रामावतार को लाखों वर्ष हो गये लेकिन श्रीरामजी अभी भी जनमानस के हृदय-पटल से विलुप्त नहीं हुए । क्यों...???
क्योंकि #श्रीरामजी का #आदर्श जीवन, उनका आदर्श #चरित्र हर #मनुष्य के लिए अनुकरणीय है ।
क्योंकि #श्रीरामजी का #आदर्श जीवन, उनका आदर्श #चरित्र हर #मनुष्य के लिए अनुकरणीय है ।
‘श्री #रामचरितमानस में वर्णित यह आदर्श चरित्र विश्वसाहित्य में मिलना दुर्लभ है ।
एक आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श पिता, आदर्श शिष्य, आदर्श योद्धा और आदर्श राजा के रूप में यदि किसीका नाम लेना हो तो #भगवान श्रीरामजी का ही नाम सबकी जुबान पर आता है ।
इसीलिए राम-राज्य की महिमा आज लाखों-लाखों वर्षों के बाद भी गायी जाती है ।
भगवान श्रीरामजी के #सद्गुण ऐसे तो विलक्षण थे कि पृथ्वी के प्रत्येक धर्म, सम्प्रदाय और जाति के लोग उन #सद्गुणों को अपनाकर लाभान्वित हो सकते हैं ।
The glory of the Rama-state is sung even after millions of millions of years |
श्रीरामजी सारगर्भित बोलते थे । उनसे कोई मिलने आता तो वे यह नहीं सोचते थे कि पहले वह बात शुरू करें या मुझे प्रणाम करें। सामनेवाले को संकोच न हो इसलिए श्रीरामजी अपनी तरफ से ही बात शुरू कर देते थे ।
श्रीरामजी प्रसंगोचित बोलते थे । जब उनके राजदरबार में धर्म की किसी बात पर निर्णय लेते समय दो पक्ष हो जाते थे, तब जो पक्ष उचित होता श्रीरामजी उसके समर्थन में इतिहास, पुराण और पूर्वजों के निर्णय उदाहरण रूप में कहते, जिससे अनुचित बात का समर्थन करनेवाले पक्ष को भी लगे कि दूसरे पक्ष की बात सही है ।
श्रीरामजी दूसरों की बात बड़े ध्यान व आदर से सुनते थे । बोलनेवाला जब तक अपने और औरों के अहित की बात नहीं कहता, तब तक वे उसकी बात सुन लेते थे । जब वह किसीकी #निंदा आदि की बात करता तब देखते कि इससे इसका अहित होगा या इसके चित्त का क्षोभ बढ़ जायेगा या किसी दूसरे की हानि होगी, तब वे सामनेवाले की बातों को सुनते-सुनते इस ढंग से बात मोड़ देते कि बोलनेवाले का अपमान नहीं होता था । श्रीरामजी तो शत्रुओं के प्रति भी कटु वचन नहीं बोलते थे ।
युद्ध के मैदान में श्रीरामजी एक बाण से #रावण के #रथ को जला देते, दूसरा बाण मारकर उसके हथियार उड़ा देते फिर भी उनका चित्त शांत और सम रहता था । वे रावण से कहते : ‘लंकेश ! जाओ, कल फिर तैयार होकर आना ।
ऐसा करते-करते काफी समय बीत गया तो देवताओं को चिंता हुई कि रामजी को क्रोध नहीं आता है, वे तो समता-साम्राज्य में स्थिर हैं, फिर रावण का नाश कैसे होगा ? लक्ष्मणजी, हनुमानजी आदि को भी चिंता हुई, तब दोनों ने मिलकर प्रार्थना की : ‘प्रभु ! थोडे कोपायमान होइये ।
तब श्रीरामजी ने क्रोध का आवाहन किया : क्रोधं आवाहयामि । ‘क्रोध ! अब आ जा ।
तब श्रीरामजी ने क्रोध का आवाहन किया : क्रोधं आवाहयामि । ‘क्रोध ! अब आ जा ।
श्रीरामजी क्रोध का उपयोग तो करते थे किंतु क्रोध के हाथों में नहीं आते थे । हम लोगों को क्रोध आता है तो क्रोधी हो जाते हैं, लोभ आता है तो लोभी हो जाते हैं, मोह आता है तो मोही हो जाते हैं, शोक आता है तो शोकातुर हो जाते हैं लेकिन श्रीरामजी को जिस समय जिस साधन की आवश्यकता होती थी, वे उसका उपयोग कर लेते थे ।
श्रीरामजी का अपने मन पर बडा विलक्षण नियंत्रण था । चाहे कोई सौ अपराध कर दे फिर भी रामजी अपने चित्त को क्षुब्ध नहीं होने देते थे ।
सामनेवाला व्यक्ति अपने ढंग से सोचता है, अपने ढंग से जीता है, अतः वह आपके साथ अनुचित व्यवहार कर सकता है परंतु उसके ऐसे व्यवहार से अशांत होना-न होना आपके हाथ की बात है ।
यह जरूरी नहीं है कि सब लोग आपके मन के अनुरूप ही जियें ।
यह जरूरी नहीं है कि सब लोग आपके मन के अनुरूप ही जियें ।
श्रीरामजी #अर्थव्यवस्था में भी निपुण थे । ‘#शुक्रनीति और ‘#मनुस्मृति में भी आया है कि जो धर्म, संग्रह, परिजन और अपने लिए - इन चार भागों में अर्थ की ठीक से व्यवस्था करता है वह आदमी इस लोक और परलोक में सुख-आराम पाता है ।
श्रीरामजी धन के उपार्जन में भी कुशल थे और उपयोग में भी । जैसे मधुमक्खी पुष्पों को हानि पहुँचाये बिना उनसे परागकण ले लेती है, ऐसे ही श्रीरामजी प्रजा से ऐसे ढंग से कर (टैक्स) लेते कि प्रजा पर बोझ नहीं पड़ता था । वे प्रजा के हित का चिंतन तथा उनके भविष्य का सोच-विचार करके ही कर लेते थे ।
श्रीरामजी धन के उपार्जन में भी कुशल थे और उपयोग में भी । जैसे मधुमक्खी पुष्पों को हानि पहुँचाये बिना उनसे परागकण ले लेती है, ऐसे ही श्रीरामजी प्रजा से ऐसे ढंग से कर (टैक्स) लेते कि प्रजा पर बोझ नहीं पड़ता था । वे प्रजा के हित का चिंतन तथा उनके भविष्य का सोच-विचार करके ही कर लेते थे ।
प्रजा के संतोष तथा विश्वास-सम्पादन के लिए श्रीरामजी राज्यसुख, गृहस्थसुख और राज्यवैभव का त्याग करने में भी संकोच नहीं करते थे ।
इसीलिए श्रीरामजी का राज्य आदर्श राज्य माना जाता है ।
इसीलिए श्रीरामजी का राज्य आदर्श राज्य माना जाता है ।
#राम-राज्य का वर्णन करते हुए ‘श्री रामचरितमानस में आता है :
बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग ।
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग ।।... ...
बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग ।
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग ।।... ...
‘राम-राज्य में सब लोग अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल धर्म में तत्पर हुए सदा वेद-मार्ग पर चलते हैं और सुख पाते हैं । उन्हें न किसी बात का भय है, न शोक और न कोई रोग ही सताता है ।
राम-राज्य में किसीको आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप नहीं व्यापते । सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बतायी हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं ।
धर्म अपने चारों चरणों (सत्य, शौच, दया और दान) से जगत में परिपूर्ण हो रहा है, स्वप्न में भी कहीं पाप नहीं है । पुरुष और स्त्री सभी रामभक्ति के परायण हैं और सभी परम गति (मोक्ष) के अधिकारी हैं ।
( संत श्री आशारामजी आश्रम ऋषि प्रसाद से )
( संत श्री आशारामजी आश्रम ऋषि प्रसाद से )
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