Friday, August 28, 2020

रोजगार अथवा शिक्षा दोनों में क्या महत्वपूर्ण है? शिक्षा कैसी होनी चाहिए?

28 अगस्त 2020


सरकार के एक सब से महत्वपूर्ण मंत्रालय द्वारा अपना बिगड़ा नाम कोरोना काल में सुधारने में एक तुक है। कोरोना ने पूरी दुनिया को याद दिलाया कि अर्थव्यवस्था से बड़ी चीज जीवन और प्रकृति के नियम हैं। यह बुनियादी सत्य खो गया था। ‘मानव’ अर्थव्यवस्था का ‘संसाधन’ बना डाला गया। फलतः शिक्षा का मूल अर्थ बिगड़ कर नौकरी-दौड़ में शामिल होने का प्रमाण-पत्र पाना बन गया।




अतः उस कुरूप नाम ‘मानव संसाधन’ को बदल कर पुनः ‘शिक्षा’ करने के लिए शिक्षा मंत्री श्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ धन्यवाद के पात्र हैं। स्वयं लेखक होने के कारण वे इस सांकेतिक परिवर्तन की गंभीरता समझते हैं। पश्चिम में नाम सामान्य. चीज है, किन्तु भारतीय परंपरा में नामकरण एक महत्वपूर्ण संस्कार होता है। समझा जाता है कि नाम से नामित के भविष्य और भूमिका का संबंध है। इसलिए, अब स्वभाविक आशा है कि शिक्षा के नाम के साथ इस के भाव की भी वापसी हो। यदि इस दिशा में दो-चार कदम भी उठाए जा सके, तो यह मोदी सरकार का सब से दूरगामी देश-हितकारी काम होगा!

यद्यपि यह इस पर निर्भर करेगा कि यह परिवर्तन किस भावना में किया गया है? बहुतों को जानकर आश्चर्य होगा कि स्वतंत्र भारत में शिक्षा पर बनी सब से पहली डॉ. राधाकृष्णन समिति (1948) ने अपनी ठोस अनुशंसा में ‘धर्म के अध्ययन’ को उच्च शिक्षा में महत्वपूर्ण स्थान दिया था। उस की रूप-रेखा तक दी थी। शिक्षा के उद्देश्य पर अपनी चार प्रमुख अनुशंसाओं में एक ‘‘छात्रों का आध्यात्मिक विकास’’ भी जोड़ा था। तब वह सब कहाँ खो गया? यह एक गंभीर प्रश्न है, जो यहाँ तमाम शिक्षा आयोगों, समितियों की दुखद कहानी कहता है।

उस प्रश्न का उत्तर यही हो सकता है समिति की अनुशंसाओं को लागू करने वाले गंभीर या योग्य नहीं थे। उन्होंने उन बिन्दुओं का महत्व नहीं समझा। सो अच्छी-अच्छी अनुशंसाएं कागजों में धरी रह गईं। यह पिछली राजीव गाँधी की शिक्षा नीति (1986) के साथ भी देख सकते हैं। उस में राष्ट्रीय कैडेट कोर (एन.सी.सी.), तथा ‘मूल्यों की शिक्षा’ स्कूली शिक्षा का अंग था। किन्तु जब पाठ्यचर्या के दस्तावेज बने, तो इस का उल्लेख तक गायब हो गया! लागू करना तो दूर रहा।

यह दुःखद कहानी 1948 से चल रही है। सच्चे ज्ञानी (यदि वे शिक्षा समिति में हुए, क्योंकि समितियों में वैसे लोगों को रखना भी क्रमशः बंद हो गया) मूल्यवान अनुशंसाए देते रहे। लेकिन उन्हें लागू करने वाले मनमर्जी करते रहे। फिर, 1970 के दशक से तो वामपंथी एक्टिविस्टों ने शैक्षिक नीति-अनुपालन तंत्र में अपना अड्डा जमा लिया। तब से शिक्षा काफी कुछ उन की राजनीति का औजार भर बनती चली गयी।

इसीलिए, प्रश्न है कि क्या नाम के साथ शिक्षा के अर्थ की भी घर-वापसी होगी? उत्तर इस पर है कि हमारे कर्णधार इस के प्रति कितने गंभीर हैं। जैसा हम ने ऊपर देखा, किसी नीति की सफलता दस्तावेज में लिखे शब्दों पर नहीं, बल्कि मुख्यतः इस पर निर्भर होती है कि उस का निरूपण किस भावना में किया गया है? यदि भावना सच्ची है तो रास्ते मिल जाएंगे। न केवल शिक्षा का अर्थ पुनः स्थापित होगा, बल्कि भारतीय भाषाओं में शिक्षा का उत्तम प्रबंध हो सकेगा, जो इस शिक्षा नीति की सब से महत्वपूर्ण संभावना है।

भारतीय अर्थ में शिक्षा पश्चिम के ‘एजुकेशन’ से भिन्न है। पश्चिम में यह शब्द ही 16वीं शताब्दी में बना। जहाँ इस का अर्थ है, सीखकर कोई जानकारी या हुनर प्राप्त करना, तर्क क्षमता प्राप्त करना, जीवन के लिए बौद्धिक रूप से तैयार होना, आदि। किन्तु भारतीय ज्ञान-परंपरा में ‘शिक्षा’ शब्द और उस का व्यापक अर्थ पाँच हजार वर्षों से स्थापित है! इसलिए भी आश्चर्य है कि इतनी मूल्यवान धारणा यहाँ हालिया दशकों में त्याज्य मान ली गई। अर्थव्यवस्था के लिए ‘संसाधन’ अधिक महत्वपूर्ण हो गए। फलतः दूसरों के विचार रट लेने, अपने मस्तिष्क में भर लेने, कुछ सर्टिफिकेट पा लेने और अफसर, इंजीनियर, बन सकने की ओर बढ़ने का उपाय भर कर के हमारे बच्चे ‘मानव संसाधन’ बनते रहे हैं। लेकिन भारतीय अर्थ में यह सब शिक्षा नहीं है। शिक्षा है: मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना।

स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा का उद्देश्य बताया था कि जो बच्चों में चरित्र-शक्ति का विकास, भूत-दया का भाव, और सिंह का साहस पैदा करे। अर्थात, उस में मौजूद ‘तत्वम् असि’ की भावना जागृत करे। इस प्रकार, मनुष्य के लिए विद्या, बल, धन, यश, और पुण्य यह सब अभीष्ट है। इस के संतुलन की अवहेलना करने से व्यक्ति और मानवजाति भ्रष्ट हो जाती है। इसीलिए भारतीय परंपरा में आशीर्वचनों में ‘प्रसन्न रहो’, ‘चिरंजीवी होओ’, जैसी बातें कही जाती हैं। न कि धनी बनो, आदि। रोजगार, आदि अन्य कर्म मनुष्य की प्रसन्नता से नीचे हैं, ऊपर नहीं।

कुछ लोग इन बातों के आदर्शवादी समझ कर रोजगार को सर्वोपरि मानते हैं। वे भूल जाते हैं कि रोजगार मानव के साथ सैदव रहा है। सभी ज्ञानी और शिक्षाविद इस की आवश्यकता और स्थान से सुपरिचित थे। मनुष्य के लिए रोजगार महत्वपूर्ण है; किन्तु दूसरे स्थान पर। जीवन-बसर तो पशु-पक्षी भी करते हैं, बिना कोई स्कूल गए। तब मनुष्य होने की विशेषता क्या हुई! वह विशेष तत्व न भूलना ही शिक्षा है। जानकारी से अधिक एकाग्रता, विचार-शक्ति मह्त्वपूर्ण है।

व्यवहार में भी, स्कूल, कॉलेज, आदि से निकलने के बाद जीवन में डिग्रियों से अधिक योग्यता, चरित्र, और हुनर काम आता है। कोई कैसे खड़ा होता, बोलता, सुनता, व्यवहार करता, सोचता-विचारता है तथा विभिन्न, स्थितियों का सामना करता है – यही शिक्षित-अशिक्षित का अंतर है। यूरोप में भी ‘वेल-एजुकेटेड’ उसे कहते हैं, जिस ने महान साहित्य का अध्ययन किया हो। जो प्लेटो, शेक्सपीयर, गेटे, टॉल्सटॉय, आदि को कुछ निकट से जानता हो।

वह अर्थ भी कम से कम हम अपनी शिक्षा में वापस ला सकें, तो नई पीढयों का महान उपकार होगा। वे वाल्मीकि, वेद व्यास, पातंजलि, कालिदास, शंकराचार्य, टैगोर, श्रीअरविन्द, निराला, अज्ञेय, जैसी अनन्य विभूतियों में कुछ से स्वयं परिचित हों। उस से देश का भी भला होगा। इस अर्थ में भी नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं को माध्यम बनाने की महत्ता बनती है। उस के अभाव में ही हमारे युवा उस महान ज्ञान-परंपरा से ही कट गए हैं, जो आज भी विश्व में भारत की सब से बड़ी पहचान है। कम लोग जानते हैं कि पश्चिम को निर्यात होने वाली भारतीय पुस्तकों में सब से बड़ा हिस्सा उन क्लासिक ज्ञान-ग्रंथों का हैं जो संस्कृत व भारतीय भाषाओं में हैं। उन का मूल्य पश्चिमी जानकार समझते हैं, जबकि हम स्वयं उसकी उपेक्षा करते रहे हैं! ऐसा इसलिए भी संभव हुआ क्योंकि भारतीय भाषाओं को शिक्षा-माध्यम से हटा दिया गया।

फलतः भारतीय बच्चे न केवल अपने महान साहित्य, बल्कि अपनी संस्कृति से ही से कटते चले गए। यह धीरे-धीरे भारत के ही लुप्त हो जाने का मार्ग है, सावधान! बच्चों की भाषा छीनने, उन की शिक्षा गिराने, उन्हें अर्थव्यवस्था का ‘संसाधन’ बनाने, आदि का दुष्परिणाम हमें समझ सकना चाहिए। इस दृष्टि से भी, भारतीय भाषाओं को पुनः स्थान देने का विचार अत्यंत महत्वपूर्ण है।

आरंभिक कदम के रूप में अपने भाषा-साहित्य से बच्चों को स्वेच्छा से जोड़ा जा सके, तो यही बहुत बड़ी बात होगी। उन्हें अपनी भाषा अच्छी तरह आए। शुद्ध, सुंदर, साहित्यिक। यह उस भाषा का महान साहित्य पढ़ने की रुचि पैदा करने से स्वतः हो जाएगा। साथ ही, संस्कृत पढ़ने-समझने की कुछ योग्यता। यह सब किसी बाध्यता से कराने की जरूरत नहीं। केवल प्रेरित, प्रोत्साहित करके करना उचित होगा। भारतीय ज्ञान-परंपरा के सर्वोत्तम साहित्य सुंदर रूपों में सुलभ हों। उस से बच्चों को जोड़ दिया जाए। इस के बाद नई पीढ़ी के प्रतिभावान आगे का मार्ग स्वयं ढूँढ निकालेंगे! हमारा कर्तव्य है, उन्हें शिक्षा की नींव, उन की भाषा उन्हें दे देना। आगे वे गंतव्य स्वयं पाने में समर्थ होंगे, यह हमें विश्वास करना चाहिए। - डॉ. शंकर शरण 

आजतक जितने भी देश उन्नत हुए वे अपनी भाषा में व अपना इतिहास पढ़कर ही हुए है। हमें भी हमारा प्राचीन इतिहास, मातृभाषा और राष्ट्रभाषा को महत्त्व देना चाहिए, 200 साल हमें गुलाम बनाने वाले अंग्रजो की भाषा को तो तुरंत हटा ही देना चाहिए ये मानसिकता की गुलामी है, अपने देश की संस्कृति, इतिहास , धर्म के बारे में बच्चों को सही जानकरी मिले उस अनुसार पाठ्यक्रम बनना चाहिए और प्राचीन गुरुकुलों के अनुसार शिक्षा नीति बननी चाहिए।

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Thursday, August 27, 2020

सनातन धर्म और मनुस्मृति में महिलाओं के विषय में क्या बताया गया है?

27 अगस्त 2020


हर साल 26 अगस्त को अंतर्राष्ट्रीय महिला समानता दिवस मनाया जाता है। स्वघोषित लिबरल, नारीवादी और अंबेडकरवादी हमेशा चिल्लाते रहते हैं कि सनातन धर्म मे नारी का सम्मान नहीं है। ये कभी उनकी बात नहीं करते जो महिलाओं को पुरुष से आधा मानते हैं। 1 पुरुष के मुक़ाबले 2 महिलाओं की गवाही मानी जाती है।




दूसरा लिबरल इस बात को लेकर चिल्लाते हैं कि मनुस्मृति महिलाओ के खिलाफ है लेकिन इन लोगों ने मनुस्मृति पढ़ी ही नहीं है बस इनको तो हिंदू धर्मग्रंथों व सनातन धर्म को बदनाम करना होता है इसलिए झूठ फैलाते रहते हैं, आज आपको वास्तविकता बता रहे है की हिंदू धर्म मे नारी की महानता कितनी है।

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रऽफलाः क्रियाः। मनुस्मृति 3/56

अर्थात जिस समाज या परिवार में स्त्रियों का सम्मान होता है, वहां देवता अर्थात् दिव्यगुण और सुख़- समृद्धि निवास करते हैं और जहां इनका सम्मान नहीं होता, वहां अनादर करने वालों के सभी काम निष्फल हो जाते हैं।

पिता, भाई, पति या देवर को अपनी कन्या, बहन, स्त्री या भाभी को हमेशा यथायोग्य मधुर-भाषण, भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि से प्रसन्न रखना चाहिए और उन्हें किसी भी प्रकार का क्लेश नहीं पहुंचने देना चाहिए। -मनुस्मृति 3/55

जिस कुल में स्त्रियां अपने पति के गलत आचरण, अत्याचार या व्यभिचार आदि दोषों से पीड़ित रहती हैं। वह कुल शीघ्र नाश को प्राप्त हो जाता है और जिस कुल में स्त्री-जन पुरुषों के उत्तम आचरणों से प्रसन्न रहती हैं, वह कुल सर्वदा बढ़ता रहता है। -मनुस्मृति 3/57

जो पुरुष, अपनी पत्नी को प्रसन्न नहीं रखता, उसका पूरा परिवार ही अप्रसन्न और शोकग्रस्त रहता है और यदि पत्नी प्रसन्न है तो सारा परिवार प्रसन्न रहता है। - मनुस्मृति 3/62

पुरुष और स्त्री एक-दूसरे के बिना अपूर्ण हैं, अत: साधारण से साधारण धर्मकार्य का अनुष्ठान भी पति-पत्नी दोनों को मिलकर करना चाहिए।-मनुस्मृति 9/96

ऐश्वर्य की कामना करने वाले मनुष्यों को योग्य है कि सत्कार और उत्सव के समयों में भूषण वस्त्र और भोजनादि से स्त्रियों का नित्यप्रति सत्कार करें। -मनुस्मृति

पुत्र-पुत्री एक समान। आजकल यह तथ्य हमें बहुत सुनने को मिलता है। मनु सबसे पहले वह संविधान निर्माता है जिन्होंने पुत्र-पुत्री की समानता को घोषित करके उसे वैधानिक रुप दिया है- ‘‘पुत्रेण दुहिता समा’’ (मनुस्मृति 9/130) अर्थात्-पुत्री पुत्र के समान होती है।

पुत्र-पुत्री को पैतृक सम्पत्ति में समान अधिकार मनु ने माना है। मनु के अनुसार पुत्री भी पुत्र के समान पैतृक संपत्ति में भागी है। यह प्रकरण मनुस्मृति के 9/130 9/192 में वर्णित है।

आज समाज में बलात्कार, छेड़खानी आदि घटनाएं बहुत बढ़ गई है। मनु नारियों के प्रति किये अपराधों जैसे हत्या, अपहरण , बलात्कार आदि के लिए कठोर दंड, मृत्युदंड एवं देश निकाला आदि का प्रावधान करते है। सन्दर्भ मनुस्मृति 8/323,9/232,8/342

नारियों के जीवन में आनेवाली प्रत्येक छोटी-बडी कठिनाई का ध्यान रखते हुए मनु ने उनके निराकरण हेतु स्पष्ट निर्देश दिये हैं।

पुरुषों को निर्देश है कि वे माता, पत्नी और पुत्री के साथ झगडा न करें। मनुस्मृति 4/180 इन पर मिथ्या दोषारोपण करनेवालों, इनको निर्दोष होते हुए त्यागनेवालों, पत्नी के प्रति वैवाहिक दायित्व न निभानेवालों के लिए दण्ड का विधान है। मनुस्मृति 8/274, 389,9/4

मनु की एक विशेषता ओर है, वह यह कि वे नारी की असुरक्षित तथा अमर्यादित स्वतन्त्रता के पक्षधर नहीं हैं और न उन बातों का समर्थन करते हैं जो परिणाम में अहितकर हैं। इसीलिए उन्होंने स्त्रियों को चेतावनी देते हुए सचेत किया है कि वे स्वयं को पिता, पति, पुत्र आदि की सुरक्षा से अलग न करें, क्योंकि एकाकी रहने से दो कुलों की निन्दा होने की आशंका रहती है। मनुस्मृति 5/149, 9/5- 6 इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मनु स्त्रियों की स्वतन्त्रता के विरोधी है। इसका निहितार्थ यह है कि नारी की सर्वप्रथम सामाजिक आवश्यकता है सुरक्षा की। वह सुरक्षा उसे, चाहे शासन-कानून प्रदान करें अथवा कोई पुरुष या स्वयं का सामर्थ्य।

उपर्युक्त विश्‍लेषण से हमें यह स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति की व्यवस्थाएं स्त्री विरोधी नहीं हैं। वे न्यायपूर्ण और पक्षपातरहित हैं। मनु ने कुछ भी ऐसा नहीं कहा जो निन्दा अथवा आपत्ति के योग्य हो।

यजुर्वेद में लिखा है कि मंहीमू षु मातरं सुव्रतानामृतस्य पत्नीमवसे हुवेम।
तुविक्षत्रामजरन्तीमुरूची सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्॥ -यजु० २१।५

हे नारी! तू महाशक्तिमती है। तू सुव्रती पुत्रों की माता है। तू सत्यशील पति की पत्नी है। तू भरपूर क्षात्रबल से युक्त है। तू मुसीबतों के आक्रमण से जीर्ण न होनेवाली अतिशय कर्मशील है। तू शुभ कल्याण करनेवाली है। तू शुभ-प्रकृष्ट नीति का अनुसरण करनेवाली है।

आपको बता दें कि हिंदू धर्म में साधु है तो साध्वी भी है, तपस्वी हैं तो तपस्वीनी भी है, पुजारी है तो पुजारिन भी हैं।

लेकिन...
मुस्लिम समुदाय में मौलाना है लेकिन मौलानी नहीं हैं। ईसाइयों में पॉप है लेकिन पॉपनी नहीं हैं।

केवल और केवल हिंदू धर्म में ही नारी को पूजनीय माना गया है...! इसलिए सनातन धर्म ही सर्वोत्तम धर्म है...!

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Wednesday, August 26, 2020

मदर टेरेसा का असली चेहरा, गरीबों को मदद नही बल्कि धर्मान्तरण करवाना था।

26 अगस्त 2020


मदर टेरेसा का आज जन्मदिन था लेकिन ट्वीटर पर एक टॉप ट्रेंड चल रहा था #TeresaNoSaint इसमें जनता बता रही थी कि मदर टेरेसा कोई संत नही बल्कि मिशनरियों की कठपुतली थी उसने भारत में गरीबों की मदद के बहाने गरीबों का शोषण किया और दान के पैसे से हिंदुस्तानियों का धर्मान्तरण करवाया।




मदर टेरेसा 24 मई 1931 को कलकत्ता आई और यही की होकर रह गई। कोलकाता आने पर धन की उगाही करने के लिए मदर टेरेसा ने अपनी मार्केटिंग आरम्भ करी। उन्होंने कोलकाता को गरीबों का शहर के रूप में चर्चित कर और खुद को उनकी सेवा करने वाली के रूप में चर्चित कर अंतराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त करी। वे कुछ ही वर्षों में "दया की मूर्ति", "मानवता की सेविका", "बेसहारा और गरीबों की मसीहा", “लार्जर दैन लाईफ़” वाली छवि से प्रसिद्ध हो गई। बड़े शातिर तरीके से उन्होंने अपनी मार्केटिंग करी कि जिससे यह लगे की गरीबों की वह सबसे बड़ी हमदर्द है। इसका परिणाम यह निकला की विश्व स्तर पर उनकी बढ़िया छवि बन गई जिससे न केवल अकूत धन की उन पर वर्षा हुई बल्कि नोबेल शांति पुरस्कार भी मिला। इसका दूरगामी प्रभाव यह हुआ कि हिन्दू समाज उनके धर्मान्तरण के असली उद्देश्य की अनदेखी कर उन्हें संत मानने लग गया। 31 मई 2010 को BBC मे खबर थी। कुछ हिन्दुओं की मूर्खता देखिये उन्होंने इंग्लैंड के वेम्ब्ली में 14 साल और 16 मिलियन पौंड (लगभग 15 करोड़ रूपए) खर्च करके आलीशान मंदिर का निर्माण किया उसमें हिन्दू देवी देवताओं के अतिरिक्त वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप या बन्दा बैरागी नहीं अपितु मदर टेरेसा की मूर्ति लगा डाली। खबर का लिंक-


क्रिस्टोफर हिचेन्स (अप्रैल 1949-दिसंबर 2011) ने टेरेसा पर एक किताब लिखी है। 'द मिशनरी पोजीशन : मदर टेरेसा इन थ्योरी एंड प्रैक्टिस'। क्रिस्टोफर हिचेन्स अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ब्रिटिश-अमेरिकी लेखक और पत्रकार है। इसमें वे लिखते हैं कि मीडिया के एक विशेष वर्ग द्वारा महिमामंडित टेरेसा के 600 मिशन दुनियाभर में हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिन्हें 'मरने वालों का बसेरा' कहा जाता है। इन स्थानों पर रोगियों को रखा जाता है, जिनके बारे में चिकित्सकों ने चौंकाने वाले बयान दिए हैं। चिकित्सकों के मुताबिक, जहां रोगियों को रखा जाता है, वहां साफ-सफाई नहीं होती। रोगियों को पर्याप्त भोजन नहीं मिलने और उनके लिए दर्द निवारक दवाएं नहीं होने पर भी उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया। क्रिस्टोफर हिचेंस के अनुसार, जब इस बारे में पूछा गया तो टेरेसा का जवाब था- ''गरीबों, पीडितों द्वारा अपने नसीब को स्वीकार करता देखने और जीसस की तरह कष्ट उठाने में एक तरह का सौंदर्य है। उन लोगों के कष्ट से दुनिया को बहुत कुछ मिलता है।''

हालांकि जब टेरेसा खुद बीमार पड़ीं तो अपने ऊपर इन सिद्धांतों को लागू नहीं किया। न ही इन अस्पतालों को अपने इलाज के लिए उपयुक्त समझा न टेरेसा ने अपना इलाज यहां कराया। यह बात दिसंबर 1991 की है। ‘मदर टेरेसा की कमाई बंगाल के किसी भी फर्स्ट क्लास क्लीनिक को खरीद सकती थी। लेकिन क्लीनिक न चलाकर एक संस्था चलाना एक सोचा समझा फैसला था। समस्या कष्ट सहने की नहीं है, लेकिन कष्ट और मौत के नाम पर एक कल्ट चलाने की है। मदर टेरेसा खुद अपने आखिरी दिनों में अमेरिका के कैलिफोर्निया स्थित सबसे महंगे अस्पतालों में से एक स्क्रप्सि क्लीनिक एंड रिसर्च फाउंडेशन में भर्ती हुईं।

क्रिस्टोफ़र हिचेन्स ने 1994 में एक डॉक्यूमेंट्री भी बनाई थी, जिसमें मदर टेरेसा के सभी क्रियाकलापों पर विस्तार से रोशनी डाली गई थी। बाद में यह फ़िल्म ब्रिटेन के चैनल-फ़ोर पर प्रदर्शित हुई और इसने काफ़ी लोकप्रियता अर्जित की। बाद में अपने कोलकाता प्रवास के अनुभव पर उन्होंने एक किताब भी लिखी “हैल्स एन्जेल” (नर्क की देवदूत) इसमें उन्होंने कहा है कि “कैथोलिक समुदाय विश्व का सबसे ताकतवर समुदाय है। जिन्हें पोप नियंत्रित करते हैं, चैरिटी चलाना, मिशनरियाँ चलाना, धर्म परिवर्तन आदि इनके मुख्य काम हैं। जाहिर है कि मदर टेरेसा को टेम्पलटन सम्मान, नोबल सम्मान, मानद अमेरिकी नागरिकता जैसे कई सम्मान इसी कारण से मिलें।

कॉलेट लिवरमोर टेरेसा के ही मिशन में काम करने वाली एक आस्ट्रेलियाई नन है। इन्होने अपने मोहभंग और यातनाओं पर एक किताब लिखी है- 'होप एन्ड्योर्स'। इसमें उन्होंने अपने 11 साल के अनुभव के बारे में लिखा है कि कैसे ननों को चिकित्सीय सुविधाओं, मच्छर प्रतिरोधकों और टीकाकरण से वंचित रखा गया ताकि वे 'जीसस के चमत्कार पर विश्वास करना सीखें'। कॉलेट ने पुस्तक में इस बात का भी उल्लेख किया है कि वे किस तरह एक मरणासन्न रोगी की सहायता करने के कारण संकट में पड़ गई थी। उन्होंने लिखा है कि वहां पर तंत्र उचित या अनुचित के स्थान पर आदेश का पालन करने पर जोर देता है। जब कॉलेट को एलेक्स नामक एक बीमार बालक की सहायता करने से रोका गया तब उन्होंने टेरेसा को अलविदा कह दिया और लोगों से अपील की कि वे अपनी बुद्धि का उपयोग करें।

अरूप चटर्जी जो कोलकाता में रहते है अपनी पुस्तक "द फाइनल वर्डिक्ट" में लिखते है कि दान से मिलने वाले पैसे का प्रयोग सेवा कार्य में शायद ही होता होगा। मिशनरी में भर्ती हुए आश्रितों की हालत भी इतने धन मिलने के उपरांत भी उनकी स्थिति कोई बेहतर नहीं थी। टेरेसा दूसरो के लिए दवा से अधिक प्रार्थना में विश्वास रखती थी। जबकि खुद का इलाज कोलकाता के महंगे अस्पताल में कराती थी। मिशनरी की एम्बुलेंस मरीजों से अधिक नन आदि को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने का कार्य करती थी। यही कारण था की मदर टेरेसा की मृत्यु के समय कोलकाता निवासी उनकी शवयात्रा में न के बराबर शामिल हुए थे।”

डॉ.रॉबिन फ़ॉक्स जो “ब्रिटेन की प्रसिद्ध मेडिकल शोध पत्रिका लेंसेट (Lancet) के सम्पादक थे ने 1991 में एक बार मदर के कलकत्ता स्थित चैरिटी अस्पतालों का दौरा किया था। उन्होंने पाया कि बच्चों के लिये साधारण दवाईयाँ तक वहाँ उपलब्ध नहीं थी और न ही “स्टर्लाइज्ड सिरिंज” का उपयोग हो रहा था। जब इस बारे में मदर से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि “ये बच्चे सिर्फ़ मेरी प्रार्थना से ही ठीक हो जायेंगे"।

रोमन कैथोलिक में किसी को सन्त घोषित करना हो तो उसकी पहली शर्तें होती है, उपरोक्त व्यक्ति के नाम के साथ कोई चमत्कार घटित होता दिखाया जाये। अगर चमत्कार का 'प्रमाण' पेश किया गया तो उपरोक्त व्यक्ति का 'बीटिफिकेशन' होता है अर्थात उसे ईसा के प्रिय पात्रों में शुमार किया जाता है, जिसका ऐलान वैटिकन में आयोजित एक बड़े धार्मिक जलसे में लाखों लोगों के बीच किया जाता है तथा दूसरे चरण में उसे सन्त घोषित किया जाता है जिसे 'कननायजेशन' कहते है।

अभी कुछ साल पहले मदर टेरेसा का बीटिफिकेशन हुआ था, जिसके लिए राईगंज के पास की रहनेवाली किन्हीं मोनिका बेसरा से जुड़े 'चमत्कार' का विवरण पेश किया गया था। गौरतलब है कि 'चमत्कार' की घटना की प्रामाणिकता को लेकर सिस्टर्स आफ चैरिटी के लोगाें ने लम्बा चौड़ा 450 पेज का विवरण वैटिकन को भेजा था। यह प्रचारित किया गया था कि मोनिका के टयूमर पर जैसे ही मदर टेरेसा के लॉकेट का स्पर्श हुआ, वह फोड़ा छूमन्तर हुआ। दूसरी तरफ खुद मोनिका बेसरा के पति सैकिया मूर्म ने खुद 'चमत्कार' की घटना पर यकीन नहीं किया था और मीडियाकर्मियों को बताया था कि किस तरह मोनिका का लम्बा इलाज चला था। दूसरे राईगंज के सिविल अस्पताल के डाक्टरों ने भी बताया था कि किस तरह मोनिका बेसरा का लम्बा इलाज उन्होंने उसके टयूमर ठीक होने के लिए किया। https://www.facebook.com/288736371149169/posts/3667777206578385/

ईसाई मिशनरीयों का पक्षपात इसी से समझ में आता है की वह केवल उन्हीं गरीबों की सेवा करना चाहती हैं, जो ईसाई मत को ग्रहण कर ले। भारत में कार्य करने वाली ईसाई संस्थाओं का एक चेहरा अगर सेवा है तो दूसरा असली चेहरा प्रलोभन, लोभ, लालच, भय और दबाव से धर्मान्तरण भी करना हैं। इससे तो यही प्रतीत होता है की जो भी सेवा कार्य मिशनरी द्वारा किया जा रहा है उसका मूल उद्देश्य ईसाईकरण ही है।

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Tuesday, August 25, 2020

भारतीय गोवंश की अदभुत विशेषताएँ, जानकर रह जाएंगे दंग, मिट जाएंगे सभी रोग।

25 अगस्त 2020


भारतीय गायें विदेशी तथाकथित गायों की तरह बहुत समय तक जंगलों में हिंसक पशु के रूप में घूमते रहने के बाद घरों में आकर नहीं पलीं, वे तो शुरु से ही मनुष्यों द्वारा पाली गयी हैं। भारतीय गायों के लक्षण हैं- उनका गल कम्बल (गले के नीचे झालर सा भाग), पीठ का कूबड़, चौड़ा माथा, सुंदर आँखें तथा बड़े मुड़े हुए सींग। भारतीय गोवंश की कुछ नस्लें हैं, गिर, थारपारकर, साहीवाल, लाल सिंधी आदि।



भारतीय गायों पर करनाल की 'नेशनल ब्यूरो ऑफ जेनेटिक रिसोर्सेस' (एनबीएजीआर) संस्था ने अध्ययन कर पाया कि इनमें उन्नत ए-2 एलील जीन पाया जाता है, जो इन्हें स्वास्थ्यवर्धक दूध उत्पन्न करने में मदद करता है। भारतीय नस्लों में इस जीन की आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी) 100 प्रतिशत तक पायी जाती है, जबकि विदेशी नस्लों में यह 60 प्रतिशत से भी कम होती है।

भारतीय गायों में सूर्यकेतु नाड़ी होती है। गायें अपने लम्बे सींगों के द्वारा सूर्य की किरणों को इस सूर्यकेतु नाड़ी तक पहुँचाती हैं। इससे सूर्यकेतु नाड़ी स्वर्णक्षार बनाती है, जिसका बड़ा अंश दूध में और अल्पांश में गोमूत्र में आता है।

भारतीय गाय के दूध में ओमेगा-6 फैटी ऐसिड होता है, जिसकी कैंसर नियंत्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। विदेशी नस्ल की गायों के दूध में इसका नामोनिशान तक नहीं है। भारतीय गाय के दूध में अनसैचुरेटेड फैट होता है, इससे धमनियों में वसा नहीं जमती और यह हृदय को भी पुष्ट करता है।

भारतीय गाय चरते समय यदि कोई विषैला पदार्थ खा लेती है तो दूसरे प्राणियों की तरह वह विषैला तत्त्व दूध में मिश्रित नहीं होता। भारतीय गाय संसार का एकमात्र ऐसा  प्राणी है जिसके मल-मूत्र का औषधि तथा यज्ञ पूजा आदि में उपयोग होता है।

परमाणु विकिरण से बचने में गाय का गोबर उपयोगी होता है। भारतीय गाय के गोबर-गोमूत्र में रेडियोधर्मिता को सोखने का गुण होता है।

भारतीय गोवंश का पंचगव्य निकट भविष्य में प्रमुख जैव-औषधि बनने की सीमा पर खड़ा है। अमेरिका ने पेटेंट देकर स्वीकार किया है कि कैंसर नियंत्रण में गोमूत्र सहायक है।

संतों ने तो यहाँ तक बताया  है कि "कोई बीमार आदमी हो और डॉक्टर, वैद्य बोले, 'यह नहीं बचेगा' तो वह आदमी गाय को अपने हाथ से कुछ खिलाया करे और गाय की पीठ पर हाथ घुमाये तो गाय की प्रसन्नता की तरंगें हाथों की उंगलियों के अग्रभाग से उसके शरीर के भीतर प्रवेश करेगी, रोग-प्रतिकारक शक्ति बढ़ेगी और वह आदमी तंदुरुस्त हो जायेगा, 6 से 12 महीने लगते हैं लेकिन असाध्य रोग भी गाय की प्रसन्नता से मिट जाते हैं।"

भारतीय गाय की पीठ पर, गलमाला पर प्रतिदिन आधा घंटा हाथ फेरने से रक्तचाप नियंत्रण में रहता है। गोबर को शरीर पर मलकर स्नान करने से बहुत से चर्मरोग दूर हो जाते हैं। गोमय स्नान को पवित्रता और स्वास्थ्य की दृष्टि से सर्वोत्तम माना गया है। इस प्रकार भारतीय गाय की अनेक अदभुत विशेषताएँ हैं। धनभागी हैं वे लोग, जिनको भारतीय गाय का दूध, दूध के पदार्थ आदि मिलते हैं और जो उनकी कद्र करते हैं।

भारत में प्राचीन काल से ही गाय की पूजा होती रही है क्योंकि गाय में 33 करोड़ देवताओं का वास माना गया है इसलिए गाय को माता का दर्जा भी दिया है, कहते है कि बच्चा जन्मे और किसी कारणवश उसकी माता का निधन हो जाये तो बच्चे को गाय का दूध पिलाने पर जिंदा रह सकता है । कहते है कि जननी दूध पिलाती, केवल साल छमाही भर ! गोमाता पय-सुधा पिलाती, रक्षा करती जीवन भर !!

गौ-माता भारत देश की रीढ की हड्डी है। जो सभी को स्वस्थ-सुखी जीवन जीने में मदद रूप बनती है । सभी को आजीवन गौ-माता की रक्षा के लिए कटिबद्ध रहना चाहिए ।

गौमाता की इतनी उपयोगीता और उसकी हत्या हो रही है उससे लगता है कि अब वक्त आ गया है कि सभी को मिलकर गौ-माता को राष्ट्रमाता का दर्जा दिलाकर तन-मन-धन से इसकी रक्षा करनी चाहिए ।

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Monday, August 24, 2020

विज्ञान ने माना सनातन धर्म की देन है गायत्री महामंत्र चमत्कारी !

24 अगस्त 2020


हमारे जो ऋषि मुनियों ने लाखों-करोड़ों वर्ष पूर्व खोजा, उसका आज विज्ञान अनुसंधान कर रहा है। हमारे जीवन में मंत्र की महिमा कितनी है, ये ऋषि मुनियों ने हमें पहले से ही बता दिया है।



आपको बता दें कि AIIMS ने अपने अनुसंधान में स्वीकार किया कि गायत्री महामंत्र जपने से बुद्धिमत्ता बढ़ती है। AIIMS (All India Institute of Medical Science) की एक डॉक्टर और IIT (Indian Institute of Technology) के एक वैज्ञानिक ने कई वर्षों के रिसर्च में पाया कि रोज गायत्री महामंत्र जपने से बुद्धिमत्ता का विकास होता है। AIIMS ने MRI (Magnetic Resonance Imaging) द्वारा दिमाग की सक्रियता की जांच करके इस बात की पुष्टि की है कि गायत्री महामंत्र पढ़ने से दिमाग का विस्तार होता है।

AIIMS 1998 से गायत्री महामंत्र पर रिसर्च कर रहा है। इसको जप करने वालों का दिमाग औरों की बजाय शांत और जागरूक भी पाया गया। इसके जप से बुद्धिमत्ता का अनन्त विस्तार किया जा सकता है। AIIMS का ये रिसर्च अभी भी जारी है और रिसर्च पूरा होने के बाद इस पर अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट भी जारी की जाएगी।

गायत्री महामंत्र की रचना त्रेतायुग में ब्रह्मऋषि विश्वामित्र जी ने की थी। यह महामंत्र यजुर्वेद के मंत्र "ॐ भूर्भुवः स्वः" और ऋगवेद के छंद 3.62.10 के मेल से बना है। इस मंत्र में सवित्र देव की उपासना है इसलिए इसे सावित्री भी कहा जाता है।

गायत्री महामंत्र 👇🏻
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

भावार्थ:- उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें।

बता दें कि वेदों पर रिसर्च करने वाले बहुत सारे विद्वानों ने गायत्री महामंत्र की ऋग्वेद के सबसे प्रभावशाली मंत्रों में से एक माना है। हमारे देश में सदियों से ये मान्यता है कि विद्यार्थियों को गायत्री महामंत्र का पाठ करना चाहिए क्योंकि इससे दिमाग तेज होता है। इस महामंत्र का हिन्दू धर्म की परंपराओं में भी विशेष स्थान है।

देवी भागवत के अनुसार एक माला गायत्री मंत्र का जाप करने से दिन भर के पाप कटते हैं। तीन माला गायत्री मंत्र जपने से नौ दिन के पाप कटते हैं। साथ ही नौ माला गायत्री मंत्र का जाप करने से नौ महीने पहले तक के पाप कटते हैं। इसके अलावा भागवत के दसवें स्कन्द में भगवान कृष्ण के दिनचर्या का वर्णन मिलता है।

अथर्ववेद में भी गायत्री मंत्र की महिमा का वर्णन किया गया है। इस मंत्र के बारे में एक श्लोक आया है कि ”स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्ताम्, पावमानी द्विजानाम्। आयु: प्राण प्रजाम् पशु कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्। मह्यम् दत्वा ब्रजत् ब्रह्मलोकम्।।” यानि जो इस मंत्र का जाप करता है उसका दूसरा जन्म होता है, सबकुछ उसका बदल जाता है। साथ ही उसकी उम्र बढ़ती है। प्राण शक्ति भी उस मनुष्य की बढ़ जाती है। इसके अलावा वह ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है। गायत्री मंत्र का जाप करने वाले की यश और कीर्ति बढ़ती है।

हिन्दू धर्म के मंत्रों में बड़ी शक्ति होती है मंत्र जप से मनुष्य स्वस्थ्य, सुखी और सम्मानित जीवन जी सकता है। यहाँ तक कि मनुष्यता से ईश्वर तक कि यात्रा भी कर सकता है, आज वैज्ञानिक इसकी महत्ता समझ रहे हैं भारतवासियों को भी इसकी महत्ता समझकर लाभ उठाना चाहिए।

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Sunday, August 23, 2020

राम जन्मभूमि मुक्ति संघर्ष से सबक लेना चाहिए कि आखिर मंदिरों का विध्वंस क्यों होता रहा ?

23 अगस्त 2020


अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के शुभारंभ का उत्सव मनाते हुए हमें यह भी विचार करना चाहिए कि आखिर मंदिरों का विध्वंस क्यों होता रहा? सही उत्तर पाए बिना मंदिरों की सुरक्षा संदिग्ध बनी रहेगी। आज भी पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नाइजीरिया आदि देशों में मंदिरों, चर्चों के विध्वंस की घटनाएं घट रही हैं। पाकिस्तानी क्षेत्र में 1947 के बाद से सैकड़ों मंदिरों का विध्वंस हुआ।



कश्मीर में असंख्य मंदिर तोड़े गए, मंदिरों का विध्वंस कम्युनिज्म ने भी बड़े पैमाने पर किया।

बीते कुछ दशकों में कश्मीर में भी असंख्य मंदिर तोड़े गए। यह सब एक ही समस्या की विभिन्न अभिव्यक्तियां हैं। नोट करें कि चर्चों, मंदिरों का ध्वंस कम्युनिज्म ने भी बड़े पैमाने पर किया। चीन और तिब्बत में हजारों बौद्ध मठ-मंदिरों को तोड़ा गया। स्टालिन युग में रूस और पूर्वी यूरोप में असंख्य चर्चों को ध्वस्त कर वहां स्वीमिंग पूल आदि बना डाले गए थे। इसका कारण मतवादी दुराग्रह ही था। इसीलिए कम्युनिज्म के खात्मे पर उन्हीं स्थानों पर फिर चर्च बनाए गए।

इस्लामी हमलावरों ने जो काम सदियों पहले किया वही तालिबान, आइएस कर रहे हैं।

इस्लामी हमलावरों द्वारा भी दुनिया भर में चर्च, मंदिर आदि तोड़ने का कारण उनका यह मतवाद है कि इस्लाम के सिवा किसी मत को रहने नहीं देना है। इसीलिए गजनवी औरंगजेब जैसे तमाम हमलावरों एवं शासकों ने जो सदियों पहले किया वही तालिबान, जैसे मुहम्मद, आइएस आदि अभी भी कर रहे हैं। इसके पीछे मतांधता ही है। इसकी अनदेखी करने के दुष्परिणामों का अनुमान कठिन नहीं है। अभी तुर्की में इसी की झलक मिली।

ओटोमन सुल्तान मुहम्मद ने 1453 में हागिया सोफिया चर्च को जबरन मस्जिद में बदला।

चूंकि ईसाई देशों ने हागिया सोफिया को पुन: चर्च बनाने की फिक्र न की इसलिए उसे फिर मस्जिद में बदल डाला गया। इस्लाम के जन्म से भी पहले बना यह चर्च लगभग एक हजार साल तक विश्व का महत्वपूर्ण चर्च था। ओटोमन सुल्तान मुहम्मद ने 1453 में हागिया सोफिया को जबरन मस्जिद में बदला। महान तुर्क नेता मुस्तफा कमाल पाशा ने इस्लामी खलीफत खत्म करने के बाद 1935 में उसे संग्रहालय बना दिया। उसी को अभी फिर मस्जिद कर दिया गया। विस्मरण और स्मरण समानता से हो तभी विश्व में विभिन्न धर्मावलंबी साथ रह सकते हैं। किसी मतवाद को विशेषाधिकार देने पर ऐसे विध्वंस रुकने के बजाय बढ़ेंगे। यही समस्या की मूल गुत्थी है। इसे न छूने से ही भारत में मंदिरों की मुक्ति का प्रश्न लटका रह गया।

गांधी जी ने इस्लामी मतवाद पर चुप रहने की घातक परंपरा बनाई। इसलिए उसके कार्यों को रोकना कठिन हो गया। रूस में तोड़े गए चर्चों की पुर्नस्थापना इसीलिए हुई कि उससे पहले कम्युनिस्ट मतवाद पर प्रश्न उठाकर उसे पराजित किया गया। तुर्की में पाशा ने भी खलीफत, शरीयत खत्म करके ही हागिया सोफिया को संग्रहालय बनाया। इसलिए अन्य हिंदू मंदिरों की मुक्ति मुस्लिमों को राष्ट्रवाद या हिंदू भावनाओं को आदर देने जैसी बातों से नहीं हो सकती। ऐसी बचकानी दलीलें सदैव निष्प्रभावी रहेंगी।

वैश्विक साम्राज्य की चाह रखने वाले मतवादों को बचकानेपन से नहीं झुकाया जा सकता।

विश्व इतिहास से समझना चाहिए कि वैश्विक साम्राज्य की चाह रखने वाले मतवादों को बचकानेपन से नहीं झुकाया जा सकता। मानवीय समानता का यह नियम सामने रखना होगा कि दूसरों के विरुद्ध वह काम न करो जो तुम अपने विरुद्ध दूसरों से नहीं चाहते। इस समानता और सत्यनिष्ठा में ही उपाय है। राजनीतिक इस्लाम के एकमात्र सत्य होने के दावे को कसौटी पर कसकर उसकी असलियत दिखानी होगी।

अगर इस्लामी दावा असत्य है तो मुसलमानों को भी उसे छोड़कर सत्य अपनाना चाहिए।

अगर इस्लामी दावा और विशेषत: उसका मूल राजनीतिक भाग असत्य है तो मुसलमानों को भी उसे छोड़कर सत्य अपनाना चाहिए। यही समान और सत्यनिष्ठ समाधान है। आज नहीं तो कल बहस इसी पर आएगी। इस्लामी संगठन तो सदैव अपने बिंदु पर टिके रहे हैं। आश्चर्यजनक रूप से दूसरे ही इससे बचते हैं। मुस्लिम ब्रदरहुड, इस्लामिक स्टेट, तालिबानी, तब्लीगी आदि तमाम संगठन, शासक और उलेमा इस्लाम की सत्यता के दावे पर ही अपने सारे काम करते हैं। उनकी मार झेलने वाले उस दावे को चुनौती देना छोड़ बाकी सब कुछ करते रहे।

रामजन्मभूमि मंदिर: मुस्लिम पक्ष बार-बार पैंतरा बदलता रहा, हिंदुओं को स्थान न देने पर अड़ा रहा।

युद्ध, बमबारी, उदारतापूर्वक धन देना, अपीलें करना आदि, मगर जिस एक टेक पर राजनीतिक इस्लाम खड़ा है उसे खारिज नहीं करते। तब समाधान हो तो कैसे? हमें रामजन्मभूमि मंदिर के मुक्ति संघर्ष से शिक्षा लेनी चाहिए। मुस्लिम पक्ष बार-बार पैंतरा बदलता रहा, लेकिन हिंदुओं को वह स्थान न देने पर अड़ा रहा, जबकि उसका मुसलमानों के लिए कोई महत्व न था। इसकी तुलना में हिंदुओं के लिए रामजन्मभूमि और अयोध्या सदियों से पवित्र महान तीर्थों में अग्रगण्य है। इसे कुछ कथित सेक्युलर, लिबरल स्वीकार करने से अभी भी बच रहे हैं।

असल लड़ाई संपत्ति की नहीं, वरन साम्राज्यवादी मतवाद बनाम सत्य की है।

अनुभव बताता है कि अन्य हिंदू श्रद्धास्थलों की मुक्ति के लिए फिर वैसा अभियान चलाने के बजाय मूल बिंदु पर आना होगा। असल लड़ाई संपत्ति की नहीं, वरन साम्राज्यवादी मतवाद बनाम सत्य की है। समस्या यह नहीं कि कुछ मुसलमान दूसरों के तीर्थों पर कब्जा रखना चाहते हैं। समस्या वह मतवादी विश्वास है जो उन्हें इसके लिए प्रेरित करता है। जब तमाम इस्लामी संगठन दूसरों को मुसलमान बनाना अपना अधिकार समझते हैं तो उन्हें अधर्म से हटाकर सन्मार्ग पर लाना दूसरों का अधिकार है। इस्लाम को एकमात्र सत्य कहने का उत्तर उसे असत्य साबित करना है। मुसलमानों को राजनीतिक इस्लाम की गलती दिखाना एक शांतिपूर्ण कार्य है। कमाल पाशा ने ठीक यही किया था। उन्होंने इस्लामी मतवाद को पुराना एवं मृत कहकर तुर्की से निकाल बाहर किया था। यह प्रक्रिया अभी भी चल रही है।

वैचारिक चुनौती से ही चर्च की और कम्युनिज्म की तानाशाही पराजित हुई।

दुनिया भर में इस्लाम छोड़ने वाले मुसलमान यानी मुलहिद बढ़ रहे हैं। यह कम्युनिस्ट मतवाद और चर्च मतवाद के साथ पहले हो चुका है। वैचारिक चुनौती से ही मध्ययुग में चर्च की और हाल में कम्युनिज्म की तानाशाही पराजित हुई। कोई युद्ध नहीं हुआ। इस्लामी मतवाद के साथ यह और आसान है, क्योंकि आधुनिक सूचना संसाधनों के युग में सत्य-असत्य की परख करना सबके हाथ में हैं।

दुनिया में मुस्लिम आबादी का बाह्य विस्तार भले हो रहा हो, किंतु भीतर से सांस्कृतिक रिक्तता बढ़ रही है।

अब इस्लाम और शेष विश्व के इतिहास, दर्शन, साहित्य में योगदान को कोई मुस्लिम स्वयं परख सकता है। दुनिया में मुस्लिम आबादी, संस्थानों का बाह्य विस्तार भले हो रहा हो, किंतु भीतर से सांस्कृतिक रिक्तता बढ़ रही है। इमामों, अयातुल्लाओं की सेंसरशिप इंटरनेट ने बेकार कर दी है। विश्व के महान विद्वानों ने इस्लाम की समीक्षाएं की हैं। उनमें मुस्लिम भी हैं। अब वह इंटरनेट की बदौलत सुदूर गांवों तक सहज उपलब्ध है। उसे जानना और मुस्लिमों को जानने के लिए कहना चाहिए। अभी तक ऐसा न करने से ही कट्टरपंथियों ने मुसलमानों को अपनी मुट्ठी में कैद रखा है। यह कैद टूटनी चाहिए। - लेखक राजनीतिशास्त्र प्रोफेसर शंकर शरण

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Saturday, August 22, 2020

आप भी जानिए तमिल संस्कृति को कैसे वेद-संस्कृत विरोधी बनाई गई ?

22 अगस्त 2020


राजीव मल्होत्रा के पूछने पर डॉ. नागास्वामी ने विस्तार से बताया कि दक्षिण भारत की तमिल भाषा में ‘तिरुकुरल’ वैसा ही लोकप्रिय सनातनधर्मी-ग्रन्थ है, जैसा उत्तर भारत में रामायण, महाभारत अथवा गीता। इसकी रचना वहां के महान संत कवि तिरूवल्लुवर ने की है। 19 वीं सदी के मध्य में एक कैथोलिक ईसाई मिशनरी जार्ज युग्लो पोप ने अंग्रेजी में इसका अनुवाद किया, जिसमें उसने प्रतिपादित किया कि यह ग्रन्थ ‘अ-भारतीय’ तथा ‘अ-हिन्दू’ है और ईसाइयत से जुडा हुआ है। उसकी इस स्थापना को मिशनरियों ने खूब प्रचारित किया। उनका यह प्रचार जब थोडा जम गया, तब उन्होंने उसी अनुवाद के हवाले से यह कहना शुरू कर दिया कि ‘तिरूकुरल’ ईसाई-शिक्षाओं का ग्रन्थ है और इसके रचयिता संत तिरूवल्लुवर ने ईसाइयत से प्रेरणा ग्रहण कर इसकी रचना की थी, ताकि अधिक से अधिक लोग ईसाइयत की शिक्षाओं का लाभ उठा सकें। इस दावे की पुष्टि के लिए उन्होंने उस अनुवादक द्वारा गढी गई उस कहानी का सहारा लिया, जिसमें यह कहा गया है कि ईसा के एक प्रमुख शिष्य सेण्ट टामस ने ईस्वी सन 52 में भारत आकर ईसाइयत का प्रचार किया, तब उसी दौरान तिरूवल्लुवर को उसने ईसाई धर्म की दीक्षा दी थी। हालांकि मिशनरियों के इस दुष्प्रचार का कतिपय निष्पक्ष पश्चिमी विद्वानों ने ही उसी दौर में खण्डन भी किया था, किन्तु उपनिवेशवादी ब्रिटिश सरकार समर्थित उस मिशनरी प्रचार की आंधी में उनकी बात यों ही उड गई । फिर तो कई मिशनरी संस्थाए इस झूठ को सच साबित करने के लिए ईसा-शिष्य सेन्ट टामस के भारत आने और हिन्द महासागर के किनारे ईसाइयत की शिक्षा फैलाने सम्बन्धी किस्म-किस्म की कहानियां गढ कर अपने-अपने स्कूलों में पढाने लगीं।



1969 में देइवनयगम ने एक शोध-पुस्तक प्रकाशित की- ‘वाज तिरूवल्लुवर ए क्रिश्चियन ?’, जिसमें उसने साफ शब्दों में लिखा है कि सन ५२ में ईसाइयत का प्रचार करने भारत आये सेन्ट टामस ने तमिल संत कवि- तिरूवल्लुवर का धर्मान्तरण करा कर उन्हें ईसाई बनाया था। अपने इस मिथ्या-प्रलाप की पुष्टि के लिए उसने संत-कवि की कालजयी कृति- ‘तिरूकुरल’ की कविताओं की तदनुसार प्रायोजित व्याख्या भी कर दी और उसकी सनातन-धर्मी अवधारणाओं को ईसाई- अवधारणाओं में तब्दील कर दिया । इस प्रकरण में सबसे खास बात यह है कि तमिलनाडू की ‘द्रमुक’-सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने उस किताब की प्रशंसात्मक भूमिका लिखी है और उसके एक मंत्री ने उसका विमोचन किया ।

इस बौद्धिक अपहरण-अत्याचार को मिले उस राजनीतिक संरक्षण से प्रोत्साहित हो कर देइवनयगम दक्षिण भारतीय लोगों को ‘द्रविड’ और उनके धर्म को ‘ईसाइयत के निकट, किन्तु सनातन धर्म से पृथक’ प्रतिपादित करने के चर्च-प्रायोजित अभियान के तहत ‘ड्रेवेडियन रिलिजन’ नामक पत्रिका भी प्रकाशित करता है । उस पत्रिका में लगातार यह दावा किया जाता रहा है कि “सन- ५२ में भारत आये सेन्ट टामस द्वारा ईसाइयत का प्रचार करने के औजार के रूप में संस्कृत का उदय हुआ और वेदों की रचना भी ईसाई शिक्षाओं से ही दूसरी शताब्दी में हुई है, जिन्हें धूर्त ब्राह्मणों ने हथिया लिया” । वह यह भी प्रचारित करता है कि “ब्राह्मण, संस्कृत और वेदान्त बुरी शक्तियां हैं और इन्हें तमिल समाज के पुनर्शुद्धिकरण के लिए नष्ट कर दिये जाने की जरूरत है।

हिंदुस्तानियों को आपस में तोड़कर राष्ट्र विरोधी ताकते राज करना चाहती हैं इसलिए कभी जातिवाद तो कभी हिंदू विरोधी एजेंडे तो कभी धर्मान्तरण आदि का खेल खेला जा रहा है, ईसाई मिशनरियों की इसमे मुख्य भूमिका रहती हैं। वे मीठे जहर की तरह हैं, किसी को पता नही चलने देते हैं, हिंदुओं का ब्रेनवॉश करने में माहिर होते हैं, इसलिए हिंदुस्तानियों को सावधान रहने की आवश्यकता है।

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