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Sunday, November 1, 2020

भारतीय संस्कृति : मौसम के बदलाव में छिपे हैं अनगिनत वैज्ञानिक तथ्य

01 नवंबर 2020


प्राणी मात्र के संरक्षण, संवर्धन के ज्ञान से अनुस्यूत वेदों का अनुसरण करने वाली भारतीय संस्कृति में पर्वों की एक लंबी पंक्ति है। पर्व या उत्सव किसी संस्कृति की समृद्धता को द्योतित करते हैं। जो संस्कृति जितनी वैभवशाली होती है, उसमें उतने ही पर्व होते हैं और पर्व भी केवल मनोरंजन के लिए नहीं अपितु अन्वर्थ है। पर्व शब्द संस्कृत की ‘पृ’ धातु से बना है जिसका अर्थ होता है पूर्ण करने वाला, तृप्त करने वाला। पहाड़ को भी पर्वत कहते हैं क्योंकि वह भी पर्व वाला है अर्थात् उसका निर्माण भी कालखण्ड में धीरे-धीरे हुआ है।




गन्ने के एक-एक भाग को भी पर्व (पौरी) कहते हैं, उसका प्रत्येक भाग मिलकर पूर्ण मिठास, तृप्ति को प्राप्त कराता है। इसी प्रकार वर्ष पर्यन्त प्राकृतिक दिवस विशेष को पर्व कहा जाता है क्योंकि ये दिवस विशेष हमें पूर्ण करने वाले तथा तृप्त करने वाले होते हैं। भारतीय संस्कृति व्यक्ति प्रधान नहीं अपितु समष्टि प्रधान है, अत: वह प्रकृति के परिवर्तन को उत्सव के रूप में मनाती है।

मानव प्रकृति का एक अंग है। वह प्रकृति ही उसे पूर्ण बनाती है, उस प्रकृति को जान करके ही व्यक्ति अपना समुन्नत विकास कर सकता है। भारतीय ऋषि-ज्ञान परंपरा ने बहुत गहन अध्ययन और प्रयोगों के उपरांत उनसे मिलने वाले परिणामों को देखते हुए जन सामान्य को अनुसरण करने के लिए कुछ पर्व के रूप में दिवस निर्दिष्ट किए। मानव और प्रकृति में जब तक सामंजस्य है, तब तक मानव स्वस्थ और दीर्घ जीवन जी सकता है- यह तथ्य भारतीय मनीषी बहुत पहले जान चुके थे। अत: भारतीय समाज प्रकृति की पूजा करता है और पूजा का अर्थ होता है “यथायोग्य व्यवहार करना”।

भारतीय समाज जानता था कि प्रकृति का शोषण नहीं बल्कि “तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः” त्याग पूर्वक भोग करना चाहिए। यही त्याग पूर्वक भोग ही प्रकृति की पूजा है, जिसमें किसी प्राणी की हिंसा नहीं अपितु समर्पण होता है। व्यक्ति दैनंदिन की व्यस्तता में यह भूल सकता है अत: पर्व के रूप में उस दिन विशेष को वह पुन: स्मरण करता है और अपने परिश्रम के उपरांत प्राप्त फल के लिए धन्यवाद ज्ञापन करते हुए प्रसन्न हो कर मिल बाँट कर खाता है। अतः ये पर्व मानव जीवन में न्यूनताओं को पूर्ण करने वाले होते हैं। जिनको भारतीय मानव समुदाय बड़ी प्रसन्नता उत्साह के साथ मनाता है।

हम सब होली दिवाली इत्यादि बड़े पर्व से परिचित हैं इसी श्रृंखला में शरद पूर्णिमा भी एक पर्व है और उसके बाद प्रारम्भ होने वाला कार्तिक मास का प्रात:स्नान। पृथ्वी की परिभ्रमण और परिक्रमण गति के कारण वर्ष में दो बार वह सूर्य के सबसे समीप होती है । ग्रीष्म ऋतु में उसकी समीपता रस की शोषक का कारक बनती है तो शरद ऋतु में उसकी समीपता रस की पोषक है।

आयुर्वेद में इस काल को विसर्ग काल कहा जाता है- “जनयति आप्यमंशम् प्राणिनां च बलमिति विसर्ग:’ अर्थात् इसमें वायु की रुक्षता कम हो जाती है और चन्द्रमा का बल बढ़ जाता है। सूर्य जब दक्षिणायन होता है तो उत्तरी गोलार्ध में पड़ने के कारण भारतवर्ष सूर्य से दूर हो जाता, जिससे भूभाग शीतल रहता। इस काल में चन्द्रमा भी पृथ्वी के सबसे अधिक समीप होता है और वह समस्त संसार पर अपनी सौम्य एवं स्निग्ध किरणें बिखेर कर जगत को निरंतर तृप्त करता रहता है।

शरद ऋतु में चन्द्रमा पूर्ण बली होकर जलीय स्नेहांश को बढ़ाने लगता है, जिससे द्रव्यों में मधुर रस की वृद्धि होती है और उसके उपयोग से प्राणियों के शरीर में बल की वृद्धि होने लगाती है। चन्द्रमा के साहचर्य से वायु भी अपने योगवाही गुण के कारण चन्द्रमा के शैत्य आदि गुणों की वृद्धि कराती है। शरद ऋतु के प्रारम्भ में दिन थोड़े गर्म और रातें शीतल हो जाया करती हैं। आयुर्वेद के अनुसार “वर्षाशीतोचिताङ्गानां सहसैवार्करश्मिभि:।

तप्तानामचितं पित्तं प्राय: शरदि कुप्यति” अर्थात् वर्षा ऋतु में शरीर वर्षाकालीन शीत का अभ्यस्त रहता है और ऐसे शरीरांगों पर जब सहसा शरद ऋतु के सूर्य की किरणें पड़ती हैं तो शरीर के अवयव संतप्त हो जाते हैं और वर्षा ऋतु में संचित हुआ पित्त शरद ऋतु में प्रकुपित हो सकता है। अत: प्रकृति के इस परिवर्तन को देखते हुए मनुष्य को अपने आहार-विहार, पथ्य-अपथ्य का ध्यान रखना चाहिए। इसका प्रारम्भ नवरात्रि के उपवास से ही हो जाता है।

भारतीय समाज में शरद पूर्णिमा के बाद प्रारम्भ होने वाले कार्तिक मास में ब्रह्म मुहूर्त में शीतल जल के स्नान की परम्परा है। आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ चरक संहिता में इस जल को ‘हंसोदक’ कहा गया है क्योंकि दिन के समय सूर्य की किरणों से तपा और रात के समय चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श से शीतलकाल स्वभाव में पका हुआ होने से निर्दोष एवं अगस्त्यतारा के उदय होने के प्रभाव से निर्विष हो जाता है।

‘हंस’ शब्द से सूर्य, चन्द्रमा और हंस पक्षी इन तीनों का ग्रहण होता है अत: सूर्य और चन्द्रमा दोनों की किरणों के संपर्क से शुद्ध हुए जल को भी हंस-उदक कहा जाता है। उस जल में स्नान करना, उसका पान करना और उसमें डुबकी लगाना अमृत के सामान फल देने वाला होता है। हमारे पूर्वजों ने इस परंपरा का बड़ी श्रद्धा और निष्ठा से निर्वहण किया है और हम तक सुरक्षित पहुँचाया है।

ये पर्व प्रवाही काल का साक्षात्कार है। मनुष्य द्वारा ऋतु को बदलते देखना, उसकी रंगत पहचानना, उस रंगत का असर अपने भीतर अनुभव करना पर्व का लक्ष्य है। हमारे पर्व-त्यौहार हमारी संवेदनाओं और परंपराओं का जीवंत रूप हैं, जिन्हें मनाना या यूँ कहें कि बार-बार मनाना, हर वर्ष मनाना हमारे लिए गर्व का विषय है। पूरी दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है, जहाँ मौसम के बदलाव की सूचना भी पर्व तथा त्योहारों से मिलती है।

इन मान्यताओं, परंपराओं और विचारों में हमारी सभ्यता और संस्कृति के अनगिनत वैज्ञानिक तथ्य छुपे हैं। जीवन के अनोखे रंग समेटे हमारे जीवन में रंग भरने वाली हमारी उत्सवधर्मिता की सोच, मन में उमंग और उत्साह के नए प्रवाह को जन्म देती है। हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है कि यहाँ पर मनाए जाने वाले सभी त्यौहार समाज में मानवीय गुणों को स्थापित करके लोगों में प्रेम और एकता को बढ़ाते हैं।

त्योहारों और उत्सवों का संबंध किसी जाति, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है। सभी त्यौहारों के पीछे की भावना मानवीय गरिमा को समृद्धि प्रदान करना है। प्रत्‍येक त्‍यौहार अलग अवसर से संबंधित है, कुछ वर्ष की ऋतुओं का, फसल कटाई का, वर्षा ऋतु का अथवा पूर्णिमा का स्‍वागत करते हैं। दूसरों में धार्मिक अवसर, ईश्‍वरीय सत्‍ता/परमात्‍मा व संतों के जन्‍म दिन अथवा नए वर्ष की शुरुआत के अवसर पर मनाए जाते हैं।



भारतीय संस्कृति कितनी सूक्ष्म रूप से मनुष्य की रक्षा करने के लिए कैसे दिव्य कार्य कर रही है वे आज के वैज्ञानिक सोच भी नही सकते है अतः इसका पालन करके अपना जीवन का सर्वागीण विकास कर सकते है।

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