अंग्रेज भारत आकर आयुर्वेद का इलाज कराते हैं और हम... : - अक्षय कुमार
सेना और मार्शल आर्ट जैसे गंभीर मुद्दों पर बोलने वाले अक्षय कुमार ने एक वीडियो द्वारा आयुर्वेदिक इलाज के फायदे बताये हैं । दरअसल अक्षय कुमार ने 14 दिन केरल के एक आयुर्वेदिक आश्रम में बिताए ।
ये इस दौरान मिले अनुभव का हिस्सा हैं । आइये 10 पॉइंट्स द्वारा जाने कि अक्षय कुमार ने क्या कहा !!
अंग्रेज भारत आकर आयुर्वेद का इलाज कराते हैं और हम.- अक्षय कुमार
1). आप लोगों से सीधे बात करके मजा आ रहा है । आज मैं आपको दुःख या गुस्सा नहीं, बल्कि मुस्कान शेयर करना चाहता हूँ, पिछले कुछ दिन मैंने केरल में एक शांत आश्रम में बिताए ।
2). इस बार मेरा जो अनुभव रहा वो कमाल का था । मैंने आयुर्वेदिक के बारे में जाना ।
3). इस आश्रम में मेरे पास न टीवी था, न फोन, न ब्रांडेड कपड़े सिर्फ सादा कुर्ता- पायजामा व सादा खाना था ।
4). बहुत कम लोगों को पता है कि मैं पिछले 25 सालों से आयुर्वेदिक को अपना रहा हूँ । आयुर्वेदिक में हर बीमारी का इलाज संभव है । लेकिन लोग इसे भूलते जा रहें हैं।
5). जैसे आप कभी कभी अपनी बाइक और कार की सर्विसिंग करते हैं । ठीक उसी तरह मैंने भी अपनी बॉडी की सर्विसिंग कराई । वह आनंददायी रही ।
6). लोगो को अंदाजा ही नहीं कि आयुर्वेद के रूप में भगवान ने हमारे देश को कितना बड़ा खजाना दिया है । अंग्रेज हमारे यहां विदेश से आयुर्वेदिक इलाज कराने आते हैं और हम इससे दूर भागते हैं । दिलचस्प बात यह है कि केरल के उस आश्रम में मैं एकमात्र भारतीय था बाकि सभी विदेशी लोग थे ।
7). हमारी सरकार में एक आयुष मंत्रालय भी है । मैंने कहीं पढ़ा था यदि आप रजिस्टर्ड आयुर्वेदिक सेंटर पर इलाज करते हैं तो आपको इंश्योरेंस आदि की सुविधा भी मिलेगी ।
8) . मुझे एलोपैथी से कोई तकलीफ नहीं है , लेकिन हम अपनी भारतीय चिकित्सा पद्धति को भूल रहें हैं । यह उचित नही है । इससे तकलीफ होती है । हमारे साथ दीया तले अँधेरा जैसी स्थिति है ।
9). मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मैं किसी आयुर्वेदिक कंपनी के ब्रैंड के प्रचारक के तौर पर यह सब नही कह रहा हूँ । मैंने यह सब खुद महसूस किया है ।
10). केरल से आने के बाद मैं हल्का और शांत महसूस कर रहा हैं । ऐसा अनुभव पहले कभी नहीं मिला ।
आयुर्वेद एक निर्दोष चिकित्सा पद्धति है। इस चिकित्सा पद्धति से रोगों का पूर्ण उन्मूलन होता है और इसकी कोई भी औषध दुष्प्रभाव (साईड इफेक्ट) उत्पन्न नहीं करती। आयुर्वेद में अंतरात्मा में बैठकर समाधिदशा में खोजी हुई स्वास्थ्य की कुंजियाँ हैं। एलोपैथी में रोग की खोज के विकसित साधन तो उपलब्ध हैं लेकिन दवाइयों की प्रतिक्रिया (रिएक्शन) तथा दुष्प्रभाव (साईड इफेक्टस) बहुत हैं। अर्थात् दवाइयाँ निर्दोष नहीं हैं क्योंकि वे दवाइयाँ बाह्य प्रयोगों एवं बहिरंग साधनों द्वारा खोजी गई हैं। आयुर्वेद में अर्थाभाव, रूचि का अभाव तथा वर्षों की गुलामी के कारण भारतीय खोजों और शास्त्रों के प्रति उपेक्षा और हीन दृष्टि के कारण चरक जैसे ऋषियों और भगवान अग्निवेष जैसे महापुरुषों की खोजों का फायदा उठाने वाले उन्नत मस्तिष्कवाले वैद्य भी उतने नहीं रहे और तत्परता से फायदा उठाने वाले लोग भी कम होते गये। इसका परिणाम अभी दिखायी दे रहा है।
हम अपने दिव्य और सम्पूर्ण निर्दोष औषधीय उपचारों की उपेक्षा करके अपने साथ अन्याय कर रहे हैं। सभी भारतवासियों को चाहिए कि आयुर्वेद को विशेष महत्त्व दें और उसके अध्ययन में सुयोग्य रूचि लें। आप विश्वभर के डॉक्टरों का सर्वे करके देखें तो एलोपैथी का शायद ही कोई ऐसा डॉक्टर मिले जो 80 साल की उम्र में पूर्ण स्वस्थ, प्रसन्न, निर्लोभी हो। लेकिन आयुर्वेद के कई वैद्य 80 साल की उम्र में भी निःशुल्क उपचार करके दरिद्रनारायणों की सेवा करने वाले, भारतीय संस्कृति की सेवा करने वाले स्वस्थ सपूत हैं।
(एक जानकारी के अनुसार 2000 से भी अधिक दवाइयाँ, ज्यादा हानिकारक होने के कारण अमेरिका और जापान में जिनकी बिक्री पर रोक लगायी जाती है, अब भारत में बिक रही हैं। तटस्थ नेता स्वर्गीय मोरारजी देसाई उन दवाइयों की बिक्री पर बंदिश लगाना चाहते थे और बिक्री योग्य दवाइयों पर उनके दुष्प्रभाव हिन्दी में छपवाना चाहते थे। मगर अंधे स्वार्थ व धन के लोभ के कारण मानव-स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने वाले दवाई बनाने वाली कंपनियों के संगठन ने उन पर रोक नहीं लगने दी। ऐसा हमने-आपने सुना है।)
अतः हे भारतवासियों! हानिकारक रसायनों से और कई विकृतियों से भरी हुई एलोपैथी दवाइयों को अपने शरीर में डालकर अपने भविष्य को अंधकारमय न बनायें।
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भले ही कुछ लोग आलोचना करते हो लेकिन वे दुनिया में पहले ऐसे बहादुर शख्स हैं जो राष्ट्रपति पद पर होते हुए भी मीडिया की बेईमानी के खिलाफ लोहा ले रहे हैं ।
RealDonaldTrump is first President of America, is such a Brave man who is constantly Fighting Against #Unscrupulous and #CorruptMedia420
उन्होंने राष्ट्रपति पद ग्रहण करते ही मीडिया की बेईमानी पर बोलना चालू किया था ।
उनके शपथ ग्रहण समारोह के समय दर्शकों की संख्या कम बताने पर उन्होंने मीडिया को चेतावनी देकर कहा गया था कि गलत रिपोर्टिंग के लिए भुगतना पड़ेगा खामियाजा ।
उनका कहना था कि करीब एक मिलियन या डेढ़ मिलियन लोग उनके शपथ ग्रहण समारोह में आए थे पर चैनल वालों ने वह जगह न दिखाकर जो जगह एकदम खाली थी वो दिखाई जहां पर शायद कोई नहीं था । मीडिया को इस झूठ की कीमत चुकानी होगी।
ट्रंप ने सीआईए के हेडक्वार्टर में कहा कि, 'मीडिया के लोग धरती पर मानव जाति में सबसे बेईमान हैं।'
रैली में मीडिया पर जमकर बरसे ट्रंप!!
फ्लोरिडा में एक रैली के दौरान ट्रंप ने मीडिया पर जमकर निशाना साधा और कहा कि मीडिया फर्जी और बेईमान है।
ट्रंप ने मेलबर्न में शनिवार को करीब 9000 लोगों की भीड़ को संबोधित करते हुए कहा कि मीडिया अपनी खबरों में सच बताना नहीं चाहता।
ट्रंप ने मीडिया को समस्याओं और भ्रष्ट प्रणाली का हिस्सा बताया। उन्होंने कहा कि,‘मीडिया का अपना खुद का एजेंडा है और उनका एजेंडा आपका एजेंडा नहीं है।
व्हाइट हाउस में बहुत सुचारु रूप से काम चल रहा है। यह बेईमान मीडिया एक के बाद एक झूठी और फर्जी खबर प्रकाशित करती है, बिना किसी सूत्र के। यहां तक कि वे कहते हैं कि उनके पास सूत्र हैं।’
मीडिया लोगों का दुश्मन है!!
ट्रंप ने ट्वीट किया, ‘‘Fake News’ मीडिया (नाकाम हो रहे एनवाईटाइम्स, एनबीसीन्यूज, एबीसी, सीबीएस, सीएनएन) मेरा दुश्मन नहीं है, वह अमेरिकी लोगों का दुश्मन है ।’’
उन्होंने अपने उस बयान के एक दिन बाद यह तीखा हमला किया है जिसमें उन्होंने कहा था कि उनका प्रशासन अच्छी तरह काम कर रहा है और व्हाइट हाउस के भीतर कोई ‘अव्यवस्था’ नहीं है जैसा कि मीडिया की ‘झूठी’ रिपोर्टों में बताया जा रहा है ।
ट्रंप ने मीडिया की आलोचना करते हुए जो यह ट्वीट की है वह कुछ ही घंटों में वायरल हो गई। इस ट्वीट को 28,000 लोगों ने रीट्वीट और 85,000 ने लाइक किया है । इस बीच ‘फॉक्स न्यूज’ ने एक ओपिनियन पोल में कहा कि 42 के मुकाबले 45 प्रतिशत मतदाताओं का यह कहना है कि व्हाइट हाउस मीडिया की तुलना में ज्यादा सच्चा है ।
व्हाइट हाउस की प्रेसवार्ता से बीबीसी, न्यूयार्क टाइम्स बाहर!!
कंजरवेटिव पॉलिटिकल एक्शन कांग्रेस (सीपीएसी) में दिए अपने संबोधन में पहले तेरह मिनट तक वो मीडिया की आलोचना करते रहे ।
मैरीलैंड में हुए ट्रंप के भाषण के कुछ घंटे बाद ही मीडिया और ट्रंप के रिश्तों में नया टकराव देखने को मिला ।
व्हाइट हाउस में ट्रंप के प्रवक्ता शॉन स्पाइसर की प्रेस वार्ता में बीबीसी, द न्यूयॉर्क टाइम्स, और सीएनएन जैसे संस्थानों के पत्रकारों को शामिल ही नहीं होने दिया गया ।
पत्रकारों के वार्षिक समारोह से दूर रहेंगे ट्रंप!!
पत्रकारों का वार्षिक समारोह अमेरिका में 1920 से चला आ रहा है इस बार 29 अप्रैल को व्हाइट हाउस में आयोजित होने वाला है उसमें ट्रंप ने शामिल नहीं होने की घोषणा की है। ट्रंप कई दशकों में व्हाइट हाउस करेस्पोंडेंट्स एसोसिएशन के सालाना डिनर में नहीं जाने वाले पहले राष्ट्रपति होंगे। ट्रंप ने माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर पर लिखा कि, मैं व्हाइट हाउस करेस्पोंडेंट्स एसोसिएशन के डिनर में इस साल भाग नहीं लूंगा।
अभी तक तो आम जनता एवं सुप्रसिद्ध हस्तियों द्वारा मीडिया के खिलाफ आवाज उठाई गई थी लेकिन अब राष्ट्रपति पद पर रहते हुए भी ट्रंप ने मीडिया की बेईमानी से लोहा लेना शुरू कर दिया है ।
अब मीडिया वालों की दोगली एवं कपट भरी रणनीति का चेहरा दुनिया के सामने आ चुका है!!
मीडिया टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग पॉइंट ) और पैसे की लालच में अंधाधुन खबरें छापते हैं। हर गांव में हर मौहल्ले में दिन भर में कुछ न कुछ तो खबर होती है लेकिन उसको नही दिखाते है उनको जिस खबर का पैसा मिलता हो या टीआरपी मिलती हो उसी खबर को ही छापते और दिखाते हैं ।
भारतीय मीडिया भी हमेशा से हिंदू विरोधी न्यूज दिखाकर समाज को गुमराह करती आ रही है शायद इस एजेंडे के पीछे का मकसद भारत में रहकर भारत की संस्कृति को बर्बाद कर देना ही है ।
अतः बेईमान, भ्रष्ट मीडिया की खबरों से सावधान रहें!!
वो समय और था जब पत्रकारिता समाज तक सच्चाई पहुँचाने का साधन थी आज मीडिया बन चुकी है ब्लैकमेलिंग का धंधा!!
चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को एक आदिवासी ग्राम भाबरा में हुआ था।
काकोरी ट्रेन डकैती और साण्डर्स की हत्या में सम्मिलित निर्भीक महान देशभक्त व क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अहम स्थान रखता है।
ऐतिहासिक दृष्टि से वे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के स्वतंत्रता सेनानी थे। वे पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल व सरदार भगत सिंह सरीखे क्रान्तिकारियों के अनन्यतम साथियों में से थे।
chandra-shekhar-Azaad-martyr-day-27-february
सन् 1922 में गाँधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन को अचानक बन्द कर देने के कारण उनकी विचारधारा में बदलाव आया और वे क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़ कर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन के सक्रिय सदस्य बन गये। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में पहले 9 अगस्त 1925 को काकोरी काण्ड किया और फरार हो गये। इसके पश्चात् सन् 1927 में 'बिस्मिल' के साथ 4 प्रमुख साथियों के बलिदान के बाद उन्होंने उत्तर भारत की सभी क्रान्तिकारी पार्टियों को मिलाकर एक करते हुए हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसियेशन का गठन किया तथा भगत सिंह के साथ लाहौर में लाला लाजपत राय की मौत का बदला सॉण्डर्स का हत्या करके लिया एवं दिल्ली पहुँच कर असेम्बली बम काण्ड को अंजाम दिया।
चंद्रशेखर आजाद का आत्म-बलिदान!!
साण्डर्स-वध और दिल्ली एसेम्बली बम काण्ड में फाँसी की सजा पाये तीन अभियुक्तों- भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर ही दिया था। अन्य सजायाफ्ता अभियुक्तों में से सिर्फ 3 ने ही प्रिवी कौन्सिल में अपील की। 11 फरवरी 1931 को लन्दन की प्रिवी कौन्सिल में अपील की सुनवाई हुई। इन अभियुक्तों की ओर से एडवोकेट प्रिन्ट ने बहस की अनुमति माँगी थी किन्तु उन्हें अनुमति नहीं मिली और बहस सुने बिना ही अपील खारिज कर दी गयी। चन्द्रशेखर आजाद ने मृत्यु दण्ड पाये तीनों प्रमुख क्रान्तिकारियों की सजा कम कराने का काफी प्रयास किया। वे उत्तर प्रदेश की हरदोई जेल में जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी ने उन्हें इलाहाबाद जाकर जवाहर लाल नेहरू से मिलने को कहा। चंद्रशेखर आजाद जब नेहरू से मिलने आनंद भवन गए तो उन्होंने चंद्रशेखर की बात सुनने से भी इन्कार कर दिया। गुस्से में वहाँ से निकलकर चंद्रशेखर आजाद अपने साथी सुखदेव राज के साथ एल्फ्रेड पार्क चले गए। किसी मुखबिर ने पुलिस को यह सूचना दी कि चन्द्रशेखर आजाद 'अल्फ़्रेड पार्क' में अपने एक साथी के साथ बैठे हुए हैं। वह 27 फरवरी 1931 का दिन था। चन्द्रशेखर आजाद अपने साथी सुखदेव राज के साथ बैठकर विचार–विमर्श कर रहे थे। मुखबिर की सूचना पर पुलिस अधीक्षक 'नाटबाबर' ने आजाद को इलाहाबाद के अल्फ़्रेड पार्क में घेर लिया। "तुम कौन हो" कहने के साथ ही उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना नाटबाबर ने अपनी गोली आजाद पर छोड़ दी। नाटबाबर की गोली चन्द्रशेखर आजाद की जाँघ में जा लगी। आजाद ने घिसटकर एक जामुन के वृक्ष की ओट लेकर अपनी गोली दूसरे वृक्ष की ओट में छिपे हुए नाटबाबर के ऊपर दाग दी। आजाद का निशाना सही लगा और उनकी गोली ने नाटबाबर की कलाई तोड़ दी। एक घनी झाड़ी के पीछे सी.आई.डी. इंस्पेक्टर विश्वेश्वर सिंह छिपा हुआ था, उसने स्वयं को सुरक्षित समझकर आजाद को एक गाली दे दी। गाली को सुनकर आजाद को क्रोध आया। जिस दिशा से गाली की आवाज आई थी, उस दिशा में आजाद ने अपनी गोली छोड़ दी। निशाना इतना सही लगा कि आजाद की गोली ने विश्वेश्वरसिंह का जबड़ा तोड़ दिया।
शहादत!!
बहुत देर तक आजाद ने जमकर अकेले ही मुकाबला किया। उन्होंने अपने साथी सुखदेवराज को पहले ही भगा दिया था। आखिर पुलिस की कई गोलियाँ आजाद के शरीर में समा गई थी । उनके माउजर में केवल एक आखिरी गोली बची थी तो उन्हें पुलिस का सामना करना मुश्किल लगा। चंद्रशेखर आजाद ने यह प्रण लिया हुआ था कि वह कभी भी जीवित पुलिस के हाथ नहीं आएंगे। इसी प्रण को निभाते हुए एल्फ्रेड पार्क में 27 फरवरी 1931 को उन्होंने वह बची हुई गोली स्वयं पर दाग के आत्म-बलिदान कर लिया।
पुलिस के अंदर चंद्रशेखर आजाद का भय इतना था कि किसी को भी उनके मृत शरीर के पास जाने तक की हिम्मत नहीं थी। उनके मृत शरीर पर गोलियाँ चलाकर पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद ही चंद्रशेखर की मृत्यु की पुष्टि की गई।
पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये चन्द्रशेखर आजाद का अन्तिम संस्कार कर दिया था। जैसे ही आजाद के बलिदान की खबर जनता को लगी सारा इलाहाबाद अलफ्रेड पार्क में उमड़ पड़ा । जिस वृक्ष के नीचे आजाद शहीद हुए थे लोग उस वृक्ष की पूजा करने लगे। वृक्ष के तने के इर्द-गिर्द झण्डियाँ बाँध दी गयी। लोग उस स्थान की माटी को कपडों में शीशियों में भरकर ले जाने लगे। समूचे शहर में आजाद की बलिदान की खबर से जबरदस्त तनाव हो गया। शाम होते-होते सरकारी प्रतिष्ठानों पर हमले होने लगे। लोग सड़को पर आ गये।
आजाद के बलिदान की खबर जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू को मिली तो उन्होंने तमाम काँग्रेसी नेताओं व अन्य देशभक्तों को इसकी सूचना दी। बाद में शाम के वक्त लोगों का हुजूम पुरुषोत्तम दास टंडन के नेतृत्व में इलाहाबाद के रसूलाबाद शमशान घाट पर कमला नेहरू को साथ लेकर पहुँचा। अगले दिन आजाद की अस्थियाँ चुनकर युवकों का एक जुलूस निकाला गया। इस जुलूस में इतनी ज्यादा भीड़ थी कि इलाहाबाद की मुख्य सड़को पर जाम लग गया। ऐसा लग रहा था जैसे इलाहाबाद की जनता के रूप में सारा हिन्दुस्तान अपने इस सपूत को अंतिम विदाई देने उमड़ पड़ा हो। जुलूस के बाद सभा हुई। सभा को शचीन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी प्रतिभा सान्याल ने सम्बोधित करते हुए कहा कि जैसे बंगाल में खुदीराम बोस के बलिदान के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रखकर सम्मानित किया वैसे ही आजाद को भी सम्मान मिलेगा। सभा को कमला नेहरू तथा पुरुषोत्तम दास टंडन ने भी सम्बोधित किया। इससे कुछ ही दिन पूर्व 6 फरवरी 1927 को पण्डित मोतीलाल नेहरू के देहान्त के बाद आजाद भेष बदलकर उनकी शवयात्रा में शामिल हुए थे।
व्यक्तिगत जीवन!!
चंद्रशेखर आजाद को वेष बदलना बहुत अच्छी तरह आता था।वह रूसी क्रान्तिकारी की कहानियों से बहुत प्रभावित थे। उनके पास हिन्दी में लेनिन की लिखी पुस्तक भी थी। किंतु उनको स्वयं पढ़ने से अधिक दूसरों को पढ़कर सुनाने में अधिक आनंद आता था।चंद्रशेखर आजाद सदैव सत्य बोलते थे।चंद्रशेखर आजाद ने साहस की नई कहानी लिखी। उनके बलिदान से स्वतंत्रता के लिए आंदोलन तेज हो गया। हजारों युवक स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े।आजाद के शहीद होने के सोलह वर्षों के बाद 15 अगस्त सन् 1947 को भारत की आजादी का उनका सपना पूरा हुआ।
बाद में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात जिस पार्क में उनका निधन हुआ था उसका नाम परिवर्तित कर चंद्रशेखर आजाद पार्क और मध्य प्रदेश के जिस गांव में वह रहे थे उसका धिमारपुरा नाम बदलकर आजादपुरा रखा गया।
यह देश का दुर्भाग्य है कि आज हमें चॉक्लेट डे, वेलेंटाइन डे, फ्रेंडशिप डे जैसे विदेशी दिवस तो याद रहते हैं लेकिन जिन देशभक्तों ने अंग्रेजों की गुलामी की जंजीरो से बंधे देश को छुड़ाने के लिए बलिदान दिया वो किसी को याद नही ।
जरा विचार कीजिये कि देश को आजादी दिलाने के लिए अपने प्राणों की आहुति देनेवाले इन वीर शहीदों के सपने को हम कहाँ तक साकार कर सके हैं..???
हमने उनके बलिदानों का कितना आदर किया है...???
वास्तव में, हमने उन अमर शहीदों के बलिदानों को कोई सम्मान ही नहीं दिया है । तभी तो स्वतंत्रता के 70 वर्ष बाद भी हमारा देश पश्चिमी संस्कृति की गुलामी में जकड़ा हुआ है।
इन महापुरुषों की सच्ची पुण्यतिथि तो तभी मनाई जाएगी, जब प्रत्येक भारतवासी उनके जीवन को अपना आदर्श बनायेंगे, उनके सपनों को साकार करेंगे तथा जैसे भारत का निर्माण वे महापुरुष करना चाहते थे, वैसा ही हम करके दिखायें ।
पब्लिक जो मीडिया दिखाती हैं उसको ही सच मान बैठती है : श्री गुरुमाँ कंचनगीरीजी
जूना अखाड़ा राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं महाकाल मानव सेवा संस्थान की श्री गुरुमाँ कंचनगीरीजी ने एक निजी चैनल में अपना इंटरव्यू देते हुए कहा कि देखिए! आज की डेट में सभी साधु-संतों को टारगेट किया जा रहा है। कारण बस यही है कि हमारे हिन्दू धर्म में कोई भी बलपूर्वक कभी सामने नहीं आते हैं ।
अगर कोई संत फंस जाते हैं तो बाकी सब चुप बैठ जाते हैं । संत संस्कृति का प्रचार करते हैं, जगह-जगह जाकर प्रवचन के द्वारा लोगों में हिन्दू संस्कृति का ज्ञान देना ये बहुत बड़ा कार्य है जो हिन्दू संतों द्वारा किया जा रहा है इसलिए उन्हें टारगेट किया जा रहा है जिससे हिंदुत्व खत्म किया जा सके । लेकिन हम सब को आगे आना पड़ेगा, उसके लिए प्रयास करना पड़ेगा ।
कुछ मीडिया भी कारण बन रही है । जब भी किसी संत को टारगेट किया गया है तो उतना ही ज्यादा उनके बारे में मीडिया द्वारा गलत दिखाया जाता है और पब्लिक की सोच भी ऐसी हो गई है कि जैसा मीडिया दिखाती है उसको ही सच मान बैठती हैं ।
मीडिया जो है वो असत्य को आगे लाके दिखाती है, और हम सत्य को सामने लाने की कोशिश करते हैं तो हमारे पीछे प्रशासन मीडिया सभी पड़ते हैं ।
तो अपनी सोच को बदलना पड़ेगा, पब्लिक को अपने आपको बदलना पड़ेगा । अपने आप से विवेक अंदर रखना पड़ेगा।
जैसे संत आसारामजी बापू हैं कि इस ऐज (80 वर्ष की उम्र) में वो इस प्रकार का कार्य कर ही नहीं सकते हैं । उनके उपर इल्जाम लगे हैं, आरोप प्रति आरोप लगे हैं ।
तो मैं ये कहना चाहूंगी लोगों को, खुद ही एकांत में सोचे कि क्या ये अवस्था ये करने की है..??
तो यही अपील करना चाहूंगी लोगों से कि आप कम से कम सच को जानने की कोशिश करें। जो संत (आसारामजी बापू जैसे) हैं हजार संतों के बराबर हैं ।
आज जिस परिस्थिति में संत आसारामजी बापू जेल में हैं । वो अपने दुःख का विषय है। तो हम सबको आगे आना चाहिए ।
मैंने संतो के लिए मुहीम भी छेड़ दी है महाकाल मानव सेवा की तरफ से । अभी हम साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के लिए भी कुछ न कुछ कार्य करेगें और संत आसारामजी बापू के लिए हमने पहले से ही मुहीम छेड़ी हुई है। बहुत जल्द ही आप हमारी टी.वी चैनल पर देखेगें गुरुमाँ की धर्म धारा जितने भी संत हैं जिन पर आरोप लगाया गया है उनको उस अदालत में बुलाया जाएगा ।
गौरतलब है कि साध्वी प्रज्ञा 9 साल से और संत आसारामजी बापू 40 महीने से जेल में बंद है जबकि उनपर अभीतक एक भी आरोप सिद्ध नही हुआ है यहाँ तक कि उनको क्लीनचिट भी मिल चुकी है लेकिन उनको अभीतक जमानत नही मिलने पर गुरु माँ कंचनगिरी ने उनकी शीघ्र रिहाई के लिए मुहीम छेड़ दी है ।
आपको बता दें कि इस तरह से पहले भी साधु-संत एवं कई हिन्दू संगठन साध्वी प्रज्ञा और बापू आसारामजी की शीघ्र रिहाई के लिये कई आंदोलन कर चुके हैं और सरकार से मांग भी की है कि साध्वी प्रज्ञा और बापू आसारामजी को षड़यंत्र के तहत फंसाया गया है जिसके कई प्रमाण भी मिले हैं पर उनको जमानत जैसे मौलिक अधिकार से भी दूर रखा जा रहा है।
आइये जाने #राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक तथा महान विचारक
#श्री माधव सदाशिव गोलवलकर (श्रीगुरुजी ) के बारे में...
श्री #गोलवलकर गुरूजी का जन्म माघ कृष्ण 11 संवत 1963 तदनुसार 19 फरवरी 1906 को महाराष्ट्र के रामटेक में हुआ था। वे अपने माता-पिता की चौथी संतान थे। उनके पिता का नाम श्री सदाशिव राव उपाख्य 'भाऊ जी' तथा माता का श्रीमती लक्ष्मीबाई उपाख्य 'ताई' था। उनका बचपन में नाम #माधव रखा गया पर परिवार में वे मधु के नाम से ही पुकारे जाते थे। पिताश्री सदाशिव राव प्रारम्भ में डाक-तार विभाग में कार्यरत थे परन्तु बाद में सन् 1908 में उनकी नियुक्ति शिक्षा विभाग में अध्यापक पद पर हो गयी।
शिक्षा के साथ अन्य अभिरुचियाँ!!
माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर
मधु जब मात्र दो वर्ष के थे तभी से उनकी शिक्षा प्रारम्भ हो गयी थी। पिताश्री भाऊजी जो भी उन्हें पढ़ाते थे उसे वे सहज ही कंठस्थ कर लेते थे। बालक मधु में कुशाग्र बुध्दि, ज्ञान की लालसा, असामान्य स्मरण शक्ति जैसे गुणों का समुच्चय विकास बचपन से ही हो रहा था। सन् 1919 में उन्होंने 'हाई स्कूल की प्रवेश परीक्षा' में विशेष #योग्यता दिखाकर छात्रवृत्ति प्राप्त की। सन् 1922 में 16 वर्ष की आयु में माधव ने मैट्रिक की परीक्षा चाँदा (अब चन्द्रपुर) के 'जुबली हाई स्कूल' से उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् सन् 1924 में उन्होंने #नागपुर की ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित 'हिस्लाप कॉलेज' से विज्ञान विषय में इण्टरमीडिएट की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की। #अंग्रेजी विषय में उन्हें प्रथम पारितोषिक मिला। वे भरपूर हॉकी तो खेलते ही थे कभी-कभी टेनिस भी खेल लिया करते थे। इसके अतिरिक्त व्यायाम का भी उन्हें शौक था। मलखम्ब के करतब, पकड़ एवं कूद आदि में वे काफी निपुण थे। विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने बाँसुरी एवं सितार वादन में भी अच्छी प्रवीणता हासिल कर ली थी।
विश्वविद्यालय में ही आध्यात्मिक रुझान!!
इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद माधवराव के #जीवन में एक नये दूरगामी परिणाम वाले अध्याय का प्रारम्भ सन् 1924 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश के साथ हुआ। सन् 1926 में उन्होंने बी.एससी. और सन् 1928 में एम.एससी. की परीक्षायें भी प्राणि-शास्त्र विषय में प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण की। इस तरह उनका विद्यार्थी जीवन अत्यन्त यशस्वी रहा। विश्वविद्यालय में बिताये चार वर्षों के कालखण्ड में उन्होंने विषय के अध्ययन के अलावा "संस्कृत महाकाव्यों, पाश्चात्य दर्शन, श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द की ओजपूर्ण एवं प्रेरक 'विचार सम्पदा', भिन्न-भिन्न उपासना-पंथों के प्रमुख ग्रंथों तथा शास्त्रीय विषयों के अनेक ग्रंथों का आस्थापूर्वक पठन किया" । इसी बीच उनकी रुचि आध्यात्मिक जीवन की ओर जागृत हुई। एम.एससी. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् वे प्राणि-शास्त्र विषय में 'मत्स्य जीवन' पर शोध कार्य हेतु मद्रास (चेन्नई) के मत्स्यालय से जुड़ गये। एक वर्ष के दौरान ही उनके पिता श्री भाऊजी सेवानिवृत्त हो गये, जिसके कारण वह श्री गुरूजी को पैसा भेजने में असमर्थ हो गये। इसी मद्रास-प्रवास के दौरान वे गम्भीर रूप से बीमार पड़ गये। चिकित्सक का विचार था कि यदि सावधानी नहीं बरती तो रोग गम्भीर रूप धारण कर सकता है। दो माह के इलाज के बाद वे रोगमुक्त तो हुए परन्तु उनका स्वास्थ्य पूर्णरूपेण से पूर्ववत् नहीं रहा। मद्रास प्रवास के दौरान जब वे शोध में कार्यरत थे तो एक बार हैदराबाद का निजाम मत्स्यालय देखने आया। नियमानुसार प्रवेश-शुल्क दिये बिना उसे प्रवेश देने से श्री गुरूजी ने इन्कार कर दिया । आर्थिक तंगी के कारण श्री गुरूजी को अपना शोध-कार्य अधूरा छोड़ कर अप्रैल 1929 में नागपुर वापस लौटना पड़ा। उनमें अद्भुत क्षमता थी लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की।
प्राध्यापक के रूप में श्रीगुरूजी!!
नागपुर आकर भी उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहा। इसके साथ ही उनके परिवार की आर्थिक स्थिति भी अत्यन्त खराब हो गयी थी। इसी बीच #बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्हें निर्देशक पद पर सेवा करने का प्रस्ताव मिला। 16 अगस्त सन् 1931 को श्री गुरूजी ने बनारस हिन्दू #विश्वविद्यालय के प्राणि-शास्त्र विभाग में निर्देशक का पद संभाल लिया। चूँकि यह अस्थायी नियुक्ति थी। इस कारण वे प्राय: चिन्तित भी रहा करते थे।
अपने विद्यार्थी जीवन में भी माधव राव अपने मित्रों के अध्ययन में उनका मार्गदर्शन किया करते थे और अब तो अध्यापन उनकी आजीविका का साधन ही बन गया था। उनके अध्यापन का विषय यद्यपि प्राणि-विज्ञान था, विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनकी प्रतिभा पहचान कर उन्हें बी.ए. की कक्षा के छात्रों को अंग्रेजी और राजनीति शास्त्र भी पढ़ाने का अवसर दिया। अध्यापक के नाते माधव राव अपनी विलक्षण प्रतिभा और योग्यता से छात्रों में इतने अधिक लोकप्रिय हो गये कि उनके छात्र उनको गुरुजी के नाम से सम्बोधित करने लगे। इसी नाम से वे आगे चलकर जीवन भर जाने गये। माधव राव यद्यपि विज्ञान के परास्नातक थे, फिर भी आवश्यकता पड़ने पर अपने छात्रों तथा मित्रों को अंग्रेजी, अर्थशास्त्र, गणित तथा दर्शन जैसे अन्य विषय भी पढ़ाने को सदैव तत्पर रहते थे । यदि उन्हें पुस्तकालय में पुस्तकें नहीं मिलती थी, तो वे उन्हें खरीद कर और पढ़कर जिज्ञासी छात्रों एवं मित्रों की सहायता करते रहते थे। उनके वेतन का बहुतांश अपने होनहार छात्र-मित्रों की फीस भर देने अथवा उनकी पुस्तकें खरीद देने में ही व्यय हो जाया करता था।
संघ प्रवेश!!
सबसे पहले "डॉ॰ हेडगेवार" के द्वारा #काशी विश्वविद्यालय भेजे गए नागपुर के #स्वयंसेवक #भैयाजी #दाणी के द्वारा #श्री #गुरूजी #संघ के सम्पर्क में आये और उस शाखा के संघचालक भी बने। 1937 में वो नागपुर वापस आ गए। नागपुर में श्री गुरूजी के जीवन में एक दम नए मोड़ का आरम्भ हो गया। "डॉ हेडगेवार" के सानिध्य में उन्होंने एक अत्यंत प्रेरणा दायक राष्ट्र समर्पित व्यक्तित्व को देखा। किसी आप्त व्यक्ति के द्वारा इस विषय पर पूछने पर उन्होंने कहा- "मेरा रुझान राष्ट्र संगठन कार्य की ओर प्रारम्भ से है। यह कार्य संघ में रहकर अधिक परिणामकारिता से मैं कर सकूँगा ऐसा मेरा विश्वास है। इसलिए मैंने संघ कार्य में ही स्वयं को समर्पित कर दिया। मुझे लगता है स्वामी विवेकानंद के तत्वज्ञान और कार्यपद्धति से मेरा यह आचरण सर्वथा सुसंगत है।" 1938 के पश्चात संघ कार्य को ही उन्होंने अपना जीवन कार्य मान लिया। #डॉ हेडगेवार के साथ निरंतर रहते हुये अपना सारा ध्यान संघ कार्य पर ही केंद्रित किया। इससे डॉ हेडगेवार जी का ध्येय पूर्ण हुआ।
द्वितीय संघचालक हेतु नियुक्ति
#राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक "डॉ हेडगेवार" के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भाव और प्रबल आत्म संयम होने की वजह से 1939 में #माधव सदाशिव गोलवलकर को संघ का सरकार्यवाह नियुक्त किया गया। 1940 में "हेडगेवार" का ज्वर बढ़ता ही गया और अपना अंत समय जानकर उन्होंने उपस्थित कार्यकर्ताओं के सामने माधव को अपने पास बुलाया और कहा "अब आप ही संघ का कार्य सम्भालें"। 21 जून 1940 को हेडगेवार अनंत में विलीन हो गए।
भारत छोड़ो- श्री गुरूजी का दृष्टिकोण!!
9 अगस्त 1942 को बिना शक्ति के ही कांग्रेस ने अंग्रेजों के खिलाफ "भारत छोड़ो" आंदोलन छेड़ दिया। देश भर में बड़ा #आंदोलन शुरू तो हो गया, परन्तु असंगठित दिशाहीन होने से जनता की तरफ से कई प्रकार की तोड़ फोड़ होने लगी। सत्ताधारियों ने बड़ी क्रूरता से दमन नीतियाँ अपनाई। 2-3 महीने होते-होते आंदोलन की चिंगारी शांत हो गई। देश के सभी नेता कारागार में थे और उनकी रिहाई की कोई आशा दिखाई नहीं दे रही थी। श्री गुरूजी ने निर्णय किया था कि संघ प्रत्यक्ष रूप से तो आंदोलन में भाग नहीं लेगा किन्तु स्वयंसेवकों को व्यक्तिशः प्रेरित किया जाएगा।
विभाजन संकट में अद्वितीय नेतृत्व!!
16 अगस्त 1946 को मुहम्मद अली जिन्नाह ने सीधी कार्यवाही का दिन घोषित कर के हिन्दू हत्या का तांडव मचा दिया। उन्ही दिनों में श्री गुरूजी देश भर के अपने प्रत्येक भाषण में देश विभाजन के खिलाफ डट कर खड़े होने के लिए जनता का आह्वान करते रहे किन्तु कांग्रेसी नेतागण अखण्ड भारत के लिए लड़ने की मनः स्थिति में नहीं थे। पण्डित नेहरू ने भी स्पष्ट शब्दों में विभाजन को स्वीकार कर लिया था और 3 जून 1947 को इसकी घोषणा कर दी गई। एकाएक देश की स्थिति बदल गई। #इस कठिन समय में स्वयंसेवकों ने पाकिस्तान वाले भाग से हिंदुओं को सुरक्षित भारत भेजना शुरू किया। संघ का आदेश था कि जब तक आखिरी हिन्दू सुरक्षित ना आ जाए तब तक डटे रहना है। भीषण दिनों में #स्वयंसेवकों का अतुलनीय पराक्रम, रणकुशलता, त्याग और बलिदान की गाथा भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से लिखने लायक है। श्री गुरूजी भी इस कठिन घड़ी में पाकिस्तान के भाग में प्रवास करते रहे।
संघ पर प्रतिबन्ध!!
30 जनवरी 1948 को गांधी हत्या के मिथ्या आरोप में 4 फरवरी को संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया। #श्री गुरूजी को गिरफ्तार किया गया। देश भर में स्वयंसेवको की गिरफ्तारियां हुई। जेल में रहते हुए उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं का विस्तृत व्यक्तव्य भेजा जिसमें सरकार को मुहतोड़ जवाब दिया गया था। आह्वान किया गया था कि संघ पर आरोप सिद्ध करो या प्रतिबन्ध हटाओ। देश भर में यह स्वर गूंज उठा था। 26 फरवरी 1948 को देश के प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को गृह मंत्री वल्लभ भाई पटेल ने अपने पत्र में लिखा था "गांधी हत्या के काण्ड में मैंने स्वयं अपना ध्यान लगाकर पूरी जानकारी प्राप्त की है। उस से जुड़े हुये सभी अपराधी लोग पकड़ में आ गए हैं। उनमें एक भी व्यक्ति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नहीं है।"
9 दिसम्बर 1948 को #सत्याग्रह नाम के इस आंदोलन की शुरुआत होते ही कुछ 4-5 हजार बच्चों का यह आंदोलन है ऐसा मानकर नेतागण ने इसका मजाक उड़ाया। लेकिन उसके उलट किसी भी कांग्रेसी आंदोलन में इतनी संख्या नहीं थी। 77090 स्वयंसेवकों ने विभिन्न जेलों को भर दिया। आखिरकार संघ को लिखित #संविधान बनाने का आदेश दे कर प्रतिबन्ध हटा लिया गया और अब गांधी हत्या का इसमें जिक्र तक नहीं हुआ।
तब #सरदार वल्लभभाई पटेल ने गुरूजी को भेजे हुए अपने सन्देश में लिखा कि "संघ पर से पाबन्दी उठाने पर मुझे जितनी खुशी हुई इसका प्रमाण तो उस समय जो लोग मेरे निकट थे वे ही बता सकते हैं... मैं आपको अपनी शुभकामनाएं भेजता हूँ।"
चीन आक्रमण के दौरान श्री गुरूजी का मार्गदर्शन!!
श्री गुरूजी ने चीनी आक्रमण शुरू होते ही जो मार्ग दर्शन दिया उसके परिप्रेक्ष्य में स्वयंसेवक युद्ध प्रयत्नों में जनता का समर्थन जुटाने तथा उनका मनोबल दृढ करने में जुट गए। उनके सामयिक सहयोग का महत्व पण्डित नेहरू को भी स्वीकार करना पड़ा और उन्होंने सन् 1963 में गणतंत्र दिवस के पथ संचलन में कुछ कांग्रेसियों की आपत्ति के बाद भी संघ के स्वयंसेवकों को भाग लेने हेतु आमंत्रण भिजवाया। कहना न होगा कि #संघ के तीन हजार गणवेषधारी स्वयंसेवकों के घोष की ताल पर कदम मिलाकर चलना उस दिन के कार्यक्रम का एक प्रमुख आकर्षण था।
सन् 1940 से 1973 इन 33 वर्षों में श्रीगुरुजी नें संघ को #अखिल भारतीय स्वरुप प्रदान किया। इस कार्यकाल में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारप्रणाली को सूत्रबध्द किया। श्रीगुरुजी, अपनी विचार शक्ति व कार्यशक्ति से विभिन्न क्षेत्रों एवम् संघटनाओं के कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणास्रोत बनें। #श्रीगुरुजी का जीवन अलौकिक था, राष्ट्रजीवन के विभिन्न पहलुओं पर उन्होंने मूलभूत एवम् क्रियाशील मार्गदर्शन किया ।
कैसे वीर हो गए इस देश में, जब धर्म की बात आयी तो शास्त्र उठाया और जब कर्म की बात आयी तो शस्त्र उठाने में भी पीछे नही हटे....!
आइये जाने सबसे पहले 'स्वराज्य' का नारा देने वाले महान योगी, आधुनिक भारत के महान चिन्तक, समाज-सुधारक व देशभक्त दयानंद सरस्वती जी के बारे में!!
Maharshi Swami Dayananda Saraswati Jayanti
दयानंद सरस्वती जी का जन्म टंकारा में फरवरी 1854 में मोरबी (जिला राजकोट), गुजरात में हुआ था। उनके पिता का नाम करशनजी लालजी तिवारी और माँ का नाम यशोदाबाई था। उनके पिता एक कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के एक अमीर, समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। दयानंद सरस्वती का असली नाम मूलशंकर था और उनका प्रारम्भिक जीवन बहुत आराम से बीता। आगे चलकर एक पण्डित बनने के लिए वे संस्कृत, वेद, शास्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गए।
उनके जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं हुई, जिन्होंने उन्हें हिन्दू धर्म की पारम्परिक मान्यताओं और ईश्वर के बारे में गंभीर प्रश्न पूछने के लिए विवश कर दिया।
अपनी छोटी बहन और चाचा की हैजे के कारण हुई मृत्यु से वे जीवन-मरण के अर्थ पर गहराई से सोचने लगे और ऐसे प्रश्न करने लगे जिससे उनके माता पिता चिन्तित रहने लगे। तब उनके माता-पिता ने उनका विवाह किशोरावस्था के प्रारम्भ में ही करने का निर्णय किया (19 वीं सदी के आर्यावर्त (भारत) में यह आम प्रथा थी)। लेकिन बालक मूलशंकर ने निश्चय किया कि विवाह उनके लिए नहीं बना है और वे 1846 मे सत्य की खोज में निकल पड़े।
महर्षि दयानन्द के हृदय में आदर्शवाद की उच्च भावना, यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति, मातृभूमि की नियति को नई दिशा देने का अदम्य उत्साह, धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक व राजनैतिक दृष्टि से युगानुकूल चिन्तन करने की तीव्र इच्छा तथा आर्यावर्तीय (भारतीय) जनता में गौरवमय अतीत के प्रति निष्ठा जगाने की भावना थी। उन्होंने किसी के विरोध तथा निन्दा करने की परवाह किये बिना आर्यावर्त (भारत) के हिन्दू समाज का कायाकल्प करना अपना ध्येय बना लिया था।
ज्ञान की खोज!!
फाल्गुन कृष्ण संवत् 1815 में शिवरात्रि के दिन उनके जीवन में नया मोड़ आया। उन्हें नया बोध हुआ। वे घर से निकल पड़े और यात्रा करते हुए वह गुरु विरजानन्दके पास पहुंचे। गुरुवर ने उन्हें पाणिनी व्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा- विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। यही तुम्हारी गुरुदक्षिणा है। उन्होंने आशीर्वाद दिया कि ईश्वर उनके पुरुषार्थ को सफल करे। उन्होंने अंतिम शिक्षा दी -मनुष्यकृत ग्रंथों में ईश्वर और ऋषियों की निंदा है, ऋषिकृत ग्रंथों में नहीं। वेद प्रमाण हैं। इस कसौटी को हाथ से न छोड़ना।वर्तमान में केवल पांडुरंग शास्त्री उनमें से एक है जो आर्य समाज की तरह काम कर रहे हैं ।
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात, वैचारिक आन्दोलन, शास्त्रार्थ एवं व्याख्यान!!
वेदों को छोड़ कर कोई अन्य धर्मग्रन्थ प्रमाण नहीं है - इस सत्य का प्रचार करने के लिए स्वामी जी ने सारे देश का दौरा करना प्रारंभ किया और जहां-जहां वे गये प्राचीन परंपरा के पंडित और विद्वान उनसे हार मानते गये। संस्कृत भाषा का उन्हें अगाध ज्ञान था। संस्कृत में वे धाराप्रवाह बोलते थे। साथ ही वे प्रचंड तार्किक थे।
उन्होंने ईसाई और मुस्लिम धर्मग्रन्थों का भली-भांति अध्ययन-मन्थन किया था। अतएव अकेले ही उन्होंने तीन-तीन मोर्चों पर संघर्ष आरंभ कर दिया। दो मोर्चे तो ईसाइयत और इस्लाम के थे किंतु तीसरा मोर्चा सनातनधर्मी हिंदुओं का था, जिनसे जूझने में स्वामी जी को अनेक अपमान, कलंक और कष्ट झेलने पड़े। दयानन्द ने बुद्धिवाद की जो मशाल जलायी थी, उसका कोई जवाब नहीं था। वे जो कुछ कह रहे थे, उसका उत्तर न तो मुसलमान दे सकते थे, न ईसाई, न पुराणों पर पलने वाले हिन्दू पण्डित और विद्वान। हिन्दू नवोत्थान अब पूरे प्रकाश में आ गया था। और अनेक समझदार लोग मन ही मन अनुभव करने लगे थे कि वास्तव में पौराणिक धर्म की पोंगापंथी में कोई सार नहीं है।
स्वामीजी प्रचलित धर्मों में व्याप्त बुराइयों का कड़ा खण्डन करते थे । अपने महाग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में स्वामीजी ने सभी मतों में व्याप्त बुराइयों का खण्डन किया है। उनके समकालीन सुधारकों से अलग, स्वामीजी का मत शिक्षित वर्ग तक ही सीमित नहीं था अपितु आर्य समाज ने आर्यावर्त (भारत) के साधारण जनमानस को भी अपनी ओर आकर्षित किया।
सन् 1872 ई. में स्वामी जी कलकत्ता पधारे। वहां देवेन्द्रनाथ ठाकुर और केशवचन्द्र सेन ने उनका बड़ा सत्कार किया। यहीं से उन्होंने पूरे वस्त्र पहनना शुरू किया । यहीं उन्होंने तत्कालीन वाइसराय को कहा था कि विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परंतु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर व्यवहार पर-उपकार अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है।
ब्राह्मो समाजियों से उनका विचार-विमर्श भी हुआ किन्तु ईसाइयत से प्रभावित ब्राह्मो समाजी विद्वान पुनर्जन्म और वेद की प्रामाणिकता के विषय में स्वामी से एकमत नहीं हो सके। कहते हैं कलकत्ते में ही केशवचन्द्र सेन ने स्वामी जी को यह सलाह दे डाली कि यदि आप संस्कृत छोड़ कर आर्यभाषा (हिन्दी) में बोलना आरम्भ करें, तो देश का असीम उपकार हो सकता है। तभी से स्वामी जी के व्याख्यानों की भाषा आर्यभाषा (हिन्दी) हो गयी और आर्यभाषी (हिन्दी) प्रान्तों में उन्हे अगणित अनुयायी मिलने लगे।
आर्य समाज की स्थापना!!
कलकत्ते से स्वामी जी मुम्बई पधारे और वहीं ( चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत् १९३२) 10 अप्रैल 1875 ई. को उन्होने 'आर्य समाज' की स्थापना की।
आर्यसमाज के नियम और सिद्धांत प्राणिमात्र के कल्याण के लिए हैं संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। मैं मानता हूँ कि गीता में कुछ भी गलत नहीं है। इसके अलावा गीता वेदों के खिलाफ नहीं है।
ॐ को आर्य समाज में ईश्वर का सर्वोत्तम और उपयुक्त नाम माना जाता है।
मुम्बई में भी उनके साथ समाज वालों ने विचार-विमर्श किया। किन्तु यह समाज तो ब्राह्मो समाज का ही मुम्बई संस्करण था। अतएव स्वामी जी से इस समाज के लोग भी एकमत नहीं हो सके।
मुम्बई से लौट कर स्वामी जी इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) आए। वहां उन्होंने सत्यानुसन्धान के लिए ईसाई, मुसलमान और हिन्दू पण्डितों की एक सभा बुलायी। किन्तु दो दिनों के विचार-विमर्श के बाद भी लोग किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके। इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) से स्वामी जी पंजाब गए। पंजाब में उनके प्रति बहुत उत्साह जाग्रत हुआ और सारे प्रान्त में आर्यसमाज की शाखाएं खुलने लगी। तभी से पंजाब आर्यसमाजियों का प्रधान गढ़ रहा है।
समाज सुधार के कार्य!!
महर्षि दयानन्द ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों और रूढियों-बुराइयों को दूर करने के लिए, निर्भय होकर उन पर आक्रमण किया। वे 'संन्यासी योद्धा' कहलाए। उन्होंने जन्मना जाति का विरोध किया तथा कर्म के आधार वेदानुकूल वर्ण-निर्धारण की बात कही। वे दलितोद्धार के पक्षधर थे। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा के लिए प्रबल आन्दोलन चलाया। उन्होंने बाल विवाह तथा सती प्रथा का निषेध किया तथा विधवा विवाह का समर्थन किया। उन्होंने ईश्वर को सृष्टि का निमित्त कारण तथा प्रकृति को अनादि तथा शाश्वत माना। वे तैत्रवाद के समर्थक थे। उनके दार्शनिक विचार वेदानुकूल थे। उन्होंने यह भी माना कि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र हैं तथा फल भोगने में परतन्त्र हैं। महर्षि दयानन्द सभी धर्मानुयायियों को एक मंच पर लाकर एकता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे।
उन्होंने इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) दरबार के समय 1878 में ऐसा प्रयास किया था। उनके अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि और ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में उनके मौलिक विचार सुस्पष्ट रूप में प्राप्य हैं। वे योगी थे तथा प्राणायाम पर उनका विशेष बल था। वे सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णों तथा स्त्रियों की भागीदारी के पक्षधर थे। राष्ट्रीय जागरण की दिशा में उन्होंने सामाजिक क्रान्ति तथा आध्यात्मिक पुनरुत्थान के मार्ग को अपनाया। उनकी शिक्षा सम्बन्धी धारणाओं में प्रदर्शित दूरदर्शिता, देशभक्ति तथा व्यवहारिकता पूर्णतया प्रासङ्गिक तथा युगानुकूल है। महर्षि दयानन्द समाज सुधारक तथा धार्मिक पुनर्जागरण के प्रवर्तक तो थे ही, वे प्रचण्ड राष्ट्रवादी तथा राजनैतिक आदर्शवादी भी थे।
विदेशियों के आर्यावर्त में राज्य होने के कारण आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विधान पढना-पढाना व बाल्यावस्था में अस्वयंवरविवाह, विषयासक्ति, मिथ्या भाषावादि, कुलक्षण, वेद-विद्या का प्रचार आदि कुकर्म हैं, जब आपस में भाई-भाई लडते हैं तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है। उन्होंने राज्याध्यक्ष तथा शासन की विभिन्न परिषदों एवं समितियों के लिए आवश्यक योग्यताओं को भी गिनाया है। उन्होंने न्याय की व्यवस्था ऋषि प्रणीत ग्रन्थों के आधार पर किए जाने का पक्ष लिया।
स्वराज्य के प्रथम सन्देश!!
स्वामी दयानन्द सरस्वती को सामान्यत: केवल आर्य समाज के संस्थापक तथा समाज-सुधारक के रूप में ही जाना जाता है। राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के लिए किये गए प्रयत्नों में उनकी उल्लेखनीय भूमिका की जानकारी बहुत कम लोगों को है। वस्तुस्थिति यह है कि पराधीन आर्यावर्त (भारत) में यह कहने का साहस सम्भवत: सर्वप्रथम स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ही किया था कि "आर्यावर्त (भारत), आर्यावर्तियों (भारतीयों) का है"। हमारे प्रथम स्वतन्त्रता समर, सन् 1857 की क्रान्ति की सम्पूर्ण योजना भी स्वामी जी के नेतृत्व में ही तैयार की गई थी और वही उसके प्रमुख सूत्रधार भी थे। वे अपने प्रवचनों में श्रोताओं को प्राय: राष्ट्रवाद का उपदेश देते और देश के लिए मर मिटने की भावना भरते थे। 1855 में हरिद्वार में जब कुम्भ मेला लगा था तो उसमें शामिल होने के लिए स्वामी जी ने आबू पर्वत से हरिद्वार तक पैदल यात्रा की थी। रास्ते में उन्होंने स्थान-स्थान पर प्रवचन किए तथा देशवासियों की नब्ज टटोली। उन्होंने यह अनुभव किया कि लोग अब अंग्रेजों के अत्याचारी शासन से तंग आ चुके हैं और देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करने को आतुर हो उठे हैं।
क्रान्ति की विमर्श!!
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हरिद्वार पहुँच कर वहां एक पहाड़ी के एकान्त स्थान पर अपना डेरा जमाया। वहीं पर उन्होंने पाँच ऐसे व्यक्तियों से मुलाकात की, जो आगे चलकर सन् 1857 की क्रान्ति के कर्णधार बने। ये पांच व्यक्ति थे नाना साहेब, अजीमुल्ला खां, बाला साहब, तात्या टोपे तथा बाबू कुंवर सिंह। बातचीत काफी लम्बी चली और यही पर यह तय किया गया कि फिरंगी सरकार के विरुद्ध सम्पूर्ण देश में सशस्त्र क्रान्ति के लिए आधारभूमि तैयार की जाए और उसके बाद एक निश्चित दिन सम्पूर्ण देश में एक साथ क्रान्ति का बिगुल बजा दिया जाए। जनसाधारण तथा आर्यावर्तीय (भारतीय) सैनिकों में इस क्रान्ति की आवाज को पहुँचाने के लिए 'रोटी तथा कमल' की भी योजना यहीं तैयार की गई। इस सम्पूर्ण विचार विमर्श में प्रमुख भूमिका स्वामी दयानन्द सरस्वती की ही थी।
विचार विमर्श तथा योजना-निर्धारण के उपरान्त स्वामी जी तो हरिद्वार में ही रुक गए तथा अन्य पांचों राष्ट्रीय नेता योजना को यथार्थ रूप देने के लिए अपने-अपने स्थानों पर चले गए। उनके जाने के बाद स्वामी जी ने अपने कुछ विश्वस्त साधु संन्यासियों से सम्पर्क स्थापित किया और उनका एक गुप्त संगठन बनाया। इस संगठन का मुख्यालय इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) में महरौली स्थित योगमाया मन्दिर में बनाया गया। इस मुख्यालय ने स्वाधीनता समर में उल्लेखनीय भूमिका निभायी। स्वामी जी के नेतृत्व में साधुओं ने भी सम्पूर्ण देश में क्रान्ति का अलख जगाया। वे क्रान्तिकारियों के सन्देश एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाते, उन्हें प्रोत्साहित करते और आवश्यकता पड़ने पर स्वयं भी हथियार उठाकर अंग्रेजों से संघर्ष करते। सन् 1857 की क्रान्ति की सम्पूर्ण अवधि में राष्ट्रीय नेता, स्वामी दयानन्द सरस्वती के निरन्तर सम्पर्क में रहे।
स्वतन्त्रता-संघर्ष की असफलता पर भी स्वामी जी निराश नहीं थे। उन्हें तो इस बात का पहले से ही आभास था कि केवल एक बार प्रयत्न करने से ही स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं हो सकती। इसके लिए तो संघर्ष की लम्बी प्रक्रिया चलानी होगी। हरिद्वार में ही 1855 की बैठक में बाबू कुंवर सिंह ने जब अपने इस संघर्ष में सफलता की संभावना के बारे में स्वामी जी से पूछा तो उनका बेबाक उत्तर था "स्वतन्त्रता संघर्ष कभी असफल नहीं होता। भारत धीरे-धीरे एक सौ वर्ष में परतन्त्र बना है। अब इसको स्वतन्त्र होने में भी एक सौ वर्ष लग जायेगें । इस स्वतन्त्रता प्राप्ति में बहुत से अनमोल प्राणों की आहुतियां डाली जाएगी ।" स्वामी जी की यह भविष्यवाणी कितनी सही निकली, इसे बाद की घटनाओं ने प्रमाणित कर दिया। स्वतन्त्रता-संघर्ष की असफलता के बाद जब तात्या टोपे, नाना साहब तथा अन्य राष्ट्रीय नेता स्वामी जी से मिले तो उन्हें भी उन्होंने निराश न होने तथा उचित समय की प्रतीक्षा करने की ही सलाह दी।
1857 की क्रान्ति के दो वर्ष बाद स्वामी जी ने स्वामी विरजानन्द को अपना गुरु बनाया और उनसे दीक्षा ली। स्वामी विरजानन्द के आश्रम में रहकर उन्होंने वेदों का अध्ययन किया, उन पर चिन्तन किया और उसके बाद अपने गुरु के निर्देशानुसार वे वैदिक ज्ञान के प्रचार-प्रसार में जुट गए। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने आर्य समाज की भी स्थापना की और उसके माध्यम से समाज-सुधार के अनेक कार्य किए। छुआछूत, सती प्रथा, बाल विवाह, नर बलि, धार्मिक संकीर्णता तथा अन्धविश्वासों के विरुद्ध उन्होंने जमकर प्रचार किया और विधवा विवाह, धार्मिक उदारता तथा आपसी भाईचारे का उन्होंने समर्थन किया। इन सबके साथ स्वामी जी लोगों में देशभक्ति की भावना भरने से भी कभी नहीं चूकते थे।
प्रारम्भ में अनेक व्यक्तियों ने स्वामी जी के समाज सुधार के कार्यों में विभिन्न प्रकार के विघ्न डाले और उनका विरोध किया। धीरे-धीरे उनके तर्क लोगों की समझ में आने लगे और विरोध कम हुआ। उनकी लोकप्रियता निरन्तर बढ़ने लगी। इससे अंग्रेज अधिकारियों के मन में यह इच्छा उठी कि अगर स्वामीजी को अंग्रेज सरकार के पक्ष में कर लिया जाए तो सहज ही उनके माध्यम से जनसाधारण में अंग्रेजों को लोकप्रिय बनाया जा सकता है। इससे पूर्व अंग्रेज अधिकारी इसी प्रकार से अन्य कुछ धर्मोपदेशकों तथा धर्माधिकारियों को विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर अपनी तरफ मिला चुके थे। उन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती को भी उन्हीं के समान समझा। तद्नुसार एक ईसाई पादरी के माध्यम से स्वामी जी की तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड नार्थब्रुक से मुलाकात करवायी गई। यह मुलाकात मार्च 1873 में कलकत्ता में हुई।
अंग्रेजों को तीखा जवाब!!
इधर-उधर की कुछ औपचारिक बातों के उपरान्त लॉर्ड नार्थब्रुक ने विनम्रता से अपनी बात स्वामी जी के सामने रखी- "अपने व्याख्यान के प्रारम्भ में आप जो ईश्वर की प्रार्थना करते हैं, क्या उसमें आप अंग्रेज सरकार के कल्याण की भी प्रार्थना कर सकेगें।"
गर्वनर जनरल की बात सुनकर स्वामी जी सहज ही सब कुछ समझ गए। उन्हें अंग्रेज सरकार की बुद्धि पर तरस भी आया, जो उन्हें ठीक तरह नहीं समझ सकी। उन्होंने निर्भीकता और दृढ़ता से गवर्नर जनरल को उत्तर दिया-
मैं ऐसी किसी भी बात को स्वीकार नहीं कर सकता। मेरी यह स्पष्ट मान्यता है कि राजनीतिक स्तर पर मेरे देशवासियों की निर्बाध प्रगति के लिए तथा संसार की सभ्य जातियों के समुदाय में आर्यावर्त (भारत) को सम्माननीय स्थान प्रदान करने के लिए यह अनिवार्य है कि मेरे देशवासियों को पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो। सर्वशक्तिशाली परमात्मा के समक्ष प्रतिदिन मैं यही प्रार्थना करता हूं कि मेरे देशवासी विदेशी सत्ता के जुए से शीघ्रातिशीघ्र मुक्त हों।
गवर्नर जनरल को स्वामी जी से इस प्रकार के तीखे उत्तर की आशा नहीं थी। मुलाकात तत्काल समाप्त कर दी गई और स्वामी जी वहां से लौट आए। इसके उपरान्त सरकार के गुप्तचर विभाग की स्वामी जी पर तथा उनकी संस्था आर्य-समाज पर गहरी दृष्टि रही। उनकी प्रत्येक गतिविधि और उनके द्वारा बोले गए प्रत्येक शब्द का रिकार्ड रखा जाने लगा। आम जनता पर उनके प्रभाव से सरकार को अहसास होने लगा कि यह हिन्दू संत और आर्यसमाज किसी भी दिन सरकार के लिए खतरा बन सकते हैं। इसलिए स्वामी जी को समाप्त करने के लिए भी तरह-तरह के षड्यन्त्र रचे जाने लगे।
हत्या का षड्यंत्र
स्वामी जी की मृत्यु जिन परिस्थितियों में हुई, उससे भी यही आभास मिलता है कि उसमें निश्चित ही अंग्रेज सरकार का कोई षड़यंत्र था। स्वामी जी का स्वर्गवास (मृत्यु) 30 अक्टूबर 1883 को दीपावली के दिन सन्ध्या के समय हुआ । उन दिनों वे जोधपुर नरेश महाराज जसवन्त सिंह के निमन्त्रण पर जोधपुर गये हुए थे। वहां उनके नित्य ही प्रवचन होते थे। यदाकदा महाराज जसवन्त सिंह भी उनके चरणों में बैठकर वहां उनके प्रवचन सुनते। दो-चार बार स्वामी जी भी राज्य महलों में गए। वहां पर उन्होंने नन्हीं नामक वेश्या का अनावश्यक हस्तक्षेप और महाराज जसवन्त सिंह पर उसका अत्यधिक प्रभाव देखा। स्वामी जी को यह बहुत बुरा लगा। उन्होंने महाराज को इस बारे में समझाया तो उन्होंने विनम्रता से उनकी बात स्वीकार कर ली और नन्हीं से सम्बन्ध तोड़ लिए। इससे नन्हीं स्वामी जी के बहुत अधिक विरुद्ध हो गई। उसने स्वामी जी के रसोइये कलिया उर्फ जगन्नाथ को अपनी तरफ मिला कर उनके दूध में पिसा हुआ काञ्च (जहर) डलवा दिया। थोड़ी ही देर बाद रसोइये ने स्वामी जी के पास आकर अपना अपराध स्वीकार कर लिया और उसके लिए क्षमा मांगी । उदार-हृदय स्वामी जी ने उसे राह-खर्च और जीवन-यापन के लिए पांच सौ रुपए देकर वहां से विदा कर दिया ताकि राजा उसे परेशान न करे। बाद में जब स्वामी जी को जोधपुर के अस्पताल में भर्ती करवाया गया तो वहां सम्बन्धित चिकित्सक भी शक के दायरे में रहा। उस पर आरोप था कि वह औषधि के नाम पर स्वामी जी को हल्का विष पिलाता रहा। बाद में जब स्वामी जी की तबियत बहुत खराब होने लगी तो उन्हें अजमेर के अस्पताल में लाया गया। मगर तब तक काफी विलम्ब हो चुका था। स्वामी जी को बचाया नहीं जा सका।
इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में आशंका यही है कि वेश्या को उभारने तथा चिकित्सक को बरगलाने का कार्य अंग्रेज सरकार के इशारे पर किसी अंग्रेज अधिकारी ने ही किया। अन्यथा एक साधारण वेश्या के लिए यह सम्भव नहीं था कि केवल अपने बलबूते पर स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे सुप्रसिद्ध और लोकप्रिय व्यक्ति के विरुद्ध ऐसा षड्यन्त्र कर सके। बिना किसी प्रोत्साहन और संरक्षण के चिकित्सक भी ऐसा दुस्साहस नहीं कर सकता था।
अंतिम शब्द!
स्वधर्म, स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वसंस्कृति और स्वदेशोन्नति के अग्रदूत स्वामी दयानन्द जी का शरीर सन् 1883 में दीपावली के दिन पञ्चतत्व में विलीन हो गया और वे अपने पीछे छोड़ गए एक सिद्धान्त, कृण्वन्तो विश्वमार्यम् - अर्थात सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ। उनके अन्तिम शब्द थे - "प्रभु! तूने अच्छी लीला की। आपकी इच्छा पूर्ण हो।"
स्वामी दयानन्द के विचारों से प्रभावित महापुरुषों की संख्या असंख्य है, स्वामी दयानन्द के प्रमुख अनुयायियों में लाला हंसराज ने 1866 में लाहौर में 'दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज' की स्थापना की तथा स्वामी श्रद्धानन्द ने 1901 में हरिद्वार के निकट कांगड़ी में गुरुकुल की स्थापना की।
स्वामी दयानन्द के योगदान के बारे में विद्वानपुरुषों के विचार
स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 'आर्यावर्त (भारत) आर्यावर्तियों (भारतीयों) के लिए' की घोषणा की - श्रीमती एनी बेसेन्ट
भारत की स्वतन्त्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द ने डाली थी।-सरदार पटेल
गाँधी जी राष्ट्रपिता हैं, पर स्वामी दयानन्द राष्ट्र–पितामह हैं।-पट्टाभि सीतारमैया
ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त कराने और जाति बन्धन तोड़ने के लिए हुआ था। उनका आदर्श है- आर्यावर्त ! उठ, जाग, आगे बढ़। समय आ गया है, नये युग में प्रवेश कर।-रिचर्ड (फ्रेञ्च लेखक)
स्वामी जी को लोकमान्य तिलक ने "स्वराज्य का प्रथम सन्देशवाहक" कहा।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने "आधुनिक भारत का निर्माता" माना।
अमरीका की मदाम ब्लेवेट्स्की ने "आदि शङ्कराचार्य के बाद "बुराई पर सबसे निर्भीक प्रहारक" माना।
सैयद अहमद खां के शब्दों में "स्वामी जी ऐसे विद्वान और श्रेष्ठ व्यक्ति थे, जिनका अन्य मतावलम्बी भी सम्मान करते थे।"
बॉलीवुड अभिनेता अक्षय कुमार ने न्यायप्रणाली को लेकर किया बड़ा खुलासा!!
DNA स्टूडियों में आये अभिनेता अक्षय कुमार ने बताया कि अक्सर जब भी लोग किसी एक्टर को देखते हैं तो सोचते हैं कि जरूर किसी फिल्म की प्रमोशन करने आया होगा ।
लेकिन मैं यहाँ एक जरुरी मुद्दे का प्रमोशन करने आया हूँ ।
हाल ही में मैंने एक फिल्म की है और इस फिल्म पर ध्यान देते हुए मैंने काफी रिसर्च किया । जाहिर सी बात है कि सारी बातें फिल्मों में जोड़ी नही जा सकती इसलिए मुझे लगा कि DNA का हिस्सा बने इंडिया के जुडिशल सिस्टम पर आपके साथ कुछ डिसकशन करूँ।
DNA: Exclusive talk with Akshay Kumar over judiciary
आज भी हिंदुस्तान में कोई अन्याय होता है या झगड़ा सुलझ नहीं पाता तो लोग ये कहते कि "I will see you in Court" अब मैं अदालत जाऊंगा और इंसाफ के लिए लड़ूंगा ।
जरा सोचो! ये जो लोग बातें करते हैं तो उनके मन में भारत के कानून और जुडिशरी के लिए कितनी इज्जत होगी!
कितना विश्वास होता है कि मुझे इंसाफ मिलेगा ।
लेकिन जब आप अदालत जाते हो तो क्या वो इंसाफ इतनी आसानी से आपको मिल जाता है..??
इस सवाल का जवाब हाँ भी है और ना भी है ।
कुछ लोगो को इंसाफ मिल भी जाता है कुछ को नहीं भी मिलता । हमारे देश में इंसाफ पाने का रास्ता मुश्किल भी है और लंबा भी ।
जिस देश में साढ़े तीन करोड़ मुकदमें लटके हुए हों उस देश में इंसाफ सदा रेड लाइट पर खड़ा रहता है । मुकदमों का ये ट्राफिक जाम कब और कैसे खुलेगा ??
यही बड़ा सवाल है !!
हालांकि मुझे विश्वास है खुलेगा जरूर!
इस सवाल पर ही हम बात करेंगे ।
आज मैं आपका ध्यान इस मुद्दे पर लाना चाहता हूँ कि कुछ तो है जो ठीक नहीं हो रहा और कुछ है जो ठीक करना पड़ेगा, बदलना पड़ेगा ।
आज मैं आपको ऐसा कुछ दिखाऊंगा जो आपकी आंखें हमेशा-हमेशा के लिए खोल देगा। मैं निराशा में विश्वास नहीं रखता हूँ आशावादी हूँ मैं ।
मैं आपको भारत की न्यायपालिका से जुड़े कुछ आंकड़े बताना चाहता हूँ ।
अभी इस देश में अदालत में 3 करोड़ से भी अधिक मुकदमें लटके हुए हैं ❗❗ यानि कि pending ❗❗
इसमें से करीब 60,000 cases सुप्रीम कोर्ट में, जबकि देश के हाई कोर्ट में 2013 तक 41 लाख 53 हजार मुकदमों पर फैसला नही हो पाया ।
देश में जजों की इतनी कमी है कि अगर इंसाफ समय पर मिल जाय तो वो रिसर्च का विषय बन जाये ।
आपको जान कर हैरानी होगी कि हर 10 लाख लोगों पर सिर्फ 17 जज हैं । जबकि 1987 में ही LOW कमीशन ने 10 लाख लोगों पर 50 जज होने की सिफारिश की थी । देशभर की अदालतों में judges के 5 हजार 433 पद खाली है । देश भर की अदालतों में 10% केस ऐसे हैं जो 10 सालों से भी ज्यादा समय से pending हैं ❗❗
ये आंकड़े बताते है कि देश की अदालतें और जज मुकदमों के बोझ से दबे हुए हैं । अब ये समझने की कोशिश करते हैं कि विदेशों में क्या हालत है । हम अपनी न्यायव्यवस्था को कैसे बेहतर बना सकते हैं।
भारत में 10 लाख लोगों पर सिर्फ 17 जज हैं । लेकिन अमेरिका में 10 लाख लोगों पर 107 जज हैं, केनेडा में 10 लाख लोगों पर 75 जज हैं और ऑस्ट्रेलिया में 10 लाख लोगों पर 42 जज ।
ये बताना भी जरुरी है कि इन देशों की पाप्यूलेशन भारत से बहुत कम है । कम पॉप्युलेशन के बावजूद इन देशों में जजो की संख्या भारत से कई ज्यादा है ।
यहाँ चीन का example आपको काफी हैरान कर देगा चीन की पॉपुलेशन भारत से ज्यादा है पर आपको ये जान कर हैरानी होगी कि चीन में हर 10 लाख लोगों पर करीब 140 जज हैं । यानि भारत के मुकाबले Ratio करीब 8 गुना ज्यादा है ।
कहने का मतलब ये है कि अगर भारत चाहे तो बहुत कुछ कर सकता है और हमें इस दिशा में बड़े कदम उठाने ही होंगे ।
मैं एक एक्टर हूँ और आज मैं अपनी और फिल्म इंडस्ट्री की भी एक बात करना चाहता हूँ । आपने ध्यान दिया होगा कि हमारे देश में जितनी भी फिल्में बनती है उनमें से ज्यादातर फिल्मों में कोर्ट का कोई न कोई सीन जरूर होता है । क्या आप जानते हैं ऐसा क्यों है?
इसका कारण यही है कि कोर्ट हमारे जीवन का एक हिस्सा बन चुका है । आप में से कई लोगों ने कोर्ट कचेरी के चक्कर लगाये होंगे । अगर आपका कोर्ट से वास्ता नहीं पड़ा होगा तो आपके आस-पास कई लोग ऐसे होंगे जो आपको जुडिशरी के कड़वे अनुभव बताते होंगे ।
ज्यादातर लोग यही सलाह देते होंगे कि यार कोर्ट कचेरी के चक्कर से जितना दूर रहो उतना ही अच्छा है । सवाल ये है कि आजादी के 69 साल बाद भी ऐसी स्थिति क्यों बनी है
जब आम आदमी बेसिस सिस्टम से नहीं जीत पाता,जब आम आदमी बहु बलि से हारने लगता है, जब आम आदमी की कोई नही सुनता तो उसे अदालत की शक्ल में एक उम्मीद दिखाई देती है ।
वो उम्मीद जिसके सहारे वो अपनी खोई हुई इज्जत पा सकता है ।
वो उम्मीद जिससे वो बेईमानों को उसकी असली जगह पहुँचा सकता है।
वो उम्मीद जो उसे सफेद झूठ बोलने वालों से लड़ने की प्रेरणा देती है ।
लेकिन उम्मीदों का गठ्ठर उठाये जब आम आदमी अदालत के दरवाजे पहुँचता है तब पता चलता है कि उसे अदालतों के फैसले और अपनी जीत के बीच लंबा सफर तय करना होगा।
इस सफर के दौरान वकील बहरे हो जाते हैं , जज बदल जाते हैं ,फाइलें मोटी हो जाती हैं , अदालतों की दीवारें पुरानी होने लगती है,मौसम आने-जाने लगते हैं पर अदालत से आस लगाने वालों का आँगन सूखा ही रहता है ।
कई बार तो फैसले आने से पहले ही गुहार लगानेवाला इस दुनिया से चला जाता है । लेकिन अदालतें अपना काम करती है कोर्ट कचेरी के चक्कर पर चक्कर लगाना । कोई नहीं चाहता पर हारा हुआ आदमी कोर्ट में मिलने की ही धमकी देता है ।
अदालतें भी ये सब देख रही हैं । आँसू सिर्फ अदालतों के चक्कर काटनेवालों की आँखों में ही नहीं । बल्कि ये दर्द उन लोगो का भी है जिनके कन्धों पर सबसे बड़ी जिम्मेदारी है यानि न्याय देने की जिम्मेदारी । फैसला सुनाने की जिम्मेदारी,इंसाफ देने की जिम्मेदारी ।
मुझे याद है जब मैं छट्ठी क्लास में था तब मेरे गणित के पेपर में एक सवाल पूछा गया था कि एक सड़क 5 आदमी 10 दिन में बनाते हैं अगर वही सड़क एक दिन में बनानी हो तो कितने आदमी चाहिए ? उसका जवाब है 50 आदमी चाहिए ।
38 लाख और 66 हजार cases इनको निपटाने के लिए कितने आदमी चाहिए ?
कितने जज चाहिए?
ये बात हम क्यों नहीं समझते ??
अदालतें मिनटों में न्याय नहीं कर सकती, न्याय संभल कर किया जाता है, सभी तथ्यों को जानने के बाद । लेकिन अब न्याय देनेवालों की संख्या इतनी कम होगी तो इंसाफ का रास्ता लंबा होता जाएगा । शायद इसलिए ही कहते हैं - "justice delay is justice denied"
1950 में 10 लाख लोगों के लिए 8 जज थे,1215 cases और एक दशक बाद 1960 में 14 जज थे 3247 cases !!
1977 में जज की संख्या 18 हुई तो cases 14,301 हुए !!
1986 में जज 26 हुए तो मुकदमें 27,881 !!
2009 में जज 31 हुए तो केस बढ़कर 77,151 हो गए !!
2014 में जजो की संख्या नहीं बड़ी पर केस 81,553 हो गए !!
कानून के हाथ जरूर लंबे होते हैं पर न्याय दिलानेवाले वकीलों का दिल बड़ा नहीं होता । वो मोटी फीस तो जरूर वसूलते हैं लेकिन न्याय दिलाने में अक्सर देर लगा देते हैं ।
हाँ,अगर न्याय मांगने वाला अमीर और वसूलदार हो तो बिना जंग लड़े जस्टिस मिल जाता है ।
जबकि बाकियों की उम्मीदों को सिस्टम की दीवारों पर लगा तिमिर खा जाता है ।
लेकिन फिर भी आम आदमी की उम्मीद खत्म नहीं होती । क्योंकि न्याय देने वाली बेबी जिनकी आँखों पर पट्टी बंधी है बिना किसी भेदभाव के न्याय दिलाएगी । उसका तराजू सबूतों को तोलता है आदमी के मंसूबो को नहीं । उसकी तलवार अन्याय को काटती है,उम्मीदों को नहीं ।
और उसका फैसला कार्यवाही के मुताबिक ही होता है उम्मीदों के नहीं!!
यहाँ मैं आपको एक हैरान करने वाली बात यह भी बताना चाहता हूँ कि काला कोट पहनकर, हाथ में कानून की मोटी किताब उठाकर, कचेरी में टहलनेवाला हर व्यक्ति सच में वो वकील ही हो इसकी कोई गारंटी नहीं है ❗❗
Bar conscill of india आज कल देश की अलग अलग अदालतों में प्रेक्टिस करनेवाले वकीलों को verify कर रही है । इस प्रोसेस में Bar conscill of india ने अनुमान लगाया है कि हमारे देश में कम से कम 40% वकील नकली हैं । ऐसे वकीलों में से कुछ वकील फर्जी डिग्री के आधार पर अदालत में प्रेक्टिस कर रहें हैं और कुछ ऐसे भी है जिन्होंने कभी भी कानून की कोई शिक्षा हासिल ही नहीं की । verification की ये प्रोसेस अभी जारी है इसीलिए ये बता पाना मुश्किल है कि देश में किस हिस्से में सबसे ज्यादा फर्जी वकील है । पर इतना तो जरूर है कि हमारे सिस्टम में बड़े पैमाने पर बेईमानी जरूर हो रही है ।
आपने देखा होगा कि हमारे देश में बहुत वकील ऐसे हैं जो लोगो को इंसाफ दिलाने की जगह अपराधियों को बचाने में जुट जाते हैं । इसलिए सबूतों को मिटाया जाता है गवाहों को पीटा जाता है, कई बार चालाकी से मुकदमों को लटकाया जाता है लंबा खीचा जाता है । इन सब के बीच जो इंसाफ के लिए कोर्ट में गया होता है, वो निराश हो जाता है । ऐसे बईमान वकील अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते । यहाँ मैं साफ कर देना चाहता हूँ सारे वकील बुरे नहीं होेते । बुरे लोगों के बीच अच्छे वकील भी जरूर होते है वो अपना काम पूरी ईमानदारी से करते है..!!
अक्षय कुमार ने सच ही कहा है कि निर्दोष व्यक्ति को न्याय नही मिल रहा और अपराधी को सजा नही मिल रही ।
न्याय मिलता भी है तो इतना देरी से कि जब निर्दोष न्याय की उम्मीद ही खो चुका होता है।
हमारी पंगु न्याय व्यवस्था के शिकार कब तक निर्दोष लोग होंगे ?