन नही मिटा कंस की क्रूरता से वो सनातन क्या मिटेगा आज की बिकाऊ मीडिया से।


समय रहते मीडिया चेत जाये तो अच्छा है नहीं तो मीडिया स्वयं अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है।


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आचार्य बालकृष्ण ने 7 साल पहले बोला था, पर बाबा रामदेव ने ध्यान नहीं दिया

26 मई 2021

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योग गुरु बाबा रामदेव ने एलोपैथी दवाई के साइड इफेक्ट के बारे में जबसे बोला है तबसे विवाद छिड़ गया है और उनके ऊपर एफआईआर करके जेल भेजने की मांग की जा रही है।



इस विवाद पर आचार्य बालकृष्ण ने ट्वीट करके बताया कि पूरे देश को Christianity में convert करने के षड्यंत्र के तहत बाबा रामदेव जी को target करके योग एवं आयुर्वेद को बदनाम किया जा रहा है। देशवासियों, अब तो गहरी नींद से जागो, नहीं तो आने वाली पीढ़ियां तुम्हें माफ नहीं करेंगी🙏

https://twitter.com/Ach_Balkrishna/status/1396730933508673536?s=19


सात साल पहले क्या बताया था...?


आचार्य बालकृष्ण ने 2013 में जब हिंदू संत आशाराम बापू पर आरोप लगे थे तब बताया था कि भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा रखने वाले हैं, वे समझते हैं कि सच्चाई क्या है, संत श्री आशारामजी बापू के विरुद्ध में षड्यंत्र कितना है। हमें भी सच्चाई और षड्यंत्र को समझने का प्रयास करना चाहिए। आसुरी शक्तियाँ विभिन्न तरह के षड्यंत्र करती हैं। इसके लिए जरूरी है कि हम संगठनात्मक रूप से एक हों और सनातन वैदिक हिन्दू परम्परा से जुड़ी संस्थाएँ और साधु-महात्मा सब एकजुट होकर षड्यंत्र के विरुद्ध में मैदान में उतरें और उसका काट करें।


जो साधु-संत हैं वे तो कभी भी समाज के अहित का नहीं सोचते हैं परन्तु जब वे समाज का हित करते हैं तो बहुत सारे ऐसे तत्व हैं जिनको वह रास नहीं आता है।आसुरी शक्तियाँ विभिन्न तरह के षड्यंत्र करती हैं। इसके लिए जरूरी है कि हम संगठनात्मक रूप से एक हों। इसलिए आज समय आ गया है कि हम सभी सुनियोजित ढंग से इनको चुनौती देते हुये इस दुष्प्रचार की काट करें ।

https://youtu.be/45cz6pyH0bU


आपको बता दें कि जब बाबा रामदेव के खिलाफ मीडिया दुष्प्रचार कर रही थी तब आशाराम बापू ने उनका पक्ष लेकर मीडिया को फटकार लगाई थी और बोले थे कि बाबा रामदेव पर झूठे आरोप लगाकर बदनाम किया जा रहा है।

https://www.facebook.com/watch/?v=1396962757371278


जब रामलीला मैदान में बाबा रामदेव पर लाठी चार्ज किया गया था तब बाबा रामदेव का समर्थन किया और आशारामजी बापू ने खुल्लेआम बोला था "सोनिया भारत छोड़ो"

https://youtu.be/qKqrfyu1dnk


इतना ही नहीं जब साध्वी प्रज्ञा को झूठे केस में जेल के अंदर किया गया था और उनको किसी से मिलने नहीं दे रहे थे तब आशारामजी बापू ने तत्कालीन सरकार को चेतावनी दी और साध्वी से मिलकर आये थे  तथा सांत्वना दी थी और निर्दोष बरी होंगे ऐसा बताकर आये थे। मोरारी बापू पर भी जब झूठे आरोप लगे थे तब आशारामजी बापू ने उनका समर्थन किया था और मीडिया को एक्सपोज किया था।


बता दे कि 2004 में जब शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती जी को झूठे केस में जेल के अंदर किया था तब आशारामजी बापू जंतर-मंतर पर धरने पर बैठ गए थे, उसके बाद सरकार को रिहा करना पड़ा।

https://youtu.be/DCyyVkkiiR4


आपको बता दें कि जब भी किसी साधु-संत पर आफत आती तब हिंदू संत आशाराम बापू चट्टान की तरह आगे आकर खड़े हो जाते थे, उनके करोड़ों फॉलोअर्स भी उनके समर्थन में खड़े हो जाते थे जिसके कारण सरकार व मीडिया तिलमिला जाती थी। आशारामजी बापू को जेल भेजने का एक कारण ये भी है लेकिन आज बड़ी शर्म की बात है- जिन साधु-संतों व हिंदू संस्कृति और राष्ट्र की सुरक्षा के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर दिया उनके पक्ष में आज एक भी साधु-संत नहीं बोल रहे हैं, बाबा रामदेव ने तो बिल्कुल चुप्पी ही साध ली है।


आपको बता दें कि आशाराम बापू ने आदिवासियों में जाकर सनातन धर्म का प्रचार किया उन्होंने सत्संग के द्वारा देश व समाज को नोचने-तोड़नेवाली ताकतों से देशवासियों को बचाया। धर्मांतरित लाखों हिंदुओं की घर वापसी करवाई। करोड़ों लोगों को धर्मान्तरण से बचाया। आदिवासी क्षेत्रों में जहाँ खाने को नहीं वहाँ 'भोजन करो, भजन करो, दक्षिणा पाओ' गरीबों में राशन कार्ड के द्वारा अनाज का वितरण, कपड़े, बर्तन व जीवन उपयोगी सामग्री एवं मकान आदि का वितरण किया जाता है जिससे ईसाई मिशनरियां पीछे पड़ गईं और आखिर उनपर झूठे आरोप लगाए गए, मीडिया में बदनाम करवाया गया और आखिर जेल भेजवाया गया।


बता दें कि सात साल पहले आचार्य बालकृष्ण ने बताया था कि बापू आशारामजी पर बड़ा षड्यंत्र किया जा रहा है, सब साधु-संतों को साथ देना चाहिए लेकिन बाबा रामदेव भी समर्थन में नहीं आये, जबकि जो आज आर्युवेद का प्रचार रामदेव कर रहे हैं वे प्रचार उनसे कई वर्षों पहले बापू आशारामजी ने गांव-गांव, शहर-शहर जाकर किया था।


अभी समय आ गया है कि सभी साधु-संत व हिन्दू जनता एक होकर जो भी साधु-संत पर षड्यंत्र हो रहे हैं उसका डटकर मुकाबला करें और उन्हें षड्यंत्र से मुक्त करवाएं।


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भगवान बुद्ध ने समाज को जगाया पर उनके खिलाफ ही रचा गया था षड्यंत्र

25 मई 2021 

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भगवान बुद्ध का जन्म 483 और 563 ईस्वी पूर्व के बीच शाक्यगणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के निकटलुंबिनी, नेपाल में हुआ था । लुम्बिनी वन नेपाल के तराई क्षेत्र में कपिलवस्तु और देवदह के बीच नौतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में रुक्मिनदेई नामक स्थान के पास स्थित था ।



कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी को अपने नैहर देवदह जाते हुए रास्ते में प्रसव पीड़ा हुई और वहीं उन्होंने एक बालक को जन्म दिया । शिशु का नाम सिद्धार्थ रखा गया ।


कपिलवस्तु के राजा शुद्धोदन का युवराज था सिद्धार्थ! यौवन में कदम रखते ही विवेक और वैराग्य जाग उठा। युवान पत्नी यशोधरा और नवजात शिशु राहुल की मोह-ममता की रेशमी जंजीर काटकर महाभीनिष्क्रमण (गृहत्याग) किया। एकान्त अरण्य में जाकर गहन ध्यान साधना करके अपने साध्य तत्त्व को प्राप्त कर लिया।


एकान्त में तपश्चर्या और ध्यान साधना से खिले हुए इस आध्यात्मिक कुसुम की मधुर सौरभ लोगों में फैलने लगी। अब सिद्धार्थ भगवान बुद्ध के नाम से जन-समूह में प्रसिद्ध हुए। हजारों हजारों लोग उनके उपदिष्ट मार्ग पर चलने लगे और अपनी अपनी योग्यता के मुताबिक आध्यात्मिक यात्रा में आगे बढ़ते हुए आत्मिक शांति प्राप्त करने लगे। असंख्य लोग बौद्ध भिक्षुक बनकर भगवान बुद्ध के सान्निध्य में रहने लगे। उनके पीछे चलने वाले अनुयायियों का एक संघ स्थापित हो गया।


चहुँ ओर नाद गूँजने लगे :

 *बुद्धं शरणं गच्छामि।*

धम्मं शरणं गच्छामि।

संघं शरणं गच्छामि।


शरावस्ती नगरी में भगवान बुद्ध का बहुत यश फैला। लोगों में उनकी जय-जयकार होने लगी। लोगों की भीड़-भाड़ से विरक्त होकर बुद्ध नगर से बाहर जेतवन में आम के बगीचे में रहने लगे। नगर के पिपासु जन बड़ी तादाद में वहाँ हररोज निश्चित समय पर पहुँच जाते और उपदेश-प्रवचन सुनते। बड़े-बड़े राजा महाराजा भगवान बुद्ध के सान्निध्य में आने जाने लगे।


समाज में तो हर प्रकार के लोग होते हैं। अनादि काल से दैवी सम्पदा के लोग एवं आसुरी सम्पदा के लोग हुआ करते हैं। बुद्ध का फैलता हुआ यश देखकर उनका तेजोद्वेष करने वाले लोग जलने लगे। और जैसा कि संतों के साथ हमेशा से होता आ रहा है ऐसे उन दुष्ट तत्त्वों ने बुद्ध को बदनाम करने के लिए कुप्रचार किया। विभिन्न प्रकार की युक्ति-प्रयुक्तियाँ लड़ाकर बुद्ध के यश को हानि पहुँचे ऐसी बातें समाज में वे लोग फैलाने लगे। उन दुष्टों ने अपने षड्यंत्र में एक वेश्या को समझा-बुझाकर शामिल कर लिया।


वश्या बन-ठनकर जेतवन में भगवान बुद्ध के निवास-स्थान वाले बगीचे में जाने लगी। धनराशि के साथ दुष्टों का हर प्रकार से सहारा एवं प्रोत्साहन उसे मिल रहा था। रात्रि को वहीं रहकर सुबह नगर में वापिस लौट आती। अपनी सखियों में भी उसने बात फैलाई।


लोग उससे पूछने लगेः "अरी! आजकल तू दिखती नहीं है?कहाँ जा रही है रोज रात को?"


"मैं तो रोज रात को जेतवन जाती हूँ। वे बुद्ध दिन में लोगों को उपदेश देते हैं और रात्रि के समय मेरे साथ रंगरलियाँ मनाते हैं। सारी रात वहाँ बिताकर सुबह लौटती हूँ।"


वश्या ने पूरा स्त्रीचरित्र आजमाकर षड्यंत्र करने वालों का साथ दिया । लोगों में पहले तो हल्की कानाफूसी हुई लेकिन ज्यों-ज्यों बात फैलती गई त्यों-त्यों लोगों में जोरदार विरोध होने लगा। लोग बुद्ध के नाम पर फटकार बरसाने लगे। बुद्ध के भिक्षुक बस्ती में भिक्षा लेने जाते तो लोग उन्हें गालियाँ देने लगे। बुद्ध के संघ के लोग सेवा-प्रवृत्ति में संलग्न थे। उन लोगों के सामने भी उँगली उठाकर लोग बकवास करने लगे।


बद्ध के शिष्य जरा असावधान रहे थे। कुप्रचार के समय साथ ही साथ सुप्रचार होता तो कुप्रचार का इतना प्रभाव नहीं होता।


शिष्य अगर निष्क्रिय रहकर सोचते रह जाएं कि 'करेगा सो भरेगा... भगवान उनका नाश करेंगे..' तो कुप्रचार करने वालों को खुला मैदान मिल जाता है।


सत के सान्निध्य में आने वाले लोग श्रद्धालु, सज्जन, सीधे सादे होते हैं, जबकि दुष्ट प्रवृत्ति करने वाले लोग कुटिलतापूर्वक कुप्रचार करने में कुशल होते हैं। फिर भी जिन संतों के पीछे सजग समाज होता है उन संतों के पीछे उठने वाले कुप्रचार के तूफान समय पाकर शांत हो जाते हैं और उनकी सत्प्रवृत्तियाँ प्रकाशमान हो उठती हैं।


कप्रचार ने इतना जोर पकड़ा कि बुद्ध के निकटवर्ती लोगों ने 'त्राहिमाम्' पुकार लिया। वे समझ गये कि यह व्यवस्थित आयोजन पूर्वक षड्यंत्र किया गया है। बुद्ध स्वयं तो पारमार्थिक सत्य में जागे हुए थे। वे बोलतेः "सब ठीक है, चलने दो। व्यवहारिक सत्य में वाहवाही देख ली। अब निन्दा भी देख लें। क्या फर्क पड़ता है?"


शिष्य कहने लगेः "भन्ते! अब सहा नहीं जाता। संघ के निकटवर्ती भक्त भी अफवाहों के शिकार हो रहे हैं। समाज के लोग अफवाहों की बातों को सत्य मानने लग गये हैं।"


बद्धः "धैर्य रखो।

हम पारमार्थिक सत्य में विश्रांति पाते हैं। यह विरोध की आँधी चली है तो शांत भी हो जाएगी। समय पाकर सत्य ही बाहर आयेगा। आखिर में लोग हमें जानेंगे और मानेंगे।"


कछ लोगों ने अगवानी का झण्डा उठाया और राज्यसत्ता के समक्ष जोर-शोर से माँग की कि बुद्ध की जाँच करवाई जाये। लोग बातें कर रहे हैं और वेश्या भी कहती है कि बुद्ध रात्रि को मेरे साथ होते हैं और दिन में सत्संग करते हैं।


बद्ध के बारे में जाँच करने के लिए राजा ने अपने आदमियों को फरमान दिया। अब षड्यंत्र करनेवालों ने सोचा कि इस जाँच करने वाले पंच में अगर सच्चा आदमी आ जाएगा तो अफवाहों का सीना चीरकर सत्य बाहर आ जाएगा। अतः उन्होंने अपने षड्यंत्र को आखिरी पराकाष्ठा पर पहुँचाया। अब ऐसे ठोस सबूत खड़ा करना चाहिए कि बुद्ध की प्रतिभा का अस्त हो जाये।


षडयंत्रकारियों ने वेश्या को दारु पिलाकर जेतवन भेज दिया। पीछे से गुण्डों की टोली वहाँ गई। वेश्या के साथ बलात्कार आदि सब दुष्ट कृत्य करके उसका गला घोंट दिया और लाश को बुद्ध के बगीचे में गाड़कर पलायन हो गये।


लोगों ने राज्यसत्ता के द्वार खटखटाये थे लेकिन सत्तावाले भी कुछ लोग दुष्टों के साथ जुड़े हुए थे। ऐसा थोड़े ही है कि सत्ता में बैठे हुए सब लोग दूध में धोये हुए व्यक्ति होते हैं।


राजा के अधिकारियों के द्वारा जाँच करने पर वेश्या की लाश हाथ लगी। अब दुष्टों ने जोर-शोर से चिल्लाना शुरु कर दिया।


"देखो, हम पहले ही कह रहे थे। वेश्या भी बोल रही थी लेकिन तुम भगतड़े लोग मानते ही नहीं थे। अब देख लिया न? बुद्ध ने सही बात खुल जाने के भय से वेश्या को मरवाकर बगीचे में गड़वा दिया। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी। लेकिन सत्य कहाँ तक छिप सकता है? मुद्दामाल हाथ लग गया। इस ठोस सबूत से बुद्ध की असलियत सिद्ध हो गई। सत्य बाहर आ गया।"


लकिन उन मूर्खों को पता नहीं कि तुम्हारा बनाया हुआ कल्पित सत्य बाहर आया, वास्तविक सत्य तो आज ढाई हजार वर्ष के बाद भी वैसा ही चमक रहा है। आज बुद्ध भगवान को लाखों लोग जानते हैं, आदरपूर्वक मानते हैं। उनका तेजोद्वेष करने वाले दुष्ट लोग कौन-से नरकों में जलते होंगे क्या पता!


वर्तमान में जिन संतों के ऊपर आरोप लग रहे हैं उनके भक्त अगर सच्चाई किसी को बताने जाएंगे तो दुष्ट प्रकृति के लोग तो बोलेंगे ही, लेकिन जो हिंदूवादी और राष्ट्रवादी कहलाने वाले लोग है वे भी यही बोलेंगे की कि बुद्ध तो भगवान थे, आजकल के संत ऐसे ही है, उनको इतने पैसे की क्या जरूत है? लड़कियों से क्यों मिलते हैं..??? ऐसे कपड़े क्यों पहनते हैं..??? आदि आदि...।


पर उनको पता नही है कि पहले ऋषि मुनियों के पास इतनी सम्पत्ति होती थी कि राजकोष में धन कम पड़ जाता था तो ऋषि मुनियों से लोन लिया जाता था और रही कपड़े की बात तो कई भक्तों की भावना होती है तो पहन लेते हैं और लड़कियां दुःखी होती हैं तो उनके मां-बाप लेकर आते हैं तो कोई दुःख होता है तो मिल लेते हैं,उनके घर थोड़े ही बुलाने जाते हैं और भी कई तर्क वितर्क करेगे लेकिन भक्तों को दुःखी नहीं होना चाहिए। सबके बस की बात नही है कि महापुरुषों को पहचान पाये, आप अपने गुरूदेव का प्रचार प्रसार करते रहें, एक दिन ऐसा आएगा कि निंदा करने वाले भी आपके पास आयेंगे और बोलेंगे कि मुझे भी अपने गुरु के पास ले चलो।


विदेशी फंडेड मीडिया ने हिंदू साधु-संतों की झूठी कहानी बनाकर समाज को परोसी, जिससे समाज गुमराह हो गया और सच्चाई न जानकर झूठ को ही सच मान बैठे, कुछ स्वार्थी नेता राष्ट्रविरोधी ताकतों से मिलकर झूठे केस में संतो को जेल भिजवा रहे हैं पर उसका भी देर सवेर खुलासा होगा क्योंकि सत्य को परेशान किया जाता है पराजित कभी नहीं...।


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भगतसिंह के प्रेरणास्रोत वीर करतार सिंह की अंग्रेजों के खिलाफ रणनीति कैसी थी?

24 मई 2021

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भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त करने के लिये अमेरिका में बनी गदर पार्टी के अध्यक्ष करतार सिंह सराभा थे। उनका जन्म 24 मई 1896 में हुआ था।



भारत में एक बड़ी क्रान्ति की योजना के सिलसिले में उन्हें अंग्रेजी सरकार ने कई अन्य लोगों के साथ फांसी दे दी। 16 नवम्बर 1915 को करतार को जब फांसी पर चढ़ाया गया, तब वे मात्र साढ़े उन्नीस वर्ष के थे। प्रसिद्ध क्रांतिकारी भगत सिंह उन्हें अपना आदर्श मानते थे। 


16 नवम्बर 1915 को साढे़ उन्नीस साल के युवक करतार सिंह सराभा को उनके छह अन्य साथियों - बख्शीश सिंह (ज़िला अमृतसर), हरनाम सिंह (ज़िला स्यालकोट), जगत सिंह (ज़िला लाहौर), सुरैण सिंह व सुरैण- दोनों (ज़िला अमृतसर) व विष्णु गणेश पिंगले (ज़िला पूना, महाराष्ट्र) के साथ लाहौर जेल में फांसी पर चढ़ाकर शहीद कर दिया गया। इनमें से ज़िला अमृतसर के तीनों शहीद एक ही गांव गिलवाली से संबंधित थे। इन शहीदों व इनके अन्य साथियों ने भारत पर काबिज़ ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ 19 फ़रवरी 1915 को ‘गदर’ की शुरुआत की थी। इस ‘गदर’ यानी स्वतंत्रता संग्राम की योजना अमेरिका में 1913 में अस्तित्व में आई ‘गदर पार्टी’ ने बनाई थी और इसके लिए लगभग आठ हज़ार भारतीय अमेरिका और कनाडा जैसे देशों में सुख-सुविधाओं भरी ज़िंदगी छोड़कर भारत को अंग्रेज़ों से आज़ाद करवाने के लिए समुद्री जहाज़ों द्वारा भारत पहुंचे थे। ‘गदर’ आंदोलन शांतिपूर्ण आंदोलन नहीं था, यह सशस्त्र विद्रोह था; लेकिन ‘गदर पार्टी’ ने इसे गुप्त रूप न देकर खुलेआम इसकी घोषणा की थी और 'गदर पार्टी' के पत्र ‘गदर’, जो पंजाबी, हिंदी, बंगाली, पश्तो, उर्दू व गुजराती आदि छः भाषाओं में निकलता था- के माध्यम से इसका समूची भारतीय जनता से आह्वान किया था। 


अमेरिका की स्वतंत्र धरती से प्रेरित हो अपनी धरती को स्वतंत्र करवाने का यह शानदार आह्वान 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरित था और ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने जिसे अवमानना से ‘गदर’ नाम दिया, उसी ‘गदर’ शब्द को सम्मानजनक रूप देने के लिए अमेरिका में बसे भारतीय देशभक्तों ने अपनी पार्टी और उसके मुखपत्र को ही ‘गदर’ नाम से विभूषित किया। जैसे 1857 के ‘गदर’ यानी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की कहानी बड़ी रोमांचक है, वैसे ही स्वतंत्रता के लिए दूसरा सशस्त्र संग्राम यानी ‘गदर’ भी चाहे असफल रहा लेकिन इसकी कहानी भी कम रोचक नहीं है।


विश्वस्तर पर चले इस आंदोलन में दो सौ से ज़्यादा लोग शहीद हुए, ‘गदर’ व अन्य घटनाओं में 315 से ज़्यादा ने अंडमान जैसी जगहों पर काले पानी की उम्रकैद भुगती और 122 ने कुछ कम लंबी कैद भुगती। सैकड़ों पंजाबियों को गांवों में वर्षों तक नज़रबंदी झेलनी पड़ी। उस आंदोलन में बंगाल से रास बिहारी बोस व शचीन्द्रनाथ सान्याल, महाराष्ट्र से विष्णु गणेश पिंगले व डॉ॰ खानखोजे, दक्षिण भारत से डॉ॰ चेन्चय्या व चंपक रमण पिल्लै तथा भोपाल से बरकतुल्ला आदि ने हिस्सा लेकर उसे एक ओर राष्ट्रीय रूप दिया तो शंघाई, मनीला, सिंगापुर आदि अनेक विदेशी नगरों में हुए विद्रोह ने इसे अंतर्राष्ट्रीय रूप भी दिया। 1857 की भांति ही ‘गदर’ आंदोलन भी सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष संग्राम था जिसमें सभी धर्मों व समुदायों के लोग शामिल थे।


गदर पार्टी आंदोलन की यह विशेषता भी रेखांकित करने लायक है कि विद्रोह की असफलता से गदर पार्टी समाप्त नहीं हुई, बल्कि इसने अपना अंतर्राष्ट्रीय अस्तित्व बचाए रखा व भारत में कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होकर व विदेशों में अलग अस्तित्व बनाए रखकर 'गदर पार्टी' ने भारत के स्वाधीनता संग्राम में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। आगे चल कर 1925-26 से पंजाब का युवक विद्रोह, जिसके लोकप्रिय नायक भगत सिंह बने, भी गदर पार्टी व करतार सिंह सराभा से अत्यंत प्रभावित रहा। एक तरह से भगत सिंह का व्यक्तित्व व चिंतन 'गदर पार्टी' की परंपरा को अपनाते हुए उसके अग्रगामी विकास के रूप में निखरा।


करतार सिंह सराभा 'गदर पार्टी' के उसी तरह नायक बने, जैसे बाद में 1925-31 के दौरान भगत सिंह क्रांतिकारी आंदोलन के महानायक बने। यह अस्वाभाविक नहीं है कि करतार सिंह सराभा ही भगत सिंह के सबसे लोकप्रिय नायक थे, जिनका चित्र वे हमेशा अपनी जेब में रखते थे और ‘नौजवान भारत सभा’ नामक युवा संगठन के माध्यम से वे करतार सिंह सराभा के जीवन को स्लाइड शो द्वारा पंजाब के नवयुवकों में आज़ादी की प्रेरणा जगाने के लिए दिखाते थे। ‘नौजवान भारत सभा’ की हर जनसभा में करतार सिंह सराभा के चित्र को मंच पर रखकर उसे पुष्पांजलि दी जाती थी।


करतार सिंह सराभा, गदर पार्टी आंदोलन के लोकनायक के रूप में अपने बहुत छोटे-से राजनीतिक जीवन के कार्यकलापों के कारण उभरे। कुल दो-तीन साल में ही सराभा ने अपने प्रखर व्यक्तित्व की ऐसी प्रकाशमान किरणें छोड़ीं कि देश युवकों की आत्मा को उसने देशभक्ति के रंग में रंगकर जगमग कर दिया। ऐसे वीर नायक को फांसी देने से न्यायाधीश भी बचना चाहते थे और सराभा को उन्होंने अदालत में दिया बयान हल्का करने का मशविरा और वक्त भी दिया, लेकिन देश के नवयुवकों के लिए प्रेरणास्रोत बननेवाले इस वीर नायक ने बयान हल्का करने की बजाय और सख्त किया और फांसी की सज़ा पाकर खुशी में अपना वज़न बढ़ाते हुए हंसते-हंसते फांसी पर झूल गया।


भारत के ऐसे महान वीर सपूतों के कारण ही आज हम आज़ादी की सांसें ले रहे हैं लेकिन आज हम ही अपनी आजादी को खतरे में डाल रहे हैं। हम अपनी संस्कृति व संतों का मार्गदर्शन भूल रहे हैं जिसके कारण विधर्मी लोग धर्मांतरण आदि द्वारा भारत को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। इसके लिए हमें सावधान रहना होगा।


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लव जिहाद : इस्लामिक अत्याचारों की एक विस्मृत दास्तान

23 मई 2021

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हिन्दू समाज के साथ 1200 वर्षों से मजहब के नाम पर अत्याचार होता आया है। सबसे खेदजनक बात यह है कि कोई इस अत्याचार के बारे में हिन्दुओं को बताये तो हिन्दू खुद ही उसे गंभीरता से नहीं लेते क्यूंकि उन्हें सेकुलरिज्म के नशे में रहने की आदत पड़ गई है। रही सही कसर हमारे पाठ्यक्रम ने पूरी कर दी जिसमें अकबर महान, टीपू सुल्तान देशभक्त आदि पढ़ा-पढ़ा कर इस्लामिक शासकों के अत्याचारों को छुपा दिया गया। अब भी कुछ बचा था तो संविधान में ऐसी धारा डाल दी गई जिसके अनुसार सार्वजनिक मंच अथवा मीडिया में इस्लामिक अत्याचारों पर विचार करना धार्मिक भावनाओं को भड़काने जैसा करार दिया गया। इस सुनियोजित षड़यंत्र का परिणाम यह हुआ कि हिन्दू समाज अपना सत्य इतिहास ही भूल गया।



ऐसी हज़ारों दास्तानों में से एक है- सिरोंज के माहेश्वरी समाज की दास्तान। सिरोंज- यह स्थान विदिशा से ५० मील की दूरी पर एक तहसील है। मध्यकाल में इस स्थान का विशेष महत्व था। कई इमारतें व उनसे जुड़ी ऐतिहासिक घटनाएँ इस बात का प्रमाण हैं। सिरोंज के दक्षिण में स्थित पहाड़ी पर एक प्राचीन मंदिर है। इसे उषा का मंदिर कहा जाता है। इसी नाम के कारण कुछ लोग इसे बाणासुर की राजधानी श्रोणित नगर के नाम से जानते थे। संभवतः यही शब्द बिगड़कर कालांतर में "सिरोंज' हो गया। नगर के बीच में पहले एक बड़ी हवेली हुआ करती थी, जो अब ध्वस्त हो चुकी है, इसे रावजी की हवेली के नाम से जाना जाता है। इसका निर्माण संभवतः मराठा- अधिपत्य के बाद ही हुआ होगा। ऐसी मान्यता है कि यह मल्हारराव होल्कर के प्रतिनिधि का आवास था।


200 साल पहले सिरोंज, टोंक के एक नवाब के आधिपत्य में था। एक बार नवाब ने इस क्षेत्र का दौरा किया। उसी रात यहाँ के माहेश्वरी सेठ की पुत्री का विवाह था। संयोग से रास्ते में डोली में से पुत्री की कीमती चप्पल गिर गई। किसी व्यक्ति ने उसे नवाब के खेमे तक पहुँचा दिया। नवाब को यह भी कहा गया कि चप्पल से भी अधिक सुंदर इसको पहनने वाली है। यह जानने के बाद नवाब द्वारा सेठ की पुत्री की माँग की गई। यह समाचार सुनते ही माहेश्वरी समाज में खलबली मच गई। बेटी देने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। अब किया क्या जाये? माहेश्वरी समाज के प्रतिनिधियों ने कुटनीति से काम किया। नवाब को यह सूचना दे दी गई कि प्रातः होते ही डोला दे दिया जाएगा। इससे नवाब प्रसन्न हो गया। इधर माहेश्वरियों ने रातों- रात पुत्री सहित शहर से पलायन कर दिया तथा उनके पूरे समाज में यह निर्णय लिया गया कि कोई भी माहेश्वरी समाज में न तो इस स्थान का पानी पिएगा, न ही निवास करेगा। एक रात में अपने स्थान को उजाड़ कर माहेश्वरी समाज के लोग दूसरे राज्य चले गए। मगर अपनी इज्जत, अपनी अस्मिता से कोई समझौता नहीं किया। आज भी एक परम्परा माहेश्वरी समाज में अविरल चल रही है। आज भी माहेश्वरी समाज का कोई भी व्यक्ति सिरोंज जाता है तो न वहाँ का पानी पीता है और न ही रात को कभी रुकता है। यह त्याग वह अपने पूर्वजों द्वारा लिए गए संकल्प को निभाने एवं मुसलमानों के अत्याचार के विरोध को प्रदर्शित करने के लिए करता है।


दरअसल मुस्लिम शासकों में हिंदुओं की लड़कियों को उठाने, उन्हें अपनी हवस का शिकार बनाने, अपने हरम में भरने की होड़ थी। उनके इस व्यसन के चलते हिन्दू प्रजा सदा आशंकित और भयभीत रहती थी। ध्यान दीजिये- किस प्रकार हिन्दू समाज ने अपना देश, धन, सम्पति आदि सब त्याग कर दर-दर की ठोकरें खाना स्वीकार किया मगर अपने धर्म से कोई समझौता नहीं किया। अगर ऐसी शिक्षा, ऐसे त्याग और ऐसे प्रेरणादायक इतिहास को हिन्दू समाज आज अपनी लड़कियों को दूध में घुटी के रूप में दे तो कोई हिन्दू लड़की कभी लव जिहाद का शिकार न बने। - डॉ. विवेक आर्य

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राजा राममोहन राय ने मिशनरियों के धर्मांतरणरूपी षडयंत्र को कैसे रोका?

22 मई 2021

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राजा राममोहन राय अपने काल के प्रसिद्ध समाज सुधारकों में से थे। वे हिन्दू समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और कुरीतियों के विरोध में आवाज़ उठाते थे। वे अंग्रेजी शिक्षा और अंग्रेजी भाषा के बड़े समर्थक भी थे। इसलिए अंग्रेज उन्हें अपना आदमी समझते थे। सती प्रथा पर प्रतिबन्ध के लिए भी अंग्रेजों ने उन्हें सहयोग दिया था। राममोहन राय ने ग्रीक और हिब्रू भाषा का विस्तृत अध्ययन कर ईसाई मत के इतिहास और मान्यताओं का गहरा अध्ययन भी किया था।



उसी काल में ईसाईयों ने बंगाल के ईसाईकरण की योजना बनाई। यूरोप और अमेरिका से ईसाई मिशनरियों के जत्थे के जत्थे भर-भर कर बंगाल आने लगे। ईसाइयत के प्रचार के लिए ईसाईयों ने ऐसे-ऐसे तरीके अपनाये जो कोई मतान्ध व्यक्ति ही अपना सकता है। ईसाई पादरियों ने बड़ी संख्या में ऐसे साहित्य को प्रकाशित किया जिनमें हिन्दू देवी-देवताओं के विषय में भद्दी-भद्दी टिप्पणियों की भरमार थी और ईसाइयत की भर-भर कर प्रशंसा थी। इस साहित्य को ईसाई पादरी गली-मोहल्लों, हिन्दू मंदिरों-मठों, चौराहों पर खड़े होकर जोर-जोर से पढ़ते। अत्यंत गरीब और पिछड़े हुए हिन्दू, ईसाइयों के विशेष निशाने पर होते थे। अंग्रेजी राज होने के कारण हिन्दू समाज केवल रोष प्रकट करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पाता था।


राजा राममोहन राय पादरियों की इस करतूत से अत्यंत क्षुब्ध हुए। उन्होंने ईसाइयों की ऐसी कुटिल नीतियों का अपनी कलम से विरोध करना आरम्भ कर दिया। जो अंग्रेज उनके कभी प्रगाढ़ साथी थे वे उनके मुखर विरोधी हो गए। राजाजी ने अनेक पुस्तकें ईसाइयत के विरोध में प्रकाशित की थीं। उन्होंने बांग्ला और अंग्रेजी भाषा में द ब्राह्मणीकल मैगज़ीन (The Brahmanical Magazine) के नाम से पत्रिका भी प्रकाशित करनी आरम्भ की थी। इस पत्रिका के पहले अंक में ही उन्होंने ईसाई मिशनरियों के हिन्दुओं और मुसलमानों को ईसाई बनाने के तौर-तरीकों का पर्दाफाश किया था। राजाजी लिखते हैं कि अगर ईसाई मिशनरी में दम हो तो जिन देशों में अंग्रेजों का राज्य नहीं है, जैसे- इस्लामिक तुर्की आदि, वहां इसी विधि से अपना प्रचार करके दिखाए। अंग्रेजी राज में ऐसा करना बड़ा सरल है। एक ताकतवर सत्ता का एक कमजोर प्रजा पर ऐसी गुंडागर्दी करना कौन सा बड़ा कार्य है?


राजाजी ने ईसाइयों के विभिन्न मतों में विभाजित होने और एक-दूसरे का घोर विरोधी होने का विषय भी उठाया। उन्होंने लिखा कि ईसाइयों में ही यूनिटेरियन (Unitarian) और फ्रीथिंकर (Free Thinker) जैसे अनेक समूह हैं जो ट्रिनिटी के सिद्धांत को बाइबिल सिद्धांत ही नहीं मानते जैसा बाकि ईसाई समाज मानता है। रोमन कैथोलिक, प्रोटोस्टेंट, यूनिटेरियन आदि एक दूसरे को कुफ्र और अपना विरोधी बताते हैं। यह कहां की ईसाइयत है?


राजाजी ने ईसाइयों के ट्रिनिटी सिद्धांत (Theory of Trinity) पर भी कटाक्ष किया। इस सिद्धांत के अनुसार एक ईश्वर, एक ईश्वर का दूत और एक पवित्र आत्मा- ये तीन भिन्न-भिन्न सत्ता हैं। जो एक भी है और अलग भी हैं। राजाजी का कहना था कि यह कैसे संभव है कि एक ईश्वर अपना ही सन्देश देने के लिए अपना ही दूत बन जायेगा? अपना ही नौकर बनकर सूली पर चढ़ जायेगा? राजाजी ने इस विषय से सम्बंधित एक व्यंग भी प्रकाशित था। इस व्यंग के अनुसार एक यूरोपियन मिशनरी अपने तीन चीनी शिष्यों से पूछता है कि बाइबिल के अनुसार ईश्वर एक है अथवा अनेक। पहला शिष्य कहता है ईश्वर तीन हैं। दूसरा कहता है कि ईश्वर दो हैं और तीसरा कहता है कि कोई ईश्वर नहीं है। ईसाई मिशनरी उनसे इस उत्तर को समझाने का आग्रह करता है। पहला शिष्य कहता है कि एक ईश्वर, एक ईश्वर का दूत और एक पवित्र आत्मा के आधार पर ईश्वर तीन हुए। दूसरा कहता है कि ईश्वर का दूत अर्थात ईसा मसीह तो सूली पर चढ़ाकर मार दिया गया। इसलिए तीन में से दो रह गए। तीसरा शिष्य कहता है कि ईसाइयों का एक ईश्वर ईसा मसीह था जिसे 1800 वर्ष पहले सूली पर चढ़ाकर मार दिया गया। इसलिए ईसाइयों का अब कोई ईश्वर नहीं है। प्रश्न पूछने वाला ईसाई मिशनरी हक्का बक्का रह गया।


राजाजी ईसाइयों के पाप क्षमा होने के सिद्धांत के भी बड़े आलोचक थे। उनका कहना था कि यह कैसे संभव है कि करोड़ों लोगों द्वारा किया गया पाप अकेले ईसा मसीह भुगत सकता है? पाप करे कोई अन्य और भुगते कोई अन्य। ईसा मसीह ने जब कोई पापकर्म ही नहीं किया तो वह क्यों अन्यों का पाप कर्म भुगते? क्या यह किसी निरपराध को भयंकर सजा देना और पापी को अपराध मुक्त करने के समान नहीं है? पापियों को पाप का दंड न मिलना और किसी अन्य को उसके पापों की सजा मिलना अव्यावहारिक एवं असंभव है। इस खिचड़ी से अच्छा तो हिन्दुओं का कर्मफल का सिद्धांत है कि जो जैसा करेगा वैसा भरेगा।


राजाजी ने बाइबिल में वर्णित चमत्कार की कहानियों की भी समीक्षा लिखी। बाइबिल में वर्णित चमत्कार की को गपोड़े सिद्ध करते हुए राजाजी लिखते हैं कि जिन काल्पनिक कहानियों से ईसाई मिशनरी हिन्दुओं को प्रभावित करना चाहते हैं, उन कहानियों से कहीं अधिक विश्वसनीय एवं प्रभाववाली कहानियां तो ऋषि अगस्त्य, ऋषि वशिष्ठ , ऋषि गौतम से लेकर श्री राम, श्री कृष्ण और नरसिंह अवतार के विषय में मिलती हैं। आखिर ईसाई मिशनरी ऐसा क्या प्रस्तुत करना चाहते हैं जो हमारे पास पहले से ही नहीं हैं?


राजाजी का वर्षों तक ईसाई पादरियों से संवाद चला। उनके प्रयासों से बंगाल के सैकड़ों कुलीन परिवारों से लेकर निर्धन परिवारों के हिन्दू ईसाई बनने से बच गए। राजाजी की इंग्लैंड में असमय मृत्यु से उनका मिशन अधूरा रह गया। ब्रह्मसमाज के बाद के केशवचन्द्र सेन जैसे नेता ईसाइयत, अंग्रेजियत और आधुनिकता के प्रभाव में आकर हमारी ही संस्कृति के विरोधी बन गए। मगर राजाजी अपनी विद्वता और ज्ञान का सारा श्रेय अपने प्राचीन धर्मग्रंथों जैसे दर्शन-उपनिषद् आदि को ही आजीवन देते रहे।


इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों में राजाजी को केवल सती-प्रथा के विरोध में आंदोलन चलानेवाले के रूप में प्रस्तुत किया जाता हैं। मगर उनका हिन्दू समाज की ईसाइयत से रक्षा करनेवाले बुद्धिजीवी के रूप में योगदान को साम्यवादी इतिहासकारों ने जानबूझकर भुला दिया। राजाजी के योगदान को हम सदा स्मरण कर उनसे प्रेरणा लेते रहेंगे।


आज भी ईसाई मिशनरिज पुरजोश से हिंदुस्तान में धर्मांतरण का धंधा चला रहे हैं; उनके आगे जो आ रहे हैं उनकी हत्या करवा दी जाती है अथवा आजीवन कारावास करवा दिया जाता है जैसे कि ओडिशा के स्वामी लक्ष्मणानंदजी की हत्या करवा दी और दारा सिंह व आशाराम बापू को आजीवन कारावास करवा दिया। इसलिए देशवासी सावधान रहें औऱ ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण की आड़ में वोटबैंक बढ़ाकर देश की सत्ता हासिल करने के षडयंत्र को रोकें।


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