Tuesday, February 22, 2022

आजादी के बाद सबसे ज्यादा प्रताड़ित किया गया जिनको वो हैं संत आसाराम बापू

16 जून 2021

azaadbharat.org


राष्ट्रवादी चैनल सुदर्शन न्यूज के मुख्य संपादक श्री सुरेश चव्हाणके ने कहा कि आजादी के पहले की स्थिति और मुगलों के समय का तो मुझे पता नहीं लेकिन आजादी के बाद हिंदुस्तान में सबसे ज्यादा षड्यंत्रपूर्वक जिनको प्रताड़ित किया गया उन संत का नाम है आसाराम बापू जी। सबसे ज्यादा प्रताड़ित..इतनी प्रताड़ना की पराकाष्ठा मैंने कहीं नहीं देखी ।

https://youtu.be/J7MKLGCTxEk



हम सब जानते हैं कि कैसे कानून का दुरुपयोग किया गया है ।


सरेश जी ने आगे कहा कि यात्री भाइयों को बताना चाहता हूँ कि कानून का मिसयूज कैसे किया जाता है मैक्सिमम मतलब उस Max का अंत नहीं इतना सब कुछ। बापू आशारामजी पर आरोप लगाने वाली उस लड़की की उम्र के कारण पॉक्सो एक्ट लगाया गया जबकि वह अल्पायु नहीं है बाकि डॉक्यूमेंट है किसी ने सुने न सुने ।


जो घटना घटी वहां पर मैं खुद गया था और खुद जाकर वह डिस्टेंस कितना है वो सब चेक किया । वाकई में क्या हुआ होगा इतनी देर में और मेरे साथ में मैं और कई पत्रकार और पुलिस अधिकारियों को भी लेकर गया था। ऐसे कई चीजों का विश्लेषण किया और कितनी चीज है जो हमारे (बापू आशारामजी के ) पक्ष में है उसके बावजूद भी किसी चीज को कानून के कटघरे में डाल दो और सालों किसी को जेल में सड़ाओ । मैंने तो ऐसा दूसरा कोई केस देखा नहीं जो बापूजी के बारे में देखा है ।


अत्याचार सहकर भी सेवाकार्य कर रहे हैं


सरेश जी ने आगे बताया कि बापू आशारामजी तो अंदर है लेकिन यह लोग (बापू आसारामजी के अनुयायी ) जो आज बापू आसारामजी का नाम लेकर इतना बड़ा कार्य चला रहे हैं विभिन्न आपदाओं के बावजूद कितनों को क्या-क्या झेलना नहीं पड़ा होगा पहले कुछ समय तक तो यह मीडिया वालों की गंदी गेम के कारण बापू आसारामजी का नाम लेकर चलने वाले व्यक्ति की तरफ लोग गलत निगाह से देखते थे, कितनी हीन भावना से कैसे कैसे गंदे कॉमेंट्स रहे होंगे, काम करना कितना मुश्किल रहा होगा ।


मित्रों! जो बापू आसारामजी के भक्तों ने झेला है मुझे लगता है कि इस देश में किसी राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता नेता या यहां तक कि बंगाल, केरला में जो राजनीतिक कार्यकर्ता पर अत्याचार होते हैं उससे भी 1000 गुना ज्यादा अत्याचार बापू आसारामजी के भक्तों पर हुए।  कितनी महिलाओं को लाठी डंडे झेलने पड़े कितने लोगों ने मतलब आप में से कई लोगों ने तो अपने घर को स्वाहा किया ।


अनुयायी समाज तक सच्चाई पहुँचा रहे हैं


सरेश जी ने कहा कि बापू आसारामजी के भक्तों का कहना है कि नहीं नहीं हम लड़ेगे क्योंकि पीछे हटेंगे तो पता नहीं यह लड़ाई कमजोर हो जाएगी मैं ऐसे कई लोगों (बापू आसारामजी के भक्तों ) को जानता हूँ जिनकी दुकान तक बंद हो गई, जिनकी नौकरी छूट गई वह फिर भी थैला लेकर प्रूफ लेकर लोगों के पास जा रहे हैं RSS के लोगों को मिलते है,  BJP से मिलते  हैं, सत्ता से जुड़े लोगों को मिलते हैं, पत्रकारों को मिलते हैं, हमारे पास भी आते हैं कितने लोग मतलब वो कोई एक्टिविस्ट नहीं है लेकिन मैं बताऊं जब आप (षडयंत्रकारी) अत्याचार की अति कर देते हो तो उसके बाद सत्य का जो चक्र है ना वह उल्टा परिणाम देने लगता है, और वह चक्र क्या परिणाम दे रहा है यह तमाम वह लोग हैं जो लोग ईश्वर और खुद इसमें कनेक्ट है ।


एक षडयंत्र ने करोड़ो राष्ट्रवादी पैदा किये


आगे बताते हुए सुरेश जी ने कहा कि बापू आसारामजी पर हुए अत्याचार ने इस देश में कई करोड़ हिंदूवादी एक्टिविस्ट पैदा कर दिए । जो (बापू आसारामजी के अनुयायी ) भक्ति भाव और भजन के आगे जाते नहीं थे देश में बाकि क्या चीजें हो रही हैं वह स्वाभाविक से आदमी अलग चीजों में होता है धार्मिक क्षेत्र का, लेकिन आज ज्यादातर लोग (बापू आसारामजी के अनुयायी) सोशल मीडिया में एक्टिव है, Twitter का ट्रेंड चलाते हैं, मैसेजेस भेजते हैं, भाषण सीख गए हैं। ऐसी ऐसी महिलाएं मुझे नहीं लगता कि वह घूंघट वाली महिलाएं हैं । मैंने दिल्ली में देखी थी वह चौराहे पर खड़े होकर भाषण दे सकती है यह सारा जोश उनके अंदर जो भरा वह इस एक घटना (बापू आसारामजी पर षड्यंत्र) ने भरा! कभी कभी मुझे ऐसा लगता है कि शायद हिंदुत्व का आंदोलन कमजोर पड़ रहा है और उस आंदोलन में एक साथ कई करोड़ कार्यकर्ता की जरूरत थी क्योंकि एक साथ कई कार्यकर्ता तो बड़ी मुश्किल है । आपको तो पता है कि कार्यकर्ता खड़ा करना कितना मुश्किल होता है लेकिन हजारों साल के हिंदुत्ववादी मूमेंट में किसी एक घटना ने अगर करोड़ों कार्यकर्ताओं को खड़ा किया होगा तो बापू आसारामजी की घटना ने किया है यह इतिहास याद रखेगा की एक घटना का परिवर्तन कैसे होता है। हमें इस घटना का आज भी दुःख है ।


नयायपालिका को पछताना पड़ेगा


सरेश जी ने आगे कहा कि मैं दावा करता हूं कि आने वाले दिनों में हिंदुस्तान को और को पछतावा करना पड़ेगा कि दोनों ने जो बापू आसारामजी पर अत्याचार किये वो कितने गलत थे ।


नयापालिका बिकती है 


बापू आसारामजी जी हमारे लिए पवित्र थे हैं और रहेंगे और हम यह केवल मैं आप लोगों के सामने नहीं कहता हूँ बल्कि मैं आप लोगों के सामने कम बोलता हूँ चैनल पर इससे ज्यादा बोलता हूँ। इस देश में न्यायपालिकाएं बिकती हैं प्रभावित होती है यह मैं पहले भी कह चुका हूँ आगे भी कहता हूँ कैमरे पे कहता हूँ क्योंकि मुझे ये कहने में डर नहीं है खुद न्यायपालिका के अंदर के ही सिस्टम के अंदर के जज से लेकर मजिस्ट्रेट वकील इस बात को दोहरा चुके हैं इसलिए इन व्यवस्थाओं से बहुत ज्यादा भरोसा करने की जरूरत नहीं है। 



दिव्य शक्ति की इच्छा से नव हिंदुस्तान का निर्मित


सरेश जी ने बताया कि हम तो दिव्य व्यवस्था के वाहक हैं और इसलिए हमने उस दिव्य व्यवस्था पर अपनी श्रद्धा रखनी चाहिए भाव रखना चाहिए । वही व्यवस्था इन तमाम चीजों को क्योंकि भगवान किस बंदे से क्या करना चाहता है कोई बता नहीं सकता कभी-कभी वह बातें समझने में सौ-सौ साल लग जाते हैं और इसीलिए हम यह माने कि दिव्य शक्ति की इच्छा के आधार पर नव हिंदुस्तान को निर्मित करने की आवश्यकता है । 


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कसी है न्याय-व्यवस्था? निर्दोष संत को जेल, एक्टर को तुंरत बेल !

15 जून 2021

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भारत का कानून सभी के लिए समान बोला जाता है पर जब न्याय करने की बारी आती है तब पक्षपात किया जाता है। ऐसे एक नहीं अनेकों उदाहरण हैं, पर एक ताजा उदाहरण आपको दे रहे हैं। इससे आपको काफी कुछ समझ में आ जायेगा कि न्यायपालिका कितनी पक्षपाती बन गई है।



उदाहरण: एक्टर और संत 


आपको बता दें कि एक्टर पर्ल वी पुरी को POCSO Act के तहत गिरफ्तार किया गया था और 11 दिन में ही जमानत मिल गई। जबकि हिंदू संत आशाराम बापू पर भी POCSO Act लगा है और 8 साल से इसलिए जमानत नहीं दी जा रही है कि POCSO लगा है जबकि लड़की ने छेड़छाड़ का आरोप लगाया है और तथाकथित घटना के समय वहाँ बापू आशारामजी नहीं थे उसका सबूत भी कोर्ट के रिकॉर्ड में है फिर भी रिहा नहीं किया जा रहा है।


पोक्सो एक्ट क्या है?


पोक्सो एक्ट (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस) के तहत बच्चों को सेक्सुअल असॉल्ट, सेक्सुअल हैरेसमेंट और पोर्नोग्राफी जैसे अपराधों से प्रोटेक्ट किया गया है।  इसमें 18 साल से कम उम्र के बच्चों को गलत तरीके से स्पर्श करने अथवा देखने पर भी सजा हो सकती है।


पोक्सो कानून अन्य कानूनों से विपरीत है । इसमें किसी ने सच या झूठ जो बयान दे दिया उसीको सच मानकर आरोपी को सजा दी जाती है और आरोपी को ही साबित करना पड़ता है कि मैंने उसके साथ गलत व्यवहार नहीं किया है। इसमें आरोपी को जमानत पाने का अधिकार नहीं है।


गौरतलब है कि हिन्दू संत आशारामजी बापू को भी पोक्सो एक्ट के तहत ही गिरफ्तार किया गया था; 5 साल तक कोर्ट में ट्रायल चला, बापू आशारामजी की तरफ से उनके निर्दोष होने और षड्यंत्र के तहत उन्हें फंसाने के अनेक सबूत भी दिए गए पर 8 साल से एकबार भी उनको जमानत तक नहीं दी गई।


आपको बता दें कि हिन्दू संत आशारामजी बापू पर जब छेड़छाड़ का आरोप लगा था तब आरोप लगानेवाली शाहजहाँपुर की लडकी की सहेली ने बताया था कि मैंने उससे पूछा कि तूने बापूजी के ऊपर झूठा आरोप क्यों लगाया? 

तो वह बोली: ‘मेरे से जैसा बुलवाते हैं, वैसा मैं बोलती हूँ।' जिसका कवरेज सभी मीडिया चैनल्स ने लिया था पर प्रसारित नहीं किया गया।


इस बात का  स्पष्टीकरण भाजपा नेता डॉ सुब्रमण्यम स्वामी ने भी किया। स्वामीजी ने बताया कि मैंने आशारामजी बापू का केस पढ़ा। पूरा केस फर्जी है। जिस समय लड़की बोल रही है कि मेरे साथ संत आशारामजी बापू ने छेड़खानी की, उस समय तो लड़की अपने किसी फ्रेंड से बात कर रही थी फोन पर और संत आशारामजी बापू भी एक कार्यक्रम में व्यस्त थे।

देखें वीडियो

https://youtu.be/rwOJIG3YHEI


मडिकल रिपोर्ट में भी स्पष्ट लिखा है कि लड़की को एक खरोंच भी नहीं आई है और मेडिकल आधार पर बापू आशारामजी को क्लीनचिट भी मिल चुकी है ।


https://youtu.be/V0sr9yHj1Go


आपको ये भी जानना जरूरी है कि लड़की को कुछ साजिश के तहत नाबालिग बताया गया जबकि वो बालिग है; क्योंकि लड़की की LIC Policy जो सुनीता सिंह जो Prosecutrix की Mother है, उसने करवाई है, उसको न्यायालय में पेश करवाया जाए,  इसके अंदर जो Date of Birth है वो 1-7-94 है और प्रथम कक्षा में भी जो Date of Birth लिखी है उससे भी वो बालिग है। इससे साफ पता चलता है कि किसी साजिश के तहत बापूजी के ऊपर मुकदमा चलाया गया है।


https://youtu.be/qS9W6m59Lek 


इन सब तथ्यों को नकारकर लड़की की झूठी कहानी पर उनको आजीवन कारावास दिया गया। 85 वर्ष की उम्र है, स्वास्थ्य खराब है फिर भी 8 साल से जमानत नहीं दी जा रही है।


बता दें कि 2008 में उनके अहमदाबाद आश्रम में एक फैक्स भेजा गया था जिसमें कहा गया था कि 50 करोड़ रुपये दो वर्ना परिणाम भुगतने के लिए तैयार हो जाओ। हम झूठी लड़कियां तैयार करेंगे, प्लांट करेंगे जिसके कारण तुम जिंदगीभर जेल में रहोगे, कभी बाहर नहीं आ सकोगे।


बापू आशारामजी ने धर्मांतरण के खिलाफ कार्य किया और राष्ट्र व सनातन धर्म के उत्थान के लिए कार्य किया इसलिए उनको फंसाया गया। आज उनकी उम्र 85 वर्ष की है, स्वास्थ्य भी ठीक नहीं है फिर भी जमानत नहीं दी जा रही है, कैसा आश्चर्य है? न्याय में कितना पक्षपात किया जा रहा है? एक निर्दोष संत को कब रिहा किया जायेगा? ऐसा जनता का सवाल है।


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गरु अर्जुनदेवजी के शहीद होने के बाद मुगलों का विनाश शुरू हो गया...

14 जून 2021

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शक्ति और शांति के पुंज, शहीदों के सरताज, सिखों के पांचवें गुरु अर्जुनदेवजी की शहादत अतुलनीय है। मानवता के सच्चे सेवक, धर्म के रक्षक, शांत और गंभीर स्वभाव के स्वामी गुरु अर्जुनदेवजी अपने युग के सर्वमान्य लोकनायक थे। वह दिन-रात संगत की सेवा में लगे रहते थे। श्री गुरु अर्जुनदेवजी सिख धर्म के पहले शहीद थे।



भारतीय दशगुरु परम्परा के पंचम गुरु श्री अर्जुनदेवजी गुरु रामदासजी के सुपुत्र थे। उनकी माता का नाम बीवी भानीजी था। उनका जन्म 15 अप्रैल, 1563 ई. को हुआ था। प्रथम सितंबर 1581 को वे गुरु गद्दी पर विराजित हुए। 8 जून 1606 को उन्होंने धर्म व सत्य की रक्षा के लिए 43 वर्ष की आयु में अपने प्राणों की आहुति दे दी।


सपादन कला के गुणी गुरु अर्जुनदेवजी ने श्री गुरुग्रंथ साहिबजी का संपादन भाई गुरदास की सहायता से किया। उन्होंने रागों के आधार पर श्री ग्रंथ साहिबजी में संकलित वाणियों का जो वर्गीकरण किया है, उसकी मिसाल मध्यकालीन धार्मिक ग्रंथों में दुर्लभ है। यह उनकी सूझ-बूझ का ही प्रमाण है कि श्री ग्रंथ साहिबजी में 36 महान वाणीकारों की वाणियां बिना किसी भेदभाव के संकलित हुईं। श्री गुरुग्रंथ साहिबजी के कुल 5894 शब्द हैं, जिनमें 2216 शब्द श्री गुरु अर्जुनदेवजी महाराज के हैं। पवित्र बीड़ रचने का कार्य सम्वत् 1660 में शुरू हुआ तथा 1661 में यह कार्य संपूर्ण हो गया।

 

गरंथ साहिब के संपादन को लेकर कुछ असामाजिक तत्वों ने अकबर बादशाह के पास यह शिकायत की कि ग्रंथ में इस्लाम के खिलाफ लिखा गया है; लेकिन बाद में जब अकबर को वाणी की महानता का पता चला, तो उन्होंने भाई गुरदास एवं बाबा बुढ्ढाके माध्यम से 51 मोहरें भेंट कर खेद ज्ञापित किया।


अकबर की मौत के बाद उसका पुत्र जहांगीर गद्दी पर बैठा जो बहुत ही कट्टर विचारोंवाला था। अपनी आत्मकथा ‘तुजुके-जहांगीरी’ में उसने स्पष्ट लिखा है कि वह गुरु अर्जुनदेवजी के बढ़ रहे प्रभाव से बहुत दुखी था। इसी दौरान जहांगीर का पुत्र खुसरो बगावत करके आगरा से पंजाब की ओर आ गया।


जहांगीर को यह सूचना मिली थी कि गुरु अर्जुनदेवजी ने खुसरो की मदद की है इसलिए उसने 15 मई 1606 ई. को गुरुजी को परिवार सहित पकड़ने का हुक्म जारी किया। उनका परिवार मुरतजाखान के हवाले कर घरबार लूट लिया गया। इसके बाद गुरुजी ने शहीदी प्राप्त की। अनेक कष्ट झेलते हुए गुरुजी शांत रहे, उनका मन एक बार भी कष्टों से नहीं घबराया।


गरु अर्जुनदेवजी को लाहौर में 17 जून 1606 ई. को भीषण गर्मी के दौरान ‘यासा’ के तहत लोहे कि गर्म तवी पर बिठाकर शहीद कर दिया गया। यासा के अनुसार किसी व्यक्ति का रक्त धरती पर गिराए बिना उसे यातनाएं देकर शहीद कर दिया जाता है।


गरुजी के शीश पर गर्म-गर्म रेत डाली गई। जब गुरुजी का शरीर अग्नि के कारण बुरी तरह से जल गया तो इन्हें ठंडे पानीवाले रावी दरिया में नहाने के लिए भेजा गया जहां गुरुजी का पावन शरीर रावी में आलोप हो गया। जिस स्थान पर आप ज्योति ज्योत समाए उसी स्थान पर लाहौर में रावी नदी के किनारे गुरुद्वारा डेरा साहिब (जो अब पाकिस्तान में है) का निर्माण किया गया है। गुरुजी ने लोगों को विनम्र रहने का संदेश दिया। आप विनम्रता के पुंज थे। कभी भी आपने किसी को दुर्वचन नहीं बोले।


गरवाणी में आप फरमाते हैं:

‘तेरा कीता जातो नाही मैनो जोग कीतोई॥

मै निरगुणिआरे को गुण नाही आपे तरस पयोई॥

तरस पइया मिहरामत होई सतगुर साजण मिलया॥

नानक नाम मिलै ता जीवां तनु मनु थीवै हरिया॥’



शरी गुरु अर्जुनदेवजी की शहादत के समय दिल्ली में मध्य एशिया के मुगल वंश के जहांगीर का राज था और उन्हें राजकीय कोप का ही शिकार होना पड़ा। जहांगीर ने श्री गुरु अर्जुनदेवजी को मरवाने से पहले उन्हें अमानवीय यातानाएं दी।


मसलन चार दिन तक भूखा रखा गया। ज्येष्ठ मास की तपती दोपहर में उन्हें तपते रेत पर बिठाया गया। उसके बाद खौलते पानी में रखा गया। परन्तु श्री गुरु अर्जुनदेव जी ने एक बार भी उफ तक नहीं की और इसे परमात्मा का विधान मानकर स्वीकार किया।


बाबर ने तो श्री गुरु नानकजी को भी कारागार में रखा था। लेकिन श्री गुरु नानकदेवजी ने तो पूरे देश में घूम-घूम कर हताश हुई जाति में नई प्राण चेतना फूंक दी। जहांगीर के अनुसार उनका परिवार मुरतजाखान के हवाले कर लूट लिया गया। इसके बाद गुरुजी ने शहीदी प्राप्त की। अनेक कष्ट झेलते हुए गुरुजी शांत रहे, उनका मन एक बार भी कष्टों से नहीं घबराया।


तपता तवा उनके शीतल स्वभाव के सामने सुखदाई बन गया। तपती रेत ने भी उनकी निष्ठा भंग नहीं की। गुरुजी ने प्रत्येक कष्ट हंसते-हंसते झेलकर यही अरदास की-तरा कीआ मीठा लागे॥ हरि नामु पदारथ नाटीयनक मांगे॥


जहांगीर द्वारा श्री गुरु अर्जुनदेवजी को दिए गए अमानवीय अत्याचार और अन्त में उनकी मृत्यु जहांगीर की योजना हिस्सा थी। श्री गुरु अर्जुनदेवजी, जहांगीर की असली योजना के अनुसार ‘इस्लाम के अन्दर’ तो क्या आते, इसलिए उन्होंने विरोचित शहादत के मार्ग का चयन किया। इधर जहांगीर की आगे की तीसरी पीढ़ी या फिर मुगल वंश के बाबर की छठी पीढ़ी औरंगजेब तक पहुंची। उधर श्री गुरुनानकदेव जी की दसवीं पीढ़ी श्री गुरु गोविन्द सिंह तक पहुंची।


यहां तक पहुंचते-पहुंचते ही श्री नानकदेव की दसवीं पीढ़ी ने मुगलवंश की नींव में डायनामाईट रख दिया और उसके नाश का इतिहास लिख दिया।


ससार जानता है कि मुट्ठी भर मरजीवड़े सिंह रूपी खालसा ने 700 साल पुराने विदेशी वंशजों को मुगल राज सहित सदा के लिए ठंडा कर दिया।


100 वर्ष बाद महाराजा रणजीत सिंह के नेतृत्व में भारत ने पुनः स्वतंत्रता की सांस ली। शेष तो कल का इतिहास है लेकिन इस पूरे संघर्षकाल में पंचम गुरु श्री गुरु अर्जुनदेवजी की शहादत सदा सर्वदा सूर्य के ताप की तरह प्रखर रहेगी।


गरुजी शांत और गंभीर स्वभाव के स्वामी थे। वे अपने युग के सर्वमान्य लोकनायक थे । मानव-कल्याण के लिए उन्होंने आजीवन शुभ कार्य किए।


गरुजी के शहीदी पर्व पर उन्हें याद करने का अर्थ है- धर्म की रक्षा में आत्म-बलिदान देने को भी तैयार रहना। उन्होंने संदेश दिया कि महान जीवन मूल्यों के लिए आत्म-बलिदान देने को सदैव तैयार रहना चाहिए, तभी कौम और राष्ट्र अपने गौरव के साथ जीवंत रह सकते हैं।


आज भी हिन्दू संतों को सताया जा रहा है, कहीं हत्या की जा रही है तो कहीं झूठे केस बनाकर जेल भिजवाया जा रहा है; ऐसा लग रहा है कि अभी भी मुगल काल चल रहा है जो साधु-संत ईसाई धर्मान्तरण रोकते हैं, विदेशी प्रोडक्ट बन्द करवाकर स्वदेशी अपनाने के लिए करोड़ों लोगो को प्रेरित करते है, विदेशों में जाकर हिन्दू धर्म की महिमा बताते हैं, करोड़ों लोगों का व्यसन छुड़वाते हैं, करोड़ों लोगों को सनातन हिन्दू संस्कृति के प्रति प्रेरित करते हैं, जन-जागृति लाते हैं, गरीबों में जाकर जीवनोपयोगी वस्तुओं का वितरण करते हैं, गौशालायें खोलते हैं उन महान संतों को विदेशी ताकतों के इशारे पर मीडिया द्वारा बदनाम करवाकर झूठे केस में जेल भिजवाया जा रहा है। इससे साफ पता चलता है कि मुगल तो मिट गये लेकिन आज भी उनकी नस्लें देश में हैं जो ये षड्यंत्र करवा रही हैं।


वर्तमान में भी हिन्दू समाज को जगे रहना जरूरी है नहीं तो विदेशी ताकतें देश को गुलाम बनाने की ताक में बैठी हैं।


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महाराणा प्रताप की शौर्यगाथा जानते हैं पर उनके पूर्वजों की शौर्यगाथा भी जानिए

13 जून 2021

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सर्यवंशी और चन्द्रवंशी राजाओं की सन्तान ही राजपूत लोग हैं। मेवाड़ के शासनकर्त्ता सूर्यवंशी राजपूत हैं। ये लोग सिसोदिया कहलाते हैं जो श्रीरामचन्द्रजी के पुत्र लव की सन्तान हैं। वाल्मीकि रामायण में आया है कि श्रीरामजी ने अपने अन्तिम समय लव को दक्षिण कौशल और कुश को उत्तरीय कौशल का राज्य दे दिया था। 



कर्नल जेम्सटॉड साहब की राय है कि मेवाड़ के वर्तमान शासनकर्त्ता के वंश के पूर्वज राजा कनकसेन ने ही पहले पहल जननी जन्मभूमि का त्याग किया था और इसीके किसी बेटे पोते ने सौराष्ट्र और बलभीपुर में अपने राज्य की नींव डाली थी। जिस समय शिलादित्य नामक राजा बलभीपुर में राज्य करता था, उस समय इन्होंने बलभीपुर पर आक्रमण करके उसको नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। युद्ध में बेचारा राजा भी काम न आया। इसकी रानी पुष्पवती गर्भवती थी। सन्तान की रक्षा के विचार से इसने एक गुफा में शरण ली। वहीं इसके गर्भ से एक पुत्ररत्न पैदा हुआ, जो गुह नाम से प्रसिद्ध हुआ। मेवाड़ के राजपूत लोग गुह के वंशधर होने के कारण गुहलौत कहलाते हैं।


बहुत समय के बाद इसी राजा गुह के वंश में नागादित्य नाम का एक राजा हुआ जिसका पुत्र बप्पारावल अपनी वीरता से सर्वत्र विख्यात हुआ। बप्पारावल की वीरता की जितनी भी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है। क्योंकि बप्पा सिर्फ चित्तौड़ के किले पर अपना झण्डा फहरा कर चुप नहीं बैठे थे, बल्कि अपनी अद्वितीय वीरता से इन्होंने कंधार, काश्मीर, ईराक, ईरान, तेहरान और अफगानिस्तान इत्यादि पाश्चात्य मुल्क के बादशाहों को भी जीत कर अपने अधीन कर लिया था। बप्पा रावल का असली नाम भोज था। किन्तु प्रजा इन्हें पिता के तुल्य मानती थी। यही कारण है कि वह बप्पा के नाम से विख्यात थे। बप्पा जब चित्तौड़गढ़ के गद्दी पर बैठे तो इनकी उम्र चौदह या पन्द्रह वर्ष से अधिक न थी।

इन्हीं के वंशधरों के हाथ में अब तक मेवाड़ के शासन की बागडोर चली आती है।


डोंगापुर, प्रतापगढ़ और बांसवाड़े पर भी अब तक इन्हीं की सन्तानों का अधिकार है। बप्पारावल की नवीं पीढ़ी में रावल खुमान बहुत ही विख्यात राजा हुए। इन्होंने खुरासान के एक आक्रमणकारी के दांत ऐसे खट्टे किए थे कि जिसे संसार देखकर चकित हो गया था। रावल खुमान के पश्चात् प्रसिद्ध राणा समरसिंह हुए। इस समय राजपूतों में आपसी अनबन और फूट की आग सुलग रही थी। जब भारतवर्ष को गुलामी की बेड़ियों में जकड़नेदवाले राजपूत कुलकलंक कन्नौज के राजा जयचन्द के संकेत से शहाबुद्दीन गोरी ने दिल्ली के अन्तिम हिन्दू राजा पृथ्वीराज की राजधानी दिल्ली पर आक्रमण किया था उस समय युद्ध के मैदान में राणाजी ऐसी बहादुरी से लड़े कि दुश्मन लोग भी उनकी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सके। इनका पुत्र कल्याणसिंह यवनों से लड़ता हुआ इनकी आंखों के सामने मारा गया था। इसके बाद इन्हें महाराजा पृथ्वीराज के मारे जाने का समाचार मिला। पर यह सुनकर भी इन्होंने अपने कर्त्तव्य से मुंह न मोड़ा और युद्ध में डटे रहे। जिधर निकल जाते उधर ही दुश्मनों को धराशायी कर देते थे। अन्त में आप भी इसी युद्ध में काम आये और संसार को यह दिखा गए कि सच्चे वीर लोग किस प्रकार अपने कर्त्तव्य का पालन अन्तिम श्वास तक करते रहते हैं।


राणा समरसिंह, राजा पृथ्वीराज के बहनोई थे। इनके बाद एक के बाद एक बहुत से राणा लोग मेवाड़ के सिंहासन पर बैठे। सन् १२७५ ई० में राणा लक्ष्मणसिंह गद्दी पर बैठे। उस समय वह नाबालिग थे; अतः राज्य के कठिन कार्यभार को संभालने योग्य नहीं थे और इस कारण इनके चाचा महाराणा भीमसिंह राज्य को संभालने और उचित रीति से इसका प्रबन्ध करने लगे। भीमसिंह की रानी पद्मिनी बड़ी ही रूपवती थी, साथ ही धर्मपरायण वीरांगना भी थी। अलाउद्दीन खिलजी इस समय दिल्ली का बादशाह था। इसने भी पद्मिनी की सुन्दरता का हाल सुना और अपने नापाक इरादों के कारण इसे बेगम बनाने का निश्चय किया। बस! फिर एक भारी तुर्क सेना के साथ वह चित्तौड़ पर चढ़ आया। किन्तु वीर राजपूत अपने राजा और रानी के लिए ऐसी वीरता से लड़े कि वह चित्तौड़ को विजय न कर सका। तब उसने अपनी प्रबल इच्छा जताई और कहा कि मैं एक बार रानी पद्मिनी को देख लूं। यदि मेरी बात मान ली जाएगी तो अपने लावलश्कर सहित मैं दिल्ली लौट जाऊंगा। भीमसिंह ने उत्तर दिया कि प्रत्यक्ष तो मैं पद्मिनी को दिखा न सकूंगा। किन्तु हां, एक आईना उसके सम्मुख इस प्रकार रख दिया जाएगा कि जिसमें से पद्मिनी का चेहरा उसे बखूबी दिखलाई दे। किन्तु वह स्वयं सामने न आयेगी, साथ ही यह भी शर्त रहेगी कि चित्तौड़ के भीतर वह केवल एक-दो रक्षकों के साथ आ सकता है। अलाउद्दीन ने उसकी यह बात मान ली, क्योंकि वह जानता था कि राजपूत अपनी बात के बड़े धनी होते हैं। अतः वह एक-दो आदमियों के साथ किले में चला गया और आईने में से पद्मिनी का चेहरा देख लिया। महाराणा भीमसिंह, बादशाह को किले के तक पहुंचाने चले आये, किन्तु ज्योंही वह बाहर निकले त्योंही तुर्की फौज का एक बेड़ा जो अलाउद्दीन के हुक्म से जंगल में छिपा हुआ था, घात पकड़ झपट कर निकला और भीमसिंह को छल से पकड़ कर कैद कर लिया। तब अलाउद्दीन ने कहा कि जब तक पद्मिनी अपने आप मेरे पास आकर मुझसे शादी न कर लेगी मैं राजा को नहीं छोडूंगा।

पद्मिनी पहले तो कुछ डरी, किन्तु थी वह बड़ी साहसी। उसने कहा- "मालूम हुआ तुर्कों में भी अपने वचन की आन नहीं है। इन्होंने हमें धोखा दिया है। बस इसका जवाब तुर्की ब तुर्की देना ही ठीक है। इसलिए उसने कहला भेजा कि यदि बादशाह राजा को छोड़ दे तो मैं अलाउद्दीन की बेगम बनने को खुशी से चली आऊंगी। मुझे अपनी समस्त दासियां और वस्त्राभूषण बन्द पालकियों में ले जाने की आज्ञा हो इसलिए कि जिसमें तुर्क सिपाही मुझे देख न सकें।" अलाउद्दीन ने यह बात स्वीकार कर ली। अब इधर पद्मिनी की पालकी किले से बाहर निकली। हर एक का ख्याल था कि इसमें रानी पद्मिनी है, किन्तु उसके स्थान में पालकी के भीतर एक बादल नाम का राजपूत बैठा हुआ था जिसके साथ-साथ सत्तर पालकियां और भी गयीं। तुर्क समझे कि इनमें दासियां, बांदियां और आभूषण आदि हैं, लेकिन हर एक में एक-एक राजपूत सिपाही सशस्त्र तैयार बैठा हुआ था। पालकी उठाने वाले भी कहार नहीं थे, बल्कि वास्तव में हर एक वीर राजपूत सिपाही ही थे। फिर पद्मिनी के चाचा वीर गोरा ने अलाउद्दीन से निवेदन किया कि पद्मिनी अपने पति से अन्तिम मुलाकात और उससे विदा होना चाहती है। यह सुनकर खिलजी को प्रसन्नता हुई। उसने कहा- भीमसिंह इस खेमे में बैठा है, रानी उससे मुलाकात कर सकती है। तब पालकी खेमे में ले गए, बादल बाहर निकला और उसके साथ लाए अंगकवच को भीमसिंह ने पहन लिया। भीमसिंह झट एक घोड़े पर सवार हुए और क्षण भर में पद्मिनी के रक्षार्थ उसके पास कुशलपूर्वक पहुंच गए। इधर तुर्कों और राजपूतों में घमासान लड़ाई हुई, जिसमें थोड़े ही राजपूत जीवित वापस पहुंचे। उन जीवित राजपूतों में एक बड़ा ही शूरवीर राजपूत बादल था। फिर अलाउद्दीन ने किले पर आक्रमण किया लेकिन सफल मनोरथ न हो सका इसलिए लाचार दिल्ली चला गया। साल दो साल बाद अलाउद्दीन ने पुन: अफगानियों और तुर्कों की बड़ी भारी फौज जमा कर ली और एकदम चित्तौड़ पर चढ़ आया। भीमसिंह अपने जाति के बहुत से मनुष्यों को नगर रक्षा करने में पहले ही गंवा चुके थे। जो राजपूत बाकी बच रहे थे वह सच्चे वीर और राजभक्त तो अवश्य थे परन्तु तुर्कों की सेना का सामना करने में असमर्थ थे। छ: महीनों तक यह युद्ध चलता रहा। दिन पर दिन राजपूत वीर मातृभूमि के लिए अपना सिर बलिदान करते जाते थे। इस प्रकार इधर राजपूत घट रहे थे और उधर तुर्की सेना दिल्ली से आकर बढ़ती जाती थी।


महाराणा के बारह बेटे थे। दूसरे दिन इनमें से सबसे बड़े बेटे के सिर पर सरपेच बांधा गया। इसने तीन दिन तक राज्य किया। और चौथे दिन मारा गया। इसी प्रकार बाकी में से प्रत्येक बारी-बारी से गद्दी पर बैठे। और हरेक तीन दिन तक राज्य करते हुए तुर्की की अथाह सेना से परास्त होकर मारे गए। होते-होते ग्यारह मुकुटधारियों का प्राण विसर्जन हो चुका और सबसे छोटा भाई बाकी रह गया। तब राजा ने अपने सामन्तों को अपने पास बुला करके कहा- "अब चित्तौड़ के लिए मैं अपनी जान देता हूं। अब इस बार मेरा ही सिर रणभूमि पर गिरेगा...।" अब भीमसिंह ने इस बार छोटा सा व्यूह बड़े शूरवीर सिपाहियों का रचकर तैयार कर लिया। अपने सबसे कनिष्ठ पुत्र को इस व्यूह का सेनानायक नियत कर लिया और कहा- "पुत्र! बस जाओ, तुर्कों से अभेद्य सेनादल को बेध कर अपना मार्ग निकाल लो। इनसे बचकर यहां से केवलगढ़ में चले जाओ और वहां मेवाड़ के राजा बनकर उस समय तक राज्य करो कि जब तक तुम में चित्तौड़ वापस लौट आने की पूरी शक्ति न आ जाये।" कुमार तो पहले जाने पर राजी नहीं हुए और कहने लगे- "नहीं पिताजी! मैं यहीं रहूंगा और शत्रु को मारकर पिता के साथ-साथ समर भूमि में प्राण गवाऊंगा।" किन्तु भीमसिंह ने न माना और कहा- क्या अपने वंश का एकबारगी नामोनिशान मिटाना चाहते हो? नहीं ऐसा कभी न होगा। पुत्र! तुम इसे कायम रखो। कुंवर ने लाचार होकर राजा की आज्ञा का पालन किया। अतः उसने और उसके साथियों ने दुश्मन की अथाह सेना को चीरते हुए अपना रास्ता साफ कर लिया। इसके बाद इनके खानदान में से एक व्यक्ति बहुत दिन के पश्चात् पुनः चित्तौड़ का राणा बनकर वापस लौट आया। - प्रियांशु सेठ


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जानिए औरंगजेब व मुगल साम्राज्य को कैसे खत्म किया वीर छत्रसाल ने?

12 जून 2021

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झाँसी के आसपास उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश की विशाल सीमाओं में फैली बुन्देलखण्ड की वीर भूमि में  ज्येष्ठ शुक्ल 3,विक्रम संवत 1706 (3/6/1649) को चम्पतराय और लालकुँवर के घर में वीर छत्रसाल का जन्म हुआ था। चम्पतराय सदा अपने क्षेत्र से मुगलों को खदेड़ने के प्रयास में लगे रहते थे। अतः छत्रसाल पर भी बचपन से इसी प्रकार के संस्कार पड़ गये।



छत्रसाल भारत की मुक्ति चाहते थे-


शाहजहां के कुशासन की प्रतिक्रिया स्वरूप छत्रसाल का जन्म हुआ। जब उस महायोद्घा ने देखा कि लोग एक रोटी के लिए भी अपना जीवन बेच देना चाहते हैं, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि छत्रसाल जैसे देशभक्तों के हृदयों में आग न लगी हो ? आग लगी और इतनी तेज लगी कि संपूर्ण तंत्र को ही भस्मीभूत करने के लिए प्रचण्ड हो उठी।


इसी तेज पुंज छत्रसाल को राजा सुजानसिंह की मृत्यु के उपरांत उसके भाई इंद्रमणि ने ओरछा की गद्दी संभालने के पश्चात 1674-1676 के मध्य अपनी सहायता देना बंद कर दिया, तो इस शासक के बहुत बड़े क्षेत्र को जीतकर छत्रसाल ने अपने राज्य में मिला लिया। तब इंद्रमणि पर छत्रसाल ने अपना शिकंजा कसना आरंभ किया तो वह भयभीत हो गया और उसने शीघ्र ही छत्रसाल के साथ संधि कर ली। उसने छत्रसाल को मुगलों के विरूद्घ सहायता देने का भी वचन दिया।


तहवर खां को किया परास्त-


1679 ई. में औरंगजेब ने अपने चिरशत्रु शत्रुसाल (छत्रसाल) का मान मर्दन करने के लिए अपने बहुत ही विश्वसनीय योद्घा तहवर खां को विशाल सेना के साथ भेजा। छत्रसाल इस समय संडवा बाजने में अपनी स्वयं की वर यात्रा लेकर आये हुए थे। उस समय उनकी भंवरी पड़ रही थी, तो तहवर खां ने उसी समय उन्हें घेर लिया। छत्रसाल के विश्वसनीय साथी बलदीवान ने तहवर खां से टक्कर ली। भंवरी पड़ चुकने पर छत्रसाल ने तहवरखां की सेना के पृष्ठ भाग पर आक्रमण कर दिया और जब तक तहवरखां इस सच से परिचित होता कि उसकी सेना के पृृष्ठ भाग पर मार करने वाला योद्घा ही छत्रसाल है, तब तक छत्रसाल ने तहवरखां को भारी क्षति पहुंचा दी थी।


जब तहवरखां अपनी सेना के पृष्ठ भाग की रक्षार्थ उस ओर चला तो बलदीवान भी उसके पीछे-पीछे चल दिया। रामनगर की सीमा में छत्रसाल की सेना से तहवरखां का सामना हो गया। अब सामने से छत्रसाल की सेना और पीछे से बल दीवान की सेना ने तहवरखां की सेना को मारना आरंभ कर दिया। अंत में तहवरखां वीरगढ़ की मुगल सैनिक चौकी की ओर भाग लिया। पर यह क्या? उसे तो छत्रसाल के सैनिक पहले ही नष्ट कर चुके थे। अब तो वह और भी कठिनाई में फंस गया। वीरगढ़ में उसे ऐसा लगा कि छत्रसाल की सेना मुगलों के भय से भागती फिर रही है तो उसने छत्रसाल का पीछा करना चाहा। उसे सूचना मिली कि छत्रसाल टोकरी की पहाड़ी पर छुपा है। तब वह उसी ओर चल दिया। उधर बलदीवान वीरगढ़ के पास छिपा सारी वस्तुस्थिति पर दृष्टि गढ़ाये बैठा था, उसे जैसे ही ज्ञात हुआ कि तहवरखां टोकरी की ओर बढ़ रहा है तो वह भी तुरंत उसी ओर चल दिया। छत्रसाल और बलदीवान शत्रु को इसी पहाड़ी पर ले आना चाहते थे क्योंकि यहां शत्रु को निर्णायक रूप से परास्त किया जा सकता था।


यहां से बलदीवान ने एक सैनिक टुकड़ी छत्रसाल की सहायतार्थ भेजी। उसने स्वयं ने मुगलों को ऊपर न चढ़ने देने के लिए उनसे संघर्ष आरंभ कर दिया। यहां पर छत्रसाल की सेना के हरिकृष्ण मिश्र नंदन छीपी और कृपाराम जैसे कई वीरों ने अपना बलिदान दिया। पर उनका यह बलिदान व्यर्थ नहीं गया । कुछ ही समयोपरांत मुगल सेना भागने लगी। हमीरपुर के पास उस सेना का सामना छत्रसाल से हुआ तो तहवरखां को निर्णायक रूप से परास्त कर दिया गया। तहवरखां को अपने स्वामी औरंगजेब को मुंह दिखाने का भी साहस नहीं हुआ।


कालिंजर विजय-


मुगल सत्ता व शासकों के पापों का प्रतिशोध लेता छत्रसाल अपनी नवविवाहिता पत्नी के साथ कालिंजर की ओर बढ़ा तो वहां के दुर्ग के मुगल दुर्ग रक्षक करम इलाही के हाथ-पांव फूल गये । कालिंजर का दुर्ग बहुत महत्वपूर्ण था । छत्रसाल ने 18 दिन के घेराव और संघर्ष के पश्चात अंत में इसे भी अपने अधिकार में ले ही लिया । दुर्ग पर छत्रसाल का भगवाध्वज फहर गया । इस युद्घ में बहुत से बुंदेले वीरों का बलिदान हुआ, पर उस बात की चिंता किसी को नहीं थी ।


कालिंजर विजय की प्रसन्नता में बलिदान सार्थक हो उठे । सभी ने अपने वीरगति प्राप्त साथियों के बलिदानों को नमन किया और उनके द्वारा दिखाये गये मार्ग पर चलने की प्रतिज्ञा भी की । यहीं से छत्रसाल को लोगों ने 'महाराजा' कहना आरंभ किया । ये कालिंजर की महत्ता का ही प्रमाण है कि लोग अब छत्रसाल को 'महाराजा' कहने में गौरव अनुभव करने लगे। छत्रसाल महाराजा के इस सफल प्रयास से मुगल सत्ता को उस समय कितनी ठेस पहुंची होगी?-यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है ।


छत्रसाल को घेरने की तैयारी होने लगी-

अब छत्रसाल ख्याति इतनी बढ़ चुकी थी कि उनसे ईर्ष्या करने वाले या शत्रुता मानने वाले मुगल शासकों तथा उनके चाटुकार देशद्रोही 'जयचंदों' ने उन्हें घेरने का प्रयास करना आरंभ कर दिया । औरंगजेब के लिए यह अत्यंत लज्जाजनक स्थिति थी कि छत्रसाल जैसा एक युवक उसी की सेना से निकलकर उसी के सामने छाती तानकर खड़ा हो जाए और मिट्टी में से रातों रात एक साम्राज्य खड़ा करने में सफल हो जाए। विशेषत: तब जबकि यह साम्राज्य उसी के साम्राज्य को छिन्न-भिन्न करके तैयार किया जा रहा था ।


छत्रसाल ने भी स्थिति को समझ लिया था। डा. भगवानदास गुप्त 'महाराजा छत्रसाल बुंदेला' में लिखते हैं कि-''छत्रसाल ने ऐसी परिस्थितियों में दूरदृष्टि का परिचय देते हुए औरंगजेब के पास अपने कार्यों की क्षमायाचना का एक पत्र लिखा। वास्तव में यह पत्र उन्होंने मुगलों को धोखे में डालने के लिए नाटकमात्र किया था। जिससे मुगल कुछ समय के लिए भ्रांति में रह जाएं और उन्हें अपनी तैयारियां करने का अवसर मिल जाए। क्योंकि छत्रसाल यह जान गये थे कि अब जो भी युद्घ होगा वह बड़े स्तर पर होगा। बुंदेलखण्ड की मिट्टी में रहकर किसी के लिए यह संभव ही नही था कि वह वहां स्वतंत्रता के विरूद्घ आचरण करे। इस मिट्टी में स्वतंत्रता की गंध आती थी और उस सौंधी सौंधी गंध को पाकर लोग वीरता के रस से भर जाते थे। छत्रसाल के साथ भी ऐसा ही होता था।''


सवामी प्राणनाथ और छत्रसाल-


स्वामी प्राणनाथ छत्रसाल के आध्यात्मिक गुरू थे-उन्होंने अपने प्रिय शिष्य के भीतर व्याप्त स्वतंत्रता और स्वराज्य के अमिट संस्कारों को और भी प्रखर कर दिया और उन्हें गतिशील बनाकर इस प्रकार सक्रिय किया कि संपूर्ण बुंदेलखण्ड ही नहीं, अपितु तत्कालीन हिंदू समाज भी उनसे प्राण ऊर्जा प्राप्त करने लगा। स्वामी प्राणनाथ और छत्रसाल का संबंध वैसा ही बन गया जैसा कि छत्रपति शिवाजी महाराज और समर्थ गुरू रामदास का संबंध था। स्वामी प्राणनाथ का उस समय हिन्दू समाज में अच्छा सम्मान था।


साम्राज्य निर्माता छत्रसाल-


इसके पश्चात छत्रसाल ने जलालखां नामक एक सरदार का सामना किया और उसे बेतवा के समीप परास्त कर उससे 100 अरबी घोड़े, 70 ऊंट तथा 13 तोपें प्राप्त कीं । इसी प्रकार जब औरंगजेब द्वारा बारह हजार घुड़सवारों की सेना अनवर खां के नेतृत्व में 1679 ई. में भेजी गयी तो उसे भी छत्रसाल ने परास्त कर दिया ।


इस प्रकार की अनेकों विजयों से तत्कालीन भारत के राजनीतिक गगन मंडल पर छत्रसाल ने जिस वीरता और साहस के साथ अपना साम्राज्य खड़ा किया उसने उनके नाम को इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर सदा-सदा के लिए अमर कर दिया । उनका पुरूषार्थ भारत के इतिहास के पृष्ठों को उनकी कान्ति से इस प्रकार महिमामंडित और गौरवान्वित कर गया कि लोग आज तक उन्हें सम्मान के साथ स्मरण करते हैं । उसका प्रयास हिंदू राष्ट्र निर्माण की दिशा में उठाया गया ठोस और महत्वपूर्ण कार्य था । दुर्भाग्य हमारा था कि हम ऐसे प्रयासों को निरंतर पीढ़ी दर पीढ़ी केवल इसीलिए अनवरतता या नैरतंर्य प्रदान नही कर पाये कि छत्रसाल जैसे राष्ट्रनिर्माताओं के चले जाने पर हमारे भीतर से ही कुछ 'जयचंद' उठते थे और उनके प्रयासों को धक्का देने के लिए सचेष्ट हो उठते थे ।


यह सच है कि अपने काल के बड़े-बड़े शत्रुओं को समाप्त करना और महादुष्ट और निर्मम शासकों की नाक तले साम्राज्य खड़ा कर राष्ट्र निर्माण का कार्य संपन्न करना बहुत बड़ा कार्य था। जिसे शत्रु के अत्याचारों से मुक्त होने की दिशा में उठाया गया वंदनीय कृत्य ही माना जाना चाहिए ।


औरंगजेब की नींद उड़ा दी थी छत्रसाल ने-


औरंगजेब की रातों की नींद छत्रसाल के कारण उड़ चुकी थी। वह जितने प्रयास करता था कि छत्रसाल का अंत कर दिया जाए-छत्रसाल था कि उतना ही बलशाली होकर उभरता था।


शिवाजी महाराज की मृत्यु के उपरांत 14 अप्रैल 1680 ई. में औरंगजेब ने मिर्जा सदरूद्दीन (धमौनी का सूबेदार) को छत्रसाल को बंदी बनाने के लिए भेजा। छत्रसाल इस समय अपने गुरू छत्रपति शिवाजी की मृत्यु (4 अप्रैल 1680 ई.) से आहत थे। पर वह तलवार हाथ में लेकर युद्घ के लिए सूचना मिलते ही चल दिये।


चिल्गा नौरंगाबाद (महोबा राठ के बीच) में दोनों पक्षों का आमना-सामना हो गया। छत्रसाल ने सदरूद्दीन की सेना के अग्रिम भाग पर इतनी तीव्रता से प्रहार किया कि वह जितनी शीघ्रता से आगे बढ़ रही थी उतनी ही शीघ्रता से पीछे भागने लगी। इससे सदरूद्दीन की सेना में खलबली मच गयी। सदरूद्दीन भी छत्रसाल की सेना के आक्रमण से संभल नही पाया और ना ही वह अपने भागते सैनिकों को कुछ समझा पाया कि भागिये मत, रूकिये और शत्रु का सामना वीरता से कीजिए। उसको स्वयं को भी भय लगने लगा।


सदरूद्दीन को भी पराजित होना पड़ा-


इस युद्घ में परशुराम सोलंकी जैसे अनेकों हिंदू वीरों ने अपनी अप्रतिम वीरता का प्रदर्शन किया और मुगल सेना को भागने के लिए विवश कर दिया। पर सदरूद्दीन ने अपनी सेना को ललकारा औरे कुछ समय पश्चात वह रोकने में सफल रहा। फिर युद्घ आरंभ हुआ। इस बार बुंदेले वीर छत्रसाल को मुगल सेना ने घेर लिया। पर वह वीर अपनी तलवार से शत्रु को काटता हुआ धीरे-धीरे पीछे हटता गया। वह बड़ी सावधानी से और योजनाबद्घ ढंग से पीछे हट रहा था और शत्रुसेना को अपने साथी परशुराम सोलंकी की सेना की जद में ले आने में सफल हो गया, जो पहले से ही छिपी बैठी थी। यद्यपि मुगल सैनिक छत्रसाल के पीछे हटने को ये मान बैठे थे कि वह अब हारने ही वाली है।


परशुराम के सैनिक भूखे शेर की भांति मुगलों पर टूट पड़े। युद्घ का परिदृश्य ही बदल गया , सदरूद्दीन को अब हिंदू वीरों की वीरता के साक्षात दर्शन होने लगे। वीर बुंदेले अपना बलिदान दे रहे थे और बड़ी संख्या में शत्रु के शीश उतार-उतार कर मातृभूमि के ऋण से उऋण हो रहे थे। परशुराम सोलंकी, नारायणदास, अजीतराय, बालकृष्ण, गंगाराम चौबे आदि हिंदू योद्घाओं ने मुगल सेना को काट-काटकर धरती पर शवों का ढेर लगा दिया। अपनी पराजय को आसन्न देख सदरूद्दीन मियां ने अपने हाथी से उतरकर एक घोड़े पर सवार होकर भागने का प्रयास किया। जिसे छत्रसाल ने देख लिया। वह तुरंत उस ओर लपके और सदरूद्दीन को आगे जाकर घेर लिया। सदरूद्दीन के बहुत से सैनिकों ने उसका साथ दिया। छत्रसाल की सेना के नायक गरीबदास ने यहां भयंकर रक्तपात किया और अपना बलिदान दिया। पर सिर कटे गरीबदास ने भी कई मुगलों को काटकर वीरगति प्राप्त की। मुगल सेना का फौजदार बागीदास सिर विहीन गरीब दास की तलवार का ही शिकार हुआ था। गरीबदास की स्थिति को देखकर छत्रसाल और उनके साथियों ने और भी अधिक वीरता से युद्घ करना आरंभ कर दिया।


अत में सदरूद्दीन क्षमायाचना की मुद्रा में खड़ा हो गया। उसने छत्रसाल को चौथ देने का वचन भी दिया। छत्रसाल ने तो उसे छोड़ दिया पर बादशाह औरंगजेब ने उसे भरे दरबार में बुलाकर अपमानित किया और उसके सारे पद एवं अधिकारों से उसे विहीन कर दिया।


हमीद खां को भी किया परास्त-


इसी प्रकार कुछ कालोपरांत छत्रसाल को एक हमीदखां नामक मुगल सेनापति के आक्रमण की जानकारी मिली। हमीदखां ने चित्रकूट की ओर से आक्रमण किया था और वह वहां के लोगों पर अत्याचार करने लगा था। तब उस मुगल को समाप्त करने के लिए छत्रसाल ने बलदीवान को 500 सैनिकों के साथ उधर भेजा। बलदीवान ने उस शत्रु पर जाते ही प्रबल प्रहार कर दिया और उसे प्राण बचाकर भागने के लिए विवश कर दिया। बलदीवान ने हमीद खां का पीछा किया और उसके द्वारा महोबा के जागीरदार को छत्रसाल के विरूद्घ उकसाने की सूचना पाकर उस जागीरदार को भी दंडित किया। यहां से बचकर भागा हमीद खां बरहटरा में जाकर लूटमार करने लगा तो वहां छत्रसाल के परमहितैषी कुंवरसेन धंधेरे ने हमीद खां को निर्णायक रूप से परास्त कर भागने के लिए विवश कर दिया।


मगल साम्राज्य हो गया छिन्न-भिन्न-


हम यहां पर स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि औरंगजेब भारतवर्ष में ऐसा अंतिम मुस्लिम बादशाह था-जिसके साम्राज्य की सीमाएं उसके जीवनकाल में भी तेजी से सिमटती चली गयीं। उसकी मृत्यु के पश्चात उसका साम्राज्य बड़ी तेजी से छिन्न-भिन्न हो गया था, और फिर कभी उन सीमाओं तक किसी भी मुगल बादशाह को राज्य करने का अवसर नही मिला। मुगलों के साम्राज्य को इस प्रकार छिन्न-भिन्न करने में छत्रसाल जैसे महायोद्घाओं का अप्रतिम योगदान था। हमें चाहे सन 1857 तक चले मुगल वंश के शासकों के नाम गिनवाने के लिए कितना ही विवश किया जाए पर सत्य तो यही है कि औरंगजेब की मृत्यु (1707 ई.) के पश्चात ही भारत से मुगल साम्राज्य समाप्त हो गया था। उसकी मृत्यु के पश्चात भारतीय स्वातंत्रय समर की दिशा और दशा में परिवर्तन आ गया था। जिसका उल्लेख हम यथासमय और यथास्थान करेंगे।


यहां इतना स्पष्ट कर देना समीचीन होगा कि औरंगजेब अपने जीवन में बुंदेले वीरों के पराक्रमी स्वभाव से इतना भयभीत रहा कि वह कभी स्वयं बुंदेलखण्ड आने का साहस नही कर सका। वह दूर से ही दिल्ली की रक्षा करता रहा और उसकी योजना मात्र इतनी रही कि चाहे जो कुछ हो जाए और चाहे जितने बलिदान देने पड़ जाएं पर छत्रसाल को दिल्ली से दूर बुंदेलखण्ड में ही युद्घों में उलझाये रखा जाए और उससे 'दिल्ली दूर' रखी जाए। औरंगजेब जैसे बादशाह की इस योजना को जितना समझा जाएगा उतना ही हम छत्रसाल की वीरता को समझने में सफल होंगे। इतिहास के अध्ययन का यह नियम है कि अपने चरित नायक को समझने के लिए आप उसके शत्रु पक्ष की चाल को समझें और देखें कि आपके चरितनायक ने उन चालों को किस प्रकार निरर्थक सिद्घ किया या उनका सामना किया या शत्रु पक्ष को दुर्बल किया? निश्चय ही हम ऐसा समझकर छत्रसाल के प्रति कृतज्ञता से भर जाएंगे। - लेखक : राकेश कुमार आर्य


हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे ही देश में लुटेरे, आक्रमणकारी, बलात्कारी, क्रूर मुगलों एवं अंग्रेजो इतिहास तो पढ़ाया जाता है, लेकिन छत्रसाल जैसे महान वीरों का नहीं पढ़ाया जाता है । वर्तमान सरकार से आशा कि सहीं इतिहास पढ़ाया जाएगा ।


भारत के ऐसे ही वीर सपूतों के लिए किसीने कहा है :

तुम अग्नि की भीषण लपट, जलते हुए अंगार हो ।

तुम चंचला की द्युति चपल, तीखी प्रखर असिधार हो ।।

तुम खौलती जलनिधि-लहर, गतिमय पवन उनचास हो ।

तुम राष्ट्र के इतिहास हो, तुम क्रांति की आख्यायिका ।।

भैरव प्रलय के गान हो, तुम इन्द्र के दुर्दम्य पवि ।

तुम चिर अमर बलिदान हो, तुम कालिका के कोप हो ।।

पशुपति रुद्र के भू्रलास हो, तुम राष्ट्र के इतिहास हो ।


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रामप्रसाद बिस्मिल के बलिदान के बाद उनके परिवार की दुर्दशा कैसी हुई?

11 जून 2021

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रामप्रसाद बिस्मिल बड़े होनहार नौजवान थे। गजब के शायर थे। देखने में भी बहुत सुंदर थे। बहुत योग्य थे। जाननेवाले कहते हैं कि यदि किसी और जगह, किसी और देश या किसी और समय पैदा हुए होते तो सेनाध्यक्ष होते। आपको पूरे काकोरी षड्यन्त्र का नेता माना गया है। चाहे बहुत ज्यादा पढ़े हुए नहीं थे, लेकिन फिर भी पंडित जगत नारायण जैसे सरकारी वकील की सुधबुध भुला देते थे। चीफ़ कोर्ट की अपनी अपील खुद ही लिखी थी, जिससे कि जजों को कहना पड़ा कि इसे लिखने में जरूर ही किसी बहुत बुद्धिमान व योग्य व्यक्ति का हाथ है। 



19 तारीख की शाम को आपको फाँसी दी गयी। 18 की शाम को जब उनको दूध दिया गया, तो यह कहकर इंकार कर दिया कि अब मैं माँ का दूध ही पीयूँगा। 18 को आपकी माँ से मुलाकात हुई। माँ से मिलते ही उनकी आँखों से अश्रु बह चले। माँ बहुत हिम्मतवाली देवी थीं। आपसे कहने लगी- हरिश्चंद्र, दधीचि आदि बुजुर्गों की तरह वीरता के साथ धर्म व देश के लिए जान दे, चिंता करने और पछताने की जरूरत नहीं। आप हँस पड़े। कहा- माँ मुझे क्या चिंता और पछतावा, मैंने कोई पाप नहीं किया। मैं मौत से नहीं डरता, लेकिन माँ! आग के पास रखा घी पिघल ही जाता है। तेरा मेरा सम्बन्ध ही कुछ ऐसा है कि पास होते ही आँखों में अश्रु उमर पड़े, नहीं तो मैं बहुत खुश हूँ।


फाँसी पर ले जाते समय आपने बड़े जोर से कहा- ‘वन्दे मातरम’, ‘भारत माता की जय' और शांति से चलते हुए कहा-


मालिक तेरी रजा रहे और तू ही रहे


बाकि न मैं रहूँ, न मेरी आरजू रहे


जबतक कि तन में जान रगों में लहू रहे,


तेरी ही जिक्र-ए-यार, तेरी जुस्तजू रहे!


फाँसी के तख्ते पर खड़े होकर आपने कहा-


मैं ब्रिटिश राज्य का पतन चाहता हूँ।


फिर ईश्वर के आगे प्रार्थना की और फिर एक मंत्र पढना शुरू किया। रस्सी खींची गई। रामप्रसादजी फाँसी पर लटक गए। 


अग्रेजी सरकार ने आपको अपना खौफनाफ दुश्मन समझा।  फाँसी से दो दिन पहले से सी. आई. डी. के मिस्टर हैमिल्टन आपकी मिन्नतें करते रहे कि आप मौखिक रूप से सब बातें बता दो। आपको पांच हज़ार रुपया नकद दे दिया जायेगा और सरकारी खर्च पर विलायत भेजकर बैरिस्टर की पढाई करवाई जाएगी। लेकिन वे कब इन बातों की परवाह करनेवाले थे। वे हुकुमतों को ठुकरानेवाले व कभी कभार जन्म लेनेवाले वीरों में से थे। 


पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल के परिजनों की दुर्दशा 


चंद्रशेखर आजाद से पहले भगतसिंह आदि के दल का नेतृत्व करते थे- अमर बलिदानी पंडित रामप्रसाद बिस्मिल। चंद्रशेखर आजाद बिस्मिल के आस्तिक, देशभक्तिपूर्ण व आर्यसमाजी विचारों से बहुत प्रभावित थे।

काकोरी कांड में गिरफ्तार होने पर जेल में बंद बिस्मिल को स्वार्थी संसार की असलियत का कटु अनुभव हुआ जो उन्होंने फांसी आने (19 दिसंबर 1927) से कुछ दिन पहले लिखी आत्मकथा में वर्णन किया है। सहानुभूति रखनेवाले किसी वार्डन के हाथों यह पुस्तक गुप्त रूप से बाहर (संभवतः गणेश शंकर विद्यार्थी के पास) भेजी गई। पंडित गणेश शंकर विद्यार्थी के प्रताप प्रेस से प्रकाशित हुई। ऐसा भी सुनने में आया है कि इसे सबसे पहले भजनलाल बुक सेलर द्वारा आर्ट प्रेस, सिंध ने ‘काकोरी षड्यंत्र’ शीर्षक से छापा था। फिर वर्षों बाद पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी के प्रयास से इस आत्मकथा का पुनर्जन्म हुआ। बिस्मिलजी की गिरफ्तारी और फांसी के बाद उनके परिवार की जो दयनीय दशा हुई उसका वर्णन उनकी क्रांतिकारी बहन शास्त्री देवी ने बड़े मार्मिक शब्दों में किया है।


बिस्मिलजी के परिवार ने बड़ी गरीबी में जीवन बिताया था। पर पुनः क्रांति में कूदने से पहले बिस्मिलजी ने साझे में कपड़े का कारखाना लगाकर स्थिति सुधार ली थी। जेल में जाने के बाद बिस्मिलजी ने अपने साझीदार मुरालीलाल को लिखा कि जो कुछ पैसा मेरे हिस्से का हो मेरे पिताजी को दे देना। बार-बार लिखने पर भी उसने एक पैसा भी नहीं दिया। उल्टे अकड़ दिखाने लगा और पिताजी से लड़ पड़ा।


शाहजहांपुर में रघुनाथ प्रसाद नामक एक व्यक्ति पर बिस्मिल जी माता-पिता की तरह विश्वास करते थे। इनके पास बिस्मिल जी के अपने सब अस्त्र-शस्त्र (पांच) और धन (5000/-) रखे हुए थे। बिस्मिलजी ने वकील को लिखा कि मेरे रुपए मेरे पिताजी को और हथियार बहन शास्त्री देवी को दे देना। वह भी टालता रहा और कुछ नहीं दिया। घर पर पुलिस का इतना आतंक छाया हुआ था कि उनके परिवार से कोई बात तक नहीं करता था। उनके अपने मित्र उनके पास आते हुए डरते थे। ऐसे बुरे समय में महान क्रांतिकारी पंडित गणेश शंकर विद्यार्थी ने लगभग 2000/- चंदा करके बिस्मिल आदि साथियों का अभियोग लड़ने में सहयोग किया। बिस्मिल के पिताजी के लिए पंडित जवाहरलाल ने 500/- भिजवाए। विद्यार्थीजी इन्हें परिवार के लिए 15/- मासिक देते रहे। जब बहन शास्त्री देवी को पुत्र उत्पन्न हुआ तब विद्यार्थीजी ने एक सौ रुपए सहायतार्थ भेजे


र साथ ही यह भी कह भेजा कि आप यह न समझें कि मेरा भाई नहीं है, हम सब आपके भाई हैं।  बिस्मिलजी की बहन ब्रह्मा देवी इनकी फांसी (मृत्यु) से इतनी दुःखी हो गई कि तीन-चार माह बाद ही इस असह्य शोक से पिंड छुड़ाने के लिए विष खाकर मर गई। थोड़े दिन बाद ही इनका छोटा भाई रमेश बीमार पड़ गया। (संभवतः सुशील चंद्र फांसी से पहले ही चल बसा था) रमेश की चिकित्सा धन (डाॅक्टर ने 200/- मांगे थे) के अभाव में ठीक से नहीं हो पाई और वह भी चल बसा। अब घर में खाने को दाने और पहनने को कपड़े न थे। ऐसी अवस्था में उपवास के अतिरिक्त और कोई चारा न था। अंत में उपवास करते-करते पिता श्री मुरलीधरजी भी दुःखों की गठरी माताजी (मूल मंत्री देवी) के सिर पर रखकर इस असार संसार को छोड़ चले। माताजी पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा। इसके 1 महीने बाद बहन शास्त्री देवी भी विधवा हो गई। इनके पास एक पुत्र 3 साल का था।

अपने तीन तोले के सोने के बटन बेचकर माताजी ने दो कोठरियां बनवाई। उनमें से एक कोठरी आठ रुपये मासिक किराए पर दे दी। शास्त्री देवी ने एक डाॅक्टर के यहां मासिक छः रुपये में खाना बनाने का काम किया। फिर भी एक समय कभी-कभी खाना मिलता था। बच्चा सयाना हुआ तो माताजी ने सबसे फरियाद की कि कोई इस बच्चे को पढ़ा दो। कुछ बन जाएगा। पर शाहजहांपुर में किसी ने पुकार नहीं सुनी। तबतक शास्त्री देवी का देवपुरुष भाई पंडित गणेश शंकर विद्यार्थी भी शहीद हो चुका था। 25 मार्च 1931 को कानपुर में मजहबी अंधे मुस्लिमों की भीड़ ने छुरे, कुल्हाड़ी से उन्हें बेरहमी से मारा था। शास्त्री देवी ने जैसे-तैसे करके बेटे को पांचवी तक पढ़ाया। फिर वह मजदूरी करने लगा। पर इस शहीद परिवार को देश का समाज अपराधी की तरह देख रहा था।

माताजी अन्न-वस्त्र के अभाव में जैसे-तैसे दिन गुजार रही थीं। एक दिन शीत काल का समय था। माताजी अपने कोठरी में फटा-सा कोट लपेटे हुए बैठी थीं। इतने में विष्णु शर्मा जेल से रिहा होकर माताजी के दर्शनों के लिए आ पहुँचे। वीर माताजी की यह दुर्दशा देखकर बहुत हैरान, दुःखी व देशवासियों पर क्रोधित हुए। उन्हें लाखों श्राप दिए और अपना कंबल उतारकर माता को ओढा दिया। फिर बहुत कोशिश करके विष्णु शर्मा ने यूपी सरकार द्वारा स्थापित शहीद परिवार सहायक फंड में से माताजी की पेंशन (60रुपये) बंधवाई। इससे माताजी के साथ शास्त्री देवी के परिवार (लड़का व बहू) का भी गुजारा होने लगा। पर 13 मार्च 1956 को माताजी महाप्रयाण कर गईं। पेंशन बंद होने से शास्त्री देवी के परिवार की फिर दुर्दशा हो गई। अन्न वस्त्र के अभाव में जीवन दुभर हो गया। इनका लड़का कुसंग में फंसकर घर से भाग गया। महीनों तक उसका कुछ पता न चला। एक दिन दोनों सास बहू सलाह कर रही थीं कि चलो गंगा जी में डूब जाएं, तभी पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी द्वारा भेजे गए चतुर्वेदी ओंकार नाथ पांडे ने कोसमा गांव जाकर देखा कि ये फटे कपड़े पहने हुई थीं और घर में लगभग 5 किलो अन्न था। पांडेजी ने बहन जी को 5 रुपये दिए और बनारसी दासजी को सारा हाल लिखा। उन्होंने इनकी सहायता के लिए अपील निकाली। छोटे बड़े सबसे सहयोग लेकर बनारसीदास जी ने बहनजी की सहायता की और लिखा कि ‘आप संकोच न करें, यह पैसा आपका ही है। आप कपड़ा बनवा लीजिए। अन्न भी लेकर रख लीजिए। अब आप मुसीबत न उठाइए। बहुत दुःख आपने सहे। मैं आपको दुःख नहीं होने दूंगा।’

 संभवतः बनारसी दासजी की अपील पढ़कर ही गुरुकुल झज्जर के आचार्य भगवान देव (स्वामी ओमानंद जी) अप्रैल 1959 में कोसमा (मैनपुरी) गए। बिस्मिलजी के हवन कुंड आदि ऐतिहासिक धरोहर के रूप में गुरुकुल में ले आए। एक वर्ष के लिए बहनजी की पचास रुपये मासिक वृत्ति बांध दी। गुरुकुल के उत्सव पर भी बहनजी को बुलवाकर सम्मानित करते रहे। पंडित बनारसीदास जी ने बहुत कोशिश करके बहन जी की पेंशन 40 रुपये करवाई। (1960)


पडित रामप्रसाद बिस्मिल जैसे चरित्रवान् राष्ट्रभक्त के त्याग व बलिदान को पहचानने में भारतवासियों ने इतनी देर लगा दी, जबकि श्री सुधीर विद्यार्थी के अनुसार तुर्की के राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा ने तो 1936 में बसे नए जिले (केन्या से आए विस्थापितों के लिए) का नाम ही भारत के इस महान शहीद के नाम पर ‘बिस्मिल जिला’ रख दिया था और इस जिले के अंतर्गत इसका मुख्यालय ‘बिस्मिल शहर’ के नाम से जाना जाता है। तभी तो कवि को कहना पड़ा-

अच्छाइयों की चर्चा जिनकी जहान में है।

उनका निवास अब भी कच्चे मकान में है।।

(शांतिधर्मी मासिक के अप्रैल 2020 अंक में प्रकाशित लेख का एक अंश)


आज भी जो देश-धर्म की सेवा में लगे हुए हैं उनको भी पग-पग पर विघ्न आते हैं, पर वे विचलित नहीं होते हैं- ऐसे राष्ट्रप्रेमियों और साधु-संतों व महापुरुषों का हमें साथ देना चाहिए; मीडिया, सरकार कुछ भी कहे, करें पर हमें उनका हरपल साथ देना होगा, तभी देश व सनातन धर्म की रक्षा होगी।


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अधिकतर लोग नहीं जानते आशाराम बापू के केस के इन तथ्यों के बारे में

10 जून 2021

azaadbharat.org


हिंदू संत आशाराम बापू 8 साल से जेल में हैं, उनको एक दिन भी बाहर नहीं आने दिया- उसके पीछे का कारण अधिकतर लोग जानते नहीं होंगे।



आपने मीडिया में सुना होगा कि आशाराम बापू पर रेप का आरोप लगा है पर सच्चाई यह है कि उनके ऊपर छेड़छाड़ का आरोप लगा है।

बापू आशारामजी पर आरोप लगानेवाली लड़की ने एफआईआर में लिखवाया है कि मेरे साथ छेड़छाड़ किया है लेकिन मीडिया  ने आपको बताया कि लड़की के साथ रेप हुआ जबकी लड़की ने कहीं ऐसा एफआईआर में नहीं लिखवाया है।


अब आते हैं आगे। लड़की ने लिखाया है कि मेरे साथ छेड़छाड़ हुई है लेकिन मेडिकल रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि लड़की को टच भी नहीं किया गया है। इससे साफ होता है कि लड़की के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है। वीडियो में यह देख सकते हैं।

https://youtu.be/V0sr9yHj1Go


अब सवाल उठता है कि आशाराम बापू को फिर सजा क्यों सुनाई गई?

आपको बता दें कि 2012 में पोक्सो एक्ट बनाया गया था। इस एक्ट में ऐसा प्रावधान है कि जो भी नाबालिग बच्चों के साथ अश्लीलता भरा व्यवहार करता है उसको तुरंत गिरफ्तार करना चाहिए और उसे जमानत नहीं मिलनी चाहिए तथा पुरुष जेल के अंदर ही रहकर अपने को निर्दोष साबित करे। अब आप भला सोचो किसी ने आप पर झूठा मुकदमा लगा दिया और जेल में भेज दिया और बोले कि अंदर ही बैठे-बैठे अपने-आपको निर्दोष साबित करो तो कैसे संभव है?

ऐसा ही बापू आशारामजी के साथ हुआ, केवल लड़की के बयान पर उनको सजा सुना दी।


आपको स्पष्ट बता देते हैं कि जिस समय लड़की ने छेड़छाड़ का आरोप लगाया है उस समय तो वो अपने मित्र से कॉल पर बात कर रही थी और बापू आशारामजी किसी कार्यक्रम में व्यस्त थे, वहाँ पर 50-60 लोग भी थे, उन्होंने कोर्ट में गवाही भी दी है, लड़की का कॉल डिटेल भी दिया गया है।


आपको ये भी जानना जरूरी है कि लड़की को कुछ साजिश के तहत नाबालिग बताया गया जबकि वो बालिग है क्योंकि लड़की की LIC Policy जो सुनीता सिंह जो Prosecutrix की Mother है, उसने करवाई है, उसको न्यायालय में पेश करवाया जाए,  इसके अंदर जो Date of Birth है वो 1-7-94 है। और प्रथम कक्षा में भी जो Date of Birth लिखी है उससे भी बालिग है। इससे साफ पता चलता है कि किसी साजिश के तहत उनके ऊपर मुकदमा चलाया गया है।

https://youtu.be/qS9W6m59Lek


इन सब तथ्यों को नकारकर लड़की की झूठी कहानी पर उनको आजीवन कारावास दिया गया। 85 वर्ष की उम्र है, स्वास्थ्य खराब है फिर भी 8 साल से जमानत नहीं दी जा रही है।


बता दें कि 2008 में उनके अहमदाबाद आश्रम में एक फैक्स भेजा गया था जिसमें कहा गया था कि 50 करोड़ रुपये दो वर्ना परिणाम भुगतने के लिए तैयार हो जाओ। हम झूठी लड़कियां तैयार करेंगे, प्लांट करेंगे जिसके कारण तुम जिंदगीभर जेल में रहोगे, कभी बाहर नहीं आ सकोगे।


आपने देखा होगा कि 3 दिन पहले बापू आशारामजी के आयुर्वेदिक उपचार के लिए सुनवाई थी उसमें भी गहलोत सरकार विरोध कर रही थी; उनको आयुर्वेदिक चिकित्सा के लिए भी सरकार मना कर रही है इससे साफ पता चलता है कि कितनी बड़ी साजिश होगी।


उनको साजिश के तहत फंसाना और बाहर नहीं आने देना- उसके मुख्य कारण ये हैं:-


1). लाखों धर्मांतरित ईसाइयों को पुनः हिंदू बनाया व करोड़ों हिन्दुओं को अपने धर्म के प्रति जागरूक किया व आदिवासी इलाकों में जाकर धर्म के संस्कार, मकान, जीवनोपयोगी सामग्री दी, जिससे धर्मान्तरण करानेवालों का धंधा चौपट हो गया।


2). कत्लखाने जाती हज़ारों गौ-माताओं को बचाकर उनके लिए विशाल गौशालाओं का निर्माण करवाया।


3). शिकागो विश्व धर्मपरिषद में स्वामी विवेकानंदजी के 100 साल बाद जाकर हिन्दू संस्कृति का परचम लहराया।


4). विदेशी कंपनियों द्वारा देश को लूटने से बचाकर आयुर्वेद/होम्योपैथिक के प्रचार-प्रसार द्वारा एलोपैथिक दवाइयों के कुप्रभाव से असंख्य लोगों का स्वास्थ्य और पैसा बचाया।


5). लाखों-करोड़ों विद्यार्थियों को सारस्वत्य मंत्र देकर और योग व उच्च संस्कार का प्रशिक्षण देकर ओजस्वी-तेजस्वी बनाया।


6). इंग्लैंड, पाकिस्तान, चाईना, अमेरिका और बहुत सारे देशों में जाकर सनातन हिंदू धर्म का ध्वज फहराया।


7). वैलेंटाइन डे का कुप्रभाव रोकने हेतु "मातृ-पितृ पूजन दिवस" का प्रारम्भ करवाया।


8). क्रिसमस डे के दिन प्लास्टिक के क्रिसमस ट्री को सजाने के बजाय तुलसी पूजन दिवस मनाना शुरू करवाया।


9). करोड़ों लोगों को अधर्म से धर्म की ओर मोड़ दिया।


10). नशामुक्ति अभियान के द्वारा लाखों लोगों को व्यसनमुक्त कराया।


11). वैदिक शिक्षा पर आधारित अनेकों गुरुकुल खुलवाए।


12). मुश्किल हालातों में कांची कामकोटि पीठ के "शंकराचार्य श्री जयेंद्र सरस्वतीजी", बाबा रामदेव, मोरारी बापू, साध्वी प्रज्ञा एवं अन्य संतों का साथ दिया।


13. बच्चों के लिए "बाल संस्कार केंद्र", युवाओं के लिए "युवा सेवा संघ",के लिए "महिला उत्थान मंडल" खोलकर उनका जीवन धर्ममय व उन्नत बनाया।


ऐसे अनेक भारतीय संस्कृति के उत्थान के कार्य किये हैं जो विस्तार से नहीं बता पा रहे हैं।


हिंदू संत आशाराम बापू पर जिस तरह से षड्यंत्र हुआ है उसको देखते हुए और उनके द्वारा किए गये राष्ट्र-संस्कृति व समाज उत्थान के सेवाकार्य तथा उनकी उम्र का ध्यान रखते हुए न्यायालय और सरकार को उन्हें शीघ्र रिहा करना चाहिए।


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