Tuesday, February 22, 2022

रामप्रसाद बिस्मिल के बलिदान के बाद उनके परिवार की दुर्दशा कैसी हुई?

11 जून 2021

azaadbharat.org


रामप्रसाद बिस्मिल बड़े होनहार नौजवान थे। गजब के शायर थे। देखने में भी बहुत सुंदर थे। बहुत योग्य थे। जाननेवाले कहते हैं कि यदि किसी और जगह, किसी और देश या किसी और समय पैदा हुए होते तो सेनाध्यक्ष होते। आपको पूरे काकोरी षड्यन्त्र का नेता माना गया है। चाहे बहुत ज्यादा पढ़े हुए नहीं थे, लेकिन फिर भी पंडित जगत नारायण जैसे सरकारी वकील की सुधबुध भुला देते थे। चीफ़ कोर्ट की अपनी अपील खुद ही लिखी थी, जिससे कि जजों को कहना पड़ा कि इसे लिखने में जरूर ही किसी बहुत बुद्धिमान व योग्य व्यक्ति का हाथ है। 



19 तारीख की शाम को आपको फाँसी दी गयी। 18 की शाम को जब उनको दूध दिया गया, तो यह कहकर इंकार कर दिया कि अब मैं माँ का दूध ही पीयूँगा। 18 को आपकी माँ से मुलाकात हुई। माँ से मिलते ही उनकी आँखों से अश्रु बह चले। माँ बहुत हिम्मतवाली देवी थीं। आपसे कहने लगी- हरिश्चंद्र, दधीचि आदि बुजुर्गों की तरह वीरता के साथ धर्म व देश के लिए जान दे, चिंता करने और पछताने की जरूरत नहीं। आप हँस पड़े। कहा- माँ मुझे क्या चिंता और पछतावा, मैंने कोई पाप नहीं किया। मैं मौत से नहीं डरता, लेकिन माँ! आग के पास रखा घी पिघल ही जाता है। तेरा मेरा सम्बन्ध ही कुछ ऐसा है कि पास होते ही आँखों में अश्रु उमर पड़े, नहीं तो मैं बहुत खुश हूँ।


फाँसी पर ले जाते समय आपने बड़े जोर से कहा- ‘वन्दे मातरम’, ‘भारत माता की जय' और शांति से चलते हुए कहा-


मालिक तेरी रजा रहे और तू ही रहे


बाकि न मैं रहूँ, न मेरी आरजू रहे


जबतक कि तन में जान रगों में लहू रहे,


तेरी ही जिक्र-ए-यार, तेरी जुस्तजू रहे!


फाँसी के तख्ते पर खड़े होकर आपने कहा-


मैं ब्रिटिश राज्य का पतन चाहता हूँ।


फिर ईश्वर के आगे प्रार्थना की और फिर एक मंत्र पढना शुरू किया। रस्सी खींची गई। रामप्रसादजी फाँसी पर लटक गए। 


अग्रेजी सरकार ने आपको अपना खौफनाफ दुश्मन समझा।  फाँसी से दो दिन पहले से सी. आई. डी. के मिस्टर हैमिल्टन आपकी मिन्नतें करते रहे कि आप मौखिक रूप से सब बातें बता दो। आपको पांच हज़ार रुपया नकद दे दिया जायेगा और सरकारी खर्च पर विलायत भेजकर बैरिस्टर की पढाई करवाई जाएगी। लेकिन वे कब इन बातों की परवाह करनेवाले थे। वे हुकुमतों को ठुकरानेवाले व कभी कभार जन्म लेनेवाले वीरों में से थे। 


पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल के परिजनों की दुर्दशा 


चंद्रशेखर आजाद से पहले भगतसिंह आदि के दल का नेतृत्व करते थे- अमर बलिदानी पंडित रामप्रसाद बिस्मिल। चंद्रशेखर आजाद बिस्मिल के आस्तिक, देशभक्तिपूर्ण व आर्यसमाजी विचारों से बहुत प्रभावित थे।

काकोरी कांड में गिरफ्तार होने पर जेल में बंद बिस्मिल को स्वार्थी संसार की असलियत का कटु अनुभव हुआ जो उन्होंने फांसी आने (19 दिसंबर 1927) से कुछ दिन पहले लिखी आत्मकथा में वर्णन किया है। सहानुभूति रखनेवाले किसी वार्डन के हाथों यह पुस्तक गुप्त रूप से बाहर (संभवतः गणेश शंकर विद्यार्थी के पास) भेजी गई। पंडित गणेश शंकर विद्यार्थी के प्रताप प्रेस से प्रकाशित हुई। ऐसा भी सुनने में आया है कि इसे सबसे पहले भजनलाल बुक सेलर द्वारा आर्ट प्रेस, सिंध ने ‘काकोरी षड्यंत्र’ शीर्षक से छापा था। फिर वर्षों बाद पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी के प्रयास से इस आत्मकथा का पुनर्जन्म हुआ। बिस्मिलजी की गिरफ्तारी और फांसी के बाद उनके परिवार की जो दयनीय दशा हुई उसका वर्णन उनकी क्रांतिकारी बहन शास्त्री देवी ने बड़े मार्मिक शब्दों में किया है।


बिस्मिलजी के परिवार ने बड़ी गरीबी में जीवन बिताया था। पर पुनः क्रांति में कूदने से पहले बिस्मिलजी ने साझे में कपड़े का कारखाना लगाकर स्थिति सुधार ली थी। जेल में जाने के बाद बिस्मिलजी ने अपने साझीदार मुरालीलाल को लिखा कि जो कुछ पैसा मेरे हिस्से का हो मेरे पिताजी को दे देना। बार-बार लिखने पर भी उसने एक पैसा भी नहीं दिया। उल्टे अकड़ दिखाने लगा और पिताजी से लड़ पड़ा।


शाहजहांपुर में रघुनाथ प्रसाद नामक एक व्यक्ति पर बिस्मिल जी माता-पिता की तरह विश्वास करते थे। इनके पास बिस्मिल जी के अपने सब अस्त्र-शस्त्र (पांच) और धन (5000/-) रखे हुए थे। बिस्मिलजी ने वकील को लिखा कि मेरे रुपए मेरे पिताजी को और हथियार बहन शास्त्री देवी को दे देना। वह भी टालता रहा और कुछ नहीं दिया। घर पर पुलिस का इतना आतंक छाया हुआ था कि उनके परिवार से कोई बात तक नहीं करता था। उनके अपने मित्र उनके पास आते हुए डरते थे। ऐसे बुरे समय में महान क्रांतिकारी पंडित गणेश शंकर विद्यार्थी ने लगभग 2000/- चंदा करके बिस्मिल आदि साथियों का अभियोग लड़ने में सहयोग किया। बिस्मिल के पिताजी के लिए पंडित जवाहरलाल ने 500/- भिजवाए। विद्यार्थीजी इन्हें परिवार के लिए 15/- मासिक देते रहे। जब बहन शास्त्री देवी को पुत्र उत्पन्न हुआ तब विद्यार्थीजी ने एक सौ रुपए सहायतार्थ भेजे


र साथ ही यह भी कह भेजा कि आप यह न समझें कि मेरा भाई नहीं है, हम सब आपके भाई हैं।  बिस्मिलजी की बहन ब्रह्मा देवी इनकी फांसी (मृत्यु) से इतनी दुःखी हो गई कि तीन-चार माह बाद ही इस असह्य शोक से पिंड छुड़ाने के लिए विष खाकर मर गई। थोड़े दिन बाद ही इनका छोटा भाई रमेश बीमार पड़ गया। (संभवतः सुशील चंद्र फांसी से पहले ही चल बसा था) रमेश की चिकित्सा धन (डाॅक्टर ने 200/- मांगे थे) के अभाव में ठीक से नहीं हो पाई और वह भी चल बसा। अब घर में खाने को दाने और पहनने को कपड़े न थे। ऐसी अवस्था में उपवास के अतिरिक्त और कोई चारा न था। अंत में उपवास करते-करते पिता श्री मुरलीधरजी भी दुःखों की गठरी माताजी (मूल मंत्री देवी) के सिर पर रखकर इस असार संसार को छोड़ चले। माताजी पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा। इसके 1 महीने बाद बहन शास्त्री देवी भी विधवा हो गई। इनके पास एक पुत्र 3 साल का था।

अपने तीन तोले के सोने के बटन बेचकर माताजी ने दो कोठरियां बनवाई। उनमें से एक कोठरी आठ रुपये मासिक किराए पर दे दी। शास्त्री देवी ने एक डाॅक्टर के यहां मासिक छः रुपये में खाना बनाने का काम किया। फिर भी एक समय कभी-कभी खाना मिलता था। बच्चा सयाना हुआ तो माताजी ने सबसे फरियाद की कि कोई इस बच्चे को पढ़ा दो। कुछ बन जाएगा। पर शाहजहांपुर में किसी ने पुकार नहीं सुनी। तबतक शास्त्री देवी का देवपुरुष भाई पंडित गणेश शंकर विद्यार्थी भी शहीद हो चुका था। 25 मार्च 1931 को कानपुर में मजहबी अंधे मुस्लिमों की भीड़ ने छुरे, कुल्हाड़ी से उन्हें बेरहमी से मारा था। शास्त्री देवी ने जैसे-तैसे करके बेटे को पांचवी तक पढ़ाया। फिर वह मजदूरी करने लगा। पर इस शहीद परिवार को देश का समाज अपराधी की तरह देख रहा था।

माताजी अन्न-वस्त्र के अभाव में जैसे-तैसे दिन गुजार रही थीं। एक दिन शीत काल का समय था। माताजी अपने कोठरी में फटा-सा कोट लपेटे हुए बैठी थीं। इतने में विष्णु शर्मा जेल से रिहा होकर माताजी के दर्शनों के लिए आ पहुँचे। वीर माताजी की यह दुर्दशा देखकर बहुत हैरान, दुःखी व देशवासियों पर क्रोधित हुए। उन्हें लाखों श्राप दिए और अपना कंबल उतारकर माता को ओढा दिया। फिर बहुत कोशिश करके विष्णु शर्मा ने यूपी सरकार द्वारा स्थापित शहीद परिवार सहायक फंड में से माताजी की पेंशन (60रुपये) बंधवाई। इससे माताजी के साथ शास्त्री देवी के परिवार (लड़का व बहू) का भी गुजारा होने लगा। पर 13 मार्च 1956 को माताजी महाप्रयाण कर गईं। पेंशन बंद होने से शास्त्री देवी के परिवार की फिर दुर्दशा हो गई। अन्न वस्त्र के अभाव में जीवन दुभर हो गया। इनका लड़का कुसंग में फंसकर घर से भाग गया। महीनों तक उसका कुछ पता न चला। एक दिन दोनों सास बहू सलाह कर रही थीं कि चलो गंगा जी में डूब जाएं, तभी पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी द्वारा भेजे गए चतुर्वेदी ओंकार नाथ पांडे ने कोसमा गांव जाकर देखा कि ये फटे कपड़े पहने हुई थीं और घर में लगभग 5 किलो अन्न था। पांडेजी ने बहन जी को 5 रुपये दिए और बनारसी दासजी को सारा हाल लिखा। उन्होंने इनकी सहायता के लिए अपील निकाली। छोटे बड़े सबसे सहयोग लेकर बनारसीदास जी ने बहनजी की सहायता की और लिखा कि ‘आप संकोच न करें, यह पैसा आपका ही है। आप कपड़ा बनवा लीजिए। अन्न भी लेकर रख लीजिए। अब आप मुसीबत न उठाइए। बहुत दुःख आपने सहे। मैं आपको दुःख नहीं होने दूंगा।’

 संभवतः बनारसी दासजी की अपील पढ़कर ही गुरुकुल झज्जर के आचार्य भगवान देव (स्वामी ओमानंद जी) अप्रैल 1959 में कोसमा (मैनपुरी) गए। बिस्मिलजी के हवन कुंड आदि ऐतिहासिक धरोहर के रूप में गुरुकुल में ले आए। एक वर्ष के लिए बहनजी की पचास रुपये मासिक वृत्ति बांध दी। गुरुकुल के उत्सव पर भी बहनजी को बुलवाकर सम्मानित करते रहे। पंडित बनारसीदास जी ने बहुत कोशिश करके बहन जी की पेंशन 40 रुपये करवाई। (1960)


पडित रामप्रसाद बिस्मिल जैसे चरित्रवान् राष्ट्रभक्त के त्याग व बलिदान को पहचानने में भारतवासियों ने इतनी देर लगा दी, जबकि श्री सुधीर विद्यार्थी के अनुसार तुर्की के राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा ने तो 1936 में बसे नए जिले (केन्या से आए विस्थापितों के लिए) का नाम ही भारत के इस महान शहीद के नाम पर ‘बिस्मिल जिला’ रख दिया था और इस जिले के अंतर्गत इसका मुख्यालय ‘बिस्मिल शहर’ के नाम से जाना जाता है। तभी तो कवि को कहना पड़ा-

अच्छाइयों की चर्चा जिनकी जहान में है।

उनका निवास अब भी कच्चे मकान में है।।

(शांतिधर्मी मासिक के अप्रैल 2020 अंक में प्रकाशित लेख का एक अंश)


आज भी जो देश-धर्म की सेवा में लगे हुए हैं उनको भी पग-पग पर विघ्न आते हैं, पर वे विचलित नहीं होते हैं- ऐसे राष्ट्रप्रेमियों और साधु-संतों व महापुरुषों का हमें साथ देना चाहिए; मीडिया, सरकार कुछ भी कहे, करें पर हमें उनका हरपल साथ देना होगा, तभी देश व सनातन धर्म की रक्षा होगी।


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अधिकतर लोग नहीं जानते आशाराम बापू के केस के इन तथ्यों के बारे में

10 जून 2021

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हिंदू संत आशाराम बापू 8 साल से जेल में हैं, उनको एक दिन भी बाहर नहीं आने दिया- उसके पीछे का कारण अधिकतर लोग जानते नहीं होंगे।



आपने मीडिया में सुना होगा कि आशाराम बापू पर रेप का आरोप लगा है पर सच्चाई यह है कि उनके ऊपर छेड़छाड़ का आरोप लगा है।

बापू आशारामजी पर आरोप लगानेवाली लड़की ने एफआईआर में लिखवाया है कि मेरे साथ छेड़छाड़ किया है लेकिन मीडिया  ने आपको बताया कि लड़की के साथ रेप हुआ जबकी लड़की ने कहीं ऐसा एफआईआर में नहीं लिखवाया है।


अब आते हैं आगे। लड़की ने लिखाया है कि मेरे साथ छेड़छाड़ हुई है लेकिन मेडिकल रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि लड़की को टच भी नहीं किया गया है। इससे साफ होता है कि लड़की के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है। वीडियो में यह देख सकते हैं।

https://youtu.be/V0sr9yHj1Go


अब सवाल उठता है कि आशाराम बापू को फिर सजा क्यों सुनाई गई?

आपको बता दें कि 2012 में पोक्सो एक्ट बनाया गया था। इस एक्ट में ऐसा प्रावधान है कि जो भी नाबालिग बच्चों के साथ अश्लीलता भरा व्यवहार करता है उसको तुरंत गिरफ्तार करना चाहिए और उसे जमानत नहीं मिलनी चाहिए तथा पुरुष जेल के अंदर ही रहकर अपने को निर्दोष साबित करे। अब आप भला सोचो किसी ने आप पर झूठा मुकदमा लगा दिया और जेल में भेज दिया और बोले कि अंदर ही बैठे-बैठे अपने-आपको निर्दोष साबित करो तो कैसे संभव है?

ऐसा ही बापू आशारामजी के साथ हुआ, केवल लड़की के बयान पर उनको सजा सुना दी।


आपको स्पष्ट बता देते हैं कि जिस समय लड़की ने छेड़छाड़ का आरोप लगाया है उस समय तो वो अपने मित्र से कॉल पर बात कर रही थी और बापू आशारामजी किसी कार्यक्रम में व्यस्त थे, वहाँ पर 50-60 लोग भी थे, उन्होंने कोर्ट में गवाही भी दी है, लड़की का कॉल डिटेल भी दिया गया है।


आपको ये भी जानना जरूरी है कि लड़की को कुछ साजिश के तहत नाबालिग बताया गया जबकि वो बालिग है क्योंकि लड़की की LIC Policy जो सुनीता सिंह जो Prosecutrix की Mother है, उसने करवाई है, उसको न्यायालय में पेश करवाया जाए,  इसके अंदर जो Date of Birth है वो 1-7-94 है। और प्रथम कक्षा में भी जो Date of Birth लिखी है उससे भी बालिग है। इससे साफ पता चलता है कि किसी साजिश के तहत उनके ऊपर मुकदमा चलाया गया है।

https://youtu.be/qS9W6m59Lek


इन सब तथ्यों को नकारकर लड़की की झूठी कहानी पर उनको आजीवन कारावास दिया गया। 85 वर्ष की उम्र है, स्वास्थ्य खराब है फिर भी 8 साल से जमानत नहीं दी जा रही है।


बता दें कि 2008 में उनके अहमदाबाद आश्रम में एक फैक्स भेजा गया था जिसमें कहा गया था कि 50 करोड़ रुपये दो वर्ना परिणाम भुगतने के लिए तैयार हो जाओ। हम झूठी लड़कियां तैयार करेंगे, प्लांट करेंगे जिसके कारण तुम जिंदगीभर जेल में रहोगे, कभी बाहर नहीं आ सकोगे।


आपने देखा होगा कि 3 दिन पहले बापू आशारामजी के आयुर्वेदिक उपचार के लिए सुनवाई थी उसमें भी गहलोत सरकार विरोध कर रही थी; उनको आयुर्वेदिक चिकित्सा के लिए भी सरकार मना कर रही है इससे साफ पता चलता है कि कितनी बड़ी साजिश होगी।


उनको साजिश के तहत फंसाना और बाहर नहीं आने देना- उसके मुख्य कारण ये हैं:-


1). लाखों धर्मांतरित ईसाइयों को पुनः हिंदू बनाया व करोड़ों हिन्दुओं को अपने धर्म के प्रति जागरूक किया व आदिवासी इलाकों में जाकर धर्म के संस्कार, मकान, जीवनोपयोगी सामग्री दी, जिससे धर्मान्तरण करानेवालों का धंधा चौपट हो गया।


2). कत्लखाने जाती हज़ारों गौ-माताओं को बचाकर उनके लिए विशाल गौशालाओं का निर्माण करवाया।


3). शिकागो विश्व धर्मपरिषद में स्वामी विवेकानंदजी के 100 साल बाद जाकर हिन्दू संस्कृति का परचम लहराया।


4). विदेशी कंपनियों द्वारा देश को लूटने से बचाकर आयुर्वेद/होम्योपैथिक के प्रचार-प्रसार द्वारा एलोपैथिक दवाइयों के कुप्रभाव से असंख्य लोगों का स्वास्थ्य और पैसा बचाया।


5). लाखों-करोड़ों विद्यार्थियों को सारस्वत्य मंत्र देकर और योग व उच्च संस्कार का प्रशिक्षण देकर ओजस्वी-तेजस्वी बनाया।


6). इंग्लैंड, पाकिस्तान, चाईना, अमेरिका और बहुत सारे देशों में जाकर सनातन हिंदू धर्म का ध्वज फहराया।


7). वैलेंटाइन डे का कुप्रभाव रोकने हेतु "मातृ-पितृ पूजन दिवस" का प्रारम्भ करवाया।


8). क्रिसमस डे के दिन प्लास्टिक के क्रिसमस ट्री को सजाने के बजाय तुलसी पूजन दिवस मनाना शुरू करवाया।


9). करोड़ों लोगों को अधर्म से धर्म की ओर मोड़ दिया।


10). नशामुक्ति अभियान के द्वारा लाखों लोगों को व्यसनमुक्त कराया।


11). वैदिक शिक्षा पर आधारित अनेकों गुरुकुल खुलवाए।


12). मुश्किल हालातों में कांची कामकोटि पीठ के "शंकराचार्य श्री जयेंद्र सरस्वतीजी", बाबा रामदेव, मोरारी बापू, साध्वी प्रज्ञा एवं अन्य संतों का साथ दिया।


13. बच्चों के लिए "बाल संस्कार केंद्र", युवाओं के लिए "युवा सेवा संघ",के लिए "महिला उत्थान मंडल" खोलकर उनका जीवन धर्ममय व उन्नत बनाया।


ऐसे अनेक भारतीय संस्कृति के उत्थान के कार्य किये हैं जो विस्तार से नहीं बता पा रहे हैं।


हिंदू संत आशाराम बापू पर जिस तरह से षड्यंत्र हुआ है उसको देखते हुए और उनके द्वारा किए गये राष्ट्र-संस्कृति व समाज उत्थान के सेवाकार्य तथा उनकी उम्र का ध्यान रखते हुए न्यायालय और सरकार को उन्हें शीघ्र रिहा करना चाहिए।


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हर हिंदुस्तानी को बंदा बैरागी का इतिहास पढ़ना चाहिए।

09 जून 2021

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भारतवासी आज जो चैन कि श्वास ले रहे हैं और स्वतंत्रता में जी रहे हैं ये हमारे देश के वीर सपूतों और महापुरुषों के बलिदान के कारण ही संभव हुआ है। उनमें से एक महापुरुष थे बन्दा बैरागी, जिन्होंने अनेक अत्याचार सहकर भी संस्कृति को जीवित रखा पर हम उनके बलिदान दिवस को ही भुल गये हैं।



बाबा बन्दा सिंह बहादुर का जन्म कश्मीर स्थित पुंछ जिले के राजौरी क्षेत्र में विक्रम संवत् 1727, कार्तिक शुक्ल 13 (27 अक्टूबर 1670) को हुआ था। वह राजपूतों के (मिन्हास) भारद्वाज गोत्र से सम्बन्धित थे और उनका वास्तविक नाम लक्ष्मणदेव था। इनके पिता का नाम रामदेव मिन्हास था।


लक्ष्मणदास ने युवावस्था में शिकार खेलते समय एक गर्भवती हिरणी पर तीर चला दिया। इससे उसके पेट से एक शिशु निकला और तड़पकर वहीं मर गया। यह देखकर उनका मन खिन्न हो गया। उन्होंने अपना नाम माधोदास रख लिया और घर छोड़कर तीर्थयात्रा पर चल दिये। अनेक साधुओं से योग साधना सीखी और फिर नान्देड़ में कुटिया बनाकर रहने लगे।


इसी दौरान गुरु गोविन्द सिंह जी माधोदास कि कुटिया में आये। उनके चारों पुत्र बलिदान हो चुके थे। उन्होंने इस कठिन समय में माधोदास से वैराग्य छोड़कर देश में व्याप्त इस्लामिक आतंक से जूझने को कहा। इस भेंट से माधोदास का जीवन बदल गया। गुरुजी ने उसे बन्दा बहादुर नाम दिया। फिर पाँच तीर, एक निशान साहिब, एक नगाड़ा और एक हुक्मनामा देकर दोनों छोटे पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले सरहिन्द के नवाब से बदला लेने को कहा। बन्दा हजारों सिख सैनिकों को साथ लेकर पंजाब कि ओर चल दिये। उन्होंने सबसे पहले श्री गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटने वाले जल्लाद जलालुद्दीन का सिर काटा। फिर सरहिन्द के नवाब वजीरखान का वध किया। जिन हिन्दू राजाओं ने मुगलों का साथ दिया था बन्दा बहादुर ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। इससे चारों ओर उनके नाम की धूम मच गयी।


बन्दासिंह को पंजाब पहुँचने में लगभग चार माह लग गये। बन्दा सिंह महाराष्ट्र से राजस्थान होते हुए नारनौल, हिसार और पानीपत पहुंचे और पत्र भेजकर पंजाब के सभी सिक्खों से सहयोग माँगा। सभी सिखों में यह प्रचार हो गया कि गुरु जी ने बन्दा को उनका जत्थेदार यानी सेनानायक बनाकर भेजा है। बंदा के नेतृत्व में वीर राजपूतो ने पंजाब के किसानो विशेषकर जाटों को अस्त्र शस्त्र चलाना सिखाया, उससे पहले जाट खेती बाड़ी किया करते थे और मुस्लिम जमींदार इनका खूब शोषण करते थे देखते ही देखते सेना गठित हो गयी।


इसके बाद बंदा सिंह का मुगल सत्ता और पंजाब हरियाणा के मुस्लिम जमींदारों पर जोरदार हमला शुरू हो गया। सबसे पहले कैथल के पास मुगल कोषागार लूटकर सेना में बाँट दिया गया, उसके बाद समाना, कुंजुपुरा, सढ़ौरा के मुस्लिम जमींदारों को धूल में मिला दिया।


बन्दा ने पहला फरमान यह जारी किया कि जागीरदारी व्यवस्था का खात्मा करके सारी भूमि का मालिक खेतिहर किसानों को बना दिया जाए।


लगातार बंदा सिंह कि विजय यात्रा से मुगल सत्ता कांप उठी और लगने लगा कि भारत से मुस्लिम शासन को बंदा सिंह उखाड़ फेकेंगे। अब मुगलों ने सिखों के बीच ही फूट डालने कि नीति पर काम किया, उनके विरुद्ध अफवाह उड़ाई गई कि बंदा सिंह गुरु बनना चाहता है और वो सिख पंथ कि शिक्षाओं का पालन नहीं करता। खुद गुरु गोविन्द सिंह जी कि दूसरी पत्नी माता सुंदरी जो कि मुगलो के संरक्षण/नजरबन्दी में दिल्ली में ही रह रही थी, से भी बंदा सिंह के विरुद्ध शिकायते कि गई । माता सुंदरी ने बन्दा सिंह से रक्तपात बन्द करने को कहा जिसे बन्दा सिंह ने ठुकरा दिया।


जिसका परिणाम यह हुआ कि ज्यादातर सिख सेना ने उनका साथ छोड़ दिया जिससे उनकी ताकत कमजोर हो गयी तब बंदा सिंह ने मुगलों का सामना करने के लिए छोटी जातियों और ब्राह्मणों को भी सैन्य प्रशिक्षण दिया।


1715 ई. के प्रारम्भ में बादशाह फर्रुखसियर की शाही फौज (10 लाख सैनिक) ने अब्दुल समद खाँ के नेतृत्व में उसे गुरुदासपुर जिले के धारीवाल क्षेत्र के निकट गुरुदास नंगल गाँव में कई मास तक घेरे रखा। पर मुगल सेना अभी भी बन्दा सिंह से डरी हुई थी।


अब माता सुंदरी के प्रभाव में बाबा विनोद सिंह ने बन्दा सिंह का विरोध किया और अपने सैंकड़ो समर्थको के साथ किला छोड़कर चले गए, मुगलों से समझोते और षड्यंत्र के कारण विनोद सिंह और उसके 500 समर्थको को निकल जाने का सुरक्षित रास्ता दिया गया। अब किले में विनोद सिंह के पुत्र बाबा कहन सिंह किसी रणनीति से रुक गए इससे बन्दा सिंह कि सिक्ख सेना कि शक्ति अत्यधिक कम हो गयी।


खाद्य सामग्री के अभाव के कारण उसने 7 दिसम्बर को आत्मसमर्पण कर दिया। कुछ साक्ष्य दावा करते हैं कि गुरु गोविन्द सिंह जी कि माता गूजरी और दो साहबजादो को धोखे से पकड़वाने वाले गंगू कश्मीरी ब्राह्मण रसोइये के पुत्र राज कौल ने बन्दा सिंह को धोखे से किले से बाहर को राजी किया।


मगलों ने गुरदास नंगल के किले में रहने वाले 40 हजार से अधिक बेगुनाह मर्द, औरतों और बच्चों की निर्मम हत्या कर दी।


मगल सम्राट के आदेश पर पंजाब के गर्वनर अब्दुल समन्द खां ने अपने पुत्र जाकरिया खां और 21 हजार सशस्त्र सैनिकों कि निगरानी में बाबा बन्दा बहादुर को दिल्ली भेजा। बन्दा को एक पिंजरे में बंद किया गया था और उनके गले और हाथ-पांव कि जंजीरों को इस पिंजरे के चारो ओर नंगी तलवारें लिए मुगल सेनापतियों ने थाम रखा था। इस जुलुस में 101 बैलगाड़ियों पर सात हजार सिखों के कटे हुए सिर रखे हुए थे जबकि 11 सौ सिख बन्दा के सैनिक कैदियों के रुप में इस जुलूस में शामिल थे।


यद्ध में वीरगति पाए सिखों के सिर काटकर उन्हें भाले कि नोक पर टाँगकर दिल्ली लाया गया। रास्ते भर गर्म चिमटों से बन्दा बैरागी का माँस नोचा जाता रहा।


🚩मगल इतिहासकार मिर्जा मोहम्मद हर्सी ने अपनी पुस्तक इबरतनामा में लिखा है कि हर शुक्रवार को नमाज के बाद 101 कैदियों को जत्थों के रुप में दिल्ली कि कोतवाली के बाहर कत्लगाह के मैदान में लाया जाता था। काजी उन्हें इस्लाम कबूल करने या हत्या का फतवा सुनाते। इसके बाद उन्हें जल्लाद तलवारों से निर्ममतापूर्वक कत्ल कर देते। यह सिलसिला डेढ़ महीने तक चलता रहा। अपने सहयोगियों कि हत्याओं को देखने के लिए बन्दा को एक पिंजरे में बंद करके कत्लगाह तक लाया जाता ताकि वह अपनी आंखों से इस दर्दनाक दृश्य को देख सकें।


बादशाह के आदेश पर तीन महीने तक बंदा और उसके 27 सेनापतियों को लालकिला में कैद रखा गया। इस्लाम कबूल करवाने के लिए कई हथकंडों का इस्तेमाल किया गया। जब सभी प्रयास विफल रहे तो जून माह में बन्दा कि आंखों के सामने उसके एक-एक सेनापति कि हत्या की जाने लगी। जब यह प्रयास भी विफल रहा तो बन्दा बहादुर को पिंजरे में बंद करके महरौली ले जाया गया। काजी ने इस्लाम कबूल करने का फतवा जारी किया जिसे बन्दा ने ठुकरा दिया।


बन्दा के मनोबल को तोड़ने के लिए उनके चार वर्षीय अबोध पुत्र अजय सिंह को उसके पास लाया गया और काजी ने बन्दा को निर्देश दिया कि वह अपने पुत्र को अपने हाथों से हत्या करे। जब बन्दा इसके लिए तैयार नहीं हुआ तो जल्लादों ने इस अबोध बालक का एक-एक अंग निर्ममतापूर्वक बन्दा कि आंखों के सामने काट डाला। इस मासूम के धड़कते हुए दिल को सीना चीरकर बाहर निकाला गया और बन्दा के मुंह में जबरन ठूंस दिया गया। वीर बन्दा तब भी निर्विकार और शांत बने रहे।


अगले दिन जल्लाद ने उनकी दोनों आंखों को तलवार से बाहर निकाल दिया। जब बन्दा टस से मस न हुआ तो उनका एक-एक अंग हर रोज काटा जाने लगा। अंत में उनका सिर काट कर उनकी हत्या कर दी गई। बन्दा न तो गिड़गिड़ाये और न उन्होंने चीख पुकार मचाई। मुगलों कि हर प्रताड़ना और जुल्म का उसने शांति से सामना किया और धर्म कि रक्षा के लिए बलिदान हो गया।


दश और धर्म के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने और इतनी यातनाएं सहन करने के बाद प्राणों कि आहुति दे दी लेकिन न धर्म बदला और नही अन्याय के सामने कभी झुके। इन वीर महापुरुषों को आज हिंदुस्तानी भूल रहे है और देश को तोड़ने में सहायक हीरो-हीरोइन, क्रिकेटरों का जन्म दिन याद होता है लेकिन आज हम जिनकी वजह से स्वतंत्र है उनका बलिदान दिवस याद नही कितने दुर्भाग्य की बात है ।


इतिहास से हिन्दू आज सबक नही लेगा, संगठित होकर कार्य नही करेगा और हिंदू राष्ट्र कि स्थापना नही होगी तो फिर से विदेशी ताकते हावी होगी और हमें प्रताड़ित करेंगी।


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अग्रेज जिनसे कांपते थे उन बिरसा मुंडा से जानिए- आदिवासी हिंदू थे या नहीं?

 08 जून 2021

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हमारे देश की शिक्षा प्रणाली में सही इतिहास को स्थान ही नहीं दिया गया है। हमारे भारत में ऐसे महान क्रांतिकारी वीर हुए हैं कि जिनकी वीरता की गाथाएं सुनकर आपको भी अपने पूर्वजों पर गर्व होने लगेगा। ऐसे ही एक महान वीर थे बिरसा मुंडा। 9 जून को उनका बलिदान दिवस है पर इतिहास में उनके बारे में हमें जानकारी नहीं मिलती है, जिससे आज हम भूल गये हैं या यूं कहें कि आज की युवा पीढ़ी उनको जानती तक नहीं है।



राष्ट्र को तोड़नेवाली ताकतों के इशारे पर कुछ लोग तो यह प्रचार करने लग जाते हैं कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं पर बिरसा मुंडा का परिचय जानकर आप भी बोलेंगे कि आदिवासी भी हिंदू ही हैं।


बिरसा मुंडा का परिचय-


सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड प्रदेश में रांची के उलीहातू गांव में हुआ था। वे ‘बिरसा भगवान’ के नाम से लोकप्रिय थे। बिरसा का जन्म बृहस्पतिवार को हुआ था, इसलिए मुंडा जनजातियों की परंपरा के अनुसार उनका नाम ‘बिरसा मुंडा’ रखा गया। इनके पिता एक खेतिहर मजदूर थे। वे बांस से बनी एक छोटी सी झोंपड़ी में अपने परिवार के साथ रहते थे।


बिरसा बचपन से ही बड़े प्रतिभाशाली थे। बिरसा का परिवार अत्यंत गरीबी में जीवन-यापन कर रहा था। गरीबी के कारण ही बिरसा को उनके मामा के पास भेज दिया गया जहां वे एक विद्यालय में जाने लगे। विद्यालय के संचालक बिरसा की प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने बिरसा को जर्मन मिशन पाठशाला में पढ़ने की सलाह दी। वहां पढ़ने के लिए ईसाई धर्म स्वीकार करना अनिवार्य था। अतः बिरसा और उनके सभी परिवारवालों ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया।


हिंदुत्व की प्रेरणा-


सन् 1886 से 1890 तक का समय बिरसा ने जर्मन मिशन में बिताया। इसके बाद उन्होंने जर्मन मिशनरी की सदस्यता त्याग दी और प्रसिद्ध वैष्णव भक्त आनंद पांडे के संपर्क में आये। 1894 में मानसून के छोटानागपुर में असफल होने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की। बिरसा ने आनंद पांडेजी से धार्मिक शिक्षा ग्रहण की। आनंद पांडेजी के सत्संग से उनकी रुचि भारतीय दर्शन और संस्कृति के रहस्यों को जानने की ओर हो गयी। धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ उन्होंने रामायण, महाभारत, हितोपदेश, गीता आदि धर्मग्रंथों का भी अध्ययन किया। इसके बाद वे सत्य की खोज के लिए एकांत स्थान पर कठोर साधना करने लगे। लगभग चार वर्ष के एकांतवास के बाद जब बिरसा प्रकट हुए तो वे एक हिंदू महात्मा की तरह पीला वस्त्र, लकड़ी की खडाऊं और यज्ञोपवीत धारण करने लगे थे।


धर्मांतरण का विरोध-


बिरसा ने हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति का प्रचार करना शुरू कर दिया। ईसाई धर्म स्वीकार करनेवाले वनवासी बंधुओं को उन्होंने समझाया कि ईसाई धर्म हमारा अपना धर्म नहीं है; यह अंग्रेजों का धर्म है वे हमारे देश पर शासन करते हैं, इसलिए वे हमारे हिंदू धर्म का विरोध और ईसाई धर्म का प्रचार कर रहे हैं। ईसाई धर्म अपनाने से हम अपने पूर्वजों की श्रेष्ठ परंपरा से विमुख होते जा रहे हैं। अब हमें जागना चाहिए। उनके विचारों से प्रभावित होकर बहुत से वनवासी उनके पास आने लगे और उनके शिष्य बन गए।


वन अधिकारी वनवासियों के साथ ऐसा व्यवहार करते थे जैसे उनके सभी अधिकार समाप्त कर दिए गए हों। वनवासियों ने इसका विरोध किया और अदालत में एक याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने अपने पुराने पैतृक अधिकारों को बहाल करने की मांग की। इस याचिका पर सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। बिरसा मुंडा ने वनवासी किसानों को साथ लेकर स्थानीय अधिकारियों के अत्याचारों के विरुद्ध याचिका दायर की। इस याचिका का भी कोई परिणाम नहीं निकला।


वनवासियों का संगठन-


बिरसा के विचारों का वनवासी बंधुओं पर गहरा प्रभाव पड़ा। धीरे-धीरे बड़ी संख्या में लोग उनके अनुयायी बनते गए। बिरसा उन्हें प्रवचन सुनाते और अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा देते। इस प्रकार उन्होंने वनवासियों का संगठन बना लिया। बिरसा के बढ़ते प्रभाव और लोकप्रियता को देखकर अंग्रेज मिशनरी चिंतित हो उठे। उन्हें डर था कि बिरसा द्वारा बनाया गया वनवासियों का यह संगठन आगे चलकर मिशनरियों और अंग्रेजी शासन के लिए संकट बन सकता है। अतः बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया।


अग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने का संकल्प-


बिरसा की चमत्कारी शक्ति और उनकी सेवाभावना के कारण वनवासी उन्हें भगवान का अवतार मानने लगे थे। अतः उनकी गिरफ्तारी से सारे वनांचल में असंतोष फैल गया। वनवासियों ने हजारों की संख्या में एकत्रित होकर पुलिस थाने का घेराव किया और उनको निर्दोष बताते हुए उन्हें छोडने की मांग की। अंग्रेजी सरकार ने वनवासी मुंडाओं पर भी राजद्रोह का आरोप लगाकर उनपर मुकदमा चला दिया। बिरसा को दो वर्ष के सश्रमावास की सजा सुनाई गयी और फिर हजारीबाग की जेल में भेज दिया गया। बिरसा का अपराध यह था कि उन्होंने वनवासियों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने हेतु संगठित किया था। जेल जाने के बाद बिरसा के मन में अंग्रेजों के प्रति घृणा और बढ़ गयी और उन्होंने अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया।


दो वर्ष की सजा पूरी करने के बाद बिरसा को जेल से मुक्त कर दिया गया। उनकी मुक्ति का समाचार पाकर हजारों की संख्या में वनवासी उनके पास आये। बिरसा ने उनके साथ गुप्त सभाएं की और अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष के लिए उन्हें संगठित किया। अपने साथियों को उन्होंने शस्त्र संग्रह करने, तीर कमान बनाने और कुल्हाड़ी की धार तेज करने जैसे कार्यों में लगाकर उन्हें सशस्त्र क्रान्ति की तैयारी करने का निर्देश दिया। सन 1899 में इस क्रांति का श्रीगणेश किया गया। बिरसा के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने रांची से लेकर चाईबासा तक की पुलिस चौकियों को घेर लिया और ईसाई मिशनरियों तथा अंग्रेज अधिकारियों पर तीरों की बौछार शुरू कर दी। रांची में कई दिनों तक कर्फ्यू जैसी स्थिति बनी रही। घबराकर अंग्रेजों ने हजारीबाग और कलकत्ता से सेना बुलवा ली।


राष्ट्र हेतु सर्वस्व अर्पण-


अब बिरसा के नेतृत्व में वनवासियों ने अंग्रेज सेना से सीधी लड़ाई छेड़ दी। अंग्रेजों के पास बंदूक, बम आदि आधुनिक हथियार थे, जबकि वनवासी क्रांतिकारियों के पास उनके साधारण हथियार तीर-कमान आदि ही थे। बिरसा और उनके अनुनायियों ने अपनी जान की बाजी लगाकर अंग्रेज सेना का मुकाबला किया। अंत में बिरसा के लगभग चार सौ अनुयायी मारे गए। इस घटना के कुछ दिन बाद अंग्रेजों ने धोखे से सोये हुए बिरसाको जंगल से गिरफ्तार कर लिया। उन्हें जंजीरों में जकड़कर रांची जेलमें भेज दिया गया, जहां उन्हें कठोर यातनाएं दी गयीं। बिरसा हंसते-हंसते सब कुछ सहते रहे और अंत में 9 जून 1900 को कारावास में उनका देहावसान हो गया। बिरसा ने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन को नयी दिशा देकर भारतीयों, विशेषकर वनवासियों में स्वदेश प्रेम की भावना जाग्रत की।


बिरसा मुंडा की गणना महान देशभक्तों में की जाती है। उन्होंने वनवासियों को संगठित कर उन्हें अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए तैयार किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने भारतीय संस्कृति की रक्षा करने के लिए धर्मांतरण करने वाले ईसाई मिशनरियों का विरोध किया। ईसाई धर्म स्वीकार करनेवाले हिन्दुओं को उन्होंने अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की जानकारी दी और अंग्रेजों के षडयन्त्र के प्रति सचेत किया। आज भी झारखण्ड, उड़ीसा, बिहार, पश्चिम बंगाल और मध्यप्रदेश के वनवासी लोग बिरसा को भगवान के रूपमें पूजते हैं। 

अपने पच्चीस वर्ष के अल्प जीवनकाल में ही उन्होंने वनवासियों में स्वदेशी तथा सनातन हिंदू संस्कृति के प्रति जो प्रेरणा जगाई वह अतुलनीय है। धर्मांतरण, शोषण और अन्याय के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का संचालन करने वाले महान सेनानायक थे- ‘बिरसा मुंडा’।


आज भी भारत में वेटिकन सिटी के इशारे पर भारत में ईसाई मिशनरियों द्वारा पुरजोर से धर्मान्तरण किया जा रहा है, आदिवासियों को भ्रमित किया जा रहा है कि तुम हिंदू नहीं हो लेकिन जनता को बिरसा मुंडा के पथ पर चलना चाहिए। जो हिन्दू संस्कृति को तोड़ने के लिए ईसाई मिशनरियों ने भारत में धर्मान्तरणरूपी जाल बिसाया है इसमें भोले-भाले हिन्दू फँस जाते हैं और कोई हिन्दूनिष्ठ विरोध करता है तो उनकी हत्या करवा दी जाती है या मीडिया द्वारा बदनाम करवाकर झूठे केस बनाकर जेल में भिजवाया जाता है। 


हिन्दुस्तानियों, जितनी जल्दी हो सके इन षड्यंत्रों को समझो और बिरसा मुंडा के पथ पर चलो।


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आशाराम बापू के केस में क्या है, उनको जमानत क्यों नहीं मिल रही है?

07 जून 2021

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शकराचार्य जयेंद्र सरस्वती पर 2004 में जब मर्डर केस लगा था उस समय शंकराचार्यजी को हिरासत में लिया गया था। उसके बाद उनके ही मठ के लोग उनके खिलाफ बोलना शुरू कर दिये थे पर हिन्दू संत आशारामजी बापू जंतर-मंतर पर धरने पर बैठ गए, उसके बाद वहाँ पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, पूर्व राष्ट्रपति आदि बहुत सारी हस्तियां आ गईं और शंकराचार्यजी को रिहा किया गया।



उसके बाद साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को गिरफ्तार किया; उनपर अनगिनत अत्याचार किये जा रहे थे तब आशाराम बापू उनको जाकर मिले। उनको मिलने नहीं दे रहे थे तब आशाराम बापू ने सरकार को धमकी दी थी कि मिलने नहीं देंगे तो हम अन्न-जल छोड़कर धरना देंगे करोडों भक्तों के साथ, तब सरकार-प्रशासन डर गया और साध्वी प्रज्ञा ठाकुर से मिलने दिया।


मोरारी बापू की मीडिया में बदनामी शुरू हुई तब उसका खंडन आशाराम बापू ने किया और जनता को सच्चाई बताई। बाबा रामदेव की भी मीडिया में जब बदनामी शुरू हुई तब आशाराम बापू ने सबको बताया कि बाबा रामदेव की झूठी बदनामी की जा रही है। जब बाबा रामदेव पर रामलीला मैदान में लाठीचार्ज हुआ तब आशाराम बापू ने कहा था- "सोनिया गांधी, भारत छोड़ो।" 


ऐसे कई अनगिनत साधु-संतों पर अत्याचार कॉंग्रेस सरकार में हो रहा था तब बापू आशारामजी ने उनके लिए आवाज उठाई, सभी साधु-संतों को एक किया; उसके बाद उनके खिलाफ षड्यंत्र शुरू हो गया।


बापू आशारामजी को 2008 में जेल भेजने की तैयारी थी। उनके गुरुकुल के 2 बच्चों की मौत संदिग्ध तरीके से हुई थी, इसको लेकर मीडिया ने उनके खिलाफ बहुत कुप्रचार किया पर उसमें उनको सुप्रीम कोर्ट से क्लीनचिट मिल गई।


उसके बाद 2013 में एक लड़की द्वारा रात को 2:45 को दिल्ली में छेड़छाड़ के मामले में जीरो एफआईआर हुई। लेकिन उस एफआईआर की ओरिजनल और कार्बन कॉपी अलग-अलग थी, आरोप लगानेवाली लड़की की वीडियो रिकॉर्डिंग गायब कर दी गई।


आरोप लगानेवाली लड़की का मेडिकल रिपोर्ट निकलवाया। उसमें साफ लिखा है कि लड़की को टच भी नहीं किया गया है अर्थात् लड़की के साथ कुछ नहीं हुआ है।


तीसरा, जिस समय लड़की ने छेड़छाड़ का आरोप लगाया है उस समय तो वो अपने मित्र से कॉल पर बात कर रही थी और बापू आशारामजी किसी कार्यक्रम में व्यस्त थे, वहाँ पर 50-60 लोग भी थे, उन्होंने कोर्ट में गवाही भी दी है, लड़की का कॉल डिटेल भी दिया गया है।


2008 में उनके अहमदाबाद आश्रम में एक फैक्स भेजा गया था जिसमें कहा गया था कि 50 करोड़ रुपये दो वर्ना उसके परिणाम भुगतने के लिए तैयार हो जाओ। हम झूठी लड़कियां तैयार करेंगे, प्लांट करेंगे जिसके कारण तुम जिंदगीभर जेल में रहोगे, कभी बाहर नहीं आ सकोगे।


इन सब तथ्यों को नकारकर लड़की की झूठी कहानी पर उनको आजीवन कारावास दिया गया। 85 वर्ष की उम्र है, स्वास्थ्य खराब है फिर भी 8 साल से जमानत नहीं दी जा रही है।


आपको बता दें कि बापू आशारामजी ने लाखों हिंदुओं की घर वापसी करवाई, आदिवासी व गरीब इलाकों में जाकर उनको सनातन धर्म का ज्ञान देकर व मकान, पैसे व जीवनोपयोगी सामग्री देकर धर्मांतरण पर रोक लगाई; उन्होंने स्वामी विवेकानंदजी के 100 साल बाद शिकागो में विश्व धर्मपरिषद में भारत का नेतृत्व किया था। उन्होंने बच्चों को भारतीय संस्कृति के दिव्य संस्कार देने के लिए देश में 17000 बाल संस्कार खोल दिये थे, वेलेंटाइन डे की जगह मातृ-पितृ पूजन शुरू करवाया, क्रिसमस की जगह तुलसी पूजन शुरू करवाया, वैदिक गुरुकुल खोले, करोड़ों लोगों को व्यसनमुक्त किया; ऐसे अनेक भारतीय संस्कृति के उत्थान के कार्य किये हैं जो विस्तार से नहीं बता पा रहे हैं। इसके कारण आज वे जेल में हैं।


अब हिंदुओं को उनका साथ देना चाहिए, षड्यंत्र का पर्दाफाश करना चाहिए व उन्हें जेल से रिहा होना चाहिए, क्योंकि वे हमारे जैसे लाखों हिंदुओं की लड़ाई अकेले लड़ रहे थे। अब हमारा कर्तव्य है- उनका साथ दें।


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भारत के इस इतिहास को छुपा दिया, हर भारतीय को यह पढ़ना चाहिए

06 जून 2021

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वीर छत्रपति शिवाजी का राज्याभिषेक

6 जून 1674 को हुआ था। शिवाजी के सिंहासन आरोहण का प्रभाव अगली एक शताब्दी तक हम पूरे भारत में देखते हैं जब मराठा शक्ति पूरे भारत पर छा गई। 



भारतीय इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में औरंगजेब और शिवाजी के संघर्ष के पश्चात चुनिन्दा घटनाओं को ही प्राथमिकता से बताया जाता है जैसे कि नादिर शाह और अहमद शाह अब्दाली द्वारा भारत पर आक्रमण करना, पलासी की लड़ाई में सिराज-उद-दौलाह की हार और अंग्रेजों का बंगाल पर राज होना और मराठों की पानीपत के युद्ध में हार होना। उसके पश्चात टीपू सुल्तान की हार, सिखों का उदय और अस्त से 1857 के संघर्ष तक वर्णन मिलता है। एक प्रश्न उठता है कि इतिहास के इस लंबे 100 वर्ष के समय में भारत के असली शासक कौन थे? शक्तिहीन मुग़ल तो दिल्ली के नाममात्र के शासक थे परन्तु उस काल का अगर कोई असली शासक था, तो वह थे मराठे। शिवाजी महाराज द्वारा देश, धर्म और जाति की रक्षा के लिए जो अग्नि महाराष्ट्र से प्रज्वलित हुई थी उसकी सीमाएँ महाराष्ट्र के बाहर फैल कर देश की सीमाओं तक पहुँच गई थी। इतिहास के सबसे रोचक इस स्वर्णिम सत्य को देखिये कि जो मतान्ध औरंगजेब, वीर शिवाजी महाराज को पहाड़ी चूहा कहता था उन्हीं शिवाजी के वंशजों को उसी औरंगजेब के वंशजों ने "महाराजाधिराज "और "वज़ीरे मुतालिक" के पद से सुशोभित किया था। जिस सिंध नदी के तट पर आखिरी हिन्दू राजा पृथ्वीराज चौहान के घोड़े पहुँचे थे उसी सिंध नदी पर कई शताब्दियों के बाद अगर भगवा ध्वज लेकर कोई पहुँचा तो वह मराठा घोड़ा था। सिंध के किनारों से लेकर मदुरै तक, कोंकण से लेकर बंगाल तक मराठा सरदार सभी प्रान्तों से चौथ के रूप में कर वसूल करते थे, स्थान स्थान पर अपने विरुद्ध उठ रहे विद्रोहों को दबाते थे, जंजीरा के सिद्दियों को हिन्दू मंदिरों को भ्रष्ट करने का दंड देते थे, पुर्तगालियों द्वारा हिन्दुओं को जबरदस्ती ईसाई बनाने पर उन्हें यथायोग्य दंड देते थे, अंग्रेज सरकार जो अपने आपको अजेय और विश्व विजेता समझती थी उनसे मराठे समुद्री व्यापार करने के लिए टैक्स लेते थे, देश में स्थान स्थान पर हिन्दू तीर्थों और मन्दिरों का पुनरुद्धार करते थे जिन्हें मुसलमानों ने नष्ट कर दिया था, जबरन मुसलमान बनाये गए हिन्दुओं को फिर से शुद्ध कर हिन्दू बनाते थे। मराठों के राज में सम्पूर्ण आर्यावर्त राष्ट्र में फिर से भगवा झन्डा लहराता था और वेद, गौ और ब्राह्मण की रक्षा होती थी।


अग्रेज लेखकों और उनके मानसिक गुलाम साम्यवादी लेखकों द्वारा एक शताब्दी से भी अधिक के हिंद के इस स्वर्णिम राज को पाठ्य पुस्तकों में न लिखा जाना इतिहास के साथ खिलवाड़ नहीं तो और क्या है।

हम न भूलें कि "जो राष्ट्र अपने प्राचीन गौरव को भुला देता है, वह अपनी राष्ट्रीयता के आधार स्तम्भ को खो देता है।"


उलटी गंगा बहा दी


वीर शिवाजी का जन्म 1627 में हुआ था। उनके काल में देश के हर भाग में मुसलमानों का ही राज्य था। यदा कदा कोई हिन्दू राजा संघर्ष करता तो उसकी हार, उसीकी कौम के किसी विश्वासघाती के कारण हो जाती, हिन्दू मंदिरों को भ्रष्ट कर दिया जाता, उनमें गाय की क़ुरबानी देकर हिन्दुओं को नीचा दिखाया जाता था। हिन्दुओं की लड़कियों को उठा कर अपने हरम की शोभा बढ़ाना अपने आपको धार्मिक सिद्ध करने के समान था। ऐसे अत्याचारी परिवेश में वीर शिवाजी का संघर्ष हिन्दुओं के लिए एक वरदान से कम नहीं था। हिन्दू जनता के कान सदियों से यह सुनने के लिए थक गए थे कि किसी हिन्दू ने मुसलमान पर विजय प्राप्त की। 


1642 से शिवाजी ने बीजापुर सल्तनत के किलों पर अधिकार करना आरंभ कर दिया। कुछ ही वर्षों में उन्होंने मुग़ल किलों को अपनी तलवार का निशाना बनाया। औरंगजेब ने शिवाजी को परास्त करने के लिए अपने बड़े बड़े सरदार भेजे पर सभी नाकामयाब रहे। आखिर में धोखे से शिवाजी को आगरा बुलाकर कैद कर लिया जहाँ पर अपनी चतुराई से शिवाजी बच निकले। औरंगजेब पछताने के सिवाय कुछ न कर सका। शिवाजी ने मराठा हिन्दू राज्य की स्थापना की और अपने आपको छत्रपति से सुशोभित किया। शिवाजी की अकाल मृत्यु से उनका राज्य महाराष्ट्र तक ही फैल सका था। उनके पुत्र शम्भाजी में चाहे कितनी भी कमियां हों पर अपने बलिदान से शम्भाजी ने अपने सभी पाप धो डाले। औरंगजेब ने शम्भाजी के आगे दो ही विकल्प रखे थे या तो मृत्यु का वरण कर ले अथवा इस्लाम को ग्रहण कर ले। वीर शिवाजी के पुत्र ने भयंकर अत्याचार सह कर मृत्यु का वरण कर लिया पर इस्लाम को ग्रहण कर अपनी आत्मा से दगाबाजी नहीं की और हिन्दू स्वतंत्रतारुपी वृक्ष को अपने रुधिर से सींच कर और हरा भरा कर दिया।

शिवाजी की मृत्यु के पश्चात औरंगजेब ने सोचा कि मराठों के राज्य को नष्ट कर दे परन्तु मराठों ने वह आदर्श प्रस्तुत किया जिसे हिन्दू जाति को सख्त आवश्यकता थी। उन्होंने किले आदि त्याग कराड़ों और जंगलों की राह ली। संसार में पहली बार मराठों ने छापामार युद्ध को आरंभ किया। जंगलों में से मराठे वीर गति से आते और भयंकर मारकाट कर, मुगलों के शिविर को लूटकर वापिस जंगलों में भाग जाते। शराब-शबाब की शौकीन आरामपस्त मुग़ल सेना इस प्रकार के युद्ध के लिए कही से भी तैयार नहीं थी। दक्कन में मराठों से 20 वर्षों के युद्ध में औरंगजेब बुढ़ा होकर निराश हो गया, करीब ३ लाख की उसकी सेना काल की ग्रास बन गई। उसके सभी विश्वासपात्र सरदार या तो मर गए अथवा बूढ़े हो गए। पर वह मराठों के छापामार युद्ध से पार न पा सका। पाठक मराठों की विजय का इसीसे अंदाजा लगा सकते हैं कि औरंगजेब ने जितनी संगठित फौज शिवाजी के छोटे से असंगठित राज्य को जितने में लगा दी थी उतनी फौज में तो उससे 10 गुना बड़े संगठित राज्य को जीता जा सकता था। अंत में औरंगजेब की भी 1705 में मृत्यु हो गई परन्तु तब तक पंजाब में सिख, राजस्थान में राजपूत, बुंदेलखंड में छत्रसाल, मथुरा, भरतपुर में जाटों आदि ने मुगलिया सल्तनत की ईंट से ईंट बजा दी थी। मराठों द्वारा औरंगजेब को दक्कन में उलझाने से मुगलिया सल्तनत इतनी कमजोर हो गई कि बाद में उसके उत्तराधिकारियों की आपसी लड़ाई के कारण ताश के पत्तों के समान वह ढह गई। इस उलटी गंगा बहाने का सारा श्रेय वीर शिवाजी को जाता है।


सवार्थ से बड़ा जाति अभिमान


इतिहास इस बात का गवाह है कि मुगलों का भारत में राज हिन्दुओं की एकता में कमी होने के कारण ही स्थापित हो सका था।

अकबर के काल से ही हिन्दू राजपूत एक ओर अपने ही देशवासियों से, अपनी ही कौम से अकबर के लिए लड़ रहे थे वहीं दूसरी ओर अपनी बेटियों की डोलियों को मुगल हरमों में भेज रहे थे। औरंगजेब ने जीवन की सबसे बड़ी गलती यही की कि उसने काफ़िर समझ कर राजपूतों का अपमान करना आरंभ कर दिया जिससे न केवल उसकी शक्ति कम हो गई अपितु उसकी सल्तनत में चारों ओर से विरोध आरंभ हो गया। भातृत्व की भावना को पनपने का मौका मिला और भाई ने भाई को अपने स्वार्थ और परस्पर मतभेद को त्याग कर गले से लगाया। शिवाजी के पुत्र राजाराम के नेतृत्व में मराठों ने जिनजी के किले से संघर्ष आरंभ कर दिया था। मराठों के सेनापति खान्डोबलाल ने उन मराठा सरदारों को जो कभी जिनजी के किले को घेरने में मुगलों का साथ दे रहे थे अपनी ओर मिलाना आरंभ कर दिया। नागोजी राणे को पत्र लिख कर समझाया गया कि वे मुगलों का साथ न देकर अपनों का साथ दें जिससे देश, धर्म और जाति का कल्याण हो सके। नागोजी ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार किया और अपने 5000 आदमियों को साथ लेकर वे मराठा खेमे में आ मिले।

अगला लक्ष्य शिरका था जो अभी भी मुगलों की चाकरी कर रहा था। शिरका ने अपने अतीत को याद करते हुए राजाराम के उस फैसले को याद दिलाया जब राजाराम ने यह आदेश जारी किया था कि जहाँ भी कोई शिरका मिले उसे मार डालो। शिरका ने यह भी कहा कि राजाराम क्या वह तो उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा है जब पूरा भोंसले खानदान मृत्यु को प्राप्त होगा तभी उसे शांति मिलेगी। खान्डोबलाल शिरका के उत्तर को पाकर तनिक भी हतोत्साहित नहीं हुआ। उन्होंने शिरका को पत्र लिखकर कहा कि यह समय परस्पर मतभेदों को प्रदर्शित करने का नहीं है। मेरे भी परिवार के तीन सदस्यों को राजाराम ने हाथी के तले कुचलवा दिया था। मैं राजाराम के लिए नहीं अपितु हिन्दू स्वराज्य के लिए संघर्ष कर रहा हूँ। इस पत्र से शिरका का हृदय द्रवित हो गया और उसके भीतर हिन्दू स्वाभिमान जाग उठा। उसने मराठों का हरसंभव साथ दिया और मुगलों के घेरे से राजाराम को छुड़वा कर सुरक्षित महाराष्ट्र पहुँचा दिया।


काश अगर जयचंद ने यही शिक्षा मुहम्मद गोरी के आक्रमण के समय ले ली होती तो भारत से पृथ्वीराज चौहान के हिन्दू राज्य का कभी अस्त न होता।


🚩महाराष्ट्र से भारत के कोने कोने तक


मराठों ने मराठा संघ की स्थापना कर महाराष्ट्र के सभी सरदारों को एक तार में बांध कर, अपने सभी मतभेदों को भुला कर, संगठित हो अपनी शक्ति का पुन: निर्माण किया जो शिवाजी महाराज की मृत्यु के बाद लुप्त सी हो गई थी। इसी शक्ति से मराठा वीर सम्पूर्ण भारत पर छाने लगे। महाराष्ट्र से तो मुगलों को पहले ही उखाड़ दिया गया था। अब शेष भारत की बारी थी। सबसे पहले निज़ाम के होश ठिकाने लगाकर मराठा वीरों ने बची हुई चौथ और सरदेशमुखी की राशि को वसूला गया। दिल्ली में अधिकार को लेकर छिड़े संघर्ष में मराठों ने सैयद बंधुओं का साथ दिया। 70,000 की मराठा फौज को लेकर हिन्दू वीर दिल्ली पहुँच गये। इससे दिल्ली के मुसलमान क्रोध में आ गये। इस मदद के बदले मराठों को सम्पूर्ण दक्षिण भारत से चौथ और सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार मिल गया।


मालवा के हिन्दू वीरों ने जय सिंह के नेतृत्व में मराठों को मुगलों के राज से छुड़वाने के लिए प्रार्थना भेजी क्यूंकि उस काल में केवल मराठा शक्ति ही मुगलों के आतंक से देश को स्वतंत्र करवा सकती थी। मराठा वीरों की 70,000 की फौज ने मुगलों को हरा कर गवा झंडे से पूरे प्रान्त को रंग दिया।


बुंदेलखंड में वीर छत्रसाल ने अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की थी। शिवाजी और उनके गुरु रामदास को वे अपना आदर्श मानते थे। वृद्धावस्था में उनके छोटे से राज्य पर मुगलों ने हमला कर दिया जिससे उन्हें राजधानी त्याग कर जंगलों की शरण लेनी पड़ी। इस विपत्ति काल में वीर छत्रसाल ने मराठों को सहयोग के लिए आमंत्रित किया। मराठों ने वर्षा ऋतु होते हुए भी आराम कर रही मुग़ल सेना पर धावा बोल दिया और उन्हें मार भगाया। वीर छत्रसाल ने अपनी राजधानी में फिर से प्रवेश किया। मराठों के सहयोग से आप इतने प्रसन्न हुए कि आपने बाजीराव को अपना तीसरा पुत्र बना लिया और उनकी मृत्यु के पश्चात उनके राज्य का तीसरा भाग बाजीराव को मिला।


इसके पश्चात गुजरात की ओर मराठा सेना पहुँच गई। मुगलों ने अभय सिंह को मराठों से युद्ध लड़ने के लिये भेजा। उसने एक स्थान पर धोखे से मराठा सरदार की हत्या तक कर दी पर मराठा कहाँ मानने वाले थे। उन्होंने युद्ध में जो जौहर दिखाए कि मराठा तलवार की धाक सभी ओर जम गई। इधर दामाजी गायकवाड़ ने अभय सिंह के जोधपुर पर हमला कर दिया जिसके कारण उसे वापिस लौटना पड़ा। मराठों ने बरोडा और अहमदाबाद पर कब्ज़ा कर लिया।

 

दक्षिण में अरकाट में हिन्दू राजा को गद्दी से उतार कर एक मुस्लिम वहां का नवाब बन गया था। हिन्दू राजा के मदद मांगने पर मराठों ने वहाँ पर आक्रमण कर दिया और मुस्लिम नवाब पर विजय प्राप्त की। मराठों को वहाँ से एक करोड़ रुपया प्राप्त हुआ। इससे मराठों का कार्य क्षेत्र दक्षिण तक फैल गया। इसी प्रकार बंगाल में भी गंगा के पश्चिमी तट तक मराठों का विजय अभियान जारी रहा एवं बंगाल से भी उचित राशि वसूल कर मराठे अपने घर लौटे। मैसूर में भी पहले हैदर अली और बाद में टीपू सुल्तान से मराठों ने चौथ वसूली की थी।

दिल्ली के कागज़ी बादशाह ने फिर से मराठों का विरोध करना आरंभ कर दिया। बाजीराव ने मराठों की फौज को जैसे ही दिल्ली भेजा उनके किलों की नीवें मराठा सैनिकों की पदचाप से हिलने लगी। आखिर में अपनी भूल का प्रायश्चित करके मराठा क्षत्रियों से उन्होंने पीछा छुड़ाया। अहमद शाह अब्दाली से युद्ध के काल में ही मराठा उसका पीछा करते हुए सिंध नदी तक पहुँच गये थे। पंजाब की सीमा पर कई शताब्दियों के मुस्लिम शासन के पश्चात मराठा घोड़े सिंध नदी तक पहुँच पाए थे। मराठों के इस प्रयास से एवं पंजाब में मुस्लिम शासन के कमजोर होने से सिख सत्ता को अपनी उन्नति करने का यथोचित अवसर मिला जिसका परिणाम आगे महाराजा रणजीत सिंह का राज्य था। इस प्रकार सिंध के किनारों से लेकर मदुरै तक, कोंकण से लेकर बंगाल तक मराठा सरदार सभी प्रान्तों से चौथ के रूप में कर वसूल करते थे, स्थान स्थान पर अपने विरुद्ध उठ रहे विद्रोहों को दबाते थे और भगवा पताका को फहरा कर हिन्दू पद पादशाही को स्थिर कर रहे थे। इन सब प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि करीब एक शताब्दी तक मराठों का भारत देश पर राज रहा जो कि विशुद्ध हिन्दू राज्य था।


थल से जल तक


वीर शिवाजी के समय से ही मराठा फौज अपनी जल सेना को मजबूत करने में लगी हुई थी। इस कार्य का नेतृत्व कान्होजी आंग्रे के कुशल हाथों में था। कान्होजी को जंजिरा के मुस्लिम सिद्दी, गोआ के पुर्तगाली, बम्बई के अंग्रेज और डच लोगों का सामना करना पड़ता था जिसके लिए उन्होंने बड़ी फौज की भर्ती की थी। इस फौज के रखरखाव के लिये आप उस रास्ते से आने जानेवाले सभी व्यापारी जहाजों से कर लेते थे। अंग्रेज यही काम सदा से करते आये थे इसलिए उन्हें यह कैसे सहन होता। बम्बई के समुद्र तट से 16 मील की दूरी पर खाण्डेरी द्वीप पर मराठों का सशक्त किला था। इतिहासकार कान्होजी आंग्रे को समुद्री डाकू के रूप में लिखते हैं जबकि वे कुशल सेनानायक थे। 1717 में बून चार्ल्स बम्बई का गवर्नर बन कर आया। उसने मराठों से टक्कर लेने की सोची। उसने जहाजों का बड़ा बेड़ा और पैदल सेना तैयार कर मराठों के समुद्री दुर्ग पर हमला कर दिया। अंग्रेजों ने अपने जहाजों के नाम भी रिवेंज, विक्ट्री, हॉक और हंटर आदि रखे थे। पूरी तैयारी के साथ अंग्रेजों ने मराठों के दुर्ग पर हमला किया पर मराठों के दुर्ग कोई मोम के थोड़े ही बने थे। अंग्रेजों को मुँह की खानी पड़ी। अगले साल फिर हमला किया फिर मुँह की खानी पड़ी। तंग आकर इंग्लैंड के महाराजा ने कोमोडोर मैथयू के नेतृत्व में एक बड़ा बेड़ा मराठों से लड़ने के लिए भेजा। इस बार पुर्तगाल की सेना को भी साथ में ले लिया गया। बड़ा भयानक युद्ध हुआ। कोमोडोर मैथयू स्वयं आगे बढ़ बढ़ कर नेतृत्व कर रहा था। मराठा सैनिक ने उसकी जांघ में संगीन घुसेड़ दी, उसने दो गोलियाँ भी चलाई पर वह खाली गई क्यूंकि मराठों के आतंक और जल्दबाजी में वह उसमें बारूद ही भरना भूल गया। अंत में अंग्रेजों और पुर्तगालियों की संयुक्त सेना की हार हुई। दोनों एक दूसरे को कोसते हुए वापिस चले गए। डच लोगों के साथ युद्ध में भी उनकी यही गति बनी। मराठे थल से कर जल तक के राजा थे।


बरह्मेन्द्र स्वामी और सिद्दी मुसलमानों का अत्याचार


ब्रह्मेन्द्र स्वामी को महाराष्ट्र में वही स्थान प्राप्त था जो स्थान शिवाजी के काल में समर्थ गुरु रामदास को प्राप्त था। सिद्दी कोंकण में राज करते थे मराठों के विरुद्ध पुर्तगालियों, अंग्रेजों और डच आदि की सहायता से उनके इलाकों पर हमले करते थे। इसके अलावा उनका एक पेशा निर्दयता से हिन्दू लड़के और लड़कियों को उठा कर ले जाना और मुसलमान बनाना भी था। इसी सन्दर्भ में सिद्दी लोगों ने भगवान परशुराम के मंदिर को तोड़ डाला। यह मंदिर ब्रह्मेन्द्र स्वामी को बहुत प्रिय था। उन्होंने निश्चय किया कि वह कोंकण देश में जब तक वापिस नहीं आयेंगे जब तक उनके पीछे अत्याचारी मलेच्छ को दंड देनेवाली हिन्दू सेना नहीं होगी क्यूंकि सिद्दी लोगों ने मंदिर और ब्राह्मण का अपमान किया है। स्वामीजी वहाँ से सतारा चले गए और अपने शिष्यों शाहूजी और बाजीराव को पत्र लिख कर अपने संकल्प की याद दिलवाते रहे। मराठे उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। सिद्दी लोगों का आपसी युद्ध छिड़ गया, बस मराठे तो इसी की प्रतीक्षा में थे। उन्होंने उसी समय सिद्दियों पर आक्रमण कर दिया। जल में जंजिरा के समीप सिद्दियों के बेड़े पर आक्रमण किया गया और थल पर उनकी सेना पर आक्रमण किया गया। मराठों की शानदार विजय हुई और कोंकण प्रदेश मराठा गणराज्य का भाग बन गया। ब्रह्मेन्द्र स्वामी ने प्राचीन ब्राह्मणों के समान क्षत्रियों की पीठ थप-थपा कर अपने कर्तव्य का निर्वहन किया था।


वैदिक संस्कृति ऐसे ही ब्राह्मणों की त्याग और तपस्या के कारण प्राचीन काल से सुरक्षित रही है।


गोआ में पुर्तगाली अत्याचार


गोआ में पुर्तगाली सत्ता ने भी धार्मिक मतान्धता में कोई कसर न छोड़ी थी। हिन्दू जनता को ईसाई बनाने के लिए दमन की नीति का प्रयोग किया गया था। हिन्दू जनता को अपने उत्सव मनाने की मनाही थी। हिन्दुओं के गाँव के गाँव ईसाई न बनने के कारण नष्ट कर दिए गये थे। सबसे अधिक अत्याचार ब्राह्मणों पर किया गया था। सैकड़ों मंदिरों को तोड़ कर गिरिजाघर बना दिया गया था। कोंकण प्रदेश में भी पुर्तगाली ऐसे ही अत्याचार करने लगे थे।ऐसे में वहां की हिन्दू जनता ने तंग आकर बाजीराव से गुप्त पत्र व्यवहार आरंभ किया और गोवा के हालात से उन्हें अवगत करवाया। मराठों ने कोंकण में बड़ी सेना एकत्र कर ली और समय पाकर पुर्तगालियों पर आक्रमण कर दिया। उनके एक एक कर कई किलों पर मराठों का अधिकार हो गया। पुर्तगाल से अंटोनियो के नेतृत्व में बेड़ा लड़ने आया पर मराठों के सामने उसकी एक न चली। वसीन के किले के चारों और मराठों ने चिम्मा जी अप्पा के नेतृत्व में घेरा डाल दिया था। वह घेरा कई दिनों तक पड़ा रहा था। अंत में आवेश में आकार अप्पाजी ने कहा कि तुम लोग अगर मुझे किले में जीते जी नहीं ले जा सकते तो कल मेरे सर को तोप से बांध कर उसे किले की दिवार पर फेंक देना कम से कम मरने के बाद तो मैं किले में प्रवेश कर सकूँगा। वीर सेनापति के इस आवाहन से सेना में अद्वितीय जोश भर गया और अगले दिन अपनी जान की परवाह न कर मराठों ने जो हमला बोला कि पुर्तगाल की सेना के पाँव ही उखड़ गए और किला मराठों के हाथ में आ गया। यह आक्रमण गोवा तक फैल जाता पर तभी उत्तर भारत पर नादिर शाह के आक्रमण की खबर मिली। उस काल में केवल मराठा संघ ही ऐसी शक्ति थी जो इस प्रकार की राष्ट्रीय विपदा का प्रति उत्तर दे सकती थी। नादिर शाह ने दिल्ली पर आक्रमण कर 15,000 मुसलमानों को अपनी तलवार का शिकार बनाया। उसका मराठा पेशवा बाजीराव से पत्र व्यवहार आरंभ हुआ। जैसे ही उसे सुचना मिली कि मराठा सरदार बड़ी फौज लेकर उससे मिलने आ रहे हैं वह दिल्ली को लूटकर मुगलों के सिंहासन को उठा कर अपने देश वापिस चला गया।


पहाड़ी चूहे से महाराजाधिराज तक


दिल्ली में अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण के काल में रोहिल्ला सरदार नजीब खान ने दिल्ली में बाबरवंशी शाह आलम पर हमला कर उसकी आँखें फोड़ दी और उस पर भयानक अत्याचार किये। मराठा सरदार महाजी सिंधिया ने दिल्ली पर हमला बोल कर नजीब खान को उसके किये की सजा दी। इतिहास गवाह है कि जिस औरंगजेब ने वीर शिवाजी की वीरता से चिढ़कर अपमानजनक रूप से उन्हें पहाड़ी चूहा कहा था उसी औरंगजेब के वंशज ने मराठा सरदार को पूना के पेशवा के लिए "वकिले मुतालिक" अर्थात् "महाराजाधिराज" से सुशोभित किया। औरंगजेब जिसे आलमगीर भी कहा जाता है, ने अपनी ही धर्मान्ध नीतियों से अपने जीवन में इतने शत्रु एकत्र कर लिए थे जिसका प्रबंध करने में ही उसकी सारी शक्ति, उसकी आयु ख़त्म हो गई।


पहले पानीपत के मैदान में मराठों को हार का सामना करना पड़ा पर इससे अब्दाली की शक्ति भी क्षीण हो गई और अब्दाली वहीं से वापिस अपने देश चला गया। 


कालांतर में मराठों के आपसी टकराव ने मराठा संघ की शक्ति को सीमित कर दिया जिससे उनकी 1818 में अंग्रेजों से युद्ध में हार हो गई और हिन्दू पद पादशाही का मराठा स्वराज्य का सूर्य सदा सदा के लिए अस्त हो गया।


इतिहास इस बात का भी साक्षी है कि जब भी किसी जाति पर अत्याचार होते हैं, उनका अन्यायपूर्वक दमन किया जाता है तब तब उसी जाति से अनेक शिवाजी, अनेक प्रताप, अनेक गुरु गोबिंद सिंह उठ खड़े होते हैं जो अत्याचारी का समूल नष्ट कर देते हैं। केवल इस्लामिक आक्रान्ता और मुग़ल शासन से इतिहास की पूर्ति कर देना इतिहास से साथ खिलवाड़ के समान है जिसके दुष्परिणाम अत्यंत दूरगामी होंगे। - डॉ विवेक आर्य


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शुद्ध हवा (ऑक्सीजन) लेकर स्वस्थ रहना है तो इतना जरूर करें...

05 जून 2021

azaadbharat.org


*धरती पर से पेड़-पौधे काटने पर पर्यावरण प्रदूषण की समस्या हुई जिस पर सन् 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्टॉक होम (स्वीडन) में विश्व भर के देशों का पहला पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसमें 119 देशों ने भाग लिया और पहली बार एक ही पृथ्वी का सिद्धांत मान्य किया गया।*



*इसी सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) का जन्म हुआ तथा प्रति वर्ष 5 जून को पर्यावरण दिवस आयोजित करके नागरिकों को प्रदूषण की समस्या से अवगत कराने का निश्चय किया गया तथा इसका मुख्य उद्देश्य पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाते हुए राजनैतिक चेतना जाग्रत करना और आम जनता को प्रेरित करना था। तभी से 5 जून को पर्यावरण दिवस मनाया जाने लगा।*


*प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आत्मनिर्भरता की बात की है और हमारे देश को अगर आत्म निर्भर करना है तो सबसे पहले हमें स्वदेशी पारम्परिक जड़ी बूटियों की पहचान करनी होगी और तुलसी, पीपल, निम, गिलोय आदि कुदरती वृक्षों और पौधों को लगाना होगा और उसकी औषधियां लगानी होगी जिससे हमारे देश मे आ रही अरबो-खरबो रुपये की दवाई लाना बंद होगा और हमारी दवाइयां विदेशों में निर्यात होगी तो आमदनी बढ़ेगी जिससे देश आत्मनिर्भर बनेगा।*


*मनुष्य सोचता था कि हमारा ही अधिकार है पृथ्वी पर और जल तथा वायु को प्रदूषित कर दिया इसका परिणाम खुद मनुष्य ही भुगत रहा है कई शहरों में जहरीली हवा हो गई और भयंकर बीमारियां आई कोरोना काल मे ऑक्सीजन की कमी पड़ गई, ऑक्सीजन की कमी के कारण कइयों की मृत्यु भी हो गई। अब हमें वैचारिक प्रदूषण मिटाना होगा और "जिओ ओर जीने दो" ये मंत्र साकार करना होगा, अब हमें अधिक से अधिक वृक्षों को लगाना होगा।*


*सरकार द्वारा पिछले 70 सालों में पीपल, बरगद (वटवृक्ष) आंवला और नीम के पेडों को सरकारी स्तर पर लगाना लगभग बंद कर दिया गया है! सरकार ने इन पेड़ो से दूरी बना ली तथा इसके बदले विदेशी यूकेलिप्टस को लगाना शुरू कर दिया जो जमीन को जल विहीन और वातावरण को प्रदूषित कर देता है।*


*आज हर जगह यूकेलिप्टस, गुलमोहर और अन्य सजावटी पेड़ों ने ले ली है। अब जब वायुमण्डल में रिफ्रेशर ही नही रहेगा तो गर्मी तो बढ़ेगी ही और जब गर्मी बढ़ेगी तो जल भाप बनकर उड़ेगा ही और इनकी हवा से हवामान भी प्रदूषित होगा।*


*नीलगिरी के वृक्ष भूल से भी न लगायें, ये जमीन को बंजर बना देते हैं। जिस भूमि पर ये लगाये जाते हैं उसकी शुद्धि 12 वर्ष बाद होती है, ऐसा माना जाता है। इसकी शाखाओं पर ज्यादातर पक्षी घोंसला नहीं बनातें, इसके मूल में प्रायः कोई प्राणी बिल नहीं बनातें, यह इतना हानिकारक, जीवन-विघातक वृक्ष है।*


*जबकि पीपल कार्बन डाई ऑक्साइड का 100% अवशोषण करता है, बरगद 80% और नीम 75 % करता हैं।*


*बता दें कि पीपल के पत्ते का फलक बड़ा और डंठल पतला होता है जिसकी वजह से शांत मौसम में भी पत्ते हिलते रहते हैं और स्वच्छ ऑक्सीजन देते रहते हैं। पीपल को वृक्षों का राजा कहते है, श्री कृष्ण ने इसे अपनी विभूति भी बताया है में। "अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां" (गीता १०.२६ )*


*पीपल का वृक्ष दमानाशक, हृदयपोषक, ऋण-आयनों का खजाना, रोगनाशक, आह्लाद व मानसिक  प्रसन्नता का खजाना तथा रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ानेवाला है। बुद्धू बालकों तथा हताश-निराश लोगों को भी पीपल के स्पर्श एवं उसकी छाया में बैठने से अमिट स्वास्थ्य-लाभ व पुण्य-लाभ होता है। पीपल की जितनी महिमा गाएं, उतनी कम है।*


*इन जीवनदायी पेड़ों को ज्यादा से ज्यादा लगायें तथा यूकेलिप्टस आदि सजावटी पेड़ों को न लगाएं व सरकार द्वारा भी इन पर प्रतिबंध लगाया जाये।*


*दूसरी बात की केमिकल युक्त खेती हो रही है उसकी जगह परम्परागत जैविक खेती करनी होगी इससे पर्यावरण भी शुद्ध होगा और शुद्ध अन्न मिलने पर लोगों का स्वास्थ्य भी शुद्ध होगा और लोग बीमार भी कम होंगे।*


*हर 500 मीटर की दूरी पर एक पीपल का पेड़ लगाये तो आने वाले कुछ साल भर बाद प्रदूषण मुक्त हिंदुस्तान होगा, ऑक्सीजन के प्लांट लगाने की आवश्यकता नही पड़ेगी।*


🚩 *एक उपाय ये भी है कि बड़, पीपल, नीम आदि के बीज मिट्टी में लपेट कर छोटी-छोटी बहुत सारी बॉल बना कर सूखा लें जब बारिश के दिनों में ट्रेन यात्रा करें तो खिड़की में से पटरी से दूर 20-30 फिट की दूरी पर जगह-जगह खाली स्थानों पर फेंकते जाए। बारिश में ये बीज अंकुरित हो जाएंगे आपकी और से बहुत बड़ी पर्यावरण शुद्धि की सेवा हो जाएगी।*


*कुछ लोग सिर्फ दिखावा करने के लिए पेड लगाते हैं और कोई भी पेड़ लगा देते है लेकिन वास्तविकता में बदलाव लाना है तो इस बार हमें कम से कम 5 पेड़ लगाने होंगे और वो भी पीपल, बरगद, निम अथवा तुलसी के ही लगाने होंगें और उसकी देखभाल भी करनी होगी तभी पर्यावरण प्रदूषण मुक्त होगा।*


*ध्यान दें बारिश का समय आने वाला हैं भी पर्यवरण प्रेमी कम से कम 5 पेड़ पीपल, बड़ या नीम के अवश्य लगाए, उसकी देखभाल भी करें।*


*"अपना सिंगार तो किया कई बार, आओं करे मां भारती का सिंगार।*

*धरती मां को पहनाये वृक्षों का सुंदर हार।।"*



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