Monday, May 4, 2020

हिंदी को खत्म करने के लिए ऐसी साजिश, महाभारत के लिए भी फैलाया झूठ !

04 मई 2020

🚩कोरोना महामारी के चलते लॉकडाउन में लोगों के सामने बेहतरीन सीरियल प्रस्तुत करने की दूरदर्शन की कोशिशों के चलते ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के अलावा कई पुराने पर बेहद लोकप्रिय रहें सीरियलों का पुनर्प्रसारण प्रारंभ हुआ। तथाकथित बुद्धिजीवी भारत में हर चीज को मुगलों, मुसलमानों और उर्दू की देन बताने लग जाते हैं। 

🚩‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के फिर से प्रसारण का समाचार सार्वजनिक होते ही इनके निर्माण से जुड़ी कहानियां भी फिर से सामने आने लगीं। ऐसी ही एक कहानी, जो बहुत जोर-शोर से प्रचारित की गई, वो महाभारत से जुड़ी थी। ये प्रचारित किया गया कि महाभारत के संवाद, मशहूर लेखक राही मासूम रजा ने लिखें। पर इस सचाई में एक और सच्चाई जरा दब सी गई, वो ये है कि राही मासूम रजा साहब को पंडित नरेन्द्र शर्मा का भी साथ मिला था। किस्सें इस तरह गढ़ें गए कि इस संदर्भ में नरेन्द्र शर्मा का नाम कोई लेता नहीं है, जबकि इस सीरियल के निर्माण के दौरान जब राही मासूम रजा इसके संवाद लिख रहे थे तो पंडित नरेन्द्र शर्मा उनकी काफी मदद कर रहे थे। यह कहना सही होगा कि महाभारत की पटकथा से लेकर संवाद तक में दोनों लेखकों की भूमिका थी। 

🚩प्रचारित तो यह भी किया गया कि राही मासूम रजा ने ‘भ्राताश्री’, ‘माताश्री’ जैसे शब्द गढ़ें लेकिन ऐसा प्रचारित करने वालें ये भूल गए कि ‘महाभारत’ के पहले ही ‘रामायण’ का प्रसारण हो चुका था और उसमें मेघनाद अपने पिता राक्षसराज रावण को पिताश्री कहकर ही संबोधित करता है। ‘रामायण’ के संवाद तो रामानंद सागर ने लिखे थें। इसलिए इन शब्दों को गढ़ने का श्रेय रजा साहब को देना अनुचित है। इस सीरियल को लिखने के दौरान होता ये था कि रजा साहब और नरेन्द्र शर्मा में लगातार विमर्श होता रहता था और दोनों एक दूसरे की मदद करते थें। यह भी सर्वविदित तथ्य है कि राही मासूम रजा जो भी लिखकर भेजते थे उसको पंडित नरेन्द्र शर्मा देखते थे और उनकी सहमति के बाद ही सीरियल में उसका उपयोग होता था। पंडित नरेन्द्र शर्मा की पुत्री लावण्या शाह के मुताबिक, राही मासूम रजा ने कहा था कि ‘महाभारत की भूल भूलैया भरी गलियों में, मैं, पंडित जी की अंगुली थामे आगे बढ़ता गया’

🚩दरअसल हिंदी फिल्मों से जुड़े एक खास वर्ग के लोग और मार्क्सवादी विचारधारा के अनुयायियों की ये पुरानी तकनीक है जिसके तहत वो फिल्मों की लोकप्रियता का श्रेय उन संवाद लेखकों को देते रहे हैं जो हिन्दी-उर्दू मिश्रित भाषा का प्रयोग करते रहे हैं। ये लोग इसको हिन्दुस्तानी कहकर प्रचारित प्रसारित करते हैं। गानों या संवादों में भी हिंदी शब्दों की बहुलता को लेकर बहुधा उपहास किया जाता रहा लेकिन इतिहास गवाह है कि जब भी हिंदी में संवाद लिखे गए, लोगों ने उसको खूब पसंद किया, जब भी विशुद्ध हिंदी की शब्दावली में गीत लिखे गए तो वो काफी लोकप्रिय हुए। कई गीत हैं जहां हिंदी के शब्दों को लेकर रचना की गई लेकिन ना तो गानेवालों को और ना ही संगीत देनेवालों को कोई दिक्कत हुई। कर्णप्रिय भी हुए और लोकप्रिय भी। यह तो गंभीर और गहन शोध की मांग करता है कि कैसे फिल्म जगत में हिंदी को हिंदी-उर्दू मिश्रित जुबान से विस्थापित करने की कोशिश हुई और हिंदुस्तानी के नाम पर भाषा के साथ खिलवाड़ किया गया।

🚩इतना ही नहीं अगर हम ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के संवाद को देखें तो उसमें भी हिंदी अपनी ठाठ के साथ खिलखिलाती है। जब ये पहली बार दर्शकों के लिए दूरदर्शन पर दिखाए गए तब भी और जब अब एक बार फिर से दूरदर्शन पर दिखाए जा रहे हैं तब भी, बेहद लोकप्रिय हैं। उस दौर के दर्शक अलग थें और जाहिर सी बात है कि तीन दशक के बाद दर्शक बदल गए हैं लेकिन लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई। भाषा को लेकर किसी को कोई दिक्कत नहीं हुई। ना सिर्फ ‘महाभारत’ या ‘रामायण’ बल्कि अगर हम बात करें तो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ या ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ की भाषा हिंदी ही थी। सभी बेहद लोकप्रिय हुए। इस तरह के सीरियल न केवल लोकप्रिय हुए, बल्कि इन्होंने हिंदी का विकास भी किया, उसको मजबूती दी, उसको विस्तार दिया। सीरियल के माध्यम से लोगों का हिंदी के कई शब्दों से परिचय हुआ, उनका उपयोग बढ़ा और शब्द चलन में आ गए। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ ने हिंदी के कई ऐसे शब्द फिर से जीवित कर दिए। ‘पंचकोटि’ जैसे शब्द तो लगभग चलन से गायब ही हो गए थें। ये इस सीरियल की लोकप्रियता ही थी जिसने शब्दों में फिर से जान डाल दी। 

🚩2012 में जोहानिसबर्ग में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में मॉरीशस के तत्कालीन कला और संस्कृति मंत्री चुन्नी रामप्रकाश ने कहा था कि ‘हिंदी के प्रचार प्रसार में बॉलीवुड की फिल्में और टीवी पर चलनेवाले सीरियल्स का बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि उनकी जो भी हिंदी है वो सिर्फ हिंदी फिल्मों और टीवी सीरियल्स की बदौलत है।‘ और वो हिंदी बोल रहे थे लेकिन तथाकथित हिंदुस्तानी नहीं। सीरियल और फिल्मों का प्रभाव सिर्फ देश में नहीं बल्कि विदेशों में भी है, चुन्नी रामप्रकाश के वक्तव्य से इसको रेखांकित किया जा सकता है।

🚩वामपंथ के प्रभाव में हिंदी के साथ भी खिलवाड़ शुरू हुआ और भाषा को सेक्युलर बनाने की कोशिश शुरू हो गई। गंगा-जमुनी तहजीब के नाम पर हिंदी में उर्दू को मिलाने की कोशिशें सुनियोजित तरीके से शुरू की गईं। हिंदी को कथित तौर पर सुगम बनाने की कोशिश शुरू हुई। नतीजा यह हुआ कि हिंदी के कई शब्द अपना अर्थ खोने लगें। वो चलन से बाहर होने लगें। फिल्मों के प्रभाव को देखते हुए वहां भी कथित तौर पर हिंदुस्तानी को स्थापित करने की कोशिशें शुरू हुईं। इसके लिए पंडित नरेन्द्र शर्मा जैसे लेखक हाशिए पर धकेले जाने लगें। हिंदी उर्दू मिश्रित संवाद और गीत लिखनेवाले लोगों को प्रमुखता दी जाने लगी। अब यह तो नीति का हिस्सा होता है कि जिनको प्रमुखता देनी हो उसके पक्ष में एक माहौल बनाओ और जिसको गिराना हो उसके विपक्ष में माहौल बनाओ। इसके तहत हिंदी को कठिन बताकर और उर्दू मिश्रित हिंदी को बेहतर बताकर स्थापित किया गया। इस आधारभूत नियम का पालन बॉलीवुड में हुआ। इसका प्रकटीकरण साफ तौर पर महाभारत को लेकर राही मासूम रजा और नरेन्द्र शर्मा वाले प्रकरण में होता है। लेकिन न तो रामायण की भाषा को हिंदुस्तानी किया गया न महाभारत की भाषा को, परिणाम सबके सामने है।

🚩भाषा को दूषित करने के इस खेल में वामपंथियों ने भले ही उर्दू को अपना हथियार बनाया हो लेकिन वो न तो उर्दू के हितैषी हैं और न ही मुसलमानों के। अगर राही मासूम रजा की इतनी ही कद्र या फिक्र होती तो उनको हिंदी में बेहतरीन कृतियां लिखने पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल जाता। साहित्य अकादमी में तो उन्नीस सौ पचहत्तर के बाद से वामपंथियों का ही बोलबाला रहा। सिर्फ राही मासूम रजा ही क्यों किसी भी मुसलमान लेखक को इन वामपंथियों ने आजतक हिंदी में लिखने के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं दिया, शानी के ‘काला जल’ को भी नहीं, रजा के 'आधा गांव' को भी इन्होंने इस लायक नहीं समझा। दरअसल ये अपनी विचारधारा को मजबूत बनाने और अपने और अपने राजनीतिक आकाओं के हितों की रक्षा के लिए भाषा, धर्म समाज सबका उपयोग करते रहे हैं। ये विचारधारा समावेशी नहीं है। कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि इसका वैचारिक आधार स्वार्थ है और ये राजसत्ता हासिल करने के लिए भाषा, संस्कृति या धर्म का उपयोग करना चाहते हैं। साहित्य और संस्कृति को इस विचारधारा वालों ने राजनीति का औजार बनाकर इन विधाओं का इतना नुकसान किया जिसकी भारपाई निकट भविष्य में तो संभव नहीं है। जरूरत इस बात की है कि भाषाई अस्मिता के साथ खिलवाड़ न किया जाए, भाषा के नियमों के साथ छेड़-छाड़ नहीं की जाए। बॉलीवुड में विचारधारा के नाम पर लंबे समय तक बहुत ही खतरनाक खेल खेला गया, अब भी कई लोग ये खेल खेलना चाहते हैं, खेल भी रहे हैं लेकिन अब बेहद चालाकी से ऐसा करते हैं ताकि पकड़ में न आ सकें लेकिन वामपंथी ये भूल जाते हैं कि ये जनता है और वो सब जानती है। महाभारत के संवादों के अर्धसत्य पर अनंत विजय का लेख (साभार: दैनिक जागरण)

🚩हिंदुस्तानियों को बहुत सावधान रहने की आवश्यकता है ये लोग हमारी पूरी संस्कृति की विकृति करना चाहते है इसलिए अनेक तरीके से साजिशें चलाते है जो हमे पता भी नही चलने देते है पर अब जनता धीरे-धीरे जागरूक हो रही हैं लेकिन अभी और जागरूकता लाना जरूरी हैं।

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Sunday, May 3, 2020

हिंदुत्व पर सदियों से एक के बाद एक प्रहार हो रहे हैं, उस पर व्यथित एक कवि के हृदय के उद्गार सुनिएं एक कविता के माध्यम से

03 मई 2020

🚩सनातन धर्म को ही हिंदू धर्म कहते है और सनातन धर्म के साथ सदियों से षड़यंत्र होते आए हैं और ये षड़यंत्र आज भी भिन्न भिन्न रूपों में चल रहे हैं। अधिकतर षड़यंत्रों से तो आप सभी परिचित है ही और जो भी सनातन धर्मप्रेमी हिंदुनिष्ठ इन षड़यंत्रों के खिलाफ खड़े होते हैं, उन पर भी भयंकर हमले होते आये हैं।

🚩आज भी सिलसिला जारी है। आज भी ईसाई मिशनरियों द्वारा धर्मांतरण के लिए, हिन्दू विरोधी ताकतों द्वारा हिन्दू धर्म को तोड़ने और बदनाम करने के लिए षड़यंत्र हो रहे हैं। इस दुःख से पीड़ित होकर कवि ने कविता लिखी जो हर धर्मप्रेमी को पढ़नी चाहिए ताकि इन षड़यंत्रों से परिचित होकर इनके खिलाफ एकजुट होकर खड़े हो सकें।

पढिए कविता:-

🚩बहुत हुए हिन्दुत्व पर प्रहार, अब हो इस अन्याय का अंत।
छोड़ निंद्रा हो जाओ एक, ताकि सुरक्षित हो हमारे संत।।

इतिहास साक्षी हैं संतों ने ही, हिन्दुत्व को संजोया है।
अपनी अस्थियों का धागा बना, शास्त्र ज्ञान को पिरोया है।।
सनातन संस्कृति के रक्षण में, संतों ने सर्वस्व खोया हैं।
संतों के साथ हो रहे हैं षड़यंत्र, हिन्दू अभी भी सोया है।।
हिन्दुत्व की रक्षा के लिए, संतों ने सहे हैं कष्ट अनंत।
छोड़ निंद्रा हो जाओ एक, ताकि सुरक्षित हो हमारे संत।।

समय का चक्र बदलता रहा, पर षड़यंत्र नहीं हुए मंद।
कबीर जी हो, चाहे नानक जी, या स्वामी विवेकानंद।।
चाहे शंकराचार्य हो, चाहे साध्वी प्रज्ञा, या असीमानंद।
सभी के सभी भगवा वीर, लड़े सनातन के लिए सारे द्वंद।।
सनातन की रक्षा हेतु, झेले षड़यंत्रकारियों के प्रपंच।
छोड़ निंद्रा हो जाओ एक, ताकि सुरक्षित हो हमारे संत ।।

संत आशारामजी बापू ने, हिन्दुत्व का प्रचार प्रसार किया।
अपने अविरल सेवाकार्यों से, करोड़ों का उद्धार किया।।
धर्मांतरण का विरोध किया तो, इन पर भी अत्याचार किया।
लगा दिए झूठे इल्जाम, जिन्होंने प्राणिमात्र से प्यार किया।।
अभी भी कर रहे धर्म की सेवा, बना लक्ष्य जीवनपर्यंत।
छोड़ निंद्रा हो जाओ एक, ताकि सुरक्षित हो हमारे संत।।

पालघर में जो हुआ है वो, हिन्दुत्व को खुली चुनौती है।
संतों को बनाया गया निशाना, जो सनातन धर्म के मोती हैं।।
कर रहे उन नेत्रों को बंद, जो सनातन धर्म की ज्योति है।
देखकर संतों पर अत्याचार, माँ वसुंधरा भी रोती है।।
उठो सभी बन जाओ सुनामी, कर दो दुश्मन के खट्टे दंत।
छोड़ निंद्रा हो जाओ एक, ताकि सुरक्षित हो हमारे संत।।

बहुत हुए हिन्दुत्व पर प्रहार, अब हो अन्याय का अंत।
छोड़ निंद्रा हो जाओ एक, ताकि सुरक्षित हो हमारे संत।।
- कवि सुरेन्द्र भाई

🚩बता दे कि पालघर में जिस तरह पुलिस की मौजूदगी में बर्बरतापूर्ण संतों की हत्या हुई और सोशल मीडिया पर उसका वीडियो वायरल हुआ तब पता चला कि दुष्ट लोगों को हिन्दू साधु-संतों से कितनी नफरत है। नफरत की इंतहा ये थी कि पुलिस की मौजूदगी से भी इन लोगों को कुछ फर्क नहीं पड़ा। पर ये तो मात्र एक झलक थी, बाकी इतिहास उठाकर देख लेंगे तो पता चलेगा कि हमारे साधु-संतों ने कितने कष्ट सहन किए हैं, फिर भी वे हँसते-हँसते हुए इन कष्टों को सहन करते गए और सनातन संस्कृति की रक्षा करते हुए हिंदुओं को जगाते रहे हैं। फिर भी हम इन भगवा वीरों का आदर नहीं करतें। बिकाऊ मीडिया जो इनके बारे में झूठी कहानियां बनाकर दिखाने लगती है तो हम उनको ही सच मानकर अपने ही धर्मगुरुओं को गलत समझकर अपने दिमाग में गलत छवि बना लेते हैं और उनसे नफरत करने लगते हैं।

🚩आपके मस्तिष्क में भी प्रश्न उठता होगा कि सिर्फ सनातन संस्कृति और उसकी रक्षा करने वाले हिन्दूनिष्ठ और साधु-संतों पर ही क्यों आक्रमण किये जाते हैं? तो बता दे कि जैसे उल्लू को सूर्य पसंद नहीं आता, चोर को चौकीदार पंसद नही आता, वैसे ही दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों को हिन्दू संस्कृति और साधु-संत पसंद नहीं आते। इसलिए वें हमेशा उनके खिलाफ षड़यंत्र करते रहते हैं ताकि हिन्दुत्व और साधु-संतों को मिटाया जा सके। इसलिए समय की मांग है कि हम इन षड़यंत्रों को समझे और इन हिन्दू विरोधी ताकतों को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए एकजुट होकर खड़े हो।

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Saturday, May 2, 2020

ईसाइयत का क्रूर इतिहास आप नही जानते होंगे, मुग़लों से भी है खतरनाक!

02 मई 2020

🚩एक मुस्लिम शायर ने केवल इस्लाम को मानवीय विध्वंस के लिए जिम्मेदार ठहराए जाने और ईसाइयत की विनाश-लीला पर चुप्पी साध लेने की प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए कहा था-

"लोग कहते हैं तलवार से फैला इस्लाम,
यह नहीं कहते कि तोप से क्या फैला?"

🚩इस बात में काफी दम है। आज जिस ईसाइयत को प्रेम और सेवा की प्रतिमूर्ति के रूप में दुनिया के सामने प्रस्तुत किया जाता है उस ईसाइयत की वास्तविकता कुछ और ही है। इतिहास साक्षी है कि ईसाइयत उस साम्राज्यवाद का एक साधन था जिसने दुनिया भर में जिस तरह नरसंहार और संस्कृति नाश किया उसकी मिसाल इतिहास में नहीं मिल सकती। हम भारतीयों के बीच अक्सर इस्लाम के जुल्मों और अत्याचारों की चर्चा होती है, लेकिन ईसाइयत का इतिहास भी उतना ही काला, क्रूर और विकराल है।

🚩इतिहास पर सरसरी नजर डालें तो यह देखना दिलचस्प होगा कि यहूदियों के साथ ईसाइयों ने कैसा बर्ताव किया। ईसा को मसीहा मानने वाले ईसाइयों ने यहूदियों से प्रचंड घृणा पाल ली और उनका नरसंहार किया। ईसा ने यहूदियों का मुक्तिदूत होने का दावा किया, पर वे मृत्युदूत और यातनादूत बनकर रह गए। सारे यूरोप में ईसाइयत के फैलने के साथ यहूदी विरोध भी फैला। ज्यादातर इतिहासकारों का मानना है कि ईसाइयत के शुरूआती दिनों से ही उसमें यहूदी विरोधी भावना थी, जो आनेवाली शताब्दियों में और बलवती हो गई। ईसाइयों द्वारा की गई यहुदियों के खिलाफ हिंसा और हत्याओं ने आखिरकार "नरसंहार" (genocide) का रूप लिया।

🚩Jesus Christ: An Artifice for Aggression के लेखक स्व.सीताराम गोयल यहूदियों के नरसंहार को सीधे ईसा से प्रेरित बताते हैं। वे लिखते हैं- "गोसेपेल (बाईबल) के ईसा ने यहूदियों की सांप, सांपों के बिल, शैतान की औलाद, मसीहाओं के हत्यारे कह कर निंदा की, क्योंकि उन्होंने ईसा को मसीहा मानने से इंकार कर दिया था। बाद के ईसाई धर्मशास्त्र ने उनको ईसा के हत्यारे के तौर पर स्थायी अपराध-भाव से भर दिया। यहूदियों को सारे यूरोप में और सदियों तक गैर-नागरिक बना दिया गया, उनको लगातार हत्याकांड का शिकार बनाया गया।... आश्चर्य नहीं कि पश्चिमी देशों के गंभीर चिंतक गोस्पेल को पहला "यहूदी विरोधी मेनीफैस्टो" मानते हैं।"

🚩फ्रांसिसी लेखक और दार्शनिक वोल्तेयर ने ईसाइयत के इतिहास और चरित्र का अध्ययन करने के बाद टिप्पणी की थी, "ईसाइयत दुनिया पर थोपा गया सबसे हास्यास्पद, एब्सर्ड और रक्तरंजित धर्म है। हर सम्माननीय व संवेदनशील व्यक्ति को ईसाई पंथ से डरना चाहिए।" उनकी यह बात सोलह आने खरी है। ईसाइयत का सारा इतिहास रक्तरंजित दास्तान रहा है। सबसे पहला देश, जहां ईसाइयत राजधर्म बना, वह था रोम। कट्टर ईसाइयों का स्वभाव रहा है कि जैसे ही पर्याप्त शक्ति संग्रहित की कि भयंकर उत्पीडनों को तेज कर देते हैं। रोम में उन्होंने बहुदेववादियों का उत्पीड़न शुरू किया। उन यहुदियों का उत्पीडन किया जिनसे ईसाइयत पैदा हुई। रोम में उन्होंने बहुदेववादियों के सारे मंदिर नष्ट कर दिए। बाद में ईसाइयत यूनान (Greece) भी पहुंच गई। किसी जमाने में यूनान पश्चिमी सभ्यता का सिरमौर हुआ करता था लेकिन वहां ईसाइयों का वर्चस्व बढने के साथ उसका यह सम्मान जाता रहा। प्राचीन यूनान ईसाइयत के जन्म से बहुत पहले पश्चिमी सभ्यता का पहला शिक्षक था। मगर जब से वह ईसाई बना, उसकी सारी मनीषा और संस्कृति नष्ट हो गई। यूनानियों के पास ईसाइयों से ज्यादा प्रकाश था। ईसाई तो प्रकाश के बजाय अंधेरा लाए। भारत में जिस प्रकार मंदिरों में अनेक देव मूर्तियां साथ-साथ रहती हैं उसी तरह ग्रीक देवी-देवताओं की मूर्तियां भी वहां के मंदिरों में साथ साथ रहती थी। न तो देवताओं में ईर्ष्या और नफरत भरी प्रतिस्पर्धा थी, न पुजारियों के मध्य। लेकिन नए पंथ ईसाइयत की सोच में ही कुछ गड़बड़ी थी। इसलिए यूरोप में ईसाइयत का इतिहास विध्वंस लीलाओं से भरा रहा। ईसाइयत ने किस तरह यूरोप पर कब्जा किया, अनेक समाजों, संस्कृतियों के मठ-मंदिरों को नष्ट किया, विचार स्वातंत्र्य को खत्म किया इसका इतिहास रक्तरंजित और रोंगटे खड़ा करनेवाला है। ईसाई संतों ने इसमें सबसे दुष्टतापूर्ण भूमिका निभाई। ऐसे क्रूरकर्मा लोगों को वहां संत कहा गया।

🚩ईसाइयों में शुरू से ही यह प्रवृत्ति रही है कि एक ईसाई संप्रदाय वाला दूसरे ईसाई संप्रदाय वाले को मार डाले। दरअसल एक ईसाई संप्रदाय किसी और संप्रदाय का ईसाई होना पाप ही मानता था। उसे राज्य के विरूद्ध अपराध भी घोषित कर दिया जाता था। एक संप्रदाय के राजा कानून बनाकर भिन्न ईसाई संप्रदायों पर पाबंदी तक लगाते। असल में यूरोप में पहले पैगन (गैर-ईसाई) लोगों का वंशनाश किया गया। फिर अन्य ईसाई संप्रदायों के ईसाइयों को ढूंढ कर जलाया गया। लाखों अन्य संप्रदायों के ईसाई सार्वजनिक उत्सव के साथ जलाए गए। उन्मत्त ईसाइयों ने समाजों और कौमों का उत्पीड़न किया। इस तरह ईसाइयत ने यूरोप को अपने अधीन किया। पोप ग्रेगरी ने इंग्लैंड के बिशप आगस्तीन को सलाह दी कि जहाँ भव्य मंदिर हों उनको नष्ट न कर उन पर कब्जा करे। वहां की मूर्तियां हटा दी जाएं और वहां सच्चे ईश्वर यीशु की पूजा की जाए।

🚩फिर यूरोप के ईसाइयों ने बाकी महाद्वीपों में जाकर यही इतिहास दोहराया। उन्होंने अमेरिका और आस्ट्रेलिया जाकर वहां के स्थानीय निवासियों (aborigins) को असभ्य करार देकर उनका नरसंहार किया और उनकी जमीन आदि पर कब्जा कर लिया। बेनेडिक्ट चर्च के पादरी कोलंबस के पीछे अमेरिका पहुंचे। उन्होंने केवल हैती में ही पौने दो लाख उन मूर्तियों को नष्ट कर दिया जिनकी वहां के स्थानीय लोग पूजा करते थे। मैक्सिको के पहले पादरी जुआन द जुमरगा ने १५३१ में दावा किया था कि उसने ५० से ज्यादा मंदिर नष्ट किए और २०० से ज्यादा मूर्तियां तोड-फोड़ कर मिट्टी में मिला दीं। एक मिशनरी ने बहुत गर्व से लिखा है, "उसका रात का खाना चार फीट उंची लकड़ी की मूर्ति का जलाऊ लकड़ी तरह प्रयोग कर तैयार किया गया था और वहां स्थानीय लोग खड़े खड़े देखते रह गए थे।"

🚩इतिहासकार धर्मपाल के शब्दों में कहा जाए- "उनकी नजर में विजित को आखिरकार खत्म होना था। भौतिक रूप से न सही मगर संस्कृति और सभ्यता के रूप में।" आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के स्थानीय निवासी जल्दी ही नेस्तनाबूद हो गए थे। उत्तरी अमेरिका में उनके पूर्ण उन्मूलन में ३००-४०० साल लगे।

🚩अफ्रीका महाद्वीप इस्लाम और ईसाइयत जैसे दोनों विस्तारवादी और घोर असहिष्णु धर्मों के हमलों को झेल रहा है। इससे उनकी प्राचीन संस्कृति लगभग खत्म होती जा रही है। दोनों के बीच स्थानीय लोगों को धर्मांतरित करने की होड़ चल रही है। आज अफ्रीकी अपने युगों पुराने मूल धर्मों को खोने की कगार पर हैं।

🚩ईसाइयत के प्रसार ने न केवल कई संस्कृतियों का विनाश किया, वरन् यूरोप, अमेरिका, एशिया और आस्ट्रेलिया के लाखों लोगों की हत्या भी हुई। महान दार्शनिक वोल्तेयर के शब्दों में कहें तो "ईसाइयत ने काल्पनिक सत्य के लिए धरती को रक्त से नहला दिया।"

🚩पश्चिमी देश "सेकुलर" होने के बावजूद अपने को ईसाई मानते हैं, इसलिए सार्वजनिक जीवन और शिक्षा व्यवस्था के जरिये सदियों तक ईसा के नाम पर मानवता के खिलाफ हुए अपराधों को छिपाते रहें। भारत में तो ईसाइयत के इस काले अध्याय को पूरी तरह से पोंछ दिया गया है। उस पर कभी चर्चा नहीं की जाती। ईसाइयत को प्रेम और सेवा के धर्म के रूप में प्रचारित किया जाता है, लेकिन उसमें इस बात की चर्चा नहीं की जाती कि इसके लिए कितने लोगों की बलि चढ़ाई गई। भारत भी ईसाइयों की विनाश लीला का शिकार हुआ है। पुर्तगालियों की हिंसा जगजाहिर थी तो अंग्रेजों की हिंसा सूक्ष्म थी, चुपचाप जड़ें खोदने वाली थी। एक ईसाई इतिहासकार ने लिखा है कि पुर्तगालियों नें अपने कब्जे के भारत में क्या किया। एडां टीआर डिसूजा के अनुसार, १५४० के बाद गोवा में सभी हिन्दू मूर्तियों को तोड़ दिया गया था या गायब कर दिया गया था। सभी मंदिर ध्वस्त कर दिए गए थे और उनकी जगहों को और निर्माण सामग्रीयों को नए क्रिश्चियन चर्च बनाने के लिए इस्तेमाल किया गया था। कई शासकीय और चर्च के आदेशों में हिन्दू पुरोहितों के पुर्तगाली क्षेत्र में आने पर रोक लगा दी गई थी। विवाह सहित सभी हिन्दू कर्मकांडों पर पाबंदी थी। मिशनरी गोवा में सामूहिक धर्मांतरण करते थे। इसके लिए सेंट पाल के कन्वर्जन भोज का आयोजन किया जाता था। उसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को लाने के लिए जेसुइट लोग हिन्दू बस्तियों में अपने नीग्रो गुलामों के साथ जाते थे। इन नीग्रो का इस्तेमाल हिन्दुओं को पकड़ने के लिए किया जाता था। जब ये नीग्रों भागते हुए हिन्दुओं को पकड़ लेते थे तो वे हिन्दुओं के होठों पर गांय का मांस लगा देते थें। इससे वह हिन्दू लोगों के बीच अछूत बन जाता था। तब उसके पास ईसाई पंथ में घर्मांतरित होने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता था। इतिहासकार ईश्वर शरण ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है - "संत झेवियर के सामने औरंगजेब का मंदिर विध्वंस और रक्तपात कुछ भी नहीं है।" अंग्रेज शासन के बारे में नोबल पुरस्कार विजेता वी.एस. नायपाल की यह टिप्पणी ही काफी है कि "इस देश में इस्लामी शासन उतना ही विनाशकारी था जितना उसके बाद आया ईसाई शासन। ईसाइयों ने एक सबसे समृद्ध देश में बड़े पैमाने पर गरीबी पैदा की।"

🚩कुछ वर्ष पूर्व एक पोप ने ईसाइयत के इन काले कारनामो के लिए अमेरिका से माफी मांगी थी। केवल अमेरिका और लैटिन अमेरिका से माफी मांग कर काम नहीं चलेगा। उन्हें कई देशों से, कई समाजों से, कई धर्मों और स्वयं ईसाइयत के विभिन्न संप्रदायों से माफी मांगनी चाहिए थी। उन्हें यहूदियों, अन्य संप्रदाय के ईसाइयों और हिन्दुओं से माफी मांगनी होगी। उन्हें माफी मांगनी पड़ेगी उन लाखों महिलाओं से जिन्हें यूरोप में चुडैल (witch) कह कर जला दिया गया। उन्हें माफी मांगनी होगी उन लाखों ईसाइयों से जिन्हें धर्म से विरत (heretic / apostate) होने के कारण यातनाघरों में यातनाएं दी गईं। गैलीलियों जैसे वैज्ञानिकों से प्रताड़ित किए जाने के लिए माफी मांगनी होगी। रोम के पोप माफी मांग भी लेंगे, लेकिन क्या ये प्रताडित लोग उनकी माफी कबूल करेंगे? आखिर माफी मांगने से इतिहास तो नहीं बदलता। समय के चक्र को पीछे नहीं चलाया जा सकता। फिर माफी मांगना नाटक और ईसाइयत की छवि सुधारने की कोशिश के अलावा क्या है? असली माफी तो तब होगी जब ईसाइयत अपना धूर्त, पाखण्डी, असहिष्णु और विस्तारवादी चरित्र बदले। शायद यह कर पाना किसी भी पोप के बस की बात नहीं। ईसाइयत के मूल चरित्र को वो कैसे बदल पाएंगे?

🚩गोवा में ईसाई मिशनरियों द्वारा ईसाई मत ग्रहण करने से अस्वीकार करने पर हिन्दुओं को सार्वजानिक रूप से जीवित जला दिया जाता था। ऐसे सामूहिक कत्लेआम को धर्मान्तरित हिन्दुओं के सामने किया जाता था ताकी कोई वापिस से ईसाई मत का त्याग कर हिन्दू न बन जाये। Source@Trueindology

Source of the painting: Mary Evans picture library. Reproduced at Alamy collection:

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Friday, May 1, 2020

तमिलनाडु सरकार का आदेश : मस्जिदों को 5450 टन फ्री चावल, मंदिर दे 10 करोड़ !

01 मई 2020

🚩हिंदुओं के मंदिर और उनकी सम्पदाओं को नियंत्रित करने के उद्देश से सन 1951 में एक कायदा बना – “The Hindu Religious and Charitable Endowment Act 1951” इस कायदे के अंतर्गत राज्य सरकारों को मंदिरों की मालमत्ता का पूर्ण नियंत्रण प्राप्त है, जिसके अंतर्गत वे मंदिरों की जमीन, धन आदि मुल्यमान सामग्री को कभी भी कैसे भी बेच सकते हैं और जैसे भी चाहे उसका उपयोग कर सकते हैं। मंदिरों के पैसे से सरकारे हिंदुओं का ही दमन कर रही हैं।

🚩तमिलनाडु सरकार ने 47 मंदिरों को CM राहत कोष में 10 करोड़ रुपए देने का आदेश दिया है। इसके विपरीत राज्य सरकार ने 16 अप्रैल को रमजान के महीने में प्रदेश की 2,895 मस्जिदों को 5,450 टन मुफ्त चावल वितर‌ित करने आदेश दिया था, ताकि रोजेदारों को परेशानी ना हो। वास्तव में मदिरों को ऐसा आदेश देने के पीछे तमिलनाडु सरकार की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति जिम्मेदार है।
ऐसे समय में, जब मंदिर प्रशासन को सरकार के चंगुल से मुक्त कराने के लिए संघर्ष तेज हो रहा है, तमिलनाडु सरकार के हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती विभाग (HR and CE) ने 47 मंदिरों को गरीबों की देखभाल करने के लिए निर्धारित राशि के अलावा CM राहत कोष में 10 करोड़ रुपए अतिरिक्त देने का निर्देश दिया है।

🚩भाजपा ने लगाईं मंदिरों में भोजन करवाने की स्वीकृति की गुहार

🚩भाजपा की तमिलनाडु इकाई के अध्यक्ष एल मुरुगन ने शनिवार को अन्नाद्रमुक सरकार से गरीबों और साधुओं को भोजन कराने के लिए राज्य में हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती विभाग के रखरखाव वाले मंदिरों में अन्नदान (भूखों को भोजन परोसना) फिर से शुरू करने का आग्रह किया। मुरुगन ने कहा कि सरकार ने मुस्लिम समुदाय के लोगों की दलीलों का सम्मान किया है और रमज़ान के खाने के लिए मुफ्त चावल आवंटित किया है। तमिलनाडु सरकार के इस निर्देश की आलोचना की मुख्य वजह यह भी है कि इस प्रकार का निर्देश इसाई और मुस्लिम संस्थानों को नहीं दिया गया है, जिन्हें सालाना सरकारी अनुदान प्राप्त होते रहते हैं। इससे पहले मद्रास हाईकोर्ट ने रमजान के महीने में मस्जिदों में मुफ्त चावल वित‌रित करने के तमिलनाडु सरकार के आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए याचिका को खारिज कर दिया था। इसके लिए पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के उस बयान को नजीर बनाया जिसमें शीर्ष अदालत ने कहा था कि सरकार किसी भी समुदाय को तीर्थयात्रा के लिए मदद देने के विचार के ‌विरोध में नहीं है। उदाहरण के लिए सरकार द्वारा कुंभ का खर्च वहन करने और भारतीय नागरिकों को मानसरोवर तीर्थ यात्रा में मदद का जिक्र किया था। हालाँकि पीठ ने यह जिक्र नहीं किया कि कोरोना के दौरान बंद मंदिर ऐसी स्थिति में सरकार के फैसले का क्या करें?

HR और CE के नियंत्रण में हैं राज्य के 47 मंदिर

🚩HR और CE के प्रधान सचिव के पनिंद्र रेड्डी ने मदुरै, पलानी, थिरुचेंदुर, तिरुतनी, तिरुवन्नमलई, रामेश्वरम, मयलापुर सहित 47 मंदिरों में उनके अधीन काम करने वाले सभी अधिकारियों को निर्देश दिया है कि वे लॉकडाउन के कारण गरीबों को भोजन खिलाने की दिशा में सरप्लस फंड से 35 लाख रुपए का योगदान दें। अन्य मंदिरों को 15 लाख रुपए से 25 लाख रूपए तक की राशि देने के लिए निर्देशित किया गया है। सभी 47 मंदिरों को दस करोड़ के अधिशेष कोष को सीएम कोरोना रिलीफ फंड में स्थानांतरित करना है। उल्लेखनीय है कि HR और CE तमिलनाडु में 36,612 मंदिरों का प्रबंधन करते हैं। ये संपन्न मंदिर अपने अधिशेष कोष से संरक्षण/ नवीकरण/बहाली करते हैं। लाखों पुजारी पूर्ण रूप से श्रद्दालुओं के दान पर निर्भर रहते हैं। कोरोना महामारी और देशव्यापी बंद के कारण अब वे असहाय हो चुके हैं और भुखमरी का सामना कर रहे हैं। इस पर तमिलनाडु राज्य सरकार ने उनकी मदद करने के बजाए अपनी तुष्टिकरण की राजनीति को साधने के लिए हिंदू मंदिरों की संपत्ति को निशाना बनाया है।

🚩मुस्लिमों में रमजान के पर्व की शुरुआत में ही, तमिलनाडु राज्य सरकार ने मुसलमानों को एक बड़ा लाभ देने की घोषणा की थी। दिवंगत सीएम जयललिता ने मुस्लिमों के दिलों और वोटों को जीतने के लिए इसे शुरू किया था। तमिलनाडु सरकार ने घोषणा की थी कि इस साल दलिया तैयार करने के लिए 2,895 मस्जिदों को 5,450 टन चावल दिया जाएगा, जो कि साधारण गणना के अनुसार 2,1,80,00,000 रुपए निकल आती है।

मुस्लिमों की तरह हिन्दुओं को नहीं मिलता है त्योहारों में कुछ भी

🚩जबकि इसी प्रकार की कोई मदद या योजना चित्रा और अनादि महीनों के दौरान हिंदुओं के ग्राम देवताओं को प्रसाद तैयार करने के लिए नहीं दी जाती हैं। सभी लोग इस बात को जानते हैं कि लॉकडाउन के कारण मंदिरों में उत्सव रद्द कर दिए गए हैं लेकिन ऐसा लगता है कि हिंदू मंदिर के पैसे की कीमत पर मुसलमानों का तुष्टिकरण सरकार के लिए महत्वपूर्ण है। वर्तमान तमिलनाडु सरकार की नीति से लगता है कि वह हिंदू मंदिरों को पूरी तरह से निचोड़ने का प्रयत्न कर रही है। तमिलनाडु सरकार हिंदुओं के मंदिरों से हंडी संग्रह, प्रसाद, विभिन्न दर्शन टिकट, विशेष कार्यक्रम शुल्क, आदि के माध्यम से प्रतिवर्ष 3000 करोड़ रुपए से अधिक वसूल करती है, जबकि केवल 4-6 करोड़ रुपए रखरखाव के लिए दिए जाते हैं। बाकी 2,995 करोड़ रुपए सरकार के पास रहते हैं।

🚩वहीं, श्रीविल्लिपुथुर वैष्णवित मठ प्रमुख सदगोपा रामानुज जियार ने तमिलनाडु सरकार से मंदिर के पैसे को पुजारी और सेवकों को देने के लिए खर्च करने का आग्रह किया है। पुथिया तमीजगम के प्रमुख डॉ. कृष्णस्वामी ने सीएम से मंदिरों से प्राप्त 10 करोड़ रुपए की राशि वापस करने की अपील की है।

🚩केंद्र सरकार को चाहिए कि इसमे बदलाव करें, मंदिरों के पैसे किसी भी धर्म को नही देने चाहिए और राज्य सरकार का नियंत्रण उसपर से हट जाना चाहिए।

🚩राज्य सरकार को चाहिए की मंदिरों के पैसे का उपयोग सिर्फ हिंदू संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए ही करना चाहिए जैसे कि वैदिक गुरुकुल, आर्युवेदिक हॉस्पिटल, मंदिर निर्माण, हिंदू धर्म ग्रँथ, मीडिया में हिंदू धर्म के प्रचार प्रसार, गरीब हिंदुओं की सहायता, अन्नक्षेत्र, साधु-संतों को पगार आदि के लिए उपयोग करना चाहिए अगर ऐसा नही कर सकते है तो सरकार को अपना नियंत्रण हटा देना चाहिए खुद हिंदू अपने मंदिर संभाल लेंगे।

🚩हिंदू भी जिस मंदिर में अपना दान देते हैं उनके संचालकों से हिंदू धर्म के लिए पैसे उपयोग करने के लिए बताएं।

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