Tuesday, February 22, 2022

महाराणा प्रताप की शौर्यगाथा जानते हैं पर उनके पूर्वजों की शौर्यगाथा भी जानिए

13 जून 2021

azaadbharat.org


सर्यवंशी और चन्द्रवंशी राजाओं की सन्तान ही राजपूत लोग हैं। मेवाड़ के शासनकर्त्ता सूर्यवंशी राजपूत हैं। ये लोग सिसोदिया कहलाते हैं जो श्रीरामचन्द्रजी के पुत्र लव की सन्तान हैं। वाल्मीकि रामायण में आया है कि श्रीरामजी ने अपने अन्तिम समय लव को दक्षिण कौशल और कुश को उत्तरीय कौशल का राज्य दे दिया था। 



कर्नल जेम्सटॉड साहब की राय है कि मेवाड़ के वर्तमान शासनकर्त्ता के वंश के पूर्वज राजा कनकसेन ने ही पहले पहल जननी जन्मभूमि का त्याग किया था और इसीके किसी बेटे पोते ने सौराष्ट्र और बलभीपुर में अपने राज्य की नींव डाली थी। जिस समय शिलादित्य नामक राजा बलभीपुर में राज्य करता था, उस समय इन्होंने बलभीपुर पर आक्रमण करके उसको नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। युद्ध में बेचारा राजा भी काम न आया। इसकी रानी पुष्पवती गर्भवती थी। सन्तान की रक्षा के विचार से इसने एक गुफा में शरण ली। वहीं इसके गर्भ से एक पुत्ररत्न पैदा हुआ, जो गुह नाम से प्रसिद्ध हुआ। मेवाड़ के राजपूत लोग गुह के वंशधर होने के कारण गुहलौत कहलाते हैं।


बहुत समय के बाद इसी राजा गुह के वंश में नागादित्य नाम का एक राजा हुआ जिसका पुत्र बप्पारावल अपनी वीरता से सर्वत्र विख्यात हुआ। बप्पारावल की वीरता की जितनी भी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है। क्योंकि बप्पा सिर्फ चित्तौड़ के किले पर अपना झण्डा फहरा कर चुप नहीं बैठे थे, बल्कि अपनी अद्वितीय वीरता से इन्होंने कंधार, काश्मीर, ईराक, ईरान, तेहरान और अफगानिस्तान इत्यादि पाश्चात्य मुल्क के बादशाहों को भी जीत कर अपने अधीन कर लिया था। बप्पा रावल का असली नाम भोज था। किन्तु प्रजा इन्हें पिता के तुल्य मानती थी। यही कारण है कि वह बप्पा के नाम से विख्यात थे। बप्पा जब चित्तौड़गढ़ के गद्दी पर बैठे तो इनकी उम्र चौदह या पन्द्रह वर्ष से अधिक न थी।

इन्हीं के वंशधरों के हाथ में अब तक मेवाड़ के शासन की बागडोर चली आती है।


डोंगापुर, प्रतापगढ़ और बांसवाड़े पर भी अब तक इन्हीं की सन्तानों का अधिकार है। बप्पारावल की नवीं पीढ़ी में रावल खुमान बहुत ही विख्यात राजा हुए। इन्होंने खुरासान के एक आक्रमणकारी के दांत ऐसे खट्टे किए थे कि जिसे संसार देखकर चकित हो गया था। रावल खुमान के पश्चात् प्रसिद्ध राणा समरसिंह हुए। इस समय राजपूतों में आपसी अनबन और फूट की आग सुलग रही थी। जब भारतवर्ष को गुलामी की बेड़ियों में जकड़नेदवाले राजपूत कुलकलंक कन्नौज के राजा जयचन्द के संकेत से शहाबुद्दीन गोरी ने दिल्ली के अन्तिम हिन्दू राजा पृथ्वीराज की राजधानी दिल्ली पर आक्रमण किया था उस समय युद्ध के मैदान में राणाजी ऐसी बहादुरी से लड़े कि दुश्मन लोग भी उनकी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सके। इनका पुत्र कल्याणसिंह यवनों से लड़ता हुआ इनकी आंखों के सामने मारा गया था। इसके बाद इन्हें महाराजा पृथ्वीराज के मारे जाने का समाचार मिला। पर यह सुनकर भी इन्होंने अपने कर्त्तव्य से मुंह न मोड़ा और युद्ध में डटे रहे। जिधर निकल जाते उधर ही दुश्मनों को धराशायी कर देते थे। अन्त में आप भी इसी युद्ध में काम आये और संसार को यह दिखा गए कि सच्चे वीर लोग किस प्रकार अपने कर्त्तव्य का पालन अन्तिम श्वास तक करते रहते हैं।


राणा समरसिंह, राजा पृथ्वीराज के बहनोई थे। इनके बाद एक के बाद एक बहुत से राणा लोग मेवाड़ के सिंहासन पर बैठे। सन् १२७५ ई० में राणा लक्ष्मणसिंह गद्दी पर बैठे। उस समय वह नाबालिग थे; अतः राज्य के कठिन कार्यभार को संभालने योग्य नहीं थे और इस कारण इनके चाचा महाराणा भीमसिंह राज्य को संभालने और उचित रीति से इसका प्रबन्ध करने लगे। भीमसिंह की रानी पद्मिनी बड़ी ही रूपवती थी, साथ ही धर्मपरायण वीरांगना भी थी। अलाउद्दीन खिलजी इस समय दिल्ली का बादशाह था। इसने भी पद्मिनी की सुन्दरता का हाल सुना और अपने नापाक इरादों के कारण इसे बेगम बनाने का निश्चय किया। बस! फिर एक भारी तुर्क सेना के साथ वह चित्तौड़ पर चढ़ आया। किन्तु वीर राजपूत अपने राजा और रानी के लिए ऐसी वीरता से लड़े कि वह चित्तौड़ को विजय न कर सका। तब उसने अपनी प्रबल इच्छा जताई और कहा कि मैं एक बार रानी पद्मिनी को देख लूं। यदि मेरी बात मान ली जाएगी तो अपने लावलश्कर सहित मैं दिल्ली लौट जाऊंगा। भीमसिंह ने उत्तर दिया कि प्रत्यक्ष तो मैं पद्मिनी को दिखा न सकूंगा। किन्तु हां, एक आईना उसके सम्मुख इस प्रकार रख दिया जाएगा कि जिसमें से पद्मिनी का चेहरा उसे बखूबी दिखलाई दे। किन्तु वह स्वयं सामने न आयेगी, साथ ही यह भी शर्त रहेगी कि चित्तौड़ के भीतर वह केवल एक-दो रक्षकों के साथ आ सकता है। अलाउद्दीन ने उसकी यह बात मान ली, क्योंकि वह जानता था कि राजपूत अपनी बात के बड़े धनी होते हैं। अतः वह एक-दो आदमियों के साथ किले में चला गया और आईने में से पद्मिनी का चेहरा देख लिया। महाराणा भीमसिंह, बादशाह को किले के तक पहुंचाने चले आये, किन्तु ज्योंही वह बाहर निकले त्योंही तुर्की फौज का एक बेड़ा जो अलाउद्दीन के हुक्म से जंगल में छिपा हुआ था, घात पकड़ झपट कर निकला और भीमसिंह को छल से पकड़ कर कैद कर लिया। तब अलाउद्दीन ने कहा कि जब तक पद्मिनी अपने आप मेरे पास आकर मुझसे शादी न कर लेगी मैं राजा को नहीं छोडूंगा।

पद्मिनी पहले तो कुछ डरी, किन्तु थी वह बड़ी साहसी। उसने कहा- "मालूम हुआ तुर्कों में भी अपने वचन की आन नहीं है। इन्होंने हमें धोखा दिया है। बस इसका जवाब तुर्की ब तुर्की देना ही ठीक है। इसलिए उसने कहला भेजा कि यदि बादशाह राजा को छोड़ दे तो मैं अलाउद्दीन की बेगम बनने को खुशी से चली आऊंगी। मुझे अपनी समस्त दासियां और वस्त्राभूषण बन्द पालकियों में ले जाने की आज्ञा हो इसलिए कि जिसमें तुर्क सिपाही मुझे देख न सकें।" अलाउद्दीन ने यह बात स्वीकार कर ली। अब इधर पद्मिनी की पालकी किले से बाहर निकली। हर एक का ख्याल था कि इसमें रानी पद्मिनी है, किन्तु उसके स्थान में पालकी के भीतर एक बादल नाम का राजपूत बैठा हुआ था जिसके साथ-साथ सत्तर पालकियां और भी गयीं। तुर्क समझे कि इनमें दासियां, बांदियां और आभूषण आदि हैं, लेकिन हर एक में एक-एक राजपूत सिपाही सशस्त्र तैयार बैठा हुआ था। पालकी उठाने वाले भी कहार नहीं थे, बल्कि वास्तव में हर एक वीर राजपूत सिपाही ही थे। फिर पद्मिनी के चाचा वीर गोरा ने अलाउद्दीन से निवेदन किया कि पद्मिनी अपने पति से अन्तिम मुलाकात और उससे विदा होना चाहती है। यह सुनकर खिलजी को प्रसन्नता हुई। उसने कहा- भीमसिंह इस खेमे में बैठा है, रानी उससे मुलाकात कर सकती है। तब पालकी खेमे में ले गए, बादल बाहर निकला और उसके साथ लाए अंगकवच को भीमसिंह ने पहन लिया। भीमसिंह झट एक घोड़े पर सवार हुए और क्षण भर में पद्मिनी के रक्षार्थ उसके पास कुशलपूर्वक पहुंच गए। इधर तुर्कों और राजपूतों में घमासान लड़ाई हुई, जिसमें थोड़े ही राजपूत जीवित वापस पहुंचे। उन जीवित राजपूतों में एक बड़ा ही शूरवीर राजपूत बादल था। फिर अलाउद्दीन ने किले पर आक्रमण किया लेकिन सफल मनोरथ न हो सका इसलिए लाचार दिल्ली चला गया। साल दो साल बाद अलाउद्दीन ने पुन: अफगानियों और तुर्कों की बड़ी भारी फौज जमा कर ली और एकदम चित्तौड़ पर चढ़ आया। भीमसिंह अपने जाति के बहुत से मनुष्यों को नगर रक्षा करने में पहले ही गंवा चुके थे। जो राजपूत बाकी बच रहे थे वह सच्चे वीर और राजभक्त तो अवश्य थे परन्तु तुर्कों की सेना का सामना करने में असमर्थ थे। छ: महीनों तक यह युद्ध चलता रहा। दिन पर दिन राजपूत वीर मातृभूमि के लिए अपना सिर बलिदान करते जाते थे। इस प्रकार इधर राजपूत घट रहे थे और उधर तुर्की सेना दिल्ली से आकर बढ़ती जाती थी।


महाराणा के बारह बेटे थे। दूसरे दिन इनमें से सबसे बड़े बेटे के सिर पर सरपेच बांधा गया। इसने तीन दिन तक राज्य किया। और चौथे दिन मारा गया। इसी प्रकार बाकी में से प्रत्येक बारी-बारी से गद्दी पर बैठे। और हरेक तीन दिन तक राज्य करते हुए तुर्की की अथाह सेना से परास्त होकर मारे गए। होते-होते ग्यारह मुकुटधारियों का प्राण विसर्जन हो चुका और सबसे छोटा भाई बाकी रह गया। तब राजा ने अपने सामन्तों को अपने पास बुला करके कहा- "अब चित्तौड़ के लिए मैं अपनी जान देता हूं। अब इस बार मेरा ही सिर रणभूमि पर गिरेगा...।" अब भीमसिंह ने इस बार छोटा सा व्यूह बड़े शूरवीर सिपाहियों का रचकर तैयार कर लिया। अपने सबसे कनिष्ठ पुत्र को इस व्यूह का सेनानायक नियत कर लिया और कहा- "पुत्र! बस जाओ, तुर्कों से अभेद्य सेनादल को बेध कर अपना मार्ग निकाल लो। इनसे बचकर यहां से केवलगढ़ में चले जाओ और वहां मेवाड़ के राजा बनकर उस समय तक राज्य करो कि जब तक तुम में चित्तौड़ वापस लौट आने की पूरी शक्ति न आ जाये।" कुमार तो पहले जाने पर राजी नहीं हुए और कहने लगे- "नहीं पिताजी! मैं यहीं रहूंगा और शत्रु को मारकर पिता के साथ-साथ समर भूमि में प्राण गवाऊंगा।" किन्तु भीमसिंह ने न माना और कहा- क्या अपने वंश का एकबारगी नामोनिशान मिटाना चाहते हो? नहीं ऐसा कभी न होगा। पुत्र! तुम इसे कायम रखो। कुंवर ने लाचार होकर राजा की आज्ञा का पालन किया। अतः उसने और उसके साथियों ने दुश्मन की अथाह सेना को चीरते हुए अपना रास्ता साफ कर लिया। इसके बाद इनके खानदान में से एक व्यक्ति बहुत दिन के पश्चात् पुनः चित्तौड़ का राणा बनकर वापस लौट आया। - प्रियांशु सेठ


Official  Links:

Follow on Telegram: https://t.me/ojasvihindustan

facebook.com/ojaswihindustan

youtube.com/AzaadBharatOrg

twitter.com/AzaadBharatOrg

.instagram.com/AzaadBharatOrg

Pinterest : https://goo.gl/o4z4BJ

जानिए औरंगजेब व मुगल साम्राज्य को कैसे खत्म किया वीर छत्रसाल ने?

12 जून 2021

azaadbharat.org


झाँसी के आसपास उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश की विशाल सीमाओं में फैली बुन्देलखण्ड की वीर भूमि में  ज्येष्ठ शुक्ल 3,विक्रम संवत 1706 (3/6/1649) को चम्पतराय और लालकुँवर के घर में वीर छत्रसाल का जन्म हुआ था। चम्पतराय सदा अपने क्षेत्र से मुगलों को खदेड़ने के प्रयास में लगे रहते थे। अतः छत्रसाल पर भी बचपन से इसी प्रकार के संस्कार पड़ गये।



छत्रसाल भारत की मुक्ति चाहते थे-


शाहजहां के कुशासन की प्रतिक्रिया स्वरूप छत्रसाल का जन्म हुआ। जब उस महायोद्घा ने देखा कि लोग एक रोटी के लिए भी अपना जीवन बेच देना चाहते हैं, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि छत्रसाल जैसे देशभक्तों के हृदयों में आग न लगी हो ? आग लगी और इतनी तेज लगी कि संपूर्ण तंत्र को ही भस्मीभूत करने के लिए प्रचण्ड हो उठी।


इसी तेज पुंज छत्रसाल को राजा सुजानसिंह की मृत्यु के उपरांत उसके भाई इंद्रमणि ने ओरछा की गद्दी संभालने के पश्चात 1674-1676 के मध्य अपनी सहायता देना बंद कर दिया, तो इस शासक के बहुत बड़े क्षेत्र को जीतकर छत्रसाल ने अपने राज्य में मिला लिया। तब इंद्रमणि पर छत्रसाल ने अपना शिकंजा कसना आरंभ किया तो वह भयभीत हो गया और उसने शीघ्र ही छत्रसाल के साथ संधि कर ली। उसने छत्रसाल को मुगलों के विरूद्घ सहायता देने का भी वचन दिया।


तहवर खां को किया परास्त-


1679 ई. में औरंगजेब ने अपने चिरशत्रु शत्रुसाल (छत्रसाल) का मान मर्दन करने के लिए अपने बहुत ही विश्वसनीय योद्घा तहवर खां को विशाल सेना के साथ भेजा। छत्रसाल इस समय संडवा बाजने में अपनी स्वयं की वर यात्रा लेकर आये हुए थे। उस समय उनकी भंवरी पड़ रही थी, तो तहवर खां ने उसी समय उन्हें घेर लिया। छत्रसाल के विश्वसनीय साथी बलदीवान ने तहवर खां से टक्कर ली। भंवरी पड़ चुकने पर छत्रसाल ने तहवरखां की सेना के पृष्ठ भाग पर आक्रमण कर दिया और जब तक तहवरखां इस सच से परिचित होता कि उसकी सेना के पृृष्ठ भाग पर मार करने वाला योद्घा ही छत्रसाल है, तब तक छत्रसाल ने तहवरखां को भारी क्षति पहुंचा दी थी।


जब तहवरखां अपनी सेना के पृष्ठ भाग की रक्षार्थ उस ओर चला तो बलदीवान भी उसके पीछे-पीछे चल दिया। रामनगर की सीमा में छत्रसाल की सेना से तहवरखां का सामना हो गया। अब सामने से छत्रसाल की सेना और पीछे से बल दीवान की सेना ने तहवरखां की सेना को मारना आरंभ कर दिया। अंत में तहवरखां वीरगढ़ की मुगल सैनिक चौकी की ओर भाग लिया। पर यह क्या? उसे तो छत्रसाल के सैनिक पहले ही नष्ट कर चुके थे। अब तो वह और भी कठिनाई में फंस गया। वीरगढ़ में उसे ऐसा लगा कि छत्रसाल की सेना मुगलों के भय से भागती फिर रही है तो उसने छत्रसाल का पीछा करना चाहा। उसे सूचना मिली कि छत्रसाल टोकरी की पहाड़ी पर छुपा है। तब वह उसी ओर चल दिया। उधर बलदीवान वीरगढ़ के पास छिपा सारी वस्तुस्थिति पर दृष्टि गढ़ाये बैठा था, उसे जैसे ही ज्ञात हुआ कि तहवरखां टोकरी की ओर बढ़ रहा है तो वह भी तुरंत उसी ओर चल दिया। छत्रसाल और बलदीवान शत्रु को इसी पहाड़ी पर ले आना चाहते थे क्योंकि यहां शत्रु को निर्णायक रूप से परास्त किया जा सकता था।


यहां से बलदीवान ने एक सैनिक टुकड़ी छत्रसाल की सहायतार्थ भेजी। उसने स्वयं ने मुगलों को ऊपर न चढ़ने देने के लिए उनसे संघर्ष आरंभ कर दिया। यहां पर छत्रसाल की सेना के हरिकृष्ण मिश्र नंदन छीपी और कृपाराम जैसे कई वीरों ने अपना बलिदान दिया। पर उनका यह बलिदान व्यर्थ नहीं गया । कुछ ही समयोपरांत मुगल सेना भागने लगी। हमीरपुर के पास उस सेना का सामना छत्रसाल से हुआ तो तहवरखां को निर्णायक रूप से परास्त कर दिया गया। तहवरखां को अपने स्वामी औरंगजेब को मुंह दिखाने का भी साहस नहीं हुआ।


कालिंजर विजय-


मुगल सत्ता व शासकों के पापों का प्रतिशोध लेता छत्रसाल अपनी नवविवाहिता पत्नी के साथ कालिंजर की ओर बढ़ा तो वहां के दुर्ग के मुगल दुर्ग रक्षक करम इलाही के हाथ-पांव फूल गये । कालिंजर का दुर्ग बहुत महत्वपूर्ण था । छत्रसाल ने 18 दिन के घेराव और संघर्ष के पश्चात अंत में इसे भी अपने अधिकार में ले ही लिया । दुर्ग पर छत्रसाल का भगवाध्वज फहर गया । इस युद्घ में बहुत से बुंदेले वीरों का बलिदान हुआ, पर उस बात की चिंता किसी को नहीं थी ।


कालिंजर विजय की प्रसन्नता में बलिदान सार्थक हो उठे । सभी ने अपने वीरगति प्राप्त साथियों के बलिदानों को नमन किया और उनके द्वारा दिखाये गये मार्ग पर चलने की प्रतिज्ञा भी की । यहीं से छत्रसाल को लोगों ने 'महाराजा' कहना आरंभ किया । ये कालिंजर की महत्ता का ही प्रमाण है कि लोग अब छत्रसाल को 'महाराजा' कहने में गौरव अनुभव करने लगे। छत्रसाल महाराजा के इस सफल प्रयास से मुगल सत्ता को उस समय कितनी ठेस पहुंची होगी?-यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है ।


छत्रसाल को घेरने की तैयारी होने लगी-

अब छत्रसाल ख्याति इतनी बढ़ चुकी थी कि उनसे ईर्ष्या करने वाले या शत्रुता मानने वाले मुगल शासकों तथा उनके चाटुकार देशद्रोही 'जयचंदों' ने उन्हें घेरने का प्रयास करना आरंभ कर दिया । औरंगजेब के लिए यह अत्यंत लज्जाजनक स्थिति थी कि छत्रसाल जैसा एक युवक उसी की सेना से निकलकर उसी के सामने छाती तानकर खड़ा हो जाए और मिट्टी में से रातों रात एक साम्राज्य खड़ा करने में सफल हो जाए। विशेषत: तब जबकि यह साम्राज्य उसी के साम्राज्य को छिन्न-भिन्न करके तैयार किया जा रहा था ।


छत्रसाल ने भी स्थिति को समझ लिया था। डा. भगवानदास गुप्त 'महाराजा छत्रसाल बुंदेला' में लिखते हैं कि-''छत्रसाल ने ऐसी परिस्थितियों में दूरदृष्टि का परिचय देते हुए औरंगजेब के पास अपने कार्यों की क्षमायाचना का एक पत्र लिखा। वास्तव में यह पत्र उन्होंने मुगलों को धोखे में डालने के लिए नाटकमात्र किया था। जिससे मुगल कुछ समय के लिए भ्रांति में रह जाएं और उन्हें अपनी तैयारियां करने का अवसर मिल जाए। क्योंकि छत्रसाल यह जान गये थे कि अब जो भी युद्घ होगा वह बड़े स्तर पर होगा। बुंदेलखण्ड की मिट्टी में रहकर किसी के लिए यह संभव ही नही था कि वह वहां स्वतंत्रता के विरूद्घ आचरण करे। इस मिट्टी में स्वतंत्रता की गंध आती थी और उस सौंधी सौंधी गंध को पाकर लोग वीरता के रस से भर जाते थे। छत्रसाल के साथ भी ऐसा ही होता था।''


सवामी प्राणनाथ और छत्रसाल-


स्वामी प्राणनाथ छत्रसाल के आध्यात्मिक गुरू थे-उन्होंने अपने प्रिय शिष्य के भीतर व्याप्त स्वतंत्रता और स्वराज्य के अमिट संस्कारों को और भी प्रखर कर दिया और उन्हें गतिशील बनाकर इस प्रकार सक्रिय किया कि संपूर्ण बुंदेलखण्ड ही नहीं, अपितु तत्कालीन हिंदू समाज भी उनसे प्राण ऊर्जा प्राप्त करने लगा। स्वामी प्राणनाथ और छत्रसाल का संबंध वैसा ही बन गया जैसा कि छत्रपति शिवाजी महाराज और समर्थ गुरू रामदास का संबंध था। स्वामी प्राणनाथ का उस समय हिन्दू समाज में अच्छा सम्मान था।


साम्राज्य निर्माता छत्रसाल-


इसके पश्चात छत्रसाल ने जलालखां नामक एक सरदार का सामना किया और उसे बेतवा के समीप परास्त कर उससे 100 अरबी घोड़े, 70 ऊंट तथा 13 तोपें प्राप्त कीं । इसी प्रकार जब औरंगजेब द्वारा बारह हजार घुड़सवारों की सेना अनवर खां के नेतृत्व में 1679 ई. में भेजी गयी तो उसे भी छत्रसाल ने परास्त कर दिया ।


इस प्रकार की अनेकों विजयों से तत्कालीन भारत के राजनीतिक गगन मंडल पर छत्रसाल ने जिस वीरता और साहस के साथ अपना साम्राज्य खड़ा किया उसने उनके नाम को इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर सदा-सदा के लिए अमर कर दिया । उनका पुरूषार्थ भारत के इतिहास के पृष्ठों को उनकी कान्ति से इस प्रकार महिमामंडित और गौरवान्वित कर गया कि लोग आज तक उन्हें सम्मान के साथ स्मरण करते हैं । उसका प्रयास हिंदू राष्ट्र निर्माण की दिशा में उठाया गया ठोस और महत्वपूर्ण कार्य था । दुर्भाग्य हमारा था कि हम ऐसे प्रयासों को निरंतर पीढ़ी दर पीढ़ी केवल इसीलिए अनवरतता या नैरतंर्य प्रदान नही कर पाये कि छत्रसाल जैसे राष्ट्रनिर्माताओं के चले जाने पर हमारे भीतर से ही कुछ 'जयचंद' उठते थे और उनके प्रयासों को धक्का देने के लिए सचेष्ट हो उठते थे ।


यह सच है कि अपने काल के बड़े-बड़े शत्रुओं को समाप्त करना और महादुष्ट और निर्मम शासकों की नाक तले साम्राज्य खड़ा कर राष्ट्र निर्माण का कार्य संपन्न करना बहुत बड़ा कार्य था। जिसे शत्रु के अत्याचारों से मुक्त होने की दिशा में उठाया गया वंदनीय कृत्य ही माना जाना चाहिए ।


औरंगजेब की नींद उड़ा दी थी छत्रसाल ने-


औरंगजेब की रातों की नींद छत्रसाल के कारण उड़ चुकी थी। वह जितने प्रयास करता था कि छत्रसाल का अंत कर दिया जाए-छत्रसाल था कि उतना ही बलशाली होकर उभरता था।


शिवाजी महाराज की मृत्यु के उपरांत 14 अप्रैल 1680 ई. में औरंगजेब ने मिर्जा सदरूद्दीन (धमौनी का सूबेदार) को छत्रसाल को बंदी बनाने के लिए भेजा। छत्रसाल इस समय अपने गुरू छत्रपति शिवाजी की मृत्यु (4 अप्रैल 1680 ई.) से आहत थे। पर वह तलवार हाथ में लेकर युद्घ के लिए सूचना मिलते ही चल दिये।


चिल्गा नौरंगाबाद (महोबा राठ के बीच) में दोनों पक्षों का आमना-सामना हो गया। छत्रसाल ने सदरूद्दीन की सेना के अग्रिम भाग पर इतनी तीव्रता से प्रहार किया कि वह जितनी शीघ्रता से आगे बढ़ रही थी उतनी ही शीघ्रता से पीछे भागने लगी। इससे सदरूद्दीन की सेना में खलबली मच गयी। सदरूद्दीन भी छत्रसाल की सेना के आक्रमण से संभल नही पाया और ना ही वह अपने भागते सैनिकों को कुछ समझा पाया कि भागिये मत, रूकिये और शत्रु का सामना वीरता से कीजिए। उसको स्वयं को भी भय लगने लगा।


सदरूद्दीन को भी पराजित होना पड़ा-


इस युद्घ में परशुराम सोलंकी जैसे अनेकों हिंदू वीरों ने अपनी अप्रतिम वीरता का प्रदर्शन किया और मुगल सेना को भागने के लिए विवश कर दिया। पर सदरूद्दीन ने अपनी सेना को ललकारा औरे कुछ समय पश्चात वह रोकने में सफल रहा। फिर युद्घ आरंभ हुआ। इस बार बुंदेले वीर छत्रसाल को मुगल सेना ने घेर लिया। पर वह वीर अपनी तलवार से शत्रु को काटता हुआ धीरे-धीरे पीछे हटता गया। वह बड़ी सावधानी से और योजनाबद्घ ढंग से पीछे हट रहा था और शत्रुसेना को अपने साथी परशुराम सोलंकी की सेना की जद में ले आने में सफल हो गया, जो पहले से ही छिपी बैठी थी। यद्यपि मुगल सैनिक छत्रसाल के पीछे हटने को ये मान बैठे थे कि वह अब हारने ही वाली है।


परशुराम के सैनिक भूखे शेर की भांति मुगलों पर टूट पड़े। युद्घ का परिदृश्य ही बदल गया , सदरूद्दीन को अब हिंदू वीरों की वीरता के साक्षात दर्शन होने लगे। वीर बुंदेले अपना बलिदान दे रहे थे और बड़ी संख्या में शत्रु के शीश उतार-उतार कर मातृभूमि के ऋण से उऋण हो रहे थे। परशुराम सोलंकी, नारायणदास, अजीतराय, बालकृष्ण, गंगाराम चौबे आदि हिंदू योद्घाओं ने मुगल सेना को काट-काटकर धरती पर शवों का ढेर लगा दिया। अपनी पराजय को आसन्न देख सदरूद्दीन मियां ने अपने हाथी से उतरकर एक घोड़े पर सवार होकर भागने का प्रयास किया। जिसे छत्रसाल ने देख लिया। वह तुरंत उस ओर लपके और सदरूद्दीन को आगे जाकर घेर लिया। सदरूद्दीन के बहुत से सैनिकों ने उसका साथ दिया। छत्रसाल की सेना के नायक गरीबदास ने यहां भयंकर रक्तपात किया और अपना बलिदान दिया। पर सिर कटे गरीबदास ने भी कई मुगलों को काटकर वीरगति प्राप्त की। मुगल सेना का फौजदार बागीदास सिर विहीन गरीब दास की तलवार का ही शिकार हुआ था। गरीबदास की स्थिति को देखकर छत्रसाल और उनके साथियों ने और भी अधिक वीरता से युद्घ करना आरंभ कर दिया।


अत में सदरूद्दीन क्षमायाचना की मुद्रा में खड़ा हो गया। उसने छत्रसाल को चौथ देने का वचन भी दिया। छत्रसाल ने तो उसे छोड़ दिया पर बादशाह औरंगजेब ने उसे भरे दरबार में बुलाकर अपमानित किया और उसके सारे पद एवं अधिकारों से उसे विहीन कर दिया।


हमीद खां को भी किया परास्त-


इसी प्रकार कुछ कालोपरांत छत्रसाल को एक हमीदखां नामक मुगल सेनापति के आक्रमण की जानकारी मिली। हमीदखां ने चित्रकूट की ओर से आक्रमण किया था और वह वहां के लोगों पर अत्याचार करने लगा था। तब उस मुगल को समाप्त करने के लिए छत्रसाल ने बलदीवान को 500 सैनिकों के साथ उधर भेजा। बलदीवान ने उस शत्रु पर जाते ही प्रबल प्रहार कर दिया और उसे प्राण बचाकर भागने के लिए विवश कर दिया। बलदीवान ने हमीद खां का पीछा किया और उसके द्वारा महोबा के जागीरदार को छत्रसाल के विरूद्घ उकसाने की सूचना पाकर उस जागीरदार को भी दंडित किया। यहां से बचकर भागा हमीद खां बरहटरा में जाकर लूटमार करने लगा तो वहां छत्रसाल के परमहितैषी कुंवरसेन धंधेरे ने हमीद खां को निर्णायक रूप से परास्त कर भागने के लिए विवश कर दिया।


मगल साम्राज्य हो गया छिन्न-भिन्न-


हम यहां पर स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि औरंगजेब भारतवर्ष में ऐसा अंतिम मुस्लिम बादशाह था-जिसके साम्राज्य की सीमाएं उसके जीवनकाल में भी तेजी से सिमटती चली गयीं। उसकी मृत्यु के पश्चात उसका साम्राज्य बड़ी तेजी से छिन्न-भिन्न हो गया था, और फिर कभी उन सीमाओं तक किसी भी मुगल बादशाह को राज्य करने का अवसर नही मिला। मुगलों के साम्राज्य को इस प्रकार छिन्न-भिन्न करने में छत्रसाल जैसे महायोद्घाओं का अप्रतिम योगदान था। हमें चाहे सन 1857 तक चले मुगल वंश के शासकों के नाम गिनवाने के लिए कितना ही विवश किया जाए पर सत्य तो यही है कि औरंगजेब की मृत्यु (1707 ई.) के पश्चात ही भारत से मुगल साम्राज्य समाप्त हो गया था। उसकी मृत्यु के पश्चात भारतीय स्वातंत्रय समर की दिशा और दशा में परिवर्तन आ गया था। जिसका उल्लेख हम यथासमय और यथास्थान करेंगे।


यहां इतना स्पष्ट कर देना समीचीन होगा कि औरंगजेब अपने जीवन में बुंदेले वीरों के पराक्रमी स्वभाव से इतना भयभीत रहा कि वह कभी स्वयं बुंदेलखण्ड आने का साहस नही कर सका। वह दूर से ही दिल्ली की रक्षा करता रहा और उसकी योजना मात्र इतनी रही कि चाहे जो कुछ हो जाए और चाहे जितने बलिदान देने पड़ जाएं पर छत्रसाल को दिल्ली से दूर बुंदेलखण्ड में ही युद्घों में उलझाये रखा जाए और उससे 'दिल्ली दूर' रखी जाए। औरंगजेब जैसे बादशाह की इस योजना को जितना समझा जाएगा उतना ही हम छत्रसाल की वीरता को समझने में सफल होंगे। इतिहास के अध्ययन का यह नियम है कि अपने चरित नायक को समझने के लिए आप उसके शत्रु पक्ष की चाल को समझें और देखें कि आपके चरितनायक ने उन चालों को किस प्रकार निरर्थक सिद्घ किया या उनका सामना किया या शत्रु पक्ष को दुर्बल किया? निश्चय ही हम ऐसा समझकर छत्रसाल के प्रति कृतज्ञता से भर जाएंगे। - लेखक : राकेश कुमार आर्य


हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे ही देश में लुटेरे, आक्रमणकारी, बलात्कारी, क्रूर मुगलों एवं अंग्रेजो इतिहास तो पढ़ाया जाता है, लेकिन छत्रसाल जैसे महान वीरों का नहीं पढ़ाया जाता है । वर्तमान सरकार से आशा कि सहीं इतिहास पढ़ाया जाएगा ।


भारत के ऐसे ही वीर सपूतों के लिए किसीने कहा है :

तुम अग्नि की भीषण लपट, जलते हुए अंगार हो ।

तुम चंचला की द्युति चपल, तीखी प्रखर असिधार हो ।।

तुम खौलती जलनिधि-लहर, गतिमय पवन उनचास हो ।

तुम राष्ट्र के इतिहास हो, तुम क्रांति की आख्यायिका ।।

भैरव प्रलय के गान हो, तुम इन्द्र के दुर्दम्य पवि ।

तुम चिर अमर बलिदान हो, तुम कालिका के कोप हो ।।

पशुपति रुद्र के भू्रलास हो, तुम राष्ट्र के इतिहास हो ।


Official  Links:

Follow on Telegram: https://t.me/ojasvihindustan

facebook.com/ojaswihindustan

youtube.com/AzaadBharatOrg

twitter.com/AzaadBharatOrg

.instagram.com/AzaadBharatOrg

Pinterest : https://goo.gl/o4z4BJ

रामप्रसाद बिस्मिल के बलिदान के बाद उनके परिवार की दुर्दशा कैसी हुई?

11 जून 2021

azaadbharat.org


रामप्रसाद बिस्मिल बड़े होनहार नौजवान थे। गजब के शायर थे। देखने में भी बहुत सुंदर थे। बहुत योग्य थे। जाननेवाले कहते हैं कि यदि किसी और जगह, किसी और देश या किसी और समय पैदा हुए होते तो सेनाध्यक्ष होते। आपको पूरे काकोरी षड्यन्त्र का नेता माना गया है। चाहे बहुत ज्यादा पढ़े हुए नहीं थे, लेकिन फिर भी पंडित जगत नारायण जैसे सरकारी वकील की सुधबुध भुला देते थे। चीफ़ कोर्ट की अपनी अपील खुद ही लिखी थी, जिससे कि जजों को कहना पड़ा कि इसे लिखने में जरूर ही किसी बहुत बुद्धिमान व योग्य व्यक्ति का हाथ है। 



19 तारीख की शाम को आपको फाँसी दी गयी। 18 की शाम को जब उनको दूध दिया गया, तो यह कहकर इंकार कर दिया कि अब मैं माँ का दूध ही पीयूँगा। 18 को आपकी माँ से मुलाकात हुई। माँ से मिलते ही उनकी आँखों से अश्रु बह चले। माँ बहुत हिम्मतवाली देवी थीं। आपसे कहने लगी- हरिश्चंद्र, दधीचि आदि बुजुर्गों की तरह वीरता के साथ धर्म व देश के लिए जान दे, चिंता करने और पछताने की जरूरत नहीं। आप हँस पड़े। कहा- माँ मुझे क्या चिंता और पछतावा, मैंने कोई पाप नहीं किया। मैं मौत से नहीं डरता, लेकिन माँ! आग के पास रखा घी पिघल ही जाता है। तेरा मेरा सम्बन्ध ही कुछ ऐसा है कि पास होते ही आँखों में अश्रु उमर पड़े, नहीं तो मैं बहुत खुश हूँ।


फाँसी पर ले जाते समय आपने बड़े जोर से कहा- ‘वन्दे मातरम’, ‘भारत माता की जय' और शांति से चलते हुए कहा-


मालिक तेरी रजा रहे और तू ही रहे


बाकि न मैं रहूँ, न मेरी आरजू रहे


जबतक कि तन में जान रगों में लहू रहे,


तेरी ही जिक्र-ए-यार, तेरी जुस्तजू रहे!


फाँसी के तख्ते पर खड़े होकर आपने कहा-


मैं ब्रिटिश राज्य का पतन चाहता हूँ।


फिर ईश्वर के आगे प्रार्थना की और फिर एक मंत्र पढना शुरू किया। रस्सी खींची गई। रामप्रसादजी फाँसी पर लटक गए। 


अग्रेजी सरकार ने आपको अपना खौफनाफ दुश्मन समझा।  फाँसी से दो दिन पहले से सी. आई. डी. के मिस्टर हैमिल्टन आपकी मिन्नतें करते रहे कि आप मौखिक रूप से सब बातें बता दो। आपको पांच हज़ार रुपया नकद दे दिया जायेगा और सरकारी खर्च पर विलायत भेजकर बैरिस्टर की पढाई करवाई जाएगी। लेकिन वे कब इन बातों की परवाह करनेवाले थे। वे हुकुमतों को ठुकरानेवाले व कभी कभार जन्म लेनेवाले वीरों में से थे। 


पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल के परिजनों की दुर्दशा 


चंद्रशेखर आजाद से पहले भगतसिंह आदि के दल का नेतृत्व करते थे- अमर बलिदानी पंडित रामप्रसाद बिस्मिल। चंद्रशेखर आजाद बिस्मिल के आस्तिक, देशभक्तिपूर्ण व आर्यसमाजी विचारों से बहुत प्रभावित थे।

काकोरी कांड में गिरफ्तार होने पर जेल में बंद बिस्मिल को स्वार्थी संसार की असलियत का कटु अनुभव हुआ जो उन्होंने फांसी आने (19 दिसंबर 1927) से कुछ दिन पहले लिखी आत्मकथा में वर्णन किया है। सहानुभूति रखनेवाले किसी वार्डन के हाथों यह पुस्तक गुप्त रूप से बाहर (संभवतः गणेश शंकर विद्यार्थी के पास) भेजी गई। पंडित गणेश शंकर विद्यार्थी के प्रताप प्रेस से प्रकाशित हुई। ऐसा भी सुनने में आया है कि इसे सबसे पहले भजनलाल बुक सेलर द्वारा आर्ट प्रेस, सिंध ने ‘काकोरी षड्यंत्र’ शीर्षक से छापा था। फिर वर्षों बाद पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी के प्रयास से इस आत्मकथा का पुनर्जन्म हुआ। बिस्मिलजी की गिरफ्तारी और फांसी के बाद उनके परिवार की जो दयनीय दशा हुई उसका वर्णन उनकी क्रांतिकारी बहन शास्त्री देवी ने बड़े मार्मिक शब्दों में किया है।


बिस्मिलजी के परिवार ने बड़ी गरीबी में जीवन बिताया था। पर पुनः क्रांति में कूदने से पहले बिस्मिलजी ने साझे में कपड़े का कारखाना लगाकर स्थिति सुधार ली थी। जेल में जाने के बाद बिस्मिलजी ने अपने साझीदार मुरालीलाल को लिखा कि जो कुछ पैसा मेरे हिस्से का हो मेरे पिताजी को दे देना। बार-बार लिखने पर भी उसने एक पैसा भी नहीं दिया। उल्टे अकड़ दिखाने लगा और पिताजी से लड़ पड़ा।


शाहजहांपुर में रघुनाथ प्रसाद नामक एक व्यक्ति पर बिस्मिल जी माता-पिता की तरह विश्वास करते थे। इनके पास बिस्मिल जी के अपने सब अस्त्र-शस्त्र (पांच) और धन (5000/-) रखे हुए थे। बिस्मिलजी ने वकील को लिखा कि मेरे रुपए मेरे पिताजी को और हथियार बहन शास्त्री देवी को दे देना। वह भी टालता रहा और कुछ नहीं दिया। घर पर पुलिस का इतना आतंक छाया हुआ था कि उनके परिवार से कोई बात तक नहीं करता था। उनके अपने मित्र उनके पास आते हुए डरते थे। ऐसे बुरे समय में महान क्रांतिकारी पंडित गणेश शंकर विद्यार्थी ने लगभग 2000/- चंदा करके बिस्मिल आदि साथियों का अभियोग लड़ने में सहयोग किया। बिस्मिल के पिताजी के लिए पंडित जवाहरलाल ने 500/- भिजवाए। विद्यार्थीजी इन्हें परिवार के लिए 15/- मासिक देते रहे। जब बहन शास्त्री देवी को पुत्र उत्पन्न हुआ तब विद्यार्थीजी ने एक सौ रुपए सहायतार्थ भेजे


र साथ ही यह भी कह भेजा कि आप यह न समझें कि मेरा भाई नहीं है, हम सब आपके भाई हैं।  बिस्मिलजी की बहन ब्रह्मा देवी इनकी फांसी (मृत्यु) से इतनी दुःखी हो गई कि तीन-चार माह बाद ही इस असह्य शोक से पिंड छुड़ाने के लिए विष खाकर मर गई। थोड़े दिन बाद ही इनका छोटा भाई रमेश बीमार पड़ गया। (संभवतः सुशील चंद्र फांसी से पहले ही चल बसा था) रमेश की चिकित्सा धन (डाॅक्टर ने 200/- मांगे थे) के अभाव में ठीक से नहीं हो पाई और वह भी चल बसा। अब घर में खाने को दाने और पहनने को कपड़े न थे। ऐसी अवस्था में उपवास के अतिरिक्त और कोई चारा न था। अंत में उपवास करते-करते पिता श्री मुरलीधरजी भी दुःखों की गठरी माताजी (मूल मंत्री देवी) के सिर पर रखकर इस असार संसार को छोड़ चले। माताजी पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा। इसके 1 महीने बाद बहन शास्त्री देवी भी विधवा हो गई। इनके पास एक पुत्र 3 साल का था।

अपने तीन तोले के सोने के बटन बेचकर माताजी ने दो कोठरियां बनवाई। उनमें से एक कोठरी आठ रुपये मासिक किराए पर दे दी। शास्त्री देवी ने एक डाॅक्टर के यहां मासिक छः रुपये में खाना बनाने का काम किया। फिर भी एक समय कभी-कभी खाना मिलता था। बच्चा सयाना हुआ तो माताजी ने सबसे फरियाद की कि कोई इस बच्चे को पढ़ा दो। कुछ बन जाएगा। पर शाहजहांपुर में किसी ने पुकार नहीं सुनी। तबतक शास्त्री देवी का देवपुरुष भाई पंडित गणेश शंकर विद्यार्थी भी शहीद हो चुका था। 25 मार्च 1931 को कानपुर में मजहबी अंधे मुस्लिमों की भीड़ ने छुरे, कुल्हाड़ी से उन्हें बेरहमी से मारा था। शास्त्री देवी ने जैसे-तैसे करके बेटे को पांचवी तक पढ़ाया। फिर वह मजदूरी करने लगा। पर इस शहीद परिवार को देश का समाज अपराधी की तरह देख रहा था।

माताजी अन्न-वस्त्र के अभाव में जैसे-तैसे दिन गुजार रही थीं। एक दिन शीत काल का समय था। माताजी अपने कोठरी में फटा-सा कोट लपेटे हुए बैठी थीं। इतने में विष्णु शर्मा जेल से रिहा होकर माताजी के दर्शनों के लिए आ पहुँचे। वीर माताजी की यह दुर्दशा देखकर बहुत हैरान, दुःखी व देशवासियों पर क्रोधित हुए। उन्हें लाखों श्राप दिए और अपना कंबल उतारकर माता को ओढा दिया। फिर बहुत कोशिश करके विष्णु शर्मा ने यूपी सरकार द्वारा स्थापित शहीद परिवार सहायक फंड में से माताजी की पेंशन (60रुपये) बंधवाई। इससे माताजी के साथ शास्त्री देवी के परिवार (लड़का व बहू) का भी गुजारा होने लगा। पर 13 मार्च 1956 को माताजी महाप्रयाण कर गईं। पेंशन बंद होने से शास्त्री देवी के परिवार की फिर दुर्दशा हो गई। अन्न वस्त्र के अभाव में जीवन दुभर हो गया। इनका लड़का कुसंग में फंसकर घर से भाग गया। महीनों तक उसका कुछ पता न चला। एक दिन दोनों सास बहू सलाह कर रही थीं कि चलो गंगा जी में डूब जाएं, तभी पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी द्वारा भेजे गए चतुर्वेदी ओंकार नाथ पांडे ने कोसमा गांव जाकर देखा कि ये फटे कपड़े पहने हुई थीं और घर में लगभग 5 किलो अन्न था। पांडेजी ने बहन जी को 5 रुपये दिए और बनारसी दासजी को सारा हाल लिखा। उन्होंने इनकी सहायता के लिए अपील निकाली। छोटे बड़े सबसे सहयोग लेकर बनारसीदास जी ने बहनजी की सहायता की और लिखा कि ‘आप संकोच न करें, यह पैसा आपका ही है। आप कपड़ा बनवा लीजिए। अन्न भी लेकर रख लीजिए। अब आप मुसीबत न उठाइए। बहुत दुःख आपने सहे। मैं आपको दुःख नहीं होने दूंगा।’

 संभवतः बनारसी दासजी की अपील पढ़कर ही गुरुकुल झज्जर के आचार्य भगवान देव (स्वामी ओमानंद जी) अप्रैल 1959 में कोसमा (मैनपुरी) गए। बिस्मिलजी के हवन कुंड आदि ऐतिहासिक धरोहर के रूप में गुरुकुल में ले आए। एक वर्ष के लिए बहनजी की पचास रुपये मासिक वृत्ति बांध दी। गुरुकुल के उत्सव पर भी बहनजी को बुलवाकर सम्मानित करते रहे। पंडित बनारसीदास जी ने बहुत कोशिश करके बहन जी की पेंशन 40 रुपये करवाई। (1960)


पडित रामप्रसाद बिस्मिल जैसे चरित्रवान् राष्ट्रभक्त के त्याग व बलिदान को पहचानने में भारतवासियों ने इतनी देर लगा दी, जबकि श्री सुधीर विद्यार्थी के अनुसार तुर्की के राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा ने तो 1936 में बसे नए जिले (केन्या से आए विस्थापितों के लिए) का नाम ही भारत के इस महान शहीद के नाम पर ‘बिस्मिल जिला’ रख दिया था और इस जिले के अंतर्गत इसका मुख्यालय ‘बिस्मिल शहर’ के नाम से जाना जाता है। तभी तो कवि को कहना पड़ा-

अच्छाइयों की चर्चा जिनकी जहान में है।

उनका निवास अब भी कच्चे मकान में है।।

(शांतिधर्मी मासिक के अप्रैल 2020 अंक में प्रकाशित लेख का एक अंश)


आज भी जो देश-धर्म की सेवा में लगे हुए हैं उनको भी पग-पग पर विघ्न आते हैं, पर वे विचलित नहीं होते हैं- ऐसे राष्ट्रप्रेमियों और साधु-संतों व महापुरुषों का हमें साथ देना चाहिए; मीडिया, सरकार कुछ भी कहे, करें पर हमें उनका हरपल साथ देना होगा, तभी देश व सनातन धर्म की रक्षा होगी।


Official  Links:

Follow on Telegram: https://t.me/ojasvihindustan

facebook./ojaswihindustan

youtube.com/AzaadBharatOrg

twitter.com/AzaadBharatOrg

.instagram.com/AzaadBharatOrg

Pinterest : https://goo.gl/o4z4BJ

अधिकतर लोग नहीं जानते आशाराम बापू के केस के इन तथ्यों के बारे में

10 जून 2021

azaadbharat.org


हिंदू संत आशाराम बापू 8 साल से जेल में हैं, उनको एक दिन भी बाहर नहीं आने दिया- उसके पीछे का कारण अधिकतर लोग जानते नहीं होंगे।



आपने मीडिया में सुना होगा कि आशाराम बापू पर रेप का आरोप लगा है पर सच्चाई यह है कि उनके ऊपर छेड़छाड़ का आरोप लगा है।

बापू आशारामजी पर आरोप लगानेवाली लड़की ने एफआईआर में लिखवाया है कि मेरे साथ छेड़छाड़ किया है लेकिन मीडिया  ने आपको बताया कि लड़की के साथ रेप हुआ जबकी लड़की ने कहीं ऐसा एफआईआर में नहीं लिखवाया है।


अब आते हैं आगे। लड़की ने लिखाया है कि मेरे साथ छेड़छाड़ हुई है लेकिन मेडिकल रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि लड़की को टच भी नहीं किया गया है। इससे साफ होता है कि लड़की के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है। वीडियो में यह देख सकते हैं।

https://youtu.be/V0sr9yHj1Go


अब सवाल उठता है कि आशाराम बापू को फिर सजा क्यों सुनाई गई?

आपको बता दें कि 2012 में पोक्सो एक्ट बनाया गया था। इस एक्ट में ऐसा प्रावधान है कि जो भी नाबालिग बच्चों के साथ अश्लीलता भरा व्यवहार करता है उसको तुरंत गिरफ्तार करना चाहिए और उसे जमानत नहीं मिलनी चाहिए तथा पुरुष जेल के अंदर ही रहकर अपने को निर्दोष साबित करे। अब आप भला सोचो किसी ने आप पर झूठा मुकदमा लगा दिया और जेल में भेज दिया और बोले कि अंदर ही बैठे-बैठे अपने-आपको निर्दोष साबित करो तो कैसे संभव है?

ऐसा ही बापू आशारामजी के साथ हुआ, केवल लड़की के बयान पर उनको सजा सुना दी।


आपको स्पष्ट बता देते हैं कि जिस समय लड़की ने छेड़छाड़ का आरोप लगाया है उस समय तो वो अपने मित्र से कॉल पर बात कर रही थी और बापू आशारामजी किसी कार्यक्रम में व्यस्त थे, वहाँ पर 50-60 लोग भी थे, उन्होंने कोर्ट में गवाही भी दी है, लड़की का कॉल डिटेल भी दिया गया है।


आपको ये भी जानना जरूरी है कि लड़की को कुछ साजिश के तहत नाबालिग बताया गया जबकि वो बालिग है क्योंकि लड़की की LIC Policy जो सुनीता सिंह जो Prosecutrix की Mother है, उसने करवाई है, उसको न्यायालय में पेश करवाया जाए,  इसके अंदर जो Date of Birth है वो 1-7-94 है। और प्रथम कक्षा में भी जो Date of Birth लिखी है उससे भी बालिग है। इससे साफ पता चलता है कि किसी साजिश के तहत उनके ऊपर मुकदमा चलाया गया है।

https://youtu.be/qS9W6m59Lek


इन सब तथ्यों को नकारकर लड़की की झूठी कहानी पर उनको आजीवन कारावास दिया गया। 85 वर्ष की उम्र है, स्वास्थ्य खराब है फिर भी 8 साल से जमानत नहीं दी जा रही है।


बता दें कि 2008 में उनके अहमदाबाद आश्रम में एक फैक्स भेजा गया था जिसमें कहा गया था कि 50 करोड़ रुपये दो वर्ना परिणाम भुगतने के लिए तैयार हो जाओ। हम झूठी लड़कियां तैयार करेंगे, प्लांट करेंगे जिसके कारण तुम जिंदगीभर जेल में रहोगे, कभी बाहर नहीं आ सकोगे।


आपने देखा होगा कि 3 दिन पहले बापू आशारामजी के आयुर्वेदिक उपचार के लिए सुनवाई थी उसमें भी गहलोत सरकार विरोध कर रही थी; उनको आयुर्वेदिक चिकित्सा के लिए भी सरकार मना कर रही है इससे साफ पता चलता है कि कितनी बड़ी साजिश होगी।


उनको साजिश के तहत फंसाना और बाहर नहीं आने देना- उसके मुख्य कारण ये हैं:-


1). लाखों धर्मांतरित ईसाइयों को पुनः हिंदू बनाया व करोड़ों हिन्दुओं को अपने धर्म के प्रति जागरूक किया व आदिवासी इलाकों में जाकर धर्म के संस्कार, मकान, जीवनोपयोगी सामग्री दी, जिससे धर्मान्तरण करानेवालों का धंधा चौपट हो गया।


2). कत्लखाने जाती हज़ारों गौ-माताओं को बचाकर उनके लिए विशाल गौशालाओं का निर्माण करवाया।


3). शिकागो विश्व धर्मपरिषद में स्वामी विवेकानंदजी के 100 साल बाद जाकर हिन्दू संस्कृति का परचम लहराया।


4). विदेशी कंपनियों द्वारा देश को लूटने से बचाकर आयुर्वेद/होम्योपैथिक के प्रचार-प्रसार द्वारा एलोपैथिक दवाइयों के कुप्रभाव से असंख्य लोगों का स्वास्थ्य और पैसा बचाया।


5). लाखों-करोड़ों विद्यार्थियों को सारस्वत्य मंत्र देकर और योग व उच्च संस्कार का प्रशिक्षण देकर ओजस्वी-तेजस्वी बनाया।


6). इंग्लैंड, पाकिस्तान, चाईना, अमेरिका और बहुत सारे देशों में जाकर सनातन हिंदू धर्म का ध्वज फहराया।


7). वैलेंटाइन डे का कुप्रभाव रोकने हेतु "मातृ-पितृ पूजन दिवस" का प्रारम्भ करवाया।


8). क्रिसमस डे के दिन प्लास्टिक के क्रिसमस ट्री को सजाने के बजाय तुलसी पूजन दिवस मनाना शुरू करवाया।


9). करोड़ों लोगों को अधर्म से धर्म की ओर मोड़ दिया।


10). नशामुक्ति अभियान के द्वारा लाखों लोगों को व्यसनमुक्त कराया।


11). वैदिक शिक्षा पर आधारित अनेकों गुरुकुल खुलवाए।


12). मुश्किल हालातों में कांची कामकोटि पीठ के "शंकराचार्य श्री जयेंद्र सरस्वतीजी", बाबा रामदेव, मोरारी बापू, साध्वी प्रज्ञा एवं अन्य संतों का साथ दिया।


13. बच्चों के लिए "बाल संस्कार केंद्र", युवाओं के लिए "युवा सेवा संघ",के लिए "महिला उत्थान मंडल" खोलकर उनका जीवन धर्ममय व उन्नत बनाया।


ऐसे अनेक भारतीय संस्कृति के उत्थान के कार्य किये हैं जो विस्तार से नहीं बता पा रहे हैं।


हिंदू संत आशाराम बापू पर जिस तरह से षड्यंत्र हुआ है उसको देखते हुए और उनके द्वारा किए गये राष्ट्र-संस्कृति व समाज उत्थान के सेवाकार्य तथा उनकी उम्र का ध्यान रखते हुए न्यायालय और सरकार को उन्हें शीघ्र रिहा करना चाहिए।


Official  Links:

Follow on Telegram: https://t.me/ojasvihindustan

facebook.com/ojaswihindustan

youtube.com/AzaadBharatOrg

twitter.com/AzaadBharatOrg

.instagram.com/AzaadBharatOrg

Pinterest : https://goo.gl/o4z4BJ

हर हिंदुस्तानी को बंदा बैरागी का इतिहास पढ़ना चाहिए।

09 जून 2021

azaadbharat.org


भारतवासी आज जो चैन कि श्वास ले रहे हैं और स्वतंत्रता में जी रहे हैं ये हमारे देश के वीर सपूतों और महापुरुषों के बलिदान के कारण ही संभव हुआ है। उनमें से एक महापुरुष थे बन्दा बैरागी, जिन्होंने अनेक अत्याचार सहकर भी संस्कृति को जीवित रखा पर हम उनके बलिदान दिवस को ही भुल गये हैं।



बाबा बन्दा सिंह बहादुर का जन्म कश्मीर स्थित पुंछ जिले के राजौरी क्षेत्र में विक्रम संवत् 1727, कार्तिक शुक्ल 13 (27 अक्टूबर 1670) को हुआ था। वह राजपूतों के (मिन्हास) भारद्वाज गोत्र से सम्बन्धित थे और उनका वास्तविक नाम लक्ष्मणदेव था। इनके पिता का नाम रामदेव मिन्हास था।


लक्ष्मणदास ने युवावस्था में शिकार खेलते समय एक गर्भवती हिरणी पर तीर चला दिया। इससे उसके पेट से एक शिशु निकला और तड़पकर वहीं मर गया। यह देखकर उनका मन खिन्न हो गया। उन्होंने अपना नाम माधोदास रख लिया और घर छोड़कर तीर्थयात्रा पर चल दिये। अनेक साधुओं से योग साधना सीखी और फिर नान्देड़ में कुटिया बनाकर रहने लगे।


इसी दौरान गुरु गोविन्द सिंह जी माधोदास कि कुटिया में आये। उनके चारों पुत्र बलिदान हो चुके थे। उन्होंने इस कठिन समय में माधोदास से वैराग्य छोड़कर देश में व्याप्त इस्लामिक आतंक से जूझने को कहा। इस भेंट से माधोदास का जीवन बदल गया। गुरुजी ने उसे बन्दा बहादुर नाम दिया। फिर पाँच तीर, एक निशान साहिब, एक नगाड़ा और एक हुक्मनामा देकर दोनों छोटे पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले सरहिन्द के नवाब से बदला लेने को कहा। बन्दा हजारों सिख सैनिकों को साथ लेकर पंजाब कि ओर चल दिये। उन्होंने सबसे पहले श्री गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटने वाले जल्लाद जलालुद्दीन का सिर काटा। फिर सरहिन्द के नवाब वजीरखान का वध किया। जिन हिन्दू राजाओं ने मुगलों का साथ दिया था बन्दा बहादुर ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। इससे चारों ओर उनके नाम की धूम मच गयी।


बन्दासिंह को पंजाब पहुँचने में लगभग चार माह लग गये। बन्दा सिंह महाराष्ट्र से राजस्थान होते हुए नारनौल, हिसार और पानीपत पहुंचे और पत्र भेजकर पंजाब के सभी सिक्खों से सहयोग माँगा। सभी सिखों में यह प्रचार हो गया कि गुरु जी ने बन्दा को उनका जत्थेदार यानी सेनानायक बनाकर भेजा है। बंदा के नेतृत्व में वीर राजपूतो ने पंजाब के किसानो विशेषकर जाटों को अस्त्र शस्त्र चलाना सिखाया, उससे पहले जाट खेती बाड़ी किया करते थे और मुस्लिम जमींदार इनका खूब शोषण करते थे देखते ही देखते सेना गठित हो गयी।


इसके बाद बंदा सिंह का मुगल सत्ता और पंजाब हरियाणा के मुस्लिम जमींदारों पर जोरदार हमला शुरू हो गया। सबसे पहले कैथल के पास मुगल कोषागार लूटकर सेना में बाँट दिया गया, उसके बाद समाना, कुंजुपुरा, सढ़ौरा के मुस्लिम जमींदारों को धूल में मिला दिया।


बन्दा ने पहला फरमान यह जारी किया कि जागीरदारी व्यवस्था का खात्मा करके सारी भूमि का मालिक खेतिहर किसानों को बना दिया जाए।


लगातार बंदा सिंह कि विजय यात्रा से मुगल सत्ता कांप उठी और लगने लगा कि भारत से मुस्लिम शासन को बंदा सिंह उखाड़ फेकेंगे। अब मुगलों ने सिखों के बीच ही फूट डालने कि नीति पर काम किया, उनके विरुद्ध अफवाह उड़ाई गई कि बंदा सिंह गुरु बनना चाहता है और वो सिख पंथ कि शिक्षाओं का पालन नहीं करता। खुद गुरु गोविन्द सिंह जी कि दूसरी पत्नी माता सुंदरी जो कि मुगलो के संरक्षण/नजरबन्दी में दिल्ली में ही रह रही थी, से भी बंदा सिंह के विरुद्ध शिकायते कि गई । माता सुंदरी ने बन्दा सिंह से रक्तपात बन्द करने को कहा जिसे बन्दा सिंह ने ठुकरा दिया।


जिसका परिणाम यह हुआ कि ज्यादातर सिख सेना ने उनका साथ छोड़ दिया जिससे उनकी ताकत कमजोर हो गयी तब बंदा सिंह ने मुगलों का सामना करने के लिए छोटी जातियों और ब्राह्मणों को भी सैन्य प्रशिक्षण दिया।


1715 ई. के प्रारम्भ में बादशाह फर्रुखसियर की शाही फौज (10 लाख सैनिक) ने अब्दुल समद खाँ के नेतृत्व में उसे गुरुदासपुर जिले के धारीवाल क्षेत्र के निकट गुरुदास नंगल गाँव में कई मास तक घेरे रखा। पर मुगल सेना अभी भी बन्दा सिंह से डरी हुई थी।


अब माता सुंदरी के प्रभाव में बाबा विनोद सिंह ने बन्दा सिंह का विरोध किया और अपने सैंकड़ो समर्थको के साथ किला छोड़कर चले गए, मुगलों से समझोते और षड्यंत्र के कारण विनोद सिंह और उसके 500 समर्थको को निकल जाने का सुरक्षित रास्ता दिया गया। अब किले में विनोद सिंह के पुत्र बाबा कहन सिंह किसी रणनीति से रुक गए इससे बन्दा सिंह कि सिक्ख सेना कि शक्ति अत्यधिक कम हो गयी।


खाद्य सामग्री के अभाव के कारण उसने 7 दिसम्बर को आत्मसमर्पण कर दिया। कुछ साक्ष्य दावा करते हैं कि गुरु गोविन्द सिंह जी कि माता गूजरी और दो साहबजादो को धोखे से पकड़वाने वाले गंगू कश्मीरी ब्राह्मण रसोइये के पुत्र राज कौल ने बन्दा सिंह को धोखे से किले से बाहर को राजी किया।


मगलों ने गुरदास नंगल के किले में रहने वाले 40 हजार से अधिक बेगुनाह मर्द, औरतों और बच्चों की निर्मम हत्या कर दी।


मगल सम्राट के आदेश पर पंजाब के गर्वनर अब्दुल समन्द खां ने अपने पुत्र जाकरिया खां और 21 हजार सशस्त्र सैनिकों कि निगरानी में बाबा बन्दा बहादुर को दिल्ली भेजा। बन्दा को एक पिंजरे में बंद किया गया था और उनके गले और हाथ-पांव कि जंजीरों को इस पिंजरे के चारो ओर नंगी तलवारें लिए मुगल सेनापतियों ने थाम रखा था। इस जुलुस में 101 बैलगाड़ियों पर सात हजार सिखों के कटे हुए सिर रखे हुए थे जबकि 11 सौ सिख बन्दा के सैनिक कैदियों के रुप में इस जुलूस में शामिल थे।


यद्ध में वीरगति पाए सिखों के सिर काटकर उन्हें भाले कि नोक पर टाँगकर दिल्ली लाया गया। रास्ते भर गर्म चिमटों से बन्दा बैरागी का माँस नोचा जाता रहा।


🚩मगल इतिहासकार मिर्जा मोहम्मद हर्सी ने अपनी पुस्तक इबरतनामा में लिखा है कि हर शुक्रवार को नमाज के बाद 101 कैदियों को जत्थों के रुप में दिल्ली कि कोतवाली के बाहर कत्लगाह के मैदान में लाया जाता था। काजी उन्हें इस्लाम कबूल करने या हत्या का फतवा सुनाते। इसके बाद उन्हें जल्लाद तलवारों से निर्ममतापूर्वक कत्ल कर देते। यह सिलसिला डेढ़ महीने तक चलता रहा। अपने सहयोगियों कि हत्याओं को देखने के लिए बन्दा को एक पिंजरे में बंद करके कत्लगाह तक लाया जाता ताकि वह अपनी आंखों से इस दर्दनाक दृश्य को देख सकें।


बादशाह के आदेश पर तीन महीने तक बंदा और उसके 27 सेनापतियों को लालकिला में कैद रखा गया। इस्लाम कबूल करवाने के लिए कई हथकंडों का इस्तेमाल किया गया। जब सभी प्रयास विफल रहे तो जून माह में बन्दा कि आंखों के सामने उसके एक-एक सेनापति कि हत्या की जाने लगी। जब यह प्रयास भी विफल रहा तो बन्दा बहादुर को पिंजरे में बंद करके महरौली ले जाया गया। काजी ने इस्लाम कबूल करने का फतवा जारी किया जिसे बन्दा ने ठुकरा दिया।


बन्दा के मनोबल को तोड़ने के लिए उनके चार वर्षीय अबोध पुत्र अजय सिंह को उसके पास लाया गया और काजी ने बन्दा को निर्देश दिया कि वह अपने पुत्र को अपने हाथों से हत्या करे। जब बन्दा इसके लिए तैयार नहीं हुआ तो जल्लादों ने इस अबोध बालक का एक-एक अंग निर्ममतापूर्वक बन्दा कि आंखों के सामने काट डाला। इस मासूम के धड़कते हुए दिल को सीना चीरकर बाहर निकाला गया और बन्दा के मुंह में जबरन ठूंस दिया गया। वीर बन्दा तब भी निर्विकार और शांत बने रहे।


अगले दिन जल्लाद ने उनकी दोनों आंखों को तलवार से बाहर निकाल दिया। जब बन्दा टस से मस न हुआ तो उनका एक-एक अंग हर रोज काटा जाने लगा। अंत में उनका सिर काट कर उनकी हत्या कर दी गई। बन्दा न तो गिड़गिड़ाये और न उन्होंने चीख पुकार मचाई। मुगलों कि हर प्रताड़ना और जुल्म का उसने शांति से सामना किया और धर्म कि रक्षा के लिए बलिदान हो गया।


दश और धर्म के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने और इतनी यातनाएं सहन करने के बाद प्राणों कि आहुति दे दी लेकिन न धर्म बदला और नही अन्याय के सामने कभी झुके। इन वीर महापुरुषों को आज हिंदुस्तानी भूल रहे है और देश को तोड़ने में सहायक हीरो-हीरोइन, क्रिकेटरों का जन्म दिन याद होता है लेकिन आज हम जिनकी वजह से स्वतंत्र है उनका बलिदान दिवस याद नही कितने दुर्भाग्य की बात है ।


इतिहास से हिन्दू आज सबक नही लेगा, संगठित होकर कार्य नही करेगा और हिंदू राष्ट्र कि स्थापना नही होगी तो फिर से विदेशी ताकते हावी होगी और हमें प्रताड़ित करेंगी।


Official  Links:

Follow on Telegram: https://t.me/ojasvihindustan

facebook.com/ojaswihindustan

youtube.com/AzaadBharatOrg

twitter.com/AzaadBharatOrg

.instagram.com/AzaadBharatOrg

Pinterest : https://goo.gl/o4z4BJ

अग्रेज जिनसे कांपते थे उन बिरसा मुंडा से जानिए- आदिवासी हिंदू थे या नहीं?

 08 जून 2021

 azaadbharat.org


हमारे देश की शिक्षा प्रणाली में सही इतिहास को स्थान ही नहीं दिया गया है। हमारे भारत में ऐसे महान क्रांतिकारी वीर हुए हैं कि जिनकी वीरता की गाथाएं सुनकर आपको भी अपने पूर्वजों पर गर्व होने लगेगा। ऐसे ही एक महान वीर थे बिरसा मुंडा। 9 जून को उनका बलिदान दिवस है पर इतिहास में उनके बारे में हमें जानकारी नहीं मिलती है, जिससे आज हम भूल गये हैं या यूं कहें कि आज की युवा पीढ़ी उनको जानती तक नहीं है।



राष्ट्र को तोड़नेवाली ताकतों के इशारे पर कुछ लोग तो यह प्रचार करने लग जाते हैं कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं पर बिरसा मुंडा का परिचय जानकर आप भी बोलेंगे कि आदिवासी भी हिंदू ही हैं।


बिरसा मुंडा का परिचय-


सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड प्रदेश में रांची के उलीहातू गांव में हुआ था। वे ‘बिरसा भगवान’ के नाम से लोकप्रिय थे। बिरसा का जन्म बृहस्पतिवार को हुआ था, इसलिए मुंडा जनजातियों की परंपरा के अनुसार उनका नाम ‘बिरसा मुंडा’ रखा गया। इनके पिता एक खेतिहर मजदूर थे। वे बांस से बनी एक छोटी सी झोंपड़ी में अपने परिवार के साथ रहते थे।


बिरसा बचपन से ही बड़े प्रतिभाशाली थे। बिरसा का परिवार अत्यंत गरीबी में जीवन-यापन कर रहा था। गरीबी के कारण ही बिरसा को उनके मामा के पास भेज दिया गया जहां वे एक विद्यालय में जाने लगे। विद्यालय के संचालक बिरसा की प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने बिरसा को जर्मन मिशन पाठशाला में पढ़ने की सलाह दी। वहां पढ़ने के लिए ईसाई धर्म स्वीकार करना अनिवार्य था। अतः बिरसा और उनके सभी परिवारवालों ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया।


हिंदुत्व की प्रेरणा-


सन् 1886 से 1890 तक का समय बिरसा ने जर्मन मिशन में बिताया। इसके बाद उन्होंने जर्मन मिशनरी की सदस्यता त्याग दी और प्रसिद्ध वैष्णव भक्त आनंद पांडे के संपर्क में आये। 1894 में मानसून के छोटानागपुर में असफल होने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की। बिरसा ने आनंद पांडेजी से धार्मिक शिक्षा ग्रहण की। आनंद पांडेजी के सत्संग से उनकी रुचि भारतीय दर्शन और संस्कृति के रहस्यों को जानने की ओर हो गयी। धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ उन्होंने रामायण, महाभारत, हितोपदेश, गीता आदि धर्मग्रंथों का भी अध्ययन किया। इसके बाद वे सत्य की खोज के लिए एकांत स्थान पर कठोर साधना करने लगे। लगभग चार वर्ष के एकांतवास के बाद जब बिरसा प्रकट हुए तो वे एक हिंदू महात्मा की तरह पीला वस्त्र, लकड़ी की खडाऊं और यज्ञोपवीत धारण करने लगे थे।


धर्मांतरण का विरोध-


बिरसा ने हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति का प्रचार करना शुरू कर दिया। ईसाई धर्म स्वीकार करनेवाले वनवासी बंधुओं को उन्होंने समझाया कि ईसाई धर्म हमारा अपना धर्म नहीं है; यह अंग्रेजों का धर्म है वे हमारे देश पर शासन करते हैं, इसलिए वे हमारे हिंदू धर्म का विरोध और ईसाई धर्म का प्रचार कर रहे हैं। ईसाई धर्म अपनाने से हम अपने पूर्वजों की श्रेष्ठ परंपरा से विमुख होते जा रहे हैं। अब हमें जागना चाहिए। उनके विचारों से प्रभावित होकर बहुत से वनवासी उनके पास आने लगे और उनके शिष्य बन गए।


वन अधिकारी वनवासियों के साथ ऐसा व्यवहार करते थे जैसे उनके सभी अधिकार समाप्त कर दिए गए हों। वनवासियों ने इसका विरोध किया और अदालत में एक याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने अपने पुराने पैतृक अधिकारों को बहाल करने की मांग की। इस याचिका पर सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। बिरसा मुंडा ने वनवासी किसानों को साथ लेकर स्थानीय अधिकारियों के अत्याचारों के विरुद्ध याचिका दायर की। इस याचिका का भी कोई परिणाम नहीं निकला।


वनवासियों का संगठन-


बिरसा के विचारों का वनवासी बंधुओं पर गहरा प्रभाव पड़ा। धीरे-धीरे बड़ी संख्या में लोग उनके अनुयायी बनते गए। बिरसा उन्हें प्रवचन सुनाते और अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा देते। इस प्रकार उन्होंने वनवासियों का संगठन बना लिया। बिरसा के बढ़ते प्रभाव और लोकप्रियता को देखकर अंग्रेज मिशनरी चिंतित हो उठे। उन्हें डर था कि बिरसा द्वारा बनाया गया वनवासियों का यह संगठन आगे चलकर मिशनरियों और अंग्रेजी शासन के लिए संकट बन सकता है। अतः बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया।


अग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने का संकल्प-


बिरसा की चमत्कारी शक्ति और उनकी सेवाभावना के कारण वनवासी उन्हें भगवान का अवतार मानने लगे थे। अतः उनकी गिरफ्तारी से सारे वनांचल में असंतोष फैल गया। वनवासियों ने हजारों की संख्या में एकत्रित होकर पुलिस थाने का घेराव किया और उनको निर्दोष बताते हुए उन्हें छोडने की मांग की। अंग्रेजी सरकार ने वनवासी मुंडाओं पर भी राजद्रोह का आरोप लगाकर उनपर मुकदमा चला दिया। बिरसा को दो वर्ष के सश्रमावास की सजा सुनाई गयी और फिर हजारीबाग की जेल में भेज दिया गया। बिरसा का अपराध यह था कि उन्होंने वनवासियों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने हेतु संगठित किया था। जेल जाने के बाद बिरसा के मन में अंग्रेजों के प्रति घृणा और बढ़ गयी और उन्होंने अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया।


दो वर्ष की सजा पूरी करने के बाद बिरसा को जेल से मुक्त कर दिया गया। उनकी मुक्ति का समाचार पाकर हजारों की संख्या में वनवासी उनके पास आये। बिरसा ने उनके साथ गुप्त सभाएं की और अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष के लिए उन्हें संगठित किया। अपने साथियों को उन्होंने शस्त्र संग्रह करने, तीर कमान बनाने और कुल्हाड़ी की धार तेज करने जैसे कार्यों में लगाकर उन्हें सशस्त्र क्रान्ति की तैयारी करने का निर्देश दिया। सन 1899 में इस क्रांति का श्रीगणेश किया गया। बिरसा के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने रांची से लेकर चाईबासा तक की पुलिस चौकियों को घेर लिया और ईसाई मिशनरियों तथा अंग्रेज अधिकारियों पर तीरों की बौछार शुरू कर दी। रांची में कई दिनों तक कर्फ्यू जैसी स्थिति बनी रही। घबराकर अंग्रेजों ने हजारीबाग और कलकत्ता से सेना बुलवा ली।


राष्ट्र हेतु सर्वस्व अर्पण-


अब बिरसा के नेतृत्व में वनवासियों ने अंग्रेज सेना से सीधी लड़ाई छेड़ दी। अंग्रेजों के पास बंदूक, बम आदि आधुनिक हथियार थे, जबकि वनवासी क्रांतिकारियों के पास उनके साधारण हथियार तीर-कमान आदि ही थे। बिरसा और उनके अनुनायियों ने अपनी जान की बाजी लगाकर अंग्रेज सेना का मुकाबला किया। अंत में बिरसा के लगभग चार सौ अनुयायी मारे गए। इस घटना के कुछ दिन बाद अंग्रेजों ने धोखे से सोये हुए बिरसाको जंगल से गिरफ्तार कर लिया। उन्हें जंजीरों में जकड़कर रांची जेलमें भेज दिया गया, जहां उन्हें कठोर यातनाएं दी गयीं। बिरसा हंसते-हंसते सब कुछ सहते रहे और अंत में 9 जून 1900 को कारावास में उनका देहावसान हो गया। बिरसा ने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन को नयी दिशा देकर भारतीयों, विशेषकर वनवासियों में स्वदेश प्रेम की भावना जाग्रत की।


बिरसा मुंडा की गणना महान देशभक्तों में की जाती है। उन्होंने वनवासियों को संगठित कर उन्हें अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए तैयार किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने भारतीय संस्कृति की रक्षा करने के लिए धर्मांतरण करने वाले ईसाई मिशनरियों का विरोध किया। ईसाई धर्म स्वीकार करनेवाले हिन्दुओं को उन्होंने अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की जानकारी दी और अंग्रेजों के षडयन्त्र के प्रति सचेत किया। आज भी झारखण्ड, उड़ीसा, बिहार, पश्चिम बंगाल और मध्यप्रदेश के वनवासी लोग बिरसा को भगवान के रूपमें पूजते हैं। 

अपने पच्चीस वर्ष के अल्प जीवनकाल में ही उन्होंने वनवासियों में स्वदेशी तथा सनातन हिंदू संस्कृति के प्रति जो प्रेरणा जगाई वह अतुलनीय है। धर्मांतरण, शोषण और अन्याय के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का संचालन करने वाले महान सेनानायक थे- ‘बिरसा मुंडा’।


आज भी भारत में वेटिकन सिटी के इशारे पर भारत में ईसाई मिशनरियों द्वारा पुरजोर से धर्मान्तरण किया जा रहा है, आदिवासियों को भ्रमित किया जा रहा है कि तुम हिंदू नहीं हो लेकिन जनता को बिरसा मुंडा के पथ पर चलना चाहिए। जो हिन्दू संस्कृति को तोड़ने के लिए ईसाई मिशनरियों ने भारत में धर्मान्तरणरूपी जाल बिसाया है इसमें भोले-भाले हिन्दू फँस जाते हैं और कोई हिन्दूनिष्ठ विरोध करता है तो उनकी हत्या करवा दी जाती है या मीडिया द्वारा बदनाम करवाकर झूठे केस बनाकर जेल में भिजवाया जाता है। 


हिन्दुस्तानियों, जितनी जल्दी हो सके इन षड्यंत्रों को समझो और बिरसा मुंडा के पथ पर चलो।


Official  Links:

Follow on Telegram: https://t.me/ojasvihindustan

facebook.com/ojaswihindustan

youtube.com/AzaadBharatOrg

twitter.com/AzaadBharatOrg

.instagram.com/AzaadBharatOrg

Pinterest : https://goo.gl/o4z4BJ

आशाराम बापू के केस में क्या है, उनको जमानत क्यों नहीं मिल रही है?

07 जून 2021

azaadbharat.org

शकराचार्य जयेंद्र सरस्वती पर 2004 में जब मर्डर केस लगा था उस समय शंकराचार्यजी को हिरासत में लिया गया था। उसके बाद उनके ही मठ के लोग उनके खिलाफ बोलना शुरू कर दिये थे पर हिन्दू संत आशारामजी बापू जंतर-मंतर पर धरने पर बैठ गए, उसके बाद वहाँ पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, पूर्व राष्ट्रपति आदि बहुत सारी हस्तियां आ गईं और शंकराचार्यजी को रिहा किया गया।



उसके बाद साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को गिरफ्तार किया; उनपर अनगिनत अत्याचार किये जा रहे थे तब आशाराम बापू उनको जाकर मिले। उनको मिलने नहीं दे रहे थे तब आशाराम बापू ने सरकार को धमकी दी थी कि मिलने नहीं देंगे तो हम अन्न-जल छोड़कर धरना देंगे करोडों भक्तों के साथ, तब सरकार-प्रशासन डर गया और साध्वी प्रज्ञा ठाकुर से मिलने दिया।


मोरारी बापू की मीडिया में बदनामी शुरू हुई तब उसका खंडन आशाराम बापू ने किया और जनता को सच्चाई बताई। बाबा रामदेव की भी मीडिया में जब बदनामी शुरू हुई तब आशाराम बापू ने सबको बताया कि बाबा रामदेव की झूठी बदनामी की जा रही है। जब बाबा रामदेव पर रामलीला मैदान में लाठीचार्ज हुआ तब आशाराम बापू ने कहा था- "सोनिया गांधी, भारत छोड़ो।" 


ऐसे कई अनगिनत साधु-संतों पर अत्याचार कॉंग्रेस सरकार में हो रहा था तब बापू आशारामजी ने उनके लिए आवाज उठाई, सभी साधु-संतों को एक किया; उसके बाद उनके खिलाफ षड्यंत्र शुरू हो गया।


बापू आशारामजी को 2008 में जेल भेजने की तैयारी थी। उनके गुरुकुल के 2 बच्चों की मौत संदिग्ध तरीके से हुई थी, इसको लेकर मीडिया ने उनके खिलाफ बहुत कुप्रचार किया पर उसमें उनको सुप्रीम कोर्ट से क्लीनचिट मिल गई।


उसके बाद 2013 में एक लड़की द्वारा रात को 2:45 को दिल्ली में छेड़छाड़ के मामले में जीरो एफआईआर हुई। लेकिन उस एफआईआर की ओरिजनल और कार्बन कॉपी अलग-अलग थी, आरोप लगानेवाली लड़की की वीडियो रिकॉर्डिंग गायब कर दी गई।


आरोप लगानेवाली लड़की का मेडिकल रिपोर्ट निकलवाया। उसमें साफ लिखा है कि लड़की को टच भी नहीं किया गया है अर्थात् लड़की के साथ कुछ नहीं हुआ है।


तीसरा, जिस समय लड़की ने छेड़छाड़ का आरोप लगाया है उस समय तो वो अपने मित्र से कॉल पर बात कर रही थी और बापू आशारामजी किसी कार्यक्रम में व्यस्त थे, वहाँ पर 50-60 लोग भी थे, उन्होंने कोर्ट में गवाही भी दी है, लड़की का कॉल डिटेल भी दिया गया है।


2008 में उनके अहमदाबाद आश्रम में एक फैक्स भेजा गया था जिसमें कहा गया था कि 50 करोड़ रुपये दो वर्ना उसके परिणाम भुगतने के लिए तैयार हो जाओ। हम झूठी लड़कियां तैयार करेंगे, प्लांट करेंगे जिसके कारण तुम जिंदगीभर जेल में रहोगे, कभी बाहर नहीं आ सकोगे।


इन सब तथ्यों को नकारकर लड़की की झूठी कहानी पर उनको आजीवन कारावास दिया गया। 85 वर्ष की उम्र है, स्वास्थ्य खराब है फिर भी 8 साल से जमानत नहीं दी जा रही है।


आपको बता दें कि बापू आशारामजी ने लाखों हिंदुओं की घर वापसी करवाई, आदिवासी व गरीब इलाकों में जाकर उनको सनातन धर्म का ज्ञान देकर व मकान, पैसे व जीवनोपयोगी सामग्री देकर धर्मांतरण पर रोक लगाई; उन्होंने स्वामी विवेकानंदजी के 100 साल बाद शिकागो में विश्व धर्मपरिषद में भारत का नेतृत्व किया था। उन्होंने बच्चों को भारतीय संस्कृति के दिव्य संस्कार देने के लिए देश में 17000 बाल संस्कार खोल दिये थे, वेलेंटाइन डे की जगह मातृ-पितृ पूजन शुरू करवाया, क्रिसमस की जगह तुलसी पूजन शुरू करवाया, वैदिक गुरुकुल खोले, करोड़ों लोगों को व्यसनमुक्त किया; ऐसे अनेक भारतीय संस्कृति के उत्थान के कार्य किये हैं जो विस्तार से नहीं बता पा रहे हैं। इसके कारण आज वे जेल में हैं।


अब हिंदुओं को उनका साथ देना चाहिए, षड्यंत्र का पर्दाफाश करना चाहिए व उन्हें जेल से रिहा होना चाहिए, क्योंकि वे हमारे जैसे लाखों हिंदुओं की लड़ाई अकेले लड़ रहे थे। अब हमारा कर्तव्य है- उनका साथ दें।


Official  Links:

Follow on Telegram: https://t.me/ojasvihindustan

facebook.com/ojaswihindustan

youtube.com/AzaadBharatOrg

twitter.com/AzaadBharatOrg

.instagram.com/AzaadBharatOrg

Pinterest : https://goo.gl/o4z4BJ